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________________ १७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ३२०. श्रादेसेण णेरइएसु असंखेजभागहाणी-अवहि० के० ? सव्वद्धा । सेसपदा० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देव०भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिं०अपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-बादरपुढविपज०-बादराउपज्ज० - बादरतेउपज्ज० - बादरवाउपज्ज-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्ज-तसअपज०-वेउब्धिय०-विहंग०-तेउ०-पम्मलेस्से ति ।। ३२१. तिरिक्खा ओघं । णवरि असंखे०गुणहाणी णत्थि । एवमोरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि-सुदअण्णा०-असंजद० - तिण्णिलेस्सा०-अभव०-मिच्छादि०असण्णि-अणाहारि त्ति । $ ३२२. मणुस० पंचिं०तिरिक्खभंगो । णवरि असंखे०गुणहाणी० ओघं । एवं पंचिं०-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस-चक्खु०-सण्णि त्ति। मणुसपज०-मणुसिणी० एवं चेव ? णवरि जम्हि आवलि० असंखे० ६३२०. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । तथा शेष पदवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, बस अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, विभंगज्ञानी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-नारकियोंमें असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थिति ये दो ध्रुव पद हैं अतः यहां इनका सर्वदा काल कहा । इसी प्रकार आगे भी जानना । तथा शेष पद अध्रुव हैं फिर भी यदि वे निरन्तर रहें तो कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक निरन्तर पाये जाते हैं अतः शेष पदोंका जघन्य काल एक समय और • उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। सातों नरकके नारकी आदि कुछ ऐसी मागणाएं है जिनमें उक्त प्ररूपणा अविकल बन जाती है, अतः इनमें सब सम्भव पदोंका काल सामान्य नारकियोंके समान कहा । ___६३२१. सामान्य तिर्यंचोंके ओघके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानि नहीं पाई जाती है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । ६३२२. सामान्य मनुष्यों के पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानिका काल ओघके समान है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, बस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पहले जहाँ आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ इनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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