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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए कालो ७४ पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज० मोह • जहण्णहिदी जहएणुक्क० एगसमओ । अजहण्ण० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी । ७५. पंचकायमुहुमाणं सुहुमेइंदियभंगो। बादरपुढवि०-बादरआउ०-बादरतेउ०-बादरवाउ०-बादरवणप्फदिपत्रेय० तेसिं पज्जत्त० जहण्णहिदी ज० एयसमी, उक्क० अंतोमु०। अजहण्ण० जह० एगसमत्रो, उक्क० सगहिदी । वणप्फदि०-णिगोद. क्रमसे दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और दो समय कम अन्तमुहूर्त है या एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात हजार वर्ष है। विशेषार्थ-जिस एकेन्द्रियने हतसमुत्पत्ति क्रमसे विकलत्रयके योग्य जघन्य स्थिति प्राप्त की अनन्तर वह मरा और दो मोड़ोंके साथ विकलत्रयोंमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहले और दूसरे मोड़ेमें जघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः विकलत्रयके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा। यहां यह जो जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है सो जो जीव एकेन्द्रियोंमेंसे 'आकर विकल कलत्रयों में उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षासे बतलाया है यही यहां परस्थान स्वामित्वका अवलम्बन है। तथा इन दो समयोंको खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तमुहूर्त कालमेंसे घटा देने पर जो दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण काल शेष रहता है वह सामान्य विकलत्रयों के मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। तथा जो दो समय कम अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है वह पर्याप्त विकलत्रयोंके मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। तथा इन दोनों प्रकारके विकलत्रयोंके अजघन्य स्थितिका जो जघन्यकाल एक समय बतलाया है सो यह मूलोच्चारणाके पाठके अनुसार बतलाया है और इसका खुलासा जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच चतुष्कके कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । उक्त दोनों प्रकारके विकलत्रयोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है और इतने कालतक इनके मोहनीयकी अजघन्य स्थिति प्राप्त होनेमें बाधा नहीं आती है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है । ७४. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्तक जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और अन्तमुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। शेष कथन सुगम है। ७५. पाँचों स्थावरकाय तथा उनके सूक्ष्म जीवोंके सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर जीवोंके तथा इन सब पर्याप्त जीवोंके जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्वकाल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ठ सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। वनस्पतिकायिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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