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________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ २६२. देव० तिण्णि वड्डी दो हाणी अवहि० णिरोघं । असंखे०भागहाणी के ? ज० एगसमो, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । भवण-वाण-जोइसि०. एवं चेव । णवरि असंखे भागहाणी के० ? ज० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सहिदी देसूणा । सोहम्मादि जाव सहस्सार त्ति एवं चेव । णवरि असंखे०भागहाणी के० ? जह• एगसमओ, उक्क० सग०हिदी। आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज त्ति असंखेज्जभागहाणी के० ? ज० अंतोमु०, उक्क० समक्कस्सहिदी । संखेज्जभागहाणी के० ? जहण्णुक्क० एगसमओ। अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति एवं चेव । २६३. इंदियाणुवादेण एइंदिएमु असंखे भागवड्डी के० ? जह० एगसमओ, उक्क० वे समया। असंखेज्जभागहाणी के० ? जह एगसमओ, उक्क० शेष रह गया तब उसका त्याग किया है उसके असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। शेष कथन सुगम है। प्रथमादि नरकोंमें असंख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष कथन इसी प्रकार जानना। किन्तु असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना। यहां कुछ कमसे भव अन्तम हत काल लेना चाहिये। जो तियच तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है उसके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य प्राप्त होता है। पंचेन्द्रिय तिथंच त्रिकके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि संक्लेशक्षयसे ही प्राप्त होगी अतः यहां इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । लब्ध्यपर्याप्त पंचेद्रिय तियेचका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा । श्रोघसे संख्यात भागहानि और असंख्यात गुणहानिका जो उत्कृष्ट काल कहा है वह मनुष्य पर्याय में ही बनता है अतः मनुष्यत्रिक के उक्त दो हानियोंका काल ओघके समान कहा । इस प्रकार अोघप्ररूपणाका और नरकादि तीन गतियोंका जो खुलासा किया है उसीसे आगेकी मार्गणाओं में जहाँ जितनी हानि और वृद्धियाँ सम्भव हों उनके कालका खुलासा हो जाता है अत: आगे नहीं लिखा जाता है । हाँ जहाँ कुछ विशेषता होगी वहाँ अवश्य निर्देश कर देंगे। २६२. देवोंमें तीन वृद्धियों, दो हानियों और अवस्थितविभक्तिका काल सामान्य नारकियों के समान है। तथा असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेसीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक के देवोंमें असंख्यात भागहानि का कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। ६२६३. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यात भागहानिका कितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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