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________________ १६१ . गा० २२ ] हिदिविहत्तीए वडढीए भंगविचओ अपज्ज०-कायजोगि-ओरालिय०--ओरालियमिस्स०-कम्मइय०-णवुस०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०मिच्छादि०-असण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति । णवरि भंगा जाणिय वत्तव्वा । प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञनी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके भंग जान कर कहना चाहिये। विशेषार्थ—मोहनीय कर्मकी स्थितिमें असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये चार हानियां तथा अवस्थित इस प्रकार आठ पद पाये जाते हैं। इनमेंसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदवाले नाना जीव नियमसे पाये जाते हैं, इसलिये इनका एक ध्रुव भंग हुआ। किन्तु शेष पांच पद भजनीय हैं। उनमेंसे किसी एक पदवाला कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित् नाना जीव होते हैं। यह भी सम्भव है कि कदाचित् किसी एक पदवाला एक या नाना जीव हों तथा उसी समय उससे भिन्न अन्य पदवाले भी एक या नाना जीव हों। इस प्रकार इन भजनीय पदोंके भंगोंमें एक ध्र व भंगके मिलाने पर कुल भंगोंका जोड़ २४३ होता है । यथा १ ध्रुव भंग २ संख्यातभागवृद्धिके एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा ३ कुल जोड़ ६ संख्यातभागवृद्धिके प्रत्येक और संख्यातगुण वृद्धिके साथ एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा संयोगी भंग ६ कुल जोड़ . १८ संख्यात भागहानिके प्रत्येक व पूर्वोक्त दो पदों के साथ संयोगी भंग २७ कुल जोड़ ५४ संख्यातगुणहानि के प्रत्येक व पूर्वोक्त तीन पदोंके साथ संयोगी भंग ८१ कुल जोड़ १६२ असंख्यातगुणहानिके प्रत्येक व पूर्वोक्त चार पदोंके साथ संयोगी भंग २४३ कुल जोड़ मूलमें ध्रु व भंगको सम्मिलित न करके केवल भजनीय पदोंके २४२ भंग कहे हैं और ध्रुव भंगको अलग बतलाया है। अब यदि इन २४२ भंगोंमें ध्र व भंग भी मिला दिया जाता है तो कुल भंगोंका जोड़ २४३ होता है जैसा कि हमने पूर्वमें घटित करके बतलाया ही है। आगे सामान्य २१ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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