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________________ १६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ पदा भयणिज्जा । एवं मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-ओहिदंस०-सुक्क०-सम्मादि-खइय०-वेदय दिहि त्ति । उवसम० दो हाणी भयणिज्जा । एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । $ २६५. भागाभागाणुगमेण दुविहो णि(सो-ओघेण आदेसेण य । श्रोघेण असंखे भागवड्डी० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखे० भागो। अवहि० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? संखेज्ज०भागो । असंख०भागहाणी. सव्वजी० के० ? संखेज्जा भागा। सेसपदा सव्वजीवा के० ? अणंतिमभागो । एवं तिरिक्व०-सव्वएइंदिय - वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त -सुहुमवणप्फदि०सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-णिगोद० - बादरणिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्तसुहुमणिगोद०-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त - कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०कम्मइय०-णqस०-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि० से हैं। तथा शेषपद भजनीय हैं। इसी प्रकार मनःपययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें दो हानियां भजनीय हैं। विशेषार्थ-प्राभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके असंख्यात भागहानि की अपेक्षा एक ध्र वपद है और संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यात गुणहानि ये तीन पद अध्रुव हैं अतः यहां ध्रुव भंगके साथ कुल भंग २७ होंगे। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी; संयत, सामायिकसंवत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके २७ भंग जानना चाहिये। किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके असंख्यात गुणहानि नहीं होती, अतः यहां एक ध्रुषपद और दो भजनीय पद हुए और इसलिये कुल भंग नौ होंगे। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि ये दो पद ही होते हैं। किन्तु दोनों भजनीय हैं अतः यहां कुल भंग आठ होंगे। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। ६२६५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -श्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। असंख्यात भागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। शेष पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं। अनन्तवें भाग हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादरनिगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पयोप्त, सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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