SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५४ अथधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ हिदिविहती ३ बंधाविय ओदारेदव्वं जाव गवुसयवेदस्स ओघुक्कस्सहिदी एगेणाबाधाकंडएणूणा जादा त्ति। ६७४७. एदिस्से हिदीए उप्पत्तिविहाणं वुच्चदे । तंजहा–मिच्छत्त-सोलसकसायाणमाबाहाकंडएणूणउक्कस्सहिदिमावलियमेत्तकालं बंधाविय पुणो उकस्ससंकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए तक्काले आवाधाकंडएणूणावलियादीदकसायहिदि णव॑सयवेदस्सुवरि संकामिय मिच्छत्तक्कस्सहिदीए पबद्धाए णवुसयवेदस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । कुदा ? आवलियम्भहियआबाहाकंडएणूणचत्तालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदित्तादो । एवं जाणिदण अोदारेदव्वं जाव बीसं सागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदि त्ति । ६७४८. संपहि वीसंसागरोवमकोडाकोडिपमाणे इच्छिज्जमाणे सोलसकसायाणमावलियब्भहियवीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिमावलियमेत्तकालंबंधाविय पुणो उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदिवज्झमाणसमए पुव्वुत्तावलियादीदकसायहिदीए णवं सयवेदसरूवेण संकंताए णव'सयवेदहिदी अणुक्कस्सा होदि; वीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो । पुणो समयूणाबाहाकंडयमेतहिदिमप्पणो बंधमस्सिदणोदारिय गेण्हिदव्वं । एवमरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं पि वत्तव्यं, वीससागरोवमकोडाकोडिहिदिबंधादीहि तत्तो विसेसाभावादो । एवं मिच्छत्रेण सह सव्वपयडीणं सण्णियासो गदो।। नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण कराके तथा संक्रमणके समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके नपुंसकवेदकी ओघ उत्कृष्ट स्थिति एक आबाधाकाण्डक कम होने तक घटाते जाना चाहिये । ६७४७. अब इस स्थितिके उत्पन्न होनेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी एक श्राबाधाकाण्डक न्यून उत्कृष्ट स्थितिका एक आवलि कालतक बन्ध कराके पुनः उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके उसी समय एक आबाधाकाण्डक कम और एक आवलि रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदमें संक्रमण कराने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि यह स्थिति एक श्रावलि अधिक आबाधाकाण्डक कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है। इसी प्रकार जानकर बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक नपुंसकवेदकी स्थिति घटाते जाना चाहिये। ६७४८. अब बीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिके इच्छित होने पर सोलह कषायोंकी एक श्रावलि अधिक बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिका एक आवलि कालतक बन्ध कराके पुनः उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके उस समय पूर्वोक्त एक आवलिसे रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण होने पर नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि यह स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर है। पुन: अपने बन्धकी अपेक्षा एक समय कम आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितिको घटाकर ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध आदिकी अपेक्षा नपुंसकवेदसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार मिथ्यात्वके साथ सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy