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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयाडहिदिविहत्तियसरिणयासो ४५१ होदि । एस वियप्पो सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिदूणित्थिवेदम्मि संकामिदे लद्धो । पुणो अण्णेगेण जीवेण सोलसकसायाणं बद्धसमयूणुक्कस्सहिदिणा पडिहग्गसमए चेव इत्थिवेदं बंधमाणेण तस्सुवरि संकामिदबंधावलियादिक्कंतकसायहिदिणा तेण इत्थिवेदस्स समयूणुक्कस्सहिदिधारएण तत्तो उवरि अवहिदमंतोमुहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए एसो इत्थिवेदस्स विदियवियप्पो होदि, पुव्वुत्तहिदि पेक्खिदूण समयूणत्तादो। पुणो अण्णेण जीवेण सोलसकसायाणं बद्धदुसमयूणुक्कस्सहिदिणा पडिहग्गसमए इथिवेदं बंधमाणेण तदुवरि संकामिदबंधावलियादिक्कंतकसायहिदिणा अवहिदमतोमहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए इत्थिवेदस्स अण्णो वियप्पो होदि; पुव्वुत्तहिदि पेक्खिदूण दुसमयूणत्तादो । पुणो अण्णेण जीवेण बद्धतिसमयूणसोलसकसायुक्कस्सहिदिणा पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधतेण तदुवरि संकामिदबंधावलियादिक्कतकसायहिदिणा अवहिदमंतोमहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदण मिच्छत्त क्कस्सहिदीए पबद्धाए इत्थिवेदस्स अण्णो वियप्पो होदि; पुव्वुत्तहिदि पेक्खिद्ण तिसमयूणत्तादो । एवं चदुसमयूण-पंचसमयूणादिकमेण सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधाविय बंधावलियादिक्कतकसायद्विदिमित्थिवेदसरूवेण संकामिय मिच्छत्तु क्कस्सहिदि देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम होती है। यह विकल्प सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उसका स्त्रीवेदमें संक्रमण कराने पर प्राप्त होता है। पुनः जिसने सोलह कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक जीव जब प्रतिभग्न होनेके समयमें ही स्त्रीवेदका बन्ध करके उसमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण करता है तब वह स्त्रीवेदकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका धारक होता हुआ इसके आगे अवस्थित अन्तर्मुहूर्त तक ठहर कर और उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है। उस समय उसके स्त्रीवेदका यह दूसरा विकल्प होता है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति एक समय कम है । पुनः जिसने सोलह कषायोंकी दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है और प्रतिभग्न होनेके समयमें स्त्रीवेदका बन्ध करते हुए उसमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया है ऐसा कोई एक अन्य जोव अवस्थित अन्तर्मुहूर्त तक ठहर कर और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उस समय उसके स्त्रीवेदका अन्य विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति दो समय कम है। पुनः जिसने सोलह कषायोंकी तीन समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है और प्रतिभम होनेके समयमें स्त्रीवेदका बन्ध करते हुए उसमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया है ऐसा कोई एक अन्य जीव अवस्थित अन्तर्मुहूर्त ठहर कर और उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उस समय उसके स्त्रीवेदका एक अन्य विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति तीन समय कम है। इसी प्रकार चार समय कम, पांच समय कम इत्यादि क्रमसे पहले सोलह कषायोंको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके तदनन्दर प्रतिभन्न समयमें स्त्रीवेदका बन्ध कराके और बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण कराके तदनन्तर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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