SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wvvv wwwwwwwwwww गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियसरिणयासो ४८६ सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखे भागेणूणाओ। अरदि-सोग० किमुक्क० अणुक्क० १ णियमा अणुक्कस्सा । समयूणमादि कादृण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखे०भागेणूणाश्रो । रदि-भय-दुगुंछाओ किमुक्क० अणुक्क० १ णियमा उक्कस्सा । एवं रदि०। ___८२३. अरदि० उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणक्कस्सा समयणमादिं कादण जाव पलिदो० असंखे०भागेणूणा । सम्मत्त-सम्मामि० मिच्छत्तभंगो। सोलसक० णqसगभंगो । इत्थिपुरिस-णqसयवेदाणं रदिभंगो । हस्स-रदि० किमुक्क० १ णियमा अणुक्क० । समयूणमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडि ति । सोग-भय-दुगुकाणं णियमा उक्कस्सा । एवं सोग। . ८२४. भय० उक्क० हिदिवि० मिच्छत्त०-सम्म० - सम्मामि० - सोलसक०तिण्णिवेद० अरदिभंगो । हस्स-रदि-अरदि-सोग० णवंसयभंगो । दुगुछ० किमुक्क० अणुक्क ? उक्क० । एवं दुगंछ० । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपंचिंदियतिरि० पज्ज.पंचिंतिरि०जोणिणी०-मणुसतिय०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०पंचिं०-पंचि०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि० -कायजोगि० -ओरालि०स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोडाकोड़ी सागर तक होती है । अरति और शोककी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। रति, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार रति प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। ८२३. अरति प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थितितक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। सोलह कषायोंका भंग नपुंसकवेदके समान है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदका भंग रतिके समान है। हास्य और रतिकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। तथा शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकार शोकप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। १८२४. भयप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और तीन वेदोंका भंग अरतिके समान है। हास्य, रति, अरति और शोकका भंग नपुंसकवेदके समान है। जुगुप्साकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार जुगुप्सा प्रकृतिकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। इसी प्रकार सब नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पचेन्द्रिय तियच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी पांचों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy