Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - RAILAWASAKALASTRAUTTATREATMAL श्रीमदू राजकन्न जैन शास्त्रमाला स्यामि-कुमार-विरचिता कार्तिकेयानुप्रेक्षा WERHITRAKARMATKALPANJALISAYANAVIDEOSW (कतिगेयाणुष्पेक्खा) प्रामाणिकरीत्या शुभचन्द्रविरचितया संस्कृतटीकया समेता पाठान्तरादिभिः प्रस्तावनादिभिश्च समलंकृता 'कोल्हापुर' 'राजाराम कॉलेज' महाविद्यालये अर्धमागधीभाषाध्यापकेन उपाध्यायोपाहब नेमिनाथतनय-आविनाय इत्यनेन पं. कैलाशचन्द्र शास्त्रिकृत हिन्दीभाषानुवादेन सह संपादिता । प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् रामचंद्र आश्रम, अगास मगत मूल्य : रू. ४२/-: बिक्री मूल्य : रू.१८/श्री वीरनिर्वाण संवत् मूल्य रू. २८/ श्री विक्रम संवत् २५१६ २०४६ WYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYYY W WSUNDARKAVITATION Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “भगवान तीर्थकर भी बारह भावनाओंके स्वभावका चिन्तन करके संसार, येह एवं भोगसे विरक्त हुए है। ये चिन्तनाएं वैराग्यकी माता हैं । समस्त जीवोंका हित करनेवाली हैं। अनेक दुःखोसे व्याप्त संसारी जीवोंके लिये ये चिन्तनाएँ अति उत्तम शरण है। दुःखरूप अग्निसे संतप्त जीवोंके लिये शीतल पवनके मध्यमें निवासके समान है। परमार्थमार्गको दिखानेवाली है। तत्त्वका निर्णय करानेवाली हैं । सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाली हैं। अशुभ ध्यानका नाश करनेवाली हैं। इन द्वावा चिन्तनाओं के समान इस जीवका हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं हैं । घेद्वादशांगका रहस्य है ।" - श्रीमद् राजचंद्र "कर्मगति विचित्र है । निरन्तर मैत्री, प्रमोव, करुणा और उपेक्षा भावना रखियेगा । मैत्री अर्थात् सर्व जगतसे निवरबुद्धि ; प्रमोव अर्थात् किसी भी आत्माके गुण देखकर हर्षित होना; करुणा अर्थात् संसारतापसे दुःखी आत्माके दुःखसे अनुकम्पा आना; और उपेक्षा अर्थात् निःस्पृहभावसे जगतके प्रतिबन्धको भूलकर आत्महितमें आना । ये भावनाएं कल्याणमय और पात्रता देनेवाली हैं।" --श्रीमद् राजचंद्र भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविता । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥ गुणभद्र-आत्मानुशासन, २३८ :. STATEar:" । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! Table of Contents Preface by the Editor प्रकाशकीय निवेदन श्रीमद् राजचंद्र Introduction 1) CRITICAL APPARATUS 2) ANUPREKĻAS a) Etymology and Meaning b) What They are in General c) Their Position in Jaina Ideology d) Their Purpose and Scope e) Their Twofold Enumeration 3) ANUPREKA IN JAINA LITERATURE a) Canonical Strata b) The Tattvärthasutra and Its Commentaries e) Detailed Exposition d) Incidental Exposition e) Use of the Term Bhāvanā f) Concluding Remarks g) Counterparts of Anuprekes in Buddhis 4) KATTIGEYANUPPEKKHA a) Ita Genuine Title b) Formal Description e) Sammary of the Contents d) A Comparative Study e) A Compendium cd Jaina Dogmaties f) Ita Anthor g) Ite Age h) Its Prakrit Dialect 5) Subhacandra and His Sanskrit Commentary a) Details about Subbacandra b) His Various Works e) His Tiks on the K-Anuprekṣā VII VIII IX-XVI 1-88 1-6 6-10 6 7 7 9 10 i) Its General Nature ii) Its Striking Indebtedness to Others iii) Some Works and Authors mentioned by Subhacandra iv) Value of the Tika for K.-Anupreks v) Subhacandra as an Author and Roligious Teacher INDEX TO INTRODUCTION 11-42 11-20 20 31-30 30-38 38-40 40 40-43 43-79 43 43 44-60 60-62 63-64 64-67 67-72 73-78 79-80 79 82 83-88 83 84 85 86 87-88 89-90 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-396 397-440 441-448 कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी विषयसूची Prakrit Text, Sanskrit Commentary and Hindi Anuvāda Kattageyānuppekkhă: Text with Various Readings Index of Gathas Alphabetical Index of quotations in the Sanskrit commentary with their sources Index of Technical Terms Index of Proper Nanos Index of Works Referred to 449-465 466-69 469-71 472 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preface (First Edition) The Bärasx-Anwěkkhai, or what is usually known as Kartikeydnuprckout (in Prakrit, Kattige ynzppokkhi ), of Svāmi Kumāra is an exhaustive treatisc dealing with Jaina doctrines, especially the twelve Anuprekşis. By virtue of Jayacandra's Vacanikā in Hindi, ít attained great popularity among the Jainas; and it had already attracted the attention of R. G. BHANDARBAR and R. PrSohel among the oriental scholars. A critical edition of it was a long-felt desideratum. I yearned since long to bring out a critical edition of the Kiktigcycintypekkha; and after long-drawn and chequered labours I feel relieved that I am putting in the hands of scholars its critically edited Text along with the only available) Sanskrit commentary of Subhacandra. For the general ader, the Hindi Translation also is included here. The Anuprckşās, as topics of reflection, are of great religious significance; and in Jainism, they have played a fruitful rôle. Their significance, scope and purpose and their evolution through and exposition in different strata of Jaina literature are discussed in detail in the Introduc. tion. Different aspects of the text are critically studied, and fresh light is thrown on the personality and age of Syáni Kumāra. Subhacandra's commentary is presented as satisfactorily as possible from the available Ms. Personal details about him and his literary activities are collected ; and the contents, sources and language of his commentary are critically scrutinised. For reasons beyond my control, the work lingered in the press for a long time; and I feel sorry that many of my friends and colleagues were kept waiting for it. But for the personal interest of the Managers of the Nirnaya Sāgara Press, especially Shri R. L. SHIKA KAK and F. S. Kals, the Introduction would not have been printed 80 speedily. I offer my sincere thanks to the late Br. SHITALPRASADAJI who was keenly interested in this edition and secured two Mss, from Lucknow for my use, My thanks are also due to Svasti Sri LAKSMÍRNA Bhattāraka, Kolhapur, Shri PANNALAL JAINA AGRAWAL, Delhi, and the Curator, Bhandarkar Oriental Research Institute for the loan of Mss. It was very kind of Pt. KAILARHCHANDRA SHASTRI, Banaras, who prepared the Hindi Anuvāda and extended his cooperation to me in various ways. Thanks are also due to Muni Sri PUNTAVAYAJI, Ahmedabad, Dr, P. L. VAIDS, Poona, Pt. DALASUKHABHAI MALAVANJA, Ahmedabad, Dr. P. K. GOD, Poona, Dr. HIRALAL JAIN, Muzaffarpur, Pt. BALACHANDA SHASTRI, Sholapur, and Pt. JINADAN SAASTRI, Sholapur, for their suggestions etc. in different contexts. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIII Lately, the management of the Rāyacandra Jaina Śästramálā has changed hands, and it is looked after by Shri RAQJIDHAL Dagai of Srimad Rajacandra Aśrama, Agas, who is pushing its publications with keen interest and great zeal. My thanks are due to him for all his kind cooperation, and also to the Trustees of the Aśrama, Agas, who are making worthy efforts for the progress of this Šāstranálā. During the last thirty years, I have uniformly drawn upon the scholarship and goodness of Pt. JUGALKISHORE MUKTHAB, Delhi, and Pt. NATHURAN PREMI, Bombay, throughout my scholastic activities; and if I dedicate this book to them on the eve of my retirement from service, I am only doing, in my humble way, a little of duty which I owe to these great scholars. What pains me most and moves me is that Pe, P&EMUI did not live to see this book puhlished. The Editor acknowledges his indebtedness to the University of Poona for the grant-in-aid given towards the publication of this book. karmanyevddhikārs te Rájörērn Collage, Kolhupur Mahavir Jayanti A. N. Upadhye 9-4-1980 प्रकाशकीय निवेदन (प्रथम संस्करण) श्री स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी नवीन आवृत्ति आज इस संस्थाकी ओरसे प्रकाशित हो रही है। इसमें श्रीशुभचन्द्र की संस्कृत टीका तथा जैन समाजके प्रसिद्ध विद्वान पं. फैलाश चन्द्रजी शास्त्रीका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है। इससे इसमें सोनेमें सुगन्ध आगई है। यह आवृत्ति पाठकोंके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। संस्कृत अभ्यासी भी इससे लाम उठा सकेंगे। अभी तक इसकी कोई संस्कृत टीका प्रकाशमें नहीं आई थी। संस्थाधिकारियोंने इसको प्रकाशित कराके वीतराग वाणीकी अपूर्ष सेषा वारा पुण्यानुबन्धी पुण्य का संचय किया है। इसके सम्पादन तथा संशोधनमें श्रीमान् डॉक्टर आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, प्रोफेसर, राजाराम कालेज, कोल्हापुर, ने काफी परिश्रम उठाया है । आपने अपनी सर्व शक्ति से इसे सुन्दर तथा रोचक बनानेका जो प्रयत्न किया है उसके लिये यह संस्था सदा आपकी आभारी है। श्री उपाध्यायजी आज विश्वके साहित्यकारों में मुख्य माने जाते हैं। आपके द्वारा अनेक अन्योंका सम्पादन हुआ है, तथा वर्तमानमें हो रहा है। , हमें आशा है कि भयिध्यमें भी आप इस प्रन्थमालाको अपनी ही समझकर सेषामें सहयोग देते रहेंगे। श्रीमद राजचन्द्र आश्रम, ) अगास, वाया आणंद, निवेदक फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा रावजीभाई देसाई ता.१३-३-६० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महारा FOR श्रीमद् राजचंद्र जन्म : ववाणिया वि. सं. १९२४, कार्तिक पूर्णिमा, रविवार देहविलय : राजकोट वि. सं. १९५७ चैत्र वदी ५, मंगलवार Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस युगके महान तस्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र जिस महापुरुषकी विश्वविहारी प्रज्ञा थी, अनेक जन्मोंमें पाराधित जिसका योग था अति जन्मसे ही योगीश्वर जगी जिसकी निरपराध वैराग्यमय दशा थी तथा सर्व जीवोंके प्रति जिसका विश्वव्यापी प्रेम था, ऐसे आश्चर्य मूत्ति महात्मा श्रीमद् राजचन्द्रका जन्म महान तत्त्वज्ञानियों की परम्परारूप इस भारतभूमिके गुजरात प्रदेशान्तर्गत सौराष्ट्रके क्वाणिया बंदर नामक एक शान्त रमणीय गांवके वणिक कुटुम्बमें विक्रम संवत् १९२४ (ईस्वी सन् १८६७ ) की कार्तिकी पूर्णिमा रविवारको रात्रिके दो बजे हुआ था। इनके पिताका नाम श्री रबजीभाई-पंचाणभाई मेहता और माताका नाम श्री देवबाई था। इनके एक छोटा भाई और पार बहनें थीं । श्रीमदजीका प्रेम-नाम 'लक्ष्मीनन्दन' था। बाद में यह नाम बदलकर 'रायचन्द' रखा गया और भविष्य में आप 'श्रीमद् राजचन्द्र' के नामसे प्रसिद्ध हए । बाल्यावस्था, समुच्चय वयचर्या श्रीमदजोके पितामह श्रीकृष्ण भक्त थे और उनकी माताजी देवदाई बैनसंस्कार लाई थीं। उन सभी संस्कारोंका मिश्रण किसी अदभूत उंगसे गंगा-यमनाके संगमकी भाँति हमारे बाल-महात्माके हृदयमें प्रवाहित हो रहा था। अपनी प्रौढ़ पाणीमें बाईस वर्षकी उम्रमें इस बाल्यावस्थाका वर्णन 'समुच्चयबयचयाँ' नामके लेखमें उन्होंने स्वयं किया है-- "सात वर्ष तक एकान्त बालवयकी खेलकूदका सेवन किया था। खेलकूद में विजय पानेकी और राजेश्वर जैसी उच्च पदवी प्राप्त करने की परम अभिलाषा थी। वस्त्र पहननकी, स्वच्छ रखनेकी, सानेपीनेकी, सोने-चठमेकी, सारी विदेही दशा थी; फिर भी अन्तःकरण कोमम धा। वह दशा पाज भी बहुत याद आती है । आजका विवेकी शान उस वयमें होता तो मुझे मोक्षके लिये विशेष अभिलाषा न रहती। सात वर्षसे ग्यारह वर्ष तकका समय शिक्षा लेनेमें बीता। उस समय निरपराध स्मृति होनेसे एक ही बार पाठका अवलोकन करना पड़ता था। स्मृति ऐसी बलवत्तर थी कि वैसी स्मृति बहुत ही थोड़े मनुष्यों में इस कालमें, इस क्षेत्रमें होगी। पढ़ने में प्रमादी बहुत था। दातोंमें कुशल, खेलकूद में रुचिवान और आनन्दी पा । जिस समय शिक्षक पाठ पढ़ाता, उसी समय पढ़कर उसका भावार्थ कह देता। उस समय मुझमें प्रीति--सरल वात्सल्यता-बहुत थी। सबसे ऐक्य चाहत्तर; सबमें प्रातृभाव हो तभी मुख, यह मैने स्वाभाविक सीखा था । उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत बादत थी । आठौं वर्ष में मैंने कविता की वी; जो बादमें जांचने पर समाप थी। सम्यास इसनी त्वरासे कर सका था कि जिस व्यक्तिने मुझे प्रथम पुस्तकका बोष देना किया पा उसीको गुजराती शिक्षण भली-भांति प्राप्त कर उसी पुस्तकका पुनः मैने बोष किया था। मेरे पितामाह कृष्णकी भक्ति करने थे। उनसे उस दय कृष्णकीर्तनके पद मैन सुमे थे तथा भिन्नभिम्म अवतारोंके संबंधों चमत्कार सुने थे, जिससे मुद्दा मक्केि साथ-साप उन अवतारों में प्रोति हो गई थी, और रामदासजी नामके माधुके पास मैने बाल-लीला में कंठी बंधवाई थी।''उनके सम्प्रदायके महन्त होवें जगह-जगह पर चमत्कारसे हरिकथा करते होवें और त्यागी होवें तो कितना आनन्द आये? यही कल्पना हमा करती; क्या कोई वैभवी भूमिका देखता कि समर्थ वैभवशाली होने की इच्छा होती। गुजराती भाषाकी याचनमालामें जगतका सम्बन्धी कितने ही स्थलोंमें उपदेश किया है वह मुसे बढ़ हो गया पा, जिससे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन होगोंके प्रति मुझे बहुत घुगुप्सा पाती थी तथा उस समय प्रतिमाके अश्रवाल लोगोंकी क्रियाएँ मेरे देखने में आई थीं, जिससे वे क्रियाएं' मलिन लगनेसे में उनसे डरता पामर्थात् वे मुझे प्रिय न पी । लोग मुझे पहलेसे ही समर्थ शक्तिशाली और गाँवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इसलिए मैं अपनी प्रशंसाके कारण जानयूझकर वैसे मंडल में बैठकर अपनी चपल शक्ति दर्शानका प्रयत्न करता। कंठीके लिए बार-बार वे मेरी हास्यपूर्वक टीका करते; फिर भी मैं उनसे वाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता । परन्तु धीरे-धीरे मुझे उनके ( जैनके ) प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढ़नेके लिए मिली; उनमें बहुत विनयपूर्वक जगतके सब जीवोंसे मित्रता चाही है। अतः मेरी प्रीति इसमें भी हुई और उसमें भी रही। धीरे-धीरे यह प्रसंग बढ़ा। फिर भी स्वच्छ रहनेके तथा दूसरे आचार-विचार मुझे वैष्णवोंके प्रिय थे और जगतकाकी श्रवा घी । उस बरसेमें कंठी टूट गई; इसलिए उसे फिरसे मैने नहीं बांधा। उस समय बाधने, न बांधनेका कोई कारण ममेहा नहीं था। यह मेरी तेरह वर्षकी अयचर्या है। फिर मैं अपने पिताकी दूकान पर बैठता ओर अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कम-दरबारके उतारे पर मुझे लिखने के लिए बुलाते तब मैं वहाँ आप्ता । दुकान पर मैने अनेक प्रकारकी लीला-लहर की है; अनेक पुस्तकें पढ़ी है, राम हत्यादिके चरित्रों पर कविताएं रची है। सांसारिक सृष्णाएं की है, फिर भी किसीको ममें न्यून-अधिक भाव नहीं कहा या किसीफो न्यून-अधिक तोल कर महीं दिया, यह मुझे निश्चित याद है ।" ( पत्रांक ८९) जातिस्मरणशान और तत्वज्ञानकी प्राप्ति श्रीमदृषी जिस समय सास वर्षके थे उस समय एक महत्वपूर्ण प्रसंग उनके जीवनमें बना। उन दिनों बवाणियामे अमीचन्द नामक एक गृहस्य रहते थे जिनका श्रीमद्जीके प्रति बहुत प्रेम था । एक दिन साँपके काटालो हपकी त य होना मात सुनमा मीनद्जी पितामहके पास आये और पूछा-'अमीचन्द गुजर गये क्या ? पितामहने सोचा कि मरणकी बात सुनमेसे बालक पर आयेगा, बतः उन्होंने, भ्यालू कर के, ऐसा कहकर यह बात टालमेका प्रयत्न किया। मगर श्रीमदखी बार-बार यही सवाल करते रहे । आखिर पितामहने कहा-'हाँ, यह बात सच्ची है।' श्रीमदजीने पूछा-'गुजर जानेका अर्थ क्या? पितामहने कहा-'उसमेंसे जीव निकल गया, और अब वह पल-फिर या बोल नहीं सकेगा; इसलिए उसे तालाबके पासके स्मशानमें जला देंगे। श्रीमद्जी पोशी देर घरमें इधर-उधर घूमकर छिप-छिपे तालाब पर गये और तटवर्ती दो शाखावाले बबूल पर चढ़ कर देखा तो सचमुच चिता जल रही थी। कितने ही मनुष्य वासपास बैठे हुए थे। यह देखकर उन्हें विचार आया कि ऐसे मनुष्यको जला देना यह कितनी क्रूरता ! ऐसा क्यों हुआ? इत्यादि विचार करते हुए परवा हट गया; और उन्हें पूर्वभवोंकी स्मृति हो आई। फिर जब उन्होंने जूनागढ़का गढ़ देखा तब उस ( जातिस्मरणशान ) में वृद्धि हुई। इस पूर्वस्मृतिरूप शानने उनके जीवन में प्रेरणाका अपूर्व नवीन अध्याय जोड़ा। इसीके प्रतापसे उन्हें छोटी उम्रसे वैराग्य और विवेककी प्राप्ति द्वारा तस्वबोध हुआ। पूर्वभवके शामसे आस्माकी श्रद्धा निश्चल हो गई । संवत् १९४९, कार्तिक वद १२ के एक पत्र लिखते है--"पुनर्जन्म है-अरूर है। इसके लिए 'मैं' अनुभवसे हो कहने में बचा है। यह वाक्य पूर्वभवके किसी योगका स्मरण होते समय सिद्ध हुआ लिखा है। जिसने पुनर्जन्मादि भाव किये है, उस पदार्थको किसी प्रकारसे जानकर यह वाक्य लिखा गया है।" (पत्रांक ४२४) एक अन्य पत्र लिखते है-"कितने ही निर्णयोंसे मैं यह मानता हूँ कि इस कालमें भी कोई-कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणानसे जान सकते है। यह जानना कल्पित नहीं किंतु सभ्य (यथार्थ) होता है ! उत्कृष्ट संवेग, शानयोग और सत्संगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभव में आ बाता है। जब तक पूर्वभव बनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालके लिए सशंकित धर्मप्रयत्न किया करता है और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता।" (पत्रांक ६४) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधान-प्रयोग, स्पर्शमशक्ति वि० सं० १९४० से श्रीमदजी अवधान-प्रयोग करने लगे थे। धीरे-धीरे वे "शतावधान तक पहुंच गये थे। जामनगरमें बारह और सोलह कवधान करने पर उन्हें 'हिन्दका हीरा' ऐसा उपनाम मिला था। वि० सं० १९४३ में १९ वर्षकी उम्रमे उन्होंने बम्बईकी एक सार्वजनिक सभामें 10 पिटर्सनकी अध्यक्षतामे शतावधानका प्रयोग विखाकर बडे-बड़े लोगों को आश्चर्य में डाल दिया था। उस समय उपस्थित जनताने उन्हें 'सुवर्णचन्द्रक' प्रदान किया था और 'साक्षात् सरस्वती' की उपाधिसे सम्मानित किया था। श्रीमदजीको स्पर्शनशक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी। उपरोक्त सभामें उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकारके बारह अभ्य दिये गये और उनके नाम भी उन्हें पढ़ कर मुना दिये गये। बाबमें उनकी आंखोंपर पट्टी बांध कर जो-जो प्रन्थ उनके हाथ पर रखे गये उन सब ग्रन्थों के नाम हाथोंसे टटोलकर उन्होंने बता दिये। श्रीमद्जीकी इस अद्भुत पक्तिसे प्रभावित होकर तत्कालीन बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स सारजन्टने उन्हें परोपमें जाकर वहाँ अपनी शक्तियां प्रदर्शित करनेका अनुरोध किया, परन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्हें कीतिको इच्छा न थी, बल्कि ऐसी प्रवृत्ति आत्मोन्नति में बाधक और सन्मार्गरोधक प्रतीत होनेसे प्रायः बीस वर्षको उम्रके बाद उन्होंने अवधान-प्रयोग नहीं किये । महात्मा गांधोने कहा था महात्मा गांधीजी श्रीमदजीको धर्मके सम्बन्ध में अपना मार्गदर्शक मानते थे। वैलिग्दते हैं "मुझ पर तीन पुरुषोंने गहरा प्रभाव राला है-टाल्सटॉय, रस्किन और रायचन्दभाई। टाल्सटायने अपनी पस्तकों द्वारा और उनके साथ थोडे पत्रव्यवहारसे, रस्किनने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दि लास्ट' से-विसका गुजराती नाम मैमे 'सर्वोदय' रहा है, और रायचन्दमाईने अपने गाद परिचयसे । जब मुग्ने हिन्धुधर्ममें वांका पैदा हुई उस समय इसके निवारण करने में मदद करनेवाले रायचन्दभाई थे." जो वैराग्य (अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?) इस काव्यको कड़ियोंमें झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्षके गाढ़ परिचयमें प्रतिकप उनमें देखा है। उनके लेखोंमें एक असाधारणता यह है कि उन्होंने जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है। दूसरे पर प्रभाव डालने के लिए एक पंकि भी लिखी हो ऐसा मने नहीं देखा ।.. साते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगतके किसो भी वैभव में उन्हें मोह हा हो ऐसा मैने नहीं देखा 1..." व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जितना तत्तम मेल मैंने कक्मेिं देखा उतना किसी अन्यम नहीं देखा ।" 'धीमद् राजचन्द्र जयन्ती' के प्रसंग पर ईस्वी सन् १९२१ में गांधीजी कहते है--"बहुत बार कह और लिख गया है कि मैंने बहुतोंके जीवन से बहुत कुछ लिया है। परन्तु सबसे अधिक किसीके जीवन से मैंने ग्रहण किया हो तो वह कवि (थोमदजी) के जीबनमेंसे है। दयाधर्म भी मैंने उनके जीवन से सीख है।" सून करनेवालेसे भी प्रेम करना यह दयाधर्म मुझे कविने सिखाया है।" * शतावधान अर्थात् सौ कामोंको एक साथ करना । जैसे शतरंज खेलते जाना, मालाके मनके गिनते जाना, जोड़ बाकी गुणाकार एवं भागाकार मन में गिमते जाना, माठ नई समस्याओंकी पूर्ति करना, सोलह निर्दिष्ट नये विषयोंपर निर्दिष्ट दमें कविता करते जाना, सोसह भाषाओंके अनुक्रमविहीन चार सौ शाम्ब कर्वाकर्मसहित पुनः अनुकमबम कह सुनाना, कतिपय अलंकारोंका विचार, दो कोठोंमें लिखे हुए उल्टेसीधे अक्षरोसे कविता करते आना इत्यादि। एक जगह ऊँचे आसनपर बैठकर इन सब कामोंमें मन और दृष्टिको प्रेरित करना, लिखना नहीं या दुबारा पूछना नहीं और सभी स्मरणामें रख कर इन सो कामोंको पूर्ण करना । श्रीमद्जी लिखते हैं-"अवधान आत्मशक्तिका कार्य है यह मुझे स्वानुभवसे प्रतीत हुला।।" (पीक १८) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XII गृहस्थाश्रम वि० सं० १९४४ माघ सुदी १२ को २० वर्षकी आयुमें श्रीमद्जीका शुभ विवाह जौहरी रेवाशंकर जगजीवनदास मेहताके बड़े भाई पोपटलालको महाभाग्यशाली पुत्री अबकलाईके साथ हुआ था। इसमें दूसरोंको 'इच्छा' और 'अत्यन्त आग्रह' ही कारणरूप प्रतीत होते हैं । विवाहके एकाध वर्ष बाद लिखे हुए एक लेखमें श्रीमद्जी लिखते हैं-"स्त्रीके संबंध में किसी भी प्रकार द्वेष नहीं हैं । परन्तु पूर्वोपार्जन से इच्छाके प्रवर्तनमें अटका हूँ ।" (पत्रांक ७८ ) की मेरी नावा सं० १९४६ के पत्र लिखते हैं- "तस्वशानकी गुप्त गुफाका दर्शन करनेपर गृहाश्रमसे विरक्त होना अधिकतर सूझता है ।" ( पत्रांक ११३) श्रीमद् गृहवासमें रहते हुए भी अत्यन्त उदासीन थे। उनकी मान्यता थी— "कुटुंबरूपी काजलकी कोटड़ी में निवास करनेसे संसार बढ़ता है। उसका कितना भी सुधार करो, तो भी एकान्तवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका शतांश भी उस काजलकी कोठड़ीमें रहनेसे नहीं हो सकता, क्योंकि वह कायका निमित्त है और अनादिकाल से मोहके रहनेका पर्वत है ।" (पत्रांक १०३) फिर भी इस प्रतिकूलतायें वे अपने परिणामोंकी पूरी सम्भाल रखकर चले । सफल एवं प्रामाणिक व्यापारी श्रीमद्जी २१ वर्षकी उम्र में व्यापारार्थ वाणियासे बंबई खाये और सेठ रेवाशंकर जगजीवनवासकी दुकानमें भागीदार रहकर जवाहिरातका व्यापार करने लगे । व्यापार करते हुए भी उनका लक्ष्य आत्माकी और अधिक था । व्यापारसे अवकाश मिलते ही श्रीमद्जी कोई अपूर्व आत्मविचारणायें लीन हो जाते थे । ज्ञानयोग और कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था। श्रीमद्जीके भागीदार श्री माणेकलाल लाभाईने अपने एक वक्तव्यमें कहा था- " व्यापारमें अनेक प्रकारकी कठिनाइयां आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अटोल पर्वतके समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुयोंको पितासे बितातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे।" जवाहरात के साथ मोतीका व्यापार भी श्रीमदजीने शुरू किया था और उसमें वे सभी व्यापारियों में अधिक विश्वासपात्र माने जाते थे। उस समय एक अरब अपने भाईके साथ मोतीकी आदतका धन्धा करता था। छोटे भाईके मनमें आया कि आज में भी बड़े भाईकी तरह बड़ा व्यापार करूँ । दलालने उसकी श्रीमद्जोसे भेंट करा दी। उन्होंने कस कर माल खरीदा। पैसे लेकर अश्व पर पहुँचा तो उसके बड़े भाईने पत्र दिखाकर कहा कि वह माल अमुक किंमत के बिना नहीं बेचने की शर्त की है और तूने यह क्या किया ? यह सुनकर वह घबराया और श्रीमद्जीके पास जाकर गिड़गिड़ाने लगा कि में ऐसी माफ़त में आ पड़ा हूँ । श्रीमद्जीने तुरन्त माल वापस कर दिया और पैसे गिन लिये। मानो कोई सौदा किया हो न या ऐसा समझकर होनेवाले बहुत नको जाने दिया । वह अरब श्रीमद्जीको खुदाके समान मानने लगा । इसी प्रकारका एक दूसरा प्रसंग उनके करुणामय और निस्पृही जीवनका अमलंत उदाहरण है। एक बार एक व्यापारीके साथ श्रीमद्जीने हीरोंका सौदा किया कि अमुक समयमे निश्चित किये हुए भावसे वह व्यापारी श्रीमद्जीको अमुक हीरे दे उस विषयका दस्तावेज भी हो गया। परन्तु हुआ ऐसा कि मुद्दतके समय भाव बहुत बढ़ गये । श्रीमद्जी खुद उस व्यापारीके यहां जा पहुंचे और उसे चिन्तामन देखकर वह दस्तावेज फाड़ डाला और बोले - "भाई, इस चिट्टी ( दस्तावेज) के कारण तुम्हारे हाथ-पांव बंधे हुए थे । बाजार भाव बढ़ जानेसे तुमसे मेरे साठ-सत्तर हजार रुपये लेने निकलते हैं, परन्तु मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता है। इतने अधिक रुपये में तुमसे ले लूँ तो तुम्हारी क्या दशा हो ? परन्तु राजचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं ।" वह व्यापारी कृतज्ञभावसे श्रीमद्जीकी ओर स्तब्ध होकर देखता ही रह गया। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xill भविष्यवक्ता, निमित्तमानी बोमजीका ज्योतिष-संबंधी ज्ञान भी प्रखर था। वे जन्मकुंडली, वर्षफल एवं अन्य चिह्न देख कर भविष्यकी सूचना कर देते थे। बी जूठाभाई ( एक समक्ष ) के भरणके बारेमें उम्होंने सवा दो मास पूर्व स्पष्ट बता दिया था। एक बार सं० १९५५ की चैत्र बदी ८ को मोरबी में दोपहरके ४ बजे पूर्व दिशाके आकाश काले धादक देखे और उन्हें दुष्काल पड़नेका निमित्त जानकर उन्होंने कहा-"ऋतुको सन्निपात हुआ है।" तदनुसार सं० १९५५ का चौमासा कोरा रहा और सं. १९५६ में भयंकर दुष्काल पहा । श्रीमदनी दूसरेके मनकी बातको भी सरलतासे जान लेते थे। यह सब उनकी निर्मल आरमशक्तिका प्रभाव था। कवि शेक्षक श्रीमद्जीमें, अपने विचारोंकी अभिव्यक्ति पद्यरूपमें करनेको सहज क्षमता थी। उन्होंने 'स्त्रीनीतिबोधक', 'सयोधशतक', आर्यप्रजानो पहती' 'इन्नरकला धारवा विषे' आदि अनेक कविताएँ केवल आठ वर्षकी वयमें लिखी यौं। नौ वर्षकी आयुमें उन्होंने रामायण और महाभारतकी भी पद्य-रचना की थी जो प्राप्त न हो सकी। इसके अतिरिक्त जो उनका मूल विषय आत्मज्ञान था उसमें उनकी अनेक रचनाएँ है । प्रमुखरूप आत्मसिवि, अमूल्य स्वामकार, मकिना वास दोहरा' 'परमपदप्राप्शिनी भावना (अपूर्व अवसर )', 'मूलमार्ग-रहस्य', 'तृष्णानी विचित्रता' है। 'आत्मसिद्धि-शास्त्र के १४२ दोहोंकी रचना तो श्रीमजीने मात्र डेढ़ घंटेमें नडियादमें आश्विन वदी १ (गजराती) सं० १९५२ को २९ वर्षकी उममें की थी। इसमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत : पदोंका बहुत ही सुन्दर पक्षपातरहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है। इसके अंग्रेजीमें भी गद्य पधात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं। गद्य-लेखनमें श्रीमदजीने 'पुष्पमाला', 'भावनाबोष' और 'मोक्षमालाकी रचना की। इसम 'मोक्षमाला' तो उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे उन्होंने १६ वर्ष ५ मासकी आयु में मात्र तीन दिनमें लिखी थी। इसमें १०८ शिक्षापाठ है। आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता जबकि श्रीमद्बीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली। पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । 'मोक्षमाला'के संबंध में श्रीमदजी लिखते हैं--"जैनधर्मको यथार्थ समझानेका उसमें प्रयास किया है; जिनोक्त मार्गसे कुछ भी म्यूनाषिक उसमें नहीं कहा है। बीतराग मार्गमें आबालवृद्धको रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसके बीजका हृदयमें रोपण हो, इस हेतुसे इसकी बालापयोधरूप योजना की है।" श्री कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचास्तिकाय' ग्रंथकी मूल माथाओंका श्रीमद्जीने अविकल (अक्षरशः ) गुजराती अनुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर वह अपूर्ण रह गया है। फिर भी इतमे से, श्रीमदजीको विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल का जाता है। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने-समझाने में श्रीमदजीकी निपुणता अजोड़ थी। मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जीकी दृष्टि बड़ी विशाल थी। रूकि या अन्धश्रद्धाके कदर विरोधी थे।दे मतमतान्तर और कदाग्रहाविसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने आरमधर्मका ही उपदेश दिया । इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते है। श्रीमद्जी लिखते हैं-- "मूलतत्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना।" ( पुष्पमाला-१४) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIV "तू पाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहने का तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस मदाचारका तू सेवन कर ।" ( पुष्पमाला - १५ ) "दुनिया मतभेद के बन्धनसे तत्त्व नहीं पा सकी " ( पत्रांक- २७ ) "जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है मैं किसी गन्डमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा ।" ( पत्रांक-३७ ) श्रीमद्जी ने प्रीतम, अखा, छोटभ, कबीर, सुन्दरदास, सहआनन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंको वाणीको जहाँ-तहाँ आवर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तत्वप्राप्ति के योग्य आत्मा ) कहा है। फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है "श्रीमत् वीतराग भगवन्तोंका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी पर अत सर्व खानिय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वतधर्म जयवन्त वर्ती विकाल जयवन्त दर्ता | उस श्रीमत् अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मकाय सदैव कर्तव्य है ।" (पत्रांक-८४३ ) परम वीतराग दशा श्रीमद्जीकी परम विदेही दशा थी। वे लिखते हैं "एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषको प्रेमसम्पत्ति सिवाय हवे कुछ रुचिकर नही लगता हमें किसी पदार्थ में त्रिमात्र रही नहीं है''''हम देहधारी है या नहीं - यह याद करते हैं तब मुश्केलोसे जान पाते हैं ।" ( पत्रांक-२५५ ) "देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्वल अनुभव है। क्योंकि हम भी अवश्य उसो स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डता से कहता है और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है " ( पत्रांक- ३३४ ) "मशन लें कि चरमशरीरोपन इस कालमें नहीं है, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नहीं, अपितु सिञ्चत्व है और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमें हम खुद नहीं है, ऐसा कहने तुल्य है ।" (पत्रांक-४११ ) अहमदाबादमें आगाखान के बेंगलेपर श्रीमद्जीने श्री लल्लूजी तथा श्री देवकरणजी मुनिको बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा था- "हमारे और वीतरागमें मेद न मानियेगा ।" एकातचर्या, परमनिवृतिरूप कामना मोहमयी ( बम्बई ) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमदजी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंको शंकाओंका समाधान करते रहते थे फिर भी बीच-बीच में पेढीसे विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतों में पहुंच जाते थे । मुख्यरूपसे वे खंभात, वडवा, काविळा, उत्तरखेडा, नडियाद, बसो, रालज़ और ईश्वर में रहे थे । वे किसी भी स्थान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी । अनेक जिज्ञासु धमर उनके सत्समागमका लाभ पाने के लिए पीछे-पीछे कहीं भी पहुंच ही जाते थे। ऐसे प्रसंगों पर हुए बोषका यत्किंचित् संग्रह 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें 'उपदेशछाया' 'उपदेशनोंष' और 'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है । यद्यपि श्रीमद्जी गृहवास व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहीवत् थे, फिर भी उनका अन्तरङ्ग सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्यदशा के लिए छटपटा रहा था । एक पत्रमें वे लिखते हैं- "भरतजीको हिरनके संगसे जम्मकी वृद्धि हुई थी और इस कारणसे जड़भरत के भव में असंग रहे थे। ऐसे कारणोंसे मुझे भी असंगता बहुत ही याद आती है; और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असंगताके बिना परम दुःख होता है | यम अन्तकालमें प्राणीको दुःखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमें संग दुःखदायक लगता है ।" ( पत्रांक २१७ ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - XV फिर हाथों में वे लिखते हैं- "सर्वसंग महास्रवरूप श्री तीर्थकरने कहा है सो सस्य है। ऐसी मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति कहाँ तक रखनी ? जो बात जिसमें नहीं सो करनी; और जो जिसमें है उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस प्रकारले हो मकता है ? वैश्यवेषमें और निर्धन्यभावसे रहते हुए कोटि-कोटि विचार हुआ करते हैं।" (हायनोंध १-२८) आकिवन्यतासे विचरते हुए एकान्त मौनसे जिनसवृक्ष ध्यानमे तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊंगा ?" ( हाथनोंष १-८७ ) संवत् १९५६ में अहमदाबादमें श्रीमद्जीने श्री देवकरणजी मुनिसे कहा था - "हमने सभामें स्त्री और लक्ष्मी दोनोंका त्याग किया है, और सर्वसंगपरित्यागकी आज्ञा माताजी देगी ऐसा लगता है।" और तदनुसार उन्होंने सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करनेकी अपनी माताजीसे अनुभा भी ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता गया। ऐसे ही अवसर पर किसीने उनसे पूछा- आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया- "हमारे दो बगीचे है, शरीर और आत्मा । हमारा पानी आत्मारूपी बगीचेमें जाता है, इससे शरीररूपी बगीचा सूख रहा है।" अनेक उपचार करने पर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । अन्तिम दिनों में एक पत्र लिखते हैं- "अत्यन्त त्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहाँ बीचमें सेहराका मरुस्थल आ गया। सिर पर बहुत बोझ था उसे आत्मबीर्यसे जिस प्रकार अस्प कालमें सहन कर लिया जाय उस प्रकार प्रयत्न करते हुए, पैरोंने निकावित उदयरूप थकान ग्रहण की। जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य है । अन्याबाध स्थिरता है ।" ( पत्रांक ९५१ ) छान्स समय स्थिति और भी गिरती गई । शरीरका वजन १३२ पौंडसे घटकर मात्र ४३ पोड रह गया । सायद उनका अधिक जीवन कालको पसन्द नहीं था । देहत्यागके पहले दिन शामको अपने छोटे भाई मनमुखकाम आदिसे कहा - "तुम निश्चिन्त रहना। यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होनेवाला है। तुम शान्ति और समाधिपूर्वक रहना । जो रत्नमय ज्ञानवाणी इस देहके द्वारा कही जा सकनेवाली रात्रिको ढाई बजे वे फिर बोले— "निश्चित थी उसे कहने का समय नहीं है। तुम पुरुषार्थ करना ।" रहना, भाईका समाधिमरण हैं ।" अवसानके दिन प्रातः पौने नौ बजे कहा--" ममसुख, दुःखी न होना । में अपने आत्मस्वरूपमें लोन होता हूँ।" फिर वे नहीं बोले। इस प्रकार पाँच घंटे तक समाधिमे रहकर संवत् १९५७ की चैत्र वदी १ ( गुजराती ) मंगलवार को दोपहरके दो बजे राजकीट में इस नश्वर शरीरका त्याग करके उत्तम गतिको प्राप्त हुए। भारतभूमि एक अनुपम तत्वज्ञानी सन्तको खो बैठी उनके देहावसान के समाचारसे मुमुक्षुओं में अत्यन्त शोकके बादल छा गये। जिन-जिन पुरुषोंको जितने प्रमाणमें उन महात्माकी पहचान हुई थी उतने प्रमाणमें उनका वियोग उन्हें अनुभूत हुवा था । उनकी स्मृतिमें शास्त्रमालाकी स्थापना वि० सं० १९५६ में भादों मास में परम सत्श्रुतके प्रचार हेतु बम्बई में श्रीमद्जीनं परमश्रुतप्रभावक मण्डलको स्थापना की थी। श्रीमद्जीके देहोत्सर्गके बाद उनकी स्मृतिस्वरूप 'श्री रायन्नग्रन्थमाला' की स्थापना की गई जिसके अन्तर्गत दोनों सम्प्रदायोंके अनेक सद्द्मम्योंका प्रकाशन हुवा है जो तस्वविचारकोंके लिए इस दुषमकालको बिताने में परम उपयोगी और अनन्य आधाररूप है। महात्मा गांधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और श्री रेवाशंकर जगजीवनदास मुख्य कार्यकर्ता थे । श्री रेवाशंकरके देहोत्सर्ग बाद संस्था में कुछ शिथिलता आ गई परन्तु अब उस संस्थाका काम श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके ट्रस्टियोंने धम्क लिया है और सुचारुरूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहा है। श्रीमद्जीके स्मारक श्रीमद्जीके अनन्य भक्त आत्मनिष्ठ श्री लघुराजस्वामी (श्री लल्लुओं मुनि) की प्रेरणा श्रीमजी के स्मारकके रूपमें और भक्तिषामके रूपमें वि० सं० १९७६ की कार्तिकी पूर्णिमाको बगास स्टेशन के पास Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XVI 'श्रीमद् राजन् बम' की स्थापना हुई थी। श्री लघुराज स्वामीके चौदह चातुर्मासोंसे पावन हुआ यह आश्रम आज बढ़ते-बढ़ते गोकुल-सा गाँव बन गया है। श्री स्वामीजी द्वारा मोजित सत्संगभक्तिका क्रम आज भी यहाँ पर उनकी आज्ञानुसार चल रहा है। धार्मिक जीवनका परिचय करानेवाला यह उत्तम तीर्थ बन गया है। संक्षेपमें यह तपोवनका नमूना है। श्रीमद्जीके तत्वज्ञानपूर्ण साहित्यका भी मुख्यतः यहींसे प्रकाशन . होता है। इस प्रकार यह श्रीमद्जीका मुख्य जीवंत स्मारक है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में निम्नलिखित स्थानोंपर श्रीमद् राजचन्द मंदिर आदि संस्थाएँ स्थापित हैं जहाँ पर मुमुक्षु धुमिलकर आत्म-कल्याणार्थ वीतराग सस्वज्ञानका लाभ उठाते है-वाणिया, राजकोट, मोरबी, वडवा, खंभात, काविठा, सीमरडा, वडाली, भादरण, नार, सुणाव, नरोडा, सहोदरा, घामण, अहमदाबाद, ईडर, सुरेन्द्रनगर, बसो, बटामण, उत्तरसंडा, खोरसद, बम्बई ( घाटकोपर एवं चौपाटी), देवलाली, बेंगलोर, इन्दौर, आहोर (राजस्थान), मोम्बासा (आफ्रिका) इत्यादि । अन्तिम प्रशस्ति आज उनका पार्थिव देह हमारे बीच नहीं है मगर उनका अक्षरदेह तो सदाके लिये अमर है। उनके मूल पत्रों तथा लेखों का संग्रह गुर्जरभाषा में 'श्रीमद् राजन्द्र ग्रन्थ मे प्रकाशित हो चुका है (जिसका हिन्दी अनुवाद मी प्रगट हो चुका है) वहीं मुमुक्षुओंके लिए मार्गदर्शक और अवलम्बनरूप है। एक-एक पत्र में कोई अपूर्व रहस्य भरा हुआ है । उसका मर्म समझने के लिए सन्त समागमको विशेष नावश्यकता है। इन पत्रोंमें श्रीमद्जीका पारमार्थिक जीवन जहाँ सहाँ दृष्टिगोचर होता है। इसके अलावा उनके जीवनके अनेक प्रेरक प्रसंग जानने योग्य है, जिसका विशद वर्णन श्रीमद् रामचन्द्र आश्रम प्रकाशित 'श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला' में किया हुआ है। यहाँ पर तो स्थानाभावसे उस महान विभूतिके जीवनका विहंगावलोकनमात्र किया गया है । श्रीमद् लघुराज स्वामी (श्री प्रभुश्रीजी) 'श्रीसद्गुरुप्रसाद' ग्रन्थको प्रस्तावनामै श्रीमद्जी के प्रति अपना हृदयोष्गार इन शब्दों मे प्रगट करते हैं--" अपरमार्थ में परमार्थके दृढ़ आग्रहरूप अनेक सूक्ष्म सूलभूलैयकि प्रसंग दिखाकर, इस दासके दोष दूर करने में इन आसपुरुषका परम सत्संग और उत्तम बोष प्रबल उपकारक बने हैं'''' संजीवनी औषध समान मृतको जीवित करें ऐसे उनके प्रबल पुरुषार्थ जागृत करनेवाले वचनोंका माहात्म्य विशेष विशेष भास्यमान होनेके साथ ठेठ मोक्षमें ले जाय ऐसी सम्यक् समन (दर्शन) उस पुरुष और उसके बोधकी प्रतीति प्राप्त होती है; वे इस दुश्म कलिकालमें माश्वर्यकारी अवलम्बन है । परम माहात्म्यवंत सद्गुरु श्रीमद् राजचन्द्रदेवके वचनोंमें तल्लीनता, श्रद्धा जिसे प्राप्त हुई है, या होगी उसका महद् भाग्य । वह मध्य जीव अल्पकालमें मोक्ष पाने योग्य है ।" ऐसे महात्माको हमारे अगणित वन्वन हो । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 1) CRITICAL APPARATUS Tho Birous-Arrvekthi of Svami Kumāra, or 4 it is generally known, the Kärttikeycineprekşa', is indeod a popular work from which Jivina kyinen end monks have drawn their religiouz inspiration; and consequently, so many manuscripts of this text, with or without the Sanskrit commentary of Subh: candra, are reported from various M88. -collections: many more must be lying in other collections of which proper catalogues are not prepared as yet. The Mes. of K.qxmmpyrekodi are found in the Bhindarkar Oriental Research Institute, Poona; in the Jaina Siddhantil Bhuda, Arrilı; in the Ailaka Paonālala Sarasvati Bhavan and Candrapralsh Juina Mandir, Bhulegvara, Bombay; in the Temples at Kuans at Amesa in Rajasthan; at Moodubidri in South Kanaru; in the Lakshunīvena Bhattaraka's Mathat at Kolhapur; in the Jaipa Gurukula at Bähulvali (Koilarar); in the Blattiraka's Matha at Sravana Belgol (Mysore); and in the Jaime teinpley at Lucknow. Those at Bahubali und Mordabidri ale on palm-leaf and written in Old-Kannada characters and those at Sravana Belgola in Grantha characters. Most of the other Mss. ute on paper tudin Devanaguri characters. The information noted above is gleaned from varions Reports clc. Most of the Mss. from Poona, Bahubali and Kolhapur 1 have personally 1) Edited by PANNALAL BAKALIVAL, Prakrit Text, Sanskrit Claya and Jufacundra's Hindi Com. Jaina Grantha Ratnakar Kargilag, Buinlay 1904; Another ed., without the Sanskrit Chăşi, published lay Bhuratiya Jain Silchaut Prakasini S.rathi Calzulta 1920; Text, Hiodi Apvayārtha by MAUENPRAKTMARA JAS, Baroth (Rajasthaun) 1950. 2) FI. D. VELANKAR: Jinaratna-Kort, Poona 1944: LESLAL: Cottrelugar of Samaril and Prakrit dfas, in C. P. Berier, Nagpur 1926. K. KASALIVAT, orz Băstra Bladura, Jayapura ki Grantha-sūci, Japapur 1949; als) Rajasthānutki Jasira Šāstra bhandarüki Gramharica, part ii, Jayapur 1954; K. BAUJABALI SHASTRI: h'ammin-printiye Tudaputriun Granthanci, Balbras 1948. I have used private lista for the M89. at Kolhapur, Bahubali and Belgol. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKEYANCPREKŞA handled. As far as I have seen, there is only one Ms.' at Poona which is older than Subhacandra whose Sanskrit commentary is found in some of the Mes. A detailed description of the M38. 13ed by me in preparing this edition is given below: Bæ: This is a paper Mx. (10 by 4. 8 inches) belonging to the Deccan College, Poon, now deposited in the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, No. 1500 of 1886-92. It has 41 folios written on both sides ; each page contains 10 lines; und euch line has ubout 25 letters. The Ms. is pretty old and preserved in a good condition, though some of its edges are caten by ents. It is throughout written in black ink; the opening seitense, some of the titles, numerals and Dandas etc. are, however, written in red ink. The colour of the paper has changed into brown, and the folios are growing brittle. It contains only the Prākrit text, with topical headings here and there in corrupt language. It is written in a uniform hand. Ing Tamu-riving is iwly a ble though not graceful. There are many apparent scribal errors, and most of them have been corrected luter on sometimes with white pasto and sometimes in black ink which is more brilliant than the original one. Possibly these corrections were made after a long time after the Ms, was originally written. One who made these corroctions has followed the text with the commentary of Subha candra; and at times, even correct or plausibly accurate readings are correctad. In some places it is possible to conjecture the original readings. Many third p. sing. terminations in di are changed into i. The corrector has eliminated most of the scribal errors, and he also adds missing verses. This Ms. is partial for v in proferonce to h. It is not particular about " or , without any reference to its position in a word. It often writes us for o and conjunct groups for single consonants, and confuses between uur and o, ook and ith eto. At times s is retained, and nah, nk or ha is indiscriminately usod. There are some merginal remarks in Sanskrit, and terms like yumri, yugola etc. are used to mark the groupe of gāthās, The Ms. opens like this with the symbol of bhale which looks like so in Devanagari: 1 RF TR: UI E A Red H. Then follows the first gåthā. It is concluded thus: A ET HAH: Theo follows the lekhaka-prasasti which is copied here exactly as it is: 147963441 कार्तिकमासे शुक्लपक्षे । तृतीया तिथै। बुधवासरे। पातिसाह श्रीसलेमसाहरज्ये। अलवरगढमहादुर्गेवास्तव्य । श्रीकाष्ठासंधे। मथुरान्वये श्रीपुष्करगणे श्रीवर्धमानजिनगोतमस्वामिमात्रायः । गुरुव भटारक धौसईसकीर्तिदेवा तत् । पट्ट अनुक्रमेन् वादीभकुंभस्थलविदारणकपंचमुषान् : । समस्तगुणविराजमान भट्टारकश्रीगुणभद्रसूरिदेवात् । तत् मनायः । अलबरarray:1 Tha agua: The reference to Salemusăba has in !) See Pelernon Report IV. of 1886-92, No. 1500; it is desoribed below as Ba. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION view Islim Shāh or Salīin Shah (original name, Jalal khan) who succeeded Sher Shah of the Sur dynasty and ruled as the emperor of Delhi froin 1545 to 1554 during the absence of Humáyun. This king is mentioned in Candrakirtis Com, on the Saragvatat grammar and at the end of a Ms., Sružvakvocira Dohaka ( at Delhi), of which I have seen a transcript. On the first page we have the following sentence in a different hand: 4 घरमदास चौधरी जिहानाबादमधे जैस्यपुराम तेरापंथ्यकै चैताले पधराई मि, भादवा सुक्ल १३ सं १८०१. La. This is a paper Ms. (13 by 5 inches) belonging to Sri Lakşnuisena Bhattīraka of Kultiapur (Regd. No. 50 in the list of the Matha). It has 262 folios written on boti: the sides excepting the first and the last pages wbich are blauk. Euch page hus nine lines with some fortyfive letters or so in each line. The Prakrit text is accompanied by the Sanskrit commentary of Subhacandra.. The writing in fairly good but for the typical scribal errors noted below. It is written in a tolerably fair Devanāgari hand; the first thirtythree and the last seven folios whow a different hand of slightly perpendiculitr and rough style. It is written in black ink on indigenous paper. Tho gāthas are scored with red pencil or powder and marginal lines and dandas are in red ink. In this Ms. non is written as n and 099 #, and ch and oth nre often conti:sed. The copyist has not properly read the Ms. in which some of these letters nud close similarity for one who does not understand the subtle differences between them. The punctuations in the commentary are not regularly put. A folio, No, 256, is missing; and in the middle sowe folios, though numbered correctly, ure misplaced Beginning with the symbol of Ware the Mopens thus | El SHCHATHI Ty Po leto. After the yasesti of Subhacandra, there is the following colophon at the end : TI 969% i et Wit ब्राह्मण प्राणसुबहतेन ।। श्रावक पन्नालाल ॥ पूज्य श्रीशनिश्येन मुनि महाराजुकीदान दस । Mo: This belongs to the Terāpanthi Mundirs, Bombay, and bears the No. 98, the earlier No. being 58/3. The paper shows signs of decay, and the edges of folios are broken here and there. It measures 12 by 5.2 inches, The script is Devanagari with the use of rulinātri here and there. It has the Prikrit text, and in between the lines the Sanskrit obaya is written, The opening words for the gāthas are: et T1127: and for the chiya are: et 79. The Ms, ends thus? se pitam ITT ATH: 1 974U स्मृतेर्वशात् यत्र लिखितं कूटं तच्छोय बुधपुंगवैः १ । संवत् १६३५ जेष्ठ बदी ८ भौमे लिखतं । S: This is a paper Ms. from Lucknow belonging to Sri Digumbara Jaina Mandiru there and received through Sheth Suntootel Sacerachand m 1) S. K. BELVALKAR: Systems of Sanskrå Grimmar, p. 98. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKEYANTFREKŞA Jain, Lucknow. It is a well preserved Ms. written on indigenous paper. It contains gāthis and the Vicarika of Jayacunutra in Elindi. It measures 5.1 by 11-1 inches. In all it has 161 folios. There are ten lines on each page and 40 to 15 lutters in cuch line, The Devanagari writing is uniform, Margimul lines, opening and concluding scntences, topicul and metrical titles, dan las, numerals cto. are in mod iuk. Variunits for the gathas only are noted, The Ms. opens tlius: ॥ ६ ॥ओं नमः सिद्धेभ्यः ॥ अथ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेज्ञानाम थकी देशभाषामग्रवचनिका लिखिये है ॥ दोहा॥ प्रथमरिषभ ete. After the presst. of Jayacandra. (already printed in the Bopbuy edition) the Ms, adds at the end the followiny sentence : मासोनमासे उसममासे फागुणमासे कृष्णपने पंचमी सोमवार संत्रत ।। १८८५ ॥का ॥ इति श्री खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नाम ग्रंश्रकी देशभाषामयवचनिका संपूर्ण ॥॥ fre: This is a paper Ms. from the Digunbara Jaina Vaudira, Chaukupurivāli Gali, Luckno s', received by me along with tho My, Sre described above. Though the leaves are brown and show patches of moisture, it is well preserved on the whole. It measures 12 by 6-1 inches and contains 210 folioy written on both the sides excepting the first folio which has a blank page. It is writteu iu uniform Deranigari script the stylo of which is different from folio No. 172 onwards where the number of scribal errors also increases. The topical titles, dandas, nos. ofgatihas, narginal lines etc. are written in red ink but the running matter in black. The dandas are not at tho same places as in Tie. This Jis, ir nuore accurate in Sanskrit portious than in Prakrit gathis. It begins with || ६०॥ श्रीपरमात्मने नमः ॥ and ends in this way: इति श्री स्वामिकासिकेपटीकायां त्रिविद्यविद्याधरषदभाषाकविचक्रवर्तिभट्टारकरीशुभचंद्रविरचिताया धर्मानुप्रेक्षाया द्वादशोधिकारः ॥ १२ ॥ . Pa; This is a paper Mg, from the Blusdarkar Oriental Research Institute, Poona, No. 290 of 1883-84. It measures 12-5 by 5.5 inches and contains 277 folios. Each page has ten lines, with about 40 letters in a line. Tu this Ms, the Prabrit text is accompanied by the Sanskrit commentary of Subh:cuura. It is written in uniform Devanāguri hand in black ink, the marginal lines and sonne danas ure in red ink; and reddisi powder is rubbed over the gåthis, titles, quotations etc. Separation of words is indicated by sipall strokes on the head-lines both in the text and in the commentary. It begins thus : ॥ ६ ॥ ओ नमः सिद्धेभ्यः ॥ १ ॥ शुभचंद्र etc. and ends thus on p. 277 : इति श्रीस्वामिकार्तिकयानुप्रेक्षाया त्रिविद्यविद्याधरषड्भाषाविचक्रवर्तिश्रीशुभचंद्रविरचितटीकाया धर्मानुप्रेक्षायां द्वादशोधिकारः ॥ १२ ॥ अथ शुभसंबच्छरे संवत १७८४ पोसमुदि ५ दिने लिपीकृतम् । लिखतं ब्राह्मण हरियाए पषेिहीका बासी पेमराजलिपीकृतम् । मंगलं भूयात् । श्रीः । [Then in adifferent hind] दिवसामध्ये लिषाइतं ॥ सा xxx वालचंद गावड़ा कूसलत्यंधसुत् । लोक संख्या ७२५६ ॥ ॥ सोरठा ॥ पुस्तग लई लिषाय । खपरहेतकै. कारण। पढे सुणे मनलाय ईह द्वादस जो भावना ॥१॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Of the six Mas, described above, Ba and Mrs have only the Prakrit text, La, Gus und Pa are accompanied by Subhacundra's Sanskrit commentary and S by Jayacandra's Hindi Vacanjka. Ba is the oldest Ms, of our group being written in Samvut 1603, und significantly indeed older than Subhacapdra's commentary which was completed in Şavat 1613. Next in age comes Vs. Ma which too has vuly the Prākrit text. Pa is written in San. 1785, Sa in Suro. 1880 and Lr in Sam. 1894; Ga bears no date, but it may be as old us, if not older than, Pa from Poona. So far ay the Prakrit text is cancerned, and it is for this that our collation has been thorongh, Bx occupies a unique position by virtue of its age though some of its readings are corrected under the influence of the text adopted by Subhacundra for his conmentary. It shows Nonie striking comuion readings with Max which obviously go back to a common andex ulder than Subhacandra Lux, Go and Pa show close uffinity, all of them being accompanied by the Sanskrit commentary. The text in Ims is nearer the one adopted by Subhacandr whom Jayacundru follows. The Prikrit text is constituted after collating five Mss., Bix, Ma, La, Su und Ga, described above., Variants arising out of scribal slips, presence or absence of inca, send x, ha and 2 aard ma ora or pu, i ori at the end of a guida, o and ur, ooh And als ete, found in u stray unner in some Ms, or the other are not recorded. However, no reading which has even the remotest dialectal signification is ignored. For fucility of understanding hypheng. sure wided to sopurate words in a compound expression, Some emendations are suggested in square brackets in the foot-notes. Grammatical forms are not tampered with for motrical needs : 80 Present 3rd p. sing. termination would be i, though at the end of juicla it may pronounced long. The (ukvīru je shown when somo Mss. give it, but it is shown us annusika when its pronunciation is metrically short, The text of the Sanskrit commentary is constituted primarily with the help of two Mag., La and Go, wlzich between themselves show variations about samdhi and punctuations etc. with which intelligent copyists appear to have taken sotme liberty. The readings are noted only when they show fundamental variants affecting the contents. What is agreed urxon by both the Mss. is accepted, and in cases of crucial difference, the readings are decided after vonsulting the Ms. Pa. The rules of Sardhi are not rigor ously enforced, Sanskrit expressions, if found in both the M8s., are not tampered with, even if they violate the recogaised granatical standard : obviously, strange forms and expressions are met with here and there. Ga Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀRTTIKBYANDPREKRA gives Dagdas more sensibly, but there is no system as such. So Dandas are adjusted, and if necessary added, and now and then commas also put for facility of understanding, Quotations are shown in inverted compas, single or double. The Prākrit verses quoted in the Sanskrit cominentary are often very corrupt; they are scrutinised in the light of their sources whenever possible; and plausible readings are allowed to remain in doubtful cases, Whatever is added by the editor, say in the form of chāyā or missing portion, is shown in square brackets. The Ms. Ga often adds the tern Vyakhya at the beginning of the commentary on each gåtbā, but it is not found ini the Mis. Dis the voc': th: Eitor's attempt is to present an authentic and readable text of the Commentary on the basis of two (in some cases three) M88. noted above without meticulously noting the various readings which do not affect the meaning in any way. Some diagrams in the discussion of Dhyana in Subhacandra's commentary could not be reproduced, because they are not identical in all the Mss. 2) ANUPREKŞAS a) EXTHOLOGY AND MEANING Though the term shows different spellings in Prikrit, namely, anuppchi, anupxhi, anula, apuppelki, anupakkhai and auvekkha (some of which are already recorded in Mss.), the Sanskrit counterpart of it is couprekodi (and not renütprekm) from the root is with the prepositions ante and prix, meaning, to ponder, to reflect, to think repeatedly etc. The commentators have endorsed this meaning, now and then duplifying it according to the context. Pūjyapāua in his commentary on the Tottexartha sātne interprets anupreko us pondering in the nature of the body and other substances. According to Svāmi Kumāra', unapreks is defined as pondering on the right principles'. According to Siddhanena', this repe pondering develops suitable mental stutes (m t). Nemicandra* explains it u cintaikui, reflecting. That (uprekeri covers comprehension-cum-visualiser 1) Sarvarthasiddhi on IX 3- Teatrapatrata agathi 2) Svāmi-Kärt keyānuprekşā 97: yrafat yet! 3) Bhayyafika (Bombay 1930) part II. 181- aan nafa-Tag ang207, इति वानुप्रेक्षाः । साइशानुचिन्तनेन ताशीभित्रों वासनाभिः संवरः सुलभो भवति । 4) On the Utlaráhyayopaz 29.22. H RT Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTEODUCTION tion with a concentrated mind is cloarly hinted by Asadbarat. Sabhacandra further expands its scope by saying that one has to reflect on the various principles, and this continued reflectiou involves constant Awareness of the nature of things. There is also another aspect for its meaning when it is used in connection with suallyaya or study of scripture, cnusprekşă or pondering on what one has learnt being one of its important factors. The Bhäsya and Sarrartha-siddhi bulvestressed this theaping while discussing stricthyrāya. Sometitues both the aypects, especially with later comentators, bave got mixed up. b) WHAT THEY ARE IN GENERAL The Anuprekşis are, in general, topics of meditation or for reflection, twelve in number, and embrace a wide range of subjects practically covering all the principles ond cardinal teachings of Jainism. They are in the form of reflections on 1) the transient character of thinga ( Mutya-unapreks) 2) helplessness (accrc_c8-c8), 3) the cycle of rebirth ( sansima,), 4 ) loneliness (ekutxa.), 5) separateness of the self and non-self anyatu-4.), 6) the impurity of the body ( 23ci-o. ), 7 ) the inflow of Karnas (irrorx6-. ) 8) stoppage of the inflow of Karmas (sarvard-c.), 9) the shedding of Karmas / mincov-x. ). 10 ) the constitution of the universe (loka-a.), 11) the difficulty of attaining enlightenment about true religion / bolli-durlatha-c.), and 12 ) the Law expounded by the Arhat (Warmw-xxxīkhyātu rx .) AR c) THEIR PUITION IN JAINA IDEOLOGY It is interesting to study the position of Amprokşă in Juin ideology or in the scheme of Jain principles. i) The shedding of Karma (2427.jci) is rendered possible through penance (tapas) which is twofold: External and Internal. The latter is of six Varieties of which saheynx or the study of the sacred lore is the fourth and glance, concentration or meditation, is the fifth. 1) Argdra-Dhurrāmrla ( Bombay 1919 ) page 414-TRIET Pagar दृश्यन्ते इत्यनुप्रेक्षाः। 2) Here in his commentary on the Sodni-8 artikeyanzspruksā, p. l-15 91: F: चिन्तनं स्मरणमनित्या विस्वरूपा गामित्यनुप्रेक्षा, निजनिजनामानुसारेण सत्वानुचिन्तनम गुप्रेक्षा इत्यर्थः । 3) On the Tattvārthasutra IX, 25, Bhasya : Han fartea 4 R: 1 Sarvartha siddhi : a aparels 4) EK, HÅNDIQUI: Vašasislah and Indian Culture ( Sholapar 1949), pp. 291 f. B) Ovaddiyasultath, Satrs 30, edited by N. G. SURG (Poona 1931 ), pp. 20, 24, 26, 27, for this and the next two paragraphe. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KIETTIKETINUPREKBA a) The study of the sacred lore is of five kinds: 1) vayanā, reading or reciting; 2) padipacchanc, questioning or inquiring on a doubtful point; 3) pariyatan, memorising or proper recitation; 4) anuppche, reflection or meditation on what is studied; and 5) dhammakahii, lecturing or delivering sermons. b) of the four dhycinas, dharnya and sukla deserve detailed scrutiny in this context. The Dharmyadhyâda, which is of four kinds, bas four characteristics (lakkhana ), fourfold support (dlanbana), numely, vāyani, pucchance, pariyattand and dhammkucha, and four attendant reflections (anuppeha) : 1) aniceanuppehå, 2) asaran-6., ) cgatta-6. and 4) sarsdra-a. Similarly, Sukla-dhyāna, which is of four kinds, has four characteristics, fourfold support and four attendant reflections: 1) aváya-anugehi, 2) asubha-14., 3) anamtavattiyaa. and 4 ) rriparinamaa. Thus Anuprekşā, reflection on or pondering over certain topics, has been closely associated with Dhyany, both Sukla- and Dharmya, and especially with the latter so far as the standard list of Anuprokşās, in parts O as a whole. is concerned. Sivárva in bis Bhagatai Arcidhand, while describing the dharma-dhyāna, thinks nearly in similar terms; and according to him, nupeli is the last alambana (the first three being eväyana, puochana and parivalumna) of it under its fourth variety or stage, namely, sarithanat vaya, which consists in meditating on the constitution of the universe 89 conceived in Jainism. Sivärya gives an elaborate exposition of the twelve Anuprekşås, the contemplation on which being a supplementary discipline. In his description of Sukladhyána there is no reference to Anuprekşis. ii) According to the T'attuarthasätra IX. 2, Anuprekşás are mentoned among the agencies that bring about the stoppage of the intlux of Karmas (sarura), the remaining being Gupti, Samiti, Dharma, ParişahaJaya and Caritra. All the commentators elaborate the discussion about anuprekras only in this context. The Sútras mention anuprchscts under stridhyāya (IX, 26 ) where the meaning is slightly different, but do not refer to them under the discussion of Dhyana (IX. 28 ff.). Thus Anupreksā occupies a significant position in Juina ideology. It is conducive to the stoppage of the influx and shedding of Karman; it Th 1) According to the Taträrtha-sūtra (IX 25 ) the order of emmeration and wording are alightly different 2) Kalaradhana (Sholapur 1935 ) gathās 1710, 1875-76 eto. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WIRD VON supplements the discipline of meditation; and it is one of the forms of the study of the sucred lore. Its twofold connotation, noted above, depends oL its association with Meditation or Study. d) Tabir Purpose and Soore The object of Anuprekşi and its effect on the soul aspiring after liberation are explained at length in the Uuaradhyayaux-nitra (XXIX. 22): By pondering on what he has learned ] he loosens the firm hold which the seven kinds of Karman, except the õrnuşkus (have upon the soul ); he shortens their duration when it was to be a longer one; he mitigates their power when it was intense; (he reduces their sphere of action when it WAS A wide one ); be may acquire Ayaşka-Karmen or not, but he no more accumulates Karidan which produces unpleasant feelings, and ho quickly crosses the very large of the fourfold Sansira which is without beginning and end,' The ultimate objective of Acuprekşā-contemplation is the stoppage ( 8mvara) of the influx of and the shedding of Kurmun / nirjari). As interwediary steps many a virtue is developed by the soul by contemplating on one or the other Cuprekci. The topics of Anuprekşi serve 19 putent fuctors leading to spiritual progress. When one is impressed by the transient nature of worldly objects and relations, one directe one's attention from the outward to the inward: the attachment for the world is reduced giving place to liking for religious life which alone can save the soul from Sansira and lead it on to liberation. By this contemplation the relation of the self with the universe is fully understood: the mind becomes puro and equanimous; attaobment and aversion are subjugated; renunciation rules supreme; aud in pure meditation the Atman is realized, The scope of the religious topics covered hy twelve Anuprekşās is pretty wide. When the worldly objects ure realized to be transitory and relations temporary, there develops that philosophical yearning ter solve the problem of life and death, the individual, often under the pressure of liis pre-dispositions, thinks, talks and acts, und thus incurs i fud of Karms the consequences of which he cannot escape. Being the architect of his own fortune, he can never escape liis Karras witbout experiencing their fr The soul boing in the company of Kurnias from beginningless time, the transmigratory struggle is going on since long; and it is high time for tlie self to realise itself as completely different from its 38ociates, both subtle and grogs. To realise the potential effulgence of the self, one has to under Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 KĀRTTIKSTANUPRIKE. stand the derogatory nature of its accessories like body eto. The causes of the Karmio intiux have to be ascertained and eradicated and the stook of the binding Karman to be destroyed. A detailed contemplation on the universe in its manifold aspects helps one to understand the self; and this understanding is something rare and reached after a good deal of effort along the religions path preached by worthy Teachers who lived what they preached and become ideuls, after attaining the bliss of liberation, for all the aspirante The Anupreksäs are of significant value in one's career in all the stages of religious life and spiritual progress. They are in the nature of reflections on the fundamental facts of life, and remind the devotee of the teuchings of the Master on the subject of rebirth, Karma and its destruction, equanimity and self-control, the glory of the Law and the final goal. They are no doubt designed to develop the contemplative faculty of the Yogin and may be called the starting point of dhyana. Bat they have also a great moral significance inasmuch as they are meant to develop purity of thoughts w sitocrity in thu plautics i ružnica." e) TER TWOFOLD ENUMERATION Especially in the Satra texts, the order of enumeration of any topics has a practical advantage for referential purposes, apart from the possibility of its getting some traditional sanctity. So it is necessary to see how Anuprekşās are enumerated in earlier texts. The ligt of twelve Anapreksas as enumerated in the Tattoärthuct-szātra of Umagvāti (IX. 7) hus become more or less standard for subsequent writers who adopt it with very minor changes in the order, may be for metrical needs etc. Umāsvāti's order standa thus : 1) anitya-Q., 2) asaranar, S) sannars, 4) ekatva-, 5) anyatt, 6) aruch 7) tiskva, 8) schwara, 9) nirjarä-, 10) loka 11 ) bodhi-charlabhatua, and 12) dharma-stākhyctatexx. The three authors Sivārya', Vattakera' and Kuudakuude* stand together with a definitely different order of enumeration which stands thus: 1) adhruna-1., 2) sarcana, 3) chatx, 4) conyador, 5) WILKĀNU, 6) loka, 7) such, 8) ISTORIE, 9) Sarwu, 19 ) marjardi, 11 ) dharm , and 12) bodhi. That in the Marancescomtiha is nearer the one of these authors than that of Umāsvāti. Sväni Kumára, however, agrees with the enumera tion of Umasväti, though he agrees with Sivăryand others in preferring the term adhruxs to amtya. 