SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ २६० आदेसेण णेरइएसु असंखेज्जभागवड्डी केव• ? जह० एगसमओ, तब संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त हाता है । अथवा जो तेइन्द्रिय जीव स्वस्थानमें संक्लेशक्षयसे एक समय तक संख्यात भागवृद्धि करके और दूसरे समयमें मरकर तथा चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर चौइन्द्रियोंके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध करता है उसके संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय पाया जाता है । तथा जो एकेन्द्रिय एक मोड़ा लेकर संज्ञियोंमें उत्पन्न होता है उसके पहले समयमें श्रसंज्ञीके योग्य स्थिति बन्ध होता है जो कि एकेन्द्रियके स्थितिसत्त्वसे संख्यातगुणा है और दूसरे समयमें शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिबन्ध होता है जो कि असंज्ञीके योग्य स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है अतः संख्यात गुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है क्योंकि समान स्थितिको बांधनेवाले जिस जीवने एक समय तक पूर्व स्थितिसे असंख्यातवें भाग कम स्थितिका बन्ध किया और दूसरे समयमें पुनः सत्त्वके समान स्थितिका बन्ध करने लगा उसके असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त और पल्यके असंख्तातवें भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। उसका खुलासा इस प्रकार है-कोई मिथ्यादृष्टि भोगममियां, आयुमें पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर उपशम सम्यक्त्व क कर संख्यात भागहानि कर, मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । उस समयसे असंख्यात भागहानि प्रारंभ हो गई। आयुके अन्तमें वह वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया और छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा । पुनः अन्तमुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्वके साथ रहा और तदनन्तर वह पुनः वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया और छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा तथा अन्तमें इकतीस सागर की आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यादृष्टि हो गया। तदनन्तर वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें उपन्न हुआ और एक अन्तमुहूर्तके बाद भुजगार स्थितिको प्राप्त हो गया। इस प्रकार इस जीवके असंख्यात भागहानिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त और पल्योपमके असंख्यालवें भागसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर पाया जाता है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण है। इसका खुलासा इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें या अन्यन्त्र जब पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकका घात होता है तब संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा सूक्ष्मसांपरायिक क्षपकके अन्तिम दो समय कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण काल तक संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। जो जीव सत्तर कोडाकोड़ी प्रमाण स्थितिके संख्यात बहुभागका घात करता है उसके तथा अन्यत्र अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यात गुणहानि पाई जाती है अतः संख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा अनिवृत्ति करणक्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सवेद भागमें स्थितिकांडक की अंतिम फालिके पतनके समय असंख्यात गुणहानि होती है, अतः असंख्यात गुणहानिका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा अवस्थित स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि, जो जीव एक समय तक अवस्थित स्थितिको प्राप्त होकर दूसरे समयमें भुजगार या अल्पतर स्थितिको प्राप्त हो जाता है उसके अवस्थित स्थिति एक समय तक ही पाई जाती है तथा जो लगातार अन्तमुहूर्त काल तक अवस्थित स्थितिके साथ रहकर भुजगार या अल्पतर स्थितिको प्राप्त होता है उसके अवस्थित स्थितिका अन्तमुहूर्त काल पाया जाता है । अचक्षदर्शनी, भव्य, त्रस और जसपर्याप्तक जीवों के यह ओघ प्ररूपणा अविकल बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा। ६२६०. प्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें असंख्यातभागवृद्धिका कितना काल है ? जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy