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________________ गा. २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिअंतरं ३२६ - ५५२. तिण्णिले० मिच्छत्त०-बारसक० उक्क० ज० अंतीमु०, उक्क० सगहिदी देसणा । अणक. ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० अंतरं ज. अंतोम०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणक्क० एवं चेव । णवरि जह• एगसमओ। णवणोक० उक्क० जह० एगसमो, उक्क. सगहिदी देसणा। अणक्क० ओघं। अणताण०चउक्क. उक्क० बारसकसायभंगो । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसणा । तेउ०पम्म० मिच्छत्त-बारसक० ज० अंतोमु० । उक्क. सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघ । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० एवं चेव । णवरि जह० एयस । णवणोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा। अणुक्क० ओघं । सुक्कले० सम्मत-सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० एक्कचीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु०चउक्क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० अंतोमु० । उक० एक्कतीस सा० देसणाणि । सेस. उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं । ६५५२. कृष्ण आदि तीन लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थिति का अन्तर इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरका भंग बारह कषायों के समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । पीत और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कष्ट स्थितिका अन्तर इसी प्रकार है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर एक समय है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर अघिके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ—कृष्णादि पांच लेश्याओंका उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। और इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है । तथा ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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