1) K, K. HANDIQUI: Yalettiluka and Indian Cultura (Suolapur 1949) p. 293. 2) Halārādhand, gathā 1715. 8) Hüdcdra (Bombay 1923 ) part 2, VIII. 2. 4) Bara Arnuakkha in the Sat-Prábbft&di-Sangraha (Bombay 1920 ) p. 195. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION with 8) ANUPREKSA IN JAINA LITERATURE a) CANONICAL STRATA It is necessary to record what information is available about Anu prekşi, not in its general sengel but in its technical perspective, as outlined above, in the earlier strata of Jaina literature, especially the canonical texts. The canon, as it has come down to ng, contains older and later portions; and as yet our studies have not progressed towards chronologior! stratification of the various texts. Some of the contents may be as old as the second century after the Nirvana of Mahavira, while their final forma, mostly as available today, is as late as the fifth century A.D. : the earliest known compilation was made at the Pataliputra Council and then, through Various vioissitudes, the available texts were collocted and written down at the Valabhi Council presided over by Devurddhi. So taking the present texto as they are, an attempt can be made to put together all information about Anuprekşks from the canonical texts, namely, 11 Angas, 12 Upāngaa, 10 Prakirnakas, 6 Chedasūtras, 4 Mūlasūtras, and 2 Individual Texts; and also the relios of the Püryas. 1) According to the Thanamgas, there are four Dhyānas : offa, rodda, dhamma and sukka, The third, namely, Dharmy, is of four kinds; it bas four characteristics; it is supported by four props : 1) tayancē, 2) padipt cchand, 3) pariyattand and 4) anuppehā; and lastly it is to be attended by four apuppehus: 1) ega anuppehd, 2) asiocama., 3) barang-b., end 4) Banhsdm . In the like manner, Sukladhyana is also of fotur kinds, has four characteristics, is supported by four props and is to be attended by four anuppehaža: 1) ananitarktiyaa., 2) viperiquima-a. 3) subha-., 4) aviyara The passage in question stands thus :' पम्मे झाणे चढविहे ठप्पडोयारे पण्णसे । सं जहा। भाणाविजए, भवायविजए, विवागविजए, संडाण विधए । यस्सस्स पंझाणस्स पचारि छपसणा पण्णता। बहा । जाणाई, मिसम्गबई, सुत्ती, मोगाबदई । धम्मस्स झाणस्स बचारि भाषणा पण्णता । तं जहा । वायणा, पवितणा, परिवाना, मणुष्पहा । अम्मस्स MR Tot mit quorut I WE ET, whirurg, Engdal, HICIT 1) The word is now and then used in its general sense, for instance, Arrogadang Batra 73, Switāgama (Gurgaon 1954), Vol. II, p. 1092. 3) Sulkagame (Gurgaon 1963), L p. 224, also Grimal Sthinanga-sútram with Ablag deva's Commentary (Abmedabad 1937) pp. 176-77. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀETTIKET ANUPEEKŞA सुके झाणे पबिहे पउपदोयारे पपणते । ते बाहा। पुहुप्सनियर सबियारी, एगतविय अधियारी, सुहमकिरिए मणियट्टी, समुन्छिकिरिए अपहिवाई। सुहस्सण साणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णता । तं जहा। सम्बई, मसम्मोहे, विखेंगे, विउस्सरगे। सुफस्स ण झाणस्स बसारि भालंबणा पण्णता । तं जहा। खंती, मुसी, महवे, अजये । सुक्छस्स झाणस्स बसारि अणुप्पेडाओ पाता । तं जहा । अर्णतवत्तियाशुप्पहा, विपरिणामाणुपेद्दा, भसुभाणुप्पेहा, अवापायुप्पेहा । 2) A similar passage is found in the Ovariya-sutta (Sutra 30 ) according to which '4 dhammakand takes the place of 4 wuppcha; and the order of enumeration of the four anuppehuis is slightly different: anioca, comes first, and eyes or eyestta-ca, stands third. Further, under Sukladhyana also, the order is slightly different: larkya-,288udhar, 3anasiatorsttiya, and 4 viparintīma. 3) As already noted above, according to the Oravaiya-sutta, the Internal penance is of sis kinds, the fourth being saijhayes and the fifth, jhana. The sahaya is of five kinds: 1 vayand, 2 padipucohana, 3 pars. yattana, 4 an uppehci and 5 dhammakahā. In the passages referred to under 1) and 2), Anuppeha and Dhammakrku figured as alternatives in the Thapanga and Ovaviya, but here they are separately enumerated. This separate enuneration is further confirmed by another passage of the Ovarxiya which stands thus (Sutrs. 31): तेणे कालेण तेण समएणं समणस्स भगवो महावीरस बहवे अणगारा भगवतो अप्पेगड्या पायारवरा आय विवागसुयधरा तस्य तस्य तहिं तहिं देसे देसे गम्छागछि गुम्मायुमि हाफहिमपाइया चायति अपेगया परिपुरति अप्पेगड्या परियति अप्पेगड्या अणुप्पहसि अप्पेगड्या भस्लेवणीओ विक्खेवीओ संवेयजीमो जिम्वेवणीमो बहुविहाभो कहाभो कहति भप्पेगइया उजाणू अहोमिरा भाणकोट्टोबगया संजमेण तवसा अप्पार्ण भाषमाणा विहरति । 4) The Utterichyayana-sūtre* (xxx. 30, 34) also classifies the Internal penance into six kinds, and the fourth, numely, scajghaya is of five kinds: 1 vyanā, 2 prochai, 3 pariyutunu, 4 onuppehå und 5 dhammakaha. In the earlier chapter (xxix), SaTarmatta-puraskame, among the topies enumerated, sajj hrīya stands at No. 18 and is followed by vayani, padipucchana, pariyatta , anunpeha und dhammakala which are numbered 19 to 23. It is possible, of course, to take that these five are just the amplification of srojjhāya, The text, as already quoted above, explains at length the effect of Anuprekşā on the soul aspiring after liberation, 1) Abhayadeva explains then thus: अनन्ता अत्यन्त प्रभूता वृत्तिः वर्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिः, अनन्ततया परीते इत्यनन्तवती तन्द्रावस्तथा, भवसंतानस्येति गम्यते । ......विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो वस्तूना मिति गम्यते 1....... अशुभत्वं संसारर यति गम्यते । तथा अपाया आप्रवाणामिति गम्यते । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 13 5) The basic Sūtras of the Sackhandagord on which Virasena (C, A, D. 816) has written the Dhaval commentary using, if not incorporating, earlier Prakrit commentaries, are a relic of the PūryAS; and in one Sutra, while explaining the Srutajúīna-upayoga, the following eight types are mentioned thus: ब्रा तस्य वायणा वा पुग्छणा वा परिच्छणा वा परिपट्टणा वा अणुपेकखणा वा थय थुदि-धम्ममा पा से बामण्णे एवमाविया ॥ The commentary gives a detailed interpretation of all these, aidong which Anuprekķā is thus expluined: i) कम्मणिमरण?महिमजाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्षणा णाम । ii) सांगीभूदकदीए कम्मणिमरहमणुसरणमणुवेक्ला । 6) It would be relevant to rocord here some negative evidence also. The Uttaradhyayan sütra, Chapter xxi, Carañavihi, enumerates topios arranged in units of one, two, three, etc. Under the group of twelve there iş no mention of Anuprekşi (verse 11). In similar enuinsrations in the muiyan, 10. R epertuis, ke list of twelve Anapreksās is not mentioned. Secondly, in the Panhänigaranaim the five Şarivarsdvärast are mentioned; but they do not, as in the mattvärtha-sritru, include Anuprekşa; and what are mentioned there is Bhayanās, like those in the Ayaranga, aro quite different froin Anuprekşå for which later on the term Bhāvaná came to be used. 7) The Mahnisiha-gutta enumerates Bhāvanās in this manner: # T E I HATI -HT9011, -7°, va To, *T*-*1°, Berto, F ARM, *-He", recorre-HT", E 24-****, *** gurit gen foresti, re-fra. भा, बोही सुलहा जम्मतरकोडीहि बि सि मा । 1) HIRALAL JAIN: Satkhandāgama, IV. 1, vol. 9, pp. 262-63 (Amraoti 1949). 2) Sattāgame ( Gurgaon 1953), vol. 1, pp. 325-6. 3) Sulfāgame (Gurgaon 1954), vol. 2, p. 1168. 4) A. C. SRN: A Critical Introduction to the Ponkaniyaramain, the tenth Anga of tha Jaina Cenon (Wurzburg 1936), pp. 7, 19 etc. 5) W. SOUUMBING: Das Wahānisina-szolta ( Berlin 1918 ) p. 66. This work is later than Pinga- and Oha-nigjutti, but in reality Can scarcely be attributed to the canon with correct neos. Both language and subjeot-matter, e y the occurence of Tantrie sayings, the mention of non- onioal writings, clo., seem to indicate a Jule origin of this work.' M. WINTEBAITZ: Allistory of Indian Literature, vol. 11, p. 405. 6) Compare Prascma-rati prakarapu, No, 161: et tart # Rano: रतास्ते संसारसागरं लीलयोशीणाः।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 KÁRTTISBY ANUPRIKAZ This list as compared with that in the Tattvarthasticaco is wanting in Educity, and tattoncinta-bhavana geems to be additional: any way the twelvefold enumeration is maintained, 8) In one of the Paiņņaya texts, namely, the Marcuscindh, the twelve Bhāvanās are thug enumerated: ! amicourbone, MEN Sent, 4 annatta, 5 sarisara, 6 cesubhari, 7 logasschaava, 8 , 9 samvert, 10 nijjurance, 11 zettamo-grano und 12 boni-dullahaya." The object of these BhaYanãs is to inculcato ucirágya or the spirit of detachment and renunciation and they are explained in detail, in some 70 gathas (569-688). 1) In this world the position and pelf, contacts and coresidencc, physical gifts and worldly accessories are all transitory (574-77). 2) When one is pestered by birth, old age and doath, the only shelter is the Jina-sasada. Even with all the military equipments no king has been able to conquer death, Neither miracleg nor medicines, neither friends nor relatives, not even gods, can gave a man from death; and none else can share his agonies (578-88). 9) Otheța do not accompany one to the next world. One has to offer all alone for one's Karnas. It is futile to weep for others without understanding one's own plight (584-88). 4) The body and relatives are all separata from the self (589). 5) With the mind deluded and not knowing the contact path, the Atman wanders in Sansira, in vurious births, suffering physical pains and mental agonies. Birth, death, privations etc, are to be faced all along the same soul plays different roles in different births without following the Dharma ( 590-600). 6) Dharma alone is fubha, auspicious or beneficial, while wealth and pleasures lead one ultimately to misery (601-4). 7) There is no happiness in this world, in the various grados of existence. Birth, death, disease, impure body, separatiou and montal disturbances: all these leave to room for happiness (605-10), 8) Attachment, arersion, Degligenoe, sensual temptationg, greed, fivefold sin: all these lead to the inflow of Karmap into the soul like water into a leaky boat (611-18). 9) Eradication of passions, subjugation of sensos, restraint over mind, speech and body through knowledge, meditation and penances rescue the soul from Karmic influx ( 619-24). 10) Fortunate are those who have severed worldly attachment, follow the path of religious life, and thus destroy the Karmas (625-28). 11) The path of religion preuched by Jinks is highly beneficial. Deeper the detachment and spirit of renunciation, neurer one goes to the 1) Prakirnaka-datakam ( Bomboy 1927), pp. 136 ff. 2) पदर्भ अणिमा असरणयं एगयं च अन्नत्तं । संसारमसुमया विय विविई लोगत्सवाव च ॥ कम्मरस आसवं संवरच निचरणमुत्तमे व गुणे। जिणसासणम्मि योहि च बुद्ध वितर महमे ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTBODUCTION 15 goal of religious life, namely, the seat of highest bliss ( 629-31). 12) While Wandering in this worldly wilderness, there are so many temptations that it is very difficult to find the correct and advantageons position and therefrom reach religious enlightenment given out by Jinas (632-38). The contents under casubhaya deserve special note, and the impurity of the body is not even referred to there. It is interosting that uttane ya gune is to be understood for Dharma, possibly throngh the Ten Dharmaa, which are, as a rule, qualified by the tera esttamal Some handy similies are introduced here and there. Ao over-greedy person suffers like & fish whioh has swallowed the hook (615), Five Indriyas prove dangerous like serpente handled unaided by charms etc. (618). A soul sabject to Karmio influx is like a leaky boat (618). Knowledge, meditation and penances bring under control sense-pleasures and passions like reins of the horses (62 The penances destroy the seed of Samsára just ag fire burg & clamp of grane (621). In one gåthå is mentioned Dadhapaiņna which has become as good as a proper name of a Sramana of firm religious faith; and in another is given the illustration of Kandarika and Pundarike the details about whom are available in the Nayadhammakahco (xix). 9) Beside these details, it is possible to spot in the canonical texts, passages and contexts (though the term Anupreksamay not bave been used there ) which can be suitably included ander one or the other anupretadi. i) The Sramanio, or what is called Asoetic, poetry is essentially characterised by that basic pessimism and consequent niurtti which originateg from the notion of transitoriness (arityata) and is expressed in various ways: 1) दुमपसए पंदुयए जहा निवडइ राइगणाण भए । एवं मणुबान जीविच समर्थ गोमम मा फ्माए । कुसग्गे जद जोसविंदुए थो चिट्ठा प्रमाणए । एवं मणुयाण जीवियं समय गोषम मा पमायए। इइइत्तरियम्मि भाउए जीवियए बहुपचवायए । विहणादि रयं पुरे को समय गोयम मा पमाए। 2) इह जीविए राय मसासयस्मि धणियं तु पुण्णाह मकुम्बमाणो । से सोयई मन्तुमुहोवणीए धम्म मकाऊ परम्मि छोए॥ 3)अममो पब्धिया सुम्भमभयदाया भवाहिए। मणिजीवलोगम्मिबिहिसाए पसजसि। अया सर्व परिषज गंवम्बमवसस्स ते । पणिवे जीवलोगम्मि कि रजम्मि एससि। जीवियं व स्वं चविखुसंपायचंचल । जत्थतं मुझसी रायं पेचले मावजासे। 4) मणि खलु भो मायाण जीवित कुसग्गजलबिंदुचले। 5) किंपागफलोवमं च मुणिय विसयसोक्खै जलबुखुपसमाण कुसगजलाबिंदुचलं जीविय च गाउ शुकमिष रयमिव पगलाग संविधुपित्ताण चाता हिरण्ण जाव पम्बइमा । 1) Tattudatha-ritra IX. 6 2) Dosarithyayantrastrax.l-3XIII. 21,XVIIL.11-13 3) Daamdeydliya-sretka, Cūlika 1, 16. 4) Ovavaiyaristia, Sutra 23. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 KARTTIKEYĀNUPREKSA ii) The Atman is his own shelter, an architect of his fortunes and misfortunes; and none else can save him from the consequences of his Karmas. The great Tirthakaras have already shown the path by their own example. This theme is closely linked up with the Karma doctring which leaves to margin for divide intervention in human affairs. A touching esposition of this anäthatā or saranatua is found in the Uttaradhyay con-sâtro (II) in which this idea is very nicely driven home to king Srenika. Stray passages are found in many places: 1) ...भभिच खलु वयं संपेहाए। तबो से एगया मुढभावं जगर्यति । जेहिं वा साई संवसह तेव एगया नियगा पुदि परिवयंति सो वा ते नियगे पच्छा परिवपूजा । नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुम पितेसिं नाळ ताणाए वा सरणाए बा। 2) अविणो मिगा जहा संता परियाणेण वजिया । असैकियाई संकेति संकियाई ससंकिणों"। 3) एए बिया भो न सरण पाला पवियमागिणो। हिवाणं पुम्बसंजोर्य सिया किशोवएसगा। 4) पाहेण जहा व विलए सबले होइ गर्व पसोहए। से अंतसो मध्ययामए नाइबले भबले विसीव ॥ 5) इहलालु नाइसंजोमा नो ताणाए वा सो सरणाए वा । पुरिसे घा एगया पुदि माइसंखोगे बिप्पजाइ, नाइसंजोगा पा एगया पुचि पुरिसं विप्पबइति । 6) माया पिया "दुसा भाया भजा पुस्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय लुप्तस्स सकम्मुणा ॥ एयमढें सपेहाए पासे समियदसणे। शिव गेविं सिणेई च न कखे पुख्वसंथर्व ॥ 7) जव सीहो व मियं गहाय मण्य नरं नेहह अंतकाले। तस्स माषा व पिया व भाया कालम्मि सम्मि सहरा मवेति ॥" 8) या महीया भवति ताण भुसा दिया नेति तमं तमेणं । जापा य पुत्ता नवति ताणं को णाम ते अणुमधेश एवं ।। 9) सम्वं जग बह तुई सय घावि वर्ण भवे । सम्ब पि ते भपजस नेव ताणाय तं तव । 10) ममाहो मि महाराय भादो मज्म न बिबई । भणुकंपग सुहं वापि कंचि नाभिसमेमहं॥ 11) मायापिइमेधूहि संसारस्थेईि पूरिमो लोगो । बहुजोणिवासिएहिं न य ते ताणं च सरण च। iii) Many descriptions of the endless Samsára with its privations and miseries in the four grades of life are found in the canon, The Süyagadath describes the miseries in hell in one of its ohapters, I.5.1-23; and Miyaputta convinces his parents that ascetic life is really covetable when one rememberg the various miseries one has to experience in different lives. The details are elaborated round the central idea which is expressed in the following verse: 1) Ayaramiga-tatia I. 2. 1 2) The context ia slightly different. 3) Siyagadani, I. 1.2.6, I. 1.4.1, 1.2.3.5, II. 1. 13. 4) Note the use of sampehāc ubove and sapshák bere. S) Compare Mahabharata Mokaadhartna 175. 18, 9: तं पुत्रपशुसंपन्नं न्यासक्तमनसं नरम् 1 सुप्त म्याघो मृगमिव मृत्युशय गरछति ।। संचिन्जानक्रमे कामानामवितृप्तकम् । व्याधः पशुमिवादाय मूल्युरादाय गच्छति ॥ 6) Uttaradhyxyxa-bra, VL 3-4, XIII, 22, XIV. 12, 39, XX. 9. 7) Makāprotyúkhyāna 43. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I i 17 1) जम्मं दुक्ख जरा दुख रोमाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो डु संसारो जन्म फीसंति जंतवो ॥ १५ ॥ The Samsāra is typically described thus : INTRODUCTION 2) इयं च अणवदग्गं दीमक चाउरतं संसार कंतारं ' I 8 ) जद्दा अस्साविण नावं आइ अंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं अंतरा य विसीयइ ॥ निट्टी एवं संपला अणुपरियर्हति' 14 4) सूई जहा ससुत्तान नस्सई कयवरम्स पहिया दि । जीवो वि तह ससुत्तों न नस्सई गओ कि संसारे ॥ इंद्रियवियपत्ता पति संसारसायरे जीवा । एक्खि व छिम्रपक्खा सुसील गुणपेहुणबिणा ॥ 5) पीयं यणाच्छ्रीरं सागरसलिला बहुतरं होगा । संसारस्मि अर्णते माणं ममाणं । I बहुसोधि मए रुष्णं पुणो पुणो तासु तासु जाईषु । नयणोदयं पि जाणसु बहुवयरं सागरजलाको | नत्थ किर सो परसो लोए बालग्गकोडिमिनो वि। संसारे संसरंतो जरथ न जाओ ममो वा वि ॥ जुलसी किल लोग जोगीपमुद्दाई सयलहस्साई । प्रदेश छत्तसमुप्पो' ॥ iv-v) The themes of chata and anyaten go together. The Atman is essentially lonely or single throughout its transmigratory journey; and one has to realize one's responsibility and oneself as separate frou everything else, from the subtle Karman to gross body and other possessions and relatives. That the soul and body are different is the central theme of the discussion between king Paesi and the monk Kesi in the Rayapaseṛaijjaṁ. Incidental passages on these topies are numerous in the canon: 1) सम्बं हिं परिभाय एस पाए महासुणी, अध्यच सम्यभो संग 'न मदं मत्थि' इति । इति 'गो महमसि' जयमाणे पुत्य विश्ट अणगारे सव्वओ मुंडे रीयए । 2 ) न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न मित्तवार न सुधा न बँधवा । कोस दो दुक्कसारमेध अशुजाइ कम्मं ॥ 3) एकोनत्थि मे कोई न चाहमात्र कस्सई एवं अदीणमणसो अयाणमणुलाए ॥ को उपज जीवो को व वित्रज । एकस्स होइ मरणं एको सिज्झइ नीरभो ॥ कोकरे कं फलमव तस्सेक समजुवइ । को जायइ मरह परलोयं प्रकओ जाइ ॥ प्रो में सास अप्पा नाणदंसणसंसुओ सेसा मे बाहिरा भावा सन्वे संजोगलक्स्वणा ॥ ral करे कम्मं को अणुवह दुकविवागं । को संसद जिलो जरमरणचउग्मगु बिल स 4) अनो जीवो अनं सरीरं । तम्हा ते जो एवं उबलति । 5) अनं इमे सरीरं अनो जीवति नियमई। दुक्खपरिक्रिलेसकरं छिंद ममसे सरीराम ॥ XIX, also XXIX, 22, 1) Uttardeliayagn 2 ) Styngoderma 1. 1. 2. 31-22. 3) Bhatta-parinud, 86. 4 ) Hnhāpratyākhyānes 37-40, 5) Ayuranga 1, 6. 2. 6 ) Uttaradhyaastaritra XIII 23. T) Huhiyyrat.yrikhaayana 13-16, 44. 8) Sayagadam 11. 1. 9. 29, p. 70, ed. P. L. VAIDYA, Poona 1928. 9) Treenadrates-seyiiligm 100. 3 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIK BY ANUPRIŞĂ vi) That the body is impure, pleasures thereof are futile and delusive, and the Atman alone is worth pursuing this is a favourite theme of the canon. The Nayādhamma-kahão, viii, presents a characteristic description of the body: 18 1) · इमस्त पुण बोराछियसरीरस्स खेलासवस्स बतासबस्स वित्तासबल्स थुकास्वहस सोनिबpros gwaarachtanarea gergaggagāggem azm जाव भ्रम्मस्स केरिपु य परिणामे fireer 2) इमे सरीरं मणिदं भसुई असुद्दसंभवं । असासयावासमिण सुक्लं केसान भाषणं ॥ असासए सरीरम्मि रहे नोवलभामहं । पच्छा पुरा व भयम्बे फेजसंग ॥ 3) angeæri afd gid Angujú | vkézfiri diez avonuriaHÈVİ 11 कित्तियमित वण्णे भमेज्झमाहमस्मि वचसंघाए । रागो हुन कायन्त्रो विरागमूले सरीरनि ॥ flagsendkaù agradiva zarazment i ämneymaefta Andrá que «ft' 11 vii-ix) Asrava, Samvara and Nirjară are three of the Seven Principles or Nine Categories of Jainism; they are closely linked with the Karma doctrine; they explain Samsara on the one hand and lead the soul on to liberation on the other; and further, they form, to a very great extent, the basis of Jaina ethics and morality. At all suitable contexts they are discussed in the canon. Practically the whole of the Panhavagaraṇāiṁh is devoted to explain ōsava and saṁvara,* x) A correct understanding of the universe (loka) with its two constituents, Jiva and Ajiva and their varieties and mutual reactions enables the Atman to understand oneself. Special treatises like the Divasagarapannatti and Surapannatti etc. are devoted to this topic; and many of the canonical sections give details about Jiva etc. Here one cultivates the feeling of the immense greatness and extent of the universe and space, full of wandering souls. xi) A gradation list of the rarities is often met with in the canon. Starting from Nigoda the soul is on a march of spiritual progress through various grades of living beings. Then to be born as a human being at a suitable place, in a good family, with a perfect and healthy body and with requisite opportunities for religious enlightenment is something that is rare. If the loka-anuprekṣā inculcated the feeling of immense space, this Anupreksa makes 1) Ed. N. V. VAIDYA ( Poona 1940) pp. 113 ff; further Tandulavoyaliya, Batra 17, gives a more graphic description. 2) Uttaradhyayana XIX. 12-3 3) Tandulaveyaliya 84 fi., 90 ft. 4) W. SOHUBRING: Die Lehre der Jainas (Berlin and Leipzig 1935) pp. 186 etc. 5) Uttaradhyayana-sūtra XXXVI 6) Uttaradhyayana X. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODCCTION 19 one realize the fen " enx"o: clue in course ci series of births produces the improssion of the rarity of human birth and of religious enlightenment : 1) संजुजाह किं न शुलह संयोही खलु पेच दुलहा । नो एवणमंति राइनो नो सुलभ पुणरावि जीवियं ।। __इणमेव खणं विवाणिया नो सुलभं बोहिं च आहियं । एवं सहिए हियामए माह जिणे इणमेव सेसगा। 2) चत्तारि परमेगाणि दुलहाणीद जैतुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य पीरियं ॥ दुलहे खलु माणुसे भवे चिरकालेण वि सम्वपाणिण । गाठाय विवाग कम्मुणो समयं गोयम मा पमायए'। 3) दुलो खलु भो गिहीणं धम्मे गिहिवासमझे वसंताण। xii) Dharna covers the two-fold religion and the consequent modes of religious life with its attendant rules of conduct and pious living, prescribed for llouseholders and inonks, The Urāsagadascio describes the rules for 2 householder, and the life of a monk is elaborately described in the Ayiranga arul other texts of the canoti. The term dharma-sakhy itatoa reminds one of sahtliynalommg in the Uttaradhyayana (ix. 44 ), These bits of ovidence, both positive and negative, culled together from the present-day canon lead us to the following conclusions: Anuppehā is recognised right from the beginning as a potent agency for the destruction of Kurman; it accompanied Dhyana or meditation, both Dharmy-dhyāna and Suklu-dbgana; the four Anuprekşās of the latter (vide 1 above) did not get incorporated, like those of the former (vide 1 above) in the standardised list of the twelve Angpreksās. The twelve Anupreksas en bloe are not webtioned in the early canon which notes some other Anuprekşan than those included under the grouping of twelve. Later, these Anupreksas, when perhaps treatises were composed on them, came to be included under or ussociated with Svädhyâya or study. The first four Anuprekşās stand as a group and very well represent the memorable themes of ascetic poetry: the next two also can go with them; then the 7th, 8th and 9th stand together as busic dogmus of Jainism; and the last three go together as a positive glorification of the doctrines preached by Jina. Once the twelve Anuprekşās were enumerated, they served as a basis on which individual authors could compose comprehensive treatises which are not only valuable compendiums of Jaina doctrines but also repositories of great ethical sermons and of didactic poetry of abiding moral value and appeal, 1) Sriyajadun I.2.1.1, 1. 2. 3. 19. 3) Uttaradhyayana IIJ. 1, X. 4 eto. 3) Dasaveyaltys, Calia I. 8. 4) There is an interesting and elaborata explanation of Arākkhäls as an adjective of chama in the Vistdallimagyo, pp. 1475, ed. by Koosindi, Botubay 1940. 5) W. SUURAING: Die Lohne Bar Jain (Berlin Leipzig 1935) pp. 169, 198, 199 ft., also ATXARAMA: l'attbartharura Jatrayama-samattaya (Roblek 1936), p. 181 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XABTFIKEYANUPREKEX b) THE TATTVÄRTEA-SÕTKA AND ITH COMMENTARIES It is already noted above that the Testtrarthasūtru (IX. 2,7) mentions anuprekę as an agency of samara; and the twelve anupreksis enumerated in the Sutra are elaborated by various commentators, The Tattvärthadhi. gamas-Whāsya' and the Sarvärthasiddhi are the two basic sources, with much in common both in thoughts and expressions; and they have given u positive lead to the subsequent commentaries in fixing the scope, in supplying the thought-capital and in outlining the details of each anuprekoi. It may be garn hore how some important and exhaustive commentaries bave elaborated these very ideas. The Rajavārttikot of Akalanka (e. last quarter of the 7th century A. D.) not only incorporates practically the whole of the exposition of the Sarvārthasiddhi on the anwyreksas but also adds more precise definitions and supplements as well as olaborates with technical details somo of its points. Sometimes, as in the case of bodhridurlabha-a., the technical details are strikingly elaborated. Akalanku impresses one as a typical Naiyáyika with 21 marvellous mastery over Jaina dogmatic details. The Bhāsyānustirings of Siddhagena (c, 7th to 9th century of the Vikrama era) is an exhaustive exposition of the 1.-bhäsya. But on the Satras in question, it primarily interprets and now and then elaborately explains with some dogmatical dotails the very text of the Bhagya. What triking is that there is no further contribution to or development of the thonght-pattern of Anapreksā, as we find on the section of dhyānas etc. where some additional verses are quoted by Siddhasena, The Tattoirtha-sloka-ivāttikca of Vidyananda (C. A.D. 775-840 ) has hardly anything to add on the anuprekşi Sūtras beyond repeating the vürttikams of Akalanka in a string and then rounding off the explanation with a couple of verses. There is no further advance on the thought-pattern and supplementation to the ideas already recorded by the Sarvarthasiddhi. 1) SUKEALALAJI SANGaayi: Taltvāratha-stra (Bariaras 1939), Intro., pp. 36 ff. 2) In the Räyacandra Jaina Sastramila, Bombay 1931. 3) For editions, K, B, NITAYS: Kolhapur 1917: PAQOLCANDA SAABTEI: Jiadapttha M, J. C, No. 13, Beogra 1955. 4) Ed. MAHENDRAXUMAB JAIN: Jilavapitba M. J.O., No. 10 A 20, Banerus 1953–57. 5) Ed. H, R. KAPADIA in the Seth Devachand L. J. P. Fund Series, Nor, 67 sod 76; Bombay 1926-30. 6) Ed, MANOBARLAL, Bombay 1918; also DARABAKILAL JAINA: Apta parikei, Delhi 1949. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION The Tattvartha Vrtti of Śrutasigara (16th century of the Vikrama era) is more or less a further explanation, a close but detailed paraphrase, of the Sarvarthasiddhi in this context. The compounds are dissolved and the subject-matter is presented in simpler language. Some time the original passage from the Sarvarthasiddhi is repeated. Now and then some ideas are further developed with additional illustrations and similes. At the close of the Vrtti on this Sutra (IX. 7), Śrutasågara adds fourteen verses, in the Sandals viridite metre: the first enumerates 12 anupreksas; then each anupreis is elaborated in a verse; and the concluding verse tells us how Śrutasugara, the disciple of Vidyanandi, composed these verses for enhancing the spirit of renunciation (vairagya-samṛddhaye). The verse on anitya-a. runs thus: 21 सम्बोधचरित्ररखनिचयं मुक्रवा शरीरादिकं न स्थेयोऽतसुरेन्द्रधनुरम्भोदाभं कचित् । एवं चिन्तयतोऽभिषक विगमः स्याद्भुक्तमुकाशने याहिलयेऽपि नोचितमिदं संशोचनं श्रेयसे ॥ c) DETAILED EXPOSITION There is a group of Jaina texts which wholly, or in a substantial part, devote themselves to the exposition of Anuprtks; and some of them are older than the Tattvartha-sutra. The Barasa-antrekkha (B) of Kundakunda is an important Prakrit text solely devoted to the twelve-fold reflection. The printed text shows in all 91 gathas, but a palm-leaf Ms. with a Kannada gloss from the Laksmisena Matha, Kolhapur, omits gathas Nos. 35, 41, 45, 67 (identical with Kettigey nuppekkhā 104), 90 and 91 (which specifies Kundakunda-muninātha as the author), and has a different gatha instead of No. 19 which happens to be identical with the Damsana pähuda, gatha No. 3. A really critical text of this work is an urgent necessity. As already pointed out by me years back, there is an appearance of antiquity about this work. First, some of its gathis are common with the Malacara VIII, and possibly they are ancient traditional verses. Secondly, five gathas from this work (Nos, 25-29) are quoted in the same order in the Sarvarthasiddhi (II. 10) of Pujyapada. Lastly, the method of exposition is quite traditional and dogmatic. For some of the ideas and similes (like jala-budbuda) Pujyapāda seems to have been indebted to Kundakunda. 1) Ed. MAHENDRAKUMAR JAIN: Juanapitha M. J. G., No. 4, Bauaras 1949. 2) Satprabhṛtadisamgrahah, Manikacandra D. J. G., 17, Bombay 1920, pp. 425 ft. 3) एको खवेदिकम् अविसनं जोण्डकहियमग्गं । मोक्शं सुई [ नोक्खमुहं ] उपलं की अगुवदि मुरूपा ॥ 4) A. N. UPADHYE: Pravaca-dra (Bombay 1935) Iatro. p. 40. For the age of Kundakanda, see lbidem pp. 10 f. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 KIRTTIKOYANUPBRKSA In the method of exposition it is characteristic of Kundakunda that he uses both niscaya- and wavahdra-rayas. Apart from his discussion about transitorines etc. of external adjuncts. he necessarily insigte on the meditstion of the Atman which is eternal, the ultimate shelter, unique on account of its distinguishing churacteristics, quite separate from all others, not to be lost sight of in this transmigratory circuit, worthy of being realised in this universe, pure as distinguished from its body, to be understood as quite apart from inflax, stoppage, bondage and shedding of Karmas, to be realized in purity without any confusion either with the routine of a monk's' or householder's life, and to be kpown fully for attaining spiritual happiness. Selfrealization is the ultimate and the only object of twelve-fold reflection; and Kandakunda does not lose sight of this onlike others who are often lost in didactic exbortations which obscure the central theme of self-realization. Tho druprekrīs cover a wider purpose of religious practices such as reporting of, renunciation of and atonement for sins and equanimous attitude and meditation. The gāthās on anitya-, are as below: परभवणजाणवाहणसयणासण देवमशवरायाण । मातापिसजणभिवसंबधिणो य पिदिवियामिया ॥३॥ सामग्गिदियरूवं मारोग्ग जोबणं बलं तेजी लोहार्ग कावण सरवणुमिव सस्सर्य ग इवे ॥1॥ बलबुबुवसाधणूसणरुचिषजसोहमिव थिरं प हवे । महामवाणाई बलदेवप्पडविपजाया ॥ ५ ॥ जीषणिबई देई बीरोदयमिव विणस्सदे सिग्वं । भोगोपभोगकारणवच णि ऋद होदि । । YEAH 17 TOTAA salita at way to fine forang font un The Malacārot (M)* of Vattakera, chap. VIII, in 74 gātbas, is devoted to a discourse on the 12 Aguprekşās or Bhavanas. The porsonality of Vattakera (who is the author of M. according to the commentary of Vaaunandi) is still in obscurity and his ago, especially with reference to that of Kuadakunda (who also is mentioned by some Mgg. as the author of M.) is a matter of investigation. The Mülhedra is undoubtedly an ancient text and shows by its contents close affinity with Ardhamaayadhi canonica! texts and the Nijuttis. The nature of the language excludes the possibility that it is a direct adaptation of the prosent-day canonical passages. In the exposition of nuprelşa both the Bärasa-anuvekkha and Maldocira show some common gathis partly or fully (BI, a Kannada Ms. reads siddhe namamsidūra ya for ramina swa-sildho & M 1; B2 & M 2; BS & M 3, uspecially line 2; B 4 & M 4, especially bine 1; B 14 & M 9, of., Maranasamahi 585; B 22-3 & M 11-2, cf. also Maranasamāhi 588; B 36 & 1) v. l. High qurtarea 449 I in the Malacana. 2) Compare Pravacanmāra, I. 6. 3) Ed. Minikaondra D.J, G, No. 23, Borbay 1923, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 28 M 19); and there are some similar ideas apart from common dogmatical and ideologioal inheritance (ct., B 8 & M ; B 24 & M 13; B 49 & M 45; B 52 & M 38). The Malacara has further some gathas similar to those in the Marinasmihi, referred to above ( M 46 & Mara. 618; M 50 & Maru. 621-2; M 57 & Maru, 628; M 68 & Mara, 635). According to both, reflec tion on the preprekæīs gives :: 0 :: cnctX (M 73 & Mara 638). Some gathās, possibly of traditional nature, huve their couuterparts in texts like the l'rilokasar. F Kundakuude and Vattakara show some marked differences in their approach and in some of the details. Kundu.kunda lays special stress on the positive aspect of the Anupreksās that Atman must be realized as such; he introduces both the Nayag; and his description of dharnux covers both the duties of monks and house holders, Vattakera does not yo much beyond the literal and dogmatic mouning of each amprckstē; he has primarily the ascetic life in view; and his exposition of hodhi-durlabhc-cd, is more of a truditions) nature and reminds me of canonical descriptions. Vattakera prefers the term asubha-c. which is crucia, according to Kundakunda who confinos himself to bodily impurity without any reference to atha, kim ete, which prominently figure in the Bhagawati-iridhamu and Maranc-sub. According to Kundakunda Sumsāra is of five kinds (No. 24), but with Vattakera it is of four kinds, or of six kindy (with reference to aniyoga-väro), or of many kinds with reference to contris (No. 14-5). Vagunandi who is aware of the five-fold division includes that implied by c) under WurysVattukera's gāthis on anityn-. are as below: -INAŁU डाणाणि भासणाणि य देवासुरमणुयइटिसोक्लाई । मादुपिदुसयणसंवासहाय पीढ़ी वि य अणिचा ॥ ३ ॥ सामाग्गिदियरूवं मदिजोवणजीवियं बसे तेज । गिइसपणासणभंडादिया भणिति चिंतेजो ॥१॥ The Blagouti-crādhana of Sivārya devolos nearly 160 veraes (Nor. 1715-1875 ) to the exposition of twelve Anuprekşās; and as already noted above, they are introduced as dicamtand of dharma-dhyana (in the manner of Tharanga) under its sansthrina-vicaya variety. In his exposition Sivārya impreses us more as a poet than a dogmatist or teacher. His style is fluent. simple and lucid, and with racy flourish he embellishes his composition with strings of striking upomas (at times studiously collected) and riputkeus many of which are used by subsequent authors. To illustrute the transient character of things, he Dentions a large number of objects of coraparison 1) Ed. Xabarddhani with the Sk. commentarius of Aparajita and Asadhars, the metrical paraphrage of Amitayati and a modern Riodi translation (Sholapur 1935); Also A. N. UPADAYR: Bệhatkathakoa (Bombay 1943), Iutro., pp. Of Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 KARTTIKEYANUPREKŞA drawn from different walks of life. One is helpless in the face of Karmic consequences, so he appeals to all to seek shelter in darsana, jñana, caritra and tapas which by stepping a little higher Kundakunda identifies with one's own self (Bha. 1746 & B 13). If the Maranasamahi stresses helplessness in the face of death, Sivarya emphasises the same in the face of Karmic consequences. One is really alone, lonely; relatives are not dependable, much less the body; and it is the Dharma consisting of faith, knowledge and conduct that accompanies the soul (cf. Bha, 1752 and B 20). Contact with people here in different births is like the meeting of birds on a tree at night: individuals have differont temperaments, and their mutual attachment is necessarily utilitarian, Sansara is a dangerous wilderness or an unfathomable ocean in which one drifts driven by one's own Karmas through various forms of life. It is five-fold, and therein the soul wanders in different places, with changing body and varying aptitudes-ever pursued by death and suffering manifold miseries. All along Karmas trap the soul which in its pursuit of pleasures suffers infinite pain in this endless Samsira. Under Lokanuprekṣā Śivarya describes more about changing human relations (illustrated by the story of Vasantatilaka etc.), various births and worldly conditions than the cosmological details, Dharno alone is the, le artha and kama are asubha: the body is all impure. An unguarded soul is like a leaky boat in which flows the Karmic fluid or like an oily surface to which the Karmic dust clings. The human life should be used to eradicate the causes of the influx of Karmas which are all-pervasive and which require to be stopped by curbing the senses, passions etc. Karmas get destroyed in their own way after giving the fruit or through the practice of penances. While discussing Dharma, Šivarya does not introduce the distinction of sagara and anagara-dharma but speaks of it in general. Dharma is supreme and thereby human beings attain the highest bliss. Dharma preached by Jina is compared with a wheel in this manner: सम्म बालसंगारयं जिनिंदाणं । वयणेमियं जगे जयइ धम्मचक्रं तवोधार ॥ For a soul overcome by Karmas and moving in Samsara, enlightenment in religion is something rare and accidental like the yoke and yoke-pin coming together on wide sea: fortunate are those who have acquired it. Sivarya's exposition of antya-a. runs thus (Nos. 1716-28): 1) For the stories of Vasantatilaka (1800) and Vimala (1806) referred to in this context see the Bṛhatkathakota (Bombay 1943), Tales Nos. 150 and 153. 2 ) Compare Nardist 5 -संजमतवतुंबारयरस नमो सम्मत्तपारियर अप्पटिचकरस ओ हो सया संघwhere Sangha is compared to a wheel, 1:1 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 25 लोगो बिलीयदि हमो केणो व सदेवमासतिरिस्खो। रिद्धीभो सम्बामो सिविनयसंदसणसमायो॥ बिज्व लाई विट्ठपणहाई सम्बसोक्खाई । जलबुल्खुदो च्व अधुवाणि होति सम्वाणि आगाणि ॥ जावागदा व महुगइप विदा होति सम्बसंबंधी । सम्मेसिमासया वि मणिचा अहवमसंघाया । संवासो विमणियो पहियाण पिवणं व लाहीए । पीदी चि माच्छिरागो व मणिचा सम्बनीवाण ॥ रति एगम्मि दमे सडणाण पिंजण व संशोगो। परिवेसो व अणियो इस्सरियाणाधणारोग्य इंदियसामग्गी पि अणिया संझा व होइ जीवाणे । मझाई व णराण जोवणबाहिद कोरे ॥ चंदो हीणो व पुणो बहदि एदि य उ मदीरो बिण दुजोवण जियत्तदिणदीबलमदिति चेव ॥ घावदि गिरिणदिसोद व भाउर्ग सधजीवलोगम्मि सुकुमालदा बिहीयदि लोगे पुन्वाहछाही ॥ अधरपक्षछाही च अहिद पडदे जरा लोगे । रू पिणासदिनहुंजले व लिहिलेलय' स्व॥ तेभो वि इंधणुतेजसंणिहो होइ सबजीवाण । दिट्टपणा बुद्धी वि होइ मुका व जीवाण ॥ मदिवार बर्स सिर्ण रूवं धूलीकरबरं छाए । बीची व अगुवं पीरियं पि लोगम्मि जीवाणं ॥ हिमणिचो बिध नसणासपाय होसिकिसी लोए संझम्मरागोन। किह दा सत्ता कम्मवसता सारदियइसरि समि गं । ण मुमति जगमपि मरणयसमुत्पिपा संता ।। . n - Though we are not definite about the relative chronology of Kundakunda, Šivārya and Vattakera, a comparative study of their exposition of Anuprekşā is interesting. These three authors form a trio in this regpeot, and their works have a close kinship, besides each having its individuality. The twelve aruproksīs are egunerated by them in the same order, and many ideas are common betweon them. Kundakunda addresses both nonky srd householders, while Sivārya and Vattukera have obviously the ascetic congregation in view. These two show greater affinity with canonical texts. Kundakundu, and Sivarya have mentioned five-fol.] Sassāra; and in that context the latter's text, as it is available, seems to ruote a few gāthis from the for mer (B26-270r Bha.. 1776 and 1778). One of the gathas of Sivarya, No. 1824, occurs in Prajatstirrary where Aartacandrm calls it Siddhantasutra, possibly an ancient vecae inherited in traditional memory. Some gathās of Kundukundu have close resemblance with those of Sivirya (ef., B 13, 48,48 & 67 respectively with Bha. 1746, 1825-6 & 1847). Between Vattakera and Sivarya two verses are almost common (M65° and o7 and Bhu. 1867& 1870); both of then use the term logra-dhvanias (M 23 and Bha. 1811); and there are some gathas which show a good deal of common ideas and expressions (of. M 17, 26, 27,31, 32, 37, 43-4, 50, 56,57, 61 &66 respectively with Bha. 1789, - 1) The forta lihilalayo is quite interesting #od valuable to explaia the Marathi p. }', forms lihilele, etc. 2) Generally some ten stories or justsaces are narrated to illustrate the rarity of human birth (Seamy Notes, p. 381, Brhres-Krsthikoses, Bounbay 1943 ); and juga-nniladiyhnu is one of thein. Something like it is found in Buddhists works as weli; for instance, Mitrceta, in his Adhyardha-srxtra.ka, speaks thua : सोऽहं प्राप्य मनुष्यत्वं समयममोत्तमम् । महापर्यावयुगछिद्रकूर्मग्रीवार्पणोपमम् ।।. This illnstration is fully explained by Uddyotana in his Kuvalayamata, ss 326-327, of uy editiori, Bombay 1969. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 BĀRSTUKES INTPREK, A 1799, 1802-3, 1814, 1815, 1821, 1828, 1837, 1853, 1851, 1857 and 1869), Some of the verses of Sivärya have somewhat similarity with a few gathas in the Maranasamahi (cf. Bha. 1776, 1822, 1837 and 1870 with Mara, 598, 618, 621 and 634). These three texts, along with the section on Bhāvanas in the Maranasamahi have formed the basic capital on which have grown the subsequent thoughts about Anuprekṣās. The Jñänarnava (or Yogapradipadhikāra) of Subhacandra' is a solid and significant treatise on Yoga or meditation, written in fluent Sanskrit and full of didactic fervour. Very little is known about its author, Subhacandra, who must have been a great Yogin and an outstanding poet. He is later than Samantabhadra, Devanaudi, Akalanka and Jinasena (A. D. 837), and even possibly Somadeva, the author of the Yasastilaka, but perhaps earlier than Hemasandra (e. A. D. 1172). All that can be definitely said is that he flourished between A. D. 837 and 1227 (this being the date of a Ms, of the Jäänärnava). The spirit of religious and didactic poetry seen in the Satakas of Bhartṛhari and in the subhasitas of Amitagati and others is obviously patent in the composition of Subhacandra who betrays a good deal of influence of Bhartṛhari and possibly, therefore, is made by a legend, a brother of the latter. The Jñanarnava being an authoritative work on Dhyana, it is but natural that an exposition of twelve anupreksas should find a place in it. But what positively strikes one is that Sabhacandra prefaces his treatise with a disquisition on Anupreksas, which, called Bhavanās here, lead to the cleansing of heart and steadiness of mind: they are the beautiful steps leading to the terrace of liberation (II. 5-7). In all some 188 verses (II. 5 onwards), mostly anustubh but longer metres here and there, are devoted to these topics of reflection. Subhacandra has a mastery over Sanskrit expression; and he handles longer metres with remarkable ease and felicity. His slokas have a dignified flow suited to the seriousness of the subject-matter. The exposition throughout is of a thoughtful poet who steers safe between the temptations of the conceits of expression and complications of dogmatical details. It is primarily the ascetic that is addressed. Similes from earlier sources are found here and there; but the tendency of mechanical reproduction is conspicuously absent. Subhacandra is well-read but predominantly an original writer. Ideas may be inherited or borrowed, but he expresses them in his own way. The five-fold Saràsära is referred to by him; in the asucitva-bhavand he devotes more attention to bodily impurity; along with a diaquistion on 1) Ed. Rayaandra Jaina Sastramala, Bombay 1927. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 27 INTRODUCTION Dharma in general, he deals with ten-fold Dharma; and in dealing with lokaa., his details are more cosmological. He concludes his exposition of anupreksa in this manner: दीव्यन्नाभिरयं ज्ञानी भावनाभिर्निरन्तरम् । इहैकामोत्थनातङ्कं सुखमत्यक्षम्मक्षयम् ॥ farfar vetäänefà amì fastaà vazan | starfa àvià gâ gai meranna, IE एता द्वादश भावनाः खलु सखे सस्योऽपवर्गश्रयस्याः संगमलालसैर्घटयितुं मैत्री प्रयुक्ता बुधैः । एतासु प्रगुणीकृतासु नियतं मुच्यना जायते सानन्दा प्रणयप्रसहृदया योगीश्वराणां सुदे ॥ Hemacandra (A. D. 1089-1172) was a celebrated Jaina teacher and a man of lettors. His works cover a wide range of subjects and testify to his encyclopaedic erudition, extensive study and enormous application. As a poet and as a scholar. Hamarendra wan one of the most versatile and prolific writers; and mainly due to him an augustan period of literature and culture was inaugurated in Gujarat during the benign rule of Siddharaja and Kumarapala. His treatises on grammar, lexicography, metrics and poetics are of great practical importance. He wrote his Yogafästra (also called Adhyatmopanisad) at the request of king Kumarapala who, on hearing it, was won over to Jaina religion. He has added his own Sanskrit commentary to it, including therein, beside explanation of the text, a number of illustrative stories and expository and supplementary verses (antara-sloka). The twelve anupreksas, called bhavanis, are dealt with in the Fourth Prastava, 55-110. The antara-slokas further expound the same idea as contained in the basic verses; in fact, both together, as far as the anupreka section is concerned, form one whole. There are only three basic verses (65-67) in the text on Samsara-bhavana, but there are 90 antara slokas in the commentary containing traditional account of grief and despair in the four grades of worldly existence. Likewise the Loka-bhavana has three main verses (104-6), but the Svopajña commentary gives an exhaustive survey of Jaina cosmography mostly in Sanskrit prose interspersed with some Prakrit quotations from earlier sources. The exposition is mostly in anustubh verses which reflect Hemacandra more as a moralist teacher: some of his poetic flourish is seen in those verses of long metres which conclude a group of supplementary verses, is characteristic of Hemacandra that he studiously avails himself of earlier literature, bearing on the subject under discussion, and that his Yogasāstra It 1) Ed. Jain Dharma Prasaraka Sabha, Bhavnagar 1926; alao M. WINTERSITE : A History of Indian Literature, II, pp. 567f. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 KARTTIKETANUPREESA is indebted to the Juandrnava is already accepted. Subhacandra preseribes samatva or equanimity towards living beings, reflection on non-attachment, eradication of distractions and resorting to bhava-suddhi, i. e., cleansing of the heart or purification of mind; and to achieve all this Anuprekṣās or Bhāvanas are helpful (II. 4 f.). Hemacandra says likewise that samya or equanimity results from non-attachment for the cultivation of which one should resort to Bhāvanās (IV. 55 ab). A close study of these two texts shows that Hemacandra is studiously brief all along. At times he incorporates almost bodily some verses with common ideas and words (J II. iii, 7-8 & Y IV. 65), in some places summarises the detailed exposition (J II, iv. 5-6 & Y IV. 69; J II. vii, 9 & Y IV. 78), and now and then uses the capital of ideas (J II, i. 11, 16, 41 & Y IV. 57-8; J II, i. 42 & Y IV. 59-2 etc.; J II. ii. 4, 5, 8 & Y IV. 61-63; J II. vii. 5-7 & Y IV. 76-7; J II. vii. 1-3, 6, 9 & Y IV. 79-80, 82-3; J II. ix. 1-3 & Y II, 86-7), at times even in identical expressions (J II. i. 40b & Y IV, 59b; J II. ii. 12-13 & Y IV 64-1-2; J II. vii 3b & Y IV, 75a; J II ix. 4 & Y IV. 88; J II. x. 7, 128, 14b & Y IV, 99. 102; J II. xi, 3 & Y IV.106; J II.xii4-5& Y IV 108). Hencadia's eloquent glezifuation of Dhonor. reminds one of Haribhadra's praise of it at the beginning of the Samaraicca kaha. In his prose commentary and supplementary verses included there he gives good many ideas and illustrations which are drawn from canonical texts like the Uttarajjhayana und Siyagaḍam. In certain places he brings far more information, elucidative of Jainism and critical of other faiths, than is found in the Jñdnarnava. His four basic verses on the Anitya-bhāvanā stand thus (No. 55-60): यदप्रातस्तश्च मध्याह्ने यम्मध्या न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हि पदार्थानामनित्यता ॥ शरीरं देहिनां सर्वपुरुषार्थंनिबन्धनम् । प्रचण्डपवनोद्धूतघनाघनविनश्वरम् ॥ कोलपा लक्ष्मीः संगमाः खप्रसंनिभाः । वात्वाम्यतिकरोविझतुलतुल्यं च यौवनम् ॥ इस्मनित्यजगद्वृत्तं स्थिरचिसः प्रतिक्षणम् । तृष्णाकृष्णाहिमश्राय निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥ The Bhavabhavana is composed by Maladhari Hemacandra, the pupil of Abhayadeva, in the year A, D. 1181. It deals with 12 Bhāvanās in an exhaustive manner, in 531 gathas. In this work the term bhavana practically takes place of anupreksa; it is the reflection on bhava or samsara that is more important; and it serves as a ladder to reach the abode of liberation. The 4) G. J. PATEL: Yogatastra (Ahmedabad 1938), Intro. pp. 35.; NATHURAM PREMI Jaina Sahitya aura Itihasa (Bombay 1956) pp. 335f. 5) Ed. Bri-gabhadeva Kesarimalaji Jalos Svetambara Bazetbe, I vol., with Svopsjña com, Surat 1995; Bare Text with Sk. Chaya, Ibidem, Surat 1937, M. WINTERNITZ: A History of Indian Lit., p. 589. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 29 order of enumerution of the twelve Therons and reference to Dharma by utame yn gure indicate that Heincandra is following the Tamtuminch The main theme for the author is bar hlutir, while the discussion about other Bhavanils is incidental : that explains low xl why 322 rüthis out of the total of 531, are devoted to the exposition of suscin-Wri, in which the miseries etc. in the four grades of existence are fully elaturated, and why the title of the text is Bhaun-tuang. Tie anthop Show more influence of the Ardbamāgadhi canon than that of the 7.- : some of his expressions and descriptions can be traced to the canonical stratuu. In handling certain similes (see Nos. 12, 76-79) etc., his style has a flourish and is quite striking. Some of his descriptions are heavy with long compounds. Now and then he has a veiled attack against other schools of thought (No. 126); ind in some places he is enthusiasticully eloquent about Jainism ( Nos. 474 f., 180 f.). In his exposition he refers to u uumber of m iel tales such: 9 those of Nemi (5)", Bala (25), Nanda ctc. (53), Meghakumāra (228), Sukosaka (130) etc. : some of them are found in the cunon and some in the commentaries on the same. IIemacandru's exposition of bhuna-lucruri has liecome so much all-perFasive that he brings under it what other authors have included under other Bhavanās. By way of illustration the wathis on Anitya-bbüsun are reproduced below (Nos. [1-25): सक्षप्पणा मणियो नरलोलो ताव चिट्ट असारो। जीयं देदो बच्छी सुरलोयम्मि वि अणिमाई ॥ नइपुलिणवालुयाए जाह घिरइयमलियकरितुरंगेहिं । घररजकप्पणाहि य बाला कीलंति तटमणा ।। सो सयमवि अमेण च भग्गे एयम्मि महब एमेव । अमचदिसि सम्वे वयंति तह क्षेत्र संसारे ।। धरराजविदवसयणाइएसु रमिऊण पंच दिहयाई। पश्चंति कहिंचि चिनिययकम्मपलयालिलक्विचा ॥ महवा जाह सुमिणयपावियम्मि रजाइ इटवरधुग्मि । म्वणमेग हरिसिजति पाणिणो पुण विसीयंति ।। पाहवयदिणसन्देहिं तहेब रजाइएहिं तुसंति । विगएहिं तेहि वि पुणो जीका दीमाप्तणमुखेति ॥ रुप्यकणयाइ वत्थु जहदीसह इंदयालविलाए । खदिनहरुवं तह माणसु विहवमाई ॥ संशब्भरायसुरवावविरुममे घाणविष्णसरूवे । विहवाइवत्थुनिवहे कि मुजासि जीव जाणतो।। पासायसालसमलकियाई जह नियमि ऋत्य बिराई । गंधवपुरवराई तो तुह रिद्धी विहोज घिरा ॥ धणसयमबलुम्मतो निरस्थयं अप्पगग्विओ भमसि । ज पंचविणाणुवरि न तुम न धर्ण न ते सयणा ॥ भषणाई उबवणाई सयासपजाणवणाईणि । निश्चाईन कस्सइ नविय कोइ परिरस्खिओ तेहिं । मायापिईहिं सहवविएहि मित्तेहिं पुनबाहिं । एगयओ सहवासो पीई पणो वि व अणिडो॥ क) तमहा घरपरिवागमयणसंगयं सयलटुजसजग नोरा अज्झाग भावेज स्था भनसल्वं भवभावगा व पसा पदिए वारसण्ह मज्झम्मि eto. 6) The 3ropa.jiya com, narrates the lite of Nemi, through nine births, in 4043 Prakrit gathan a veritable poem by itself! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKRY INUPRXKSA पसलबरिबिजोवणाहुतणे सुभगया बरोयत्तं । इटेहि य संजोगो भसासर्य जीवियम्वं च । इस संसारे रमणि जाणिऊण तमनि । निम्मि उजमेसु भम्मे बिल बलमरिंदोब। d) INOIDENTAL EXPOSITION The Jaina poet is, alinost as a rule, a moralist and a teacher : obviously, therefore, the Caritas. Purānas nate to wa short or long exposition of Anuprekşã whenever there is the context of dhyanut or neditation, suchyāyc or study, or saruarat or stoppage of Karmas, $ a part of religious instruction for which soie Kārgas have a special chapter. Some important works in which Anuproksī is incidentally diseltssed may be noted here. This survey is only illustrative and not at all exhaustive. The Varang carita' of Jațila is one of the earliest available Jaina Purinie Kavya in Sanskrit, assigned to c. 7th century A. D. Anupretsās are introduced bere os preliminary exercises prior to one's embarking on the life of renunciation in which dhyand (or meditation) is quite essential. This practical aspect perhaps expluins why Subhacandra and Amitagati preface their discourse on dhyan with an exposition of Anuprekşās. Jaţila's enumeration of Anugreşās (xxvii. 31 ) is not apparently complete. Esther he is not discouraing on them in the fixed order, or the order of verges in the present-day text is not well preserved. It is charana-a. and anity«-«, that seem to have been chosen for detailed exposition with some well-known similes, Anityata is thus described (zavüi, 46-7): * 1) In Kannada two works wholly devoted to Anaprekpag are known: i) The Vine sambodhare of Bandhavarna is divided in 12 Adhiktras, each covering one Anaprekfi. According to expert opinion, it is foll of didaotia fervour and its style is grnoetal. The author does not give any biographical details beyond calling himself a Vastyottam. As he la mentioned by Maryerasa (A. P. 1508 ) Nigarăja (A. D. 1931 ) and Kamalabhava (A. A. D. 1236 ), be may be assigned to c. 1200 1, D. ii) The Dadasonuprokse of Vijayaņpa (Bangalore 1884) bse 12 Pariachedas and 1448 verses of the Eastgatya metre with some Kanada verses here and there. Vijayanna, the pupil of Prbvaktrti, completed this work at the request of Deyaršje, the Chief of Venmanabhavi ( place of that same near Dharwa), in the Beļuvalanadu of the Kuntala muntry in 4. D. 1448 (Bec Karpataka Kavisarite vol. 1 Bangalore 1924, pp. 3091., vol. II, Bangalore 1919, pp. 86f.). The contents of these two works deserve to be compared mutnally and with other Präkrit and Sanskrit works. In Meržthi also there are some treatises on Aoupreksiy, for instance the Duādalānuprekad of Gupakārti of the 10th century D., edited by Dr. V. JORHAPUBKAR (Sarimali X. 2, Bababali) 1959). 3) A. N. UPADEYR: Varängacarit, Menitacandra D, J.G, No. 40, Bombay 1998, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION मायपि तिहन्ति निराणां न शाबतास्ते विभवाब तेषाम् । रूपादयस्तऽपि गुणाः क्षणेन सविपरम्भोदसमानमः ॥ समुस्थिवोऽस्त रविसम्युपैति विनाशमभ्येति पुनः प्रदीपः । पयोववन्द प्राचं प्रवाति सथा मनग्या प्रलय प्रयान्ति ॥ Uddyotadaguri in his Kuvalayamala, a remarkable Campũ in Prakrit, completed in A, D, 779. devotes quite incideotally nearly G2 cathās (6352) for the exposition of these Anuprekşās which he calls, it seenus, by the Danie Bhávanā. The verses have a tine flow, and the author is strikingly eloquent on the impurity of the body. He speaks of cityotā and aécranata thus: सर्व इमणिपणपणियाविहवपरियण संपर्क। मागसु एत्य संगो होड बिमगो अमेण समै ॥ सुंदरि मासु इर्म जेण विनोगे बिताण णो दुखै । होइ विदेगणिसुद्धो सम्वमणि वितेमु जाकोरमसिलिंबो गहियो रोहे सीइपोएण। को तस्स होइसरणं वणमरो इम्ममाणस्स. तह पुस जीवइसणो दूसाहजरमरजवाहिसिंघहिं। पेप्पर विरसंतो चिय कत्तो सरणं भवे तस्स . एवंचितवंतस्स तस्मणो होर सालया बुद्धी । संसारभविग्यो धम्म पिब मग्गए सरणं ॥ The Mahüpuräna in Sanskrit by Jinggena-Gugabhadra (0.9th century A. D.) is a monumental work of encyclopaedic contents from which many subsequent authors have drawn their inspiration and details. At the context at which Paşpadanta introduces the exposition of 12 Anupreksās, Jinasena addy only a graphic description of the anityatra of sensāra, i.e., transient nature of worldly things, which is full of miseries in its various stages (XVII, 12-35). This is all conducive to samjegs and nirmedia; and naturally by reflecting on this Rşabha decides to leave the world for a life of renonciation. The monk Vajranābhi on his acceptance of prayopagyamicaras Sarhayāsce puts up with 22 parisuhticas, gets himself endowed with tenfold Dhurma, and reflects on 12 Anuprekşās (called here tattudnudhyana-bhavanak) which are all enumerated (tipula standing for loka) in the order adopted by the T.-sutra und duly explained (XI. 105-9), Anuprekņā along with Gupti etc, is the cause of Sarivara which Rsabha practised (XX.206). Anupreksis (also called Bhavana). are a part of Dharmyadhyāna (XX, 226, also XXI. 160) especially the apayavicaya (XXI, 142). Some verses of Jinasens nay be quoted here XVII. 12-15); महो जगदिदं भरि श्रीस्तविद्धालरीचला यौवनं वपुरारोग्यमेश्वर्य च बलाबलम् ॥ रुपयौवनसौमाम्यमबोम्मत्तः पृथग्जनः । पनाति स्थायिनी बुदि किं वन्न न बिनश्वरम् ॥ संभ्यारागनिमा रूपशोमा तारुण्यमुजयलम् । पल्लवच्छवियरसचः परिम्लानिमुपाभुते ॥ पौवनं बनवल्लीमामिव पुर्य परिक्षयि । विषवल्लीनिभा भोगसंपदा भी जीवितम् ॥ fahaneyranam Janapitha M.J, Granthamala Nos. 8,9and 14, 1) PANNALAL JAIN : Banaxa 1961-54, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀRTTIKEYANUPREKRA Soraudeva has expounded the Anuprekshs in his Yascasbileaka (A, D.959),' Book II, in 53 verses composed in the Vasantatilaka metre. This 'may be regarded as one of the earliest attempts to expound them in Sanskrit instead of Prakrit verse. His treatment of the Anuprekşās ig weighty and compact and full of spiritual forvour: and his verses on the subject are unique in the sense that they are composed by a writer who is not only a learned theologian but a religious poet of no mean order'. Speaking compa. ratively both in of in and idea Reader's exposition ranks high among the metrical compositions on the twelve Anuprekşās'. Professor K. K. HANDIQUI has beautifully translated into English most of Somadeva's verses which exhibit so much originality and fresh pegs. Sonadeva speaks of comity--a. thus: उरसज्य जीवितणलं पहिरन्तरेदे रिका विशन्ति महतो जलयात्रापाः। एकोयम जरति यूनि महस्यणौ च सर्वकषः पुनरय असते कृतान्तः ॥ लावण्यमौवनममोहरणीयताचा कापेष्वमी बधि गुणाविरमावसन्ति । सन्तो न जातु रमणीरमणीयसार संसारमेनमवभीरवितु यतते ॥ उपदं नयति जन्तुमधः पुनस् वास्येव रेणुनिधयं पपडा विभूतिः । श्राम्यत्यतीय जनता वनितासुखाय वाः सूतपस्करगता अपि विश्लवन्ते ।। शूरं विनीतमिव सवनवस्कुलीने विद्यामहान्तमिव धार्मिकमुस्सृजन्ती । चिन्ताश्वरप्रसवभूमिरिय हि लोकं कमीः खलक्षणसमीकमुषीकरोति । वापि भुवोशि गावलकावलीषु यासां मम कुटिलतास्तटिनीतरा। मम्तनं माम्त एव दृष्टिपये प्रयाताः कस्ताः करोतु सरलासरलायताक्षीः ॥ संहारबकवालस्य यमस्य लोके कः पश्यतोहरषिधेरवधि प्रयातः । यसामगचयपुरीपरमेचरोऽपि तत्राहितोचमगुणे विधुरावधानः ॥ इत्थं क्षणक्षयदुताशमुखे पतन्ति वस्तनि वीक्ष्य परितः सुकृती यत्तामा । तस्कर्म किंचिदनुसमर्थ रसेत यक्षिासौ नयनगोचरतां न याति ॥ Puspadanta. completed his Mahdiprertise (in Apsbhrams) at Manyakbeta in 4, D. 965 under the patronage of Bharata, the minister of Krsna III of the Ráatrakūta dynasty. At a very significant context he describes 12 Anupreksās (the order of entimeration being the same as that of Kundakunda) in Kadavakas 1-18 in the Seventh Samdhi, One day prince Reabha was plunged in the pleasures of his royu fortune. Indra, as usual, thought of reminding him of his mission on the earth, namely, the propagation of Jaina faith, and sent a celestial nymph, Ņilemjasă by name, to perform dauce before him. She came down, performed the dance, and at the end of it fell down dead, Rşabha felt aghast at the transitory oharacter of all that 1) Ed. Yasastilakart-carreprharyam, Kavyamila. 70, N.S.Press, Bombay 1916 K. K. HANDIQUI: Yentilaka and Indian Culture, Jivarája J. Granthamala, Sholapur 1949, pp. 995 . 2} P.L. VAIDYA: Mahararora, vol. I, MApikacandra D.J.G., No. 37, Bombay last Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOTION 33 is worldly; and Paşpaduntu adds hore his elucidation of chru and other Anupreksas, reflection on which leads one to liberation. The opening portion on addhese runs thus : कमतिहुयणसेवें वितिउ देखें जाग भुड किं पिण दीसह । जिह वाषियणतरस गव जीलजस तिहअवरु बि जाएसइu.॥ वसिऊर्ण दो वासरा के के गया परवरा पुणु परमेसर सुसमु पयासह धणु सुरवणुवलणवे भासद । इय गय रह भर धवलाई छत्सई सासयाई 3 पुत्तकसत्ताई। अपाणा जाणइं धयचमरई रविउग्गभणे जति तिमिरई । लछि विमल कमलालयवासिणि णवालहरचल बुहउवहारिणि । तणु छायण्णु वण्णु खणि खिमा कालालिं मयरंदु व पिछा। वियला जोप्यणु णं करपलजलु णिवह माणुसुपिकड फल्छ । तृयहि लवणु जसु अत्तारिबह सो पुणरवि तणि उच्चारिजा। जो महिछ महिवाइहिणविजह सो मुड घरदारेण न मिन्न। पत्ता-किन जित्तर परवलु मुलट महिपाल पच्छद तो वि मरिणाह। श्य जाणिविमउ भवविधित णिमणि वणि निवासिना ॥ Kadakamara (c. 1065 A, D.) in his Karakanda-cariü incidentally expounds twelve Anapreksās (the order of their enumeration being the same as that of Umāsvati) in the ninth Pariocheda, Kadavakaa 6-17. His exposition of the first Anupreksā stands thas: पायेण विणिम्मिड देहु जंपि छायण्णउ मणुवई विहण तं पि। प्रवजोम्बणु मणहरु जो देवहि दिन.जाणिड कहि परे । जेमवर सरीरहिं गुण वसंति वि जाणहुं केण पहेज जैसि । ते कायहो जाइ गुण अचल होति संसारह बिरहं ण मुणि करति । करिकपण जेमविर कहिं ण थाह पेक्वतई सिरि णिष्णासु जाह। जह सूपड करयलि चिज गले तहणार विश्ती समिचले। भूणवणवयनाइ कुहिल जाई को सरत करेवई सक्कु लाई । मेहतीण गपाइ सपण इट्ट सा दुबजमेशिप शिकिट्ट । पत्ता-णिज्झाया जो अणुवेक्स चल पडण्वभावर्सपचा । सो सुरबरमंडणु होर जह सुललियमणहरगत्ता । Vadibhasimha (c. 11th century A. D.) has devoted in hia Kattractidai mani (XI, 28-80) more than fifty Anuştubh verdes, rather in a pedestrian 1) इय जो चिंता णियमणे अणुवेक्खाओ विउ वणे । मोत्तयं भवसषयं सो पावह परम पयं ॥ VII. 19. १) Ed. F. L JAIN, Karanja J. Series, Karanje 1934. 3) Ed. T.S. KUPPOSWAMIBASTRIYAR, Tanjore 1903. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 KĀRTTIBEYĀNUPREKŞA style, for the exposition of Anupreksi. His verse No. 33 reminds us of the simile of a bird flying from a ship on the sea used by Somadera in the Yasastitoxkre (I[.112) under NBTCHER-sIn the corresponding context. the Galyacintamani rofors to the transient character of things and the Jirandharacampa gives a short exposition of the Anurekşīs. Vadībhasinha speaks about anityutva thus (XI. 28-32): ममते वनपालोऽयं काहानारायते हरिः । राज्यं फलायते तस्मान्मयैव त्याज्यमेव तत् ॥ जाताः पुष्टाः पुनर्नष्टा इति प्राणभृतां प्रथाः। न स्थिता इति तत्कुः स्थायिन्यात्मन्पदे मतिम् ।। स्थायीति क्षणमा वा ज्ञायते न हि जीवितम् । कोटेरप्यधिक हन्त जन्तूनां हि मनीषितम् ।। भवश्य यदि नश्यन्ति स्थिस्यापि विषयाश्विरम् । स्वयं न्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संमृतिरन्यथा । भमश्वरसुखायाप्तौ सस्या नश्वरकायतः । किं वृथैव नयस्यात्म वा सफल नय ॥ Somaprabha completed in 1184A. D. tho Kumt. kaprade-pretirortha or the conversion of king Kumarupala of Gujurat to Jainisin and his instruction in that religion by Hemacandra, partly in Sinskrit, Prikrit and Apabliramśa; and he gives a simple, ret pointed, exposition of 12 Bhārupās in Apabhrumś at the close of the Third Prastāva. The opening verses stand thus : भह पुच्छह कुमरनरादिराउ मणमडनियमणसंकलाट । कद्द कीरहि बारह भावणाउ तो अवस्था गुरु घणगहिरणाउ ॥ तं जहा। सलु जीविड जुम्वणु धणु सरीरु जिम्ब कमलदलग्गविलमगु नीरू । माहवा इरिथ जंकि पि वत्थु से सष्ठ अणिच्यु हहा चिरस्थु ॥ In the manuals on conduct, both for laymen and monks, and important digesty on Jainism, some discussion about Aouprekşits is found here and there. - The Prasamanti-prakaranat is religious-philosophical text, attributed to the celebrated author, Vācukamuk bya Umáyvati. It deals with 12 Anuprekşās, or Bhāvanha as they are called here, in Sanskrit Aryas or Kärikās, Nos, 149-162. Reflection on them leads to nihaprata or virati i.e., remunciation of attachment (to pleasures). The verses are precisely worded with a literary flavour. The order of enumeration differs from that in the 7. sutra; and in the last but ono Kirikä (No. 161) Dharma is qualified by the term sukhyrita, which is explained by the commentary thus srustadhamas caritra-dharmas ca sustler: virdostim cikhuatan. The Karikā on conutya-bhavand rims thus: 1) Ed. T.S. KUPICEWATI SANTHI, Mudras 1902 pp. 1051 2) Ed. T. S. KEPFUSWAMISARTAI, Tunjore 1900 pp. 143-4. 3) Ed. MENIRAJA JINAPIJAYA, G,O.S XIV, Baroda. 1920,41. 311-12. 4) Ed. RAJAE SMARANT: Pritamarati-prakartenm with the sk. com. of Haribhadra And Hindi translation, Rayndandra J. $., Bombay 1950. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 35 इष्टजनसंप्रयोगर्दिविषयसुखसम्पदस्तथारोग्यम् । देहश्व यौवनं जीवितं च सर्वाप्यनित्यानि ॥ The Caritrasara' of Camundaraya (c. 10th century A. D.) is a systematic but compilatory manual dealing with the religious duties of Jaina householders and monks, in Sanskrit prose. The author, while discussing Dharmya-dhyana, describes, under its eighth internal variety (pp. 76 f.), samsthana-vicaya, twelve Anuprekṣās as further sub-varieties (pp. 78 ff). Like Akalanka he has a dogmatic and classificatory approach to begin with; and then he incorporates almost verbatim a substantial portion from the Sarvärthasiddhi in this context. Comparing these paragraphs with those from the Tattwartha-virttika or Raja-värttika of Akalanka, it is found that there is very little that is really original in the Caritrasara. In this section are quoted (p. 82) five gathās from the Gommatusāra (Jīvakāṇḍa 191-92, 186-88). The entire work draws its material, as stated by the author himself,' from the Tattvärtha (possibly including its commentaries like the Sarvärthasiddhi and Rajavarttika) Raddhanta (which may cover works like the Gommatasára), Mahapurung and Acarasastra. If the Aera-sastra includes Viranandi's Acarasara (e. 1150 A, D.) with which (IX. 43 ff.) it has (p. 71) some close agreement, then the problem of the identity and age of the author will have to be further investigated. Amitagati (his known dates being 994 to 1017 A. D.) concludes his Upāsakrior (in Sanskrit), popularly known as Amitaguti-Śrāvakācāra," with an exposition of Dhyana, which, as in the Jianarnava, is prefaced with a discourse on 12 Anupreksis in 84 verses of Upajati and other metres. The way in which Amitagati is introducing these tempts one to hazard a suggestion whether he included this topic in the Upasakācāra following a model like that of Jarnava, if not the Junarnava itself. His verses on anitya-a. run thus (XIV. 1-6): 1) Ed. Manikandra D. J. Granthamala, No. 9, Bombay 1917. 2) The concluding verse runs thus तत्त्वाभैराद्धान्तमाह । पुराणेष्वाचारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् । आख्यासमासादनु योगवेदी चारित्रसारं राहिः ॥ 3) It seems that there was a Sauskrit work Raddhanta by name, because the Arrastra of Virunandi (p. 30) quotes the following verse from it-ti ter स्वयमेव हिंसन तत्पराधी मिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रगायुक्तस्तु सदैव हिंसकः ॥ The Caritrasra however, quotes a Prakrit sentence from the Raddhantasūtra thus | आदाक्षिणं पाही [ प]ि तिघुखं तिक [ ओ ] दुस्सिर बारसावतं चेति । 4) Ed. Manikatatudra Digumbara J. G., No. 11, Bombay, 1917. 5) Ed. Anantakirti D. J. Granthamälä, Bombay 1922. It gives the Sanskrit Text and Hindi Vacanika of Bhagacandraji. 6) A. N. UPADHYE: Paramatna-prakita (Bombay 1937), Intro p. 71, footnote 3. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 KARTTIKETAN UPRIKSA यौवन नगनदीस्योपमं शारदाम्बुदविलासजीवितम् । स्वमलब्धवनविभ्रमे धनं स्थावरं किमपि नास्ति तत्वतः ॥ विग्रद्दा गदभुजङ्गमालयाः संगमा विगम दोषदूषिताः । संपcise favar कटाक्षता नास्ति किंचिदनुपद्रवं स्फुटम् ॥ प्रीतिकीर्तिमतिकान्तिभूतयः पाकशासनशरासनास्थिराः । माः सन्ति मिग्रापितपुत्रबान्धवाः ॥ मोक्षमेकमपहाय कृत्रिमं नास्ति वस्तु किमपीह शाश्वतम् । किंचनापि सहगामि नात्मनो ज्ञानदर्शनमपास्य पावनम् ॥ सन्ति से त्रिभुवने न देहिनो ये न यान्ति समवर्तिमन्दिरम् । शक्रचापचिता हि कुत्र ते ये भजन्ति न विनाशमम्बुदाः ॥ tereरमपास्य अर्जरं यत्र तीर्थपतयोऽतिपूजिताः । यान्ति पूर्णसमये शिवास्पदं सत्र के जगति नात्र गचराः ॥ Viranandi, in his Ácārasāra (c. A. p. 1153) expounds the twelve Anuprekṣās under samsthāna-vicaya of Dharmya-dhyana in 12 Sanskrit verses in the Sardla-vikrīdita metre ( X 32 - 44 ) Tho contents are presented with a dignity, and some of the well-known similes are incorporated here and there. The verse on anitya-a. may be quoted here as a specimen (X, 33): उत्पत्तिः प्ररूयश्च पर्ययवशाद् दुव्यात्मना नित्यता वस्तूनां निश्वये प्रतिक्षणमिहाज्ञानाअनो मन्यते । नित्यस्वं जयदीपकलिकास्थैर्य यथार्थादिके नष्टे नष्टयुतिः करोति बत शोकार्ती वृथात्मीयके ॥ The Pravacanasaroddhāra of Nemicandra is an encyclopaedic work, primarily a source book, in 1599 Prakrit gāthas, dealing with all the aspects of Jainism. It has an exhaustive commentary in Sanskrit, which makes the basic text not only highly intelligible but also extremely valuable for the study of Jainism, written by Siddhasens who completed it in A. D. 1191. The Anupreksas, or the twelve topics to be reflected upon (bhavaniyaḥ, therefore called Bhāvanās) are enumerated in gāthās 572-73; and it is Siddhasena who offers an exposition of them in Sanskrit verses, of short and long metres and numbering about 133, more than one-third (59) of which are given to Lokabhavana. Siddhasena's style is smooth and simple with occasional Prakritisms. Now and then he has some striking ideas besides those which he draws from the common pool of inheritance. Siddhasena and Brahmadeva show the same tendency in giving the details about Loka. By way of specimen Siddhasena's verses on aniyaa. are quoted below: प्रमन्ते वज्रसारकालेऽप्यनित्यत्वरक्षसा । किं पुनः कदलीगर्भनिःसारानिह देहिनः ॥ दुग्धमिव स्वादयति जनो विडा द्वष मुदितः । नोपाटितलकुटमिवोत्पश्यति यममहह किं कुर्मः ॥ 1) It is already referred to above. 2) Ed, Devasandra Lalabhai J. P., No. 58 & 64, Surat 1922-26, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION धराभरानीमीस्पूरपारितवं वपुः । जन्तूनां जीवितं पासधूतध्वजपटोपमम् ॥ छावण्यं सलमालोकलोचनाबालमनालम् । गौवनं मत्तमाताकर्णसालचकाफ्लम् ॥ साम्य स्वमावलीसाम्य चपलाचपलाः श्रियः। प्रेम द्वित्रिक्षणस्थेम स्थिरत्वविमुखं सुखम् ।। सर्वेषामपि भावानी भाषयकिस्थानस्यताम् । प्राणप्रियेऽपि पुत्रादौ विपमेऽपिन शोचति ॥ सर्ववस्तुषु निस्यरवग्रहमतस्तु मूबधीः । जीर्णतार्णकुटीरेऽपि भने रोदित्यहनिशम् ॥ ततस्तृष्णाविमाशेन निर्ममत्वविधायिनीम् । शुखुधीभावयेलिस्यमित्यनित्यस्वभावमाम् ॥ ladbare in a studia and nucl:Go wuter (his known dates being 4, D. 1228 to 1243) who has to his eredit a number of works on different branches of learning. His Diurycīmrt, in Sanskrit, covers the duties of & Jaina monk as well 99 a layman, and he has added to it & sexopreña commentary which is often a supplement to the basic text, as in the case of Hemacandra, The sixth Adhyāys of the ( Anyáro- } Dharmumita opens with a discourse On the ten-fold Dharma (karma etc.); and it is followed by an exposition of Anupreksās (VI. 57-82) reflection on which removes all the hindrances on the path of Bliss or Liberation (VI. 57.82), He employe elaborate metres, and there is some stiffoess about his Sanskrit expression. He devotes a couple of verses to anitya-a(58-59): पुलकजरूबदायुः सिन्धुदेलाषदर्ज करणवलमभित्र प्रेमवयोजन च । स्फुटकुसुमबदेतत् प्रायकवतस्वं कचिदपि निकृशन्तः किं नु मुरान्ति सम्तः ॥ माया माथ्यादिकी श्रीः पथि पथिकजनैः संगमः संगमः सैः सार्थाः स्वमेक्षितार्थाः पिरसुवदयिता ज्ञातयस्तोयभमाः। संध्याराणोनुरागः प्रणयरसमजा हादिनीधाम वैश्य भाषा: सन्यादयोऽन्येऽप्यनुषिदधति ताम्येव तम दुसः ।। As one of the means of survara, cenupchá is enumerated in the Dram Vybearingraha' of Nemicandra (verse 35); and Brahmadovs (c. 13th century A, D.) takes this opportunity to present a detailed exposition of the twelve Anuprekşās in his Sanskrit commentary. Though he uses traditional similes, he has his own way of exposition in which he uses a good deal of technical terminology and involved argumentation. He discusses five-fold samsira at length, quoting gåthas from the Gunmatawira etc.; and his exposition of Lokaampreksi is too long, rather out of proportion. 1) His concluding verse deserves special attention, and fully explains wby so much literature has grown on the Anupreksis: एकामप्यमलामिमात सततं यो भावयेद्भावनां भव्यः सोऽपि निहन्त्यशेषमनुषं दप्तासुखं देहिनाम् । यरत्वभ्यस्तसमस्तजैनसमयस्ता शदशाप्यादरादभ्यस्येलभते स सौख्यमतुलं कि तर कौतूशलम् ।।. 3) Ed. Mapikacandra D.J. Granthamst, Nos. 14 14, Bombay 1915-193B PREMI : Jaina Sahitya aura Itihasa ( Bombay 1956) pp. 342 1. B) Ed. Käysandra Jaina Sastramala, Bombay 1919. 4) A.N. UPADHYA Paramanza-prakala ( Bombay 1937.), Intro. pp. 69 ff. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀRTIKEYANUPREKSA The Bhavani-ramadhi prakaruna? is a short Apabhrama poem in six Kadavukas dealing with 12 Bhāvanās or Anuprekşiis. The author is Jayadevamani, the first pupil of Sivudevusūri; his age is not known, but it is highly probable tlıat he is later than Homacandra. His style is normal, now and then heavy with long compounds. He adds references to standard stories and illustrations from earlier literature (especially ten Drştāntas about the rurity of human life. The exposition is not quite systematie. In the first davace 12 h oida Xhared, and then follow the illustrations and recounting of miseries in different births etc. ) USE OF THE TERM BHAVANA The term bacorezi is nsed in various contexts in Jaina terminology; and it is interesting to note bow it cane to be used gradually in the sense of antprekci which it has practically replaced in later literature, especially in Hindi and Gujarāti. In the carcina, II, 3rd Cilikā, the 15th lecture is called by the name Bhāvanā (which Jacobi translates us clauses and explains that they are sub-divisions of the five great rows). Every Mahávrata is attended by five Bhāpanās which more or less go to stabilise the practice of it. They are found in the Panha-vägarandim also; but the two accounts are not the same: here and there some differences are scen. Kundakunda gives these Bhāvanās in his Cáritbapchuda, associating the mainly with the Mabávratas. In the Muläcēra of Vaakera as well these Bhāvanās are mentional (V. 140 ete. ): the minor discrepancies in detail need some scrutiny. Valtakeru appeuls to the ponk to cultivate these bhāvanas vigilently so that the vows become perfect and without any breach (V. 146). In the 1.-sätra (VII, 3), they accompany Vratas in general: this usage continues in later literature. 1) Amula of the B. O. R. I, XI. 1, October, 1929. 2) The Editor, H. C. Modi, remarks thos: The Bharanga have been described as 12 in Āyaramanredit rataskand , Cülika ). But I have not been able to trace them there, The verses quoted by him are identical with those in the Propositoddham, 572-73. 3) A. C. SIN: A Critical Introduction to the Panditexigaranciana ( Würzburg 1936), pp. 18 ff, Dr. Ben obwerves thus in conclusion: The Bhāvanā mentioned by our text differently from the Ayära could not have been its own ortation but must have been current as such in the community, for otherwise the Panhay. would not have crijaved any authority. The introduotion #nd seceptance of gucl alterations in the rule of weeduct suurest some lapse of time since the age of the Ayāra. It may be that our text incorporates the details noi 49 enjoined scripturally but as understool popularly, in that case the luter date of these injunctions would be all the more evidenti' p. 32. It is vecessay lo study these lists frore various sources comparatively. 4) The ninth chapter of the Mütācira igaulled Anavara-bhāvanadbikára. It disousses ten topics which are not merely tupics of reflectiou but of practica as well. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 39 In the context of the progress of Dhyana, Jinasena introduces four. fold Bhavana connected with i) jana, ii) darsana, iii) caritra and iv) vairā 96. The first consists of wicana, prochană, anuprekṣaṇa, parivartana and dharma-desang which are the varieties of swadhyaya or study according to the T.-sutra (IX. 25). The second consists of samveru, prasama, sthairya, asammāḍhatva, asmaya, astikya and anukampa, Four of these along with nirveda characterise samyaktva or Right Faith; and the remaining three cover some of the gas of Samyaktva (sthairya asuṁsaya ruciḥ, asaṁmidhatra amaḍha-drstih and asmaya). The third consists of the five Samitis, three Guptis and putting up with Parisahas, which along with Dharma, Anupreksa and Caritra wa Bocording to the T-sutra (IX. 2), the causes of Samvara. The last consists of the non-attachment for the pleasures of senses, constant thought on the nature of the body and pondering over the character of the universe." These bhavunas contribute to mental quiet (avyagrata dhiyah). The sixteen causes which singly or collectively bring about the influx of Tirthakara-nama-karman and which are to be only reflected upon (samyag bhavyamānāni) are often called Bhāvanās.* Whatever is to be reflected upon, literally speaking, would be called bhāvanā; and in that way anupreksa also came to be equated with bhāvanā in course of time. In the Thinamga and Ovandiya we get the term anuprekad only, so also in the Bhagawatt Aradhand of Sivarya. The following gatha of Kundakunda clearly shows how the term bhavana for anupreksi could have come into vogue:" भावहि अणुक्खाओ अवरे पणवीस मावणा भावि भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण काय Though not as a direct synonym for anupreksa Kundakunda uses the word bhavana' incidentally in concluding his exposition of astute. Vattakera 1) Sdenya-pannatti ( 55 f., ) & Vimsati-vinisika ( VI. 10-14) of Haribhadra; and also Sarvarthasidhi on the T-sutra I, 2. 2) See Ratnakarandaka ( Bombay, 1925) of Samantabhadra, verses 4, 11, 14, 25, etc. 3) The Tatra mentions some of these, see VII. 12 and the Sarvarthariddhi on the game. 4). See the 7-utra VI, 24 and the Sarvarthasiddhi on the same. Śrutaskgara calls them Sixteen Bhavanis in his com. on the hdrapahuda ( Bombay 1920 ), p. 221. 5) Bhavapähuds 94 in the Set-Prabhṛtādi-sagrahah (Bombay 1920). 6) The pagavisa bhavana are those which go with five Mahavratas as noted above. 7) Barusammuvekkha 46 : देवादो वदिरन्तो कम्मविरहि अत तदणिको । घोक्खो हवेह अप्पा विि भावणं कुब्जा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀRTTIKITĀNUPRDEŞA bag clearly used the term bhavana. The Kattigeyanuppekkhi uges both the terms ( gathăş 87, 94) though anuprekşi seems to be preferred. In the Maru nascerahi the term bhavana has practically taken the place of anspreksa; and in later literature it went on becoming more and more popular. f) CONCLUDING REMARKS From the above survey it is obvious that the Anupreksa, first as an attendant clause of meditation and then as a part of religious study, bas grown in popularity in Jainz literature from the earliest to the latest times. What were stray topics of Sramanic or uscetic poetry, quite suited to Jaina ideology, were soon codified and enumerated in twelve Anuprekes; and this pattern is found convenient to staff itself with ideas conducive to renunciation (say as in the sostira-a.) und to the elaboration of Jaina dogmatical details (as in the darauf, etc, and in the lokaa.). Apart from independent treatises and substantial expositions, manuals of conduct for monks and laymen, nurrative tales and Parāṇas and even stylistio Kāryas have given place in thern to the exposition of Anuprekę. In fine, in the growth, propagation and elaboration of Jaina ideology, the exposition of Anupreksās has come to develop an important branch of literature in Prakrit (including Apabransa), Sanskrit, Kannada and other modern Indian languages.' g) COUNTERPARTS OP ANUPREKŞA IN BUDDHISM Jainism and Buddhism have much in common in their ethical outlook and moral fervour: in fact, both of them belong to the sanie current of Indian thought, the Sremaņic culture. It is natural, therefore, that ideas corresponding to Anuprek is, individually and collectively, are found in Buddhismo as well. 1) Yoldcdra VIII. 73 : ** T a rt GT frau fagi MART 7 . 2) For list of works on Apupreka or Bbāyana the following sources may be consalted: The Jaina Granthoai (Bombay 1908), pp. 180 cto.; H D . VELANKAR: Jinorainekofa, (Poona 1044 ) and- Bhduard, Deādaia-Anteprvksi-Bhönant etc.; A. N. UPADHYO: Pravesanasāra ( Bombay 1935), Intro. p. 89 foot-hote; H. R. KAPADIA: Bára Bhdeandnu Sahitya, Sri-Jaina-Satyaprakasa (Ahmedabad 1948 ) XIII, pp. 101 ft; AGAEAOHANDAJI NAATA, lbidem XXI11. 5, 9, 12 eto; K K. HANDIQUI: Yakastilaka and Indian Cultura (Sbolapur 1949) pp. 200 f. Professor HandtQui has shown how Abuprękąă toples have Nerved a good theme for Jaina Religious Poetry; and Somadave's woount of them may be regarded as one of the earliest attempts to expound them in Sanskrit instead of Prikrit verit Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INYBODTOTJON 1) Objectively speaking antyn-a. bas a better place in Buddhism than in Jainism, because, according to the latter, it is only the parrydiyas or modes that are anitya, the soustanoe being wityce. The Buddhist counterpart is quite patent. According to the Dhammapada 277 सम्वे संवारा भनिचा ति व्यथा पम्नाय पस्सति । मथ निसिम्पती दुक्ले एस मग्गो विमुखिया । 2) Under cfarana-., it is stregsed that death is certain, and none can save one from its clutches : i) म अन्ततिक्ले न स्मुश्मझे न पचतान विवरं पविस्स। म विजवी सो जगति-पदेसो यत्र-ट्ठितं न-प्पसहेथ मन्सु। ii) असा हि यत्तनो नापो कोहि नाथो परो सिया । असना हि सुषम्तेन नाम समति दुख। iii) बहु के सरणं पन्ति पम्यतानि वनानि च । आरामध्यरखोमदानि मनाया ममताजिता ॥ ने हो सरण खेम नेतं सरणमुत्तमं । नेतं सरणमागम्म सम्बदुक्खा पमुचति ॥ यो पसुद्धं च धम्म च संघ च सरणं गतो । उत्तार गरियसवान सम्मपम्याय पस्सति ।' iv) यमदूतहीतस्य कुतो बन्धुः कुतः सुहृत् । पुण्यमेकं तदा वाण मया तब न सेषितं । 7) नेकपायनिया कुर्यायानं कपनमासनं । को में महाभयावस्मात्साघुर 3) As under Hansarea-d, plenty of reflection on the nature of earmadra is found in Buddhist texts, for instance, ममाविमति संसारे जम्मन्यत्रैव वा पुमः । यम्मया पाना पापं कृतं कारितमेव वा॥ बचानुमोदित किषिवामयाताय मोहतः । सदस्य देशवामि पखालापेन वापितः। 4) Corresponding to the ekatva-lb., that the soul has to enjoy and suffer all alone is very similarly expressed io Buddhist texts : i) जीवलोफमिर्म स्वक्वा बन्धून् परिचितांस्तथा । एकाकी कापि यास्यामि कि मे सबै निवाधिपः ॥ ii) एक उत्पाते जन्तुर्मियते बैंक एव हि। नान्यस्य तापयामागः किं प्रियविकार 5) Reminding one of asuci-ce, and cryatıxac., that the body is separate from the soul and full of inpurity is a favourite theme in Buddhist texts :' i) इर्म चर्मपुटं तावस्थबुव पृथक् कुरु । अस्थिपरतो मांसं प्रशासन मोच्य ॥ मस्थीन्वपि पृथक् कृत्वा पश्य मजानमन्ततः । किमन्न सारमन्तीति स्वयमेव विचारम ॥ ii) अवि ते नाशुचौ रागः कमावालिङ्गासेऽपरं । मासकर्दमसंलितं बायुवनाविपक्षरं । The three anupreliscis, dermo-., samvara-., and nirjards, are partie liarly Jaiva concepts, and loka, bochi duriable and charme are elabocated in the back-ground of Jaina dogmatios though one geta common ideas hero and there in Buddhist texta. 1) Dhammaparia 128, 160 and 188–90; and Bothicaryāvalara (Caloutta 1901) IL, 42,46. 2) Corresponding to this we have the Jaina Sarapa-sutta in this way : चत्तारि सरण पदक बामि । अरिहंते सरण पश्चजामि 1 सिद्ध सरण पञ्बजामि । साह सरणं पलज्जामि । केलिपण्ण थम्म सरणं पम्वचामि ।। 3) Bodhicuryavatāra II. 28-9. 4) Ibidern II. 62, VIII. 33. 5) Ibiden v.62-3, VIII. 62. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 KĀRTTIKEYANUPEKKŞI Then for the anuprekate, as a whole, much similarity is found in what are known as ten anussatas' in Buddhism and elaborated in the Visuddhi-Magga (VM). They are enumerated thus: 1) Buddha-amesscodi, 2) dhammaa.. 3) sarghna-., 4.) sila-(., 5) cayci-a., 6) dovuta a., 7) maronco-a., 8) kūyagata-c., 9) anapina-1, and 10) wpascemia. The term renusscuti (anu-8mrti) closely resembles anu-prekşi ; and really these are topics for renection and meditation as is clear from the following passage (VII. $2): इति इमासु ससु मनुस्मतिसु बुद्धानुस्सति ताव मावेतुकामेन भवेक्षप्पसादसमलागतेन योगिना पटिरूमे सेमासने रहोगतेन पटिसशीनेन "इति पि सो भगवा बरई सम्मासंबुद्धो विजाचरणसम्पयो सुगतो लोकवि मनुचरो पुरिसदम्मसारथि सस्था देवमनुस्सानं कुछो भगवा" इति [अं॥२८५] एवं बुद्धस्स भगवतो गुप्पा अनुस्सरितम्या । The dhamma-antussct basically corresponds to dharma-. Though the details are differently elaborated, the term sukhyata is commuon (VII.S 68 ff.) and the way in which dharma is glorified be much similarity ($88). The sila-. (VII. $ 101 ff.) covers in Buddhism such topics (105) as corres. pond to those included under sammearu-a. The marunad. (Ibidem VIII. $1 ff.) has gone agreement in contents with samycra-a., seen from the following paragraph ($ 4): भावेतुकामेन रहोगतेन पटिलालीनेन मरणं भविस्सति, जीधितिन्द्रिय उपरिस्सितीति वा, मरणं मरण ति वा योनिसो ममसिकारो पबतम्यो । Some of the expressions remind one of the topics coming under natyc-. and aearance. Anussotti is a bhārond. The kuyagata-a, doals with the impurity and the detestible constituents of the body (VIII. $ 45 ft) and thus corresponds to astecida. On the impurity of body, there is some discussion in the consthakammatthainu ( VI. $ 89 ff.). The cinayāna-a, contains some topics which remind one of anitya-e. (VIII. $ 234). It is true that the details elaborated in the VM are different from those found in Jains works, but the basic community of ideas is strikingly similar. Some of these are included under sommardhi-bhavand, and this bhovandi leads to the stoppage of Karmas as the commentary on the Cutugataka (VII. 14) puts it : भावनया क्लेशनिरोधतो लिहत्वात् । Thus both in Jainism and Buddhism the object to be achieved through bliciatraci is the game. 1) This list was first of six sod later expanded to ten gubjeots. 2) Ed. by KOSAMBI, Bombay 1940. 3) I am thankful to my friend Pt. DALASUKHAJI MALAYARITA for come of his suggestione. A portion of this section was covered by my paner read before the Prakrit aad Jainism section of the 20th session of the All-India , Conference, held at Bhubaneswar is 1959. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTBODUOFION 4) KATTIGEYANUPPEKKHA a) Its GENUINE TITLE Though the work is known at present by the title Suami-Kartlikeynuprekaz, it is necessary to investigate what might have been the original title of the Prākrit text dealing with twelve Anupreksäs. In the opening gāthā the author says voccham anupehão and in the last but one gātha birana anitvekkhdo bhaniya. From these references it appears that the author possibly bad in view a title like Barasa-anuvelekha. Some time there must have been folt the need of distinguishing this work from that of Kundakunda which also deals with these very topics in Prikrit. Obviously, therefore, the us. Ba gives the concluding title Sudimi - Kunuiranuprekşti mentioning the author's name. This wa, being earlier than Subhacandra, its title is not without some sign i a 2* ixcó tl:it specifies Kumāra and pot Kārttikeya. Subhacundra, the Sanskrit commentator, calls this work by the name Kürttikeycinuprekęă (in the opening verse and also Sedimi-Ka, long with the honorifiy Sri Bee the colophons at the close of various sections). Jayacandra follows Subbacandra in his Hindi Vacanika and adopts the same title as is used by the latter. The available evidence this shows that the original name was possibly Barasa-Anuvekkhā; it was later called Svīmi-Kumarnupreksd; and then it is Subhacandra who should be held inainly responsible for the presentday title of the text, namely, Surimi - Känttikeyānuprexści. b) FORMAL DESCRIPTION It is Subhacandra, the Sanskrit commentator, who is responsible for the standardised text of this work; und scoording to him there are in all 491 gāthās, of which one gathā is presented twice (Nos. 222 & 280), but he does not seem to have taken any note of it. The my. La omita gåtha No. 65 and the ma, Ba, gāthā No. 229 : these may be cases of copyists missing the verges. After găthi No. 65, Mss. Ba and Ma add some three grāthīs; their contents, as seen from the Bhagavati - Arūdhani, 1800, are undoubtedly old; but their versions being defective and linguistic features uncertain, they could not be incorporated in our text following the lead of Subhandra who does not accept them in the body of the text, though he shows his acquaintance with them in his commentary. Two extra gāthās, Nos. 251 1 and 384*1 deserve our attegtion. The first is accepted by Subhacandra as a pathuāntara and 1) This name being quite current has been retained ic this edition and used in this Intro. with or without Svāmi both in its Prakrit and Sanskrit forms, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 KIRTTIKET ANUPREK commented upon. The second is found in xss. Ba and Ma and seems to be 384 which also is explained by Subhacandra. It is difficult to say which alternative was original and which a subsequent addition. The distribution of gåthis according to anupreksas stands thus. Introductory 1–3 (3); adhruva-c. 4-22 (19); charana-c. 28-31 (9); sammĪTOL. 32-79 (42); ekatua-. 74-79 (6); (nyatva-a. 80-82 (3); 8u.citr&c. 83-87 (5); israya. 88-94 (7); scriera. 95-101 (7); mirjarda 102-114 (13); lokaa. 115-283 ( 169 +1 = 170); bodhi-durlabha-. 284-301 (18); dhammaa. 302-491 (190+1=191). Thus nearly three fourth of the work is devoted to the exposition of the two anuprekras, loka und dharma. o} SUMMARY OF THE CONTENTS After abuting the Diviziy, ut: Junces his intention to expound Anuprekşās which give joy to tho pious. They are twelve in number: 1) adhrusva, Impermanence; 2) asarana, Helplessness; 3) samsara Cycle of Transmigration; 4) ekatua, Loneliness; 5) nyctva, Separateness of the Self and non-self; 6) Liteci, Impurity of Budy; 7) Asrcova, Influx of Karma; 8 ) sapivarat, Stoppage of Karmic Influx;9) mirjard, Shedding of Karma; 10) loka, Universe; 11) bodhi-durlabhatia, Rarity of Religiong Enlightenment; and 12 ) dharma, Law expounded by Jina. One should understand them, and reflect on them with pure mind, speech and body (1-3) 1 Adbravānupreksā Whatever originates is neceggarily destroyed: there is nothing eternal 90 far as its modifioations are concerned. Birth, youth and wealth are accompanied respectively by death, oldage and loss : thus everything is sabjected to decay. Acquaintances, relatives and possessions are all temporary like a newly shaped mass of clouds. Sense-pleasures, attendants, domestic animals and conveyances are all temporary like rainbow or flash of lightening. Meeting with kinamen is temporary like that of travellers on the way. Howsoever nourished and deoked, the body decays like an anbaked earthen pot which crumbles when filled with water. (Goddess of) Wealth is not steally even with merited monarchs, then what to say with common men. She does not feel pleasure in the company of anybody: she stays for a couple of days and is fickle like ripples of water. Wealth, therefore, must be enjoyed and given to the worthy as kindly gifts: in this manner, human life is made more fruitful Wealth that is hoarded is like stone: it goes to others or serves the end of rulers and relatives. One who earns wealth Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 45 anxiously, greedily and sinfully but never enjoys it, ia verily its slave. By expending one's increasing wealth in religious duties and in giving gifta to the pious and poor, without expecting anything in return, one earns praise and makes one's wealth as well as life fruitful. Wealth, youth and life are like a bubble of water: it is sheer delusion to understand that they are eternal. Knowing this, one should remove attachment from one's mind whereby the highest bliss is attained (4-22). II Asarapanupreksa What protection is there in Samsara, when it is seen that Indra suffers rain and Hari, Hara, Brahman etc. are victims of Time. There is no rescue from death as in the case of a deer which has come under the paw of a lion. No god, spell, ritual or Ksetrapala can save a man from death: none, howsoever strong, fierce or well-guarded can escape death. It is only a pervert belief that makes one seek the shelter of planets, Bhuta, Pisaca, Yogini and Yulas. Every one has bo He at the termination of ayus. The Atman, which is constituted of Right Faith, Knowledge and Conduct, is the only shelter; and it should be duly tempered with qualities like forbearance etc. (28-31). III Samsaranuprekṣā The soul leaves one and takes to another body and thus transmigrates through perverted belief and passions. On account of its sins, it suffers in hells fivefold misery and physical tortures beyond description: the hell is essentially permeated with an atmosphere surcharged with acute misery. In the subhuman birth, there are physical tortures and sufferings and mutual tormentations, Even in the human birth there are manifold miseries in the womb and during childhood: most people are victims of sin and few earn merits. Even the merited have privations and painful contacts. Bharata, despite his self-respect, was defeated by his brother (Bahubali). Even the merited have not got all their aspirations and wants fulfilled: family needs, privations and mishaps are always there. Still one does not lead a religious life, giving up all sins. There are ups and downs and prosperity and adversity, as a result of one's Karmas. Even when one is born as a god, one is subject to jealousy; one's thirst for pleasures brings manifold sorrow. Samsara is worthless and an ocean of sorrow. Family relations are subject to chaos even in one life, then what to speak of series of lives. The Samsara is fivefold: every moment the soul is subjected to and gets release from variety of Karmic matter; there is hardly any spot in the Universe where The Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 KĀRTTIKETANUPREKŞA it is not born and has not died many a time; during the range of beginning. les ville vse so la sutier 2 runy a birth and death; it has passed through many births, lowost to the highest; and lastly, due to Karmic types etc. the soul is subjected to ternperamental changes. Knowing that the nature of Samsáru is such one should meditate on the Atman whereby there would ba an end to transınigrution (32-73). IV Ekatvānuprekşi One is all alone while being born, while growing, while suffering and while experioncing the fruits of one's Karnias. No one else can share one's Religion (consisting of kşamā etc. ) is a good friend to save one from SOTTOF, When the Atman is realized un separate from body, one knows what is worthy and whut is fit to be relinquished (74-79). V Anyatsanuprekşa Relatives etc. are different and separate from one's Atman. When the Atman ig realised as separate from body that is something fruitful (80-82). VI Asucitvānuprekşă One's body is full of all that is impure, rotten and stinking: even the pure and fragrant stuff becomes detestible by its contact. Ordinarily people should be disgusted with it, but on the contrary they are attached to it and went to derive pleasure from it. One should relinquish attachment for the body and engrois oneself in one's own Atman (83-87). VII. Asruvinupreksā The activities of mind, speech and body, causing a stir in the spacepoints of the soul, with or without moha, lead to Karmic influx, developing into mithyitta etc. Lower degree of passion to be illustrated by apprecia tion of virtues, sweet words and forgiveness even in the face of provocation) loads to merit; while acute passion (illustrated by egotism, fault-finding and demerit. By uvoiding infatuatory and deluding bhduers, moods or temperaments, and by being ongrossed in 1pxoscema, one grasps the causes of Karmic influx (88-94). VIII Sam várinuprekşi Right faith, partial or total observance of vows, subjugation of passions and absence of activities of mind, speech and body: these are the synonymns of Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Samvera, or the stoppage of Karmic Influ. The causes of Samvare are Gapti, Samiti, Dharma, Anuprekşi, Parişaba-jaya and excellent Caritra, Gapti means control of wind, speech and body; Samiti is carefulness or absence of negligence; Dharma is characterised by compassion; Anuprekçã consists in reflecting on the principles; Parişaha-jaya means ungrudgingly putting up with various troubles like hunger etc.; and the best conduct or discipline is self-meditation, free from all attachment and aversion. One who abstains from pleasures of senses and guards oneself fully against all teinptations stops tbe Karric influx and curtails the journey in this miserable Sam. nära (95101 ). IX Nirjarānuprekşi Eradication of Karups is possible through the practice of twelve-fold penance without any rernunerative henkering (nidans ) for one who is not vain, who is detached and who is endowed with knowledge. The varions Karmas come into operation, give their fruit and then drop out: that is Nirjarā or shedding of the Karms. It is of two kinds : Karmas fall off, after being ripe or mature, according to the schedule; and they can be made to fall off Prematurely by tho practice of penances. The former is normal in all the gradeg of life, while the latter belongs to those who undertake religious practices. In the case of monks, this Nirjară increases more and more along the steps of the ladder of Gunesthānas, as one progresses in spiritual quiet and penances, especially by two-fold meditation, Dharma and Sakla-dhyána. Plenty of Karmu is eradioated by putting up with abuseg, illtreatment and various troubles, by subjugating the senses and passions, by realizing one's defects and appreciating virtues of others, and by repeatedly concentrating oneself on one's Atman which is a pure and eternal embodiment of Faith, Knowledge and Conduct. Thus alone lifo becomes fruitful, merits increase, and the highest happiness is attained ( 102-114). X Lokánuprekşi Tue Loka or universe (of which the dimensions are specified), which is constituted by the inter-a0colomodation of various substances, is 8 right in the centre of infinite space; it is neither created by anybody nor supported by Hari, Hara etc.; it is eternal because the constituent substances are eternal; and it is subject to changos due to vonstituent substances under going modifioations at every moment. It has three regions: Lower, Central and Higher. It is called Loka because various existential entities are seen in it; and at the summit of it thore dwell Siddhas or liberated souls in Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 KIRTTIBBY ANTPREKŞA eternity. The entire universe is replete with living beings, from Nigoda to Siddha : those baving one sense are everywhere, while thoge having more than one sense are found in the Trasanādi, the ceutral column of space reserved for Trasa beings. The living beings in the various grades of existence are classified and subdivided differently from some aspect of charac teristic or the other their durations of life, heights, dimensiong eto. Ace noted in details (115-75). The soul, though all-pervading (in view of its knowability ), gets the shape of its body by virtue of its nature of contraction-expansion. If it is not confined to its body, but were to be all pervasive, pleasure and pain will fall to its lot ever and everywhere (176-77). Knowledge is the very nature of tho soul, as heat is of fire by ratare; and both of them stand inseparable. Knowledge or Jive is not the product of elements; knowledge beside the Jiya is an impossibility; and this is patent to all those who are sensible. It is the Jiva which experiences pleasures and pains and comprehends the objects of senses. It is only in the company of body that the Jiva experiences joy and sorrow, acts in various ways, is open to sense perception and has awareness of its position and ability; but it is wrong to take Jiva to be the same s9 body. Jiva (in the company of body) becomes an agent; and Jiva is subject to Samsāra or gets liberation, according to Kala-abdhi. Likewise, Jive experiences the fruits of Karms in this Samsāra. Affected by acute passions, Jiva is exposed to sid, but when the quiet psychis state is developed, Jiva accumulates Punya. Jiva crosses the ocean of Samsåra in the boat of three jewels, viz., Right Faith, Knowledge and Conduct (178--191 ) TE Jivas are classified into three types of Atman. The Bahir-ātman is one who is of perverted belief, is subject to acute passions and considers the Jiva and body identical. Those who are well-versed in the words of Jina, discriminate between soul and body and are free from eight-fold vanity stand for Antarktian. They are the best when endowed with five MabĀvratas, engrossed in Dharma and Sukla-dhyāds and free from all negligence arxl lapses. They are the mediocre who are devoted to the words of Jina, follow the duties of a pious householder, and are magnanimous and quiet. They are the inferior who are devotees of Jina, have faith but no conduct, realize their weakness and are yearning to follow the virtues of others. The Paramatman is represented by Arbat who stil possesses a body and knows everything through omniscience and by Siddha who possesees only knowledge as bie body (i. e., who is an embodiment of knowledge) and has reached the highest bappiness which arises out of the very nature of the soul consequent on the destruction of all the Karmag and their influences (192–199). Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ İ 1 INTRODUCTION 49 All the souls moving in Samsara are bound by Karmas since beginningless time: that is how their pure nature is eclipsed by the interpenetration of Karmie matter into space-points (pralesa) of the soul. It is this situation that adds significance to the practice of religious life and penances which destroy Karmas and the Jiva becomes a Siddha. Jiva is the best and the highest of the realities: it alone can discriminate between what is beneficial and what is harmful (200-205). The whole universe is replete with particles of matter, subtle and grus and of fold potencies. They are of the same variety of matter endowed with sense-qualities and capable of being perceived by the senses: in quantity they are infinite tines more than the multitudes of souls. Matter (pudgala) helps spirit (jtva) in various ways by forming the body, senseorgans, speech, breath and temperamental phases like delusion and ignorance till the end of Samsara. Jivas too help each others: as a rule Punya and Papa are the chief motive behind it. The matter has a remarkable potential power whereby it eclipses the omniscient character of the soul (206-11) The two substances Dharma and Adharma are copervasive with the Lokākāśa and serve as fulorums of movement and rest (respectively) for all the substances, living and non-living. Akasa or space gives accommodation to all the substances; and it is of two kinds, Loka and Aloka, the latter standing for simple and pure space. The various substances are mutually accommodative; the space-points of Jiva interpenetrate in Lokākāśa like water in ashes; otherwise how can all the substances be accommodated in one space-point of the Akasa? Time which marks changes in various subetances is unitary in constitution, i. e., the points of time never mix with one another but stand always separate (212-16). Every substance serves as the substantial cause of ita modifications while other outside substances are only an instrumental cause. The mutual help of various substances is a cause of cooperative character. The various objects are potent with manifold power; and getting a suitable moment they undergo changes which none can stop. The subtle and gross modifications of Jivas and Pudgalas spoken in terms of past, present and future, are due to conventional or relative time. The past and future are infinite, while the present is confined to a single point of time. Every prior modification of a Substance stands in causal relation with the posterior one which, as a rule, is an effect; and this relation persists through all the time (217-23). The various substances are infinite in character and extended over three tenses: thus reality, as a whole, assumes an infinitely complex charac 7 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 KĀRTTIKJINOPBRERA ter, It is this manifold character of reality that is seen functioning in the universe: any isolated or particular aspect by itself cannot explain the reguItant effect. An eternal substance, if it is devoid of modification, neither originate, nor is destroyed : similarly transitory modifications, if they do not bave the substratum of the substance, cannot give rise to any effeat of existential character. Attributes and modifications will have no basis, if they do not rest on something real. All along substances are subjected, in a single motnent, to a series of new and newer effects which stand in & relation of priorty and posteriorly and of cause and effect (224-30). Jiva is eternal, without beginning and end: it is liable to various new forms according to the accessories available and shows resultant effects. It does not relinquish its real nature under any ciroumstances. If the souls were to give up their individuality, say being all-pervasive and of the nature of Brabman, there will result a chaon; and much less can all the effects be explained by presuming that the soul is atomic in size (231-85). All the substances form a type in view of their being a substance, bet they vary from each other on account of their distinguishing qualities. The object wbich is characterised, at every moment, by origination, destruction and permanence and is the substratam of qualities and modes, is said to be existent. Every moment the earlier form or node is replaced by the succee. ding one: this is what is culled (in ordinary parlance) destruction and origination of a thing. As a substance, Jiva neither dies nor is born : it is what it is eternally. In the constant process of development, Dravya is marked by the persistence of its essential nature; but its modification is a specific phase: it is with reference to these specifio pbases that a substance is subject to origination and destruction. The inherent common property of a substance is its eternal attribute; it is inseparably associated with the substance; and what appears and disappears in a substance is a mode, a distinguishing and temporary property. (according to the author, guna = sīmony-styrūps, but paryaya = vigent-rūpa. The unitary collocation of substance, quality and mode is an object of factual oxperience. If the modes were not to change, disappearance or destruction loges meaning: mapy thodes which were absent earlier appear on the substratum of eternal substance. Substances get digtinguished on acoount of specified modes; otherwise as substances they aro pot distinguishable (236-46). If knowledge alone is real and everything else unreal, then there remains do object of knowledge without which functioning of knowledge loses all meaning. The objects of knowledge are real, and the Atman (which is an embodiment of knowledge) knows them as separate from itself. To Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCITON 51 deny the outside objective world, so patent to all, is a mockery of perverted understanding. What exists cannot be denied, and what does not exist cannot be grasped and described even as void. Names indicate objects which are facts of experience (247-52). That is knowledgo which knows rightly the self and other objectivity, endowed with manifold characteristios. The omniscience (kevazifikāna) enlightens the pbysical world (Loka) constituted of substances and modification and the pure space beyond (Alokakasa). The omniscient is called omnipresent by his all-pervasive functioning of knowledge, but the knowledge does not leave the soul and go beyond. The process of knowing fanations without the knower and the object of knowledge leaving their respective places. As distinguished from the Kevala ( which is salala-pratyaksa) Madah peryaya and Avadhi types of knowledge are Deśa-pratyašsa, i, e., of partial comprehension. Both Mati and Sruta types are indirect, the former of more clarity and immediateness, Matijdāns is possible through five senge-organs and also yind: that through mịnd comprehends the topics covered by senses and druta or soriptural knowledge. Of the five sense-knowledges, only one functions at a time, and the rest ate latent. Every object hag manifold aspects, and can be viwed only from a single aspect with the help of scriptural knowledge and of Nayag. Any assertion about it is from some of view or the other. The knowledge brinuts oat indirectly the mani. fold aspects of objectivity, diveșted of flaws like doubt ete. (253-62), Naya is a variety of soriptural knowledge and originates from some characteristic or the other: it serves day-to-day worldly transactions with gome aspect or object in view. The reality is a complexity, and when something is stated about it, it is with some aspect predominantly in view, and others being put in the bsok-ground for the moment. Naya is three-fold. That is a sunmaya or a good point of view, which does not ignore or deny other points of view; but a bad point of view (durnya) leaves no margin for other views. All worldly transactions are well explained by good points of view (268-66). Jiva is known from genge-functions and physical activities: that is caramand or inference; it is also a Naya, a point of view of which there are meny a variety. Colleotively speaking Naya is one; spoken from the pointe of view of Dravya and Paryaya, it is two-fold; and going into more parti. culars, it has other varieties like Nsigama eto. The Dravyārthika-baya, or the substantial point of view, states reasonably the general (sīminya), without denying the particulars; while the Paryāya-naya states from various characteristics eto, the particulars keeping in view the generality ( 267-70). Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 52 KÄRTTIK YANUPREKSI The Naigama-nays describes optionally the past and future in terms of the present. The Samgraha-naya states a class or group-point of view for a part or whole of a substance or modification, taking the common characteristic into consideration. The Vyavahara-naya states a distributive view of the non-specified general by dividing or separating it into classes etc. upto the minutest particle. The Rju-sútra-naya states the immediate condition of a thing as it is at present, at a particular moment. The Sabda-naya describes difference between various objects with reference to their grammatical number, gender etc. The Abhirudha-naya specifics individual connotation of various objects with reference to their distinctions or the chief connotation (among them all). The Evabhuta-naya states the then aspect, situation or connotation of a thing. He who describes a thing in this world from these various points of view achieves E, Knowledge and Conduct, and in due course, attains heaven and liberation (271-78). The number of people who hear, understand, meditate and retain the principles (of religion) is always small: a firm grasp and steady reflection lead to a correct understanding of reality. Internal and exterual non-attachment brings therewith so many virtues. He who meditates quietly on the nature of the universe becomes a orest-jewel for the three worlds by destroying the stock of Karmas (279-85). XI Bodhi-durlabhānuprekṣā Dwelling for an infinite period, without beginning in time, in the Nigoda, the Jiva somehow comes out, and passing through different grades of beings, such as Sthavara, Trasa, Imperfect and Perfect Tiryag etc, gets human birth, hard to be obtained. Even there, a good family, affluence, physical perfection, healthy body, good character, good company, religious faith, pious life, faith-knowledge-conduct, avoiding mental perversion and passions, godhood, practice of penances: these are rarities among rarities. The human life has a unique signification: it is here that Great vows, meditation and attainment of Nirvana are possible. So one should concentrate respectfully on the cultivation of Faith, Knowledge and Conduct. But to waste huwan life in the pursuit of pleasures is to burn a precious stone for ashes (284-361). XII Dharmanuprekṣā The omniscient who directly knows the entire Loka and Aloka with all their attributes and modes of the past, present and future is verily the Divinity. He alone comprehends the supersensuous: the knowledge of senses Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION does not grasp even the gross objets with all their modes, The Religion preached by him is I) Twelvefold for laymen or householders and II) Tenfold for monks or houseless (302-4). I. i) Farsang-puuldhr: A harable cool auntably constituted and qualified, develops Samyaktva or Kight Faith which is of three types: Upagama-, Kşayiks and Ksãyopasanika-samyaktva. Even when Samyaktva is partly attained, there is noope for lapses in it. One endowed with Right Faith necessarily carries conviction about the many-sided reality stated through gevou-fold predication as demanded by the occasion. Through the study of scriptures and by adopting different points of view (naya ) he recognises the nine Padārthas. He is not vain about his family and possessions; but with mental quiet, he feels himself insignificant. Though addicted to pleasures and engrossed in various activities, he knows all that to be worthless, a pursuit in infatuation. He is devoted to the highest virtues, respectful towards the best monks and attached to his co-religionists. The soul, though embodied, is separate from the body, by virtue of its essential attribute of knowledge: the body is just like a garment. He worships God who is free from faults ( doga), reveres Religion which enjoins kindpeas to all beings and ets & Teacher who is without any attachment or ties. He regularly reflects that it is his own Karinan—and none else—that brings about his prosperity and adversity, his pleasures and pains and that his death at the due time is a certainty which cannot be averted either by Indra or Jinendra, He understands the various substances with their modes from & realistio point of view and has no doubts of any kind: in matters beyond his comprehension the words of Jina carry conviction to him. Samyaktys or Right Faith is of the highest value; and it brings respect here and happiness in the next world, even though one does not practise the vows. A man of Kight Faith iacars no more evil Karmas, and whatever he has in stock from earlier birth he des. troys ( 307-27). ii) Darsana-srūvaka: A layman of Right Faith in firm in his mind, practises his vows without expocting anything in return (piyona-juriino and is renunciative in his outlook. He does not enjoy abominable items of food and drink, such as flesh, wine etc. which are full of Trasa lives ( 328-9). ato-stāvaka: A layman with vows practises five Aņuprates and is endowed with Guņavratas and Sikşāv ratas: he is firm, quiet and sensible: 1) He behaves kindly, treating alj others on par with himself; and being introspective and self-critical, he avoids all major sing. He neither commite, nor coinmissions, nor congents to any injury to Trasa beings (i, e. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 KĀRTTIKIYINUPREKRA beings having more than one gange-organ) in thought, word and ant. 2) He does not atter injurious, hurgh and rough words, nor does he betray any one's confidence. His words are beneficial, measured, pleasing to all and glorifi catory of religious standards. 3) He never buya a costly article at a low price, nor does he pick up a forgotten thing; and he is satisfied even with a small gain. He is pure in his intentions and firm in his mind; and he never robe what belongs to others out of treachery, greed, anger or vanity, 4) Feeling detest for a woman's body, he looks upon her forn and beuuty sus evil temptations. He observes chastity ( broadly ) in thoughts, words and acts looking upon other worden (than his wedded wife ) as mother, gister, daughter eto. 5) He subjugates greed and is happy with the elixir of contentment; realizing everything to be transitory, he erradicates all nasty cravings. He puts a limit to his possessions of wealth, corn, gold, fields etc, taking into Account their utility ( 335-10; 1) Like the limit to possessions, putting limit with respect to directions also is an effective curb against one's greed; so one should, knowing the need, Jimit one's movements in the well-known directions (East etc.). 2) That concern or activity which achieves no useful purpose but essentially involves sin is something evil which is fivefold with many a variety: a) Picking up faults of others, yearning for others' wealth, erotic gazing at other women, and getting interested in others' quarrels; b) giring instruotionsi n important matters connected with agrioulturo, rearing the cattle, business, weddings etc.; c) useless activities involving injury to inmobile (stharcra ) beings in the form of earth, water, fire and vegetables; d) maintaining harmful animals, giving weapons etc, as well as fatal druge; and c) attending to works dealing with quarrels, erotics etc. and finding faults with others, 8') One should put a limit to the enjoyment of food, betel-leaves, clothes etc., knowing that they are available, A. worthy vow in his who relinquishes what he possesses : he who feeds himself on his fancies derives no benefit at all (341-51 ). 1"} While practising Sāmāyika the following seven items are to be taken into necount: ") place, b) time, c) posture, d) concentration of mind, o) purity of mind, f) purity of speech, and g) purity of hody. a) The place which is not noisy, por crowded and not infested witli mosquitos ete, is suited for Sämāyika. h) The Ganadharag have stated six Vall d hics (nelikümabout 24 minutes) of the morning, noon and evening ure suited for the practice of Samayiku, c) One should sit in the parynenka powture or stand erect for a fized period of time, curbing all the activities of sense-organs, d.g) With the tuind concentrated on the instructions of Jina, with the body restrained and SAR Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 55 with the hands folded one should be engrossed in one's self reflecting on the signification of the salutation (-formula). One who practises Sāmāyika in this manner, circumscribing the region and avoiding u]l sinful activities becomes just like a monk. 2) The man of anderstanding who decks himself with ( the attitude of ) renunciation relinquishing bath, cosmetics, omamenta, contact with women, sents, incense etc, and regularly fasts or eats simple or pure food only once on the two paucen days of the fortnight, i, e., the 8th and the 14th day) has to his credit the posuna vow. 3") The third Sikşāvrata, which brings bappiness etc., regniran a man of verstanding, endowed with faith etc., to give, according to ninefold ways of donating, gifts to three kinds of worthy recepients, Gifts can be of four types: food, medicine, scriptures and abhaya (security or shelter), the last being unique among the four. By giving food, the remaining three wants also are fuilled. It is on account of hunger and thirst that there are various diseases; it is the food that gustaing a monk in his study of scriptures day and night; and it is by food that all life ia nourished. Through detached and devotod gifts one pats the entire Samgha on the path of liberation, consisting of three jewels. Even one worthy gift, given to a single worthy person, brings to one the happiness of Indra. 4 In the fourth Sikpaypata the limits put to directions eto. and pleasures of senses are further circunscribed; greed and erotic temptations are quieted; and sins are reduced. One who quietly faces the voluntary submission to death (sallekhana), after practising twelve vowa, attains heavenly bliss and liberation, Devoted, firm and faultless practice of even a single vow brings immense benefit to one (352-70), iv) Samayika wonsists in meditating on the consequences of Karmas, all along fixing one's thoughta on one's own nature, the image of Jing or the sacred syllable, after quietly and courageously giving up attachment for the body and in putting into practice 12 tartas, 2 namanus and 4 praramus (371-72). ) Posaha is practised in this way. In the afternoon of the 7th and 18th days of the fortnight one goes to the temple of Jina, offern kiriya kawa or salutation etc., accepts the vow of fourfold fast (from the teacher), abstains from all domestio routine, spends the night in religious thoughts, geta up early in the morning, offers salutations etc., spends the whole day (8th or 14th ) in the study of soriptures concluded with salutation, spends that nigbt in the like manner ( 88. above ), offers vandana early morning of the 9th or 15th day ), perforins puja, entertains Worthy guests of three typea, and then eate his food. Quietly fasting without any sinful activities easily destroys Karmas; otherwise fasting is only a phygiosl torture (373-78 ). Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKYANUPREKĻA vi) Sacitta-virati: By not eating leaves, fruits, bark, roots, sprouts or seeds which contain life, one becomes sacitta-virata. It is all the same whether one eats or makes others eat them. By avoiding such food, one has a full restraint on the tongue, and consequently one is full of compassion to beings and carries but the instruction of Jina (379-81). 56 vii) Ratri-bhojana-virati: A sensible person neither eats nor serves to others four-fold food at night; by not eating at night one is as good as fasting for six months in a year, and one avoids all sinful activities at night. viii) Maithuna-tyaga:He who abstains from women and sex-pleasures in thoughts, words and acts and by committing, commissioning and consenting to, observes the vow of celibacy and is full of kindness to living beings, ix) Arambha tyaga: He who does not commit, commission and consent to sirful sutivities and detesto La unto beings avoids all ain. x) Samgatyaga: Ties or possessions are two-fold: Internal and External. He who gladly relinquishes them both is free from sins. Poor people, naturally, have no external possessions, but it is difficult to relinquish internal ties or distractions. xi) Anumati-tyaga: He is an anumati-virata who never involves himself even by consent into any household activities causing sin. Being full of attachment and aversion, if one occupies one's thoughts with various useless activities, one commits sins without achieving any purpose. xii) Uddiṣṭāhāra-virata: By going from house to house one should eat food which is pure in nine ways, which is not specifically solicited, which is proper and which is not specially prepared. One who practises the vows of a householder and duly cultivates aradhana on the eve of his life is reborn as an Indra (382-391). II. The religions duties prescribed for a monk are ten-fold. 1) Utta ma-kṣama: Forbearance consists in not getting angry even when severe troubles are inflicted. 2) U-mardava: Humility or modesty consists in one's being introspective about one's own defects even when one has reached the height of knowledge and austerities. 3) U-arjava: Straightfor wordness consists in eschewing crookedness in thoughts, words and acts and in never concealing one's own faults. 4) U.-sanca: Purity means that the dirt of acute greed is washed away by the water of equanimity or peace and contentment, and there is no greed even for food, 5) U.-satya: Truth + * Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION fulness consists in gpeaking in conformity with the words of Jina, even tbough one is not able to put them into practice and in avoiding lies even in worldly transactions, 6) U.-samyama: Self-restraint consists in not injuring (ie, giving security to) living beings, even to the extent of cutting grass, in course of one's movements and activities. 7) U.-topas: Austerity consists in equa nimity, being indifferent to the pleasures of this and of the next world and in quietly enduring various physical troubles, 8) U.-tyāga: Renunciation consista in reliling datiusy foot, üticles which give rise to attachment and aversion and home which occasions vanity of possession, 9) U.-nargrunthox: Non possession consists in giving up attachment for things, both living and non-living and in abstaining from all worldly dealings. 10) U.-brahmakarya: Chastity or celibacy. which is nine-fold, consists in having no contact with women, in not observing their fort and in not being interested in erotic talks. One who is not distracted by the gianoes of girls is the greatest bero (392-404). That is the greatest Dharma in which no barm unto living beings is involved even in the least. Harm unto living beings in the name of voda or teachers is sin, and can never be Dharma which is characterised by kindness to living beings. The Religion preached by Jina is something anique. By practising this ten-fold Dharma one requires Punya or merits, but it should not be practised for merits. Punya involves Sarkira; and only by its distruction liberation can be attained. If Puqya ia acquired to gain worldly pleasures, spiritual purity will never be reached. One should aim rather at quieting one's passions than at acquiring Punyas ( 405-13). One should have faith or conviction, without any donbt, that Religion is characterized by kindness to living beirge and sbould never involve any injury to them as in a sacrifice. ii) Liberation should be the aim and religion should not be practised through severe penances with the hanker ing of heavenly pleasures, iii) One should not detest the disgusting physical appearance of those who are endowed with ten-fold Dharma. iv) One who does not consider, out of fear, modesty or gain, haru unto living beings as the Religion but is devoted to the words of Jina, is man of correct or andelnded perspective. =) Reflecting on the Karmio consequences, one should connive at others' defeots and never make publio one's own virtues. vi ) Those who are shaky in their convictions one should confirin on the path of religion by oneself being quite firmu, vü) One should talk gweet and show devotion to and follow the religious people. viii) One should presoh the ten fold religion to the pious or liberable souls ( bhavya ) and enlighten oneself too. The greatness of the doctrine preached by Jines should be established by various argumente Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 KĀRTTIKETIKUPREKA and through sevate penanoes. These qualities are onltivated by him who meditetes on himself and is averde to pleasures of senses: it is on account of these virtues with reference to Dharma, as well as to Divinity, toacher and principles that one's Right Faith gets purified (414-25). Deluded as one is, one anderstands Religion with difficulty and puts the same into practice with greater difficulty. By practising the religion preached by Jina one easily gets happiness. Religion is like a seed to give the desired fruit. A religious man is forgiving even to his er indifferent to others' wealth; and he looks upon any other woman (than his wife) og his mother. His mind is pure, be speaks sweet, he creates oonfidence all-round, and he is reputed everywhere. Dharma works out miracles and unexpeated results. All efforts fail without the backing of Religion; knowing this one should aviod sin and practise religion ( 426-37). Quietening the senses is, in fine, upavāsa, therefore those who havo control over their senses are observing trousa or fast though eating (80110 food). i The combana austerity consists in easily abstaining from food for & day etc., only with the object of destroying Karmas, but if sinful activities are undertaken during fast, fasting is only a physical torturo. ii) The avamandaryo austerity consists in eating a little pare and suitable food without any greed and alterior motives, ü) Vrti-parimina means indifferently tasteless food, anticipated in mind, with the number of houses limited, is) One who observes mascotyago eats tasteless food being oppressed by the misery of Sarnsära and constantly thinking that the pleasures of genges are & poison. v) One who observes the fifth austerity stays in a lonely place, such as unhsunted cemetry, forest ete. He relinquishes seats etc. which occasion attachment and aversion; and being disgusted with worldly pleasures, he has no craving for houses etc. He is quiet or peaceful and skilled in the practice of internal penances. vi) One who is not discouraged by adverse climatic conditions and is triomphant over various troubles, practises the susterity called küyaklesa. i) Prüyadoista: One is not to commit, commission and consent to a fault in thought, word and deed. If any fault is there through negligence or inadvertance ( prudda ), it should be confessed, oneself being free from ten defecte, before a worthy teacher whose prescriptions one must carry out. Avoiding that fault, one meditates, without any distractions, on the Atman, an embodiment of knowledge. 2) Virusya: one should have a pure temperament with reference to darsana, jfiana, cãritra, twelve-fold penance and manifold Upxecāros; and it means devoted attendanee on those who are endowed with faith, knowledge and oorluct. W) Vaiyávrtya: one should render disinterested service to the aged and suffering monks, and be devoted with the best of intentions to Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 59 the cultivation of peace and self-restraint, abetaining from Worldly activities 1) Swadhyâya: study of scriptures is indifferent to other's criticism, eliminates wicked thoughts, helps one to ascertain reality, and is an aid to meditation or concentration of mind. Devoted study of Jaina scriptures, withogt craving for respect and with a view to removing Karmas, tesda to happiness; but if it is attended with vanity, craving and opposition to oolleagues, it is harmful. The study of texts dealing with fight and love with a disturbed mind and with & view to dupe other people, bears no benefit. Worthy is that study which enables one to realize one's Atman, full of knowledge and quite separated from the body. Kiiyotsarga means indifference to body, its caressing and needs and being engrosged in Belf-meditation with perfect detachment with reference to every thing outside. v) Dhycina: Concentration of mind on a certain item for a while is known as dhyana which may be inauspicious or auspicious. Arta and Raudra are insuspicious, while Dharms and Sukla &re auspicious. Passions are soute in Arta, still nore acute in Raudra; at they are temperate in Dharma and still more temperate in Sukls which is possessed by one who is free from passions and is possessed of scriptors! knowledge and by the omniscient (488-72 ). Artadhyana or the miserable mood develops when Obe wants to secape miserable contacts and when one wants pleasant associations from which one is separatod. In the Raudra-dhyāna one repeatedly revels in injury to living beings and in telling lies; one is not only keen about one's possessions and plengdres but wants to deprive others of them. Arts and Rsudra are a source of in, and as such they should be studiously avoided. Dharma means the nature of things, ten-fold virtues like ksama etc. the three jewels and protection of living beings. Attachment and aversion, sense pleasures and extraneous distractions eto. are avoided and the mind is concentrated on the nature of Atman, and one goes on meditating with joy and peace : that is Dharma-dhyaux, In the Sukla-dhyāna virtues grow parer, the Karnas are quieted and eradicated, the Leśyās are white, and one advances in spiritual parification. When all delusion is melted away, when all passions are pacified and when one is engrogged in oneself, there is Sukladhyāna in its four stages ( 473-88), Svámi Kumara bag expounded with great devotion these Acuprekşās with a view to womprebend the words of Jins and to restrain the fickle mind. A study of these Anuprekşās, which are explained according to Jināgama, leads to eternal bliss (489–90 ). Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKRY ANUPREKJA I offer prayers to Vasupujya, Malli, Nemi, Parsva and Mahavira who are the prominent lords of three worlds and who practised penance as Kumāras, i, e., before coronation (491). 60 d) A COMPARATIVE STUDY As noted above, the Barasa-Anuvekkha (B) of Kundakunda, though small in size, is an independent treatise on Anupreksas in Prakrit; and the Malacare (M), VIII, of Vattakera, Bhagavati Aradhana (Bha) of Śivarya, gāthās 1715-1875 and Maranasamahi (Mar), gāthās 569-638, contain substantial exposition of Anupreksas. Further, the Tattvartha-sutra (IX. 7) and some of its commentaries have served as the pattern for the format of discussion of these topics. The Kattigeyanuppekkha (K) is possibly the longest Prakrit text dealing solely with twelve-fold Reflection. Naturally it deserves to be compared and contrasted with kindred works noted above, with regard to its various aspects. Some of the gäthas in these works have close agreement, either in thought or expression: K 6-8, 21 K 26-28 K. 30-31 K 56 K 63 K 64-5 K 66 K 68 B 4-5; Bha 1717-19, 1725 B8-9; M 7; Bha 1743 B 11, 13; Bha 1746 Bha 1801 M 27; Bha 1802 M 26; Bha 1799-1800 B 24-29; Bha 1773 f. Bha 1775; Mar 594 K 78 K 82 K 83 K 89 K 101 K 104 K 305-6 K 393 Bha 1752 B 23 B 43 B 47; Bha 1825 Bha 1829 (?) B 67 B 69 B 70 It is true that there would be much common thought and expression when authors brought up in the same tradition are dealing with similar subjects. But the above parallels are something more than that. One certainly gets the impression that the Kattigeyanuppekkha is indebted to the Barasa-Anwekkha for some of its ideas and expressions. Like B, K is addressed to both monks and householders, with greater concern for the latter; while Bha, M and Mac have primarily the ascetio community in view. 1) K lays more stress on the fickle character of Lakṣmi who spreads very great infatuation for laymen, and other points are incidentally touched, 2) Bha stresses that there is no escape from Karmic consequences, while B, M and Mar, along with K, have Death in view from which there is no escape. According to M and Mar, Jina-dharma is the ! . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MASU WIKODUOTION 61 shelter, while B, Bha and K. recommend shelter in the Atinan, constituted of Darsana, Jñāna and Carita (with Tapas, udded in B and Bha). 3) K elaborates the different grades of existence (Naraka, Tiryak, Manaşya and Deva) which are hinted in M, Bha and Mar and through which the soul wanders due to Mithyātve and without attending to the words of Jiga. Besides this elaboration, the discussion about the fivefold Sansiri, mentioned in B, Bha and also M, comes like an appendage section in K. To relinquish the infatuation for sannsara, Mwant it to be realized as worthless, B pre. goribes the Niscaya-naya und escape from Karmas, Mar recommands the practice of religion, and K appeals for self-meditation. 4) The opening gåtbās of come like an explanation of B, M and Mar, K prescribes the tenfold Dbarna as the only aid: this upcording to Bha consists of three jewels, and this very position is endorsed by B in a forvent tone, 5) The relatives etc., why even the body, are all extraneous; 50 one must meditate on the Atman. This spiritualistic tone is not sufficiently developed in Bha agd Mar as in others. 6) Like B, K prinarily exposes the impure character of this mortal body for which one should not be attached but should concentrate oneself on the nature of Atman, M does not ignore this aypect, but like Bha and Mar calls this topio asubhanureksā: artha and kama are céubha, while dharma is subha. It is under the discussion about kam that the filthy naturs of the body is explained in M and Bbu, 7) Khas B in view, but follows some other sources as well. B and Bhe have the same pattern of enumeration of the causes of Agrava, while M. Mar (and partly Bha) have some other common ide98. It is only B that introduces the Niccaya point of view. 8) Bintroduces here the doctrine of three wayogas and insists on the meditation of Atman from the Niscaya or Paramartha point of view, M, Mar and partly Bha too have a similar pattern of ideas that the doors of Karmic influx should be stopped, and then follows Samsara, or the stoppage of Karm mic influx. K has an enumerative pattern which is partly in agreeinent with Bha. 9B has two gathās, if not only one, for ninjaria, which is a further step after the stoppage of Karmas. The second gātbā of B is common with K. In all the sources Tapas or penance is stressed as the chief instrument of merjara, which is twofold. What is guggested in M seems to be elaborated in K, the oxposition in which is less technical Penance is like fire which burns the grass of Karmio seed of Samsara, 10) The exposition in B is simple : the different wayogas drive the soul to different Lokas, M and Mar have suggestions about different kinds of Jivas and their miseries, and K has elaborated the same to the maximum. It is interesting to note that what Bha includes ander Loka-. (1799–1800) is included under Samgâra-a. in K (61-65 ): the line of demarcation between these two topics is slippery. Discussion about Loka is really & wide topic, naturally k includes Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 KĀRTTIKKYANUPEIKĻA the exposition of many subjects such as Jiva-and-Jana, nature and three kinds of Jivas, various substances and their nature, varieties and function of knowledge, various Nayae ata. 11) The nisam point of view helps one to distinguish Atman from everything else: this is correct knowledge, true enlightenment, rather difficult to be obtained. This is quite precisely put in B. K elaborates the series of rarities (which are hinted in M, Bha and Mar), and how the religious enlightenment is the rarest and possible only in human birth. So one should devote oneself to the realization of Atman, constituted of Darśana, Jiana and Caritra. 12) B describes twofold Dharma, of eleven stages for the householder and tenfold for the monk; the former are only enumerated and the latter are explained in details. From the real point of view, the pure Atman should be reflected upon. M glorifies Dharma as preached by Jina and expounds the tenfold Dharma for the monk, Bha and Mar glorify religion and just hint some details. What B has done in a nutshell K. has elaborated to the utmost: the twofold religion is explained in all the details. The twelve Pratimas are expounded giving exhaustive details about the Apu-, Guna and Siksa-vratas, and then follows the exposition of the ten-fold Dharma in details. Then Dharma is defined; the characteristics of a man of faith are given; and lastly Dharma is glorified. Then follows the description of twelve penances which lead to the destruction of Karman, with a concluding discourse on Dhyana of four kinds. Directly or indirectly, K has inherited a good deal from these Prakrit sources, but in every case K presents a lucid exposition if the topics are general and a detailed discussion, if the topics are difficult and enumerative. Svămi Kumāra seems to have drawn on some additional sources as well. It is interesting that the enumeration of the twelve Anupreksās adopted in K is different from that found in B, M and Bha (which agree among themselves) but agrees with the one found in the Tattvärtha-sutra (TS) of Umasvati, as already noted above, Secondly, in a number of places, especially of technical discussion, K reminds one of TS, as well as its commentary, viz., the Sarvarthasiddhi (8) of Pujyapada. Some contexts may be noted by way of illustration: i) K 88 ff reminds one of TS, VI. 1 f., and some words in 88 echo the commentary of Pujyapada (atma-pradesa-parispando yogah). ii) K.95 ff, is an exposition closely following TS, IX, 14, etc. along with S. In this way, in almost all places where we have enumerative and technical discussion, the influence of TS is apparent. Of the two earliest Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 69 commentaries on the TS, namely Bhdsyok and Sarvirtasiddhi (on IX, 7), both of which have common ideas and expressions, it is the latter that has influenoed K more than the former. 1) The simile of juta hudbuda (K 21 ) is found in B (5), in Bha (1717) and also in S but not in the Bhasya in this context. 2) The simile of lion for death (K 24) is pretty old found in the canonical passages and in the Bhdsya, but the S hug that of a tiger as in the Mahabharata passage noted above. 8) K seems to work out the details hinted in the Bhagya and S; five-fold Samsāra, megtioned in S, goes back to Kundakunda from whose B Půjyapāda quotes the necessary gāthās, as already noted 4) S stregses Dharma as the schy, and K explains it by than dana-akhano huwve suyuno. 5) Tbat the Atman is separate from the body is the basic theme, 6) K follows S more than the Bhagya which is more elaborate. Neither of the commentarios trud 2063 ari iz turc cf 1914, artha and käma, 7-8) The Bharya is more elaborate and gives some mythological illastrations eto. in dealing with isravu. K follows TS, as shown above, in the exposition of Agrava, 9) The two-fold rirani is mentioned in the commentary, and develop it in the case of a soul moving along the path of spiritual evolution. 10) Taking hints from the commentary, K has made this dechon & veritable compendium of karamingyog and druyantyogt. The three-fold division of Atman reminds one of similar discussion in the Mokkhat pihudo, Samadhi-satcska, Poramappa-paycisu ete. Some of the definitions of nayoks, for instance, sangraha, &abda cto, remind one of S(I. 33). Svami Kumāra shows here and there the spirit of a Naiyāyika. 11) Though some of the similies are slightly modified, the trend of discussion in K is a full development of what is found in S. 12) K presents a systematio and tborougb exposition of two-fold Dharma ete, for which the material is available in plenty in TS and its commentaries in various contexts. Thus Svāmi Kumira inherits a good deal from Kundakunda, Sivärya, Vattakera etc. and has enriched his exposition by profusely drawing upon the Tattvarth-siztras and its Accessory literaturo. Fature stadies alone 0an detect additional sources more precisely, e) A COMPENDIUM OP Jaina DOCMATICS Most of the topics included ander Anapreksas ute of auch didactic import as could be discussed without overloading the exposition, say in the manner of Subhacandra in some Anuprekşās in his Jñandraus, with dogmatical details and technical enumerations of a more or less fixed pattern. But Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 KĀRTTIKIYINUPLIESI Syami Kumāra is essentially learned author, steeped in Jaina principles; naturally, though he deals with these topics like a moralist poet, he has stuffed his discourses with manifold details whereby the Kasttigeyānuppekkhd (K) bas become a veritable compendium of Jainism. Some outstanding Contexts of topical discussion are listed below : Desoription of Hellish, Sub-human, Human and Divine grades of existorce 84-61; Five kinds of hellish miseries 34-35; Samsāra of five kinds 66-72; Two grades of Kaşayas 90-92; Definition of the causes of Savara 96-99; Two kinds of Nirjara 104; Nirjark on the ladder of Ganesthānas 106-8; Loka and its extent 118-21; Jivas: Ekendriya varieties 122-27; varieties of those having more Ludriyaş 128-42; details about living being outside the hun tur!!17.75; Fize of the Jiva and its relation with knowledge 176–87; Jiva, as karti and bhukta 188-91; three kinds of Jiva 192-200 ; Jiva und Karman 201-4; Pudgala, its varieties 205-11; Dharma, Adbarma Akala and Kala 212-223; Anekånts, character of vastus-Drevye, Guņa and Paryżya-which is endowed with origination, permanence and destruotion 224-46; Jňâna and Jõeya 247-56; Five kinds of Jhāna 257-62; Nayas and their definitions 263-78; Sāgåra dharma, its twelve stages and their individual elaboration 305 eto.; Samyagdrati and his characteristics 307 eto.; Vratas : Anuvratas 331-40; Gagavratas (with five varieties of Anarthadanda) 341-51; Sikşãyrata, 352-69; Anagara-dharma and its ten varieties 393-409; Himped 405 f.; Punya 410 f.; Samyaktva and its eight characteristics; Dharps glorified 426-37; Tapas and its twelve types 498 f.; Four kinds of Dhyana 478 f. The above topics are noted with an object that specialists in various branches of Jainologioal study may be able to shed more light on the sources from which Srāmi Kumāra has drawn his material, and on his inflaonoe on subsequent authors. What is done above is a modest and limited attempt. An exhaustive study in various directions will not only enable us to have a correot estimate of the scholarship of Svami Kumira but also to put inore definite limits for his dute which is not satisfactorily settled as yet. f) ITS AUTHOR The current belief is that the author of this treatise, Baras Anwekkha, is Kārttikeya or Svāmi Kārttikeya ; und from this the work hag come to be named Karttikeyanuprekød. In the text the author give very meagre information about himself in this way (489-91): 1) For earlier observations on the author and his date pee: P, BAKALIYAE Srama. Kartikeyannaksi, Preface, Bombay 1904; HIBALAL; Credogue of Sk. and t'k, MBS.201 the Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 65 [This treatise on) Anuprokşās has been composed with great devotion by Svámi Kumāra by way of reflection on the words of Jina and with a vier to control the fickle mind. The twelve Anuprekşās have been, in fact, expounded following the Jināgama; he who reads, hears and studies these attains eternal bliss. I salute Vāsupūjya, Malli and the last three Tirthakaras, viz., Nemi, Parsya and Mahāvīra who were the lords of three worlds and wbo practised penance as Kumāras [i. e., even before they were coronated or wedded): From these găthās all that we know about the author is that bis naine was Svimi Kumāra, or Kumāra, in cuse Svāmi is just a title of honour; and being himself Kumārs, be salutes five Tirthakaras who had entered the order of monks as Kumāras. It may possibly be inferred that our author was & monk and was initiatod in the ascetic order, even before bis marriage. The Ma. B (earlier in age than Subhwandra) also mention the name as Svāmi Kumāra, at the end, but Syami Karttika at the beginning. As far as we know, it is Subhucundra, the commentator, that first mentions the name of the author & Kärttikeya, also along with the title Svāmi. Because there is no basis for this in the original text, it has to be inferred that some ong, if not Subhacandra himself, took Kumāra and Kārttikeya just us synonyms and went on referring to the name of the author as Kārttikeya C. P. and Berar p. XIV; M. WINTERNITZ: A History of Indian Literatura, Vol. II, p. 077; A. N. UPADAYE : Paramātnut-prakāśa Iutro. p. 63, Bombay 1937; JUGALKISHORE: Anekanta, VOL VIIT, 8-7. Pp. 237f. and Purāteru Jeindr Vālya-sucī, Intro. Pp. 221., Shareeper 1950; D. R, BESORS: Swati 1. 6, Rahubali, June 1951. BAKALIYAL refers to . Sanskrit com. of Vågblatt, but so fer it is not traced. Prof. Bendre's reference to s commentary of Subhairti (Subhanandí) is without any evidence : perhaps the name is a mistake for Subhacandra. He seems to draw upon Kannada Vaddrädhane. As be plainly admita thet the satbor of K-Anuprekya is not referred to there, the biography of Kärttikeys in that Kabad work, bis association with Papāna near Poons and Rogali in Bellari Dt. eta love their relovanoy so far 9 our aathor is concerned. The identifiontion of Rohatgiri With Lohsparvata near Sondur is too speowative. 1) See his remarks at the opening and on gāthis Nos: 283 ( verse 2, p. 804) 189, 490 add 491. It is very plein that with Subbacandra Kumāra Karttikeye. 2) A.courdiog to the Lindu mythology Kárttikeya is the name of Hop of Sits and Parvati. He is popularly regarded as yod of war, beesuse he leads the ganas or hoste. According to one legend, he was born without * other, in a miraculous manner: the generative energy of Siya Was ouet into the fire and then received by the Garges, whenoe he is sometimes described as son of Agui and Gauge When be was born, he was fostered by the six Kittikás (i.e, the name of a constellation consisting of six stars) who offered their six breasts to him whereby he became six headed, and bence called SadACALLA. He is also known by the names Kumara, Skanda, Sabrohmeya eto. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 . KARTTIKKYANUPREKŞA This specification of the anthor's name is Kārttikeya has led to some other deductions if not complications. While explaining gātbā No. 394, Subhacandra has an illustrative remark to this effect : रू पसुनिः कोपरातोपसर्ग सोडा साम्यपरिणामेन समाधिमरणेन देवलोक माप्तः । Some bave induced themselves to beliove that here is a reference to the author of the Kattigcyānuppekkha. Even Sublacandra who is, inore than any one else, responsible for using the name Kārttikeya for Kumāra, does not state that here is a reference to the author on whose work be is writing à commentary. So there is no evidence at all to identify the anthor Kumāra, called Kärttikeya (along with the title Svāmi) with this Srāmi-Kārttikeya of pre-historic, if not legendary, fane who suffered the troubles inflicted on him by Kraunca-raja. The Kuthākošas give the biography of Kārttikeya (originally Kārttika) who was hit by king Kraanca; and the basic verse for the story runs thus in the Bhausurti Aradhanui (1549) रोहेक्यम्मि सत्तीय इमो कोष मभिादइदो वि । सं यणमधियासिय पविषण्णो उत्तम अटै ॥ In this connection the following three găthās from the Samharaga deserve special attention (67-69): जल्ठमलपक्रधारी माहारो सीलसंजमगुणाणं । मजीरणो य गीभो कसिय-अज्ञो मुरवरग्मि ॥ रोहीसंगम्मि नयरे माहारं फासुर्य गवसतो। कोण सप्तिएण य भिसो सतिप्पहारेणं ॥ एगतमणावाए विरिषण्णे थपिले चाहय देई । सो वि तह मित्रदेवो पदिवसो उत्तम भट्ट, The Bha. Ā. mentions Aggidayido' which according to the Pijayodaya is Agni-raja-szatań, but according to the Maltārädhana-carpano of Asadbara Agni-rājandimmah pastrah Kārtikeya-sarina, The Scenthāraga inentions the name Kattiya (with the title (ja), and go also the Brhat Kathakosa (Story No. 136) Kārtika (with the title Stximi), and not specifically Kārttikeya, The detailed biograplıy of this brave saint is given in the Kathakosas of Harişena," Sricandra, Prabhācandra, Nemidatta and others. b) Prakirna-dasakam, Agamodaya Samiti, 46, Bombay 1927. See also Uber die wm Sterbefasten handelnden älterte Para des Jalma-Kauma by Kurt von K&MPTZ, Hamburg 1929, pp. 26-27. 2) Note also the popalar legend ( already gven above j. 65 ) hoy Karttikeya was born out of fire, 5) Aceording to Akalarika, the tale of Kårttiks was found in the Atudaracasa. See also Dhavala, vol. I, p. 104; the readings are gradually drifting from Kartika to Kārttikeya. 4) A. N. UPADEYE: Brhat Kathakosa Intro., pp. 26, 32, 79, and the text yp. 324f. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 67 As none of the basic sources mentions Kartika or Kärttikeya as an author, or his work, the authorship of this Barasa Anuvekkha cannot be attributed to this saint of antiquity, nor can he he taken as identical with Kumāra, the author. To conclude, Kumara or Svami Kumara is the author of this work. Though Subhacandra has taken the name as synonym for Karttikeys, there is no evidence at all to identify this Karttikeya with Kartika or Kārttikeya referred to in the Bha, A. and Samtharaga, g) ITS AGR Kumara1 does not refer to any of his contemporaries or predecessors in his Barasa-Anuvekkha; so there is no internal evidence which would enable us to fix up his date or the age of his work. Under the circumstances some modest attempt will be made here to put broad limits to his age by piecing together bits of external and internal evidence, so far collected. A]i) Subhasandra completed his Sanskrit commentary on this K-Amspreksa in the year, Samvat 1613. (-57-1556 A.D.). So far no earlier or other commentary on this work has come to light." ii) The Ms. Ba (see the description above) is dated, samvat 1603, i.e., 1546 A. D. iii) Śrutasigara, who flourished about the beginning of the 16th century A. D., has quoted anonymously, but with the phrase uktam ca, K-Anupreksa gatha No. 478, in his commentary on the Damsana-pahuḍa, 9." The third pada is slightly different which might be due to the fact that it is being quoted from memory. iv) Brahinadeva, who is tentatively put in the 13th century A. D., has also quoted K-Anupreksa, 478, first pada, anonymously but with the phrase tatha coktam, in his commentary on the P.-prakasa II. 68.* I) From his reference to Kṣetrapals. I thought, that Kamara belonged to the South; but this point need not be insisted upon, because the worship of Ksetrapala is in vogue in many other parts of India. There is a temple dedicated to Kṣetrapala at Lalitpur, in Madhya Pradesa. 2) R. NARASIMHAORARTA: Karṇātaka Kavicarits (Bangalore 1924), vol. I, p. 321, reports a (Kannada) commentary by Subhacandra who is tentatively assigned to a. 1200, bat I suspect from his titles mentioned there that it is the Sanskrit commentator Subhacandra that la referred to and there has been some mistake about the proposed date. 3) Ed. Satprabhṛtādi-sagraha, Bombay 1920, p. 8. 4) Ed. A. N. UPADHYN, Bombay 1997, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 KÄRTTIKEY ANUPREKŞA So the above evidence puts one terininus that Kumārs flourished swule time before the 13th century A. D. 37 i) The exposition of twelve Anupreksās by Kumbira has been already compared and contrasted with that by Kundakunda, Vattakeru and Sivārça. In my opinion, bie shows their influence here and there, and naturally he is to be put after thet. 1) As contragistiayaishea frou ve order of enumeration of twelve Anuprekşis, Kumíru, unlike his predecessors in Prakrit, adopts the order found in the Trattruērtha-strax. Then, as already noted above (p. 62), he shows a good deal of influence of the 7-strus in the pattern of his technical and dogmatical discourses. iii) Then, as noted above (p. 62 ), certain gåthåg echo the expressions of Pūjyupida in his Sarartha-sudha on the 7-sñtrees. iv) The following gūtbi from the R.-Anusprekṣā, 279 : विरला णिसुणहि सर्च दिला जागति तमदो तथं । विरला भावहि सञ्च बिरलाणं धारणा होदि ॥ is obviously an adaptation of the following doha from the Yogaseret, 65: विमला जाणाई सन्तु बुद्ध विरला णिसुणहिँ सत्तु । बिरला झायहि तन्नु जिय बिरला धारहि तत्तु ॥ The K-Anupreko is not written in the Apabhramsa dialeot; so the Present tense 3rd p. pl. formas znał and bhavahi (preferably rusalised hi.) are intruders here, but the same are justified in the l'ogasīru. To Kumāra some Apabbraṁga forms are not offensive, because some of them could be used in the Prakrit texts of his age. But this is not a case of the use of stray Apabhramka forms. The contents of both the verges are identical The Mes, 80 far collated have uniformly admitted this gātha. The fact that the dohā is converted into a gäthi does not admit the possibility that some later copyist roight have taken it over from the Yogasire. It is highly probable, even possible, that Kumāra's verse is based, consciously or unconsciously, on that of Joindu who is tentatively signed to the Cth century A, D. v) The following gathā, No. 307, from the K.-Anusprekşdi, पदुगदिभम्बो सप्णी सुबिसुनो जग्गमाणपजत्तो । संसारतडे णियहो णाणी पावेह सम्मसं ॥ deserves comparison with Gommatasara, Jivakānda, 651: वयुगविभवो सच्णी पणत्तो सुद्धगो य सागारो । जागारो सल्लेसो सलछिगो सम्ममुवगमई ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION It is true that the Gómitosirom itself is a compendiam based on earlier works like the Dhavada etc. So this cannot be used as a very safe evidenoe. But this ongot be denied that once these compilations of Nemicandra bare exerted tremendous influence on many authore. While explaiding some of the pathās of H.-7: Sublicandra has quoted a large number of verses from the Gömmaticăre and extracts from its commentaries: that only confirms the puspicion whether Kumāra might be working with the Görmafasāra of Nemicandra before him. On this point I have an open mind. In case it oan be further substantiated that Kumira is indebted to Nemicandra, he will have to be assigned to a period later than Necnicandra who fourished in the 10th century A.D. (last quarter). On the date of Kumāra (and his K-Anupi eks). all that can be ely said is that he is luter than Kundakunda, Vattakera, Sivārya, Umāsvāti, Pūjyapāda (c. 5th century A.D.) and Joindu (c. 6th century A, D.), and perhaps Nemicandra (10th century A.D.), but before Brahmsdeva (c. 13th century A.D.). This is a broad range indeed, and future researches alone can bring the two limits nearer, The above limits are arrived at by me through the critical and comparative methods of study and objective evaluation of the available evidence. They are in conflict with some traditional views; they are already subjected to some criticisin in certain respects: and the responsibility of explaining my position with reforence to them has to be duly borne by me. i) The oral tradition recorded by PANNALAI guys that the autbor of the K-Anuprekşi flourished some two or three centuries before the Vikrama era, and the subsequent opinions of some scholars that Svāmi Kumára preceded Kundakunda and Umāsvāti" are linked up with the identification of Kumāra ( = Kärttikeya) with Kicttika or Kārttikeya who was hit by king Krautica. The legends and tales do not mention that Kārttikeya was an author or an author of this work ; 80 the identification is not proved; consequently, the date based on this has no value at all, 1) N. Prem: Jaina Sahitya fur Ithaca (Bombay 1956), pp. 41 £ 2) A. N. UPADHY:: Paromātiraprakāśa (Bombay 1937), Intro., pp. 63 f. Ibidem pp. 70E 3) See the reference noted above, 4) The twelve Anuprekey are a part of Jains l'aith. Svāmi Kártikeya seems to be the first who wrote on them. Other writers have only copied and repeated him. Even the Drādasām prehod of Kundakundiairya seems to have been written on its model. Na wouder, if Sv&mi Karttikeya preceded KundakuodãoĒrya. Any way he is an ancient writer." Catalogue of Sk, and Pk. MSS. in the C. P. and Berar, p. XIV; slso WINTERNITZ A History of Indian Literature, vol. II, p. 577. Pt. ĦIRALAL bss uniformly presumed that Karttikeya Hourished earlier than Umāsvāti, gee his Intro., (pp. 43.) to the Varunandi Grāmaksoara, Bedra 1952. the first who wrote of Kuudaku edad Ku Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKETANUPREKSA ii) Pt. JUGALKISHORAJI' admits, while reviewing my views expressed in my Introduction to the P.-prakasa, that Kumara flourished after Umisväti, but not very late after him. He comes out with series of arguments that the gatha No. 279 must be a praksipta or a later interpolation in Kunāra's text; so, in his opinion, Kumara need not be later than Joindu. Arguments based on context, consistency, propriety etc. can never prove by themselves any verse to be prakṣipta: it is necessary that Ms. evidence that such a verge is absent in certain codices has to be brought forth. That is not done by him so far. Further, the verse in question is not bodily taken over, but the dohi is duly converted into a gatha; it is not an accidental but a purposeful adaptation and the crucial Apabhramsa forms have persisted. So the arguments that the verse in question is praksipta hold no water. As long as it is not shown that the verse in question is not found in certain authentic Mss, and that both Joindu and Kumara owe this or a similar verse to some earlier author, the conclusion is irresistible that Kumara is later than Joindu. 70 iii) Dr. J. P. JAIN writes thus about Kumara, the author of K-Anupreksä: "Kumaranandi, the saint of Uchchainagar [Uccanagari Sakhā] who figures in an inscription from Mathura of the year 67 (or 87-8) (Early Saka era of 66 B. o. and therefore assigned to c. 1-21 A.D.) seems to have been another contemporary of Lohacharya, He seems to be identical with Kumaranandi whom several commentators of Kundakunda describe as a guru of the latter. Further, Kumaranandi also seems to be identical with Svami Kumara, the author of the Kartikeyanupreksa, an ancient Prakrit text. His times would be circa 20 B.0.-20 A. D. This means that Kumaranandi, mentioned in an inscription from дцять Mathura e. 1-21 A. D., is being identified with the namesake, the of Kundakunda as well as the author of K.-Anupreked. There is a good deal of defective logic and make-belief-argumentation in his observations: Kumaranandi and Svami Kumara are not identical names; the Mathura inscription does not mention him as an author of Anupreksa text; the text of the K-Anuprekṣā does not assign Svami Kumara to Uccanagari Sakha. So there is no common ground for this proposed identification, and naturally the date assigned to Svami Kumara cannot be accepted. 1) See the reference above, and also his Jaina-Sahitya aura Itihasa para vitada prakata, Caloutta 1956, pp. 492 £ 2) The Voice of Ahinsa, No. 7, July 1958, in his article The Pioneers of Jaina Literature', p. 197. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 71 There is a large number of names of saints and authors' with Kumāra He & common factor: Kumāra-datta of the Yápaniya Sangh: is mentioned in the Helsi copper-plates' (c. 5th century 4, D.). Kumars-dera is referred to in one of the inscriptions at Sravana Belgol (c. 12th century A. D.). He had an alternative name, Padmanandi." • Kanāra-nandi (of the Uccandgarī Sākha) is specified in an inscription on the pedestal of an image at Mathura (c, beginning of the Christian era"). Another Kumāra-nandi is mentioned in the Devarhalli copper-plates (looked upon as apooryphal) of 776 A. D." Kumāra-pandita is referred to in an inscription at Herekere, and he is to be assigned to c. 1239 A. D. Kumara-gena in nuentioned in a large number of inscriptions, and obviously there might have flourished many teachers bearing this name. Thera, records' belong to the 10th, 11th and 12th centuries A. D. and hail from the hos of Kotak Sons of them can be mutually distinguished from the common name of the toscher etc. 1) They are collected bere mainly from the Répertoire d'epigraphis Jaina by A. GUERINOT, Paris 1908. 2 ) Indian Antywy VI pp. 25 f. 3) Epigraphic Carnatics II, No. 40. 4) Epigraphia Indica, I, No. XLIII, pp. 388-9. . 5) Epigraphia Carradica IV, Nagamangala No. 8); #150 (wlinn Antiquary IL, Pp. 155 f. Vidyalanda ( c. 9th century 4, D.) in his Patrikperiksā (p. 9, ed. Banaras 1913) gaotes three veraes from the work Vädangdya of Kumārspandi Bhattáraka (see also Promāna parikini, P, 72, ed. Badaras 1914). There is also a work of the name padarydya by Dharmakirti (c. 7th oentary A. D.). Jayesena (c. 12th century A. n.), in the opening remarks of his Oommentary on the Patrdstikaya, says that Kundakanda was the tigya of one Kumaranandi Bhsttāraka. Without specifio common groand, mere identity of name not sadlice for identification of one with the other, because the same name is borne by different teachers of ditferent Age. 6) Epigraphia Carnucios VIII, blagar No. 161. 7) Journal of the B. B. R. A. 8, X, PP. 167 f.: Epigridphix C. III Seringostam No. 147, VIII Nagar No. 356, VIII Tirthahalli No. 192, V Chandarayapatna No. 149, II &r. Belgol No. 26, Belar No. 17, VII Nagar No. 37, IT T.-Narasipur No. 105. 8) 1. One Kumārasens, who is olled a guru and who was fou like Prabhacandra, in mentioned by Jinasena in bis Harivamia ( A. D. 783). 2. Vidyanaoda ( c. 9th century A. D.) also refers to one Kumarusena who perhaps helped him in the composition of the landhari 3. Devasenx in his Darianandra (A, D. 993 ) oredits one Kumarasena of baving founded the Kaatha Saroghs in 898 A, D, and gives some interesting details about him (versea 331), 4. One Kumāra (-kayl) has composed the Amaprabodha (Ohunilala Jaina Granthamala Na T Caloutta, no year) in Sanskrit. It belongs to the class of works like the Atmánusuadna od Gagabhadra Beyond mentioning the name, he does not give any penional details, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 KALTTIKEYANCPREKŞA Kumāra-svāuri is mentioned in an inscription ut Bagadi of about 1145 A, D, Svüni-Kumāra attended the Sunahing runa of Simhanundi in A. d. 1008. The readiny Sväuni at the boyinning is a bit conjectural as the letters are not quite visible in that record discovered at Kopual." Epigraphio references do not constitute a census of all the teachers und authors. So it is not safe to propose identification without sufficient common ground. Nowhere in these records there is any reference to the treatise an Anuprekeșiis associated with any one of the above. Obviously, therefore, the;e is no evidence to propose any one of the above names 19 identical with that of our author Kunīra. Mere partial, or even complete, similarly in name cannot be enough for identification, because the same name is borne by authors of different times and distant places. If that is enough according to Di, J. P. J AIN, then Syidi Kuwara (1. D. 1008) or Kamara Svāmi (c. 1145) will have to be chosen for identification, because that came is the nearest in similarity so far as the author of K-Apupreked is concerned. b) IT PRAKRIT DIALECT As early as 1900, R. PINQANL, in his monumental and epoch-inaking Prākrit grammar, the Grammatik der Präkrit-Sproochen, 21 (Encyclopædia of Indo-Aryan Research I. 8), noted the eglient and distinguishing characteristios of the Präkrit dialect of the Kattigeyānuppekkha, a few gathās from which were extracted by BEANDARKAR, along with that of allied texts like the Gurtivali and Parvajancsárc. In view of the phonological changes, t to d and th to dh and of the Nom. sing. of -stems in o, he designated the dialect as Jaina Sauruseni, with a note of caution that this name merely serves as a convenient term, even though it is by no means accurate. What PiSCHEL Warns is true, more or lt88, in the case of most of the the names of Präkrit dialects, if sorutinised in the perspective of Middle Indo-Aryan as a phase of linguistic ovulation." 1) Epigraphic Carnatica IV Nayamangala No. 100. 3) P. B, DELAR; Jainism in South Trulia com Som Joine Epigraph, Sholapur 1957. F, 940 f. 2) E. G. BIANDALKAB: Report on the search for Sanskrit Mb. in the Bombay Presidency daribg the year 1883-84, pp. 106 ., Bombay 1897. 4) S. Sun: Comparative Grammar of Middle IndoAryam, ulso Historual Syntax. of Middla Indo-Aryan, Linguistio Society of India, Calcutta 1951 and 1953. S. K. CHATTERJI and S: SxN: A Vildle Indo-Aryan Reader, Parts I-IL, Calcutta University, Culoutta 1957. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 73 1. Since then some scholars bave expressed themselves on the propriety of the name and grammatioal contents of Jaina Saurasent: may be as a convenient word of sufficient signification, the term bas come to stay. Though some of the works of Kundakunda are subjected to a somewhat detailed study of their Prakrit dialec,' it is for the cotize that 2 30-ire text of the Kattigcyanuppekkha is being critically edited in this volume, and some of its salient dialectal traits are noted here. The M88, collated for this edition are far removed from the age of the author. The Ms, Ba is older than and sufficiently independent of Subhecandra's text; and it does ahor certain variant readings, important from the dialectal point of view. This holds a hope that if older Mas. are available, 4 more authentic text esa be built. The vagaries seen in Mys. about the elision or softening of intervooalio clearly indicate that earlier Msg. were more partial for changing intervocalia t to d than for dropping it. If this inference is not accepted, it will have to be adinitted that the copyists were indifferent about it: it mattered very little for them whether intervocalict was changed to d, or dropped leaving behind the constituent vowel, or substituted by ya-smiti provided the awompanying vowel is a or. It is not intended here to give a detailed analysis of the Präkrit dialect of the Kattigayonuppekkhi, but to note down modestly some of ita striking characteristios, especially in the light of what is already said about the dialect of the Pravacancira' of Kundakunda. In the treatment of vowels, the dialect of the Rattig, fairly agrees with that of tbe Prerrycansara. As a corollary of the rule that a long vowel before a conjunct is necessarily shortened, it is fouod that often e and o become i and a before a conjunct. In the absence of orthographic symbols in Devanagari for & and 0, which boing their phonetic value before a conjunct, i and « (respectively) are used instead. Panini (I. 1, 48) has recognised the ols i and 2 for $ and . Obviously, therefore, thuvaniridae tihuonenda (1), deviņdo deněmndo (28), sitthi=séghi (187), bhtati-bhoitā (189). The following illustrations give an idea of some vowel changes. majjhimas, madhyama (164, cf. hifthin 171), rāi=nājoon), eitber taken from forms like 1) W. SOALBRING: Viru, V, pp. 11-12, Aligunj, sad Bloo his latent påper 'Kundakonda echt und uneoht' in Z. D, M. G., 107, III, pp. 557-74, Wiesbaden 1957. W. DEXEOKE: Pedigabs Hermann Jacobi Zam 75, Bono 1926; A. N. UPADHY!: Journal of the University of Bombay II, Part VI, and Princandedre. Intro., pp. 111ft, Bombay 1935; H L JAINA : Rockhapdaganas with Dhavala, Intro. pp. 78£., Auruoti 1939. 3 ) See my Intro., pp. 111., to its edition, Bombay 1938, 3) K. V. ABDYASKAR : Short & and short » in Sanskrit in the Annals of the B.O. R. I., XXXVIII, 1-11, pp. 154-57. . 10 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀRTTIKIYŽNUPREKSA mind or contaminated with the following dãiya (16); sijja (sčjjah-sayya (467), mitta (måltiot ) smotra (9), dõiyadāyāda (16); vihüna-vrihina (436, its v.l. and 889); kattha-kutros (11), mahuta-muhurta (164); tana=trņo (313), gira-qrha (6), pahudi-prabhati (425), pudhar=prthadi (124); dom-dvero (447), plaigana, negamasochigam (271); annannananyonyam (228), sokkha=sarkhya (118-4), kokoadowca (397). Shortening and lengthening of vowels seen in cases like joinarh (317), ma (412), rāyā doshim, loyo-varcana (464), samsērcēni (2) are possibly due to metrical necessity. The form uddhi eda (3) might stand for sudahte edä and uggihapa Koguhana Cosgähana (176) As in ohladi (257). Insertion of an crestins or the development of what PiscHxL calls a samdhi-consonant is seen in the following instances; privat-kammassa (409), sauvanh-kanmani (188), napodrinjogjdna (925), vattham-ā (d) inath (350, also 340). In this text the interrocalic (or non-initial and non-conjunct in the terminology of Hemacandra) consonants, taking a word as the unit, such as ke 9, , , , d and p are generally dropped loaving behind the constituent rowel, with or without yo or vcsprits, rather than being softened or retained, Intervocalic & is, as a rule, dropped; but there are a fow cases where it is softened into g, or exceptionally retained; eýa (166-7), tilava (1) pajera (26), pahija (8), loja (2): (but softened into g in): Gragisa (213), Dowaga (107), ego (166-7 v.d.), khavugo (108), jonagas (465), logo (212), Wiga (87, 6, 89, also o.l. in 189). The k is, in a way, initial in wa-kāla (104), aņuküla (458), eto, Its presenos in ekkako (216) is an exception. Interfocalio g is generally dropped ; joini (27), turasi (7), bhoya (29), vioja, muhjoja (49); but it i 486), prigoya (284), bhöga (157), bhoga (130, 427), rog (59, also note v. l.) Intervocalio c is, as a rule, dropped : asui (83), piscēja (26), eto.; its retention in vaccija (265) is perhaps an exception to keep the meaning of the word in tact. Intersocalia j is generally dropped : manuyatta (18), nunuyci (25), parijonis, sajana (6); but at times retained : undiyaja (258), gahinaja (180-1, 151), eto.. Intervocalic / is changed to d and d is retained : ghada, poda (248) eto. ; pūdi (122), pidā (98). Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOTION 75 Le - Intervocalict is very often dropped, more no at the beginning of the text, though there are plenty of instances where it is softened to. The readinge do vary in this respect; and there are reasons to believe that earlier codices showed more instances of softening to d than of eliding it. Doublets of the same form also are available, and the readings too vary : anavaraja (19), ijara (10, also idart 90). puandic (11): rol (10), sahija (5, also achida 48), sciscujua 0), cic. itrac sulted in to (03, 70), dwhida (53) ruhida (65, also note v. l.), sadaula (240), heda (96, note y. l.). This tendency affects verbal and declensional forms as well, and there too the variation in spelling is noticed: cimitex (17, note v. l.), nursei (73), rummui (11), how (4); but there are also forms with di orde: Ergas (370), punte (246), bhiodi (993). malkhade (24), sarkadi (923), etc. Similar tendency is seen in the Past pasaite p. forms. too : bhaniya (2, 3), Whãyc (27), samthio (115); also rochida (50), padida (24), vimohido (18), etc. As to the declensional forms of nouns, Abl. sing., maranas (28), but sually jonido ( 45 }, bhuixido (27), parāddes (81), sorirado (79). The tendency of softening i to d is conspicuomaly felt in the pronominal forms: com (110), edi (3), ede (94), tado (177), aborado ( 101 ); and also in particles : ii (187, 818), du (79, 210). The retention of t in aulde ( 221 ) and samkharida ( 156 ) can be explained either an exception or on acoount of its becoming initial in reciting a gatha. Its obange to d is due to corebral influence of ? or m, disappearing in the proximity : gaashudi ( 425 }, sanipadi ( 271 ). Bharata=Bharaha ( 49 ). Interrocalic d is now and then dropped, but often retained as well anās ( 72 ), gohanzi ( 6 ), jai ( 200, 370), riyora (102), saja ( 26 ); udaya (34) uppáda ( 237 ), khamādi ( 31 ), chuluīdi (98, v.l.), dukkhadan (38). But politta - prodipta ( 54 ). There is only cerebral musul, rt, used in this text, initially, medially and in a conjunot group, in my opinion, without any exception: annonna (205), ana (205), parintima (89). If it is initially retained by some May.in atray words like swa (324 v. l.), nadie (122), ruvide ( 191 ) eto., they are either due to copyist's lapses under the influence of Sunskrit or to the option allowed for its retention initially in Prākrit by some grammarians. Being stray cases, found only in certain Mas., they cannot be looked upon as the features of the dialeot of Kattigeyonuppekkha, 1) Lately it ia contended that 1) the use of land ii) the age of initia) Are the dialectal traits of Jaida Sauraseni (V. P. JOHARAPOKKAR! A Note on Jsib Barneens, Annals of the B.O.R..XXXIX, parts i-ii, p. 135). The use of is peculiarity of Mu. written in Kanows, Telugu, Malayalam eto. soripts; and if the evidence of thene Maa, is to be the oriterian, it can be called the trait of every Prakrit dialect. The Prakrit panager in some of the drainas published from Trivandram contain uniformly, Fartder, Rita Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 XARPTIK YANUPRAKRA Intervocalio p is changed to v generally, but now and then dropped also: sawalā (12), tavo ( 488 ), VĪRĪTD ( 134 ), vivagoz ( 39 ); but also alexx. Further kraparakhamana ( 488 ). In words like khetla-pala, p is, in a way, initial Intervocalje kl, gh, th, dh, ph and bh are, as a rule, changed to ti sharı ( 121 ), stuha ( 184 ); jahanna ( 165 ); kuhija ( 83 ), pahiya ( 8 ); paling (97), viviha ( 9 ); sahala (119), noha (130 }, loha ( 341 ); but prathama= podham ( 910 ), prthavirpudhavi ( 162 ), due to the presence of r or r before. Generally initial y ( at times even of a non-initial word in a compound expression) is changed to y: jadi (308), jātuce (209), joggann (258); ajol (108), vijojao (107), saja (108). Intervocalic y (which is to be distinguished from yo-sru) is sometimes retained: neyena (247), rajanattaye (296), samaye (229), but sometime dropped too: indiehar (207), kasdiena (193). In this text r remains unchanged. Intervocalie uis retained, though there are some instances of its being dropped as in reye for nato (15) Of the three sibilante, only the dental one, viz., 8, is 19ed in this text. If some Mss. show others here and there, that is just a soribal lapse under Sanskrit influence. pārna = pāhāna (14) is an exception, The ya-fruite, or a lightly pronounced y, takes the place of a oonsonant which is dropped leaving behind the vowel, a ord. The 23age of y in this text agrees with that in the Pavayaņasdira : janajarh (171), turmja (?). pisaya ( 26 ), muujatia ( 13 ), sahiya ( 5 ), saya (26). In forms like reyeno ( 247 ), raganattaye ( 296 ), samaye ( 229 ) it is not ya-rui but the original Sanskrit y inherited. Forms like samthiyo ( 115 v. I.) are scribal lapses arising out of faulty bearing when someone dictates and the other goes on copying. There are, as well, a few cases of what may be called thesmiti; ajaia ( 132 ), unhaio ( 178 ), vicera ( 43, v. l.), koricuix ( 316 ), manuóa (299) Coming to the treatment of conjunct groups, initial as well aq non-initial, some ides can be had of it from some typical cases collected here : kamena Panivada ( who was handling possibly only sub M.) has gone to the extent of remarking in bla commentary on the Prakyta praksed of Vararu (The Adyar Library, 1948) in this manner: la-kápc-franerv saracru fa-kärudcdranani prakyla-letra-amācārah (on I. 25, p B) Rad la-kūrasya la kārı ityuktami na visescortacyam (on II. 22, p. 17). He uses throughout in bis illustrations. An to the second contention of the we of initially, it is found in a few mes of some Ms., and it cannot be generalised for the dialect as a whole. The approach in the alleged two traits of Jaina Sauragent is ill-conceived, and the conclusion arrived at is not well-fonnded, That Jayasens followed Balacandra is not correct: on the other hand it sems that Balandra is later than and following Jayasena ( See Prapacomanda, Bombay 1936, Iptro, pp. 106-A. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 77 (141 ), khwaige, khina ( 108 ), Khetta ( 66 ), rikkhankha ( 416 ), täkkha ( 433 ), tirikkha ( 491 ); cotta (306), caya ( 401), riccala (280), uncer (204), vezjaucacco, tresīvacca ( 459-60 ); chruha (98), ucokeho ( 172), ciricchu (143), piccharnio (77), macchi ( 175 ), mileocha (182), lacchi ( 5 ), crxcchella (421 ), sēriecha ( 143 ); jānagas ( 465 ), ujjwa (274), kujja ( 222 ), pajjaya ( 257 ), pajjāyu ( 220 ), mujhima ( 164 ), ata from ārtut ( 471 }, attha ( 50 ), kuddithi (823), latha. from trostru ( 446 ), thidi (71 ), samtatha (385), ručna ( 198 ), jana ( 414), dinna ( 366 ), sawayha (302 }; patteya ( 148 ), samtatto ( 100 ), thol ( 129 ), thala ( 123 ), thoux ( 335 ), athing (6), itthi ( 281 ), 10 ( elsewhere rater 206 ), midhana from nirudhana (56); padhome, (107) nippratti ( 4281; mdhanpo ( 21 ), phandana ( 88 ), vanapphadi ( 346 ), bamble ( 234 ); duaha ( 290 ); vimtar ( 145 ), aivva ( 83 ), blucours ( also bhaviya, 307, 1 ); ukaskayu (166), nisesot (199), sahasa from sucose ( 37 ); thu ( 381 ), bāhira from bāhya or bahir (205). Then kilesa (400), bhaviy (1), bhasama (214), ryana ( 290 }, suhuma (125) are obviously cases of anaptyxis. There are certain instances which shove doubling: risunnade (180), tilloya ( 283), pujjana (876), sailcox (397), scccercana (182). The following typical and striking forme deserve to be noted in the declensional pattern of the dialect of the Kattigeyonuppekkha. In some pisces Words stand without any termination : addhuit, asarana (1), gabbhaja (131), mana (249), pivursaya ( 447); Nom. sing, , dhammo (478), braio (26), *. hedum (410); ekka (ekko in the text is a misprint) vi ya pujatti (137); Aco. sing. S. laccht ($19), sampatti ( 350); Acc. pl. m. kammapuggala triviha (67), molyra-bhdva; Inst. sing. m. mamcurui (24), n. tavasi (102), manena (129); Abl. sing. oppido (248), Jonido ( 45 ), strirodo (79), arcenar (28), rīvīdas (81), wxocsi (439), Abl, pl, rdraychiihto (159), visachirto (101), siddhahirinto (150); Gen. sing. pirasse (113), pārissa (102); Loc. sing. excke ktüle ( 260 ), dhire (11), nyogammi ( 139 ), kumdarahi ( 36), ujjaggie (36), agyi being treated as a feminine now. Something like the inberitance of Sanskrit dual can be suspected here: binni vi asuhe shone ( 477), be sammatte (310). Ag to typicul verbal forms, Present 1st p. sing. samochdmi (324), sarhthure ( 491 )-2nd p. sing. mannøse (246) --3rd p. sing. havei (8), hoi (8), hodi ( 449); kurudi (14), kunesti (370), krenuli (17), krevende ( 185 ); quasude ( 241 ), nasredi ( 238 ), nasci (79); pryāsadi, pyasude ( 422), payisedi (423); puexe (370), Povaule (246): inshade (183), mannadi ( 249 ), sarkadi (923). Imperative 2nd p. sing. sana (103), munijas (89); pl. kunaha, lahaha (22), zajeha (297). Potential Brd p. sing. have (19). Future lat p. sing. vocehan (1) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRTTIKHYNUPRIKA Some forma of the Passive base are : hirudi (320), jāyadi ( 40 ), jayade ( 332 ), nihappae ( 36 ), thwrxdi (19), bhirndijai ( 36 ), sampaigai ( 5 ); dijjai, bhuminjujaii ( 12 ). Of the calabal base : kūrayadi ( 832 ). Some typical forms of the Present participle are: khajjarta ( 41 ), ginhanhto ( 136 ), klajjamand ( 42 ), wraccomadina (337), miyamina ( 25 ). Very often the Past p. p. forma are corruptions of Sanskrit forms: modda ( 321 ), dinna ( 366 ), bhayo (27), padida (24), paricatta ( 262 ), samitattha (385). Potential participle : bhaiyarias ( 388 ), muniyazova ( 899 ). Of the Germd the typical forms are : uthitta ( 874), Jānitia ( 20 ), sunichautā ( 297 ) catänan ( 255 ), jaiana (878), jāpiāna (3), piceridunak (40, 284 ), also datthuna ( 58 ); cattai ( 374 ), kiccă ( 356 ), thiccā ( 355 ); janiya ( 73 ), todega (202), lahiya ( 800), parivajjiya ( 156 ). The author is also in the habit of using dest roots: chanda (29,77), jhada (378), dhukka (52), toda (202), vaddhara (17) etc. The Sanskrit inheritance and influence loom large in the Kattig. not only in forme like annw (240), wwwdira (439), püsuya (305), micoura (24), miyamāram ( 25 ), sarannida (328), etc., but also in expressions like woevamodi (414), tadanantaran (108), punaransi ( 47, 454), etc. There is at least one onge of the use of dual a noted above. Some of the compo expressions have a positive ring of classical Sanskrit ( 404, 448 eto.). Here and there some Apabhraṁsa tendencies are noted: the presence of u in punio (, 424, 444) and in the Nom sing, forma rayonu (297), laddra (351), both nouns in neuter gender; Instru, sing. in z or evil, texascemabhive ( 48), dharmē (320); Present 3rd p.pl, forms: exrcala njahi ( 48 v. l.), virala possuirahim, bhārahi (279). Further words like ubhao ( 355 ), kema ( 473), vikkanams (347) are less frequent in Prakrit. If we study these details in the light of my observations on the Prakrit dialeot of the Proricanastir, it is safer to call the dialeot of Kattig. also Jaina Sauraseni. As contrasted with the dialect of the Pravacaricksāra, some points are conspicuous: i) the dialect of Katlig. show more inclination towards dropping of intersocalic consonants (including & and d) and of changing the aspirates (including dh) into h; ii) the Sanskrit influence is more patent; iii) and some striking Apabhrambu forms are noticed here and there, in the Kattigeyanuppekkha. 1) Two other forme dehi (19) dheni (16) noted by W. DENBOKH ( Pestgab. 8. Jacobi. Boon 1926, p. 166) are not confirmed by our text. They have wrisen from wrong reading of Devanagari-di ahi, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INPRODUCTTON 179 5) SUBHACANDRA AND HIS COMMENTARY 8) DETAIS ABOUT SOBELACANDRA Though nothing is known about the family life of Subbaoandra, the author of the Sanskrit Vịtti on the Kattigeyinuppekkhai, he gives at the close me of his works his hierarcbioal tonealogy sometime in short and sometime in greater details. He belonged to Nandi-ganghe, a sub-section of Müls-sangha, and Balätkära-gaņa. The genealogy begins from Kundakurda of venerable antiquity and stands as below: Kandaktada>Padmanandi> Sakalakirti'>Bhuvanakirti > Jianabhsaņa>Vijayakīrti>Subhaoandra. Some of the predecessors of Sabhasandra were great writers of their times. Kundakunda': Traditionally Kandakunda is said to have composed 84 Pakaļas, but only about a dozen of his works have come down to w. Some of them like the Prarrojamasira and Samayam are pretty big works, while others like different Pabudas are comparatively short treatises. AD his works are in Prăkrit (or specifically, Jaina Sauruseni). He flourished about the beginning of the Christian era. Padmanandi': According to a Pattavali, this Padmanandi ecoceeded Prabhāvandra on the portificul seat at Delhi (Ajmer ?) and is roughly Assigned to a. D. 1328–1993. He came from a Brahmin family, and is the author of the Bhāvand-proldhati, a hymn of 34 verses in fluent Sanskrit', and the Jirapalli-Pārsvandthct-stotru. He consecrated an image of Adinatha in the year, Sarn. 1450 ( -57 ) 4. b. 1393. It is his pupils that occupied further three seats of Bhattārakas at Delhi Jaipur, at Idara and at Sarat 1) For ab earlier disoussion see my paper Subbacandrs and his Prakrit Orammer in the Annal of the B.O.R.I. XIII, 1, pp. 37-58, Poona 1932. 2) It appears ( see p. 204 of this edition ) tbat the lipe really begins from Bukalakirti, 3) A. N. UPADHYH: Pramicawisära, Intro., Bombay 1936. JUGALESPORE MUKTLAB : Purālanantaina Vakya-stici, latro., Pp. 12-18, Saraswa 1950. 4) Lately a systematio study about these lines of Bhattarakas is presented by Prof. V. P. JOHARAPORKAR in his excellent work Bhatçorabı Sampradya (in Hindi Sbolapur 1938. For Padmavandi, see Nos. 233-37 and also pp. 93-95. 5) Published from a single M. jp the Anekdnta, vol. XI, PP. 257-50. 6) Half a dozen hymns of this name are poţioed in the Jinaratna-kota (Poona 1944) p. 141; tbe one attributed to Punapandi is published from a single Me, in the Anotanta, vol. IX, p. 346. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 KÄRTTIKIYASTER TISZ Sakalakirti': This Sakalakirti, the pupil of Paduanandi, is credited with starting the Idara branch of the Balatkära-gaga. He was initiated in the order of monks at the age of 25; and he moved about as e Digambara monk for about 22 years. A number of images and temples were consecrated by him, especially in North Gujarat, for which the available dates range from a. D. 1433 to 1442. He is a voluminous writer with a large number of works to his credit some of which are? : Prasrottaropäiscskācāra, Pārsvapumin, Sukundlo-stämi-caritra or Sukumara-caritra, Mülacara-prodira, Sripalo caritra, Yousadhara-caritra, Tattārthasdira dipaka. He is described as punina-mukhyottametsästrakári and mahakavitādi-kala-prwinan. Subhasandra speaks about him in bis Pandava-predna thus : कीर्तिः कृता वेग व मत्यलोके शास्त्रार्थकी सकला पवित्रा। Bhuvanakirti: Sakalakirti was succeeded by Bhuvanakirti (Sam. 1508-1527 ) who is the author of a few Rasas and who instructed the consecration of an image in 4. D. 1470. Jñánabhūşuna': Bhavanakīcti's suocessor is Joanabhūşaya who conseorated images from Sań, 1534 to 1552, i. e., A. D. 1477 to 1495. Though the Bhattaraka seat was in the North and he belonged to Gujarat, he travelled widely, according to the Pattāveli, on pilgrimage in different parts of India, and was honoured by Indrabbūpala, Devariya, Mudiliyára, Rāmanatharaya, Bommarasaraya, Kalaparāya, Panduriya ate, who seem to have been promiDent Sržvakes and local chiefs from the South. He is the author of Tattoo jñanza-tarangini, Siddhantasärabhasya (both of these published), ParumrthoPodlesa, Nerninaruaru-pañfika (?), Pañoistikaya - fika (?) and some manuals on ritual." There have been authors, more than ono, bearing the name JMánabhüşana; naturally the Mas, of these works will have to be duly inspe cted. From two insoriptione on images it is cleur that he had vacated the seat of Bhattāraka in favour of Vijayakirti as early as Sar. 1557, i.e., A. D. 1500. His Tattrxeñantarangint was completed in a. D. 1503, A Ms. of the 1) V. P. JOHARAPURKAR : Bhattaraku sampradöya, No.399-42, pp. 153 f. 2 ) BHANDARKAR's Report 1883-84; PeretoN's Report IV; NATBURAM Premi: Dijom. bara Jaina-Grantha-kartā pura unak granthu (Bombay 1911 ) p. 30; Jaina Hilust, XII, p. 90; H. D. VRLARKAR: Jimaradnakota pp. 278, 246, 443, 313, 398, 330, 133 (for these varioas worka). The M38. of these works deserve to be sorutinised to see whether they are all of this Sakalakirti or some of them of any other author of the same Dame. 3) NATHURAM PREMI : Siddhantasärādi-sapigrala (Bombay 1922 ) Intro. pp. 8f., also Faina Sihitys antra Itihana (Boinbay 1968, 2nd ed. pp. 378 F.; PARANANANDA: Anekanta XIII, p. 119; V. P. JOEARAPUNKAR: Bhatzeraku Sanipradaya Nos, 352-61, p. 154 4) H. D. VELANKAR: Jinaratnakosa pp, 152, 440; Pt, PREMIJI Reems to be aware of some Meg, of Paramarthopadeta. The J-kon does not note any, but instead it has l'aramartha. dari ( of Padmanladi) the Mss. of which deserve to be inspected. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 Jänarnava written in Sam. 1575, i. e., a. D. 1518 was given as a gift to him. So he was living in 1518 A. D. Being an elderly contemporary and predecessor, Subhacandra refers to him in some of his works with respect. INTRODUCTION Vijayakirti: Janabhúsana was succeeded by Vijayakirti for whom the available dates range frou Sam, 1557-68, i. e., A. n. 1500-1511. According to the Pattavali he was expert in the Gommatesāra and was honoured by Malliraya, Bhairavaraya and Devendraraya, local chiefs from Karnaṭaka. Subhacandra: Vijayakīrti was succeeded by Subhacandra (Sam, 15731613, i. e., A. D. 1516-1556) who has really outdone his predecessors by his literary activities. A Gurvavali is published in the Jaina Siddhanta Bhā shara I. IV (Arrah) in which a line of about 103 Teachers, beginning with Guptigupta and ending with Padinanandi, is glorified. Therein Subhacandra is numbered as the 90th teacher and praised in brilliant terms. He was a Bhaṭṭāraka at Sakavāṭa (mod. Sagawada in Rajasthan), the pontifical seat of which was subsidiary to that of Idara. At present Sagawaḍā has a few Jaina families and a pretty Paṭhaśālā. The extract from the Pattavali, which is reproduced below, testifies to Subhaoandra's wide learning and still wider activities. He had mastered many works on logic, grammar, metaphysics and rhetorics. He visited different parts of the country, had a good hand of disciples, defeated in disputes many logicians and possessed an accurate knowledge of his own religion as well as that of others. The passage, interesting as it is for the mention of many works studied by Subhacandra, runs thus: 16 'तापप्रकटचतुर्विधसंघसमुद्रोल्लासनचन्द्राणां प्रमाणपरीक्षा" - पत्रपरीक्षा" - पुष्पपरीक्षा - परीक्षामुख-प्रमाणनिर्णम ँश्यायमकरन्द े –न्यायकुमुदचन्द्रोदय' - म्यायविनिश्वयालंकार श्लोकवार्तिक" - राजवार्तिकालंकार " - प्रमेयकमलमार्तण्ड" - मासमीमांसा "मसहस्री" - चिन्तामणिमीमांसाविवरण - वाचस्पतिताचकौमुदीममुखकर्कश जैनेन्द्र 1) Perhaps identical with Saluva Malli Raya; see my paper Jivatattva-pradipika on Gommaṭasara' in Fudian Culture VII, 1, pp. 23f. 2) V. P. JOHARAPURKAR: Bhattaraha Sampradaya, Nos. 367-75, pp. 155 £ 3) Of Vidyananda. 4) Perhaps lost to us. 5) Of Manikyanandi. 6) Of Vadiraja. 7) Perhaps lost to us. 8) Of Prabbieandra, a com, on the Laghiyastrayam of Akalanka, 9) Of Vadiraja, a commentary on the Nyayaniniscaya of Akalanka. 10) Of Vidyananda, 11) Of Akalanka, 12) Of Prabhasandra, a commentary on the l'ariyamukha above. 13) Of Samantabhadra. 14) Of Vidyananda. 11 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARTTIKEYANUPREKSA 82 - शाकटायनेन्द्र- पाणिनि-कलाप काव्यस्पष्टविशिष्टसुप्रतिष्ठाष्ट सुलक्षण-विचक्षण- त्रैलोक्यसार' - गोम्मटसार' - लब्धिसार' - क्षपणसार'- त्रिलोकप्रज्ञप्ति - सुविज्ञप्ति - अध्यात्माष्टसहस्त्री छन्दोऽलंकारादिशास्त्रस रिस्प्रतिपारप्रासान, शुद्धचिपचिश्वनविनः शिनिद्राणां सर्वदेशविहारावालानेकभद्राणां विधेकविश्वारयातुर्यगाम्भीर्यधैर्यवीर्यगुणगण समुद्राणां उत्कृष्टपात्राणां पालितानेकशछात्राणां विहितानेको समपात्राणां सकलविङ्कजनसभा शोभितगात्राणां गौवादि तमः सूर्य-कलिङ्गचादि - जलदस नागति-कर्णाटवादिप्रथमवचनखण्डनसमर्थ- पूर्वधादिमसमामृगेन्द्र तौलववादिविवस्वनावीर - गुर्जर वादिसिन्धु कुम्भोद्भव - मालववादिमस्तशूल जिताने का गर्व वाटनवज्राधाराण ज्ञातसकलस्व समयरसमयशास्त्रार्थानां, अङ्गीकृतमहामामामभिनय - सार्थकनामधेय श्री शुभचन्द्राचार्याणाम् ॥" Even after making concession for exaggeration, this list gives sufficient evidence for the wide learning and greatness (as a Bhatṭāraka) of Subhacandra among his contemporaries. b) IIIS VARIOUS WORKS મ Subhacandra is a voluminous writer who has handled manifold subjects in his wide range of works. In his Pandapurana ( completed in Sam. 1608, ie, 1551), he hus given a list of his works composed before 1551 A. D. Of some 28 works mentioned by him, the following are the Puranas: 1 Candraprabha carita, 2 Padmanabha-carita, 3 Pradyumna-carita, 4tmdhara-carita, 5 Camdan-katha, 6 Naudierankathi and 7 Pandavpurāṇa. Then his works on rituals are as below: 1 Trimsao-vaturvinsatipājā, 2 Siddhāreanam, 3 Sarasvatīpājā, 4 Cintamani-puja, 5 Karma-dahana-vidhāna, 6 Ganadhara-valaya-vidhana, 7 Palyopama-vidhana, 8 Caritra-suddhi-vidhana, 9 Catustrisadadhiku dvalasasate-vratodyapana, 10 Sarvatobhadra-vidhāna. Then the following are the commentaries: Parsvnātha-kāvya-puñjikā-fikā, Asadhara-puja-vṛttib, 3 Soarupa-sambulhane vyttih, 4 Adhyatma-palya-ţikā". Then there are some polemic and philosophical works: 1 Samsayavadanavidarana, 2 Apasabda-khandana, 3 Tattva-uirpaya, 4 Sadvada. Then there is the 1 Angapannatti, a work in Prakrit giving the traditional survey of Jaina literature; 2 a Prakrit grammar called Sabdo cintamani; and some 3 Stotras: these may be put under a miscellaneous group. His literary activities continued even after 1551 A. D., as noted below. 1) Of Nemioandra. 2) Of Yati Vrabha. 3) Perhaps lost to us. 4) Ed. J. P. SHANTRI, Jivarija J. Grantharaala 3, Sholapur 1954. Those works of which Mss. are reported in the Jinaratuakia (someline with minor variation in the title) are put in Italies and references to its pages are noted bere serially: Jina-ratnakosa pp. 120, 233, 264, 141, 118, 200 (or Nandiśvarī, Nandisvara-pūjā-Jayamali 1) 243; 161, 436, 71, 102, 240-1, 117, 246, 458; 407, 2, 124, 5) Already published as Paramādhyātma-tarahgiai in the Sanataus-Jaina-Grantha-mālā, Caloutta. 6) Already published in the Siddhāntavārālisaṁgraha noted above, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 89 Subhasandra gives a few incidental details about the composition of some of his works. He composed his Sanskrit commentary, the Adhyātmatarangini, on the verses in the commentary of Amṛtacandra on the Samaya301 on Asvina Su. 5, Sam. 1573 (-57-) A. D. 1516, being pressingly requested by Tribhuvanakirti. On Bhadrapada 2, Sam. 1608 (57) A. D. 1551, he completed his Pandapurna at Sakavita in Vagvara (i. e., Bagaḍa, corresponding roughly to Dungarpur and Banswada area in Rajasthan). In its composition and in preparing its first copy Śripala Vargi helped him. In Sam. 1611 (57) A. D. 1554 he completed his Karikaṇḍu carita in Sanskrit. At the request of Kṣemacandra and Sumatikīrti especially of the latter (p. 204) who is often referred in the verses at the close of different sections, pp. 15, 43, 46, 49, 204, 212, 895-6, he finished bis Sanskrit tika on the Kärttikeyanupreksi on Magha śu. 10, Sari 1613(-57 = } A. D. 1556. Sumatikirti is obviously his pontifical successor (Sam, 1622-25, i. e., 1565-68 A. D.). In some of its colophonic verses', be refers to (besides Kşemacandra and Sumati- or Sanmati-kirti and his predecessors in the pontifical line), directly or indirectly by slesa, Laksmicandra, Viracandra and Cidrūpa or Jžānabhuṣana who were contemporary Bhaṭṭārakas at different places. Laksmicandra was a pupil of Subhacandra, and he expanded the commentary under the guidance of the latter. It is quite likely that Subhaoandra wrote some works even after a. D. 1556, i. e., after his commentary on the Kärttikeyanuprekṣā. There are a few more works which are traditionally ascribed to him in different lists. Of these Samavasaraṇa-puja, Sahasranama and Vimanasuddhi-vidhana come under ritualistic heal; Samyaktva-kaumudi, Subhāṣitārpava and Subhāṣita-ratnāvali under didactic head; while Tarkasastra is a work on logic, He has mentioned dates only in a few of his works. The Adhyatma-tarangini was completed in 1516 A. D., the Karakanḍacarita in 1554 A. D. and the K-Anuprekṣā kā in 1556 A. D. Thus Subhacaudra's literary activities extended over a period of more than forty years. c) HIS TIKA ON THE KARTTIKEYANUPKEKŞA i) Its General Nature The Sanskrit commentary of Subhacandra on the Kattigeyānuppekkhā is called Vṛtti or Tika. It is a voluminous exposition running over 7259 granthagras, as calculated by one of the Mss. So far as the contents aspect 1) May be that some of the verses which glorify Subhacandra might have been added by these younger colleagues, see pp. 12, 15, 43, 48, 49, 204, 212. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 KARTTIKKYÄNUPREKṢA is concerned, Subhacandra has before him almost a definite text of which, it is his object to expound and elaborate the meaning, in its manifold ramifications. As a rule, he explains in Sanskrit the Prakrit text, very rarely with different readings in view (as on p. 245), giving detailed paraphrase in the form of questions and answers which are useful to bring out the grammatical relations in a sentence. Now and then he quotes parallel and elucidatory verses in Sanskrit, Prakrit and Apubhramsa in his commentary; and their bulk increases, almost beyond limit, whenever dogmatical exposition is elaborated. The commentary on the Dharma- and Loka-anuprekṣas is a good instance to the point. What is stated or even hinted in the text by Kumara Subhacandra elaborates not only by quoting versos or sutras from works like the Gommatasara, Tattvärtha-sutra, Dravyasamgraha, Jñänarnava etc. but also by adding quite lengthy excerpts from their commentaries. These long passages, full of enumerations, classifications etc. are made almost a part and parcel of his commentary which becomes often mechanical and para-pusta, i. e., swollen by the stuff from others. It is not unlikely that some of these passages were added later by Laksmicandra who, under the prasada of Subbacandra, is said to have expanded this Vṛtti. To a pious reader, however, this commentary is a blessing, because it brings together information from various sources. ii) Its Striking Indebtedness to Others The sources used by Subhasandra are obvious to us from his quotations (which are duly listed by me, with their sources wherever they could be spotted, pp. 449-65) from the works, as well as authors, mentioned by him (pp. 469-70) and from discussions, the counterparts of which could be traced in earlier works, Aa far as I can detect, Subhacandra has drawn major portions of extracts, sometime word to word, from the Malacara of Vaṭṭakers with Vasunandi's commentary (cf. vol. I, p. 285 with p. 333 f. here); Bhagawati Aradhana with Vijayodaya ( of, pp. 442-3 with pp. 336-7 f. here); Sarvartha; siddhi of Pujyapada" (cf. pp. 92 139-40 etc. with pp 36, 82, etc. here)Commatasara with the commentary of Nemicandra (cf. pp. 326-27, 332 f,, and other contexts where the gathas of Gommatasära are quoted, pp. 72. 75 1) See verse 11 ou p. 396 2) Thanks are due to Pts. JINADAS SHASTRI and BALACHAND SEASTE: who helped me in spotting some Sanskrit quotations. 3) Ed. Bombay 1920. 4) Ed. Sholapur 1935 5) Ed. K. B. Nitavy, Kolhapur 1917. 6) Ed. Calcutta: Gandht-Haribhai-Devakarana-Jains-Granthamalā, No. 4. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 etc. here); Alapapaddhat of Devasena (cf. pp. 162, 156 etc. with pp. 160, 179 etc. here); Dravyasamgraha with the Sanskrit com, of Brahmadeva (cf. the com. on gathas 16, 18, 48, 57 etc. with pp. 140, 147, 361, also 383, 392); Caritrasara of Camundaraya (cf. pp. 35, 59, 60 etc. with pp. 300, 330, 340 etc. here); Śrutasagara's Sanskrit commentary on the Tattvartha-sutra (ef. pp. 249, 285, 320, 812-13 etc, with pp. 241, 304-5, 386, 337-9 etc. here). It is quite likely that Subhacandra has used many other texts like the Karmaprakṛti, Trailokyasara etc. for his contents; and it is possible to study such contexts easily from the quotations which are separately listed, with or without the names of authors or works. INTRODUCTION iii) Some Works and Authors mentioned by Subhacandra Some of the references of Subheandro carlier enthors and works need a little observation. Among the works mentioned by him, the Karmaprakrti (p. 386) may be an unpublished text of that name. The Aradhanāsāra of Ravicandra (pp. 234, 391) is not published, but half a dozen Mss. of it (one with a Kannada commentary) are reported. It is a small text in Sanskrit. Another work Gandharvaradhand is mentioned (p. 392). This is referred to by Brahmadeva in his Sanskrit commentary on the Dravyasamgraha (gatha 57), and possibly this very source is being followed by Subhacandra. But as yet no Ms. of it has come to light. The reference to Nayacakra (p. 200 ), a Sanskrit text, stands for the Älāpapaddhati of Devasena in which the sentence quoted is traced (p. 166). 1) Ed. Sanatana-Jaina-Granthamala I, N. S. Press, Bombay 1905. 2) Ed. Bombay 1917. 3) In my paper Subhacandra and his Prakrit grammar, Annals of the B. O. R. I., XIII, 1, p. 52, I could not he definite about the relative age of Srutasagara and Subhaandra. It is obvious now that Subbacandra is quoting from the commentary of Srutasagara: so the latter is an elderly oontemporary of the former. It is clear from the details brought to light in the Bhattaraka Sainpradaya that Śrutasagara was a pupil of Vidyanandi (A. D. A. D. 1442-1480) a dharma-bhrata of Mallibhusana (A. D. 1487-1498) and was honoured by Lakṣmioandra (A. D. 1499-1525) who were the Bhattarskas of the Surat branch. Major works of Sratasagara, especially the Tattavartha-vṛtti, were ready by A. D. 1525, and naturally it could be drawn upon by Subhanandra who completed his K.-Anuprekd-rika in 1556 A. D. On Bratasigara see BHANDARKAR: Report on search of Sk. Mas, 183-884; PETERSON: Report IV; PRIMI: Jaina Sahitya aura Itihasa (2nd ed., Bombay 1956) pp. 371-78; PARAMANAND: Anekinta, IX, p. 474 f.; V. P. JOBABAPURKAR: Bhattaraka Sampradaya (Sholapur 1958) PP. 195 . 4) For the Mss. of Aradhana-samuccaya of Muni Ravicandra see K. B. Shastri: Kannada-pranya Tadapatriya Granthastri (Banaras 1948), pp. 37-39, 207-8. While composing this work Ravicandra resided at Panasoge in Karnataka. 5) Ed. Sanatana-Jaina-Granthamälä I, N, 8. Press, Bombay 1905 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 KÄRTTIERT ANUPRUEBA ---.. - - -- The designation area (pp. 356, 361 ) is used for the Mahópurīna of JinasenaGunabhadry, zgarna (p. 149 ) for the Gommatasara, and sutra for the I'extinxirtha-sztra. Some of the references show that Cubhaca dr. sciler ile 01:05 tary or the commentator when, as a matter of fact, the quotation belongs to the basic text: VA91109di's Yatyocard for Vattakera's Mulaocira (pp. 106, 309, 330), Yatyäsira and Malactinas being used as the names of the same text (pp. 333, 334, 341 ); Astashari for Axtummansii (pp. 119, 155, 162 ); and Pranun-kumata- miranda for Pariksmuklus (p. 179). As against this, though the Tattvärtha-sutra is mentioned, the paysages are taken really from the Vrtti of Srutusāgara (pp. 304-5, 389 ) In one pluce, Subhacandra appears to quote from the Kalpa (p. 308). A pasguge which would have been the source of it is found in the Kulpyesülre, Sāmācārīsūtra 17, 25 rad runs thus ; पासावासं पजोसरियाणं नो कप्पर जिग्गंधाण था जिग्गांधीण वा इट्टाणं तुदाणं भारोग्गा बलियसरीराणं इमामो गव रसविगईमो भभिस्वर्ण ममिक्खणं साहरितए, सं जहा-और दहिं २ मवणीय सपि ते ५ गुदं ६ मई मज ८ मंसं १ ॥१७॥ पासावासं पजोसवियस्व मसपडियाइविखस्स मिस्स कप्पह एगे उसिणविवढे पडिग्गाहितए, से वियणं असिस्थे जो घेवण ससिस्थे, से दियणं परिपूयु कोष परिपए, सेवियण परिमिए णो देख अपरिमिए, से विपण बहुसंपुर्णपणे शो चेवणं बहुसंपुग्णे ॥२५॥ If the source of the gäthäs quoted in that discussion could be traced, it would be clear what other texts Subhacandra hud in view. In the context of tho discussion about himsă in Sacrifices, Subhacandra quotes sonne 'es from the Yajurveda (p. 313). There are differences in readinga and in the sequence of res; but there is no doubt that Sabhacandra bus in view the Sula-Yajurveda-sarhatat, XXIV, 22, 27, 28, 20, 21; XXX, 11, 22, 5 ac. Some of the pasgages quoted here are found in earlier texts like the Yasastilchlow-campi of Somadeva, iv) Value of the Tikā for K.-Anupreksā Though the main object of the K.-Anurrekşi was to expound the 12 Anupreksās, the way in which Kumáta built his text has made it a magaifi 1) Kapasābrim, Sri-Jinadattar-pracing-pustakoddhāra-phanda 42 (Bombay 1939), PP. 246, 250. I am very thankful to Mani Sri PUXYAVIJAYAJI who kindly drew my attention to thege passages, 1) N. S. Press, Bombay 1929, pp. 451-2, 520-23, eto. 2) K, K. HANDIQUı: Yabastilaka and Irulion Culture ( Sbolayar 1949 ) pp. 382 f. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 87 cient compendium of Jaina doctrines. The range of Jaina dogmatics covered by Kumara is already outlined above. It was necessary for any commentator to elaborate all these details and more pointedly in a Sanskrit commentary because the original text is in Prakrit. Subhacandra, it must be admitted, did rise to the occasion, drew upon various works on Jainism in Prakrit and Sanskrit, and rede his exposition as chamtive na possible. Besides the sources bodily reproduced by him in his Commentary, he quotes verses after verses from works like the Sravakācāra of Vasuuandi and Jñanārṇava of Subhacandra. A well-digested exposition of these topics would have been more welcome, but Subhacandra, perhaps consciously, has made his commentary a source book of additional details, quite helpful in understanding the text of Kumāra. When Jayscandra wrote his Hindt Vacaniki' mainly following Subhacandra's Vṛtti, not only his Vacaniks became popular by the wealth of its contents but also went to a very great extent to earn more popularity for the work of Kumara. v) Śubbacandra as an Author and Religious Teacher Subhacandra was a Bhattaraka who, in his age, had specific duties such as i) consecrating (pratisthapana) temples and images constructed by rich and pious laymen, ii) conducting rituals of various kinds, and lastly iii) guiding and instructing the laity in all social matters and religious knowledge. Subhacandra is one of those few Bhattarakas who has left to posterity a large number of works on various subjects. He is a zealous writer. There is more of popularity and profusion than profundity and compactness in his works. He is well read. The works quoted by him in his commentary on the K.-Anupreksa show that he had covered by his study most of the important works of the Digambara school. He is out to produce useful expositions rather than well-digested and original compositions. Subhacendra's Sanskrit expression, particularly in this commentary, shows a good deal of looseness and popular elements, quite inevitable in the age in which he lived and pursued his literary activities. His early training might not have been rigorous, and some of the Bhaṭṭarakas of his age wrote I) This is published in PANNALAL BAKALIVAL's ed. of K.-Anuprek (Bombay 1904). Jayasandra is a voluminous Hindi commentator who has written Hindi Vacanikia on some 13 works. He was a resident of Jaipur. He completed his Vacosnike on the K.-Anuprekṣā in Sam 1863 (-57) A. D. 1806, His Vacanikaa on the Sarvarthosiddhi, Samayasdra ete, are well-known (See Jaina Hitaigi, XIII, p. 22). 2) V. P. JOHABAPUREAZ: Bhattaraka Sampradaya. Here is an useful study of the Bhattaraka institution, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 KARITIKEYANDPREKSA not only in Sanskrit but also in New Indo-Aryan languages of their locality. In bis vooabulary he freely drawe some words from the New Indo-Aryan, with or without suitable phonetic variation : 1dbhasanam (pp. 257, 259 ), standing postare, *ulbhes cf. Marathi ubha, in Prákrit ubbhikaya rendered by ürdhuikrta.- cor (p. 242), corin karati, cf. cori in Hindi, Marathi, Sanskrit oxuriki, caurl, theft. robbery-ihakatakan (p. 250). Hindi shazada. Kam i (hlagafu.-nibus-phan, of. Hindi nibus, Marathi limbu, lemon fruit. - palana (p. 30), May. palanā, H. päland, a cradle.Disani, H. pisand, grinding. - sadaran (v. l. sadaman, p. 49), of. Hindi sadand.-sert, & geer (measure ), the same in H, M. Guj. etc. Some of his Sanskrit renderings cangot be accepted : citthai= cestate (p. 7), muniya = munita (p. 133), paulittanoprotiptam (really from pradiptom, p. 25 : agni-prolipiam agnina paraan náptam agmajocitam ilyurthah). Some of his words are not quite usual in classical Sanskrit: gratila (p. 120, Prākrit gahila), shampana (pp. 231, 317), malaya (p. 226), laxmima-granah (p. 5), qadhatiko (p. 30), vychanika” (p. 25) etc. The expression kurd-yotanam (p. 347 ) is appurently ineeningless, but it can be easily understood, if we remember Iindi hátha yodland. Some of hig favourite roots are jhamp to cover (p. 317) and volbh to eat (p. 332). He often wes kurvate for krmite (pp. 122, 125), manuate for manuste (p. 11), supyati for suvspiti (p. 10). Some liberty is taken with regard to gender : paulāriha (p. 159) is neuter; and sandá (p. 7) stands for sampad. Some of these illustrations (which are only selective) indicate that the New IndoAryan phase was repeatedly affecting his Sanskrit expression. Though Subhacandra does not strike us as 4 consummate commentator giving us a perfect and polished performance, he does stand before 19 as a widely read religious teacher who wants to give as elaborate an exposition as possible. He wants to make his commentary a storehouse of details about various religious topics hinted or discussed in Kumāra's gāthis. Thus his zeal of a religious teacher is seen throughout this commentary. It is the zeal of a religious teacher more than that of a inan of letters in Subhacandra that led him to compose a large number of works on rituals. As a Bhattāraka he had to cater to the needs of the contemporary Jaina society. Masses sought religious solace in elaborate rituals, and Bhattārakas helped them in this direction. Subhacandra thus is only a popular author like Sakalakirti ; and his works are more of an explanatory and popular bharacter than profound and original contributions. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDEX TO INTRODUCTION In this Index are included the names of important Authors and of Works from which some substantis) information is drawn or about which some details are given, besides some topics of discussion. Words are arranged according to English alphabets, and references are to the pages of the Introduction. Acarasara 36 Adhruvanpara 44 Amilagati 35 Anekanta 64 Anupreks Etymology and meaning of 6; General content of 7; Jaina ideology and A 7; Purpose and scope of 9; Twofold enumeration of 10; Canonical strata on 11; wütra on 20; Detailed exposition of 21; Incidental exposition of 30; Buddhist counterpart of 40 Apuvrata 53f., 64 it in K.-Aunpred 78 Adhara 37 Asarapanupreksi 45 Asravinapresa 46 Atman 48 Bandhuvarma 30 Dhyana: Kinds and charao- Kattigeyāṣuppekkkä, nee versatios of 53 Kartikeyan preky Kumara: Various teachers of the Dame of 70€ Kumaradatta 71 Kumaradeve, 71 Kumaranandi 70-1 Kumarapala pratibha 34 Kumars pandita 71 Kamarasena 71 Baras akèha 21, 60 Bhagavati Aradhana 23, 50 Bhayanadri 20 Bhavabhavand 28 Dravya 64 Doddsprake 30 Ekatvanuprek 46 Gunabhadra 31 Gugavrata 54, 64 Hemacandra 27 Hemacandra Maladhari 28 Jaina Šauraseni 72 Jatila 30 Jinasena 31 Jiva 48, 64 Jirandharacamps 34 Jizabethane 30 Jana 51, 64 Jhanshhagana 80 Laksmicandra 83 Loka 64 Anyaivānuprekṣa 46 Apabbrata: Tendencies of Jändrasva 26 Kanakamara 33 Lokiuprek 47 Mahanisiha-sutta 13 Mahapuran 32 Karakamdacarin 33 Karman 64 Mahapa 31 Karttiks, see Svimi Kartti Maranasamahi 14, 23, 60 keya Kartikeyanupreky&: Mss. of 1-4; Text-constitution of 5; Text of the Sk. comm. of 5; Gennine title of 43; Formal description of 43f; Bhavana: Use of the term Summary of the contents 381. Bhāraná slhi-prakarapa 38 Bhuvanakirti 80 Bodhi-darlabhanuprekṣā 52 Camandariya 35 od 441; Compared with Maldera etc. 60f.; A oom pendium of Jaina doctrines 65f. The author of 64; Age of 67; Subhasandra's Sk, Comm. on 84f. Kärttikeyanuprekäikä: Ge neral nature of 84; Its indebtedness to others 84f; Value of 86 Caritranara 35 Dasa-dharma 58f. Dharma 57 Dharmila 37 Dharmanuprekṣa 53 12 Kumarssvāmi 71 Kandakunda 21, 19 Kuvalayamälä 31 Kattracudama 33 Kṣemendra 83 Mildodra 22, 60 Naya 51, 64 Näyddhammakahdo 18 Nemicandra 36 Nirjars 64 Nirjarinuprekṣa 47 Ovavaiyasutta 12 Padmanandi 79 Pashandaranai 18 Penauce, see Tapas Pratamarati-prakarana 34 Pratimas 53f, Pravacanasaroddhara 36 Puspadanta 32 Rajavirttika 20 Sagara-dharma 64 Sakalakirti 80 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 KĀRTTIKSTİNUPREKEZ 37 Samayika is Subhasandra : Details about Tananga 11 Sachsars 64 79; Works of 83; Sk. von Tribhavanakirti 83 Samsárnaprekşi 45 mentary of 83; Works and Uddyokana 31 Sam van puprekna 46 Authors mentioned by 86;Umásváti 94, 62 As an author and religious Uprisakdana Sb Samyagdęsti 64 teacher 871 Uttaridhyayarlantitra 12-3, 16 Samyaktva; Obaracteristics of Substances 49 Vadibbasimha 83 Bangtikirti 88 Varangsarita 30 Sanmatikirti 88 Szydan 16 Vastu 64 Sarpārthasiddhi 63 Bvání Korttikeys, 64f., 71; Vattakora 22 Saç khandagama 18 Age A7 Vistakirti 81 Sikavrata $4., 64 Svāmi Kamara, Mee Svāmi vijayaona 30 diyarya 23 Karttikeya Virscandrs 83 Sonadeva 32, 34 Tapas : Kinds of 58 Vīradandi 36 Someprabha 34 T'attudtaklokaodrika 20 Vrata 64 Srotas guza 86 lootnote 3 T'att porchasitra 20 Yasatiaka 32, 34 Subhacandrs 28 Tallertha-orti 27 Pografistra 27 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण बारह अनुप्रेक्षाअंकि नाभ १ अनित्यानुप्रेक्षा पर्याय दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु अनित्य है संसारके सब विषय क्षणभंगुर है । बन्धुबान्धवका सम्बन्ध पथिकजनोंकी तर क्षणिक है । लक्ष्मीकी चंचलताका चित्रण धर्मकार्यो में लक्ष्मीका उपयोग करने वालोंकी ही लक्ष्मी सार्थक है । २ अशरणानुप्रेक्षा संसार में कोई भी शरण नहीं है । जो भूतप्रेतोंको रक्षक मानता है वह अशानी है । सम्यग्दर्शनावि ही जीवके शरण हैं । ३ संसारानुप्रेक्षा संसारका स्वरूप नरकगतिके दुःखोंका वर्णन विर्यगतिके मनुष्यगतिके देवगतिके 13 11 11 33 "" एक में अट्ठारहाते पांच परावर्तनोंका स्वरूप "" संस्कृत टीकासहित कार्ति के या नुप्रेक्षा की विषय सूची ४ एकत्वानुप्रेक्षा जीवके अकेलेपनका कथन ५ अन्यत्वानुप्रेक्षा जीवसे शरीरादि भिन्न हैं। पृष्ठ १ ६ अशुचित्वानुप्रेक्षा शरीर अशुचिताका कथन २ ७ आस्त्रवानुप्रेक्षा योगी है । ३-११ । ३-४ ५ ६ ६-९ શ્ १२-१५ १२६ १३ १५ १६-३७ १६ १६-१९ १९-२० २१-२६ २६-२७ २९-३० ३१--३७ ३८-३९ 23 ४० ४० शुभाावका कारण मन्द कषाय अभावका कारण तीव्र कषाय मन्दकषायके चिन्ह arasures चिन्ह ८ संघरानुप्रेक्षा संवरके नाम पृष्ठ ४१-४३ " ४३-४६ संबर के हेतु गुप्ति, समिति, धर्म और अनुप्रेक्षाका ४३ ४४ 11 ४६-४९ ४६ स्वरूप परीषद्दजय उत्कृष्ट चारित्रका स्वलग ९ निर्जरानुप्रेक्षा निर्जराका कारण निर्जराका स्वरूप निर्जराके भेद उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरावाले सम्यग्दृष्टी आणि दस स्थान 27 ४५ 15 2010 = ४७ ४८ ४९-५४ ४९ ५० "" ५१ ५२-५४ ५५-२०४ ५५-५६ अधिक निर्जराके कारण १० लोकानुप्रेक्षा लोकाकाशकां स्वरूप ५७ लोकाकाशका पूर्वपश्चिम विस्तार दक्षिण-उत्तर विस्तार अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकका विभाग," ५८ 37 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 लोक शब्दकी निरुक्ति लोकमें जीवोंका अवस्थान सनालीका स्वरूप जीवोंके भेद साधारणकायवाले जीवोंके भेद साधारणकायिक जीवका स्वरूप सूक्ष्मकाय और बादरकायका स्वरूप प्रत्येक वनस्पतिके दोन भेद सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा अन्तर्मुहूर्त में होनेवाले ६६३३६ भर्वोका खुलासा तथा एक भक्की स्थितिका आनयन जीवके दस प्राण एकेन्द्रियादि पर्याप्त जीवोंके प्राणों की संख्या पृष्ठ ६० अपर्याप्त जीवोंके प्राणोंकी संख्या विकलत्रय जीव कहां रहते हैं । मनुष्य लोकसे बाहर रहनेवाले तिर्योंकी स्थिति आदि जलचर जीवोंका आवास भवनवासी और व्यन्तरदेवोंका निवास ज्योतिपी देवोंका निवास 77 ६१ ६६ प्रत्येककी पहचान पचेन्द्रिय तिर्योंके भेद ६७ पञ्चेन्द्रियतिर्यों के जीव समास के भेद ६९ मनुष्यों में जीव समास के भेद ७०-७१ नारकियों और देवों में जीव समासके भेद ७१ पर्याप्त छ भेद ७२ ७३ पर्याप्तिका स्वरूप निवृत्त्यपर्याप्त और पर्याप्तका स्वरूप लब्ध्यपर्याप्तका स्वरूप ६२ ६३ 33 ६५ 13 ७५- ७७ 11 ७४ ७७ ७८ ७९ ८० ८० ८१ 33 ८२ वैमानिक देवोंका निवास नारकियोंका निवास बादर प्रर्याप्त तैजरकायिक और वायुकायिक जीवोंकी संख्या पृथिवीकायिक आदि जीवोंकी संख्या सिद्धों और निगोदिया जीवोंकी संख्या सम्मूर्द्धन और गर्भज मनुष्योंकी संख्या यान्तरजीव मनुष्य आदिकी संख्या में अल्पबहुत्व का विचार गोम्मटसार के अनुसार जीवोंकी संख्या. का विधान नरकों में जीवोंकी संख्या भवनन्त्रिकके देवोंकी संख्या में अल्प बहुत्य एकेन्द्रियजीवोंकी आयुका प्रमाण दोइन्द्रिय आदि जीवोंकी आयु,” लब्ध्यपर्याप्त और पर्याप्तकजीवोंकी जघन्य आयुका प्रमाण देवों और नारकियोंकी उत्कृष्ट और पृष्ठ ८३ ८३-८४ अवगाहना । नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊंचाई जघन्य आयुका प्रमाण एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरकी जघन्य और कल्पवासी देवोंके शरीरकी ऊंचाई कल्पातीत देवोंके शरीर की ऊंचाई उत्कृष्ट अवगाहना दोइन्द्रिय आदि जीवोंके शरीरकी उत्कृष्ट ८४ ८५ ८६ ८८-९० 11 ८८ ९१-९९ १०० १०१ १०२ 15 १०३ 55 १०५ १०६ १०८ ११० १११ ११२ i ! Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ raafर्पणी प्रथम कालके आदिमें तथा छठे कालके अन्तमें मनुष्योंके शरीरकी ऊंचाई एकेन्द्रिय आदि जीवों के शरीर की जघन्य अवगाहनाका प्रमाण ११२ - ११४ जीव शरीरप्रमाण भी हैं और सर्वगत भी है । समुद्धात और उसके भेदोंका स्वरूप जीवके सर्वव्यापी होनेका निषेध जीव ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानसे भिन्न नहीं है। 23 १२० ज्ञानको जीवसे सर्वथा भिन्न माननेपर गुणगुणी भाव नहीं बनता । जीव और ज्ञानमें गुणगुणी भावसे भेद है । ११९ ज्ञान भूतोंका विकार नहीं है । जीवको न माननेवाले चार्वाकको दूषण atar सद्भाव युक्ति जीब शरीरमें रहता है इससे दोनोंको लोग एक समझ लेते हैं; किन्तु शरीरसे मिला होनेपर भी जीव ही जानता देखता है । जीव और शरीरमें अभेद माननेका भ्रम जीव कर्ता है भोछा है । जीव पुण्य और पापरूप है । जीव तीर्थ है। विषय सूची पृष्ठ जीवके तीन भेद तथा परमात्मा के दो भेद बहिरात्माका स्वरूप अन्तरात्माका स्वरूप तथा उसके भेद ११५ ११६ ११७ ११८ 53 १२१ १२२ १२३ १२४-१२५ १२६ १२७ १२८ १२२ १२९ १३० 35 उत्कृष्ट अन्तरात्मा तथा उसके भेद : मध्यम अन्तरात्मा जघन्य " परमात्मा का स्वरूप 'पर' शब्दकी व्याख्या जीवको अनादि शुद्ध माननेमें दोष सब जीव कर्मबन्धनको काटकर ही शुद्ध होते हैं। "3 19 बन्धका स्वरूप सब द्रव्यों में जोब ही परमतत्त्व है । जीव अन्तस्तस्य है, शेष सब बाह्यतत्त्व है । यह लोकाकाश पुतलोंसे भरा हुआ है। पुद्रलोंके भेद प्रभेद रूप पुद्रलका स्वरूप पुलका जीवके प्रति उपकार जीवका जीवके प्रति उपकार पुल द्रव्यकी महती शक्ति धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका उपकार आकाशका स्वरूप और उसके दो भेद सभी द्रव्योंमें अवगाहन शक्ति है। यदि शक्ति न होती तो एक प्रदेशमें सब द्रव्य कैसे रहते । काल द्रव्यका स्वरूप द्रव्यों में परिणमन करनेकी स्वाभाविक शक्ति है । सभी द्रव्य परस्परसें एक दूसरेके सहायक होते हैं । द्रव्योंकी शक्तियों का निषेध कौन कर सकता है। कयवहार कालका स्वरूप 93 पृष्ठ १३१ १३२ 1" १३३ १३४ १३५ १३६ "" १३७ १३८ " १३९ १४१ १४२ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ 23 १५० १५१ १५२ " Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 अतीत, अनागत, और वर्तमानपर्यायोंकी संख्या द्रव्यमें कार्य कारण भावका कथन प्रत्येकवस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, और सप्त मंगीका स्वरूप अनेकान्तात्मक वस्तु ही कार्य कारी है । सर्वथा एकान्तरूप वस्तु कार्यकारी नहीं है । नित्यैकान्तवादमें अर्थ क्रियाकारी नहीं बनता । अनेकान्तवाद ही कार्यकारण भाव बनता है । अनादिनिधन जीवमें कार्यकारण भावकी व्यवस्था नहीं बनता । क्षणिकैकान्तवाद में अर्थ क्रियाकारी - कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृष्ठ १५७ - १५८ १५४ १५५ १५६ १५८ - १५९ सत् का स्वरूप उत्पाद और व्ययका स्वरूप द्रव्य ध्रुव कैसे है। द्रव्य और पर्यायका स्वरूप गुणका स्वरूप द्रव्योंके सामान्य और विशेषगुण द्रव्य गुण और पर्यायोंका एकत्वही वस्तु है । १६० १६१ १६२ १६३ 33 स्वचतुष्टयमें स्थित जीवद्दी कार्यको करता है १६४ जीवको परस्वरूपस्थ माननेमें हानि श्रह्माद्वैतवाद में दूषण १६५ तत्त्वको अणुरूप मानने में दूषण द्रव्यमें एकत्व और अनेकत्वकी व्यवस्था १६६ १६७ " १६८ १६९ १७० " १७० "" १७२ T पर्यायके भेद और उनका स्वरूप कथन १७३ द्रव्यमें विद्यमान पर्यायोंकी उत्पत्ति मानते में दूषण अमिन पर्योच ही होती है। द्रव्य और पर्यायों में भेदाभेद सर्वथा भेद माननेमें दूषण ज्ञानाद्वैतवादमें दूषण शून्यवादमें दूषण arm पदार्थ वास्तविक है । १७४ 37 १७५ " १७६ १७७ १७८ १७९ सामान्यज्ञानका स्वरूप केवलज्ञानका स्वरूप ज्ञान सर्वगत होते हुए भी आत्मा में ही रहता है । ज्ञान अपने देशमें रहते हुए ही श्रेयको जानता है । मन:पर्यय ज्ञान और अवधिज्ञान देशप्रत्यक्ष है । १८१ भतिज्ञान प्रत्यक्ष मी है और परोक्ष भी है।,, इन्द्रियज्ञानका विषय "3 १८० १८० १८२ १८३ मतिज्ञानके ३३६ भेदका विवेचन इन्द्रियज्ञानका उपयोग कमसे होता है । १८४ वस्तु अनेकान्तात्मक भी है और १८५ एकान्त रूप भी है। यष्टिसे अनेकान्त स्वरूपका विवेचन १८६ अनेकान्तके प्रकाशक श्रुतज्ञानका स्वरूप १८७ ताके भेद रूप नयका स्वरूप १८८ नय वस्तुके एक धर्मको कैसे कहता है । १८९ अर्थनय, शब्दनय और ज्ञाननयका विवेचन सुनय और दुर्नयका विवेचन अनुमानको स्वरूप १९० 33 १९१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमान मी नय है। नय द्रव्यार्थिक नयका स्वरूप द्रव्यार्थिक नायके दस भेद पर्यायार्थिक नया स्वरूप पर्यायार्थिक नयके छै भेद नैगम नयका स्वरूप संग्रह जयका स्वरूप व्यवहार नयका स्वरूप ऋजुसूत्र नयका स्वरूप शब्दनयका स्वरूप समभिरूढ नयका स्वरूप भूत नया स्वरूप नयोंके द्वारा व्यवहार करनेसे लाभ का श्रवण मनन आदि करनेवाले मनुष्य विरल हैं । तत्त्वको जाननेवाला मनुष्य श्री वशमें कौन नहीं है, इत्यादि प्रभ उक्त प्रभौका समाधान लोकानुप्रेक्षाका माहात्म्य ११ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा जीव अनन्तकाल तक निगोदमें रहकर विषय सूची पृष्ठ १९२ 5 गति दुःख भोगता है । दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर मी पाणी म्लेंछों मे जन्म लेता है । " १९३ " १९४ "" १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ "3 २०० २०१ २०२ 33 २०३ "" २०४-२१२ प्रथिवी कायादिमें जन्म लेता है । २०४ पर्यायी दुर्लभता २०५ २०५ पर्याय में मी पश्चेन्द्रिय होना दुर्लभ है। पचेन्द्रिय होकर भी संज्ञी होना दुर्लभ २०६ संज्ञी होकर भी नरक गति और तिर्यन २०६-२०७ २०७ आर्यवंश में जन्म लेकर मी उत्तम कुल मिलना दुर्लभ है। उत्तम कुल पाकर मी धनहीन होता है । धनी होकर भी इन्द्रियोंकी पूर्णता होना दुर्लभ है। इन्द्रियोंकी पूर्णता होने पर भी शरीर रोगी होता है । नीरोग शरीर पाकर भी अल्पायु होता है और दीर्घजीवी होकर भी व्रतशील धारण नहीं करता शीलवान होकर भी साधु समागम दुर्लभ है। साधुसमागम पाकर भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति दुर्लभ है । सम्यक्त्वको धारण करके भी चारित्र धारण नहीं करता और चारित्र धारण करके मी उसे पालने में असमर्थ होता है । रत्नत्रय धारण करके भी सीव्र कषाय करनेसे दुर्गतिनें जाता है । मनुष्य पर्यायको अतिदुर्लभ जानकर मिध्यात्व और कषायको छोड़ना चाहिये । १२ धर्मानुप्रेक्षा सर्वदेवका स्वरूप 95 पृष्ठ २०८ २०८ २०८ २०८ २०९ 37 २०९ २१० देवपर्याय में शील और संयमका अभाव है ।,, मनुष्यगतिमें ही तप ध्यानावि होते हैं । २११ ऐसा दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर मी जो विषयों में रमते हैं वे अज्ञानी हैं । रत्नत्रय में आदर भाव रखनेका उपदेश 21 २१२ २१२-३९६ २१२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 सर्वज्ञको न माननेवाले चार्वाक, भट्ट आदि मतों का निराकरण सर्वशोकधर्मके दो भेद, उनमेंसे भी गृहस्थधर्मके १२ भेद और धर्मके वसवों का कथन भावकर्मके १२ भेदोंके नाम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी बचता उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वका स्वरूप काललब्धि आदिका स्वरूप दर्शन मोहनीयके क्षयका विधान उपशम और क्षायिक सम्यक्त्वकी स्थिति तथा दोनों में विशेषता वेदकसम्यक्त्वका स्वरूप क्षयोपशमका लक्षण सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे होनेवाले चलादि दोषोंका विवेचन - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी स्थितिका खुलासा औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशगतको प्राप्त करने और छोड़ने की संख्या नौ गाथाओंके द्वारा सम्यग्दृष्टिके तत्त्वश्रद्धानका विवेचन मिध्यादृष्टिका स्वरूप कोई देवता किसीको लक्ष्मी आदि नहीं देता पृष्ठ २१३ २१४ २१५ 11 २१६ २१७ २१८ 59 २१९ 17 २२० २२० २२१ २२१-५ २२५ यदि भक्ति से पूजने पर व्यन्तर देव लक्ष्मी देते हैं तो धर्म करना व्यर्थ है । २२६ 37 सम्यग्दृष्टि जानता है कि जिनेन्द्रने जैसा जाना है जैसा अवश्य होगा उसे कोई टाल नहीं सकता । जो ऐसा जानता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो इसमें सन्देह करता है वह मिध्यादृष्टि है । तीन गाथाओंसे सम्यक्त्व के माहात्म्यका प्रथम अणुव्रतका स्वरूप अहिंसा के पांच प्रतिचार यमपाल चाण्डालकी कथा दूसरे अणुव्रतका स्वरूप अणुव्रतसत्यके पांच अतिचार धनदेवकी कथा तीसरे अचौर्यातका स्वरूप अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार वारिषेणकी कथा चौथे श्रह्मचर्याणुत्रतका स्वरूप ब्रह्मचर्याशुवत पांच अतिचार नीलीकी कथा कथन २२९ सम्यक्त्वके पच्चीस गुणोंका विवेचन २३०-१ सम्यक्त्व ६३ गुणों का विवेचन २३२ श्रावकके दूसरे भेद दर्शनिकका स्वरूप २३४-५ प्रतिक श्रावकका स्वरूप २३६ २३७ २३८ २३८-९ पांचवे परिग्रहपरिमाणाणुवत का स्वरूप परिग्रहपरिमाणके पांच अतिचार समन्तभद्रस्वामी मतसे जयकुमारकी कथा दिग्विरति नामक प्रथम गुणवतका स्वरूप दिविरतिके पांच अतिचार पृष्ठ 19 २२७ २२८ २४० २४१ २४२-३ २४२ २४३ २४३ २४४ २४५ २४६ 33 २४७ 23 २४८ २.४९ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची पृष्ठ । दूसरे अनर्थविराति गुणव्रतका स्वरूप २५० अतिथिसंविभागवतके अतिचार अनर्थदण्डके पांच भेव देशावकाशिक शिक्षावतका स्वरूप अपथ्यानका , लक्षण __, के अतिचार २६९ पापोपदेशका २५१ सल्लेखना धारण करनेका उपदेश प्रमादचर्याका , हिंसादानका | सल्लेखना का स्वरूप २५२ । दुःश्रुतिका ,, के अतिचार २७१ अनयंदण्डका उपसंहार २५३ | व्रतका माहात्म्य अनर्थदण्डविरतिके पांच अतिचार सामायिक प्रतिमाका स्वरूप २७२ तीसरे भोगोपभोगपरिमाण व्रतका सामायिककी विधि वगैरह स्वरूप २५४ छै गाथाओं द्वारा प्रोषध प्रतिमाका भोगोपभोगपरिमाण व्रतीकी प्रशंसा भोगोपभोगके अतिचार २५५ प्रोषधोपवासका माहात्म्य गुणव्रतों और शिक्षाप्रतों में आचार्यों के उपवासके विन आरम्भका निषेध मतभेदका विवेचन सचित्तविरत प्रतिमाका स्वरूप सामायिक शिक्षाव्रतका स्वरूप २५६ रात्रिभोजनविरति प्रतिमाका स्वरूप । सामायिक करने के योग्य क्षेत्र रात्रिभोजनत्यागका माहात्म्य __ , , काल प्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप " की विधि शीलके अठारह हजार भेद २८१ ,, , के अतिचार २५९ आरम्भविरति प्रतिमाका स्वरूप २८२ प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतका स्वरूप परिग्रहविरति प्रतिमाका स्वरूप " के अतिचार अनुमोदनविरति , , पांच गाथाओंके द्वारा अतिथिसंविभाग उद्दिष्टविरति प्रतिमा २८५ व्रतका स्वरूप व्रतपूर्वक सल्लेखना धारण करनेका फल २८६ पात्रके तीन भेद वसुनन्दि आदि मतसे उदिष्ट प्रतिमाका दाताके सात गुण विशेष कथन २८७ दानकी नौ विधियाँ २६३ चारित्रसार अन्यसे श्रावक धर्मका कथन २८८ चार दानोंकी श्रेष्ठता २६४ यतिधर्मका स्वरूप २९० आहारदानका माहात्म्य दस धर्मोका स्वरूप २९१ दानका माहात्म्य उत्तम क्षमा धर्मका स्वरूप २५७ २६२ २६६ 13 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 उत्तम मार्दव धर्मका स्वरूप आर्जव धर्मका 33 33 संयम धर्मका स्वरूप संयमके दो भेद शौच धर्मका २९५ सत्य धर्मका २९६ 37 15 सत्यवचनके दस भेव और उनका स्वरूप २९६ २९७ २९८ 17 उपेक्षासंयमका लक्षण अपहृत संयम के तीन भेद पधर्मका स्वरूप त्यागधर्मका पांच समितियोंका स्वरूप आठ शुद्धियोंका स्वरूप ** 37 आकिमन्यधर्मका स्वरूप मचर्य धर्मका शील अठारह हजार भेद ג शूरका स्वरूप दस धर्मक कथनका उपसंहार हिंसामूलक आरम्भका निषेध जहां हिंसा है वहां धर्म नहीं है । दसघका माहात्म्य निर्विचिकित्साका अमूददृष्टिका उपगूहूनका स्थितिकरणका वात्सल्यगुणका प्रभावना गुण का चार गाथाओंसे पुण्यकर्मकी इच्छाका निषेध निःशंकित गुणका कथन निःकांक्षित गुणका " 15 37 - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा " पूछ २९३ २९४ " 33 33 ३०० ३०३ 39 ३०४ ३०५ 33 ३०६ 19 ३०८ ३०९ ३१० " ३१३ ३१४ 35 ३१६ ३१७ 33 ३१८ ३१९ पृष्ठ निःशंकित आदि गुण किसके होते हैं ३१९ धर्मको जानना और जानकर भी पाना कठिन है । श्रीपुत्रादिकी तरह यदि मनुष्य धर्मसे प्रेम करे तो सुखप्राप्ति सुलभ है । धर्मके बिना लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती धर्मात्मा जीवका आचरण कैसा होता है। धर्मका माहात्म्य धर्मरहितकी निन्दा तपके बारह भेद अनशन तपका स्वरूप एकभक्त, चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि स्वरूप उपवास दिन आरम्भका निषेध मौदर्य तपका स्वरूप atra आदिके लिये अरमौदर्य करनेका निषेध वृत्ति परिसंख्यान तपका स्वरूप रसपरित्याग विविशय्यासन 17 साधुके योग्य वसतिका वसतिका उद्भादि दोषोंका विवेचन कायक्लेश अपका स्वरूप 13 33 प्रायश्चित्त तपका स्वरूप 'प्रायश्चित्त' का शब्दार्थ प्रायश्चित्तके इस भेदका कथन ३२१ 31 ३२२ 77 ३२३ ३२६ ३२७ ३२८ ३३० 33 ३३१ _३३२ "1 ३३४ ३३५ ३३६ *) ३३९ ३४० 17 ३४१ ३४२ आलोचनाके दस दोष आलोचना करनेपर गुरुके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तको पालनेका विधान ३४४ विनय के पांच भेद ३४५ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचों भेदोंका स्वरूप उपचार विनयका स्वरूप वैयावृत्य तपका स्वरूप स्वाध्याय तपका स्वरूप लौकिक फलकी इच्छा से स्वाध्याय करना निष्फल है। कामशास्त्रादिकी स्वाभ्यायका निषेध जो आत्मा को जानता है वह शास्त्रको जानता है । व्युत्सर्ग तपका स्वरूप देहपोषक सुनिके कायोत्सर्ग तप नहीं हो सकता जीवन पर्यन्त किये गये कायोत्सर्गके तीन भेद और उनका स्वरूप कुछ समय के लिये किये गये कायो रसके दो भेदों का स्वरूप कायोत्सर्गके बत्तीस दोष ध्यानका स्वरूप और भेद आर्तध्यान और रौद्रध्यान धर्मध्यान और शुकुध्यान आर्तष्यानके चार भेदोंका विवेचन रौद्रध्यानके " 19 33 विषय सूची प्रख ३४७ 31 ३४८ ३५० ३५१ 33 ३५२ ३५३ ३५५ 31 " ३५६ 31 ३५७ "" ३५९ ३६१ आर्त और रौद्र ध्यानको छोडकर धर्मध्यान करनेका उपदेश धर्मका स्वरूप धर्मध्यान किसके होता है । धर्म यानी श्रेष् धर्मध्यानके चार भेदोंका स्वरूप दस भेदोंका 11 पदस्थ ध्यानका पिण्डस्थ ध्यानका रूपस्थ ध्यानका रुपातीत ध्यानका तथा कार्य एकत्ववितर्क 37 73 23 शुक्रुध्यानका लक्षण पृथक्त्वविर्क शुरूध्यानका स्वरूप " 21 19 77 33 सूक्ष्मक्रिया व्युपरत क्रियानिवृत्ति परमध्यानकी प्रशंसा तथा महत्त्व 77 "3 33 तके कथनका उपसंहार प्रन्थकार के द्वारा ग्रंथरचनाका उद्देश कथन बारह अनुप्रेक्षाओं का माहात्म्य अन्तिम मंगल संस्कृतटीकाकार की प्रशस्ति 99 TH ३६४ 17 ३६५ 3" ३६७ " ३७० ३७५ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८२ ३८३ ३८५ 31 ३९० ३९३ ३९४ " ३९५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MyanmM SlamtiPAN श्रीवीतरागाय नमः खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा श्री-शुभचन्द्र-विरचितया टीकया हिन्दी-अनुवादेन च सहिता ॥ श्रीपरमात्यने नमः॥ शुभचन्द्र जिनं नत्वानन्तानन्तगुणार्णवम् । कार्तिकेयानु प्रेक्षायाटीका बक्ष्ये शुभदिये ।। अथ स्वामिकार्तिकेयो मुनीन्द्रोऽनुप्रेक्षा व्याख्यातुफामः मलगालनमावाप्तिलक्षणामाचष्टे तिवण-तिलयं देवं वंदित्ता तिहुवर्णिद-परिपुर्ज। वोई अणुपेहाओ' भचिय-जणाणंद-जणणीओ ॥