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________________ २६२ . जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ उवसमसेढिं चडिदूण देवेसु उववण्णो से काले सरीर पज्जत्ति गाहिदि त्ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । अणंताणु०चउक्क० ज० कस्स ? अण्ण. जो अहावीससंतकम्मिओ संजदो देवेसुववण्णो से काले सरीरपज्जतिं गाहदि त्ति तस्स जहण्णहिदि विहत्ती । बारसक०-भय-दुगुछ० मिच्छत्तभंगो। णवरि खइयसम्माइटी देवेसु उप्पाएदव्यो । सम्मत्त-सम्मामि०-सत्तणोक० पढमपुढविभंगो । ४६६. आहार० मिच्छत्त-समत्त-सम्मामि० ज० कस्स ? अण्ण. जो चउबीससंतकम्मिश्रो चरिमसमयाहारसरीरो तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । एवं बारसक०-णनणोक० । वरि खइयसम्मादिहिस्स वत्तव्वं । अणंताणु० ४ ज० कस्स ? अण्ण. अट्ठावीससंतकम्मियस्स । एवमाहारमिस्स० । णवरि से काले सरीरपज्जनिं गाहदि त्ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती। ४६७. कम्मइय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० कस्स ? अण्ण. जो बादरेइंदिश्रो हदसमुप्पत्तियकम्मेण विदियं विग्गहं गदो तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि सम्मामि० उव्वेल्लणाए कायव्वं । ४६८. वेदाणुवादेण इत्थिवेदे मणुस्सिणीभंगो। णवरि सत्तणोक०-चत्तारि है ? जो यथासंभव उपशमश्रेणी पर चढ़कर देवोंमें उत्पन्न हुआ और तदन्तर कालमें शरीर पर्याप्ति को प्राप्त होगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विभक्ति किसके होती है ? अट्ठाइस सत्कर्मवाला जो कोई एक संयत जीव देवोंमें उत्पन्न होकर तदन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको प्राप्त होगा उसके जवन्य स्थितिविभक्ति होती है। इनके बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग मिथ्यात्वके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थितिविभक्ति कहते समय क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवको देवोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है। ६४६६. आहारककाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो चौबीस सत्कर्मवाला जीव आहारकशरीरी हुआ उसके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इन कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके कहनी चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अट्ठाईस सत्कर्मवाले किसी एक जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो तदनन्तर कालमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त करेगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। १४६७ कार्मण काययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बाहर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ द्वितीय विग्रहको प्राप्त हुआ है उसके जघन्य स्थितिविरक्ति होती है। इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति उद्वेलनामें कहनी चाहिये। ६४६८. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें मनुष्यनीके समान भंग है। किन्तु इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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