१॥ {छाया-त्रिभुवनतिलकं देवं पन्दित्वा त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यन् । वश्य अनुप्रेक्षाः भव्यजनानन्दजननीः ॥ वक्ष्ये प्ररूपयिष्यामि । काः । अनुप्रेक्षाः । अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणमनित्यादिवरूपाणामित्यनुप्रेक्षा, (निजनिकमामानुसारेण तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा इत्यर्थः । ताः कथंभूताः। भव्यजनानन्दजननीः भाविनी सिद्धियेषी 'वै भव्याः, ते च ते जनाश्च लोकास्तेषामानन्दो हर्षोऽनन्तसुखं तस्य जनन्यो मातरः, उत्पत्तिहेतुस्वात् । किं कृत्वा । वन्दित्वा नमस्कृत्य । कम् । देवम् दीव्यति क्रीडति परमानन्दे इति देवः, अथवा दीव्यति कर्माणि जेतुमिच्छति, इति देवः वाचव्यति कोटिसूर्याधिकतेजसा द्योतत इति देत्रः अईन् । वादीव्यति धर्मव्यवहार विदधाति इति देवः, वादीव्यति लोकालोकं गच्छति जानाति, ये गत्यास्ते ज्ञानार्था इति बचनात्, इति देवः सिद्धपरमेष्ठी, । श्रीवीतरागाय नमः । श्रीमवीरं जिनं मस्खा शुभचन्द्रेण व्याकृतम् । अनुप्रेक्षात्मकं पास्त्रं वक्ष्येऽहं सदभाषया ।। अनुप्रेक्षाओंका व्याख्यान करनेके इच्छुक स्वामीकार्तिकेय नामके मुनिवर पापोंके नाश करनेवाले और सुखकी प्राप्ति करानेवाले मङ्गलश्लोकको कहते हैं । अर्थ-तीन भुवनके तिलक और तीन भुवनके इन्द्रोंसे पूजनीय जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके भव्यजनोंको आनन्द देनेवाली अनुप्रेक्षाओंको कहूँगा || भावार्थ-ग्रन्थकारने इस गायाके पूर्वार्द्ध में इष्टदेवको नमस्कार करके उत्तरार्द्ध में ग्रन्थके वर्ण्य विषयका उल्लेख किया है । 'देव' शब्द 'दिव्' धातुसे बना है, और 'दिव्' धातुके 'फ्रीडा करना' 'जयकी इच्छा करना' आदि अनेक अर्थ होते हैं । अतः जो परमसुखमें क्रीडा करता है, वह देव है। या जो कमोंको जीतनेकी इच्छा करता है, यह देव है । अपना जो करोड़ों सूर्योंके तेजसे मी अधिक तेजसे दैदीप्यमान होता है, वह देव है, जैसे अर्हन्त परमेष्ठी । अथवा जो धर्मयुक्त व्यवहारका विधाता है, वह देव है । अथवा जो लोक और अलोकको जानता है, वह देव है, जैसे सिद्ध परमेष्ठी । अथवा जो अपने आत्म मस विडप्रणिछ। २ बम पुछ। र अगुवाओ । न Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२वा दीव्यति स्तौति खचिद्रूपमिति देवः सूरिपाठकसाधुरूपस्तम् । कीरक्षम् । त्रिभुवनतिलकं त्रिभुवने अगरत्रये तिलकमिष तिलकः, जगच्छेपत्वात् । वा पुनरपि कीरक्षम्। त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्य त्रिभुवनस्यन्द्राः सुरेन्द्रधरणेन्द्रादयस्तैः परिपूज्यं परि समन्तात् पूज्यः मज़स्तम् ॥ १॥ अथ द्वादशानुप्रेक्षाणां नाममात्रोद्देशं गाथाइयेन दर्शयति अद्धव असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं । आसव-संवर-णामा णिज्जर-लोयाणुपेहाओ' ॥२॥ इय जाणिऊण भावह दुलह-धम्माणुभावणा णिच्चं । मण-वयण-काय-सुद्धी एदा दस दो य भणिया हुँ ॥३॥ [छाया-अध्रुवमशरणं भणिताः संसारमेकमन्यमशुचित्वम् । आनषसंवरनामा निर्जरालोकानुप्रेक्षाः॥ इति शाखा भावयत दुर्लभधर्मानुभावनाः नित्यम् । मनोषचनकायशुमा एताः दश द्वौ च भमिताः खल ॥] एता द्वादशानुप्रेक्षाः, उद्देशतः (पदार्थाना नाममात्रेण कीर्तन मुद्देशः तस्मात् , तमाश्रित्य भणितं कथितं भावयत भो भव्या भावनाविषयी फुरुत । कया। मनोवचनकायशुब्धा । किं कृत्वा । इति प्रोच्यमानमनित्यादिस्वरूपं नित्यं सर्दव ज्ञात्वा । इति किम् । अनुवं नर्व नित्यम् अध्रुवम् इति अनिस्यानुप्रेक्षा । अनुप्रेक्षाशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। अशरणानुप्रेक्षा भणिता, न शरणम् शरणम्, अथवा न विद्यते शरममावानखीपाजामहारपाका । २ । संसार संसरणम. अथवा संसरन्ति पर्यटन्ति यस्मिन्निति संसारः, परिभ्रमणम्, पञ्चधा प्रोक्तः द्रव्यक्षेत्रकालभवभावमेदात्, संसारानुप्रेक्षा । ३ । एकस्य आत्मनो भावः एकत्यम् एकत्वानुप्रेक्षा । ४ । शरीरादेः अन्यस्य भावः अन्यत्वम् अन्यत्वानुखरूपका स्तवन करता है, वह देव है, जैसे आचार्य, उपाध्याय और साधु । जैसे उत्तमाझपर लगाया जानेके कारण तिलक श्रेष्ठ समझा जाता है, वैसे ही संसारमें श्रेष्ठ होने के कारण वह देव तीन भुवनके तिलक कहलाते हैं और तीन भुवनके इन्द्र उनकी पूजा करते हैं । उन देवको नमस्कार करके मैं अनुप्रेक्षाओंका कथन करूंगा। बार बार चिन्तन करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं । अर्थात् अपने अपने नामके अनुसार वस्तुके खरूपका विचार करना अनुप्रेक्षा है । जिन जीवोंको आगे सिद्धपदकी प्राप्ति होनेबाली है, उन्हें भव्य कहते हैं। अनुप्रेक्षाओंसे उन भन्यजनोंको अनन्तसुख प्राप्त होता है; अतः उन्हें आनन्दकी जननी अर्थात् माता कहा है ॥ १ ॥ अब दो गाथाओंसे बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम बतलाते हैं । अर्थ-अधुत्र, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, दुर्लभ और धर्म, ये बारह अनुप्रेक्षाएँ है । यहाँ इन्हें उद्देशमात्रसे कहा है। इन्हें जानकर शुद्धमन, शुद्धवचन और शुद्धकायसे सर्वदा भावो || भावार्थ-वस्तुके नाममात्र कहनेको उद्देश कहते हैं। यहाँ बारह अनुप्रेक्षाओंका उद्देशमात्र किया है। उन्हें जानकर शुद्ध मन, वचन, कायसे उनकी निरन्तर भावना करनी चाहिये । गाथामें आये अनुप्रेक्षा शब्दको अधुत्र आदि प्रत्येक भावनाके साथ लगाना चाहिये । संसारमें कुछ मी भुत्र अर्थात् नित्य नहीं है, ऐसा चिन्तन करनेको अध्रुव या अनिल्य अनुप्रेक्षा कहते हैं । संसारमें जीचको कोई भी शरण नहीं है, ऐसा चिन्तन करनेको अशरण अनुप्रेक्षा कहते हैं । जिसमें जीव संसरण-परिभ्रमण करते रहते हैं, उसे संसार कहते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भबके भेदसे वह संसार पाँच प्रकारका है । उसका चिन्तन करनेको संसार अनुप्रेक्षा कहते हैं । एक आत्माके भात्रको एकत्व कहते हैं । जीवके एकत्व-अकेलेपनके चिन्तन करनेको एकत्र अनुप्रेक्षा कहते म मझुम । रच 'गुवेहायो। २५ भायडु । म सग पदा ओसदो भणिया (मस भणियं)। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] १. अनित्यानुप्रेक्षा प्रेक्षा । ५ । न शुचिरपवित्रकायः शुचिः तस्य भावः अशुन्विस्वम् अशुचित्वानुप्रेक्षा।६। मानवतीति मानव आसवानुप्रेक्षा । ७ । कर्मागमन संघृणोति अभिनवकर्मणां प्रवेश क न ददातीति संवरः संवरनामानुप्रेक्षा । । । एकदेशेन कर्मणः निजेरणं गलन अधःपतनं शटनं निर्जरा निर्जरानुप्रेक्षा। लोक्यन्ते जीवादयः पदायों यस्मिचिति लोकः शोकानुप्रेक्षा । १० । दुःखेन बोधिर्लभ्यते दुर्लभः दुलभानुप्रेक्षा । ११ । उसमपदे धरतीति धर्मः, धर्मानुभावना धर्मस्पानुभवनम् मनुप्रेक्षणं धर्मानुभावना धर्मानुप्रेक्षा। १२ । एतासां स्वरूप यथास्थानं निरूपयिष्यामः ॥ २-३ ॥ १. अनित्यानुप्रेक्षा अथैकोनविंशतिगाथाभिरनित्यानुप्रेक्षा व्याख्याति-- 'ज किंचिं वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेई णियमेण । परिणाम सरूवेण विण य किंचि' वि सासयं अस्थि ॥४॥ [छायान्यत् किंचिदपि उत्पर्म तस्य विनाशः भवति नियमेन । परिणामस्वरूपेगापि न च किंचिदपि पावत. मस्ति यत् किमपि वस्तु उत्पन्नम् बत्पतिप्राप्त जन्मप्राप्तमित्यर्थः, तस्यापि वस्तुनः विनाशः भक्तः भवेत् नियमेन है ! शरीर श्रादि अन्य दाभोंके भालको अन्यत्व कहते हैं । आत्मासे शरीर आदि पृथक् चिन्तन करनेको अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं । अशुचि-अपवित्र शरीरके भावको अशुचित्व कहते हैं। शरीरकी अपवित्रताका चिन्तन करना अशुचित्त्व अनुप्रेक्षा है । आनेको आस्रव कहते हैं । कमोंके आस्रवका चिन्तन करना आस्रव अनुप्रेक्षा है । आखरके रोकनेको संवर कहते हैं । उसका चिन्तन करना संवर अनुप्रेक्षा है। कोके एकदेश क्षय होनेको निर्जरा कहते हैं । उसका चिन्तन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है । जिसमें जीवादिक पदार्थ पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसका चिन्तन काना लोक अनुप्रेक्षा है । ज्ञानकी प्राप्ति बड़े कष्टसे होती है, अतः वह दुर्लभ है । उसका चिन्तन करना दुर्लभ अनुप्रेक्षा है । जो उत्तम स्थानमें धरता है, उसे धर्म कहते हैं । उसका चिन्तन करना धर्म अनुप्रेक्षा है । इनका विस्तृत खरूप आगे यथास्थान कहा जायेगा ॥२-३ ।। अब उन्नीस गाषाओंसे अनिसानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हैं । अर्थ-जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश नियमसे होता है । पर्यायरूपसे कुछ भी निल्य नहीं है ॥ भावार्थ-जो कुछ भी वस्तु उत्पन्न हुई है, अर्थात् जिसका जन्म दुआ है, उसका विनाश नियमसे होता है। पर्यायरूपसे चाहे वह स्वभावपर्याय हो अथवा विभावपर्याय हो-कोई भी वस्तु नित्य नहीं है । गाथा में एक 'अपि' शब्द अधिक है । वह ग्रन्थकारके इस अभिप्रायको बतलाता है कि यस्तु द्रव्यत्व और गुणत्वकी अपेक्षासे कथञ्चित् निस्य है और पर्यायकी अपेक्षासे कश्चित् अनित्य है । सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य कुछ भी नहीं है | गाथाके पूर्वार्द्धसे मन्थकारने उन्हीं वस्तुओंको अनित्य बतलाया है, जो उत्पन्न होती हैं, जिन्हें उत्पन्न होते और नष्ट होते हम दिन रात देखते हैं, और स्थूल बुद्धिवाले मनुष्य मी जिन्हें अनित्य समझते हैं। किन्तु उत्तरार्धसे वस्तुमात्रको अनिष्य बतलाया है। जिसका खुलासा इस प्रकार है-जैन दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु-वन्य, गुण और पर्यायोंका एक समुदायमात्र है । गुण और पर्यायोंके समुदायसे अतिरिक्त वस्तु नामकी कोई पृथक् चीज १ गाभारम्भब भरवाणुवेक्खा। एबमसन किंपि। गवा। ४बय। ५मसग किंपि! Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ ० ४ अवश्यम्, परिणामस्वरूपेणापि पर्यायस्वरूपेण खभावविभावर्यायरूपेणापि किमपि वस्तु शाश्वतं धुर्व निलं न च अस्ति विद्यते । अधिकः अपिशब्दः आचार्यस्याभिप्रायान्तरं सूचयति, तेन द्रव्यत्वापेक्षया गुणत्वापेक्षया च वस्तुनः कि नित्यस्वं पर्यायापेक्षया कथंचिदनित्यत्वमिति ॥ ४ ॥ 1 नहीं है। यदि संसारकी किसी भी वस्तुकी बुद्धि और यंत्रोंके द्वारा परीक्षा की जाये तो उसमें गुण और पर्याय के सिवा कुछ भी प्रमाणित न हो सकेगा । अथवा यदि किसी वस्तुमेंसे उसके सब गुणों और पर्यायोंको अलग कर लिया जाये तो अन्तमें शून्य ही शेष रह जायेगा । किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि गुण कोई जुदी चीज है, और पर्याय कोई जुदी चीज है, और दोनोंके मेल से एक वस्तु तैयार होती है । यह सर्वदा ध्यान में रखना चाहिये कि गुण और पर्यायकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है । वस्तु एक अखण्ड पिण्ड है, बुद्धिभेदसे उसमें भेदकी प्रतीति होती है । किन्तु वास्तव में वह भेच नहीं है । जैसे, सोनेमें पीलेपना एक गुण है और तिकोर, चौकोर, कटक, केयूर आदि उसकी पर्यायें हैं। सोना सर्वदा अपने गुण पीलेपना और किसी न किसी पर्यायसे विशिष्ट ही रहता है। सोनेसे उसके गुण और पर्यायको क्या किसीने कभी पृथक् देखा है ? और क्या पीलेपना गुण और किसी भी पर्यायके विना कभी किसीने सोनेको देखा है ? अतः पीतता आदि गुण और कटक आदि पर्यायोंसे भिन्न सोनेका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, और न सोनेसे भिन्न उन दोनोंका ही कोई अस्तित्व है। अतः वस्तु गुण और पर्यायोंके एक अखण्ड पिण्डका ही नाम है । उसमें से गुण तो नित्य होते है और पर्याय होती हैं। कैसे लेना सर्वदा रहता है, किन्तु उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं, कभी उसका कड़ा बनाया जाता है, कभी कड़ेको गलाकर अंगूठी बनाई जाती है। इसी प्रकार जीव में ज्ञानादिक गुण सर्वदा रहते हैं, किन्तु उसकी पर्याय बदलती रहती है। कभी वह मनुष्य होता है, कभी तिर्यञ्च होता है और कभी कुछ और होता है । इस प्रकार जिन वस्तुओं को हम नित्य समझते हैं, वे भी सर्वथा नित्य नहीं हैं । सर्वथा नियका मतलब होता है उसमें किसी भी तरहका परिवर्तन न होना, सर्वदा ज्योंका त्यों कूटस्थ बने रहना । किन्तु संसार में ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो सर्वदा ज्यों की त्यों एकरूप ही बनी रहे और उसमें कुछ भी फेरफार न हो। हमारी आँखोंसे दिखाई देनेवाली वस्तुओंमें प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहा है, वह तो स्पष्ट ही है, किन्तु जिन वस्तुओंको हम इन चर्मचक्षुओंसे नहीं देख सकते, जैसे कि सिद्धपरमेष्ठी, उनमें मी परपदार्थोक निमित्तसे तथा अगुरुलघु नामके गुणोंके कारण प्रतिसमय फेरफार होता रहता है। इस प्रतिक्षणकी परिवर्तनशीलताको दृष्टिमें रखकर ही बौद्धधर्ममें प्रत्येक वस्तुको क्षणिक माना गया है । किन्तु जैसे कोई वस्तु सर्वथा निष्प नहीं है, वैसे ही सर्वथा क्षणिक भी नहीं है। सर्वथा क्षणिकका मतलब होता है वस्तुका समूल नष्ट होजाना, उसका कोई भी अंश बाकी न बचना । जैसे, धड़के फूटने से ठीकरे होजाते हैं । यदि ये ठीकरे भी बाकी न बचे तो वजेको सर्वथा क्षणिक कहा जासकता है । किन्तु घड़ेका रूपान्तर ठीकरे होनेसे तो यही मानना पड़ता है कि घड़ा घारूपसे अनित्य है, क्योंकि उसके ठीकरे होजानेपर घडेका अभाव होजाता है। किन्तु मिट्टीकी दृष्टिसे वह नित्य है, क्योंकि जिस मिट्टीसे वह बना है, वह मिट्टी धड़े के साथ ही नष्ट नहीं होजाती । अतः प्रत्येक वस्तु द्रव्यदृष्टिसे निष्य है और पर्यायदृष्टिसे Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अनित्यानुप्रेक्षा जम्म मरणेण समं संपज्जइ जोधणं जरा-सहियं । लच्छी विणास-सहिया इय सर्व भंगुरं मुणह ॥ ५ ॥ [छाया-अन्म मरणेन समं संपद्यते यौचनं जरासहितम् । लक्ष्मीः विनाशसहिता इति सर्व भरे जानीहि ॥] इति अमुना उपप्रकारेण, सर्ने समस्तं वस्तु भगुरम् अनित्यं जानीहि विद्धि त्वं,हे भव्य । इति किम् । जन्म उस्मत्तिः मरणेन समं मरणेन महाविनाभावि संपद्यते जायते, यौवनं यौवनावस्था जरासहित बरसा वार्धक्येन सहितं गुतम्, लक्ष्मीः विनाशसहिता भवरयुका विपत्त्युपलक्षिता॥५॥ अथिरं परियण-सयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं । गिह-गोहणाइ सवं जव-यण-विदेण सारिच्छं ॥६॥ [छाया-अस्थिरं परिजनस्वजनं पुत्रकलयं सुमित्रलावण्यम् । गृहगोधनादि सर्ष नवधनवन्देन सदृशम् ॥] अस्थिर घिनश्वरम् । कि तत् । परिजनः परिवारलोकः हस्विघोटकपदातिप्रमुखः, खजनः स्वकीयबन्धुवर्गः उत्तमपुरुषय, पुत्र आत्मजः, कालय दाराः, सुमित्राणि सुहृज्जनाः, लावण्यं शरीरस्म लवणिम गुणः, गृहगोधनादि गृहम् आवासहापरावि गोधनानि गोकुलानि, आदिशब्दात् महिषीकरभखरप्रमुखाः । एतत् सर्व समस्त सदृशम् । केन । नरपनन्देन नूतनमेघसमूहन ६॥ सुरवणु-तडिव चवला इंदिय-विसया सुमिच्च-वग्गा य । दिट्ठ-पणहा सधे तुरय-गया रहवरादी य ॥७॥ [शया-सरधनस्तावित चपलाः इन्द्रियविषयाः समात्यवर्गाश्च । दृष्ट प्रनटाः सर्वे तरगगजाः स्वरादयमा इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, विषयाः स्पर्शादयः, सुभृस्यवर्गः सुसेवकसमूहाः, च पुनः, चपलाः समाः । किंवत् । सरधनुस्खविद्वत् यथा इन्द्रधनुः चञ्चलम् , तडिद्वत् यथा विद्युत्, चञ्चला, च पुनः, तुर गगजरथवरादयः नुरगाः पोटकाः अनित्य ॥ ४ ॥ अर्थ-जन्म मरणके साथ अनुबद्ध होता है, यौवन बुढ़ापेके साथ सम्बद्ध होता है और लक्ष्मी विनाशके साथ अनुबद्ध होती है | इस प्रकार सभी वस्तुओंको क्षणभङ्गुर जानो ॥ भावार्थप्रसिद्ध कहावत है कि जो जन्म लेता है वह अवश्य मरता है । आजतक कोई मी प्राणी ऐसा नहीं देखा गया जो जन्म लेकर अमर हुआ हो । अतः जीवन और मरणका साथ है। जीवन और भरणकी ही तरह जवानी और बुढ़ापेका भी साथ है । आज जो जवान है, कुछ दिनोंके बाद वह बूढ़ा होजाता है । सदा जवान कोई नहीं रहता । अतः जवानी जब आती है तो अकेली नहीं आती, उसके पीछे पीछे बुढ़ापा भी आता है । इसी प्रकार लक्ष्मी और विनाशका मी साथ है। आज जो धनी है, कल उसे ही निर्धन देखा जाता है । सदा धनवान कोई नहीं रहता। यदि ऐसा होता तो राजसिंहासनपर बैठनेवाले नरेशोंको एथका भिखारी न बनना पड़ता । अतः क्या जीवन, क्या यौवन और क्या लक्ष्मी, समी वस्तुएँ नष्ट होनेवाली हैं ॥ ५ ॥ अर्थ-परिवार, बन्धुबान्धव, पुत्र, त्री, झले मित्र, शरीरकी सुन्दरता, घर, गाय, बैल वगैरह सभी वस्तुएँ नये मेधपटलके समान अस्थिर हैं। वर्षात् जैसे नये मेघोंका पटल क्षणभरमें इधर उधर उड़कर नष्ट होजाता है, वैसे ही कुटुम्ब वगैरह मी जीते जीकी माया है।॥ ६ ॥ अर्थ-इन्द्रियोंके विषय, भले नौकरों का समूह तथा घोदे, हाथी, उत्तम रथ वगैरह समी वस्तुएँ इन्द्रधनुष और बिजलीकी तरह चश्नल हैं, पहले दिखाई देते हैं, बाद मसग जुम्वर्ण । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा०८गजा दन्तिनः रथवराः स्पन्दन श्रेष्ठाः इन्द्रः त एवादिषां ते तथोक्ताः, सर्व समस्ताः दृष्टपणष्टाः पूर्व दृष्टाः पश्चारप्रणष्टाः यथा इन्द्रधनुर्विद्युत् ॥ ७ ॥ पंथे पहिय-जणाणं जह संजोओ हवेई खणमित्तं । बंधु-जणाणं च तहा संजोओ अद्धुओ होई॥ ८॥ छाया-पथि पथिकजनाना यभा संयोगः नतिक्षणमामा बजनगरमा संमेगावः भवति] यथा उदाहरणोपन्यासे, पथि मार्गे पथिकजनानां मार्ग प्राप्तपुरुषाणां संयोगः संश्लेषः क्षणमा खल्पकाल भवेत, तथा पन्धुजनानां पितुमातुपुत्रकळत्रमित्रादीनां संयोगः संबन्धः अननः अनियो भवति ॥ ८ ॥ अइलालिओ वि देहो ण्हाण-सुर्यधेहिँ विविह-भक्खेहिं । खणमित्तेण वि' विहडइ जल-भरिओ आम-घडओ ॥९॥ [छाया-अतिलालितः अपि देहः कानसुगन्धैः चिविधभक्ष्यः क्षणमात्रेण अपि विघटते जलभृतः आमघदः इव ॥] देहः शरीरम् अतिलालितोऽपि अत्यर्थ लालितः पालितः । कैः । स्नानसुगन्धैः मज्जनसुगन्धद्रव्यैः । पुनः केः । विविध. भक्ष्यः अनेकप्रकारभोजनपानादिभिः क्षणमात्रेण अतिस्वल्पकालेन विघटते विनाशमेति । क इत्र । यथा ,जालमृत मामघटः अपकपदः तया देहः ॥९॥ जा सासया ण लच्छी पक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधे रैई इयर-जणाणं अपुण्णाणं ॥ १० ॥ ािया-या शाश्वता न लक्ष्मीः चक्रधराणामपि पुण्यवताम् । सर कि बनाति रतिम् इतरजनानामपुण्यामाम् ॥] या चक्रधराणामपि चक्रवर्तिनामपि, [अपि- शब्दात् 'अन्येषां नृपाशीना, लक्ष्मीः गजाश्वरथपदासिनिषानरस्लादिसंपदा शाश्वता न भवति । कथंभूतानाम् । पुण्यवतां प्रास्तकर्मोदय प्राप्तानाम् । इतरजनानाम् अन्यपुंसी सा लक्ष्मीः रसिं प्रीति राग बधाति कुरते [ किम् । ] अपितुन । फोरक्षाणाम् । अपुण्यानाम् अप्रशस्तकर्मोदयप्राप्तानाम् ॥ १॥ नष्ट होजाते हैं ॥ भावार्थ-जैसे आकाशमें इन्द्रधनुष और बिजली पहले दिखाई देती है, पीछे तुरन्त ही नष्ट होजाती है, वैसे ही स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके विषय, आज्ञाकारी सेवक तथा अन्य ठाठ-बाट चार दिनों का मेला है ।। ७ । अर्थ-जैसे मार्गमें पथिकजनोंका संग-साथ क्षणभरके लिये होजाता है, वैसे ही बन्धुजनोंका संयोग भी अस्थिर होता है ॥ भावार्थ-यह संसार एक मार्ग है, और उसमें भ्रमण करनेवाले समी प्राणी उसके पथिक हैं। उसमें भ्रमण करते हुए किन्हीं प्राणियोंका परस्परमें साथ होजाता है, जिसे हम सम्बन्ध कहते हैं । उस सम्बन्धके बिछुड़नेपर सब अपने अपने मार्गसे चले जाते हैं । अतः कुटुम्बीजनोंका संयोग पथिकजनोंके संयोगके समान ही अस्थिर है ॥ ८ ॥ अर्थ-सान और सुगंधित द्रव्योंसे तथा अनेक प्रकारके भोजनोंसे लालन-पालन करनेपर भी जलसे भरे हुए को घड़के समान यह शरीर क्षणमात्रमें ही नष्ट होजाता है || भावार्थ-यह शरीर भी अस्थिर है । इसे कितना ही शृङ्गारित करो और पुष्ट करो, किन्तु अन्तमें एक दिन यह मी मिट्टी में मिल जाता है ॥ ९ ॥ अर्थ-जो लक्ष्मी पुण्यशाली चक्रवर्तियोंके भी सदा नहीं रहती, वह भला पुण्यरहित अन्य साधारण जमोंसे प्रेम कैसे कर सकती है ! भावार्थ-चक्रवर्ती और 'अपि' शब्दसे अन्य राजागण बड़े पुण्यशाली होते हैं, किन्तु उनकी मी लक्ष्मी-हाथी, घोड़ा, रथ, प्यादे, कोष, रत्न, बगैरह सम्पदा स्थायी नहीं होती है । ऐसी दशामें जिन साधारण मनुष्योंके पुण्यका उदय ही नहीं है, उनसे वह चंचलालक्ष्मी १पला । २ प हवेर। ३ व य । ४ छ म स ग रई। ५ व विपुग्णाणं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३] १. मभिस्यानुरक्षा कथं वि ण रमइ लच्छी कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे। पुज्जे धम्मिटे वि य सुवास-सुयणे महासत्ते ॥ ११॥ [छाया-पुत्रापि न रमते लक्ष्मीः कुलीनधीरे अपि पण्डिते शूरे। पूज्ये धर्मि अपि च तमुज्ने महासस्वे॥ न रमते न रति गच्छति। का। लक्ष्मीः संपदा । कुत्रापि कस्मिन्नपि पुरुषे । कीरशे। कुलीनधीरे कुलीनः सामकुलजातः धीरः अक्षोभ्यः कुलीनश्वासौ धीरश्च कुलीनधीरः तस्मिन् , अपि पुनः पण्डिते सकलशास्त्रज्ञे शुरे सुभटे पूज्ये जगन्मान्ये धर्मि धर्मकार्यकरणकुशले मुरूपस्खजने सुरूपे कामदेवादिरूपसहिते खजने परोपकारकरणचतुरपुरुषे महासत्त्वे महापराक्रमाकान्तपुरुषे ॥११॥ ता भुंजिबउ लच्छी दिज दाणे दया-पहाणेण । जा जल-तरंग-चवला दो तिषिण दिणाई चिढेइ ॥ १२ ॥ [छाया-तावत भुज्यतां लक्ष्मीः दीयर्ता दीन दयाप्रधानेन । या जलतरणचपला विनिदिनानि तिष्ठति ॥1 ता तावत्काल भुज्या भोगविषयीक्रियताम् । का । लक्ष्मीः संपत्। दान वितरण स्यागं दीयता वितीर्यताम् । केन । दयाप्रधानेन रुपापरत्वेन, या लक्ष्मीः द्वित्रिदिनानि द्वित्रिदिवसान चेष्टते तिष्ठति । कथंभूता । जलतराचपला सलिलकलोलबत् चवला ॥ १२॥ जो पुर्ण लच्छिं संचदि ण य भुंजदि णेयं देदि पत्तेसु । सो अप्याणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ॥ १३ ॥ [छाया-यः पुनर्लक्ष्मी संचिनोति न र मुले नैव ददाति पात्रेषु । स आत्मानं वश्चयति मनुजत्वं निष्फलं तस्य ॥] कैसे प्रीति कर सकती है ! सारांश यह है कि जब बड़े बड़े पुण्यशालियोंकी विभूति ही स्थिर नहीं है तब साधारण जनोंकी लक्ष्मीकी तो कथा ही क्या है ? ।। १० । अर्थ-यह लक्ष्मी कुलीन, धैर्यशील, पण्डित, शूरवीर, पूज्य, धर्मात्मा, सुन्दर, सजन, पराक्रमी आदि किसी भी पुरुषमें अनुरक्त नहीं होती ।। भावार्थ-यह लक्ष्मी गुणीजनोंसे भी अनुराग नहीं करती है । सम्भवतः गुणीजन ऐसा सोचें कि हम उत्तम कुलके हैं, धीरजवान हैं, समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले हैं, बड़े शूरवीर हैं, संसार हमें पूजता है, हम बड़े धर्मात्मा हैं, हमारा रूप कामदेवके समान है, हम सदा दूसरोंका उपकार करनेमें तत्पर रहते हैं, बड़े पराक्रमी हैं, अतः हमारी लक्ष्मी सदा बनी रहेगी । हमारे पाण्डित्य, शूरवीरता, रूप और पराक्रम वगैरहसे प्रभावित होकर कोई उसे हमसे न छीनेगा । किन्तु ऐना सोचना मूर्खता है; क्योंकि ऐसे पुरुषोंमें भी लक्ष्मीका अनुराग नहीं देखा जाता, वह उन्हें भी छोड़कर चली जाती है ।। ११ ।। अर्थ-यह लक्ष्मी पानीमें उठनेवाली लहरोंके समान चश्चल है, दो तीन दिन तक ठहरनेवाली है । तब तक इसे भोगो और दयाल होकर दाम दो ॥ भावार्थ-जैसे पानीकी लहरें आती और जाती है, बसे ही इस लक्ष्मीकी मी दशा जाननी चाहिये। यह अधिक दिनों तक एक स्थानपर नहीं ठहरती है | अतः जबतक यह बनी हुई है, तब तक इसे खूब भोगो और अच्छे कामोंमें दान दो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो यह यों ही नष्ट हो जायेगी। क्यों कि कहा है कि धनकी तीन गति होती हैं-दान दिया जाना, भोग होना और नष्ट होजामा । जो उसे न दूनरोंको देता है और न स्वयं भोगता है, उसके धनकी तीसरी गति होती है । अतः सम्पत्ति पाकर उसका उचित उपयोग करो ॥ १२ ॥ अर्थ-जो मनुष्य १. कया वि। २ ल मसग सुरूवमुक। ३१ महासुते । ४ बमसग दाण। ५५ दिणाण तिडेर। ३. शु । अच्छी , कम लच्छि, म सबछी। ८५ णे। ९ मणुयचागं । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०१४पुनः अथ च विशेष,य: पुमान साधनोति संचय कराटकाम् । लक्ष्मीम्।नच मुझेनेच भोगविषयीकरोति, पात्रेषु जघन्यमध्यमोशमपानेषु नैव ददाति न प्रयच्छति. स पुमान् आस्मानं खजीवं वश्यति प्रतारयति, तस्य पुंसः मनुष्यत्वं निष्फल क्या भवेत् ॥ १३ ॥ जो संचिऊण लच्छि' धरणियले संग्वेदि अइदरे । सो पुरिसो त लम्छि पाहाण-समाणियं कुणदि ॥ १४ ॥ [छाया-य: संचित्य लक्ष्मी धरणितले संस्थापति अतिरे। स पुरुषः तां लक्ष्मी पाषाणसमानिकां करोति ।।] यः पुमान् संस्थापयति मुश्चति । क। अतिदूरे अत्यमधःप्रदेशे, धरणीतले महीतले । काम् । लक्ष्मी खर्णरमादिसंपदाम् । किं कृत्वा । संचयीकृत्य संग्रहं कृत्वा स पुरुषः तो प्रसिद्ध निजां लक्ष्मी पाषाणसही करोति विधले १४॥ अणवरयं जो संचदि लञ्छि ण य देदि णेय मुंजेदि। अप्पणिया वि य लच्छी पर-लच्छि-समाणिया तस्स ॥ १५ ॥ [छाया-अनवरतं यः संचिनोति लक्ष्मी न च ददाति नैव मुझे। यात्मीयापि च लक्ष्मीः परलक्ष्मीसमानिका तस्य ॥] यः पुमान् अनवरतं निरन्तर संचिनोति संप्रई कुरुते । काम् । लक्ष्मी धनधान्यादिसंपदा, च पुनः, न ददाति न प्रयच्छति, मैव भुले भोगविषयीकुरुते, तस्य पुंसः आत्मीयापि च स्वकीयापि च लक्ष्मीः रमा परलक्ष्मीसमानिका अन्यपुरुषलक्ष्मीसदृशी ॥ १५॥ -- - लक्ष्मीका केवल संचय करता है, न उसे भोगता है और न जघन्य, मध्यम अथवा उत्तम पात्रों में दान देता है, वह अपनी आत्माको ठगता है और उसका मनुष्यपर्यायमें जन्म लेना क्या है । भावार्थ-मनुष्यपर्याय केवल धनसञ्चय करनेके लिये नहीं है । अतः जो मनुष्य इस पर्यायको पाकर केवल धन एकत्र करनेमें ही लगा रहता है, न उसे भोगता है और न पात्रदानमें ही लगाता है, वह अपनेको ही ठगता है; क्योंकि वह धनसञ्चयको ही कल्याणकारी समझता है, और समझता है कि यह मेरे साथ रहेगा । किन्तु जीवनभर धनसञ्चय करके जब वह मरने लगता है तो देखता है कि उसके जीवन भर की कमाई वहीं पड़ी हुई है और वह उसे छोड़े जाता है तब वह पछताता है। यदि वह उस सश्चित धनको अच्छे कामोंमें लगाता रहता तो उसके शुभ कर्म तो उसके साथ जाते । किन्तु उसने तो धनको ही सब कुछ समझ कर उसीके कमानेमें अपना सारा जीवन गँवा दिया । अतः उसका मनुष्य-जन्म व्यर्थ ही गया ॥ १३ ॥ अर्थ-जो मनुष्य लक्ष्मीका सञ्चय करके पृथिवीके गहरे तलमे उसे गाड़ देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मीको पत्यरके समान कर देता है || भावार्थ-प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य रक्षाके विचारसे धनको जमीनके नीचे गाड़ देते हैं । किन्तु ऐसा करके वे मनुष्य उस लक्ष्मीको पत्थरके समान बना देते हैं । क्यों कि जमीन के नीचे ईंट पत्थर वगैरह ही गाड़े जाते हैं।॥ १४ ॥ अर्थ-जो मनुष्य सदा लक्ष्मीका संचय करता रहता है, न उसे किसीको देता है और न स्वयं ही भोगता है। उस मनुष्यकी अपनी लक्ष्मी भी पराई लक्ष्मीके समान है। भावार्थ-जैसे पराये धनको हम न किसी दूसरेको दे ही सकते हैं और न स्वयं भोग ही सकते हैं, वैसे ही जो अपने धनको भी न किसी दूसरेको देता है और न अपने ही लिये खर्च करता है, उसका अपना धन भी पराये धनके समान ही जानना चाहिये । वह तो उसका केवल रखवाला है ।। १५ ।। १ पिछ इति पाहोऽनिधितः। २वणेव । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अनित्यानुपेक्षा लच्छी-संसत्तमणो जो अप्पाणं धरेदि कडेण । सो राइ-दाइयाणं कज्ज साहेदि मूढप्पा ॥ १६ ॥ [छाया-लक्ष्मीसंसकमनाः यः भास्मान धरति कष्टेन । स राजदायारीना कार्य साधयति मूढात्मा ५] मः पुमान् कामीसंसकमना सदस्यां सक्तम् बासकं ममाबितं यस्य तथोक्तः, मामान खप्राणिनं कष्ठेन पहिर्गमनयमयामकृषिकरणसंग्रामप्रवेशनादिकुखेन धरति विमति, समूढात्मा अज्ञानी जीवः सापयति निष्पादयति । किम । कार्य कर्सम्यम् । केषाम् । राजदायादीको राशी भूपतीनो गोत्रिणां च ॥ १६॥ जो बडारवि' लछि बहु-विह-बुद्धीहि णेय तिप्पेदि। समारंभं कुछदि रति-दिणं तं पि चिंते ॥ १७ ॥ ण य भुंजदि वेलाए चिंतावत्यो ण सुवदि रयणीए । सो दासत्तं कुव्वदि विमोहिदो लच्छि-तरुणीएँ ॥ १८ ॥ [छाया-यः वर्षापयति लक्ष्मी बहुविधबुद्धिभिः नैव तृप्यति । सर्वारम्भं कुछते रात्रिदिन तमपि विन्तति ।। नया सास्यः समिति बन्याम् । सदासर्व फुरुसे विमोहितः लक्ष्मीतरुण्याः॥ यः, पुमान् पर्धापयति दिनयति । काम्। लक्ष्मी धनधान्यसंपदाम्। काभिः । बहुविधबुद्धिभिः अनेकप्रकारमतिभिः, नैव तृप्यति सश्या तृप्ति संतोषं न याति, सर्वारम्भ असिमविधिवाणिज्यादिसमस्खयापार कुच्ये करोति रात्रिदिन अहोरात्रं, तमपि सर्वारम्भ चिन्तयति स्मरति, च पुनः, चिन्तावस्थः चिन्तातुरः सन् वैलायां भोजनकाले न मुझे न अर्थ-जो मनुष्य लक्ष्मीमें आसक्त होकर कष्टसे अपना जीवन बिताता है, वह मूढ़, राजा और अपने कुटुम्बियोंका काम साधता है | भावार्थ-मनुष्य धन कमानेके लिये बड़े बड़े कष्ट उठाता है। परदेश गमन करता है, समुद्र-यात्रा करता है, कड़कड़ाती हुई धूपमें रखेतमें काम करता है, लडाईमें लड़ने जाता है । इतने कष्टोंसे धन कमाकर मी जो अपने लिये उसे नहीं खर्चता, केवल जोर जोरकर रखता है, वह मूर्ख, राजा और कुटुम्बियोंका काम बनाता है; क्योंकि मरनेके बाद उसके जोड़े हुए धनको या तो कुटुम्बी बाँट लेते हैं या लावारिस होनेपर राजा ले लेता है ॥ १६ ॥ अर्थ-जो पुरुष अनेक प्रकारकी चतुराईसे अपनी लक्ष्मीको बढ़ाता है, उससे तृप्त नहीं होता, असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि सब आरम्भोंको करता है, रात-दिन उसीको चिन्ता करता है, न समयपर भोजन करता है और न चिन्ताके कारणसे सोता है, वह मनुष्य लक्ष्मीरूपी तरुणीपर मोहित होकर उसकी दासता करता है || भावार्थ-जिस मनुष्यको कोई तरुण स्त्री मोह लेती है, वह मनुष्य उसके इशारेपर नाचने लगता है । उसके लिये वह सब कुछ करनेको तैयार रहता है। रात-दिन उसे उसीका ध्यान रहता है, खाते, पीते, उठते, बैठते, सोते, जागते उसे उसीकी चिन्ता सताती रहती है, वह उसका खरीदा हुआ दास बन जाता है | इसी प्रकार जो मनुष्य लक्ष्मीके संघयमें ही दिन-रात लगा रहता है, उसके लिये अच्छे-बुरे सभी काम करता है, उसकी चिन्ताके कारण न खाता है और न सोता है, वह लक्ष्मीका दास है । उसके भाग्यमें लक्ष्मीकी दासता ही करना लिखा है, १ साहेहि। २४ग पहारय, मसवास३ व तप्पेदि, मतेपेदि। ४ग म चितवदि.स चैतबादि। ५ बवेलाइ चिंता गच्छेण । बसुयति, स म ग मुदि। ७ व तरुणीद। ८ कुछ प्रतियों में यहाँ युग्मम् या युगलम् शब्द मिलता। कार्तिके. २ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९यस्मते, रजन्या रात्रौ न सुप्यति न निद्रां विदधाति, स पुमान् विमोहितः मूढरवं गतः सन् करोति विदधाति । किम् । दासत्वं किंकरस्वम् । कस्याः । लक्ष्मीतरुण्याः रमारमायाः ॥ १७-१८ ॥ जो यड्डमाण-लच्छि अणवरयं देदि धम्म-कलेसु । सो पंडिऐहिं पुषदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥ १९ ॥ [छाया-यः वर्धमानलक्ष्मीमनवरतं ददाति धर्मकार्येषु । स पवितैः स्तूयते तस्यापि सफल्म भवेत् समीः ॥] स पुमान् स्तूयते स्तवनविषयीक्रियते । कैः। पण्डितः पण्डाइनियेषां ते पण्डिततिः विद्वखनः, अपि पुनः, तस्य पुस: लक्ष्मीः सकला सार्थका भक्त् जायेत । तस्य कस्य । यः अनवर निरन्तरं देदि ददाति प्रयच्छति। काम् । वर्धमानलक्ष्मीम् उदीयमानरमाम् । केषु । धर्मकार्येषु धर्मस्य पुण्यस्य कार्यानि प्ररसादप्रतिमाप्रतिधायानाचतुर्विधदानपूजाप्रमुखानि सेषु ॥ १९ ॥ एवं जो जाणित्ता विलिय-लोयाण धम्म-जुसाणं । जिरवेक्खो तं देदि' हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥ २०॥ [छाया-एवं यःशास्वा विफलित लोकेभ्यः धर्मयुक्तभ्यः।निरपेक्षः तो ददाति खा तस्य भवेत् जीवित सफलम् ॥] तस्य पुसः जीवितं जीवितव्यं सफलं सार्थक भवेत् जायेत । तस्य कस्य । यः पुमान ददाति प्रयच्छति तां लक्ष्मी धनधान्यादिसंपदाम् । कीटक सन् । निरपेक्षः तरकृतोपकारचाम्छरहितः। केभ्यः । विफलितलोकेभ्यः निर्धनजनेभ्यः । कितेभ्यः। धर्मयुकेभ्यः सम्पवयसादिषयुकेभ्यः । किं कुरवा । एवं पूर्वोक्तानित्यवं शास्वा अवगम्य ॥२०॥ मालिकी नहीं लिखी ।।१७-१८॥ अर्थ-जो मनुष्य अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मीको सर्वदा धर्मक कार्मोमें देता रहता है, उसकी लक्ष्मी सफल है और पण्डित जन भी उसकी प्रशंसा करते हैं । भावार्थ-पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा और चार प्रकारका दान आदि शुभ कार्यों में लक्ष्मीका लगा सफल है । अतः धनवानोंको धर्म और समाजके उपयोगी कार्योंमें अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मीको लगाना चाहिये ॥ १९ ॥ अर्थ-इस प्रकार लक्ष्मीको अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियोंको देता है और बदलेमें उनसे किसी प्रत्युपकारकी वाञ्छा नहीं करता, उसीका जीवन सफल है ॥ भावार्थ-ग्रन्थकारने इस गाथाके द्वारा उस उत्कृष्ट दानकी चर्चा की है, जिसकी वर्तमानमें अधिक आवश्यकता है। हमारे बहुतसे साधर्मी भाई आज गरीबी और बेकारीसे पीड़ित हैं। किन्तु उनकी ओर कोई आँख उठाकर मी नहीं देखता । धनी लोग नामके लिये हजारों रुपये व्यर्थ खर्च करदेते हैं, पदवियोंकी लालसासे अधिकारियोंको प्रसन्न करनेके लिये पैसेको रानीकी तरह बहाते हैं । आवश्यकता न होनेपर भी, मान कषायके वशीभूत होकर नये नये मन्दिरों और जिनबिम्बोंका निर्माण कराते हैं । किन्तु अपने ही पड़ोसमें बसनेवाले गरीब साधर्मियोंके प्रति सहानुभूतिके चार शब्द कहते हुए भी उन्हें सङ्कोच होता है । जो उदार धनिक वात्सल्यभावसे प्रेरित होकर, किसी प्रकारके खार्थक विना अपने दीन-हीन साधी भाईयोंकी सहायता करते हैं, उनकी जीविकाका प्रबन्ध करते हैं, उनके बच्चोंकी शिक्षामें धन लगाते हैं, उनकी लड़कियोंके विवाहमें सहयोग देते हैं और कष्टमें उनकी बात पूछते हैं, उन्हींका जीवन सफल है ॥ २० ॥ १कम स देहि। २ रूग पंडिये हिं। ३ व श्वा । ४ म स ग देहि । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२] २, अनिस्यानुप्रेक्षा जल-बुब्बुर्य-सारिण्छ धण-जोधण-जीवियं पि पेच्छता' । मण्णंति तो वि णिच्चं अइ-बलिओ मोह-माहप्पो ॥ २१ ॥ [छाया-जनबुद्धदसदर्श धनयौवनजीधित्तमपि पश्यन्तः । मन्यन्ते तथापि नित्यमतिबलिष्ठ मोद्दमाहात्म्यम् ॥] तो वि तथापि मनुते जानन्ति । किम् । धनयौवनजीवित्तमपि नित्य शाश्वतम् । कीहक्षाः सन्तः । प्रेक्षमाणा मवलोकयन्तः । किम् । धनौवन जीवितं अलबुहुदसदृशम् अम्भोगतबुडुदयमानम् । एतत्सर्व अतिमलिष्ठम् अतिपराकमयुक मोहमाहात्म्य मोइनीयकर्मणः सामर्थ्यम् ॥ ११ ॥ वाण महामोहं दिसए मुणिऊर्ण भंगुरे सधे । णिविसर्य कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहह ॥ २२ ॥ [छाया-त्यक्त्वा महामोह विषयान् ज्ञात्वा भारान् सर्वान् । निर्विषये कुरुत मनः येन सुसमुत्तम लभम्वे ॥] कुणा कुरुष्व त्वं विधेहि निर्विषय विषयावीसम् । किम् । मनः सि, येन मनोवशीकरणेन लभख प्रामहि किम् । उत्तम सर्वोत्कृष्ट सुख सिझसुखम् । किं कृत्वा । श्रुत्वा आकये । कान् । सान् समखान् विषयान् इन्द्रियगोचरान् मडरान् विनश्वरान् । पुनः कि कृत्वा । साकण त्यच्या विहाय । कम्। महामोह महान समधः स चासो मोहच ममस्वपरिणामः [तम् ] माइप्पं माहात्म्यम् ॥ २२ ॥ अर्थ-धन, यौवन और जीवनको जलके बुलबुलेके समान देखते हुए मी लोग उन्हें नित्य मानते हैं । मोहका माहात्म्य बड़ा बलवान् है ॥ भावार्थ-सब जानते हैं कि धन सदा नहीं रहता है, क्योंकि अपने जीवन में सैकड़ों अमीरोंको गरीब होते हुए देखते हैं । सब जानते हैं, कि यौवन चार दिनकी चाँदनी है, क्योंकि जवानोंको बूढा होते हुए देखते हैं। सब जानते हैं, कि जीवन क्षणभङ्गुर है, क्योंकि प्रतिदिन बहुतसे मनुष्योंको मरते देखते हैं । यह सब जानते और देखते हुए भी हमारी चेष्टाएँ बिल्कुल विपरीत देखी जाती हैं । इसका कारण यह है, कि धन वगैरहको अनित्य देखते हुए भी उन्हें हमने निस्य समझ रखा है । आँखोंसे देखते और मुखसे कहते हुए मी उनकी क्षणभकुरता अमी दयमें नहीं समाई है । यह सब बलवान मोहकी महिमा है । उसीके कारण हम वस्तुकी ठीक ठीक स्थितिका अनुभव नहीं करते ॥ २१ ॥ अर्थ-हे भव्यजीवों ! समस्त विषयोंको क्षणभर जानकर महामोहको त्यागो और मनको विषयोंसे रहित करो, जिससे उत्तम सुख प्राप्त हो || भावार्थ-अनित्यभावनाका वर्णन करके, उसका उपसंहार करते हुए आचार्य अनित्यभावनाका फल बतलानेके बहाने से मन्यजीवोंको उपदेश करते हैं कि हे भव्यजीवो! अनित्य-अनुप्रेक्षाका यही फल है कि संसारके विषयोंको विनाशी जानकर उनके बारे में जो मोह है, उसे मागो और अपने मनसे विषयोंकी अभिलाषाको दूर करो। जबतक मनमें विषयोंकी लालसा बनी हुई है, तबतक मोहका जाल नहीं टूट सकता । और जबतक मोहका जाल छिन्न-भिन्न नहीं होता, तबतक विषयोंका वास्तविक स्वरूप अंतःकरणमें नहीं समा सकता और जबतक यह सब नहीं होता तबतक सदा सुख प्राप्त नहीं होसकता । अतः यदि सच्चा सुख प्राप्त करना चाहते हो तो अनिल्य अनुप्रेक्षाका आश्रय लो ॥ २२॥ इति अनित्यानुप्रेक्षा || १ || अब नौ गाथाओंसे अशरणअनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं १स खुम्वुय, मय, ग घुब्बुय । २लमसन जुष्वण ३बपिच्छता। ४ लमसग मुणिक्षण । ५ माइण्यं यह शब्द ऊपरकीगाथामें भाषा है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२0मट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेव सुरासुरेन्द्रः कृतसारसेव । विद्यादिदामिन् जय जीव नन्द युक्त्यागमादिकृतशास्त्रकन्द ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायानिविद्यविद्याधरपभाषाकषिचक्रवर्तिभारकश्रीशुभचन्द्रविरपितटीकायाम् जनित्यानुमेक्षायो प्रथमोऽधिकारः ॥ २. अशरणानुप्रेक्षा मयाशरणानुप्रेक्षा गाथानवकेन विषणोति तस्थ भषे किं सरणं जस्थ सुरिंदाण दीसदे' विलओ । हरि-हर-बभादीया कालेण य कवलिया जत्थ ॥ २३ ॥ [छाया-तत्रभवे कि शरणं यत्र सुरेन्द्राणां श्यते विलयः । इरिहरप्रमादिकाः कालेन च कवलिताः वा ] सत्र तस्मिन् भवे जन्मनिकि, किमित्याक्षेपे, शरणं पाश्रयः। न किमपि । पत्र भी श्यते अवलोक्यो । कः । विशयः बिनाक्षः। फेषाम् । सुरेनाणां सुरपतीनाम्, च पुनः, यत्र भबे कालेन कृतान्तेन कपलिताः कवलीकृताः मरणं मीता इत्पर्यः । के। हरिहरनमादयः हरि कृष्णः इरईश्वरः नया विघाता इन्द्रः, त एवादिर्येषां वेऽमरणरेनानी है तमोकाः॥२३॥ सीहस्स कमे पडिदं सारंग जहण रक्खदे को वि। तह मिचुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि ॥ २४ ॥ छाया-सिंहस कमे पतित सार* यथा न रक्षति की अपि। तथा मृत्युना व गृहीत जीवमपि म रक्षतिक मपि ॥] अयोदाहरणोपन्यासे, कोऽपि नः सुरेन्द्रो पा न रक्षति म रक्षा विदधाति । कम् । सार सगम् । कीरवम् । सिंहस्प पञ्चामनस्य कमे चरणाधःप्रदेशे पतितं प्राप्तम् । तथा कोऽपि सुरेन्द्रो वा नरेन्द्रो पा न रक्षति न पायति । कम् । जीवं संसारिणं प्राणिनम् । अपिशब्द एक्कारार्थेऽत्र । कीदक्षं जीयम् । मृत्युना मरणेन पहावं सविषयीकृतम् ॥ २४ ॥ जा देवो वि य रक्खदि' मंतो संतो य खेतपालो य । मियमार्ण पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होति ॥ २५ ॥ [छाया-यदि देवः अपि च रक्षति मन्त्रः तम्यः च क्षेत्रपालः च । यिमाणमपि मनुष्य तत् मनुजाः अक्षयाः भवन्ति ॥] सदि चेत् देवोऽपि, अपिशब्दात् इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवादिका, रक्षति पाझरति, च पुनः, मन्त्रः मयुंजयो __अर्थ-जिस संसारमें देवोंके स्वामी इन्द्रोंका विनाश देखा जाता है और जहाँ हरिहर, ब्रह्मा वगैरह तक कालके ग्रास बन चुके हैं, उस संसारमें क्या शरण है ! भावार्थ-प्राणी सोचता है, कि यह संसार मेरा शरण है, इसमें रहकर मैं मृत्युसे बच सकता हूँ। किन्तु आचार्थ कहते हैं, कि जिस संसारमें इन्द्र, हरिहर, ब्रह्मा जैसे शक्तिशाली देवतातक मृत्यु के मुखसे नहीं बच सके, यहाँ कौन किसका शरण हो सकता है! ।। २३॥ अर्थ-जैसे शेरके पंजेमें फंसे हुए हिरनको कोई भी नहीं बचा सकता, वैसे ही मृत्युके मुखमें पड़े हुए प्राणीको भी कोई नहीं बचा सकता ॥२४॥ अर्थ-यदि मरते हुए मी मनुष्यको देव, मंत्र, तंत्र और क्षेत्रपाल बचा सकते होते तो मनुष्य अमर होजाते ।। भावार्थ-मनुष्य अपनी और गाथाके भारंभमें 'असरणाणुवेवसा' । २ल म सग दीसथे। ३ क म ग गहियं । ४ सम स गरमसार । १. खित्त' Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७] २. मशरणानुप्रेक्षा मन्त्रः, तम् औषधादिकम् , व पुनः, क्षेत्रपालः क्षेत्रप्रतिपालकः कोऽपि सुरः । कम् । मनुष्य नरम् । मपिवादात सुरमसुरं च । कीदृशम् । नियमाणं मरणावस्था प्राप्तम् । तो तर्हि मनुष्याः नराः मक्षयाः क्षयरहिता मरणातीता माविनाशिनः भवन्ति ॥ २५ ॥ अइ-बलिओ वि रउदो मरण-विहीणो ण दीसदे' को वि। रविवज्जतो वि सया रक्ख-पयारेहिं विविहेहिं ॥२६॥ [छाया-अतिबलिष्ठः अपि रौद्रः मरणबिहीनः न दृश्यते कः अपि । रक्ष्यमाणः अपि सदा रक्षाप्रकारः विविधः।] कोऽपि नरः सुरो का न दश्यते न विलोक्यसे । कीदृक्षः । मरणविहीनः मृत्युरहितः । कीराक्षः । मतियनिष्ठः शतवलसहस्रबललक्षवलकोटिबलादिशक्युिकः । अपिशब्दात् न केवल निलः । रौद्रः भयानका । पुनः करभूतः। सदा सर्वदा रक्ष्यमाणोऽपि, अपिचन्दात् अरक्ष्यमाणोऽपि । कः । विविधः अनेकः रक्षामकाः प्रतिपालनमेदैः गजतुरगसुभटानप्रकारैः मत्रतत्राविमिव ॥ २६ ॥ एवं पेच्छंतो' विहु गह-भूय-पिसाय-जोइणी-जक्लं । सरणं भज्णई मूढो सुगाढ-मिच्छस-भावादो ॥२७॥ [छाया-एवं पश्यन्नपि खलु गृहभूतपिशाचयोगिनीयक्षम् । शरण मन्यते मूढः सुगाढमिथ्यात्वभाषातू मन्यते जानाति । कः । मूढोअज्ञानी मोही च । किम् । शरणं श्रियते भार्तिपीडितेनेति शरणम्। किम् । प्रहभूतपिशार. योगिनीयई, प्रहाः आदिस्यसोममालबुधवृहस्पतिशुक्रशनिराहुकेतवः, भूता भ्यन्तरदेवनिशेषाः, पिशाबासपा योगिन्यः चण्डिकादयः, यक्षा मणिभवादयः, द्वन्तः शेषां समाहारः ग्रहभूतपिशाचयोगिनीयक्षम् । कृतः सुगावमिथ्यात्वभावात् , अंगालम् अत्ययं मयास्वरूपानातहु स्फुटम् । कोहशः । एवं पूर्वोकमशरणं पश्यपि प्रेक्षमाणोऽपि ॥२७॥ अपने प्रियजनोंकी रक्षाके लिये देवी-देवताओंकी मनौती करते हैं। कोई महामृत्युञ्जय आदि मंत्रोंका जप करवाते हैं। कोई टोटका करवाते हैं। कोई क्षेत्रपालको पूजते हैं। कोई राजाकी सेवा करते है। किन्तु प्रन्थकार कहते हैं, कि उनकी ये सब चेष्टाएँ व्यर्थ हैं, क्योंकि इनमें से कोई मी उन्हें मृत्युके मुखसे नहीं बचा सकता । यदि ऐसा होता तो सब मनुष्य अमर होजाते, किसी न किसीके शरणमें जाकर सभी अपनी प्राणरक्षा कर लेते ॥ २५ ॥ अर्थ-अस्थन्त बलशाली, भयानक, और रक्षा के अनेक उपायोंसे सदा सुरक्षित होते हुए भी कोई ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसका मरण न होता हो । भावार्थ-कोई कितना ही बलशाली हो, कितना ही भयानक हो, और सदा अपनी रक्षाके लिये हाथी, घोरे, तीर, तलवार, मंत्र, तंत्र आदि कितने ही रक्षाके उपायोंसे सुसज्जित रहता हो, किन्तु मृत्युसे बचते हुए किसीको नहीं देखा ॥ २६ ॥ अर्थ-ऐसा देखते हुए मी मूद जीव प्रबल मिथ्यावके प्रभाबसे प्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्षको शरण मानता है ।। भावार्थ-मनुष्य देखता है, कि संसारमें कोई शरण नहीं है एक दिन समीको मृत्युके मुखमें जाना पड़ता है, इस विपत्तिसे उसे कोई भी नहीं बचा सकता है फिर भी उसकी आत्मामें मिथ्यात्वका ऐसा प्रबल उदय है, कि उसके प्रभावसे वह अरिष्ट निवारणके लिये ज्योतिषियोंके चक्कर में फंस जाता है, और सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, और केतु नामके ग्रहोंको तथा भूत, पिशाच, चण्डिका लम सग दीसए। २.पिच्छतो। इस भूइपिसा।। ४ग मन्त्रा। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा०२४आउ-क्खएण मरणं आउं दार ण सकदे को वि। तम्हा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि ॥ २८ ॥ [छाया-आयुःक्षयेण मरणम् श्रायुः दातुं न शक्नोति कः अपि । तस्मात् देवेन्द्रः अपि च मरणात् न रक्षति का भपि॥] यस्मादिखध्याहार्यमू। मायुःक्षण मायुष्कर्मणः क्षयेण विनाशेन मरण पश्चार्य भवेत् । कोऽपि इन्द्रो पा मरेनोबा भायुः जीवितम्य दाद वितरित न शक्नोति समर्थों न भवति । तस्मात्कारणात, अपि च विशेषे, कोऽपि देवेन्द्रः सुरपतिवो मरणात् मूल्योः न रक्षति नावति ॥ २८॥ अप्पाणं पिघवंत' जह सक्कदि रविखदुं सुरिंदो वि । तो किं छंडदि सगं सन्बुत्तम-भोय-संजुः ॥ २९ ॥ [छाया-आत्मानमपि च्यवन्त यदि दानोति रक्षितुं सुरेन्द्रः अपि । तत् किं त्यजति स्वर्ग सलिमभोगसंयुतम् ॥] अपि च पुन:, यदि चेत् सुरेन्द्रोऽपि देवलोकपतिः न केवलमन्यः, भात्मानमपि, मपिशब्दात् अन्यमपि च्यवन्त खर्गाविपतितं, रक्षित पालयितुं शक: समयों भवति, तो तर्हि स्वर्ग देवलोकम् इन्द्रः किं कर्य त्यजति मुथति। कीरक्ष तमू सर्वोत्तमभोगसंयुक्त सर्वोत्कृतभोग्यदेवी विमानक्रियादिसमुद्भवास्तैः संयुक्त सहितम् ॥१९॥ - -- -- वगैरह न्यन्तरोंको शरण मानकर उनकी आराधना करता है ॥ २७ ॥ अर्थ-आयुके क्षयसे मरण होता है, और आयु देनेके लिये कोई मी समर्थ नहीं है। अतः देवोंका खामी इन्द्र मी मरणसे नहीं बचा सकता है || भावार्थ-अभीतक ग्रन्थकार यही कहते आये थे, कि मरणसे कोई नहीं बचा सकता । किन्तु उसका वास्तविक कारण उन्होंने नहीं बतलाया था। यहाँ उन्होंने उसका कारण बतलाया है। उनका कहना है, कि आयुफर्मके समाप्त होजानेसे ही मरण होता है, जबतक आयुकर्म बाकी है, तबतक कोई किसीको मार नहीं सकता। अतः प्राणीका जीवन आयुफर्मके आधीन है। किन्तु आयुका दान करनेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है क्योंकि उसका बन्ध तो पहले भवमें स्वयं जीत्र ही करता है। पहले भत्रमें जिस गतिको जितनी आयु बँध जाती है, आगामी भवमें उस प्रतिमें जन्म लेकर जीव उतने ही समयतक ठहरा रहता है। बंधी हुई आयुमें घट-बढ़ उसी भवमें हो सकती है, जिस मत्रमें वह बाँधी गई है। नया जन्म ले लेनेके बाद वह चढ़ तो सकती ही नहीं, घट जरूर सकती है | किन्तु घटना मी मनुष्य और तिर्यवाति में ही संभव है, क्योंकि इन दोनों गतियों में अकालमरण हो सकता है। किन्तु देवगति और नरकगतिमें अकालमरण भी नहीं होसकता, अतः वहाँ आयु घट भी नहीं सकती | शहा- यदि आयु बढ़ नहीं सकती तो मनुष्यों का मूत्युके मयसे औषधी सेवन करना भी ध्यर्य है। समाधान-ऊपर बतलाया गया है, कि मनुष्यगतिमें अकालमरण हो सकता है । अतः औषधीका सेवन आयुको बढ़ानेके लिये नहीं किया जाता, किन्तु होसकनेवाले अकालमरणको रोकनेके लिये किया जाता है । अतः मृत्युसे कोई मी नहीं बचा सकता ।। २८ ।। अर्थ- यदि देवोंका स्वामी इन्द्र मरणसे अपनी भी रक्षा करनेमें समर्थ होता तो सबसे उत्तम भोगसामग्रीसे युक्त वर्गको क्यों छोड़ता। भावार्थ-दूसरोंको मृत्युसे बचानेकी तो बात ही दूर है । किन्तु १लग। २व चवंतो। किमपि च्यवन्तं । बरखियं, ग रक्खिदो। ४ ग छरिदि। ५ल अपि न पुनः। ६अन्यत्र Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१] २. अशरणानुप्रेक्षा दसण-णाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए । अण्णं किं पिण सरणं संसारे संसरंताणं ॥ ३० ॥ [छाया-दर्शनशानचारिनं शरणं सेवध्वं परमेश्रद्धगा । अन्यत् किमपि न शरणं संसारे संसरताम् ॥] हे भव्य इलथ्याहार्यम् , परमश्रद्धया सर्वोत्कृष्टपरिणामेन सेवरू भजस्व । किम् । दर्शनशानचारित्रं शरणं म्यवहारनिश्चयसम्यम्पर्शनशानचारित्रं शरणं, संसारे भवे संसरतां भ्रमतां जीवानाम् अन्यत् किमपि न शरणम् आश्रयः ॥ ३० ॥ अप्पा ण पि य सरणं खमादि-भावेहि परिणदो' होदि । तिष-कसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥ ३१॥ [छाया-आस्मा ननु अपि च शरण क्षमादिभावैः परिणतः भवति । तीवकषायाविष्टः आत्मानं इन्ति आत्मना ॥] भवति क्षमादिभावः उत्तमक्षमादिखमावैः परिणतम् एकत्वभावं गतम् आत्मानं खखरूपम् , अपि एवकारा, संशरणम् भाश्रयः । व पुनः, तीनकषायायिष्टः तीनकषाया अनम्तानुबन्धिक्रोधादयः तेराविष्टः युक्तः हन्ति हिनस्ति । कम् मात्मानं खखरूपम् । केन । आत्मना खखरूपेण ॥३१॥ स जयतु शुभचन्द्रचन्द्रवरसाकलापः समतसुमांतकोतिः सन्भातः सत्पशेयः। प्रतपतु तपनातेस्तापकः खात्मवेत्ता हरख भव समुत्या वेदना वेदनाव्यः । इति श्रीस्वामिकार्तिकेयामुप्रेक्षायानिविश्वविद्याधरझापाकषि चक्रवर्तिभट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेव विरचितटीकायाम् भशरणानुप्रेक्षायां द्वितीयोऽधिकारः ॥ २॥ इन्द्र अपनेको भी मृत्युसे नहीं बचा सकता । यदि वह ऐसा कर सकता तो कभी मी उस स्थानको न छोड़ता, जहाँ संसारके उत्तमसे उत्तम सुख भोगनेको मिलते हैं, जिन्हें प्राप्त करनेके लिये संसारके प्राणी लालायित रहते हैं ॥ २९ ।। अर्थ-हे भव्य ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हींका सेवन कर । संसारमें भ्रमण करते हुए जीत्रोंको उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है। भावार्थ-संसारकी अशरणताका चित्रण करके ग्रन्थकार कहते हैं, कि संसारमें यदि कोई शरण हैं तो व्यवहार और निश्चयरूप सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र है । अतः प्रत्येक भव्यको उन्हींका सेवन करना चाहिये । जीव, अजीव आदि तत्वोंका श्रद्धान करना व्यवहारसम्यक्त्व है, और व्यवहारसम्यक्त्वके द्वारा साधने योग्य वीतरागसम्यक्त्वको निश्चयसम्यक्त्व कहते हैं। आत्माके और परपदार्योंके संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित ज्ञानको व्यवहारसम्यग्ज्ञान कहते हैं, और अपने खरूपके निर्विकल्य रूपसे जाननेको अर्थात् निर्विकल्पस संवेदनज्ञानको निश्चयज्ञान कहते हैं । अशुभ कार्योंसे निवृत्त होना और शुभकार्योमें प्रवृत्त होना व्यवहार सम्यक्चारित्र है, और संसारके कारणों को नष्ट करनेके लिये ज्ञानीके बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग क्रियाओंके रोकनेको निश्चयचारित्र कहते हैं॥ ३० ॥ अर्थ-आत्माको उत्तम क्षमा आदि भावोंसे युक्त करना मी शरण है । जिसकी कषाय तीन होती है, वह स्वयं अपना ही घात करता है ।। भावार्थ-संसारके मूद आणी शरीरको ही आत्मा समझकर उसकी रक्षाके लिये शरणकी खोजमें भटकते फिरते हैं । किन्तु १० म सग सेबेहि । २ सय परिण। ३ म गाथाके अन्त में 'श्रसरणानुप्रेक्षा॥२॥ ४ स्वरूपम् । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ३. संसारानुप्रेक्षा स्मथ संसारानुप्रेक्षा गावाद्वयेन भावगति एकं चयदि सरीरं अण्णं गिण्छेदि णव गवं जीवो । पुणु पुणे अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ॥ ३२ ॥ संसरणं णाणा-देहेषु होदि' जीवस्स । एवं सो संसारो भण्णदि मिच्छ कसाएहिं जुत्तस्स ॥ ३३ ॥ [ गा० ३२ [ छाया - एक स्वजति शरीरमन्यत् गृह्णाति नवनवं जीवः । पुनः पुनः अन्यत् अन्यत् गृह्णाति मुखलि बहुदारम् ॥ एवं यत्संसरणं नामविहेषु भवसि जीवस्य । स संसारः मध्यसे मिथ्याकामैः युक्तस्य ॥ ] एवं पूर्वोकगाथाप्रकारेण नाना देहेषु एकेन्द्रियाधनेकशरीरेषु जीवस्य आत्मनः यश्संसरणं परिभ्रमण स प्रसिद्धः संवारो भषो भण्यते आत्मा शरीरसे पृथकू वस्तु है। वह अजर और अमर है। शरीरके उत्पन्न होनेपर न वह उत्पन्न होता है और न शरीरके छूटनेपर नष्ट होता है। अतः उसके विनाशके भयसे शरणकी खोजमें भटकते फिरना और अपनेको अशरण समझकर घबराना अज्ञानता है। वास्तवमें आत्मा स्वयं ही अपना रक्षक है, और स्वयं ही अपना घातक है; क्योंकि जब हम काम क्रोध आदिके वश में होकर दूसरोंको हानि पहुँचाने पर उतारू होते हैं, तो पहले अपनी ही हानि करते हैं; क्योंकि काम क्रोध आदि हमारी सुख और शान्तिको नष्ट कर देते हैं, तथा हमारी बुद्धिको भ्रष्ट करके हमसे ऐसे ऐसे दुष्कर्म करा डालते हैं, जिनका हमें बुरा फल भोगना पड़ता है। अतः आत्मा स्वयं ही अपना घातक है । तथा यदि हम काम क्रोध आदिको वश में करके, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य आदि सगुणको अपनाते हैं और अपने अन्दर कोई ऐसा विकार उत्पन्न नहीं होने देते, जो हमारी सुख-शान्तिको नष्ट करता हो, तथा हमारी बुद्धिको भ्रष्ट करके हमसे दुष्कर्म करवा डालता हो, तो हम स्वयं ही अपने रक्षक हैं। क्योंकि वैसा करनेसे हम अपनेको दुर्गतिके दुःखोंसे बचाते हैं और अपनी आत्माकी उन्नतिमें सहायक होते हैं । यह स्मरण रखना चाहिये, कि आत्माका दुर्गुणोंसे लिप्त होजाना ही उसका घात है और उसमें सद्गुणोंका विकास होना ही उसकी रक्षा है; क्योंकि आत्मा एक ऐसी वस्तु है जो न कभी मरता है और न जन्म लेता है। अतः उसके मरणकी चिन्ता ही व्यर्थ है । इसीसे ग्रन्थकारने बतलाया है, कि रत्नत्रयका शरण लेकर आत्माको उत्तम क्षमादि J रूप परिणत करना ही संसार में शरण है, यही आत्माको संसारके कष्टोंसे बचा सकता है ॥ ३१ ॥ इति अशरणानुप्रेक्षा || २ || अब दो गाथाओंसे संसारअनुप्रेक्षाको कहते हैं- अर्थ - जीव एक शरीरको छोड़ता है और दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता । पश्चात् उसे मी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है । इस प्रकार अनेक बार शरीरको ग्रहण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है । मिध्यात्व कषाय वगैरहसे युक्त जीवका इस प्रकार अनेक शरीरोंमें जो संसरण (परिभ्रमण ) होता है, उसे संसार कहते हैं | भावार्थ - तीसरी अनुप्रेक्षाका वर्णन प्रारम्भ १ स पुणे पुण। २ ब मुचेदि । २ल मग इनदि । 1 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३५] ३. संसारानुप्रेक्षा कथ्यते। कभूतस्य जीवस्य । मिथ्यात्मकषायैर्युक्तस्य, मिथ्यात्वं नास्तिकता कषायाः क्रोधादयस्तैः संयुकस्य । एवं कथम् । आत्मा त्यति मुमति । किम् । एक शरीर पूर्वकोपात शरीरम् । अन्यत् अपरं उत्तरभवसंपन्धि नवं नवं भने भने नाई नूतनं गानि वीडरोनि, एनः पुनः अत्यदन्यत् शरीर बहुवारं गृहाति मुञ्चति च ॥ ३२-३३ ॥ अथ नरकगती महदुःख गाथाषट्रेनोट्टीकले पाव-उदयेण' णरए जायदि जीयो सहेदि बहु-दुक्खं । पंच-पयारं विविहं अणोवमं अण्ण-दुक्खेहिं ॥ ३४ ॥ [छाया-पापोदयेन मरके जायते जीयः सहते महुदुःखम् । पञ्चप्रकारे विविधमनौपम्यमन्यदुःखैः ॥] जायते मृत्पद्यते। कः। जीवः संसार्यारमा। क। नरके सप्तनरके। केन । पापोदयेन अशुभकोदयेन । तश घोक्तम्-'जो पायइ सत्ताई अलियं बपेड़ परधणं इरइ । परवार चिय बबह रहुपावपरिगहासत्तो ॥ पंडो माणी पदोमायादी णिदुरो सरो पायो। पिसुनो संगहसीलो साहूर्ण शिंदो अहमोआलप्पालपसंगी दुटो बुद्धौएँ जो कमायो य । बहुदुक्खसोगपतरे मरिर्ड परयम्मि सो जाइ'. सहते क्षमते । किम् । बहुदुःख तीव्रतरमशर्म । कियाप्रकारम् । पत्रकारम् असुरोशरितादिपञ्चमेदं, विविधम् अनेकप्रकारम्, अन्य दुःखः अन्येषां तिर्यगावीनो दुःखैरनुपमम् उपमातिकान्तम् ॥ ३४ ॥ अथ तान् पकप्रकारान् व्याकरोति असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुभवं च तिचं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ॥ ३५ ॥ [छाया-असुरोवीरितदुःखं शारीरे मानस तथा विविधम् । क्षेत्रोद्यं च तीवम् अन्योन्यकृतं च पञ्चविधम् ॥] एतत्पश्चप्रकार दुःखम् । एकम् असुरोतीरितःखम् असुरैरमरकुमारेस्टीरितं प्रकटीकृत तच तदुःख य असुरोणरितदुःखम् । करते हुए ग्रन्थकारने पहले संसारका स्वरूप बतलाया है। बार बार जन्म लेने और मरनेको संसार कहते हैं। अर्थात्, जन्म और मरणके चक्रमें पड़कर जीवका भ्रमण करना ही संसार है। यह संसार चार गतिरूप है और उसका कारण मिथ्यात्व और कषाय हैं । मिथ्यात्व और कषायका नाश होनेपर जीवकी इस संसारसे मुक्ति होजाती है ।। ३२-३३ ॥ अब छह गाथाओंसे चार गतियोंमेंसे पहले नरकगतिके दुःखोंका वर्णन करते हैं। अर्थ-पापकर्मके उदयसे यह जीव नरकमें जन्म लेता है, और वह पाँच प्रकारके अनेक दुःखोंको सहता है, जिनकी उपमा अन्य गतियोंके दुःखोंसे नहीं दी जा सकती ॥ भावार्थ-शामें कहा है, कि जो प्राणियोंका घात करता है, झूठ बोलता है, दूसरोंका धन हरता है, परनारियोंको बुरी निगाहसे देखता है, परिग्रहमें आसक्त रहता है, बहुत क्रोधी, मानी, कपटी और लालची होता है, कठोर वचन बोलता है, दूसरोंकी चुगली करता है, रात-दिन धनसञ्चयमें लगा रहता है, साधुओंकी निन्दा करता है, वह नीच और खोटी बुद्धिवाला है, कृतघ्नी है, और बात बातपर शोक तथा दुःख करना जिसका स्वभाव है, वह जीव मरकर नरकगतिमें जन्म लेता है | वहाँ उसे ऐसे ऐसे कष्ट सहने पड़ते हैं, जिनकी तुलना किसी अन्य गतिके कठोंसे नहीं की जा सकती || ३४ ॥ अब दुःखके पाँच प्रकारोंको बतलाते है । अर्थ-पहला असुरकुमारोके द्वारा दिया गया दुःख, दूसरा शारीरिक दुःख, तीसरा मानसिक दुःख, चौथा क्षेत्रसे उत्पन्न होनेवाला अनेक प्रकारका दुःख और पाँचवाँ परस्परमें दिया गया दुःख, दुःखके ये पाँच प्रकार हैं | भावार्थ-भयनवासी देवोंमें एक असुरकुमारजातिके देव होते हैं। ये बड़े कलहप्रिय होते हैं । इन्हें १लमग पाउदवेण, सपाओवपण। २ अनोवमं अर। 8मसग अण्णुण्ण । काफिके. ३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३६द्वितीयं शारीरे शरीरे देहे छेदन मेदनादिभवम् । तथा मानसे मनति भवम् । विविधम् अनेकप्रकार क्षेत्रोद्रवं भूमिस्पर्श श्रीतोष्णवातवेतरणीमज्जनशाल्मलीपनपातकुम्भीपाकादिभवम् । च पुनः [तीन ] दुःसहं सोमशक्यम् अन्योन्यकृत नारकैः परस्परं शूलारोपणकुन्तखनच्छेदनाविकृतं निष्पादितम् । च-शब्दः समुपयार्थे ॥ ३५।। छिन्नइ तिल-तिल-मितं भिंदिज्जइ तिल-तिलंतरं सयलं । वजरंगी' कढिज्जइ णिहप्पए पूय-कुंडम्हि ॥ ३६॥ [छाया-छिद्यते तिलतिलमान भिद्यते तिलतिलान्तरं सकलम् । बजामिना कथ्यते निधीयते पूतिकुण्डे ॥] छिद्यते स्वण्डी क्रियते शरीरं तिलतिलमात्र तिलतिलप्रमाणखण्डम्, भियने विदार्यते सकलं तरीमतिशयेन समस्त तिलतिलम् । पूर्व तिलतिलमाग्नं कृतं तदपि पुनः पुनः छिद्यते । कदिजइ ध्यते पच्यते, कथ् निष्पाके, अस्य धातोः प्रयोगः । क। वजामौ वज्ररूपवैश्वानरे निक्षिप्यते प्रक्षेपः क्रियते 1 का पूयकुण्डे ॥ ३६॥ इञ्चेवमाइ-दुक्ख ज णरए सहदि एय-समयम्हि । तं सयलं वण्णेदुं ण सकदे सहस-जीहो वि ॥ ३७॥ दूसरोंको लड़ाने भिड़ानेमें बड़ा आनन्द आता है। ये तीसरे नरकतक जा सकते हैं । वहाँ जाकर ये नारकियोंको अनेक तरहका कष्ट देते हैं और उन्हें लड़ने झगड़नेके लिये उकसाते हैं। एक तो वे यों ही आपसमें मारते काटते रहते हैं, उसपर इनके उकसानो क्रोध और कथा तर दे अपनी विक्रियाशक्तिके द्वारा बनाये गये भाला तलवार आदि शस्खोंसे परस्परमें मार-काट करने लगते हैं। इससे उनके शरीरके टुकड़े टुकड़े होजाते हैं, किन्तु बादको वे टुकड़े पारेकी तरह आपसमें पुनः मिल जाते हैं । अनेक प्रकारकी शारीरिक वेदना होनेपर भी उनका अकालमें मरण नहीं होता । कामी कमी वे सोचते हैं, कि हम न लड़ें, किन्तु समयपर उन्हें उसका कुछ भी ध्यान नहीं रहता । इस लिये भी उनका मन बड़ा खेदखिन्न रहता है । इन दुःखोंके सिवाय उन्हें नरकके क्षेत्रके कारण भी बहुत दुःख सहना पडता है । क्योंकि ऊपरके नरक अत्यन्त गर्म है तथा पाँचवें नरकका नीचेके कुछ भाग, छटे तथा सातवें नरक अत्यन्त ठंडे हैं। उनकी गर्मी और सर्दीका अनुमान इससे ही किया जा सकता है, यदि सुमेरुपर्वतके बराबर ताम्बेके एक पहाड़को गर्म नस्कोंमें डाल दिया जाये तो वह क्षणभरमें पिघलकर पानीसा होसकता है । तथा उस पिघले हुए पहाइको यदि शीत नरकोंमें डाल दिया जाये तो वह क्षणभरमें कड़ा होकर पहलेके जैसा हो सकता है । इसके सिवाय वहाँकी घास सुईकी तरह नुकीली होती है । वृक्षोंके पत्ते तलवारकी तरह पैने होते हैं। वैतरणी नामकी नदी खून, पीव जैसी दुर्गन्धित वस्तुओंसे परिपूर्ण होती है । उसमें अनेक प्रकारके कीड़े बिलबिलाते रहते हैं। जब कोई नारकी उम वृक्षोंके नीचे विश्राम करनेके लिये पहुँचता है तो हवाके झोकेसे वृक्षके हिलते ही उसके तीक्ष्ण पत्ते नीचे गिर पड़ते हैं और विश्राम करनेवालेके शरीरमें घुस जाते हैं । वहाँसे भागकर शीतल जलकी इच्छासे वह नदीमें घुसता है, तो दुर्गन्वित पीव और कीड़ोंका कष्ट भोगना पड़ता है । इस प्रकार नरकमें पाँच प्रकारका दुःख पाया जाता है ।। ३५|| अर्थ-शरीरके तिल तिल बराबर टुकड़े कर दिये जाते हैं । उन तिल तिल बराबर टुकड़ोंको भी मेदा जाता है । वज्राग्निमें पकाया जाता है। पीवके कुण्डमें फेंक दिया जाता है ॥ ३६॥ अर्थ-इस प्रकार नरकमें छेदन-भेदन आदिका जो दुःख १५ बजग्गिा । २५ कुटमि, स कुंडम्मि। बनिर! ४व समियंमि, म समयमि(१) । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. संसारानुप्रेक्षा लिया-इत्येवमादिदुःख यत् नरके सइते एकसमये । तत् सको वर्णयितुं न शक्नोति सहनजितः अपि ॥] सहते कमते एकस्मिन् समये क्षणे। क । नरके रत्नप्रभावी, यत् इत्येवमादि दुःख पूर्वोऊ छेदन मेदनाशम, तत् सकलदुः वर्णयितुं कथयितुं न समर्थों भवति। कः। सहस्त्र जिलः सहस्रं जिला रसना यस्य स तथोक्तः । अपिशब्दात् न केवलम् एकजिडः ॥३५॥ सचं पि होदि णरए खेत-सहावेण दुक्खदं असुहं ।। कुविदा वि स कालं अण्णोप. होमिइयाँ ।।३।। [छाया-सर्वमपि भवति नरके क्षेत्रसभावेन दुःखदभशुभम् । फुपिताः अपि सर्वकालमन्योन्य भवन्ति नैरयिकाः ॥] नरके धर्मादिनरके क्षेत्रखभावेन सर्वमपि वस्तु दु:खद दुःखानां दायकं भवति, अशुभम् अप्रशस्तम् । यत्र नारकाः सर्वकालमपि सर्वदापि अन्योन्य परस्पर पिताः क्रोधाकान्ताः भवन्ति ॥ ३८॥ अण्ण-भवे जो सुयणो सो विय णरहणेइ अइ-कुविदो। एवं तिब-विवागं बहु-कालं विसहदे दुक्ख ॥ ३९ ॥ [छाया-अन्यभवे यः सुजनः स अपि च नरके हन्यते अतिकुपितः । एवं तीव्रविपाकं बहुकाल विषहते दुखम् ॥ यो जीयः अन्यभवे मनुष्यभवे तिग्भवे वा खजनः स्वकीयजनः आत्मीयः, अपि च स स्वजन: नरके रमप्रभादौ उत्पन्नः सन् अतिकुपितः क्षेत्रखभावात् अतिक्रुद्धः सन् हन्ति पूर्वभवसंबन्धिनस्तत्र जातान हिनस्ति । एवं पूवातप्रकारेण दुःखम् असाल पहुकालं पल्योपम दिसागरोपमादिकालं सहते क्षमते। कथंभूतं दुःखम् । तीब्रधिपाकम् अनेक. प्रकारेण पत्रको व्या षष्टिलक्षनवतिनवसहमपन शतचतुरशीतिसंख्यरोगादीनां तीनविपाक उदयो यत्र ततपोकम् ॥ ३९॥ अब तिग्गति सामतुर्गाथाभिः कथयति तत्तो जीसरिपूर्ण जायदि तिरिएK बहु-वियप्पेसु । तस्थ वि पावदि दुक्खं गम्मे वि य छेयणादीयं ॥ ४० ॥ [छाया-ततः निःसत्य जायते तिर्यक्षु बहुविकल्पेषु । तत्रापि प्रामोति दुःखं गर्भ अपि च छेदनादिकम् ॥ ] जायते उत्पचते। कर तिर्मक्षु एकेन्द्रियविकलत्रयसंश्यसशिपश्चेन्द्रियादिबहुविकल्पेषु । किं कृत्वा। ततः नरकेभ्यः निःसत्य जीव एक समयमें सहता है, उस सबका वर्णन करनेके लिये हजार जिवावाला भी समर्थ नहीं है ॥ मावार्थ-जब नरकमें एक समयमें होनेवाले दुःखोंका भी वर्णन करना शक्य नहीं है, तब जीवनभरके दुःखोंकी तो कथा ही क्या है ! ॥३७॥ अर्थ-नरफमें सभी वस्तुएँ दुःखको देनेवाली और अशुभ होती है, क्योंकि वहाँके क्षेत्रका ऐसा ही स्वभाव है । तथा नारकी सदा ही परस्परमें क्रोध करते रहते हैं ॥ ३८॥ अर्थ-पूर्वभवमें जो जीव अपना सगा-सम्बन्धी था, नरकमें वह भी अति क्रुद्ध होकर धात करता है । इस प्रकार जीव बहुत समयतक दुःखके तीन उदयको सहता है। [इसकी संस्कृतटीकामें ५६८९९५८४ प्रकारके रोग बतलाये हैं । अनु० ] भावार्थ-पूर्वभयका मित्र भी नरकमें जाकर शत्रु होजाता है, इसे वहाँके क्षेत्रका और अपने अशुभ कर्मोका ही परिणाम समझना चाहिये ।। ३९ ॥ अब साढ़े चार गाथाओंसे तिर्यप्रगतिका वर्णन करते हैं । अर्थ-नरकसे निकलकर जीव अनेक प्रकारके तिर्यश्चोंमें जन्म लेता है । वहाँ भी गर्भज अवस्थामें भी छेदन वगैरहका दुःख पाता है । भावार्थ-तिर्यगतिमें दो जन्म होते हैं, एक सम्पूर्छन और दूसरा गर्भ ! एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, १लमग खिच । २ बमसम अण्णं । [हति बनेरश्य।। ५ नरह। ६समसग जीसरिऊ। ७३ तिरासु। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४१निर्गत्य, तत्रापि तिर्यग्गती गौं, अपिशब्दात् न केवलं गर्भ, संमूर्च्छने छेदनादिकम् , आदिशब्दात् शीतोष्णक्षुधातृषादिकम् , दुःख प्रामोति लभते ॥ ४० ॥ तिरिएहि खज्जमाणो तुदु-मणस्सेहि रममाणो वि । सबत्थ वि संतट्ठो भय-दुक्खं विसहदे भीमं ॥४१॥ [छाया-तिम्भिः स्त्रायमानः दुष्टमनुष्यैः हन्यमानः अपि । सर्वत्र अपि संत्रस्तः भयदुःख विषहते भीमम् ॥] विषहते विशेषेण क्षमते। किम् । मयदुःख भीतिकृतमसुखं सर्वत्रापि तिर्यग्गती, जीव इत्यध्याहार्य.दुःख भीम सैद्रम् । कथंभूतो जीयः । तिर्यगतिखाद्यमानः ध्यानसिइसकाभलकमार्जार कुकुरमत्स्यादिभिः भक्ष्यमाणः, अपि पुनः, इन्यमानः मार्यमाणः । कैः । दुष्टमनुष्यैः म्लेच्छभिन्धीवरपापिष्टर्मानुषैः । कीदक्षः । सर्वत्रापि प्रदेशेषु संत्रस्तः भयभीतः ॥४१॥ अपणोण्णं खजंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं ।। माया, वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खे दि ॥ ४२ ॥ [छाया-अन्योन्यं खादन्तः तिर्यश्चः प्रामुवन्ति दारुणं दुःखम् । मातापि यत्र भक्षति अन्यः कः तत्र रक्षति ] तियश्चः एकेन्द्रियादयो जीवाः प्राप्नुवन्ति लभन्ते । किम् । दारुणं दुःनं रौद्रतरमसुखम् । कोहक्षाः। अन्योन्यं खाद्यमानाः परस्परं भक्षयन्तः, यत्र तिर्यग्भवे मातापि, अपिशब्दात् अन्यापि, सपिणीमार्जारीप्रमुखवत भक्षति खादति सत्र तिर्यग्भवे अभ्यः परः मनुष्यादि को रक्षति । न कोऽपि ॥४२॥ तिष-तिसाएँ तिसिदो तिघ-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो। तिवं पायदि दुक्खं उर्यर-हुयासेण डझंतो ॥ ४३ ॥ छाया-तीनतृषया तृषितः तीत्रयुभुक्षया बुभुक्षितः सन् । तीबं प्राप्नोति दुःखम् सदरहुताशेन दपमानः ॥] प्राप्नोति लभते । किम् । तीनै दुःखम् । कः । तिर्यग्जीवः इत्यध्याहार्यम् । कीदृक्षः सन् । तृषितः तृवाक्रान्तः सन् । चतुरिन्द्रिय वगैरहके सम्मुईन जन्म होता है और पश्चेन्द्रियोंके सम्मुर्छन और गर्भ दोनों जन्म होते हैं। दोनों ही प्रकारके तिर्यश्नोंको छेदन-मेदनका दुःख सहना पड़ता हैं । अपि शब्दसे ग्रन्थकारने यही बात प्रकट की है ॥ ४० ॥ अर्थ-अन्य तिर्यञ्च उसे खा डालते हैं। दुष्ट मनुष्य उसे मार डालते हैं । अतः सब जगहसे भयमीत हुआ प्राणी भयके भयानक दुःखको सहता है | भावार्थतिर्यश्चगतिमें भी जीवको अनेक कष्टोंका सामना करना पड़ता है। सबसे प्रथम उसे उससे बलवान व्याघ्र, सिंह, भालू, विलाव, कुत्ता, मगर-मच्छ औरह हिंस्र जन्तु ही खा डालते हैं। यदि किसी प्रकार उनसे बच जाता है, तो म्लेच्छ, भील, धीवर आदि हिंसक मनुष्य उसे मार डालते हैं। अतः बेचारा रात-दिन भयका मारा मरा जाता है ॥ ४१ ॥ अर्थ-तिर्यश्च परस्परमें ही एक दूसरेको खाजाते हैं, अतः दारण दुःख पाते हैं । जहाँ माता ही भक्षक है, वहाँ दूसरा कौन रक्षा कर सकता है ॥ भावार्थ--'जीव जीबका भक्षक है। यह कहावत तिर्यश्वजातिमें अक्षरशः घटित होती है। क्योंकि पृथ्वीपर वनराज सिंह वनवासी पशुओंसे अपनी भूख मिटाता है, आकाशमें गिद्ध चील वगैरह उड़ते हुए पक्षियोंको झपटकर पकड़ लेते है, जलमें बड़े बड़े मच्छ छोटी-मोटी मछलियोंको अपने पेट में रख लेते हैं। अधिक क्या. सर्पिणी, बिल्ली वगैरह अपने बोको ही खा डालती हैं। अतः पशुगतिमें यह एक बड़ा भारी दःख है ॥४२|| अर्थ-तिर्यच जीव तीन प्याससे प्यासा होका तीव्र भूखसे भूखा होकर पेट की आगसे जलता हुआ बड़ा कष्ट पाता है | भावार्थ-तिर्यश्चगतिमें भूख म भवचक। २[तिभिः खाबमान]। ३लम सम अण्ण्णं । ४ग भिस्वदि यण्णो व तिसाद ११ उबर । ७लम स ग हुयासे हि । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६] ३. संसारानुप्रेक्षा २१ क्या । सीतृषया अतिदुःसह पिपासया । पुनः कीदृक्षः । तीनबुभुक्षादियुभुक्षितः तीव्रतरशुभादिभिः क्षुधाक्रान्तः । पुनः कीदृक्षः । दहन् काख्यमानः । कैः । उदरहुंताशैः जठरवैश्वानरैः ॥ ४३ ॥ 1 एवं बहु प्यारं दुक्खं विसहेदि तिरिया - ओणीसु । ततो णीसरिणं लैंद्धि - अपुण्णो णरो होदि ॥ ४४ ॥ छाया - एर्व बहुप्रकारे दुःखं विषहते तिर्यग्योनिषु । ततः निःसृत्य लब्ध्यपूर्णः नरः भवति ॥ ] तिर्यग्योनिषु विषहते क्षमसे । किम् । दुःखम् । कीदर्श वःतम् । एवं पयकप्रकारेण बहुप्रकारम् अनेक मेदभिन्नम् । नरः मनुष्यो भवति लब्ध्यपूर्णः लब्ध्यपर्याप्तकः, लब्धिः प्राप्तिः अपूर्णस्य अपर्यासिनामकर्मणः यस्य स तथोच्चः । किं कृत्वा । ततः विर्यग्भ्यः निःसृत्य निर्मला ॥ ४४ ॥ I अह गमे विथ जायदि तत्थ वि णिवडीकरांग-पचंगो' | विसहृदि तिथं दुक्खं णिग्गमैमाणो वि जोणीदो ॥ ४५ ॥ [ छाया-अब गर्भेऽपि च आयते तत्रापि निविडीकृत प्रत्यशः । विषहते तीव्रं दुःखं निर्गच्छन् अपि योनितः ॥ ] अथ अथवा जायते उत्पद्यते । गर्भे श्रीणामुदरे, तत्रापि गर्भेऽपि तीव्रं घोर दुःखं विषहते शमते । कीदृक्षः सन् । निडीकृतानि संकुचितानि अङ्गानि नल्कबाहुशिरः पृष्टि नितम्बोरसि । शेषाणि अङ्गुलीनासिकापनि प्रत्यज्ञानि यस्य स तथोक्तः, अपि पुनः, निर्गममान: निस्सरन् । कुतः । जन्मकाले योनितः श्रीभगात् ॥ ४५ ॥ बालो वि पियर बसो पर उच्छिदेणं वदे दुहिदो । एवं जायण-सीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥ ४६ ॥ [ छाया - बालोऽपि पितृत्यकः परोच्छिष्टेन बर्षये दुःखितः । एवं माचनशीलः गमयति कालं महादुःखम् ॥ ] बालोऽपि शिशुरपि दुःखितः दुःखाक्रान्तः वर्धते वृद्धिं याति । कैन । परोच्छिष्टेन परभुक्तमुकामेन । कीदृक्षः सन् । और प्यासी असह्य वेदना सहनी पड़ती है । जो पशु पालतू होते हैं, उन्हें तो कुछ दाना पानी मिल मी जाता है, किन्तु जो पालतू नहीं होते, उन बेचारोंकी तो बुरी हालत होती है, वे खानेकी खोज में इधर उधर भटकते हैं, और जहाँ किसीके चारेपर मुँह मारते हैं, वहीं उन्हें मार खानी पड़ती है ॥ ४३ ॥ अब तिर्यञ्चगतिके दुःखोंका उपसंहार करते हुए सादे सोलह गाथाओंसे मनुष्यगतिका वर्णन करते हैंअर्थ - इस प्रकार तिर्यश्वयोनिमें जीव अनेक प्रकारके दुःख सहता है। वहाँसे निकलकर लम्ध्यपर्याप्तक मनुष्य होता है । [ स्त्रियोंके कख वगैरह प्रदेशोंमें ये मनुष्य नामके प्राणी उत्पन्न होजाते हैं । इनका सम्मूर्च्छन जन्म होता है । तथा शरीर पर्याप्तिपूर्ण होनेसे पहले ही अन्तर्मुहूर्तकालतक जीवित रहकर मर जाते हैं ] | ४४ | अर्थ - अथवा यदि गर्भ में भी उत्पन्न होता है तो वहाँ भी शरीर के अन-उपान सङ्कुचित रहते हैं, तथा योनि से निकलते हुए भी तीव्र दुःख सहना पड़ता है ॥ भावार्थ- तिर्यञ्चयोनिसे निकलकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यपर्यायमें जन्म लेनेका कोई नियम नहीं है। यही इस गाथामें 'अह' पदसे सूचित किया गया है। यदि लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य न होकर गर्भज मनुष्य होता है तो गर्भमें भी नौमास तक हाथ, पैर, सिर, अंगुली, नाक वगैरह अङ्ग-प्रत्यङ्गों को समेटकर रहना पड़ता है, और जब बाहर आता है तो सङ्कुचित द्वारसे बाहर निकलते समय बड़ी वेदना सहनी पड़ती है ।। यदि माता-पिता छोड़कर मर जाते हैं या विदेश चले जाते हैं, तो दुःखी होता हुआ दूसरोंके उच्छिष्ट ४५ ।। अर्थ - बाल अवस्थामें ही १. गवीत्र विशुक्ष्यादि । २ म स ग णीसरिऊणं । ३ ग लडियपुण्णो । ४ व सवंगो ५ व णिग्गवमायो । ६ निवडी । ७ व उद्वेण । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ स्वामिकार्त्तिकेयानपेक्षा [ ० ४७ पितृल्यः पापवशात् मातृपितृभ्यां मृतिवशात् देशान्तरादिगमनेन वा त्यक्तः शुक्तः, एवमुक्तप्रकारेण महादुःखं महायथा भवति तथा कालं समयं गमयति नयति । कीदृशः सन् । यायाशीलः परपुरुषेभ्यः याम कर्तु स्वभावः ॥ ४६ ॥ पावेण जणो एसो दुकम्म वसेण जायदे सो | पुणरवि करेदि पावं ण य पुण्णं को वि अज्जेदि ॥ ४७ ॥ [ छाया-पापेन जनः एष दुष्कर्मवशेन जायते सर्वः पुनरपि करोति स न च पुण्यं कोऽपि अर्जयति ॥ ] जायते उत्पयसे सर्वः समस्तः एष प्रत्यक्षीभूतः जनो लोकः । केन । पापेन अशुमेन । कीदृक्षेण । [ युष्कर्मवशेन ] दुष्कर्माणि ध्धशीतिप्रकृतयः तेषां वशम् अधीनं यत् तत् तेन, पुनरपि मुहुर्मुहुः पापं दुरितं हिंसादिकं करोति विदधाति, च पुनः कोऽपि पुमान् पुण्यं दानपूजातपश्चरणध्यानादिलक्षणं न अर्जयति नोपार्जयति ॥ ४७ ॥ विरलो' अज्जदि' पुण्णं सम्मादिड्डी' वहिं संजुतो । उवसम-भावें सहिदो जिंदण - गरहाहिँ संजुत्तों ॥ ४८ ॥ [ छाया - विरल: अर्जयति पुण्यं सम्यग्दृष्टिः तैः संयुक्तः । उपशमभावेन सहितः निन्दनगर्दाभ्यां संयुक्तः ॥ ] विरलः स्वल्पो जनः पुण्यं द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतिभेदभिनं प्रशस्तं कर्म अर्जयति उपार्जयति संचिनोति । कीदृक्षः सन् । सम्यग्दृष्टिः उपशमवेदकक्ष। विकसम्मत्तवयुक्तः । पुनः कीदृ । तैः द्वादशप्रकरिः पञ्च महात्रतेषां संयुक्तः सहितः, उपशमस्वभावेन उत्तमहमादिलक्षणेन सहितः परिणतः पुनरपि कीदृक्षः । निन्दनेत्यादि निन्दनम् आत्मकृतदुष्कर्मणः स्वयंप्रकाशमं गई गुरुसाक्षिकारण दोषप्रकाशन / ताभ्यां संयुक्तः ॥ ४८ ॥ 1 नसे बड़ा होता है, और इस तरह भिखारी बनकर बड़े दुःखसे समय बिताता है । भावार्थ-गर्म और प्रसबकी वेदना सहकर जिस किसी तरह बाहर आता है। किन्तु यदि बाल्यकालमें ही माता-पिताका विछोह हो जाता है तो दूसरोंका जूठा अन्न खाकर पेट भरना पड़ता है ॥ ४६ ॥ अर्थ - ये सभी जन बुरे कामोंसे उपार्जित पापकर्मके उदयसे जन्म लेते हैं, किन्तु फिर भी पाप ही करते हैं। पुण्यका उपार्जन कोई भी नहीं करता ॥ [ आठ कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंमेंसे ८२ पापप्रकृतियाँ होती हैं और ४२ पुण्यप्रकृतियाँ होती हैं। इनके नाम जानने के लिये देखो गोम्मटसार कर्मकाण्ड - गाथा ४१-४४ । अनु० ] भावार्थ- संसारके जीत्र रात-दिन पापके कामोंमें ही लगे रहते हैं । अतः पापकर्मका ही बन्ध करते हैं । इस पापकर्मके कारण उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है। किन्तु पुनः जन्म लेकर मी पापके ही सच में लगे रहते हैं। उनका समस्त जीवन खाने कमाने और इन्द्रियोंकी दासता करनेमें ही बीत जाता है। कोई भी भला आदमी दान, पूजा, तपस्या वगैरह शुभ कामोंके करनेमें अपने मनको नहीं लगाता है ॥ ४७ ॥ अर्थ- सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशमभावसे युक्त तथा अपनी निन्दा और गही करनेवाले विरले जन ही पुण्यकर्मका उपार्जन करते हैं । भावार्थ - जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यदर्शन कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन तीन प्रकारका होता है- औपशमिक, क्षायिक, और क्षायोपशमिक । मिथ्यात्व, सम्यङ् मिध्यास्त्र और सम्यक्त्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, इन सात कर्मप्रकृतियोंके उपशमसे जो सम्यग्दर्शन होता है उसे औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन सातोंके क्षयसे जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायिक कहते हैं । तथा देशघातिसम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहते हुए मिथ्यात्व, सम्यमिध्याश्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क प्रकृतियोंके १ ब म दिरला २ व अजवि ३ व सम्माशट्टी । ४ संयुक्ताः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ संसारानुप्रेक्षा पुण्ण-जुदस्स वि दीसदि' इट्ठ-विओयं अणिटु-संजोयं । भरहो वि साहिमाणो परिजिओ लहुय-भाएण ॥४९॥ [छाया-पुण्ययुतस्यापि दृश्यते इष्टवियोगः अनिष्टसंयोगः । भरतोऽपि साभिमानः पराजितः लघुकमात्रा ॥] दृश्यते ईक्ष्यते [ईक्षते !] । कम् : जियो इटामिन बापुमानितारोप, वैप्रयोगः तम , अनिष्टसंयोगं च अनिष्टानाम् अहिकाटकशत्रुप्रमुखाना संयोगः मेलापकः तम् । कस्य । पुण्ययुक्तस्य शुभप्रकृतिविपासहितस्य, भपिशब्दात् न केवलम् अपुण्ययुतस्य, इष्टोऽपि अनिष्टतामेति । तत्र कथां कधप्रति । भरतोऽपि श्रीमदादिदेवपुत्रोऽपि प्रथमचकवर्सपि साभिमानः सन् सगर्वः सन् पराजितः पराजयं नीतः। केन । लधुभ्राना अनुजेन श्रीबाहुमकिना ॥४॥ सर्वघाती पद्धकोंके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे जो सभ्यग्दर्शन होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिसके तीनोंमेंसे कोई मी एक सम्यक्त्व होता है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्डमें सम्यग्दृष्टिका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-*णो ईदिये विरदो णो जीवे थावरे तसे वा पि । जो सहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९॥" अर्थात्, जो न तो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत है, न त्रस अथवा स्थावर जीवकी हिंसासे ही विरत है। किन्तु जो जिनभगवानके वचनोंपर श्रद्धान करता है, वह अविरतसम्यग्दृष्टि है । जो सम्यग्दृष्टि व्रतसे युक्त होता है, उसे प्रती कहते हैं । व्रती दो प्रकार के होते हैं-एक अणुनती श्रावक और दूसरे महाप्रती मुनि। श्रायकके १२ व्रत होते हैं-[ इन व्रतोंका स्वरूप जाननेके लिये देखो सर्वार्थसिद्धिका ७ वा अध्याय अथवा रसकरंडश्रावकाचारका ३, ४, ५ वौं परिच्छेद । अनु०] पाँच अणुन्नत, तीन गुणावत और चार शिक्षाव्रत । तथा महाव्रती मुनिके पाँच महाव्रत होते हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन्हीं पाँच महाप्रतोंके एकादेश पालन करनेको अणुव्रत कहते हैं । अपने किये हुए पापोंके स्वयं प्रकट करनेको निन्दा कहते हैं, और गुरुकी साक्षीपूर्वक अपने दोनों के प्रकट करनेको गहीं कहते हैं । कषायोंके मन्द होनेसे उत्तम क्षमा आदि रूप जो परिणाम होते हैं, उन्हें उपशम भाव कहते हैं । इन सम्यक्त्व, व्रत, निन्दा, गह, आदि भावोंसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है | किन्तु उनकी ओर विरले ही मनुष्योंकी प्रवृत्ति होती है । अतः विरले ही मनुष्य पुण्यकर्मका बन्ध करते हैं ॥ ४८ ॥ अर्थ-पुण्यात्मा जीवके भी इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग देखा जाता है। अभिमानी भरत चक्रवर्तीको भी अपने लघुभ्राता बाबुबलिके द्वारा पराजित होना पड़ा। भावार्थ-पहली गाथाओंमें पापकर्मसे पुण्यकर्मको उत्तम बतलाकर पुण्यकर्मकी और लोगोंकी प्रवृत्ति न होनेकी शिकायत की थी। किन्तु इसमें कोई यह न समझे कि पुण्यात्मा जीयोंको सुख ही सुख मिलता है । जिन जीवोंके पुण्यकर्मका उदय है, वे भी संसारमें दुःखी देख्ने जाते हैं। उन्हें भी अपने धन, धान्य, स्त्री, पुत्र, पौत्र, मित्र वगैरह इष्ट वस्तुओंका वियोग सहना पड़ता है, और सर्प, कण्टक, शत्रु वगैरह अनिष्ट वस्तुओंका संयोग होजानेपर उन्हें दूर करनेके लिये रात-दिन चिन्ता करनी पड़ती है । अतः यह नहीं समझना चाहिये कि जिनके पुण्यकर्मका उदय है, वे सब सुखी ही हैं । देखो, भगवान आदिनाथके बड़े पुत्र सम्राट भरतको अपने ही छोटे भाई र म स ग दौसा। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा०५०समार-विलय-जोओ' बहु-पुण्णस्स वि ण सहा होदि । तं पुण्णं पि ण कस्स वि सधं 'जेणिष्टिछदं लहदि ॥ ५० ॥ [छाया-सकलार्थविषययोगः महुपुण्यस्यापि न सर्वथा भवति । तत्पुण्यमपि न कस्यापि सर्ष येनेप्सिस लभते ॥] भवति सर्वतः साकल्येन, न इति निषेधे । का। सकलाविषययोगः, अर्था धनधान्यादिपदार्थाः विषयाः पवेन्द्रियगोचराः सकलाः सर्वे च से च अर्थविषयाच सकलार्थविषयाः तेषां योगः संयोगः । कस्य । बहुपुण्यस्य प्रचुरवृषस्य, अपिशब्दात न केवलं स्वरूपपुण्यस्य अपुण्यस्य ब, कस्यापि प्राणिनः तत्पुण्यं न विद्यते येन पुण्येन सर्व समस्तम् ईप्सितं वाञ्छित वस्तु लभते प्राप्नोति ॥ ५० ॥ अथान सारे मनुष्याणां सर्वसामग्रीतुर्लभत्वं गायादशकेना कस्स वि णस्थि कल अहव कलत्तं ण पुत्त-संपत्ती । अह तेसिं संपत्ती सह वि सरोओ हवे देहो ॥५१॥ 'RY [छाया-फस्यापि मास्ति कल अथमा कलत्रं ने पुत्रसंप्राप्तिः । अथ वेषां संप्राप्तिः तथापि सरोगः भवेत् देहः ॥] कस्यापि मनुष्यस्य कल भार्या नास्ति न विद्यते, अथवा कल चेत् तर्हि पुत्रसंपत्तिः पुत्राण प्राप्तिन विद्यते. अथवा तेषो पुत्राणा प्राप्तिश्चेत् तथापि देहः शरीरे सरोगः श्वासोच्छ्वासभगंदरकुटोदर कष्टादिव्याधिर्भवेत् ॥ ५१॥ अहं जीरोओ"देहो तो धण-धष्णाण र्य संपत्ती । अह धण धणं होदि हु तो मरणं झत्ति दुक्केदि' ॥ ५२ ॥ [छाया-अथ नीरोगः देहः तत् धनधाम्याना नैव संप्राप्तिः । अथ धनधान्यं भवति खल्ल तत् मरणं झगिति होते अप अथवा देहः शरीर नीरोगः रोगरहितः तो तहि धनधान्यानां संपसिनव, अपघा धनधान्याना संपत्तिर्भवति चेत्, तर्हि, हु स्फुट, गिति बाल्यकुमारयौवनावस्थाविषु मरणं मृत्युः द्वौकते प्रामोति ॥ ५२ ॥ ___ mples बाहुबलीसे पराजित होना पड़ा और उनका सब अभिमान धूलमें मिल गया [इनकी कथाके लिये आदिपुराण सर्ग ३५-३६ देखना चाहिये । अनु०] || ४९ ॥ अर्थ बहुत पुण्यशालीको भी सकल धन, धान्य, आदि पदार्थ तथा भोग पूरी तरहसे प्राप्त नहीं होते हैं । किसीके मी ऐसा पुण्य ही नहीं है, जिससे सभी इच्छित वस्तुएँ प्राप्त हो सकें । भावार्थ-पूर्वोक्त शुभकार्योंमें प्रवृत्ति करनेसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है, यह पहले कहा है। किन्तु प्रवृत्तिपरक मनुष्यमें वे बुराईयाँ वर्तमान रहती हैं, जिनसे पापकर्मका बन्ध होता है । अतः शुभ कार्यो प्रवृत्ति करते हुए मी कुछ न कुछ पापकर्म भी बँधते ही रहते हैं । फलतः जबतक जीवके साथ घातिकर्म लगे हुए हैं, तबतक पुण्यप्रकृतियोंके साथ पापप्रकृतियाँ मी बँधती ही रहती हैं, अतः ऐसा कोई क्षण ही नहीं होता जिसमें पुण्य ही पुण्यकर्मका बन्ध होता हो, इसलिये पुण्यात्मासे पुण्यात्मा जीबके साथ भी पापकर्म लगे ही रहते हैं और उनके कारण महापुण्यशाली जीवको भी संसारके सभी इच्छित पदार्थ प्राप्त नहीं हो सकते ॥ ५० ॥ अर्थ-किसी मनुष्यके तो स्त्री नहीं है, किसीके ली है तो उसके पुत्र नहीं होता है, किसीके पुत्र भी हुआ तो शरीर रोगी रहता है ॥ ५१ ॥ अर्थ--किसीका शरीर नीरोग हुआ तो धन धान्य सम्पदा नहीं होती। किसीके धन धान्य मी हुआ तो उसकी मृत्यु शीघ्र हो जाती है |॥५२॥ -.-.. --.-..- . यसयलिट्ठ विसनोज। २ लस गसम्बदो, म सम्बदा। ५ जो णिच्छिदं । ४ ल संसार । ५९ स सरोको । ६म अहवणी'। बनिरोओ। ८बव। ९समसग हुक्के । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. संसारानुप्रेक्षा कस्स वि दुट्ठ-कलत्त' कस्स वि दुन्दसण-वसणिओ पुत्तो। कस्स वि अरि-सम-बंधू कस्स वि दुहिदा वि दुश्चरिया ॥ ५३॥ [छाया-कस्यापि दृष्ट कलत्रं कस्यापि दुर्व्यसनम्यसनिकः पुत्रः । कस्यापि अरिसमबन्धुः कस्यापि दुहितापि दुश्चरिता॥ कस्यापि नरस्य दुष्ट कलत्रं दुष्ट दुःशील दुश्चरित्रं मनोषचनकायकुटिलं तश्च तत् कलब व दुष्टकल दुराचारणी भार्या । कस्यापि नरस्यापि पुत्रः आजः दुर्व्यसनव्यसनिकः दुर्यसनेन धूसपलमयपण्यातनापरवधूस्तेयमृगयामिधानेन व्यसन्ति समतः । समिरियाः शत्रुसहशबन्धुजनः कुटुम्बवर्गः । कस्यापि दुहितापि सुतापि दुश्चरित्रा दुःधील| दुराचारिणी ॥५॥ मरदि सुपुत्तो कस्स वि' कस्स वि महिला विणस्सदे इट्ठा । कस्स वि अग्गि-पलिस गिहं कुडंब व डन्झेड ॥ ५४॥ [छाया-मियते खुपुत्रः कस्यापि कस्थापि महिला विनश्यति इष्टा । कस्यापि अमिप्रवीतं गृहं कुटुम्ब च दयते॥] कस्यापि नियते विनश्यति सुपुत्रः त्रिवर्गसाधनसनुजः । कस्यापि नरस्यापि महिला भार्या या वनमा विनश्यति नियन्ते । कस्यापि गृह कुटुम्ब च बन्धुवर्गः दह्यते दाई प्राप्नोति । कीदृक्षम् । अमिप्रलिप्तम् अग्निना परीत व्याप्तम् अनिञ्चलितमित्यर्थः ।। ५४ ।। एवं मणुय-गदीए णाणा-दुक्खाई विसहमाणो वि। ण वि धम्मे कुणदि मेंई आरंभ णेय परिचयइ ॥ ५५ ॥ [छाया-एवं मनुजगतो मानाछुःखानि विषहमाणः अपि । नापि धर्मे करोति मतिम् बारम्भ नैव परित्यजति ।] एवं पूर्वोकप्रकारेण मनुष्यगत्या धर्मे वृषे पुमान मति बुद्धिं नापि कुरुते । नैव परित्यजति नैव परिहरति ।कम् । बारम्भ गृहव्यापारजे प्रारम्भम् । कीदक्षः सन् । नानावुःखानि अनेकाघातृषायोगावियोगभवानि अशर्माणि विषहमाणः क्षममाणः ॥ ५५ ॥ किन्च इत्थ संसारे, अत्र संसारे किचिद्विशेष दर्शयति संधणो वि होदि णिधणो धण-हीणो तह य ईसरो होदि । राया वि होदि भिश्चो मिचो वि य होदि णर-णाहो ॥५६॥ [छाया-सधनोऽपि भवति निर्धनः धनहीनः तथा च ईश्वरः भवति। राजापि भवति भृत्यः मृत्योऽपि च भवति नरनाथः॥] सपनोऽपि धनवानपि काललः निर्धनो धनहीनः दरिद्री भवति, तथा च धनहीनः निर्धनः ईश्वरः भनेकैवार्यअर्थ-किसीकी स्त्री दुष्टा है । किसीका पुत्र जुआ आदि दुव्र्यसनोंमें फंसा हुआ है । किसीके भाई-बन्धु शत्रुके समान वैरी हैं। किसीकी पुत्री दुराचारिणी है ।। ५३ ॥ अर्थ-किसीका सुपुत्र मर जाता है। किसीकी प्रिय स्त्री मर जाती है । किसीका घर कुटुम्ब आगमें पड़कर भस्म होजाता है ।। ५४ ॥ अर्थइस प्रकार मनुष्यगतिमें अनेक दुःखोंको सहते हुए मी जीव न तो धर्ममें ही मन लगाता है, और न आरम्भको ही छोड़ता है ।। ५५॥ इस संसारकी कुछ और भी विशेषता, दिखाते हैं । अर्थ-धनवान निधन हो जाता है। निर्धन धनवान हो जाता है | राजा सेवक हो जाता है और सेवक भी राजा हो जाता है ॥ भावार्थ-इस संसारकी दशा बड़ी विचित्र है । जो आज धनवान है, कल वही निर्धन हो जाता है, और आज जो निर्धन है कल वही मालिक बन जाता है | अधिक क्या ! पलभरमें राजा रक हो जाता है और रक राजा हो जाता है। इसका दृष्टान्त जीरन्धरकुमारके पिता राजा सत्यन्धरकी कथा है। विषयासक्त राजा सस्यन्धरने राज-काजका भार अपने मंत्री काठाङ्गारको सौंप दिया या । काष्ठाकारके - .- -.. मफलता। २ग दुचरित्रा।३-लम सग करस वि मर विसपुत्तो। ४ब विणिस्स। परणाई भा'। ६ गायके आरममें, किंच इत्य संसारे स्वरूपं । कासिके Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [भा०५७संपदा युक्तः राजापि भूपतिरपि मृत्यः सेवको भवति, व पुनः, मृत्योऽपि दासोऽपि नरनाथः समलपृथ्वीपालको राजा काटाहारवत् भवति ।। ५६ ॥ सत वि होदि मित्तो मित्तो वि. य जायदे तहा सत्तू । कम्म-विवागे-वसादो एसो संसार-सम्भावो ॥ ५७ ॥ [छाया-शत्रुः अपि भवति मित्रं मिश्रमपि च जायते तथा शत्रुः । कर्मविपाकवशतः एष संसारखभावः ॥] शत्रुरपि वैयपि मित्रं सखा भवति। रामस्य विभीषणवत् । अपि च तथापि मिन्नमपि शत्रुः वैरी जायते । रावणस्य विभीषणवत् । कुत्तः । कर्मविपाकशात कर्मणाभुदयवशात् । एष पूर्वोकः संसारसद्भायः संसारस्वरूपम् ॥ ५५ ॥ अय देवगतिखरूपं विवृणोति अह कह वि हवदि देवो तस्स वि जाएदे माणसं दुक्ख । दट्टण महड्डीणं' देवाणं रिद्धि-संपत्ती ।। ५८॥ [डाया-अथ कथमपि भवति देवः तस्यापि जायते मानसं दुःसम् । इटा महीनो देवानां ऋद्धिसंप्राप्तिम् ॥] बह अथवा, कथमपि महता कष्टेन भवति जायते । कः । देवः चतुर्णिकायदेवः । तस्य च देवस्य जायते उत्पद्यते। कि तत् । मानसं मनोभन दुःखम् असातम् । किं कृत्वा । हा अवलोक्य । काः। ऋदिसंपत्तीः ऋद्धीनां वैक्रियाहीना संपत्तीः संपदाः । केषाम् । देवानां सुराणां महर्टिकानाम् इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिसुराणाम् ॥ ५८ ॥ इ-विओगं-दुक्खं होदि महड्डीण विसय-तण्हादो । विसय-वसादो सुक्खं जेसि तेसिं कुदो तित्ती ॥ ५९॥ मनमें धूर्तता आई और उसने राजद्रोही बनकर राजमहलको जा घेरा। उस समय रानी गर्भवती थी। राजाने रानीको तो मयूरयंत्रमें बैठाकर आकाशमासे चलता कर दिया और स्वयं युद्धमें मारा गया । मयूरयंत्र रानीको लेकर स्मशानभूमिमें जा गिरा और वहींपर रानीने पुत्र प्रसव किया । इस घटनाका वर्णन करते हुए क्षत्रचूडामणिकारने ठीक ही कहा है, कि प्रातःकालके समय जिस रानीकी पूजा स्वयं राजाने की थी, सन्ध्याके समय उसी रानीको स्मशानभूमिकी शरण लेनी पड़ी । अतः समझदारोंको पापसे डरना चाहिये ।। ५६ ॥ अर्थ-कर्मके उदयके कारण शत्रु भी मित्र हो जाता है और मित्र भी शत्रु हो जाता है । यही संसारका स्वभाव है ॥ भावार्थ-इस संसारमें सब कुछ कर्मका खेल है ! शुभ कर्मका उदय होनेसे शत्रु भी मित्र हो जाता है। जैसे, रावणका भाई विभीषण रामचंद्रजीका मित्र बन गया था । और अशुभ कर्मका उदय होनेसे मित्र भी शत्रु हो जाता है । जैसे, वही विभीषण अपने सहोदर रावणका ही शत्रु बनगया था । संसारका यही नग्न स्वरूप है ।। ५७ ॥ अब देवगतिका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-अथवा जिस किसी तरह देव होता है, तो महर्भिक देवोंकी ऋद्धिसम्पदाको देखकर उसे मानसिक दुःख होता है। भावार्थ-मनुष्यगतिसे निकलकर जिस किसी तरह बड़ा कष्ट सहकर देव होता है, क्योंकि देव पर्याय पाना सहज नहीं है, तो वहाँ भी अपनेसे बड़े महाऋद्धिके धारक इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देवोंकी विभूतिको देखकर मन ही मन झुरता है ॥ ५८ ॥ अर्थ-महर्द्धिक देवोंको विषयसुखकी बड़ी तृष्णा होती है, अतः उन्हें भी अपने प्रिय देव-देवाशनाओंके वियोगका दुःख होता है। जिनका सुख विषयोंके अधीन है, उनकी तृप्ति बमस विवाय1 २ ल म स ग य । म स ग महीणं । ४ म विजय, म विभोगे। ५ व महागा, इम सग महङ्गीण। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१ ] ३. संसारानुप्रेक्षा २७ [ छाया - इष्ट वियोगदुःखं भवति महद्धानां विषयतृष्णातः । विषयवशात् सुखं येषां तेषां कुतः तृतिः ॥] दोदि भवति । किं तत् । दुःखम् । कीदृक्षम् । इष्टबियोगम् इष्टानां देवाप्सरोविषयादीनां वियो गजं विप्रयोगस्तत्संभवम् । केषाम् । महान महर्द्धिकानाम् इन्द्र सामानिक श्रायात्रिंशादिदेवानाम् । कृतः । विषयतृष्णातः पञ्चेन्द्रियविषयसुखवाञ्छातः । ये जीवानां विषयवशात् स्पर्शनादिविषयसुत्रवशतः सुखं शर्म तेषां जीवानां कुतः तृप्तिः संतोषः । न कुतोऽपि ॥ ५९ ॥ सारी रिय- दुक्खादो माणस दुक्खं हवेइ अइ-परं । माणस - दुक्ख जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ॥ ६० ॥ [छाया - शारीरिकदुःखत्तः मानखदुःखं भवति मतिप्रचुरम् । मानसः स्वयुतस्य हि विषयाः अपि दुःखावहाः भवन्ति ॥ ] ननु देवानां शारीरिकं दुःखं प्रायेण न संभवति मानसदुःखं कियन्मात्रम् इत्युके बाववीति । मानसदुःखम् अतिप्रचुरम् अतिषनं भवेत् । कुतः । शारीरिकदुःखात् शरीरसंभवाशर्मतः । हि यस्मात् मानतदुः खयुतस्य पुंसः विषया अपि इन्द्रियगोचरा अपि दुःखावद्दाः दुःखकारिणो भवन्ति ॥ ६० ॥ देवार्ण पि य सुक्खं मणहर - विसएहिं कीरदे' जदि हि । विस वर्स' जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥ ६१ ॥ [ छाया देवानामपि च सुखं मनोहर विषयैः क्रियते यदि हि । विषयवशं यत्सुखं दुःखस्यापि कारणं तदपि ॥ ] हि स्फुटम् यदि चेत् क्रियते निष्पाद्यते । किं तत् । सुखं शर्मे । केषाम् । देवानाम् अपिशब्दात् न केवलमन्येषाम् । कैः । मनोहर विषयैः देवी नवशरीर विक्रिया प्रमुखैः । यद् विषयवशं विषयाधीनं सुखं तदपि विषयवशं सुखम् । कालान्तरे द्रव्यान्तरसंबन्धे च तदपि सुखं दुःखस्य कारणं हेतुर्जायते ॥ ६१ ॥ कैसे हो सकती है ? धनार्थ-समें यही दुःखी नहीं हैं, किन्तु महर्द्धिक देव भी दुःखी हैं। उन्हें भी विषयोंकी तृष्णा सतत सताती रहती है। अतः जब कोई उनका प्रियजन स्वर्गसे च्युत होता है, तो उन्हें उसका बड़ा दुःख होता है । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह ठीक ही है, क्योंकि जिनका सुख स्वाधीन नहीं है, पराधीन है, तथा जो विषयोंके दास है, उनको सन्तोष कैसे हो सकता है ? ॥ ५९ ॥ अर्थ - शारीरिक दुःखसे मानसिक दुःख बड़ा होता है । क्योंकि जिसका मन दुःखी होता है, उसे विषय भी दुःखदायक लगते हैं । भावार्थ - शायद कोई यह कहे कि देवोंको शारीरिक दुःख तो प्रायः होता ही नहीं है, केवल मानसिक दुःख होता है, और वह दुःख साधारण है। तो आचार्य कहते हैं, कि मानसिक दुःखको साधारण नहीं समझना चाहिये, वह शारीरिक दुःखसे भी बड़ा है; क्योंकि शारीरिक सुखके सब साधन होते हुए भी यदि मन दुःखी होता है तो सब साधन नीरस और दुःखदायी लगते हैं । अतः देव भी कम दुःखी नहीं हैं ॥ ६० ॥ अर्थयदि देवोंका भी सुख मनको हरनेवाले विषयोंसे उत्पन्न होता है, तो जो सुख विषयोंके आधीन है, वह दुःखका भी कारण है । भाषार्थ सब समझते हैं कि देवलोकमें बड़ा सुख है और किसी दृष्टिसे ऐसा समझना ठीक भी है, क्योंकि वैषयिक सुखकी दृष्टिसे सत्र गतियोंमें देवगति ही उत्तम है । किन्तु वैषयिक सुख विषयोंके अधीन है और जो विषयोंके अधीन है वह दुःखका भी कारण है । क्योंकि जो विषय आज हमें सुखदायक प्रतीत होते हैं, कल ने ही दुःखदायक लगने लगते हैं । जब तक हमारा मन उनमें लगता है, या जब तक वे हमारे मनके अनुकूल रहते हैं, तब तक वे १ वि । २ ग अतिन्द्रय । लमसग कीरण । ४ न विसर ५ ग विसं Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा०६२एवं सुट्ट असारे संसारे दुक्ख-सायरे घोरे । किं कत्थ वि अस्थि सुहं वियारमाणं सुणिग्छयदो ॥६॥ [छाया-एवं सुष्टु असारे संसारे दुःखसागरे घोरे । कि कुत्रापि अस्ति सुखं विधार्यमाणं सुनिश्चयतः ॥ ] एवं चतुर्गतिष दुःखसुखभावस्योपसंहार दर्शयति। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण मुनिश्चयतः परमार्थतः विचार्यमाणेच बुधाक चतुर्गतिसार सुखं रुमीत । कमी हसि भूते संखारे। मुटु असारे अतिशयेन सारव जिते। पुनः कीदृझे । दुःखसागरे अमुलसमुद्रे, घोरे रौदे ॥ ६२ ॥ अथ जीवानाम् एकत्र स्थिती नियतत्वं नास्तीत्वाचेदयति दुकिय-कम्म-वसादो राया वि य असुह-कीडओ होदि । तत्येव य कुणइ ई पेक्वंह मोहस्स माहप्पं ॥ ६३ ॥ [छाया-दुष्कृतकर्मवशात् राजापि च अशुचिकीटकः भवति । तत्रैव च करोति रति प्रेक्षचं मोहस्य माहात्म्यम् । च पुनः, राजापि भूपतिरपि न केवलमन्यः भवति जायते । कः । अशुचिकीटकः विष्ठाकोठकः । कृतः । दुःकर्मवशात् पापकर्मोदयवशतः, च पुनः, तत्र विष्टामध्ये रति राग कुरुते सुखं कृत्वा मन्यते: पश्यत यूयं प्रेक्षच मोहस्य मोहनीयकर्मणः माहात्म्यं प्रावस्यं यथा ॥६॥ येन अधैकलिन् मवे अनेके संभया जायन्ते इति प्ररूपयति हमें सुखदायक मालूम होते हैं, किन्तु मनके उधरसे उचटते ही वे दुःखदायक लगने लगते हैं । या आज हमें जो वस्तु प्रिय है, उसका वियोग हो जानेपर वही दुःखका कारण बन जाती है । अतः विषयमुख दुःखका भी कारण है ॥ ६१॥ अर्थ-इस प्रकार परमार्थसे विचार करनेपर, सर्वथा असार, दुःखोंके सागर इस भयानक संसारमें क्या किसीको भी सुख है ? || भावार्थ-चारगतिरूप संसारमें सख-दःखका विचार करके आचार्य पलते हैं. कि निक्षयनयसे विचार कर देखो कि इस संसारमें क्या किसीको भी सच्चा सुख प्राप्त है ! जिन्हें हम सुखी समझते हैं, वस्तुतः वे भी दुःखी ही है। दुःखोंके समुद्रमें सुख कहाँ! ।। ६२ ।। अब यह बतलाते हैं कि जीवोंका एक पर्यायमें रहना भी नियत नहीं है । अर्थ-पापकर्मके उदयसे राजा भी मरकर विष्ठाका कीड़ा होता है, और उसी विष्ठामें रति करने लगता है। मोहका माहात्म्य तो देखो ॥ भावार्थ-विदेह देशमें मिथिला नामकी नगरी है । उसमें सुभोग नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम मनोरमा था । उन दोनोंके देवरति नामका युवा पुत्र था। एक बार देवकुरु नामके तपखी आचार्य संघके साथ मिथिला नगरीके उधानमें आकर ठहरे। उनका आगमन सुनकर राजा सुभोग मुगियोंकी बन्दना करनेके लिये गया। और आचार्यको नमस्कार करके उनसे पूछने लगा--मुनिराज ! मैं यहाँसे मरकर कहाँ जन्म बँगा! राजाका प्रश्न सुनकर मुनिराज बोले-'हे राजेन्द्र | आजसे सातवें दिन बिजलीके गिरनेसे तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी और तुम मरकर अपने अशौचालयमें टट्टीके कीड़े होओगे । हमारे इस कंपनकी सध्यताका प्रमाण यह है, कि आज जब तुम यहाँसे जाते हुए नगरमें प्रवेश करोगे तो तुम मार्गमें एक भौरेकी तरह काले कुत्तेको देखोगे ।' मुनिके वचन सुनकर राजाने अपने पुत्रको बुलाकर उससे कहा, 'पुत्र ! आजसे सातवें दिन मरकर मैं अपने अशौचालयमें टट्टीका कीड़ा हूँगा। तुम मुझे मार देना।' पुत्रसे ऐसा कहकर राजाने अपना राजपाट छोड़ दिया और बिजली गिरनेके भयसे जलके अन्दर बने हुए महलमें छिपकर बैठ गया। सातवें दिन बिजलीके गिरनेसे राजाकी मृत्यु हो गई १व पेराहु, क म ग पिक्सह । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. संसारानुप्रेक्षा . पुसो वि भाउ जाओ सो चिय भाओ वि देवरो होदि । ...माया होदि सक्सी अणणो वि य होदि' भत्तारो ॥ ६४॥ यम्मि भने एमेशभा होति पय-जीनस । अण्ण-भये किं भण्णइ जीवाणं धम्म-रहिदाणं ॥ ६५ ॥ युगलम् [छाया-पुत्रोऽपि भ्राता जातः स एव भ्रातापि देवरः भवति । माता भवति सपनी जनकोऽपि च भवति मर्ता॥ एकस्मिन् भवे एते संबन्धाः भवन्ति एकजीवस्य । अन्यभवे किं भव्यते जीवानां धर्मरहितानाम् ॥1 एकजीवस्य एक प्राणिनः एकस्सिव भवे जन्मनि एते पूर्वोक्ताः संबन्धा भ्रातपुत्रादिरूपेण संयोगाभवन्ति जायन्ते । के। पुत्रः तनुजः प्राता चान्धवो जानः अभूत् । सोऽपि च भ्राता देव भवति । माता जननी सपनी भर्तृभार्या भवति । जनकोऽपि व पितापि भत्ता बलभो भवति । अन्यभवे परभवे धर्मरहिताना किं भव्यते कि कप्यते । वसन्ततिलकायाः वेश्यायाः धनदेवस्य कमलायाश्च एते पूर्वोका दृष्टान्ताः ॥ सत्तं च । मालवदेशे उध्वमिन्यो राजा विश्वसेनःश्रेष्ठी मुदत: बोरशकोरिद्रष्यस्वामी, वसन्ततिलका वैश्या। सा सुदन गृहवासे भूता। सार्षिणी सती वण्डकाशश्वासादिरोगाकान्ता म त्यता। खएहे सा वसन्ततिलका बालयुगले पुनं पुत्री प्रसूता । उमिया रनकम्बलेनावृत्य दक्षिणदिशि प्रस्तोल्यां सा कमला पुत्री मुक्ता। प्रयागवासिसुकेतुसार्थवाहेन सुप्रभाप्रियायाः दत्ता । तथैवोत्तरदिकि प्रतोयो पुत्रो धनदेवो मुक्तः सन् साकेतपुरस्थसुभद्रेण सुबतायाः दाः । पूर्वोपार्जितापात् सयोः धनदेवकमलयोः दम्पतीरवं जातम् । धनदेव उजयिन्या व्यापारार्थ गतः तया पसन्ततिलकया वेश्यया सह हुन्धः । ततस्तयोर्वष्णनामा बालो जातः । कमलया श्रीमुनिवः पृeः । तेन श्रीमुनिदत्तेन सर्वः संबन्धः कथितः । कथं तत् । उज्जयिन्यां विप्रः सोमशर्मा, भार्या काश्यपी, और वह भरकर अपने अशौचालयके विष्ठामें सफेद कीड़ा हुआ। पुत्रने जैसे ही उसे देखा और वह उसे मारनेको प्रवृत्त हुआ, वह कीड़ा विष्ठामें घुस गया | संसारकी यह विचित्रता देखकर पुत्रको बड़ा अचरज हुआ और वह विचारोंमें डूब गया । संसारकी यह स्थिति कितनी करुणाजनक है ॥ ६३ ॥ अब कहते हैं कि एक ही भवमें अनेक नाते हो जाते हैं । अर्थ-पुत्र भी माई होता है । वह भाई भी देवर होता है। माता सौत होती है । पिता भी पति होता है । जब एक जीवके एकहीं मवमें ये नाते होते हैं, तो धर्मरहित जीवोंके दूसरे भवमें कहना ही क्या है ? भावार्थ-जैन शास्त्रोंमें अठारह नातेकी कथा प्रसिद्ध है। उसी कथाके प्रमुख पात्र धनदेव और पात्री वसन्ततिलका वेश्या तथा उसकी पुत्री कमलाके पारस्परिक सम्बन्धोंको लेकर उक्त बातें कही गई हैं । कया इस प्रकार है-मालवदेशको उज्जैनी नगरीमें राजा विश्वसेन, सेठ सुदत्त और वसन्ततिलका वेश्या रहती थी। सेठ सुदत्त सोलह करोड़ द्रव्यका खामी था । उसने बसन्ततिलका बेश्याको अपने घरमें रखलिया । वह गर्भवती हुई और खाज, खाँसी, श्वास आदि रोगोंने उसे घेर लिया । तब सेठने उसे अपने घरसे निकाल दिया । अपने घरमें आकर वसन्ततिलकाने एक पुत्र और एक पुत्रीको जन्म दिया । खिन्न होकर उसने --- --- -. .- -- --. १लम स ग विय। २ ल म सगोद। ३ एषा गाथा ल-पुस्तके नास्ति । ४ इस गाथाके अनन्तर नीचे लिखा हुआ अधिक पाड, जैसा मिला, लिखा है। 4-"वसंततिलयाथाणदेवपउमावणि त्यि दिखता । माया मति जय देवरो सिपुत्तो सि पुसपुतो सि । पिरब्बर सि बालय दोसि तत्तकणं ॥ ६६ ॥ तुझ पिया मम भाया ससरो पुत्तो पाय जगणो य । तह य पियाम हो। वालमत्तणन्थकेणं ।। ६७५ माया य तुज्श वालय मम जपणी साय सचकी या दुभाउजवा य चियामही य इत्येष जाया या ॥६६॥1 मवसंततिघ्या चणदेवपउमाणाणि दिटुंता वालाय णिसूणहि क्यणं तुसरिसई टुति अदुदह नसा ॥६५॥ पुरा भत्तीजउ भाउ देवरु पित्तिय पुत्तो भो ।। ६६ ।। तुलु पियरो म पियरीयामोतार हवा भत्तारो। मायउता बि पुत्तो ससुरु इवय [] पालया मज्झ ।। ६७ || तु जणणी तुर भजा पियाम हि ता य मायरी। सबई हवा बा वा सा सुघ कहिया भट्टदहणत्ता ।। ६८।। ५ल संबंधा जायंले उत्पचन्त। ६फ देवर भत्रनुमो भवति । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०६५तयोः पुत्री अमिभूतिसोमभूतिनामानी द्वावपि बहिः पटिस्वा आगच्छन्त्री जिनदत्तपुत्रमनेः मातरं जिनमत्ययिका शरीरसमाधानं पृच्छन्तीम् बालोक्य जिनमवश्वगुरमुनेत्र वधूटिकासुभनायिका शरीरसमाधानं पृच्छन्तीमालोक्य द्वाभ्यो भ्रातृभ्याम् उपहास्यं कृतम् । तरुणस्य श्रद्धा वृद्धस्य तरुणी पात्रा विपरीतं कृतमिति । तभोपार्जितकर्मवशात् कालेना. प्रोजयिन्या सोमशर्मा मृत्वा वसन्तसेनासुता वसन्ततिलका जाता, अभिभुतिसोमभूतिद्वन्द्वं मृत्वा तस्याः शिशुयुग्म कमलाधनदेवपुत्रपुत्रीयुग्मं यथासंख्य बातम्, काश्यपीत्वरीवरुणशिशुत्वं प्राप्ता । सर्वमेतत्वा जातिसरी भूत्वाऽणुवतं कास्वा उजयिनी गत्वा वसन्ततिलकागृह प्रविश्य पालणस्थं वरुणम् आन्दोलयति। अक्तं च । 'चालय णिसुणसु क्यणं तुज्न सरिस्सा हि अवह पत्ता। पुत्तु भतिजउ भायज देवर पित्तियउ पोसजा मम भर्तुः पुत्रत्वात त्वं पुत्रः।। धनदेवमातुः पुत्रत्वात् त्वं बालो भ्रासृष्यः । २ । त्वन्मवेकमातृत्वात् स्वं मम भ्राता । ३ । धन देवस्य लघुभ्रातृस्वात् त्वं मम देवरः । ४ । धनदेवो मम तातः तशाता त्वं न मे पितृव्यः । ५। भई वेश्यासपरनी वेन धनदेवो मस्पुत्रः स्पापिषं पुत्रः तस्मान्मम पौत्रस्त्वम् । ६ । इति शिशुना सह संबन्धः।तुह पियरो मई पियरी पियामहो तह यहबाइ मारो। भायत तह वि य पुत्तो ससुरो हबई स बालया मजन धनदेवो वसन्ततिलकामतेरवात् मम पिता । १। त्वं मम पितृम्मतवापि सपनदेवः सातत्यान मे पितामहः । ३। तथा मम सोऽपि भो । ३। एकमातृत्वात् सच मम भ्राता। ४ । अई वैश्यायाः सपत्नी, स च तस्या वैस्मायाः पुत्रत्वात् ममापि पुत्रः । ५ । वैश्या मे वरई तस्था पधूः, मनदेवो वेश्यामत्वात् मदीयः श्वचरः । ६ । इति धनदेवेन सह संबन्धः ॥ 'भाउजा मि तुम वा पियामही तह म मागरी सपई । हवा यह तह सासू एकहिया मदद णता॥' तव मातृभायोस्वात मम भ्रातृजाया । १। तब मम च रमकम्बलमें लपेट कर कमला नामकी पुत्रीको तो दक्षिण ओरकी गलीमें डाल दिया। उसे प्रयोगका व्यापारी सुकेत लेगया और उसने उसे अपनी सुपुत्रा नामकी पत्नीको सौंप दिया। तथा धनदेव पुत्रको उसी तरह रनकम्बलसे लपेटकर उत्तर ओरकी गलीमें रख दिया। उसे अयोध्यावासी सुभद्र ले गया और उसने उसे अपनी मुव्रता नामकी पनीको सौंप दिया । पूर्वजन्ममें उपार्जित पापकर्मके उदयसे धनदेव और कमलाका आपसमें विवाह होगया । एक बार धनदेव व्यापारके लिये उज्जैनी गया । वहाँ वसन्ततिलका वेसासे उसका सम्बन्ध होगया । दोनोंके सम्बन्धसे करुण नामका पुत्र उत्पन्न हुधा । एक बार कमलाने श्रीमुनिदत्तसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त पूछा । श्रीमुनिदत्तने सब सम्बन्ध बतलाया, जो इस प्रकार है। उज्जैनीमें सोमशर्मा नामका ब्राह्मण था । उसकी पत्नीका नाम काश्यपी या। उन दोनोंके अग्निभूति और सोमभूति नामके दो पुत्र थे । वे दोनों परदेशसे विद्याध्ययन करके लौट रहे थे। मार्गमें उन्होंने जिनमति आर्यिकाको अपने पुत्र जिनदत्तमुनिसे कुशलक्षेम पूछते हुए देखा, तथा सुभद्रा आर्यिकाको अपने श्वशुर जिनभद्रमुनिसे कुशलक्षेम पूछते हुए देखा । इसपर दोनों भाईयोंने उपहास किया 'जवानकी स्त्री बूढ़ी और बुढ़ेकी स्त्री जवान, विधाताने अच्छा उलट फेर किया है। कुछ समय पश्चात् अपने उपार्जित कर्मोंके अनुसार सोमशर्मा ब्राह्मण भरकर उज्जैनीमें ही वसन्तसेनाकी पुत्री वसन्ततिलका हुई और अग्निभूति तथा सोमभूति दोनों मरकर उसके धनदेव और कमला नामके पुत्र और पुत्री हुए । बामणकी पली व्यभिचारिणी काश्यपी मरकर धनदेवके सम्बन्धसे वसन्ततिलकाके वरुण नामका पुत्र हुई । इस कथाको सुनकर कमलाको जातिस्मरण हो आया। उसने मुनिराजसे अणुव्रत ग्रहण किये और उज्जैनी जाकर वसन्ततिलकाके घरमें घुसकर पालनेमें पके हुए वरुणको झुलाने लगी और उससे कहने लगी-१ मेरे पतिके पुत्र होनेसे तुम मेरे फलीस्वा। र सर्वत्र पालहेय इति पाठः। ३ सर्वत्र पौरख इति पास। ४ सर्वत्र मुटु इति पाठः । ५ सर्वत्र तर असा इति पाठः। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७] ३. संसारानुप्रेक्षा ३१ पनदेवः पिता, तस्यापि वेश्या माता, तेन मे पितामही सा।।धनदेवस्य तथापि सा मातृत्वात् ममापि माता ।। मतभार्यात्वात् सा मे सपानी।४। धनदेवो मस्सपत्नीपुत्रत्वात् ममापि पुत्रस्तद्वाशेरवान् मधीया सा वेश्या वधूः । ५ । अई धनदेवभार्थी तस्य सा माता सेन में श्वभूः । ६। एतच्छ्रुत्वा वेश्याधनदेवकमलावरुणादयः हातवृतान्ताः जातस्मरीभूताः प्रतिबुद्धाः तपो गृहीत्वा च खग गता इति धनदेवादिष्टान्तकथा ॥६४-६५॥ बच पञ्चविधा संसारस्य नामानि निर्दिशति संसारो पंच-विहो दवे खेत्ते तहेव काले य। भव-भमणो य चउत्थो पंचमओ भाव-संसारो ।। ६६ ॥ [छाया-संसारः पञ्चविधः द्रव्ये क्षेत्रे तथैव काले च । भवभ्रमणश्च चतुर्थः पञ्चमकः भाषसंसारः ॥] संसरणं (संसारः परिवर्तन भ्रमणमिति यावत् पञ्चविधः पञ्चप्रकारः । प्रथमो दृष्यसंसार१, द्वितीयः क्षेत्रसंसारः २, तब तृतीयः कालसंसारः ३, च पुनः चतुर्थो भवभ्रमणः भवसंसारः ४, पञ्चमो भावसंसार: ५॥६६॥ अथ प्रथमदव्य. परिवर्तनखरूप निरूपयति बंधदि मुंचंदि जीवो पडिसमयं कम्म-पुग्गला विविहा । णोकम्म-पुग्गला वि य मिच्छत्त-कसाय-संजुत्तो ॥ ६७॥' पुत्र हो । २ मेरे भाई धनदेवके पुत्र होनेसे तुम मेरे भतीजे हो । ३ तुम्हारी और मेरी माता एक ही है, अतः तुम मेरे भाई हो । ४ धनदेवके छोटे भाई होनेसे तुम मेरे देवर हो । ५ धनदेव मेरी माता वसन्ततिलकाका पति है, इसलिये धनदेव मेरा पिता है। उसके भाई होनेसे तुम मेरे काका हो। ६ मैं वेश्या वसन्ततिलकाकी सौत हूँ । अतः धनदेव मेरा पुत्र है । तुम उसके भी पुत्र हो, अतः तुम मेरे पौत्र हो। यह छह नाते बच्चेके साथ हुए। आगे-१ वसन्ततिलकाका पति होनेसे धनदेव मेरा पिता है । २ तुम मेरे काका हो और धनदेव तुम्हारा भी पिता है, अतः वह मेरा दादा है | ३ तथा वह मेरा पति भी है । ४ उसकी और मेरी माता एक ही है; अतः धनदेव मेरा भाई है । ५ मैं वेश्या वसन्ततिलकाकी सौत हूँ और उस वेश्याका वह पुत्र है; अतः मेरा भी पुत्र है । ६ वेश्या मेरी सास है, मैं उसकी पुत्रवधू हूँ और धनदेव वेश्याका पति है; अतः वह मेरा श्वशुर है । ये छह नाते धनदेवके साथ हुए । आगे--१ मेरे भाई धनदेवकी पत्नी होनेसे वेश्या मेरी भावज है । २ तेरे मेरे दोनोंके धनदेव पिता हैं और वेश्या उनकी माता है; अतः यह मेरी दादी है। ३ धनदेवकी और तेरी भी माता होनेसे वह मेरी भी माता हैं । ४ मेरे पति धनदेवकी भार्या होनेसे वाह मेरी सौत है | ५ धनदेय मेरी सौतका पुत्र होनेसे मेरा भी पुत्र कहलाया। उसकी पत्नी होनेसे वह वेश्या मेरी पुत्रवधू है। ६ मैं धनदेवकी स्त्री हूँ और वह उसकी माता है; अत: मेरी सास है | इन अट्ठारह नातों को सुनकर वेश्या, धनदेव आदिको भी सब बातें ज्ञात होजानेसे जातिस्मरण हो आया । सभीने जिनदीक्षा लेली और मरकर स्वर्ग चले गये । इस प्रकार एक ही भवमें, अट्ठारह नाते तक होजाते हैं, तो दूसरे भावकी तो कथा ही क्या है ? ॥ ६४-६५ ॥ अब पाँच प्रकारके संसारके नाम बतलाते हैं। अर्थ-संसार पाँच प्रकारका होता है-द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार || भावार्थ-परिभ्रमणका नाम संसार है, और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके निमित्तसे वह पाँच प्रकारका होता है ।। ६६ ।। पहले द्रव्य परिवर्तन या द्रव्यसंसारका १ बम भवणो। २ ब मुच्चदि । ३ गाभाम्ते बम'वे'। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAM TAg. -- 798 खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०६७[छाया-बध्नाति मुन्नति च जीवः प्रतिसमय फमैपुद्गलान् विविधान् । नोकर्मपुद्गलानपि च मिथ्यात्वकषायसंयुक्तः॥] जीयः संसारी प्राणी पश्चमिध्यास्वपश्चविंशतिकषायवशात् प्रतिसमय, समय समय प्रति, कर्मपुतलान् शामावरणादिसप्तकर्मयोग्यान् कर्मवर्गणायातपुतलस्कन्धान, सिम्धरूक्षवर्णगन्धादिभिः तीनमन्दमध्यमभावेन यथावस्थितान् योग्यान्न भनेकप्रकारान्, अपि च, नोकर्मपुरलान्, शरीरत्रयस्य पदपर्याप्तियोग्यपुदलान, मधाति योगवशात् बन्ध नयति, मुश्चति स्वस्थितिकाल स्थित्वा जीर्णयति । उत्तं च सर्वेऽपि पुद्रलाः खल्वेकेनात्तोनिताच मीथेन । बसकहानन्तमूस्वः पुदलपरिवर्तसंसारै ॥ इति भगहिदमिस्सयगहिद मिस्सममहिद तहेव गहिद च । मिस्स गहिदाग हिदं गहिद मिस्सं अगहिद च ।।'..x, x,..१,.x,..x,..१xx.,xx.,xx,xx., xx ..xxxx1,xx,xx.,xx,xx१,xx.। ११४, १४, ११., ११x,११४, ११.॥६॥अथ क्षेत्र परिवर्तनमाइ स्वरूप कहते हैं । अर्थ-मिथ्या और कषायसे युक्त संसारी जीव प्रतिसमय अनेक प्रकारके कर्मपुनलों और नोकर्मपुगलोंको भी ग्रहण करता और छोड़ता है | भावार्थ-कर्मबन्धके पाँच कारण है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान है, क्योंकि ये मोइनीयकर्मके भेद हैं और सब कमि मोहनीयकर्म ही प्रधान और बलवान है । उसके अभावमें शेष सभी कर्म केवल निस्तज ही नहीं होजाते, किन्तु संसार परिभ्रमणका चक्र ही रुक जाता है। इसी लिये आचार्यने मिथ्यात्व और कषायका ही ग्रहण किया है । मिथ्यात्वके पाँच भेद हैं और कषायके पश्चीस भेद हैं । इन मिथ्यात्व और कषायके आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कमोके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको प्रतिसमय ग्रहण करता है । लोकमें सर्वत्र कार्माणवर्गणाएँ भरी हुई हैं, उनमेंसे अपने योग्यको ही ग्रहण करता है । तथा आयुकर्म सर्वदा नहीं बँधता, अतः सात ही कमोंके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको प्रतिसमय ग्रहण करता है । और आबाधाकाल पूरा होजानेपर उन्हें भोगकर छोड़ देता है । जैसे प्रतिसमय कर्मरूप होनेके योग्य पुगलस्कन्धोंको प्रहण करता है, वैसे ही औदारिक, वैक्रियिक और आहारक, इन तीन शरीरोंकी छह पर्याप्तियोंके योग्य नोकर्मपुद्गलोंको भी प्रतिसमय ग्रहण करता है और छोड़ता है । इस प्रकार जीव प्रतिसमय कर्मपुद्गलों और नोकर्मपुद्गलोंको ग्रहण करता और छोड़ता है । किसी विवक्षित समयमें एक जीवने ज्ञानावरण आदि सात कोंके योग्य पुगलस्कन्ध ग्रहण किये और आबाधाकाल बीतजानेपर उन्हें भोगकर छोड़ दिया । उसके बाद अनन्त बार अगृहीतका प्रहण करके, अनन्त बार मिश्रका ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीतका ग्रहण करके छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुल वैसे ही रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि भावोंको लेकर, उसी जीवके वैसे ही परिणामोंसे पुनः कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं । इसी तरह किसी विवक्षित समयमें एक जीवने तीन शरीरोंकी छह पर्याप्तियोंके योग्य नोकर्मपुद्गल प्रहण किये और भोगकर छोड़ दिये, पूर्वोक्त क्रमके अनुसार जब वे ही नोकर्मपुद्गल' उसी रूप-रस आदिको लेकर उसी जीवके द्वारा पुनः नोकर्मरूपसे ग्रहण किये जाते हैं, उसे नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन कहते हैं । कर्मव्य परिवर्तन और नोकर्मदव्यपरिवर्तनको द्रव्यपरिवर्तन या द्रव्यसंसार कहते हैं। कहा भी है-'पुद्गलपरिवर्तनरूप संसारमें इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमशः अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ा ।' जो पुद्गल पहले ग्रहण किये हों उन्हें गृहीत कहते हैं । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. संसारानुप्रेक्षा ३३ सो को वि णस्थि देसो लोयायासस्स गिरवसेसरस । जत्थ ण सबो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ॥६८॥ [छाया-स कोऽपि नास्ति देशः लोकाकाशस्य निरवशेषस्य। पत्र न सर्वः जीवः जातः मृतश्च बहुवारम् ॥] लोकाशाशस्य श्रेणि छ धनमात्रस्य (= ३४३) निरबशेषस्य समप्रस्मसकोऽपि देशः प्रदेशो नास्ति न विद्यते । स का यत्र सर्यो जीवः समस्त संसारी जीवः, बहुबारम अनेकवारे यथा भवति तथा, न जातः न उत्पन्नः, न मृतब न मरण प्राप्तः । क्षेत्रपरिवर्तन देधा खपरमेदात् । तत्र म्वक्षेत्रपरिवर्तनं कश्चित्सूक्ष्मनिगोदजीवः सूक्ष्मजघन्यनिगोदावगाहेन उत्पमः स्खस्थितिं मीविश्वा मृतः पश्चाशोकादशाहोर महतारमैन मायामासान्तं अवगाहनानि करोति । परक्षेत्रपरिवर्तनं तु सूक्ष्मनिगोदोऽपर्याप्तकः सर्वं जयन्यावगाहनशरीरो लोकमध्या प्रदेशान् खशरीरमध्याष्टप्रवेशान् कृस्योत्पन्नः क्षुदभवकालं जीविस्वा मृतः । स एव पुनतेनैवावगाइनेन द्विवार त्रिवारम् एवं यावत् घनालासंख्येयभागवारं तत्रवोत्पनः पुनः एकप्रदेशाधिकभावेन सर्ष लोकं त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशत ३३ रजप्रमाणे खजन्मक्षेत्रभाव मयति इति परक्षेत्रपरिवर्तनम् । उक्तं च । 'सव्वाद लोयखेते कमसो त गस्थि जंग उच्छिण्णो । उग्गाहणार बहुसो हितो खेत्तसंसारे ॥१८॥ अथ कालपरिवर्तनं प्रतनोति जो पहले ग्रहण न किये हों, उन्हें अगृहीत कहते हैं । दोनोंके मिलावको मिश्र कहते हैं । इनके ग्रहणका क्रम पूर्वोक्त प्रकार है। [इस क्रमको विस्तारसे जाननेके लिये इसी शाखमालासे प्रकाशित गो० जीवकाण्ड (पृ० २०४) देखना चाहिये । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद किये गपे हैं-बादर द्रव्यपरिवर्तन और सूक्ष्म द्रव्यपरिवर्तन । दोनोंके खरूपमें भी अन्तर है, जो इस प्रकार है-'जितने समयमें एक जीव समस्त परमाणुओंको औदारिक, वैक्रिय, तेजस, भाषा, आनप्राण, मन और कार्माणशरीर रूप परिणमाकर, उन्हें भोगकर छोड़ देता है, उसे बादर द्रव्यपरावर्त कहते हैं । और जितने समयमें समस्त परमाणुओंको औदारिक आदि सात वर्गणाओंमेंसे किसी एक वर्गणारूप परिणमाकर उन्हें भोगकर छोड़ देता है, उसे सूक्ष्म द्रव्यपरावर्त कहते हैं ।' देखो हिन्दी पंचमकर्मग्रन्ध गाथा ८७ का, अनु० ॥ ६७ ॥ अब क्षेत्रपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-समस्तलोकाकाशका ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है, जहाँ सभी जीव अनेक बार जिये और मरे न हों । भावार्थ-यह लोक जगतश्रेणीका घनरूप है । सात राजूकी जगतश्रेणी होती है। उसका धन ३४३ राजू होता है। इन तीनसौ तेतालीस राजुओंमें सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके हैं । यही क्षेत्रपरिवर्तन है । वह दो प्रकारका होता है. स्वक्षेत्रपरिवर्तन और परक्षेत्रपरिवर्तन | कोई सूक्ष्मनिगोदियाजीव सूक्ष्मनिगोदियाजीवकी जघन्य अवगाहनाको लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। पश्चात् अपने शरीरकी अवगाहनामें एक एक प्रदेश बढ़ाते बढ़ाते महामत्स्यकी अवगाहनापर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है । इसे खक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । अर्थात् छोटी अवगाहनासे लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सत्र अवगाहनाओंको धारण करनेमें जितना काल लगता है उसको खक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। कोई जघन्य अवगाहनाका धारक सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकर्जीव लोकके आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ । पीछे वही जीव उस ही रूपसे उस ही स्थानमें दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ ।। १वसम्बे। ३१ जादो य मदो व पति पाठः परिवर्तितः। ३ गाथान्ते खेत, मखेते। ४ सर्वर'महामत्या १८ मगाई इति पाठ। कार्तिके.५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्वामिका केयानुप्रेक्षा उवसप्पणि-अवसप्पिणि-पढम-समयादि- चरम-समयतं । जीवो कमेण जम्मदि मरदि य सधेसु कालेसुं ॥ ६९ ॥ [' छाया - उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रथम समयादिचरमसमयान्तम् । जीवः क्रमेण जायते म्रियते च सर्वेषु कालेषु ।। ] जीवः संसारी प्राणी उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः दशदशकोटा कोटिसागरोपम स्थिस्योः प्रथमसमये जागते, क्रमेण स्वस्थिति जीवित्वा मृतः पुनस्तयोद्वितीयादिवासगतयोः द्वितीय तृतीयाविसमयेषु उत्पद्य उत्पय भृतः चरमसमयपर्यन्तं सर्वकालं जन्मना संपूर्णतां नयति । एवं मरणेनोस्सर्पिव्यवसर्पिण्योः सर्वान् समयान् परिपूर्णतां नयति । उक्तं च । 'उपसप्पिणिअवस णिसमयावलियास णिरवसेसानु । जादो मुद्दो य बहुसो हिंडतो कालसंसारे ॥ ६९ ॥ अथ भवपरिवर्तनं विभावयतिइसी प्रकार घनाकुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहनाके जितने प्रदेश हैं, उतनी बार उसी स्थानपर क्रमसे उत्पन्न हुआ और श्वास अट्ठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयुको भोगकर मरणको प्राप्त हुआ । पीछे एक एक प्रदेश बढ़ाते बढ़ाते सम्पूर्ण लोकको अपना जन्मक्षेत्र बना ले, यह परक्षेत्रपरिवर्तन है । कहा है- 'समस्त लोकमें ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ क्षेत्ररूप संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक अवगाहनाओंको लेकर वह जीय क्रमशः उत्पन्न न हुआ हो ।' [ श्वेताम्बर साहित्य में क्षेत्रपरावर्तके भी दो भेद हैं- बादर और सूक्ष्म । कोई जीव भ्रमण करता करता आकाशके किसी एक प्रदेशमें मरण करके पुनः किसी दूसरे प्रदेशमें मरण करता है, फिर किसी तीसरे प्रदेशमें भरण करता है । इस प्रकार जब वह लोकाकाशके समस्त प्रदेशोंमें मर चुकता है तो उतने कालको बादरक्षेत्रपरावर्त कहते हैं। तथा कोई जीव भ्रमण करता करता आकाशके किसी एक प्रदेशमें मरण करके पुनः उस प्रदेशके समीपवर्ती दूसरे प्रदेशमें मरण करता है, पुनः उसके समीपवर्ती तीसरे प्रदेशमै मरण करता है । इस प्रकार अनन्तर अनन्तर प्रदेशमें मरण करते करते जब समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में मरण कर चुकता है, तब सूक्ष्म क्षेत्र परावर्त होता है । अनु० ] ॥ ६८ ॥ अब कालपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय पर्यन्त सब समयोंमें यह जीव क्रमशः जन्म लेता और मरता है ॥ भावार्थ- कोई जीव उत्सर्पिणी काळके प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयपूर्ण करके मर गया । फिर भ्रमण करके दूसरी उत्सर्पिणीके दूसरे समयमै उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। फिर भ्रमण करके तीसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और उसी तरह मर गया । यही क्रम अवसर्पिणी कालके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । इस क्रमसे उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीके नीस कोडाकोडीसागर के जितने समय हैं, उनमें उत्पन्न हुआ, तथा इसी क्रमसे मरणको प्राप्त हुआ । अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके प्रथम समय में मरा, फिर दूसरी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके दूसरे समय में मरा। इसे कालपरिवर्तन कहते हैं । कहा भी है- "काल संसारमें भ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें अनेक बार जन्मा और मरा ।" [ श्वेताम्बर साहित्य में कालपरावर्तके भी दो भेद हैं। जितने समय में एक जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी aroh सब समय क्रम या विना क्रमके मरण कर चुकता है, उतने कालको बादरकालपरावर्त कहते हैं । सूक्ष्म कालपरावर्त दिगम्बर साहित्यके कालपरिवर्तनके जैसा ही है । अनु० ] ॥ ६९ ॥ १ व समहसुस । २ ब म काले । ३४ [ गा० १९ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७१] ३. संसारानुप्रेक्षा श्यादि -गदी अवर-द्विदिदो वर-द्विदी जाव' । सव्व-द्विदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज्ज -पजंतं ॥ ७० ॥ ३५ [ छाया-नैरयिकादिगतीनाम् अपरस्थितितः वरस्थिति यावत् । सर्वस्थितिष्यपि जायते जीव: मैत्रेयकपर्यन्तम् ॥ ] जीवः संसार्यात्मा नरकादिगतीनां चतसृणाम् अवरस्थितितः जघन्य स्थितिमारभ्य उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्तम् । तथा हि नरकगतो जघन्या सुर्दशसहस्रवर्षाणि तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः संसारे भ्रान्त्वा तेनैवायुषा तत्रोत्पन्नः । एवं दशवर्षसहस्रसमयवारे तत्र यत्पच मृतश्च । पुनः एकैकसमयाधिक्येन त्रय शिसागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । पश्चातिर्यगतौ अन्तर्मुहूर्तायुधोत्पन्नः प्राग्वत् तत्समयवारम् उत्पन्नः समयाधिक्येन त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवेन परिसमाप्यन्ते । एवं मनुष्यगतावपि । नरकगतिवत् देवगतावपि । तत्रायं विशेष: । उत्कर्षतः एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । एवं आन्त्यागत्य पूर्वोकजघन्यस्थितिको नारको जायते । तदेतत्सर्वं समुदितं भवपरिवर्तनम् | उकं च । 'णिरयाउना जद्दण्णा जी उवरिक्रमाडु गेरजो जीवो मिच्छत्तवसा भवद्विषे हिंडिदो बहुसो ॥ ७० ॥ अष भावपरिवर्तन निरूपयति I परिणमदि सण्ण-जीवो विविह कसा एहिं ठिदि-निमित्ते हि । अणुभाग - णिमितेहि य वर्द्धतो भाव-संसारे ॥ ७१ ॥ अब परिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-संसारी जीव नरकादिक चार गतियोंकी जघन्य स्थिति से लेकर कृष्ट स्थितिपर्यन्त सत्र स्थितियों में ग्रैवेयक तक जन्म लेता है ॥ भावार्थ- नरकगतिमें जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। उस आयुको लेकर कोई जीव प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके भर गया । पुनः उसी आयुको लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय हैं, उतनी बार दस हजार वर्षकी आयु लेकर प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ। पीछे एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर दो समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते नरकगतिकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण करता है । फिर तिर्यश्च गति में अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहले की ही तरह अन्तर्मुहूर्तके जितने समय होते हैं, उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ । फिर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते तिर्यञ्चगतिक उत्कृष्ट आयु तीन पक्ष्य समाप्त करता है । फिर तिर्यञ्चगति ही की तरह मनुष्यगतिमें भी अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयुसे लेकर तीन पल्यकी उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है । पीछे नरकगतिकी तरह देवगतिकी आयुको भी समाप्त करता है । किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि वहाँ इक्तीस सागरकी ही उत्कृष्ट आयुको पूर्ण करता है, क्योंकि ग्रैवेयकमें उत्कृष्ट आयु इकतीस सागरकी होती है, और मिध्यादृष्टियों की उत्पत्ति प्रैवेयक तक ही होती है। इस प्रकार चारों गतियोंकी आयु पूर्ण करनेको भवपरिवर्तन कहते हैं। कहा भी है- 'नरककी जघन्य आयुसे लेकर ऊपरके मैवेयक पर्यन्तके सब भवोंमें यह जीव मिध्यात्वके आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है ।' ॥ ७० ॥ अभावपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-सैनीजीव जघन्य आदि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण तथा अनु १] अमरद्विदिदो वरिट्ठिदी । २ व जाम । ३ म भावे [भ] । थ प्रतिमें इस गाथा के बीच और बाद नाके कुछ शब्द लिखे गये हैं, इसलिए किसी दूसरेने हासिये में यह गाथा लिखी है। गाथाके अन्तमे भवो' शब्द है । ४ [ जादु ] ५ क स ग संसारी ६ व भावसंसारो, म भाव । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ७१ [ छाया-परिणमते संशिजीवः विविधकषायैः स्थितिनिमितैः । अनुभागनिमितै वर्तमानः भावसारे ॥ ] भावसंसारः भावपरिवर्तनम् संज्ञिजीवः मिध्यादृष्टिः बेन्द्रियपर्याप्तकः प्राणी स्वयोग्य सर्व जघन्यां ज्ञानावरणप्रकृतिमन्तःकोटाकोटि प्रमितां बभ्राति । तस्य जीवस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकमा श्राणि जघन्य स्थितियोग्यानि । राज सर्वैजघन्यकषायाध्यवसाय स्थानं सर्वजघन्यानुभागबन्धाभ्यवसायस्थानं च प्राप्तस्य तथोग्य सर्वेअघन्यं योगस्थानं भवति । तेषामेव स्थिति कषायाध्यवसायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येय भागयुकं योगस्थानम् । एवमसंख्यात भागद्विख्यात भागवृद्धि संख्यात गुणवृद्धि - असंख्यात गुणाख्यचसुः स्थान वृद्धिपतितानि श्रेष्यसंख्येयभागश्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तदेव कषायाध्यवसायस्थानमा स्कन्दतो द्वितीयमनुभागवन्धाध्यवसायस्थान भवति । तस्यापि योगस्थानानि पूर्वोक्तान्येव ज्ञातव्यानि । एवं तृतीयादिष्वप्यनुभागाध्यवसायस्थाने संख्यात लोकपरिसमाहिपर्यन्तेषु प्रत्येक योगस्थानानि नेतव्यानि । एवं तामेव स्थिति बनतो द्वितीयं कथायाध्यवसानस्थानं मदति । तस्याभ्यनु भागवन्धाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च प्राग्वत् ज्ञातव्यानि । एवं तृतीय। दिकषायाध्यवसायस्थानेष्व संख्यात लोकमात्रपरिसमासिपर्यन्तेष्ववृत्तिक्रमो शातव्यः । ततः समयाधिक स्थितेरपि स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानानि प्राग्वदसंख्येग लोक ३६ भागबन्धके कारण अनेक प्रकारकी कषायोंसे, तथा 'च' शब्द से श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थानोंसे वर्धमान भावसंसार में परिणमन करता है || भावार्थ - योगस्थान, अनुभागवन्धाध्यवसायस्थान कषायाध्यवसायस्थान और स्थितिस्थान, इन चारके निमित्तसे भावपरिवर्तन होता है। प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके कारण आत्मा प्रदेशपरिस्पन्दरूप योग के तरतमरूप स्थानोंको योगस्थान कहते है । अनुकारण कषायके तरतमस्थानोंको अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। स्थितिबन्धके कारण कषायके तरतमस्थानोंको कषायस्थान या स्थितिबन्धाव्यवसायस्थान कहते हैं । बँधनेवाले कर्मकी स्थिति भेदोंको स्थितिस्थान कहते हैं। योगस्थान श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । तथा कषायाध्यवसायस्थान भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं । मिथ्यादृष्टी पश्चेन्द्रिय, सैनी, पर्याप्त कोई जीव ज्ञानावरणकर्मकी अन्तः कोड़ाकोडी सागरप्रमाण जघन्यस्थितिको बाँधता है। उस जीवके उस स्थितिके योग्य जघन्य कषायस्थान, जघन्य अनुभाग ०स्थान और जघन्य ही योगस्थान होता है । फिर उसी स्थिति, उसी कवाय० स्थान और उसी अनुभाग० स्थानको प्राप्तजीवके दूसरा योगस्थान होता है । जब सब योगस्थानोंको समाप्त कर लेता है तब उसी स्थिति और उसी कषाय ० स्थानको प्राप्तजी के दूसरा अनुभाग० स्थान होता है। उसके योगस्थान मी पूर्वोक्त प्रकार ही जानने चाहिये । इस प्रकार प्रत्येक अनुभाग० स्थानके साथ सब योगस्थानों को समाप्त करता है। अनुभाग० स्थानोंके समाप्त होनेपर, उसी स्थितिको प्राप्त जीवके दूसरा कषाय० स्थान होता है । इस कषाय० स्थानके अनुभाग० स्थान तथा योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिये । इस प्रकार सब कषाय० स्थानोंकी समाप्तितक अनुभाग० स्थान और योगस्थानोंकी समाप्तिका क्रम जानना चाहिये । कषाय ० स्थानोंके मी समाप्त होनेपर वही जीव उसी कर्मकी एक समय अधिक अन्तःकोड़ा को डीसागरप्रमाण स्थिति बाँधता है । उसके भी कषाय० स्थान, अनुभागस्थान तथा योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिये । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागर पर्यन्त प्रत्येक स्थिति के कषाय० स्थान, अनुभाग ०स्थान और योगस्थानोंका क्रम जानना चाहिये। इसी प्रकार समस्त मूल और उत्तर प्रकृतियों में समझना चाहिये । अर्थात् प्रत्येक मूलप्रकृति और प्रत्येक उत्तरप्रकृतिकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त प्रत्येक स्थितिके साथ पूर्वोक्त सब कषाय० स्थानों, अनुभाग स्थानों Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. संसारानुप्रेक्षा मात्राणि भवन्ति एवं समयाधिकक्रमेणोत्कृष्टस्थितिपर्यन्तं त्रिशस्सागरोपमकोटाकोरिप्रमितस्पितेरपि स्थितिकापायचायस्थानान्यनुभागबन्धाभ्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च ज्ञातव्यानि । एवं मूलप्रकृतीनाम् उत्तरप्रकृतीनो र परिवारलामो ज्ञातव्यः । तदेतत्सर्व समुदित भावपरिवर्तनं भवति पिरिणमति परिणामान् प्रामोतीति भारसंसारगीरक्षः सन् । देगाना सन।* : निधिवन, असंहया लोकमात्रषायाम्यवसायैः । कोरक्षः । स्थितिनिमित्ता, कर्मणां जन्यापुत्कृष्ट स्थितिबन्धकारणैः । पुनः कीरक्षः । अनुमागनिमित्तः (अनुभाग: फलदानपरिणतिः लस निमितः परः। यशब्दात् पसंख्येयभागयोगस्थानः । इति भावसंमारः ॥ १॥ एवं पश्चपरिवर्तनान्युपसहरति एवं अणाइ-काले पंच-पयारे' भमेइ संसारे । णाणा-दुक्ख-णिहाणो जीवो मिरछत्त-दोसेण ॥ ७२ ॥ [छाया-एवम् अनादिकाले पश्चप्रकारे प्रमति संसारे । नानादुःलनिधानः जीवः मिथ्यावादोरेण ॥] एवं पूषों प्रकारेण, संसारे भने, जीच. अनादिकालं प्रमति भ्रमणं करोति । केन । मिथ्यात्व दोषेण, मिथ्यात्वलक्षणदोषतः । श्ररो। पाचप्रकारे, अभ्यादिपक्ष मेदमिझे । पुनः कीरक्षे । नानादुःखनिधाने, अनेकाशोत्पत्तिनिमिते ॥ १ ॥ इय-संसार जाणिय मोहं सपायरेण चाइऊणं ।। तं झायह स-सरूंवं संसरण जेण णासेइ ॥ ७३ ॥ [छाया-इति संसार शात्या मोहं सदरेण त्यतया । तं ध्यायत व स्वरूप संसरण येन नश्यति ॥] से प्रसिद्ध खसंभावं शुदोषमयस्वरूप ध्यायत यूयै स्मरत, येन ध्यातेन नश्यति विनाशमेति । किम् । संसरणं पसंसारभ्रमणम् । किरवा । सोदरण सम्यक्त्वतध्यानादिसर्वोयमेन त्यक्त्या मुसवा । कम । मोह, ममत्वपरिणाममोहनीयम। करवा पुनः । इति पूर्वा सर्व शाश्वा अवगम्य । कम् । संसारम् ॥ ३॥ संम्ररन्त्यत्र संसारे जीवा मोहविपाकतः । स्तषीमि तापरित्यक सिद्ध शुर्वचिदात्मकम् ॥ इति श्रीखामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाक्षिनिषधिद्याधरषडाषाकदि चक्रवर्तिभधारकश्रीशुभमनदेवविधितटीकायां संसारानुप्रेक्षायां तृतीयोऽधिकारः ॥॥ और योगस्थानोंको पहलेकी ही तरह लगा लेना चाहिये । इस प्रकार सब कर्मोकी स्थितियोंको भोगनेको भाषपरिवर्तन कहते हैं । इन परिवर्तनोंको पूर्ण करनेमें जितना काल लगता है, उतना काल मी उस उस परावर्तनके नामसे कहाता है ।। ७१॥ [ श्ले० सा० में भावपरावर्तके भी दो भेद है । असेख्यातलोकप्रमाण अनुभागबन्धस्थानों में से एक एक अनुभागबन्धस्थानमें क्रमसे या अक्रमसे मरण करते करते जीव जितने समयमें समस्त अनुभागबन्धस्थानोंमें मरण कर चुकता है, उतने समपको बादर भावपरावर्त करते हैं। तथा जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अनुभाग स्थान पर्यन्त प्रत्येक स्थानमें क्रमसे मरण करनेमें जितना समय लगता है, उसे सूक्ष्मभाव परावर्त कहते हैं । थे० सा में प्रमेक परावर्तके नामके साथ पुनल शब्द मी जुड़ा रहता है । यथा-द्रव्य पुद्गल परावर्त, क्षेत्र पुद्गल परावर्तकाल पुल परावर्त आदि । अनु० ] पाँच परिवर्तनोंका उपसंहार करते हैं । अर्थ-इस प्रकार अनेक दुःखोंकी उत्परिक कारण पाँच प्रकारके संसारमें, पह जीव मिथ्यात्वरूपी दोषके कारण अनादि कालतक भ्रमण करता रहता है ||७२ ।। अर्थ-इस प्रकार संसारको जानकर और सम्यक्त्व, व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायोंसे मोहको सागफर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूपका ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकारके संसारभ्रमणका नाश होता है ॥ ७३ ।। इति संसारानुप्रेक्षा ॥ ३ ॥ चमणामकाले समसगमणकार्क। २ पयारे भमर सं०।३ळ मल ग ससहाव। ५.मसंसारातुमेक्षा । संसार। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकासिंकेयानुप्रेक्षा [गा०७४ ४. एकत्वानुमेक्षा अपैकत्यानुप्रेक्षा गापाषट्केनाह इको जीवो जायदि एको गम्भम्हि गिण्हदे देहं । इको बाल-जुवाणो इको वुड्डो अरा-गहिओ ॥७४॥ [छाया-एका जीवः जायते एकः गर्भे एखाति वेहम् । एकः बालः युवा एकः वृद्धः अरागृहीतः ॥] जायते उपद्यते । कः । जीवः जन्तुरेक: अद्वितीय एर नान्यः । गृह्णाति अङ्गीकरोति । कम् । देह शरीरम् । क । गर्भ मातृजठरे । एक एवं बालः शिशुः, एक एव युवा यौवनेनावन्तशाली, एक एव युद्ध: जरागृहीतः । स्थविरः जराजर्जरितः एक एव ॥ ७॥ इको' रोई सोई इको तप्पेइ माणसे दुक्खे । इको' मरदि बराओ गर्रय-दुहं सहदि इको वि ॥७५॥ [छाया-एकः रोगी शोझी एकः तप्यते मानसे दुःखे । एकः प्रियते वराकः नरकदुःख सहते एकोऽपि ॥ ] एक एक जीवः रोगी रोगाकान्तः । एफ एवं शोको शुभाकान्तः । मानसर्दःोः तप्यति ताप संतापं गच्छति मियते मरणदुःख प्रानोति । एक एव बराकः दीनः जीवः नरकदुःखं रसप्रभादिदुस्सइवेदनाडुःख साते क्षमते ॥ ५५ ॥ इको' संचदि पुण्णं एको भुजेदि विविह-सुर-सोक्ख । इको खवेदि कम्म इको' वि य पावएँ मोक्खं ।। ७६ ॥ [छाया-एक: सचिनोति पुण्यम् एकः भुनधि विविधसुरसौख्यम् । एकः क्षपयति कर्म एकोऽपि च प्राधोति 'मोक्षम् ॥ एक एव पुण्यं शुभकर्म सम्यस व्रतवामादिलक्षण संचिनोति संग्रहीकरोति । एक एव भुके विविधसुरसौरमं चतुर्णिकायदेवानाम् अनेकप्रकारमुखम् । एक एव क्षपकश्रेण्यामारूढः सन् कर्म हानाबरणादिक क्षपति क्षय करोति । अपि पुनः, एक एव सकलकर्मविप्रमुक्तः सन् मोक्षं सकल कर्मविप्रमुक्ति प्राप्नोति)लभते ॥ ७६ ॥ सुयणो पिच्छतो विहु ण दुक्ख-लेस पि सकदे गहिदु । एवं आणतो वि हु तो वि ममतं ण छंडेई ॥ ७७ ॥ छह गाथाओंसे एकस्वानुप्रेक्षाको कहते हैं । अर्थ-जीव अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही माताके उदरमें शरीरको प्रहण करता है, अकेला ही बालक होता है, अकेला ही जवान होता है, और अकेला ही बुढ़ापेसे बूढ़ा होता है ।। ७४ ॥ अर्थ-अकेला ही रोगी होता है, अकेला ही शोक करता है, अकेला ही मानसिक दुःखसे संताए पाता है, अकेला ही मरता है, और बेचारा अकेला ही नरकके असह्य दुःखको सहता है ॥७५॥ अर्थ-अकेला ही पुण्यका संचय करता है, अकेला ही देवगतिके अनेक प्रकारके मुखोंको भोगता है | अकेला ही कर्मका क्षय करता है, और अकेला ही मुक्तिको प्राप्त करता है ॥ ७६ ।। अर्थ-कुटुम्बीजन देखते हुए भी दुःखके लेशमात्रको मी प्राइण करनेमें समर्थ नहीं होते हैं । किन्तु ऐसा जानते हुए भी ममत्वको नहीं छोड़ता है || भावार्थयह जीव जानता है, कि जब मुझे कोई कष्ट सताता है तो कुटुम्बीजन उसे देखते हुए मी बाँट नहीं सकते हैं । शरीरमें पीड़ा होनेपर उसका कष्ट मुझे ही भोगना पड़ता है, अन्य वस्तुओंकी तरह उसमें कोई चाहनेपर भी हिस्सावार नहीं कर सकता। किन्तु फिर भी माता, पिता, भाई, पुत्र वगैरह कुटुम्बियोंसे समसग को। २ पम पावर। ८स छेडेह । गम्भम्मि...देहो। ३पको। ४ व निरय। ५ एको। म स ग को। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७२] ४. पकत्वानुप्रेक्षा [छाया-खजनः पश्यापि खलु न दुःखलेशमपि शक्नोति ग्रहीतुम् । एवं जाननपि खस ततः अपि ममत्त न त्यजति ॥] अपि पुनः, शक्नोति समर्थो भवति, न प्रहीद लातुम् । किम । दुःखलेश खकीयजनजातासातलेश कणिकाम् । कः । सुजेनोऽपि मातृपितृभ्रात्पुमायात्मजनोऽपि । अपिशब्दात् अन्योऽपि हु स्फुटं, पश्यन्नपि प्रेक्षमाणोऽपि, एवं जानन् अपि, हु स्फुटं, तो वि तथापि, ममत्वं न त्यजति ॥ ७ ॥ जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दह-लक्षणो हवे सुयणो । सो णेइ देव-लोए सो चियं दुक्ख-क्खयं कुणइ ॥ ७८॥ [छाया-जीवस्य निश्चयतः धर्मः दशलक्षणः भवेत् स्वजनः । सः नयति देवलोके स एव दुःखक्षयं करोति ॥] खजनः आत्मीयजनः, निश्चयतः परमार्थनः, भवेत् । कस्य । जीवस्य आरमनः । कः । दशलक्षणः सत्तमक्षमादिदशलाक्षणिकधर्मः । स धमों जिनोकः, नयति प्रापयति, देवलोके सौधर्मादिनाकलोके । स एव दशगक्षणिकधर्मः करोति विदधाति । कम् । दुःखक्षयं चतुर्गतिदुःखाना विनाश ॥ ८ ॥ सवायरेण जाणेह एक जीवं सरीरदो भिणं । जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥ ७९ ॥ [छाया-सवरेण जानीत एक जीवं शरीरतः भिन्नम् । यस्मिन् तु ज्ञाते जीवे भवति अशेष क्ष हेयम् ॥] सोदरेण समस्तोद्यमेन, जानीहि विद्धि, एकमातार्य जीव वेदानन्दम् । कोशम् । शरीरतः नोकर्मकर्मादभित्र पृथक् । तु पुनः । यस्मिन् जीव शुद्धचिद्रूपे ज्ञाते सति, क्षण क्षणतः, अशेष शरीरभित्रकलबधनधान्यादि व्याज्यं, भवति जायते ॥ ७९ ॥ एक श्रीशुभचन्द्रमिन्दनिकरैः सेव्य जिनं संभा, एक सन्मतिकीर्तिदायकमरे तत्त्वं स्मर स्मारय । एक जेनमतानुशास्त्रनिकर श्रव्ये कुरु प्रीतये, एकं ध्यानगत विशुद्धममलंपिमा घर ।। इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायास्थितियाविद्याधरपरमाषाकविचक्रवर्तिभट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेवविरचितटीकायाम् एकस्वानुप्रेक्षा चतुर्थोऽधिकारा॥४॥ स्परम उसे जो मोह है, वह उसे नहीं छोड़ता है ॥ ७७ ॥ अर्थ-यथार्थमें जीरका आत्मीय जन उत्तम क्षमादिरूप दशलक्षणधर्म ही है । वह दशलक्षणधर्म सौधर्म आदि वर्गमे लेजाता है, और वही चारों गतियोंके दुःखोंका नाश करता है ।। भावार्थ-अपना सच्चा आत्मीय वही है, जो हमें सुख देता है और दुःखोंको दूर करता है । लौकिक सम्बन्धी न तो हमें सुख ही देते हैं और न दुःखोंसे ही हमारी रक्षा कर सकते हैं । किन्तु धर्म दोनों काम कर सकनेमें समर्थ है । अतः वही हमारा सच्चा बन्धु है, और उसीसे हमें प्रीति करना चाहिये ।। ७८ ॥ अर्थ-पूरे प्रयरनसे शरीरसे भिन्न एक जीवको जानो। उस जीवके जान लेनेपर क्षणभरमें ही शरीर, मित्र, खी, धन, धान्य वगैरह समी वस्तुएँ हेय होजाती हैं। भावार्थ-संसारकी दशा देखते हुए भी अपने कुटुम्बीजनोंसे जीवका मोह नहीं छूटता है। इसका कारण यह है, कि जीव अपनेको अभी नहीं जान सका है। जिस समय वह अपनी शुद्ध चैतम्यमय आत्माको जान लेगा, उसी समय उसे सभी परवस्तुएँ हेय प्रतीत होने लगेगी । अतः सब कुछ छोड़कर अपनेको जाननेका पूरा प्रयत्न करना चाहिये ॥ ७९ ॥ इति एकत्वानुप्रेक्षा ॥१॥ म स्वजनोरि। २ म सुवो। इस वि य । ४ सर्वत्र "विनाशं करोति' ति पाठः। ५माणा। । ७५मजीवो। कमसगबोई। ५एकत्ताणुवस्सा, मकवानुमेया। मसग Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा अथ त्रिभिर्गाथाभिरन्यश्वानुप्रेक्षामुत्प्रेक्षते अणं देहं गिण्हदि' जणणी अण्णा य होदि कम्मादो । अपूर्ण होदि कलर्स जो जिय जाये कुत्तों ॥ ८७ ॥ [ छाया-अन्यं देहं ग्रह्नाति जननी अन्या च भवति कर्मणः । अन्यत भवति कलश्रं अन्योऽपि च जायते पुत्रः ॥ ] अन्य भिन्नं, देई शरीरं, गृह्णाति अभीकरोति, जीनः हस्यध्याहार्यम् । जननी सवित्री माता अन्या च भिद्मा च भवति । कुतः । कर्मतः स्वकीयकृत कर्म विपाश्चत् । कल्यम् आत्मनः खभावाद् अन्यत् पृथग्भवति । अपि च पुत्रः आत्मज: अन्यः शरीरादेः पृथक् जायते उत्पद्यते ॥ ८० ॥ एवं बाहिर दवं जादि रूव अप्पणो भिण्णं । जाणतो वि हु जीवो तत्थेव हि रखदे मूढो ॥ ८१ ॥ [ छाया एवं बाह्यद्रव्यं जानाति रूपात आत्मनः भिन्नम् । जानन्नपि खख जीवः तत्रैव हि रज्यति मूढः ॥ ] एवं शरीरजननीकलत्रपुत्रादिवत् बाह्यद्रव्यं गजतुरगरथश्व्यगृहादिकः आत्मनः स्वरूपात् चिद्रूपस्य स्वभावात् भिनं पृथक् जानाति वेति । हु स्फुटम् । भिक्षं जानमपि मूढो जीवः अक्षः प्राणी तत्रैव बाह्यदन्ये पुत्रमित्रकलत्रधनधान्यादी रज्यति राति ॥ ८१ ॥ जो जाणण देहं जीव- सख्या तच्चदो भिण्णं । अप्पा पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ॥ ८२ ॥ [ ग्रा० ८० [छामा यः शाखा देहं जीवस्वरूपात् ततः भिवम् । आत्मानमपि च सेवते कार्यकरं तस्य अन्यत्वम ॥ ] तस्य जीवस्य अन्यध्वम् अन्यत्वानुप्रेक्षाचिन्तनं कार्यकरं मोक्षपर्यन्तसाध्यसाधकम् । तस्य कस्य । यः सेवते भजते । कम् । आत्माने शुद्धविद्रूपम् । किं कृत्वा । शात्वा परिशाय । कम् । वेदं शरीरं, जीवस्वरूपात आत्मखरूपात, तत्वतः परमार्थतः भि पृथक् ॥ ८२ ॥ भिक्षं जिनं जगति कर्मशरीरगेहात् ज्ञानादितो न खलु भित्रमिमं भजभ्यम् । भिषं जगद्वदति यो जगतां जितात्मा भिभेतरादिपदतां घटयन् स भाति ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेया नु प्रेक्षायास्त्रिविध विद्याधरषदभाषाकविचक्रवर्ति भट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेव विरचितटीकायाम् मन्यत्वानुप्रेक्षायां पञ्चमोऽधिकारः ॥ ५ ॥ || तीन गाथाओंसे अन्यत्वानुप्रेक्षाको कहते है । अर्थ - अपने उपार्जित कर्मों के उदयसे जीव भिन्न शरीरको ग्रहण करता है। माता मी उससे भिन्न होती है । स्त्री मी भिन्न होती है और पुत्र मी भिन्न ही पैदा होता है भावार्थ - आत्माले शरीर, स्त्री, पुत्र, आदिके भिन्न चिन्तन करनेको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । आत्मासे ये सभी वस्तुएँ भिन्न हैं ॥ ८० ॥ अर्थ - इस प्रकार शरीर, माता, स्त्री, पुत्र आदिकी तरह हाथी, घोड़ा, रथ, धन, मकान वगैरह बाह्य द्रव्योंको यद्यपि आत्मासे भिन्न जानता है, किन्तु भिन्न जानते हुए भी मूर्ख प्राणी उन्हींसे राग करता हैं | भावार्थ - यह सब जानते हैं, कि संसारकी सब विभूति हमसे पृथक् है, किन्तु फिर भी सब उनसे प्रीति करते देखे जाते हैं ॥ ८१ ॥ अर्थ - जो आत्मखरूपसे शरीरको यथार्थमें भिन्न जानकर अपनी आत्माका ही ध्यान करता है, उसीकी अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है ॥ भावार्थ - शरीरादिकसे ९ गहिद व जाण सरूवादि अ३ व जीवस्त रूक्षवि । ४ अनुप्ताणमेया, म अन्यत्वानुप्रेक्षा । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ६. मशुचित्यानुप्रेक्षा ६. अशुचित्वानुपेक्षा भथ गाथाषट्रेनाशुवित्वानुप्रेक्षा सूचयति सयल-कुहियाण पिंडं किमि-कुल-कलियं अउब-दुग्गंध । मल-मुत्ताण य गेहं देहं जाणेहि असुश्मयं ॥ ८ ॥ [छाया-सकलकुथिताना पिणे मिकुलकलितमपूर्वदुर्गन्धम्। मलमूत्राणां च गेई देहं जानीहि अशुचिमयम् ॥] जानीहि त्वं, हे मध्य प्रतीहि । कम् । देई शरीरम् । किंभूतम् । अशुचिमयम् अपविनद्रव्यनिष्पादितम् । रक्षम् । सकलकथिताना पिण्ड समस्तकुरिसताना द्रव्याणां निचयम् । पुनः कीरक्षम् । क्रिमिकुलकलित, किमयः जठरजदौन्दियजीवाः जन्तवः यूकादयः निगोदादयः तेषां कुलानि वृन्दानि तैः कलित युक्तम् । अतीवदुर्गन्धम् । मलमूत्राणां गृहमला विधादयः मुत्राणि प्रक्षषादयस्तेषां गृहं स्थानम् ॥ तथा श्रीभगवस्याराधनायो शरीरस्य निष्पत्त्यादिकं प्रोक्तंचातयक्षा। किलिल. कलुष,१. स्थिरत्व १. पृथादशाहेन बुहुदोऽथ पनः । तदनु ततः पलपेश्यः क्रमेण मासेन पुलकमतः ॥१॥ धुर्मनखरोमसिद्धेः स्यादपाशसिदिक्षास्पन्दनमष्टममासे नवमेदशमेऽथ निस्सरणम् '२॥कछिल। कसुषीकृतं (दिन १०) पांसुरससहर्श दिन १०, स्थिरभूतं दिन १०, मास १ । युद्धदभूतं मात धनभूत मास । मांसपेशी मास १ । पञ्चपुलकानि मास १ । आफ्रोपालानि मास १ । चर्मनखरोमनिष्पत्तिः मास ।चलनम् । मासे नयमे निर्गमनम् ॥ शरीरस्य अवयवानाचरे । त्रिशतारी परमि१.०, मारि स जावातिन सस्थति संधयः ३०० । सायनां नवशतानि ९.० । शिराणा सप्तशतानि ७०० 1 पञ्चशतानि मांसपेश्यः ५.. । यस्वारि शिराजालानि । षोडशससंझानि १६ । शिरामूलानि षदेव ६ । मांसरजुवयं २ । स्वचः सप्त । कायानि सप्त • । रोमकोटीनामशीविशतसम्माणि 4.10......... | आमाशये अवस्थिता अप्रयष्टयः षोडश १ । आत्माके भिन्न चिन्तन करनेको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । अन्यत्वका चिन्तन करते हुए मी यदि यथार्थमें भेदज्ञान न हुआ तो वह चिन्तन कार्यकारी नहीं है ।। ८२ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥५॥ छह गाथाओंसे अशुचित्यअनुप्रेक्षाका सूचन करते हैं। अर्थ-इस शरीरको अपवित्र द्रव्योंसे बना हुआ जानो। क्योंकि यह शरीर समस्त बुरी वस्तुओंका समूह है। उदरमें उत्पन्न होनेवाले दोइन्द्रिय लट, जू तथा निगोदियाजीवोंके समूहसे भरा हुआ है, अत्यन्त दुर्गन्धमय है, तया मल और मूत्रका घर है ॥ भावार्थ-श्रीमगवतीआराधनाम गाथा १००७ से शरीरकी उत्पत्ति वगैरह इस प्रकार बतलाई है-"गर्भमें दस दिनतक वीर्य कलल अवस्थामें रहता है । अर्थात् गले हुए ताम्बे और चाँदीको परस्परमें मिलानेसे उन दोनोंकी जो अवस्था होती है, वैसी ही अवस्था माताके रज और पिताके वीर्यके मिलनेसे होती है । उसे ही कलल अवस्था कहते हैं । उसके पश्चात् दस दिनतक यह काला रहता है। उसके पश्चात् दस दिनतक स्थिर रहता है । इस प्रकार प्रथम भासमें रज और वीर्यके मिलनेसे ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। दूसरे मासमें बुलबुलेकी तरह रहता है । तीसरे मासमें कड़ा होजाता है । चौथे मासमें मांसका पिण्ड होजाता है । पाँचवें नासमें हाथ, पैर और सिरके स्थानमें पाँच अर फूटते हैं । छठे मासमें अङ्ग और उपाङ्ग बन जाते हैं । सातवें मासमें चम्बा, रोम और नाखून बन जाते हैं । आठवें मासमें बच्चा पेटमें घूमने लगता है । नवें अथवा दसवें मासमें बाहर आजाता है।" शरीरके अवयव इस प्रकार हैं-"इस शरीर में तीनसौ हड़ियाँ हैं । वे सभी मज्जा नामकी धातुसे भरी हुई हैं। तीन सौ ही सन्धियाँ हैं । नौसौ स्वायु हैं । सात सौ सिराएँ है १मस जाणे, गजाह ममम । अधिक.६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०८४कृषितस्याश्रयाः ससव भवन्ति । स्थूणाः तिक्षो भवन्ति ।। ममणां शतं सताधिकं १०७ भवति। व्रणमुखानि गव भवन्ति ५, नित्य कुथित नवन्ति यानि । मस्तिष्क सालिप्रमाणं, मेदोऽअलिप्रमाणम् , ओजो निजामलिप्रमाणे, शुक्र खाललिप्रमाण, घसा धातवः तितोऽन्जलयः, पित्तामलित्रिक ३, ष्मामलित्रिकं३ । रुधिरै सेर ८, मूत्र सेर १६, विष्टा सेर २४ । नख २०, दन्ताः ३२ । 'क्रिमिफीटनिगोदादिभिर्भुतमिदं शरीरम् । रसा १ ऽभूत् २ मांस ३ भेदो ४ ऽस्थि ५ मजा ६ शुक्राणि ७ धातवः ॥' सप्तधातुभिर्निष्पनम् ॥ ८ ॥ सुट्ट पवित्तं दधं सरस-सुगंध मणोहरं जं पि । देह-णिहित्तं जायदि घिणावणं सुट्ट दुग्गंधं ।। ८४ ॥ छाया-सुष्टु पचित्रं द्रव्यं सरससुगन्धं मनोहरं यदपि। देहनिहितं जायते धृणास्पदं सुष्ठु दुर्गन्धम् ॥] यदपि द्रन्य चन्दनकर्पूरागरूकस्तूरीसुगन्धपुष्पप्रमुखम् । कीरक्षम् । मुष्ठ अतिशयेन पवित्रं शुचिः कीदक्ष पुनः । सरससुगन्धम् अपूर्वरसगन्धसहितम् अस्मानादि, मनोहर घेतक्षमत्कारकम, तदपि द्रब्य देहृनिक्षित शरीरसंस्पृष्टं जायते भवति । कीदृक्षम् । घृणास्पदं सूगोत्पादकं [जुगुप्सोत्पादक ], मुष्ठ अतिशयेन दुर्गन्धं पूतिगन्धम् ॥ ८४ ॥ मणुयाणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेर्सि विरमण-कज्जे ते पुण तत्थेवे अणुरता ॥८५॥ [छाया-मनुजानामशुप्पिमय विधिना देई विनिर्मित जानीहि न तेषां विरमणकार्ये ते पुनः तत्रैव अनुरक्ताः॥] जाण जानीहि, मनुष्याणां देह शरीरे विधिना पूचोपार्जितकर्मणा अशुधिमयम् अपवित्रतामयं विनिर्मितं निष्पावितम् । तेषां मनुष्याणां विरमणकायें वैराग्योत्पत्तिनिर्मित पुनः ते मनुष्याः तत्रैव शरीरे अनुरक्ताः प्रेमसंबद्धाः ॥८५॥ एवंविहं पि देह पिच्छता वि य कुगति अणुराय । सेवंति आयरेण य अलख-पुष्वं ति मण्णंता ॥८६॥ पाँच सौ मांसपेशियाँ हैं । सिराओंके चार समूह हैं । रक्तसे भरी १६ महासिराएँ हैं। सिराओंके छह : मूल हैं। पीठ और उदरकी ओर दो मांसरजु हैं । चर्मके सात परत हैं । सात कालेयक अर्थात् मांस .. खण्ड हैं । अस्सी लाख करोड़ रोम हैं । आमाशयमें सोलह आँतें हैं। सात दुर्गन्धके आश्रय हैं। तीन स्थूणा हैं-बात, पित्त और कफ ! एक सौ सात मर्मस्थान हैं। नौ मलद्वार हैं, जिनसे सर्वदा मल बहता रहता है। एक अञ्जलि प्रमाण मस्तक है। एक अखलिप्रमाण मेद है। एक अस्खलिप्रमाण ओज है। एक अञ्जलिप्रमाण वीर्य है। ये अनलियाँ अपनी अपनी ही लेनी चाहिये । तीन अञ्जलिप्रमाण वसा है। तीन अमलिप्रमाण पित्त है। [भगवती० में पित्त और कफको ६-६ अञ्जलिप्रमाण बतलाया है । देखो, गा० १०३४ । अनु० । ८ सेर रुधिर है। १६ सेर मूत्र है। २४ सेर विष्ठा है । बीस नख हैं । ३२ दाँत हैं। यह शरीर कृमि, लट तया निगोदिया जीवोंसे भरा हुआ है। तथा रस, रुधिर, माँस, मेद, हड़ी, मज्जा और वीर्य इन सात धातुओंसे बना हुआ है । अतः गन्दगीका घर है ।। ८३ ॥ अर्थ-जो द्रव्य अत्यन्त पवित्र, अपूर्व रस और गंध से युक्त, तथा चित्तको हरनेवाले हैं, वे द्रव्य भी देहमें लगनेपर अति विनावने तथा अति दुर्गन्धयुक्त होजाते हैं। भावार्थ-चन्दन, कपूर, अगरु, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प वगैरह पवित्र और सुगन्धित द्रव्य भी शरीरमें लगनेसे दुर्गन्धयुक्त होजाते हैं ।। ८४ ॥ अर्थ-मनुष्योंको विरक्त करनेके लिये ही विधिने मनुष्योंके शरीरको अपवित्र बनाया है, ऐसा प्रतीत होता है । किन्तु वे उसीमें अनुरक्त हैं ॥ ८५॥ अर्थ-शरीरको इस प्रकारका देखते हुए भी मनुष्य उसमें अनुराग करते हैं । और मानों इससे पहले १५ () । म स मशुमा । ३ व विणिम्मिद [1]। पुशु तित्लेव । ५म पुन सि, म सेन ति! . .. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -22] ७. मालवानुमेक्षा [छामा-एवंविधम् अपि वेहं पश्यन्तः अपि च कुर्वन्ति अनुरागम् । क्षेत्रन्ते भावरेण च भावपूर्वम् इति मन्यमानाः ॥] कुर्वन्ति । कम् । अनुराग शरीरे अतिनेहम् । के। मनुष्याः। कीदृक्षाः । एवंविधमपि सप्तधातुमला मूत्रवर्गन्धताविनिवृत्तमपि देहं शरीरं पश्यन्तः प्रेक्षमाणाः, मपि च पुनः, आदरेग च उद्यमेन सेवम्ते श्रीशरीरादिक भजन्ति । कीदक्षाः सन्तः । अलब्धपूर्वमिति मन्यमानाः, अतः पूर्व कदाचिदपि न प्राममिति आनन्तः ॥ ६ ॥ जो पर-देह-विरत्तो णिय-देहे ण य करेदि अणुरायं । अप्प-संख्व-सुरत्तो असुर भावणा सस्स ॥७॥ [छाया-पः परदेहविरकः निजवेहे न च करोति अनुरागम् । मामखरूपपुरका अशुदित्वे भावना तस्स ॥] तस्य मुनेः अशुचिस्वे भावना अशुचित्वानुप्रेक्षा भवतीत्यर्थः । तस्य कस्य । यः पुमान् परदेहविरक्तः, परेषां ीप्रमुखाना देहे शरीरे विरफः चिरति प्राप्तः । च पुनः, न करोति न विदधाति । कम् । अनुरागम् मतिनेहम् क । निजदेहे स्वकीयशरीरे । कीरक्षः सन् । प्रारमखरूपे शुद्धचिद्रूपे, सुरक्तः यानेन तीनः ॥ ८॥ देवाशुचि चेतसि भाषयन्त शुभेन्दुदेवं प्रणमामि भत्त्या। सन्मति कीर्तिमितं प्रयत्नात् सद्भावनाभावकूते सुभावात् ।। इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायो भारकाधीशुमचन्द्रदेव. घिरचितीकायाम् अशुधिस्वानुप्रेक्षाप्रतिपादकः पठोऽधिकारः ॥६॥ ७. आत्रवानप्रेक्षा अयाझषानुप्रेक्षां गाथासप्तमिराह मण-वयण-कायजोया जीव-पएसाण फंदण-विसेसा । मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होति ॥ ८८ ॥ [छाया-ममोवचनकाययोगाः जीवप्रदेशानां स्पन्दन विशेषाः । मोहोदयेन युक्ताः वियुत्ताः अपि च आक्षवाः भवन्ति । अथावा निमित्तानि योगान् युनक्ति । मनोवचनकाययोगाः, मनोयोमाः सत्यादिवत्वारः, वचनयोगाः कमी मिला ही नहीं, ऐसा मान कर आदरसे उसका सेवन करते हैं ।। ८६ ॥ अर्थ-जो दूसरों के शरीरसे विरक्त है और अपने शरीरसे अनुराग नहीं करता है, तथा आत्माके शुद्ध चिद्रूपमें लीन रहता है उसीकी अशुचित्रमें भावना है । भावार्थ-आचार्य कहते हैं, कि उसीकी अशुचिस्वभावना है, जो न अपने शरीरसे अनुराग करता है और न स्त्री-पुत्रादिकके शरीरसे अनुराग करता है। तथा श्रात्मध्यानमें लीन रहता है। किन्तु जो अशुचित्वका चिन्तन करते हुए भी अपने या परके शरीर में अनुरक्त है उसकी अशुचित्वभावना केवल विडम्बना है।। ८७ ॥ इति अशुचित्वानुप्रेक्षा ॥ ६ ॥ सात गाथाओंसे आसमानुप्रेक्षाको कहते हैं । अर्थ-जीवके प्रदेशोंके हलन चलनको योग कहते हैं। योग सीन है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग- ये योग मोहनीयकर्मके उदयसे युक्त मी रहते हैं और त्रियुक्त भी रहते हैं। इन योगोंको ही आसव कहते हैं ।। भावार्थ-आस्रव नाम मानेका है और शरीरनामकर्मके उदयसे मन, वचन और कायसे युक्त जीत्रकी जो शक्ति कोंक आगमनमें कारण है, उसे योग कइते हैं । अतः योग आस्रवका कारण है । योगके निमित्तसे ही कोका आसव होता है । इसलिये योगको ही आसव कहा है । यह योग तीन प्रकारका है-मनोयोग, वचनयोग और गस मपनि ! १ अमरतो। ३ बसत्ताणुवैक्खा, म असन्धित्वानुमेक्षा : ४ जीवापरसाण । मोहोवरण। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गसत्यादयवस्वारः, काययोगा औदारिकादयः सप्त। कीदृक्षास्ते । जीवप्रदेशानाम् भात्मप्रदेशानो लोकमात्राणां स्पन्दनविशेषाः बलनरूपाः । तत्र केन्चन मिध्याच्यादिसूक्ष्मसापरायगुणस्थानपर्यन्तानां जीवानां योगाः मोहोदयेन अष्टाविंशतिमेदभिनमोहकर्मविपाकेन युकाः । अफिपुनः । ततः उपरि त्रिषु गुणस्थानेषु तेन मोहोदयवियुका रहिसाः भानवाः, भास्रवन्ति संसारिक जीवमिति मानवाः, भवन्ति ॥८॥ मोह-विवाग-वसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स । ते आसवा मुणिजसुमिच्छत्ताई अणेय-विहा ॥ ८९ ॥ [छाया-मोहविपाकवशात् ये परिणामाः भवन्ति जीवस्य । ते आस्रवाः जानीहि मिथ्यात्यादयः अनेकविधाः ॥] जीवस्य संसारिणः ते प्रसिद्धाः मिथ्यास्वादयः, मिथ्यात्व ५, अपिरति १२, कयाय २५, योगाः १५, अनेश्वविधाः शुभाशुभभेदेन बहुपकाराः, तान् आक्षवान् मन्यख, हे भव्य, त्वं जानीहि । ते के। ये जीवस्य भाषा: परिणामा भवन्ति । फुतः । मोहनिपाकवशात् मोहनीयकर्मोदयवशात् ॥ ८९ ॥ कम्मं पुण्णं पावं हे सेसि व होति सच्छिदरा। मंद-कसाया सच्छा तिध-कसाया असच्छा हु॥१०॥ काययोग । मनोवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलन होता है, उसे मनोयोग कहते हैं । वचनवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलन होता है, उसे वचनयोग कहते हैं । और कायवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पंद होता है, उसे काययोग कहते हैं। मनोयोगके धार मेद है--सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोग । वचनयोगके भी चार भेद है-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभयवचनयोग । काययोगके सात भेद हैं-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग । योग तेरहवें गुणस्थानतक होता है, और मोहनीयकर्मका उदय दसवें गुणस्थानतक होता है। अतः दमने गुणस्थानतक तो योग मोहनीयकर्मके उदयसे सहित होता है । किन्तु उसके आगे ग्यारहवें, बारहवे और तेरहवें गुणस्थानमें जो योग रहता है, वह मोहनीयकर्मके उदयसे रहित होता है ॥ ८८ ॥ अर्थ-मोहनीयकर्मके उदयसे जीवके जो अनेक प्रकारके मिथ्यात्व आदि परिणाम होते हैं, उन्हें आस्रव जानो ।। भावार्थ-- भास्त्रवपूर्वक ही बन्ध होता है। वन्धके पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमेंसे योगके सिवाय शेष कारण मोहनीयकर्मके उदयसे होते हैं । और मोहनीयकर्मका उदय दसवें गुणस्थानतक रहता है । दसवें गुणस्थानमें मोहनीयकर्मको बन्धब्युच्छित्ति होजानेसे ग्यारहवें आदि गुणस्थानोंमें योगके द्वारा केवल एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है । शेष ११९ प्रकृतियाँ मोहनीयकर्मजन्य भावोंके ही कारण बैंधती हैं । अतः यद्यपि आनका कारण योग है, तथापि प्रधान होनेके कारण योगके साथ रहनेवाले मोहनीयकर्मके मिथ्यात्य आदि भावोंको मी आमव कहा है ॥ ८९ ॥ अर्थ-कर्म दो तरह के होते हैं-पुण्य और पाप । पुण्यकर्मका कारण शुभासव कहाता है और पापकर्मका कारण अशुभानव कहाता है । मन्दकषायसे जो आसव होता है, वह शुभानव है और तीनकषायसे जो आस्रव होता है, वह अशुभास्त्रव है ।। भावार्थ-कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमेंसे प्रत्येककी चार जातियाँ होती हैं। अनन्तानुबन्धी, १ समृणिजद्ध । २ वम मिच्छवाई। ३ग देर [हेक]। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2vc .मालवानमेशा ... [छाया-कर्म पुण्यं पापं हेतवः ठेवांग भवन्ति खरतराः । मन्दकषायाः स्वच्छाः तीनकषायाः अखच्छाः खलु ॥] एवं पुग्म कर्म प्रशस्तप्रकृतिशीतिः। पर पापै कर्माप्रशस्तप्रकृविता चत्वारिंशत् । तयोः शुभाशुभकर्मणोः हेतवः कारणानि खच्छेतराः खच्छाः निर्मळाः इतरे भसध्छाः मानवा भवन्ति । स्वच्छात्रवाः पुण्यहेतवः, भस्वच्छा. खवाः पापहेतव इत्ययः । स्फुटम् । के खच्छाः अस्वच्छाश्च । मन्दकषायाः प्रत्याख्यानसंज्वलनकोषादयो नोकषायाश्च खच्छाः निर्मलाः चीनकषायाः अनन्तानुबन्ध्यप्रस्याख्यानक्रोधादयः मिध्यावं तुमखच्छाः अनिर्मला.॥ अथ मन्दकषायाणां ष्टान्तं दर्शयति सवत्थ वि पिय-चयणं दुषयणे दुजणे वि खम-करणं । सधेसि गुण-गहणं मंद-कसायाण दिवंता ॥ ११ ॥ [छाया-सर्वन अपि प्रियवचनं दुर्वचने दुर्जने अपि क्षमाकरणम् । सर्वेशं गुणग्रहणं मन्दकपायाणां दृष्टान्ताः ॥] मन्दकषायाणां खच्छकषायाणी जीवानां दृष्टान्ताः सदाहरणानि । सर्वत्रापि शत्रुमित्रादिष्वपि प्रियवचनं कोमलं वाक्यम् । दुषचने दुश्वबने उके सति, अपि पुनः, दुर्जने धुएलोके क्षमाकरणम्, मम दोष क्षमखेति कर्तव्यम् । सर्चेचा जीवाना शुभाशुभाना गुणग्रहणं तेषां ये ये गुणाः सन्ति केवल वेषामेव प्रहणम् ॥ ९१ ।। अप्प-पसंसण-करणं पुज्जेसु वि दोस-गहण-सीलतं । धेरै-धरणं च सुइरं तिव-कसायाण लिंगाणि ॥ ९२॥ [छाया-प्रारमप्रशंसनकरण पूज्येषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम् । वैरधरणं च सुधिर तीवकरायाणां लिनानि । ) तीनकषायाणां लिझानि लिायति, लिङ्गानि चिहानि उदाहरणानीति यावत् । केषाम् । तीनकषायाणाम् भखकपायाणाम् । तानि कानि । आत्मप्रशंसनकरणम् , आत्मनः खकीयस्य प्रशंसनं खमाहारम्योद्घाटनं खगुणप्रकाशने छ, तस्स करणं कर्तव्यम् । अपि पुनः, पूज्येषु गुवादिषु दोषप्रहणशीलत्वम्, अवगुणग्रहणखभाषत्वम् । च पुनः । सुचिरं चिरकालं, वेरैधरण वैरघरणम् ॥ १२॥ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संचलन । उननेसे अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानापरणको तीर कषाय कहते हैं और प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलनको मन्द कषाय कहते हैं। तीव्र कषाय सहित योगसे जो आस्रव होता है, उसे अशुभानव कहते हैं और मन्द कषाय सहित योगसे जो आसव होता है, उसे शुभानब कहते हैं ।(आटों कर्मोंकी १२० बन्धप्रकृतियोंमेंसे ४२ पुण्यप्रकृतियाँ हैं और ८२ पापप्रकृतियाँ हैं। [वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शनामकर्म पुण्यरूप भी होते हैं और पापरूप भी होते हैं। अतः उन्हें दोनोंमें गिना जाता है । अनु.]) वैसे तो जीवके शुभानबसे भी दोनों ही प्रकारकी प्रकृतियोंका बन्ध होता है और अशुभानवसे भी दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंका बन्ध होना संभव है । किन्तु शुभास्त्रबसे पुण्य प्रकृतियोंमें स्थिति और अनुभाग अधिक पड़ता है, और अशुभासबसे पापप्रकृतियोंमें स्थिति और अनुभाग अधिक पड़ता है | इसीसे शुभास्रवको पुण्यकर्मका और अशुभासवको पापकर्मका कारण कहा जाता है ॥ ९०॥ मन्दकपायी जीवोंके चिस बतलाते हैं । अर्थ-समीसे प्रिय वचन बोलना, खोटे बचन बोलनेपर दुर्जनको भी क्षमा करना, और समीके गुणोंको ग्रहण करना, ये मन्दकषायी जीवोंके उदाहरण हैं ॥ भावार्थजिस जीवमें उक्त बातें पाई जायें, उसे मन्दकषायी समझना चाहिये ॥ ९१ ॥ तीव्रकषायी जीवोंके चिह्न बतलाते हैं । अर्थ-अपनी प्रशंसा करना, पूज्यपुरुषोंमें मी दोष निकालनेका सभाव होना, और बहुत कालतक बैरका धारण करना, ये तीनकषायी जीवोंके चिट्स हैं । क वरण, मरिष। १ग धेरपरणं, पोदवरण। - - । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०९एवं जाणतो वि हु परिचयणीए वि जो ण परिहरइ । तस्सासवाणुवेक्खा सबा वि शिरस्थया होदि ॥ १३ ॥ छाया-एवं जानन भपि खल्ल परित्यजनीयान् अपि यः न परिहरति । तस्य आसमानुप्रेक्षा सर्वा अपि निरर्षका इति ॥] सस्प जीवस्य सर्वापि बमखापि आनदानुप्रेक्षा निरर्थका निष्फला भवति । तस्य कस्य । हुस्फुटम् । यः पुमान एवं पूर्वोक जाननपि परित्यजनीयानपि परिहार्यान् मिथ्यात्वकषायादीन् न परिहरति ॥ ११ ॥ एदे मोहय-भावा जो परिवजेइ उसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव-अणुवेहणं तस्स ॥ १४ ॥ [छाया-एतान् मोहजभावान् यः परिवर्जयति उपशमे लीनः । हेयम् इति मन्यमानः आन्नबालुप्रेक्षण तस्य ॥] तस्य योगिनः मानवानुप्रेक्षणं आम्नवाणां सप्तपश्चाशता ५७ अनुप्रेक्षणम् अवलोकन विचारणं च । सस्प कस्य । यः पुमान् परिवर्जयति परित्यजति । कान् । एतान् पूर्वोकान् मारमप्रशंसारीन मोइजमावान् मोहकमजनितपरिणामांन् । कीरक्षः सन् । उपशमे लीनः उपशमपरिणामे स्वशाम्ये छीनः लय प्राप्तः । पुनः कीदृक्षः । हेयमिति मन्यमानः सर्व शरीरादि खाज्यमिति जामन् ॥ १४॥ सर्वानवपरित्या सम्यत्तदादिगुणैर्युतम् । शुभचन्द्रनुतं सिद्धं वन्दे सुमतिकीतये ॥ इविनीखामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायानिषिधविद्याधरपदभाषाकविचा कर्षिभरकधीशुभचन्द्रदेवविरपितटीकायाम् भावा प्रेक्षायां ससमोऽधिकारः॥॥ ८. संपरानुमेक्षा अथ संवरानुप्रेक्षा गाथासप्तकेनाह सम्मत देस-वयं महब्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवर-णामा जोगाभावो तहा' चेव ॥ ९५॥ भावार्थ-जिस जीवमें उक्त बातें पाई जायें, उसे तीव्रकषायवाला समझना चाहिये ॥ ९२ ॥ अर्थ-इस प्रकार जानते हुए भी जो मनुष्य छोड़ने योग्य भी मिथ्यात्व, कषाय वगैरहको नहीं छोड़ता है, उसकी सभी आसवानोक्षा निष्फल है ॥ मावार्थ-किसी बातका विचार करना तमी सार्थक है, जब उससे कुछ लाभ उठाया जाये । आस्रवका विचार करके भी यदि उससे बचनेका प्रयन नहीं किया जाता, तो वह विचार निरर्थक है । ९३॥ अर्थ-जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्मके उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भात्रोंको स्यागने योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आत्रत्रानुप्रेक्षा है || भावार्थ-उसी योगीकी आस्रवानुप्रेक्षा सफल है, जो आस्रयके कारण पाँच प्रकारके मिथ्यात्व, बारह प्रकारकी अविरति, पचीस प्रकारकी कषाय और पन्द्रह प्रकारके योग को छोड़ देता है ॥ ९१ ॥ इति आम्नवानुप्रेक्षा ॥ ७ ॥ साल गाथाओंसे संवरअनुप्रेक्षाको कहते हैं। अर्थ-सम्यक्त्व, देशनत, महाबत, कषायोंका जीतना और योगोंका अभाव, ये सब संवरके नाम है ॥ भावार्थ-आसक्के रोकनेको संवर कहते हैं | आनवाजुप्रेक्षामें मिथ्यास्त्र, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योगको आसव परव'सपरिवरणीये, सग पीये। २मसग भुपिरखा। कमसग मोहनमावा) मसग विमिति म'। ५मस ग मणुषेणे। मामयागुवेनसा, ममामवानुमेधा! ममताम, सवाष। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] ... ८.संपरानुप्रेक्षा ७ (छाया-सम्यक्स्व वेशवत महामत तथा जयः कषायाणाम् । एते संवरनामाः मोगाभावः समा एवं ॥ एते पूर्वोक्ता वरनामानः, आम्बनिरोधः संबर:) तदभिधानाः । ते के । सम्यक्त्वम् उपशमकशामिकदर्शन, देशवत देशसैयम (श्राद्वादशवसादिरूपम् , तह तथा, महारतम् अहिंसादिपपमहाव्रतरूपम्, तथा कषायाणां कोषारीना पञ्चविंशतिमेदभिशानां जयः निमहः, तथैव योगाभाषः मनोववनकाययोगाना निरोधः ॥ ९५॥ गुस्ती समिदी धम्मो अणुक्खा तह य परिसह-सओ वि । ' उकिट्ट चारित्त संवर-हेर्दू विसेसेण ॥ ९ ॥ [छाया-गुप्तयः समितयः धर्मः मनुप्रेक्षाः तथा च परीषहजयः अपि । उत्कृष्ट चारित्रं संपरहेतवः विशेषेण ॥] विशेषण उत्कर्षेण, एते संवरहेतवः आननिरोधकारणाने । वे के । गुप्तमः मनोवचनकायगोपनलक्षणाखिनः, समितरः इयोभाषेषणावाननिक्षेपणोत्सर्गलक्षणाः पञ्च, धर्मः उत्समक्षमादिदशप्रकारः, तथा अनुप्रेक्षाः अनिलादयो बादल, अपि पमा परीषजयः परीषहाणां शुषादीनां जयः विजयः खत्कृष्ट चारित्रं सामाणिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविधिसभसापरायगणरूयातला । तथा चोकं श्रीउमायामिदेवेन । 'स गुमिममितिधर्मानप्रेक्षापरीषडजदया अप गुप्त्यावीन विशदयति । गुत्ती जोग-णिरोहो समिदी य पमाद-वजणं घेव। धम्मो दया-पहाणो सुतते-चिंता अणुप्पेही ॥९७ ॥ कहा था । सो चौधे गुणस्थानमें सम्यक्त्यके होनेपर मिथ्यात्वका निरोध होजाता है । पाँचवें गुणस्थानमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षावत, इस प्रकार बारह प्रतरूप देशसंयमके होनेपर अविरतिका एकदेशले अभात्र होजाता है। छठे गुणस्थानमें अहिंसादि पाँच महायतों के होने पर अविरतिका पूर्ण अभाव होजाता है । सातवें गुणस्थानमें अग्रमादी होनेके कारण प्रमादका अभाव होजाता है । ग्यारहवें गुणस्थानमें २५ कषायोंका उदय न होनेसे कषायोका संवर होजाता है। और चौदहवें गुणस्थानमें योगोंका निरोध होनेसे योगका अभाव होजाता है। अतः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके विरोधी होनेके कारण सम्यक्त्व, देशजत, महावत, कमायजय और योगाभाव संवरके कारण हैं । इसी लिये उन्हें संपर कहा है ॥ ९५ ॥ अर्थ-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, और उत्कृष्ट चारित्र, ये विशेषरूपसे संवरके कारण है। भावार्थ-पूर्व गाथामें जो संत्ररके कारण बतलाये हैं, वे साधारण कारण है, क्योंकि उनमें प्रवृत्तिको रोकनेकी मुख्यता नहीं है। और जबतक मन, वचन और काथकी प्रवृत्तिको रोका नहीं जाता, तबतक संघरकी पूर्णता नहीं हो सकती । किन्तु इस गायामें संवरके जो कारण बतलाये है, उनमें निवृत्तिकी ही मुख्यता है । इसी लिये उन्हें विशेष रूपसे संवरके कारण कहा है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोकनेको गुप्ति कहते हैं। इसीसे गुप्तिके तीन भेद होगये हैं—मनोगुति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । समितिके पाँच भेद हैं-ईयो, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और तत्सर्ग । धर्म उत्तम क्षमादि रूप दस प्रकारका है । अनुप्रेक्षा अनिल्स, अशरण आदि बारह हैं । परीषह क्षुधा, पिपासा आदि बाईस हैं । उस्कृष्ट चारित्रके पाँच भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशति, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाल्यात । तत्त्वार्थसूत्रके ९वें अध्यायमें उमाखामी महाराजने संवरके यही कारण विस्तारसे बतलाये हैं ॥९६ ॥ गुप्ति आदिको स्पष्ट करते हैं। अर्थ-मन, वचन, और कापकी सब अणुवेहा, सग 'विक्खा। रेलमग तह परीसह, सताव परीसा। पोक। ४ पर्याव५बतत्म-कसग सतब- ३वमणुषेरा। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रश्रमण : मुनि ट्याकार्थक तको एल्उगार‌ला श्रावण बडा अपूर्ण १ - 20 स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा०१८ [ छाया-गुप्तिः योगनिरोधः समितिः ष प्रमादवर्जनम् एव । धर्मः दयाप्रधानः सुतत्त्वचिन्ता अनुप्रेक्षा ॥ ( योगनिरोधः योगानां मनोवचनकाथाना निरोधो गोपनं मुतिः कथ्यते च पुनः प्रमादानः विक्रथाकषायादिविकाराण वर्जनं यजन समितिः कथ्यते च पुनः, दयाप्रधानः दयायाः प्राणिकृपायाः प्राधा मुख्यत्वं यत्र दयाप्रघानः घर्मो भवेत् (सुतश्चचिन्ता आत्मादिपदार्थानां चिन्ता चिन्तनम् अनुप्रेक्षा भवेत् ॥ १७ ॥ सो वि परीसह विजओ छुहादि'- पीडाण अइ-रउद्दाणं । सवणाणं च मुणीर्ण उवसम भाषेण जं सहणं ॥ ९८ ॥ [ छाया-स अपि परीषहविजयः प्रधादिपीकानाम् अतिरौद्राणाम् । श्रमणानां च मुनीनाम् उपशमभावेन यत् सहनम् ॥ ] सोऽपि संदरः श्रवणानां [ श्रमणानां ] सुनीनां यत् उपग्रमभावेन क्षमादिपरिणामेन सह परामर्षमम् । केशम् । अतिरौद्राणाम् भतिमीमात्रां शुभादिपीडानां बुभुक्षादिवेदनानां सोऽपि परीषद् विजयः द्वाविंशति परीषाणां जयः कथ्यते ॥ ९८ ॥ अप्प-सरूवं वत्युं परायादिएहि दोसेहिं । सज्झाणम्मि मिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ ९९ ॥ छाया - आत्मखरूपं वस्तु व्यकं रागादिकैः दोषैः। सभ्याने निलीनं तत् जानीहि उत्सबै चरणम् ॥ ] तत्त चरणम् उत्तमं श्रेष्ठं चारित्रं जानीहि विद्धि, भो भव्य त्वम् । तत् किम् । आत्मस्वरूप स्वचिदानन्दं वस्तु बस सि अनन्तगुणानिति वस्तु, आत्मानम्, स्वध्याने धर्मष्याने याने या निलीनं लयं प्रहम् । श्रीरक्षम् । रागादिदोषैः त्यकं रागद्वेषादिदो बेनिर्मुकम् ॥ ९९ ॥ पैये संवर- हे विचारमाणो वि जो ण आयरइ । सो भ्रम चिरं कालं संसारे दुक्ख संतत्तो ॥ १०० ॥ [ छाया - एतान् संवरतून विचारयन् अपि यः न आचरति । स भ्रमति चिरं कालं संसारे दुःखसंतप्तः ॥ ] यः मान् न आचरति न प्रवर्तयति । कीदृशः सन् । विचारयपि चर्चयन्नपि । कान् । एतान् गुप्त्यादीन् संगरहेतून आवनिरोध कारणानि । स पुमान् चिरं कालं दीर्घकालं संसारे पञ्चविधे भवे श्रमति । कीदृक्षः । दुःखसंतप्तः दुःखैः तापं नीतः ॥ १०० ॥ प्रवृत्तिके रोकनेको गुप्ति कहते हैं । विकथा कषाय वगैरह प्रमादोंके छोड़नेको समिति कहते हैं। जिसमें दया ही प्रधान है, वह धर्म है । जीव, अजीब आदि तत्वोंके चिन्तन करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं | भावार्थ-प्रवृत्तिको रोकनेके लिये गुप्ति है । जो मुनि प्रवृत्तिको रोकने में असमर्थ हैं। उन्हें प्रवृत्तिका उपाय बतलाने के लिये समिति है । प्रवृत्ति करते हुए प्रमाद न करनेके लिये धर्म है । और उस धर्मको हद करनेके लिये अनुप्रेक्षा है ॥ ९७ ॥ अर्थ - अत्यन्त भयानक भूख आदिकी वेदनाको ज्ञानी मुनि जो शान्त भात्रसे सहन करते हैं, उसे परीषहजय कहते हैं । वह मी संवररूप ही है ॥ ९८ ॥ अर्थ - रागादि दोषोंसे रहित शुभध्यानमें लीन आत्मखरूप वस्तुको उत्कृष्ट चारित्र जानो || भावार्थ - रागादि दोषोंको छोड़कर, धर्मध्यान या शुक्लध्यानके द्वारा आत्माका आत्मामें लीन होना ही उत्कृष्ट चारित्र है ।। ९९ ।। अर्थ-जो पुरुष इन संवरके कारणोंका विचार करता हुआ मी उनका आचरण नहीं करता है, वह दुःखोंसे संतप्त होकर चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता १लम गदा २ ब बिलीणं [१] ३ व दूं क स ग हे म हेतु ४ ब ममेर [म] चिरकाळ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. निर्जरानुप्रेक्षा जो पुर्ण बिसये- विरत्तो अध्याणं समदो' वि संवरइ । मणहर- बिसहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ॥ १०१ ॥ यः परः सर्वतः अपि संवृगोति । मनोहर विषयेभ्यः तस्य स्फुटं संपरः भवति ॥ ] स्फुटं निश्चिर्त, तस्य भुतेः संवरः कर्मणां निरोधः भवति । तस्य कस्य । यः मुनिः पुनः संवृणोति सुंदरविषयी करोति सर्वदा सर्वकालमपि । कम् । आत्मानं खचिदानन्दम् । कृतः । मनोहर विषयेभ्यः मनोज्ञपवेन्द्रियगोवरेभ्यः । कीदृक्षः सन् । विषमविरक्तः विषया अष्टाविंशतिभेदभिन्नाः तेभ्यो बिरक्तः निरृतः ॥ १०१ ॥ वरं संवरं सारं कर्तुकामो विचेष्टते । शुभचन्द्रः सदात्मानं सदा सुमतिकीर्तिना ॥ इस श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा या स्त्रिविद्यविद्याधरषदभाषाकविचक्रवर्तिभट्टारक श्रीशुभ वश्व देवविरचितटीकायां संवरानुप्रेक्षायामष्टमोऽधिकारः ॥ ८ ॥ १०] ९. निर्जरानुप्रेक्षा वारस विद्देण तत्रसा णियाण- रहियस्स णिज्जरा होदि । dear भावणादो रिहंकाररस पाणिस्स ।। १०२ ॥ ear निर्जरानुप्रेक्षां प्रकाशयति- [छाया-द्वादशविधेन तपसा निदानरहितस्य निर्जरा भवति । वैराग्यभावनातः निरहंकारस्य ज्ञानिनः ॥ ] भवति । का (निर्जरा निर्जरणम् एकदेशेन कर्मणां शैचनम् । कस्य । ज्ञानिनः खात्मज्ञस्य । कीदृक्षस्य । निदानरहितस्व इहामुत्रमुखकांक्षारहितस्य । पुनः कीदृक्षस्य । निरहंकारिणः अभिमानरहितस्य मदाह करहितस्य । केन द्वादशमिवेन तपसा अनशनानोदर्यादिद्वादश प्रकार पथरनेन । कुतः । चैराग्यभावनातः[ भवान भोग विरतिर्वैराग्यं तस्य भावना अनुभवनम्, अथवा भावना खखरूप श्रद्धानम्, वैराग्य च भावना व वैराग्यभावने, ताभ्यां कर्मणां निर्जरा स्यात् । 'तपसा निर्भश च ।' इति सूत्रान् ॥ १०२ ॥ अथ निर्जरालक्षणं लक्षयति " 我 है ॥ १०० ॥ अर्थ - किन्तु जो मुनि विषयोंसे विरक्त होकर, मनको हरनेवाले पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे अपने को सदा दूर रखता है, उनमें प्रवृति नहीं करता, उसी मुनिके निश्चयसे लंगर होता है ॥ १०१ ॥ इति संक्रानुप्रेक्षा ॥ ८ ॥ अब निर्जरानुप्रेक्षाको कहते हैं । अर्थ-निदानरहित, निरभिमानी ज्ञानी पुरुषके वैराग्य की भावनासे अथवा वैराग्य और भावनासे बारह प्रकारके तपके द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है ।। भावार्थआत्मा से कर्मों के एकदेशसे झड़नेको निर्जरा कहते हैं । सामान्य निर्जरा तो प्रत्येक जीवके प्रतिसमय होती ही रहती है, क्योंकि जिन कर्मो का फल भोग दिया जाता है, वे आत्मासे पृथक हो जाते हैं । किन्तु विशेष निर्जरा तपके द्वारा होती है । वह तप बारह प्रकारका है । अनशन, अथमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविधशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं। और, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह अन्तरंग तप हैं। इन तपके द्वारा निर्जरा होती है । किन्तु ज्ञानी पुरुषका ही तप निर्जराका कारण है, अज्ञानीका तप तो उलटे ही कारण होता है। तथा तप करके यदि कोई उसका मद करता है, कि मैं बड़ा तपखी हूँ तो वह तप बंधका ही कारण होता है। अतः निरभिमानी ज्ञानी का ही तप निर्जराका कारण होता है । तथा यदि इस लोकमें ख्याति पूजा वगैरह के लोभसे और परलोकमें इन्द्रासन गैरह वेक्ता । स कारि ९ व पुणु । २ ग विस। रेलमसम्बदा ४ विसयेदिदो ५ ७ ग सवणं । कार्तिक ०७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० १०३। (सोसि कम्माण सति-विवाओ' हवेइ अणुभाओ। तदणंसरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ १० ॥ [छाया-सर्वेषां कर्मणां शफिविपाकः भवति भनुभागः। तदनन्तरे तु शटर्न कर्मणां निर्जरा जानीहि ॥] कर्मणां सानावरणादीनां निर्जरा निर्जरणम् एकदेशेन शेरनं गलने जानीहि । शक्तिविपाकः शक्तिः सामयं तस्य विपाक उदयः (मनुभागः फलदानपरिणतिः) केषाम् । सर्वेषां कर्मणां ज्ञानावरणायष्टकर्मणा वा मूलप्रकृतीनाम् उत्तरप्रदीनाम् उत्तरोत्तरप्रकृतीनां च । तु पुनः । तदनन्तरं कर्मविपाकादनन्तरं शटन निषेकरूपेण गलनम् ॥ १.३॥ भप तस्याः दैविध्यमभिपते सा पुर्ण दुविहा णेया सकाल-पत्ता तवेण कयमाणा । चादुगदीर्ण पढमा चय-जुत्ताणं हवे बिदिया ॥ १०४ ॥ [छाया-सा पुनर द्विविधा या स्वकालप्राप्ता तपसा क्रियमाणा । चातुर्गतिकानां प्रथमा प्रसयुक्तानां भवेत् द्वितीया ॥] सा पुनः निर्जरा द्विविधा द्विप्रकारा या हातण्या, सविपाकाविपाकमेदात् । तत्र सविपाका खबालासा खोदयकालेन निर्जरणे प्रासा, समयबद्धेन बद्ध कर्म सामाधाकाल स्थित्वा खोदयकालेन निषेकरूपेण गलति, पक्कानफलयत् । द्वितीया तुमविपाकनिजेरा तपसा क्रियमाणा अनशनादिद्वादशप्रकारेण विधीयमाना, यथा अपक्कानो कदलीफलानो ठासाचन विधीयते तथा अनुदयप्राप्ताना कर्मणां सपश्चरणादिमा, विद्रग्यनिझेपेण कर्मनिषेकाना गालनम् । सत्र प्रथमा सविपाकनिर्जरा चातुर्गतिकानां सर्वेषो प्राणिना साधारणा। द्वितीया व भत्रिपाकनिर्जरा प्रतयुकानी खन्यत्त्ववेशनतमहाप्रतादिसहितानां भवेत, १.४॥ अथ निर्जेरावहिं दर्शयतिकी प्राधिके लोभसे कोई तपस्या करता है तो वह निरर्थक है। अतः निदानरहित तप ही निर्जराका कारण है। तथा यदि कोई संसार, शरीर और भोगोंमें आसक्त होकर तप करता है तो वह तपमी बन्धका ही कारण है । अतः वैराग्यभावनासे किया गया तप ही निर्जराका कारण होता है ॥ १०२ ॥ भब निर्जराका लक्षण कहते हैं । अर्थ-सब कोंकी शक्तिके उदय होनेको अनुभाग कहते हैं। उसके पश्चात् कोंके खिरनेको निर्जरा कहते हैं ॥ भावार्थ-उदयपूर्वक ही कोंकी निर्जरा होती है। पहले सत्तामें वर्तमान कर्म उदयमें आते हैं । उदयमें आनेपर वे अपना फल देकर सड़ जाते हैं। इसीका नाम निर्जरा है ॥ १०३ ।। अब उसके दो भेदोंको कहते हैं । अर्थ-वह निर्जरा दो प्रकारकी है-एक खकालप्राप्त और दूसरी तपके द्वारा की जानेवाली । पहली निर्जरा चारों गतिके जीवोंके होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवोंके होती है | भावार्थ-निर्जरा के दो भेद हैंसविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा । सविपाकनिर्जराको खकालप्राप्त कहते हैं। क्योंकि बंधे हुए फर्म अपने आयाधाकालतक सत्तामें रहकर, उदयकाल आने पर जब अपना फल देकर झड़ते हैं, तो अपने समयपर ही झड़नेके कारण उसे खकालप्राप्त निर्जरा कहते हैं। जैसे वृक्षपर पका हुआ मामका फल अपने समयपर पक कर टपक पड़ता है। दूसरी अविपाकनिर्जरा है, जो बारह प्रकारके तपके द्वारा की जाती है। जैसे कच्चे आमोंको समयसे पहले पका लिया जाता है, वैसे ही जो कर्म उदयमें नहीं आए हैं उन्हें तपस्या आदिके द्वारा बलपूर्वक उदयमें लाकर खिरा दिया जाता है। पहले प्रकारकी निर्जरा सभी जीवोंके होती हैं, क्योंकि बाँधे गये कर्म समय आनेपर समीको फल देते हैं और पीछे अलग हो जाते हैं । किन्तु दूसरे प्रकारकी निर्जरा अतधारियोंके ही होती है, क्योंकि वे तपस्या वगैरहके द्वारा कोको बलपूर्वक उदयमें लासकते हैं ॥ १०४ ।। वसन्त । १ स विवागो । ३ ग सइनं। ४२ पुणु। ५ व चाऊगवीर्ण, १ साउ' । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान से निर्जरा - १०८] ९. निर्जरानुप्रेक्षा वन-भादवा यही होई साहूणं । तह तह णिज्जर-बड्डी' विसेसदो धम्म-सुकादो ॥ १०५ ॥ [या-उपशम भावतपसा यथा यथा वृद्धिः भवति साधोः । तथा तथा निर्जरावृद्धिः विशेषतः धर्मशुकाभ्याम् ॥] साधूनां योगिनां यथा यथा येन येन प्रकारेण उपशमभावतपसाम् उपशम भावस्य उपशमसम्यत्वादेः तपसाम् अनशनादीनां वृद्धिर्वर्धनं भवेत् तथा तथा तेन तेन प्रकारेण निर्जराबुद्धिर्जायते, असंख्यातगुणा कर्मनिर्जरा स्यात्, धर्मकाभ्यां धर्मध्यानात् आशापायविपाकसंस्थान विषय मेदभिन्नात् शुरुध्यानाच पृथकवितर्क विचारादेः, विशेषतः असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा कर्मणां निर्जरा जायते ॥ १०५ ॥ अथैकादशनि राणां स्थाननियम गाथाश्रयेण निर्दिशति ५१ (मिच्छादो सहिडी असंख-गुण-कम्म णिजरा होदि । तसो अणुवय-धारी तसो य महवई णाणी ॥ १०६ ॥ पढम कसाथ चण्हं बिजोजओ तह य खेवय-सीलो य । दंसण-मोह-तियरस य तत्तो उवसमर्ग चत्तारि ॥ १०७ ॥ स्वगो य खीण-मोहो सजोइ णाही तही अजोईया | दे वरं वरं असंख-गुण-कम्म णिजरया ॥ १०८ ॥ [ छाया-मिथ्यात्वतः सदृष्टिः असंख्यगुणकर्मनिर्जरो भवति । ततः अणुव्रतधारी ततः च महावती शानी ॥ प्रथम कषायचतुर्णां वियोजनः तथा च क्षपकशीलः च । दर्शन मोहत्रिकस्य च ततः उपशम कचस्वारः ॥ क्षपकः च क्षीणमोहः सयोगिनाथः तथा अयोगिनः । एते उपारे उपरि असंख्यगुणकर्मनिर्जरकाः ॥ ] प्रथमोपशम सम्यवोत्पती करणत्रयपरिणामचरमसमये वर्तमान विशुद्ध विशिष्टमिथ्यादृष्टेः आयुर्वैर्जितज्ञानावरणादिसामकर्मणां यद्गुणश्रेणिनिर्जराइभ्यं, अब निर्जराकी वृद्धिको दिखाते है । अर्थ-साधुओंके जैसे जैसे उपशमभात्र और तपकी वृद्धि होती है, वैसे वैसे निर्जराकी भी वृद्धि होती हैं । धर्मध्यान और शुलध्यान से विशेषकरके निर्जराकी वृद्धि होती है । भावार्थ जैसे जैसे साधुजनोंमें साम्यभाव और तपकी वृद्धि होती है, अर्थात् साम्यभाव के आधिक्य के कारण मुनिगण तपमें अधिक लीन होते हैं, वैसे वैसे कर्मों की निर्जरा भी अधिक होती है। किन्तु, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामके धर्मध्यान से तथा पृथक्त्वत्रितविचार, एकत्ववितर्कविचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिर्वृती नामके पानसे कभी और मी अधिक निर्जरा होती है । सारांश यह है, कि ध्यान में कर्मोंको नष्ट करनेकी शक्ति सबसे अधिक है ।। १०५ || तीन गावाओंसे निर्जराके ग्यारह स्थानोंको बतलाते हैं । अर्थमादृष्टि से सम्यग्दृटके असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है । सम्यग्दृष्टिसे अणुव्रतधारी के असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। अणुव्रतधारी ज्ञानी महाव्रती असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । महाव्रती अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेवालेके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे दर्शन मोहनीयका क्षपण विनाश करनेवालेके असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे उपशमश्रेणिके आठवें, नौवें तथा दसवें गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवालेके असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशमकके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे क्षपकश्रेणिके आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीयका क्षय करने वालेके १२ व १ द घुट्टी ४ प भसंख्यागुणा ५ स ख़बर ६ मा ७ सयोगिणा हो, म सजोयणाणो । ८ व त अयोगी म । ९ द पदो। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्मुद्धात di me २६२ ५२ स्वामिकार्त्तिकेयानुमेस [० १०९ ततः असंयत्तचम्यग्दृष्टिगुणस्थान गुणश्रेणिनिर्जरा द्रव्यमाख्यातगुणं भवति । १ । ततः देशयतस्य गुणविनिर्जराइब संख्यातगुणम् । २ । ततः सकलसंयत्तस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ३ : ततोऽनन्तानुबन्धिकवायविसंयोजकस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ४ । ततो दर्शन मोहक्षपकस्य गुणश्रेणिनिर्जरा इन्यमसंख्यातगुणम् । ५ । ततः कषायोपशमत्रयस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ६ । ततः उपशान्तकषायस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रभ्यमसंख्यातगुणम् । ७ । ततः क्षपकश्रमस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ८ । ततः क्षीणकषायस्य गुणश्रेणिनिर्जरावब्यमसंख्यातगुणम् । ९ । ततः स्वस्थानकेवलिजिनस्य पतिविशख्यातगुणतः मु जिनस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ११ । इत्येकादशस्वस्थाने गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यस्य प्रतिस्थानम संख्यात्तगुणितमुकम् ॥ १०६-८ ॥ अथाधिकनिर्जरा कारण गाथाचतुष्केनाह जो विसहृदि दुषयणं साहम्मिय- हीलणं च उवसगं । जिणिऊण कसाय - रिडं तस्स हवे णिज्जरा विजेला ॥ १०९ ॥ असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानवालेके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे सयोगकेवली भगवानके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे अयोगकेवली भगवानके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। इस प्रकार इन ग्यारह स्थानोंमें ऊपर ऊपर असंख्यात गुणी असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है ॥ भावार्थ-प्र - प्रथम उपशम सम्यमस्वके प्रकट होने से पहले सातिशय मिध्यादृष्टिजीवके अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके तीन परिणाम होते हैं। जब वह जीव उन परिणामोंके अन्तिम समय में वर्तमान होता है, तो उसके परिणाम • विशुद्ध होते हैं, और वह अन्य मिध्यादृष्टियोंसे विशिष्ट कहता है । उस विशिष्ट मिथ्यादृष्टिके आयुकर्मके सिवाय, शेष सातकम की जो गुणश्रेणि निर्जरा होती है, उससे असंयत सम्पष्टिके श्रसंख्यातगुणी निर्जरा होती है । इसी प्रकार आगेमी समझना चाहिये । सारांश यह है कि जिन जिन स्थानों में विशेष विशेष परिणाम विशुद्धि है, उन उनमें निर्जरा भी अधिक अधिक होती है, और ऐसे स्थान ग्यारह हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि ग्रन्थकारने ग्यारहवाँ स्थान अयोगीको बतलाया है। किन्तु सं. टीकाकारने सयोगकेवली के ही दो मेद करके खस्थानसयोगकेवलीको दसवाँ और समुद्घातगत सयोगकेवलीको ग्यारहवाँ स्थान बतलाया है । और, 'अजोइया' को एक प्रकार से छोड़ ही दिया है। इन स्थानोंको गुणश्रेणि मी कहते हैं, क्योंकि इनमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती है। [ तत्त्वार्थसूत्र ९-४५ में तथा गो. जीवकाण्ड गा० ६७ में केवल 'जिन' पद आया है । तवार्थसूत्रके टीकाकारोंने तो उसका अर्थ केवल जिन ही किया है और इस तरह दसही स्थान माने है (देखो, सर्वार्थ और राजवार्ति० ) किन्तु जीवकाण्डके से टीकाकारोने 'जिन' का अर्थं स्वस्थानकेवली और समुद्धात केवली ही किया है । वे साहित्य पंचम कर्मग्रन्थ, पञ्चसंग्रह गैरह में सयोगकेवली और अयोगकेवलीका ग्रहण किया है । अनु० ] ॥ १०६-८ ॥ चार गाथाओं से अधिक निर्जरा होनेके कारण बतलाते हैं । अर्थ-जो मुनि कषायरूपी शत्रुओंको जीतकर दूसरोंके दुर्वचन, अन्य साधर्मी मुनियोंके द्वारा किये गये अनादर और देव वगैरह के द्वारा किये गये उपसर्गको सहता है, उसके बहुत निर्जरा होती है || भावार्थ - जीवके साथ दूसरे लोग जो कुछ दुर्व्यवहार करते हैं, वह उसके ही पूर्वकृत कर्मो का फल है। ऐसा समझकर जो मुनि दूसरोंपर १ ब साम्मिी । २ च णिजर बिउकं । - · 1 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१११] १. निर्जरानुप्रेक्षा [छायायः विषहते दुवैचन साधर्मिकहीलने च उपसर्गम् । जिल्ला कषायरि तस भवेत् निर्जरा विपुला ] तस्य मुनेः, विपुला प्रचुरा निखीर्णा, निर्जरा कर्मणां गलनं भवेत् । तस्य कस्य । यः मुनिः विषहते क्षमते । किम् । दुर्वचनम् अन्यकृतगालिप्रवान हननम् अपमानम् अन्नादर साधर्मिकानादरं विषहते। च पुनः, उपसर्ग देवादिकृतचतुर्विधोपसर्ग महसे । या । जित्वा निगृख कषायरिएं कोधमानमासलोभरागद्वेषादिशत्रुम् ॥ १.९॥ रिण-मोयण व मपणइ जो उयसग्गं परीसह तिबं । पाव-फलं मे एवं मया विजं संचिदं' पुर्व ॥ ११० ।। [छाया-ऋणमोचनम् इव मन्यते यः उपसर्ग परीषई तीवम् । पापफलं मे एतत् मया अपि यत् मैचित पूर्वम् ॥ यः मुनिः मन्यते जानाति । कम्। उपसर्ग देशदियष्ठिमुष्टिमारणादिक कृत, च पुनः, सीब घोर परीपई शुषा. विजनिराम् । किंवत् । ऋणमोचनवत् यथा येन केनोपायन ऋणमोचन क्रियते तथा उपसोदिसहन पापऋणमोचना कर्तव्यम् । अपि पुनः, मे मम, एतापापफलम् एसटुपसर्गादिक मम पापफलम्, यत् पापफलं मया पूर्वम् अतः प्रासंचितम् उपार्जितम् इति मन्यते ॥ १०॥ जो चिंतेइ सरीरं ममत-जणयं विणस्सरं असुई। दसण-णाणचरितं सुह-जणयं जिम्मलं णिचं ॥ १११॥ माणा-यः लिलगानि गीर गान विदारक चिम् । दर्शनशानचरित्रं शुभजनक निर्मके निस्त्रम् ॥] बो मुनिः चिन्तयति। किं तत् । शरीर कायम्। कीहक्षम्। ममत्वजनकै ममत्वोरपादकम् । पुनः कीदक्षम् । विनश्वर महार पिकम् । पुनः कीदृक्षम् । अशुचि अपवित्रद्रव्यजनितम् अपवित्रधातुरितं च एवंभूतं शरीरै चिन्तयति । दर्शनहानबारित्रं चिन्तयति। कीदक्षम्। शुभजनक प्रशस्वकार्योत्पादकम् । पुनः निर्मले, सम्यक्त्वस्य पञ्चविंशतिः मला, शानस बनर्षपासादयोऽयौ मलाः, चारित्रस्य भनेके मलाः, वेभ्यः निःझान्तम् । कीदृक्षम् । नित्यं शाश्वतं खाल्मगुणत्वात् ॥११॥ कोष नहीं करता और दुर्वचन, निरादर तथा उपसर्गको धीरतासे सहता है, उसके काँकी अधिक निर्जरा होती है। अत: उपसर्ग वगैरहको धीरतासे सहना विशेष निर्जराका कारण है । उपसर्ग चार प्रकारका होता है। देवकृत-जो किसी व्यन्तरादिकके द्वारा किया जाये, मनुष्यकृत-जो मनुष्य के द्वारा किया जाये, तिर्यश्चकृत-जो पशु वगैरहके द्वारा किया जाये, और अचेतनकृत-जो वायु कौरहके द्वारा किया जाये ॥१०९ ॥ अर्थ-'मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप कमाया था, उसीका यह फल है, ऐसा जानकर जो मुनि तीव्र परीषह तथा उपसगको कर्जसे मुक्त होनेके समान मानता है, उसके बहुत निर्जरा होती है । भावार्थ-जैसे पहले लिये हुए ऋणको जिस किसी तरह चुकाना ही पड़ता है, उसमें अधीर होनेकी भावश्यकता नहीं है । वैसे ही पूर्वजन्ममें संचित पापोंका फल मी भोगना ही पड़ता है, उसमें अधीर होनेकी आवश्यकता नहीं है, ऐसा समझकर जो उपसर्ग आनेपर अथवा भूख प्यास वगैरहकी तीन वेदना होनेपर उसे शान्त भावसे सहता है, व्याकुल नहीं होता, उस मुनिके बहुत निर्जरा होती है ॥ ११०॥ अर्थ-जो मुनि शरीरको ममलका उत्पादक, नाशमान और अपवित्र धातुओंसे भरा हुआ विचारता है, तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको शुभ कार्योंका उत्पादक, अविनाशी और मलरहित विचारता है, उसके अधिक निर्जरा होती है | भावार्थ-शरीरके दोषोंका और सम्यग्दर्शन वगैरहके गुणोंका चिन्तन करनेसे शरीरादिकसे मोह नहीं होता और सम्यादर्शनादि गुणोंमें प्रवृत्ति द होती है, अतः ऐसा चिन्तन भी निर्जराका कारण है। सम्पग्दर्शनके २५ मल हैं, सम्याज्ञानके आठ मल हैं और सम्यक् चारित्रके अनेक मल हैं समसग भोगणुय। २ असेच्य। एवममुकं Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०१५२अप्पाणं जो जिंदा गुणवंताणं करेई बहुमाण । मण-इंदियाण विजई स सरूव-परायणो होई ॥ ११२ ॥ [आया-मात्मानं यः निन्दति गुणवता करोति बहुमानम्। मनइन्द्रियाणा विजयी स खरूपपरायणो भवतु ॥] यः निर्जरापरिणतः पुमान् निन्दयति निन्दा विदधाति, अप्पाणे भारमानम्, भदं पापीति कृत्वा आस्माने निन्दयतीत्यर्थः । करोति विदधाति । कम् । बहुमान प्रचुरमानसम्मानम् । केषाम् । गुणवतो सम्यक्त्वतज्ञानादियुकानों श्रावकागो मुनीनो या कीरक्षः सम् । मनप्रियाणां विजयी, मनः चित्तम् इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां विजयी जेता पक्षीकर्ता । कि हत्या। भूस्वा । कक्षा खलपरायमः सविधायाने परायणः सपरः॥ ११॥ तस्स य सहलो जम्मो तस्स ये पावस णिजरा होदि । सस्स ये पुण्णं वड्डदि तस्स वि सोक्वं परं होदि ॥ ११ ॥ [छाया-तस्य च सफल जम्म तस्य च पापस्म निर्जरा भवति । तस्य क पुण्यं वर्धते वय भपि सौल्य पर भवति ॥] [तस्य मुनेः प्रफल जन्म, तस्य च पापस्य ] या इम्विधा निर्जरा निर्जरणं भवति जायते । अपि पुनः, नस्य मुनेः पवते वृद्धि याति । किम् । पुण्यं प्रशखकर्म, च पुनः, तस्य मुनेः भवति जायते। कि सत् । परम् उकई सौख्य शम मोक्षसाक्ष्यमित्यर्थः । इति गाथाचतुष्केण संवन्धी विधीयताम् ॥ ११३॥ अथ परमनिर्जरामभिधत्ते जो सम-सोपव-णिलीणो वारंवारं सरेइ अप्पाणं । इंदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिजरा परमा ॥ ११४ ॥' [छाया-यः समसाख्यनिलीनः वारंवार स्मरति आत्मानम् । इन्द्रियकवायविजयी तस्य भक्त निरा परमा तस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य मुनेः, परमा उस्कृष्ठा, निर्जरा कर्मणां निर्जरणं गलनं भवेत् । तस्य कस्य । यो मुनिः पारंवार पुन: सुनः स्मरति ध्यायति चिन्तयति।कम् । आत्मानं शुद्धबोधनिधान शुद्धचिद्रूपम् । कीहक्षः सन् । समसौस्यनिलीनः साम्पमुकेकय प्राप्तः । पुनः कीदक्षः। इन्द्रियकषाय विजयी इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःधोत्राणि, कषायाः मनन्तानुबन्ध्यादिकोधमानमायालोभाः पञ्चर्विशतिः, तेषां विजयी जेता वशीकर्ता ॥ ११४॥ ये बभ्यन्ते प्रकृविनिचया योगयोगेन युक्ता निर्जीर्यन्ते स्वकृतमुकृतैः कर्मणां वे निषेकाः । संज्ञायन्ते विशदहवर्ध्यानतस्ते समस्ताः संयज्यन्ते भवहतियुतैर्युतकर्मानुभागाः ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाः त्रिविद्य विद्याधरपड्डापाकवि चक्रवर्तिमष्टारकश्रीशुभचन्द्रदेषविरचितटीकार्या निर्जरानुप्रेक्षायां नवमोऽधिकारः॥५॥ ॥ १११ ।। अर्थ-जो मुनि अपने खरूपमें तस्पर होकर मन और इन्द्रियोंको वशमें करता है, अपनी निन्दा करता है और गुणवानोंकी-सम्यक्त्व, वत और ज्ञानसे युक्त मुनियों और श्राक्कोंकी प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है | भावार्थ-अपनी निन्दा करना, गुणवानोंकी प्रशंसा करना तथा मन और इन्द्रियोंपर विजय पाना अधिक निर्जराके कारण हैं ॥ ११२ ।। अर्थ-जो साधु निर्जराके पूर्वोक्त कारणोंमें तत्पर रहता है, उसीका जन्म सफल है, उसीके पापोंकी निर्जरा होती है, उसीके पुण्यकी बढ़ती होती है, और उसीको उत्कृष्ट सुख-मोक्षसुख प्राप्त होता है ॥ ११३ ॥ अब परम निर्जराको कहते हैं । अर्थ-जो मुनि समतारूपी सुखमें लीन हुआ, बार बार आत्माका स्मरण करता है, इन्द्रियों और कपायोंको जीतनेवाले उसी साधुके उत्कृष्ट निर्जरा होती है ॥ भावार्थपरम वीतरागता ही परम निर्जराका कारण है || ११४ ॥ इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥ ९॥ १० मसग करेदि। २ग होऊ[होर। हमसगवि। ४ग पारस। ५लमसमवि। बस गय। ७८ परो। ८लभस गमुक्ख। १७ निजराणुषेखा। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. १०. लोकातुप्रेक्षा १०. लोकानुप्रेक्षा सिद्धं युद्धं जिनं भत्ता लोकालोकप्रकाशकम्। पक्ष्ये व्याख्यो समासेनानुप्रेक्षाया जगत्स्थितेः ॥ अथ लोकानुप्रेक्षां व्याख्यायमानः श्रीस्वामिकार्तिकेयो लोकाकाशस्वरूपं प्ररूपयतिसम्रायासमणंतं' तस्स य बहु-मज्झ-संठिओ लोओ । सो केण वि व कओ ण य धरिओ हरि-हरादी हिं ॥ ११५ ॥ I [ छाया - सर्वाकाशमनन्तं तस्य च बहुमध्यसेस्थितः लोकः । स केनापि नैव कृतः न च श्रुतः हरिहरादिभिः ॥ ] सर्वाकाशं लोकाकाशम् अनन्तम् अनन्तानन्तं द्विकवारानन्तमानं सर्वे नमोऽस्ति । तस्य च सर्वाकाशस्य बहुमध्य संस्थितो लोकः । महुमध्ये अनन्तानन्ताकाशबहुमध्यप्रदेशे सप्तधनरज्जुमात्रे सम्यक्प्रकारेण स्थितः संस्थितः लोक्यते इति लोकः । मनोदधिधन वातनुवाताभिधानकारात्रयवेष्टितः लोकः जगत् । तथा त्रैलोक्यसारे एकमप्युक्तमस्ति । 'बहुमदेसभागन्हि' । सेनायमर्थः । बहुमध्यदेशभागे महव अतिशयितारचनीकृताः असंख्याताः वा आकाशस्य मध्यदेशा यस्य स बहुमन्यदेशः स वासौ भागश्च खण्डः तस्मिन् बहुमप्यवेशभागे अथवा मइदः अष्टौ गोखनाकाराः आकाशस्य मध्यदेशे यस्य स तयोस्तस्मिन् लोकोऽस्ति । नतु स लोकः केनापि ब्रह्मादिना कृतो भविष्यति, तच्छङ्कानिरासार्थमाह । सो के विग्रकभ, स लोकः केनापि महेश्वरादिना कृतो नैव । केचन एवं वदन्ति । शेषीभूतैईरिहर । दिभिर्भूतः इति । तच्छङ्कानिरासार्थमाइ । ण य धरिओ हरिहरावी हिं न च धृतो हरिहरादिभिः, हरिर्विष्णुः हरो महेश्वरः आदिशब्दात् कपिखपरिकल्पितः प्रकृतिः ब्रह्मा च तो न च ॥ ११५ ॥ अथ सर्वाकाशे लोकाकाश इति विशेषः कृत इति चंदाहभव लोकानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हुए श्री स्वामिकार्त्तिकेय लोकाकाशका खरूप कहते हैं । अर्थ - यह समस्त आकाश अनन्तप्रदेशी है । उसके ठीक मध्य में भले प्रकारसे लोक स्थित है । उसे किसीने बनाया नहीं है, और न हरि, हर बगैरह उसे धारण ही किये हुए हैं । भावार्थ-लोकका क्षेत्रफल सातराजुका धन अर्थात् ३४३ राजु प्रमाण है। अतः आकाशके बीचोबीच ३४३ राजु क्षेत्रमें यह जगत स्थित है। उसे चारों ओरसे घनोदवि घनवात और तनुवात नामकी तीन वायु घेरे हुए हैं। वे ही लोकको धारण करती हैं। त्रिलोकसार ग्रन्थ में 'बहुमदेसभा गम्हि' लिखा है, और उसका अर्थ किया है- 'आकाशके असंख्यात प्रदेशवाले मध्यभाग में, क्योंकि लोकाकाश- जितने आकाशमें ठोक स्थित है आकाशका उतना भाग- असंख्यातप्रदेशी है। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार भी किया है- 'बहु' अर्थात् 'आठ गौके स्तनके आकारके आकाश मध्य प्रदेश जिस भागमें पाये जाते हैं, उस भागमें । आशय यह है कि लोकके ठीक मध्य में सुमेरुपर्वतके नीचे गौके स्तनके आकार आठ प्रदेश स्थित हैं । जिस भाग में वे प्रदेश स्थित हैं, वही लोकका मध्य है। और जो लोकका मध्य है, वही समस्त आकाशका मध्य है, क्योंकि समस्त आकाशके मध्यमै लोक स्थित है, और लोकके मध्यमें वे प्रदेश स्थित हैं। अन्य दार्शनिक मानते हैं कि यह जगत महेश्वर वगैरहका बनाया हुआ है, और विष्णु आदि देवता उसे धारण किये हुए हैं। उनका निराकरण करनेके लिये प्रन्थकार कहते हैं कि इस जगतको न किसीने बनाया है और न कोई उसे धारण किये हुए है । वह अकृत्रिम है और वायु उसको धारण किये हुए है। [ त्रिलोकसारमें लोकका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है--" सव्यागासमत तस्स य बहुमज्झतभागन्छि । लोगोसंखपदेसो जगसेदिषणप्पमाणो हु ॥ ३ ॥" अर्थ - सर्व आकाश अनन्तप्रदेशी है, उसके 'बहुमध्यदेश भागमें' लोक है। वह असंख्यातप्रदेशी है, और जगतश्रेणीके घन प्रमाण ३४२ राजु है । अनु० ] सम्मायाक्षम । म म ठिक छ ग संठियो ससद्धियो । म यस गणेय । - ११५] ५५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लामिकाकियाडमेला [गा. १९६अण्णोपण-पवेसेण य दवाणं अच्छण हवे लोओ। दवाणं णिखतो लोयस्स वि मुणहे णिश्चत्तं ॥ ११६ ॥ छाया-अन्योन्यप्रवेशेन व व्याणाम् आसनं भवेत् लोकः। द्रव्याणां नित्यत्वतः लोकस्यापि जानीत नित्यत्वम्॥ लोकः त्रिभुवन भवेत् ।अन्योन्यप्रवेशेन द्रव्याण परस्परप्रवेशेन जीवधुद्गलधर्माधर्माविवस्तूनाम्भाणे स्थितिः अस्तित्व भनेलोकः । ज्याणां जीपुरसमायोकासकालरूपाने शिक्षको दिल्यवान काचित मायात् लोकस्यापि णिवत निस्सरवं कथंचिद्धवत्वं मुमह जानीहि विधि ॥ ११६ । ननु यदि लोकस्य सर्वथा नित्यत्वं तईि स्थावादमतमाः स्यात् इति वदन्तं प्रति प्राह . परिणाम-सहावादो पडिसमयं परिणमंति दवाणि । तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणहे परिणामं ॥ ११७॥ [छाया-परिणामसभावतः प्रतिसमयं परिणमन्ति द्रव्याणि । तेषां परिणामात् लोकस्यापि जानीत परिणामम् ॥1 द्रव्याणि यथाखिपोयैः देयन्ते द्रवन्ति वा तानीति ख्याणि मीरपुद्रलधोधोकाशकालरूपाणि, प्रदिसमय समय समयं प्रति, परिणमन्ति उत्पादध्ययनौव्यरूपेण परिणमान्ति परिणाम पर्यायान्तरं गच्छन्ति । कुतः। परिणामसभावात् अतीतानागतवर्तमानानन्तपर्यायखभावेन परिणभनात् । वेशं जीवपुद्रलादिवव्याणां परिणामात् परिणमनात् अनेकखभावविभाव॥ ११५ ॥ समस्त आकाशके मध्यमें लोकाकाश है, इत्यादि विशेषताका क्या कारण है, यह बतलाते हैं । अर्थ-व्योंकी परस्परमें एकक्षेत्रावगाहरूप स्थितिको लोक कहते हैं । द्रव्य नित्य है, अतः लोकको भी नित्य जानो। भावार्थ-जितने आकाशमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये • छहों द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । छहों द्रव्य अनादि और अनन्त हैं, अतः लोकको भी अनादि और अनन्त जानना चाहिये [त्रिलोकसारमें भी लिखा है-"लोगो अकिहिमो खलु अगाइमिहणो सहावणिवत्तो। जीवाजीवहिं फुदो सन्वागासवयवो णिचो ॥ ४॥" अर्थ-लोक अकृत्रिम है, अनादि अनन्त है, खभावसे निष्पन्न है, जीव-अजीव द्रज्योंसे भरा हुआ है, समस्त, आकाशका अ है और निस है। ] शङ्का यदि लोक सर्वथा नित्य है तो स्याद्वादमतका भा होता है, क्योंकि स्याद्वादी किसी भी वस्तुको सर्वथा निल नहीं मानते हैं। इसका उत्तर ॥१९६॥ अर्थ-परिणमन करना वस्तुका खभाव है अतः द्रव्य प्रतिसमय परिणमन करते हैं । उनके परिणमनसे लोकका भी परिणमन जानो। भावार्थ-जो पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, या पर्यायोंको प्राप्त करते हैं, उन्हें द्रव्य कहते हैं । जीव, पुनल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन छहों द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय और घाव्य रूपसे प्रतिसमय परिणमन होता रहता है। प्रतिसमय छहों द्रव्योंकी पूर्व पूर्व पर्याय नष्ट होती हैं, उत्तर उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है, और द्रव्यता व रहती है । इस तरह भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालमै अनन्तपर्यायरूपसे परिणमन करना द्रव्यका खभाव है। जो इस तरह परिणमनशील नहीं है, वह कमी सत् हो ही नहीं सकता। अतः निल होनेपर भी जीव, पुद्गल आदि द्रव्य अनेक स्वभावपर्याय तथा विभावपर्यायरूपसे प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं । परिणमन करना उनका स्वभाव है । खभावके बिना कोई वस्तु स्थिर रह ही नहीं सकती। उन्हीं परिणामी द्रव्योंके समुदायको लोक कहते हैं । अतः जब द्रव्य परिणमनशील हैं तो उनके समुदायरूप लोकका परिणामी होमा सिद्ध ही है, अतः द्रव्योंकी तरह लोकको भी परिणामी नित्य जानना चाहिये । [गो० जीवकाण्डमें द्रव्योंकी स्थिति बतलाते हुए लिखा है-"एयदवियम्मिले १. स ग मवे। २ व मुगादि। ३ग णिचिन्तं । ४ क तचाणि। ५अ मुणदि । म यति । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 -११८] १०. लोकानुप्रेक्षा पर्यायरूपेण परिणमनात लोकस्थापि परिणामं परिणमनं पर्याथरूपेण कथंचित् अनित्यत्वं सपर्यागत्वं च अम्मल चामीहि विद्धि । मनु यत्र नित्यश्वं प्राशुकं तत्रानित्यत्वं कथं विरोधात् इति चेच, वस्तुनः अनेकान्तात्मकत्वं सत्त्वात् । भव द्रव्याणां निष्यत्वेमानित्यत्वेन किं नाम पर्याया इति चेदाइ । जीवद्रव्यस्य नरनारकादि विभागव्यञ्जनपर्यागाः, पुलख शब्दवसीयस्थस्य संस्थान मेदतम छायात पोहयोत सहिताः विभावव्यजनपर्याया भवन्ति । एवमन्येषामपि गम् ॥ ११७ ॥ अथ लोकस्य परपरिक स्थित स्थानम । नविप्रतिपत्तिनिरासार्थमाह सत्ते- पंच-इक्का मूले मज्झे तब बंभंते । लोयं रज्जूओ पुवावरदो' य वित्थारो ॥ ११८ ॥ अत्थपञ्चया वियणपज्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं इत्रदि द० ॥५५१ ||" अर्थ - एकद्रव्यमें त्रिकालसम्बन्धी जितनी अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याीय हैं, उतना ही द्रव्य है । अर्थात् त्रिकालवर्ती पर्यायोंको छोड़कर द्रव्य कोई चीज नहीं है । अनु० ] शङ्का जो नित्य है, वह अनित्य किसप्रकार हो सकता है ? नित्यता और अनित्यतामें परस्पर विरोध है । उत्तर-वस्तु अनेकधर्मात्मक होती है, क्यों कि वह सत् है । यदि एकवस्तुमें उन अनेक मोंको अपेक्षाभेदके विना योंही मान लिया जाये तो उनमें विरोध हो सकता है। किन्तु भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे विरोधी दिखाई देनेवाले धर्म भी एक स्थानपर बिना किसी विरोधके रह सकते हैं। जैसे, पिता, पुत्र, भ्राता, जामाता आदि लौकिक सम्बन्ध परस्पर में विषी प्रतीत होते हैं । किन्तु भिन्न भिन्न सम्बन्धियोंकी अपेक्षासे यह सभी सम्बन्ध एकही मनुष्य में पाये जाते हैं । एकही मनुष्य अपने पिता की अपेक्षासे पुत्र है, अपने पुत्रकी अपेक्षासे पिता है अपने भाई की अपेक्षासे भ्राता है, और अपने श्वरशुकी अपेक्षासे जामाता है । इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य द्रव्यरूप से नित्य है, क्योंकि द्रव्यका नाश कभी भी नहीं होता । किन्तु प्रतिसमय उसमें परिणमन होता रहता है, जो पर्याय एकसमय में होती है, वही पर्याय दूसरे समयमें नहीं होती, जो दूसरे समयमें होती है वह तीसरे समय में नहीं होती, अतः पर्यायकी अपेक्षा से अनित्य है । पर्याय दो प्रकारकी होती हैं, एक पर्याय और दूसरी अर्यपर्याय । इन दोनों प्रकारों केमी दो दो भेद होते हैं--स्वभाव और विभाव । जीवद्रव्यकी नर, नारक आदि पर्याय विभाव व्यखनपर्याय है, और पुद्गलद्रव्यकी शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, धूप, चांदनी वगैरह पर्याय विभावव्यञ्जन पर्याय हैं । [ प्रदेशवस्त्रगुणके विकारको व्यञ्जनपर्याय और अन्य शेष गुणोंके विकारको अर्थपर्याय कहते हैं । तथा जो पर्याय परसम्बन्धके निमित्तसे होती है उसे विभाव, तथा जो परसम्बन्ध के निमित्त विना स्वभावसे ही होती है उसे खभावपर्याय कहते हैं । इम चर्मचक्षुओंसे जो कुछ देखते हैं, वह सब विभाव व्यञ्जन पर्याय है । अनु० ] सारांश यह है कि द्रव्यों के समूहका ही नाम लोक है । द्रव्य नित्य हैं, अतः लोक भी नित्य है । द्रव्य परिणामी हैं, अतः लोक भी परिणामी है ॥ ११७ ॥ अर्थपूरब-पश्चिम दिशामें लोकका विस्तार मूलमें अर्थात् अधोलोकके नीचे सात राजू है । अधोलोकसे ऊपर क्रमशः घटकर मध्यलोकमें एक राजूका विस्तार है । पुनः क्रमशः बढ़कर ब्रह्मलोक स्वर्गके अन्तमें पाँच राजूका बिस्तार है । पुनः क्रमशः घटकर लोकके अन्तमें एकराजूका विस्तार है ॥ भावार्थ - लोक पुरुषाकार हैं। कोई पुरुष दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथोंको कटिप्रदेशके दोनों १ का सत्तेक, म सतिक, ससटेक नग पुष्करपरदो । कार्तिक ८ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९९[छाया-सप्तैकपोकाः मुले मध्ये तथैव ब्रह्मान्ते । लोकान्ते रजवः पूर्वापरतश्च निस्तारः ॥] लोकस्येसप्याहार्यम् । पूर्वापरतः पूर्वो दिशामाथिल्य पधिमां दिशामाश्रित्य च विस्तारः व्यासः । मूले बिलोकस्याधोभागे पूर्वपश्चिमेन सप्तरजविस्तारः ७ । सधव प्रकारेण मध्ये अधोभागात्कमहानिरूपेग हीयते यावन्मध्य लोके पूर्वापरतः एका एकरजपमाणविखारः। तथव भंते, ततो मध्यलोकादूर्य क्राध्या वर्तते यावद् मालोकान्ते पूर्वपश्चिमेन जुपश्यविस्तारः ५। लोयंते, ततखोवं पुनरपि हीयते गाजलोकान्ते लोकोपरिमभागे पूर्वापरतः एकर जुधमाणविस्तारो ५ भवति ॥ १८ ॥ अथ दक्षिणोत्तरतः कियन्मान इत्युक्त प्राह दक्षिण-उत्तरदो पुर्ण सत्त वि रज्जू हवंति सबत्थ । उर्ल्ड' चउदह र सत्त वि रज्जू घणो लोओ ।। ११९ ॥ [छाग-दक्षिणोत्तरतः पुनः रामाऽपि रज्जवः भवन्ति सर्वत्र । ऊर्थः चतुर्दश रज्जयः समापि रज्जवः घनः लोकः ॥] पुनः दक्षिणोत्तरपार्वमाश्रित्य स चादश १४ रत्सेधपर्यन्तं व्यास आयामः सप्तरजुरेव भवति लोकस्योदयः कियमात्र इति चेदृध्वः चतुर्दशरजूदय रूपः १४ लोको भवति । सर्वलोफस्य क्षेत्रं कियन्मात्रम्। सप्तरजघनः सप्तरबूना घनः त्रिवारगणनम् । 'ग्रिसमाहतिर्धनः' स्यादिति वचनात् । जगच्छ्रेणि 1. धनः ३४३ प्रमाणः सर्वलोकः त्रिशतरजुमात्रः त्रिचत्वारिंशदधिकः ३४३ इत्यर्थः । तावदधोलोकस्य मानमानीयते। 'मुहभूमीजोगदले पदगृषिदे पदघणं होदि।' एकरज्जः १, भूमिस्तु सप्तरजुः तयोर्योगः ८, तइल ४, पदेन सप्तभिः ७, गुणिते २८, वैधेन ७ गुणिते १९६ । एवमूर्यलोकमानमानेतव्यम् १४७ । सर्व इत्यर्थः ३४३ ॥११९ ।। अथ त्रिलोकस्योदयं विभजति मेरास्स हिह-भाएं सस वि रजू होइ अह-लोओ। उद्धवम्मि उड-लोओ मेरु-समो मज्झिमो लोओ ॥ १२० ।। ओर रखकर यदि खड़ा हो तो उसका जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार लोकका जानना चाहिये अतः पुरुषका आकार लोकके समान कल्पना करके उसका पूरब-पश्चिम विस्तार इस प्रकार जानना चाहिये । पोंके अन्तरालका विस्तार सातराजू, है । कटिप्रदेशका विस्तार एक राजू है। दोनों हायोंका-एक कोनीसे लेकर दूसरी कोनी तकका-विस्तार पाँच राजू है । और ऊपर, शिरोदेशका विस्तार एक राजू है ॥ ११८ ॥ अब लोकका दक्षिण-उत्तरमें विस्तार कहल्ले हैं। अर्थ-दक्षिण - उत्तर दिशामें सब जगह लोकका विस्तार सात राजू है । उँचाई चौदह राजु है और क्षेत्रफल सात राजूका घन अर्थात् ३४३ राजू है || भावार्थ-पूरब- पश्चिम दिशामें जैसा घटता बढ़ता विस्तार है, वैसा दक्षिणउत्तर दिशा में नहीं है । दक्षिण उत्तर दिशामें सत्र जगह सात राजू विस्तार है । तथा लोककी नीचेसे ऊपर तक उँचाई चौदह राजू है और लोकका क्षेत्रफल सात राजूका धन है । तीन समान राशियोंको परस्परमें गुणा करनेसे बन आता है । अतः सात राजूका घन ७४७४७-३४३ राजू होता है । इस क्षेत्रफलकी रीति निम्न प्रकार है । पहले अधोलोकका क्षेत्रफल निकालते हैं । त्रिलोकसारमें कहा है कि "जोगदले पदगुणिदे फलं घणो वेधगुणिदफदं ॥ ११॥" मुख और भूमिको जोड़कर उसका आधा करो, और उस आधेको पदसे गुणा करदो नो क्षेत्रफल होता है और क्षेत्रफलको उँचाईसे गुणाकरनेपर घन फल होता है । इस रीतिके अनुसार मुख १ राजू, भूमि ७ राज, दोनों को जोडकर ७+१-८ आधा करनेसे ४ होते हैं.। इस ४ राजूको पद-दक्षिण उत्तर विस्तार ७ राजूसे गुणा करनेपर ४x७-२८ राजू क्षेत्रफल होता है । और इस क्षेत्रफलको अधोलोककी उँचाई सात राजूसे गुणा १५ पुगु। २ लसग हवेति। ३ उद[?], ल म ग उद्यो. स दो। ल स ग चउदस, म चपस । ५दय भागे। बवह महो लोड [१], सम हवे अहो लोभो, मवह भह कोइ ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ५५ - १२० ] १०. लोकानुप्रेक्षा [ छाया मेरोः अधोभागे सप्तापि रज्जवः भवति अधोलोकः । ऊर्ध्वे ऊर्ध्वलोकः मेरूसमः मध्यमः लोकः ॥ ] मेरोरधस्तनभागे अधोलोकः । सप्तरजुमात्रो भवेत् । तथा हि अधोभागे मेर्वाधारभूता रत्नप्रभाख्या प्रथमा पृथिवी । तस्या अधोऽधः प्रत्येकमेकैकर जुप्रमाणमाकाशं गत्वा यथाक्रमेण शर्करवालुकापड धूमतमोमहातमः संज्ञाः पर भूमयो भवन्ति । तस्माद जुमाले भूमि स्थावरमतं च तिष्ठति । रत्नप्रभाविपृथिवीनां प्रत्येक घनोदधिषानुषाश्रयमाधारभूतं भवतीति विज्ञेयम् । उओ ऊर्ध्वे लोकः, मेरोरुपरिभागे ऋजुपटलमादभ्य त्रैलोक्यशिखरपर्यन्तम् ऊर्ध्वलोकः सप्तरजुमात्रो भवति । मध्यमो लोकः मेरुमः । मेरोरुदयमात्रः लक्षयोजनप्रमाण इत्यर्थः ॥ १२० ॥ लोकशब्दस्य निरुक्तिमाद । करनेपर २८७= १९६ राजू अधोलोकका घनफल होता है। इसी प्रकार ऊोकका मी घनफल निकाल लेना चाहिये । अर्थात् मुख १ राजू, भूमि ५ राज, दोनोंका जोड़ ६ राज, उसका आधा ३ राजू, इस ३ राजूको पद ७ राज से गुणा करनेपर ७४३ = २१ राज, आधे ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल होता है। इसे उँचाई साढ़ेतीन राजूसे गुणा करनेपर २१४३ = १६७ राज्, आधे ऊर्ध्वलोकका घन फल होता है । इसको दूना करदेने से १४७ राजू पूरे ऊचोकका घन फल होता है । अधोलोक और लोक घन फलों को जोड़ने से १९६+१४७ = ३४३ राजू पूरे लोकका घनफल होता है । गाथामें आये क्षेत्रफल शब्द से वन क्षेत्रफळ ही समझना चाहिये ॥ ११९ ॥ तीनों लोकोंकी उँचाईका त्रिभाग करते हैं । अर्थ- मेरुपर्वतके नीचे सात राजूप्रमाण अशेलोक है । ऊपर ऊर्ध्वलोक है । मेरुप्रमाण मध्य लोक है । भावार्थ- 'मेरु' शब्दका अर्थ 'माप करनेवाला होता है । जो तीनों लोकोंका माप करता है, उसे मेरु कहते हैं । [ “लोकत्रयं मिनातीति मेरुरिति ।" राजवा५पृ. १२७ ] जम्बूद्वीप के बीच में एकलाख योजन ऊँचा मेरुपर्वत स्थित है। वह एक हजार योजन पृथ्वीके अन्दर है और ९९ हजार योजन बाह्रर । [ 'जम्बूद्वीपे महामन्दरो योजनसहखावगाहो भवति नत्रनयतियोजन सहसोच्छ्रायः । तस्याधस्ताधोलोकः । बाहुल्येन तःप्रमाणः तिर्यक्प्रसुतलियेोकः । तस्योपरिष्टादूर्ध्वलोकः । मेहचूलिका चचारिंशयोजनोच्छ्राया तस्या उपरि केशान्तरमात्रे व्यवस्थितमृजुविमानमिन्द्रकं सौधर्मस्य । " सर्वार्थ० पृ. १५७ अनु० ] उसके ऊपर ४० योजनकी चूलिका है। रत्नप्रभा नामकी पहली पृथिवीके ऊपर यह स्थित है। इस पृथिवीके नीचे शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा नामकी छह पृथिवीयाँ और हैं। सातवीं पृथिवीके नीचे १ राजूमं निगोदस्थान है। ये सभी पृथिवियाँ घनोदवि, धनत्रा और तनुवात नामके तीन वातवलयोंसे वेष्टित हैं। मेरुसे नीचेका सात राजू प्रमाण यह सब क्षेत्र, अधोलोक कहलाता है। तथा ऊपर सौधर्मस्वर्ग ऋविमान के तलसे लेकर लोकके शिखरपर्यन्त सात राजू, क्षेत्रको ऊर्ध्वलोक कहते हैं । [ मेरुपर्वतकी चूलिका और ऋजुविमान में एक बाल मात्रका अन्तर है ] | सोलह स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, पाँच अनुत्तर तथा सिद्धशिला, ये सब में सम्मिलित हैं । तथा, अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके बीच में सुमेरुपर्वत के तलसे लेकर उसकी चूलिकापर्यन्त एक लाख चालीस योजन प्रमाण ऊँचा क्षेत्र मध्यलोक कहलाता है । शङ्का-लोककी ऊँचाई चौदह राजू बतलाई है । उसमें सात राजू प्रमाण अधोलोक बतलाया है और सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वक बताया है। ऐसी दशामें मध्यलोककी ऊँचाई एकलाख चालीस योजन अधोलोक में सम्मिलित है या ऊर्ध्वलोक में या दोनोंसे पृथक् ही है ? उत्तर - मेरुपर्वतके तसे नीचे सातराजू प्रमाण अधोलोक है और तलसे ऊपर सातराजू, प्रमाण ऊर्ध्वलोक है । अतः मध्यलोककी ऊँचाई ऊर्ध्व लोक में सम्मिलित है। सात राजूकी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा (दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भष्णदे' लोओ) तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंत वीणाति ॥ १२९ ॥ [ गांo १२१-. [ छाया-दृश्यन्ते यत्र अर्थाः जीवादिकाः स भव्यते लोकः । तस्य शिखरे सिद्धाः अन्तविहीनाः विराजन्ते ॥ ] स लोकः भायते (यत्र जीवादिकाः अर्थाः जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालरूपपदार्थाः द्रव्याणि षट् दृश्यन्ते लोक्यन्ते इति स लोकः कथ्यते सर्वज्ञैः । तस्य लोकस्य चिसरे तनुवातमध्ये सिद्धाः सिद्धपरमेष्ठिनः द्रव्यभावनो कर्मरहिता निरञ्जनाः परमात्मानः सम्यक्त्वायष्टगुणोपेताः विराजन्ते शोभन्ते । कथंभूतास्ते सिद्धाः । अन्तविहीना विनाशरहिताः, अथवा अनन्तानन्तमानोपेताः सन्ति ॥ १२१ ॥ अत्र च कैः कैभूतो लोक इति चेदुच्यते एदिएहिं भरिदो पंच- पयारेहिं सधदो लोओ । वि तसा ण बाहिरा होंति सबत्थ ।। तस - गाडी १२२ ।। [ छाया-एकेन्द्रियैः भृतः पञ्चप्रकारैः सर्वतः लोकः । त्रसनायाम् अपि सा न बायाः भवन्ति सर्वत्र ॥ ] लोकः त्रिभुवनम्, सर्वतः श्रेणिघने, निचत्वारिंशदधिकत्रिशत ३४३ रजुप्रमाणे पश्चप्रकारैः एवविधैः एकेन्द्रियैः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति कामिकै जीवैर्भूतः । तर्हि असाः क तिष्ठन्तीति चेत्, सनायामपि । तस्यैव लोकस्य मध्ये पुनरुदूखलस्य मध्याधो मागे छिद्रे कृते सवि निक्षिप्तवंशनलिकेव चतुः कोण । त्रसनाही भवति । सा चैकरज्जू विष्कम्भा चतुर्दशरज्यत्सेधा विज्ञेया तस्यां त्रसनायामेव श्रसाः द्विचतुः पखेन्द्रिया जीषा भवन्ति तिष्ठन्ति ण बाहिरा क्षैति " तुलना में एक लाख योजन ऐसेही हैं, जैसे पर्वतकी तुलना राई । अतः उन्हें अलग नहीं किया है । यथार्थमै ऊर्ध्वलोकी ऊँचाई एक लाख चालीस योजन कम सातराजू, जाननी चाहिये ॥ १२० ॥ लोकशब्दकी निरुक्ति कहते हैं । अर्थ- जहाँपर जीव आदि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके शिखरपर अनन्त सिद्धपरमेष्टी विराजमान हैं । भावार्थ-'लोक' शब्द 'लु' धातुसे बना है, जिसका अर्थ देखना होता है । अतः जितने क्षेत्रमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । [ "धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोकः ।" सर्वार्थ०, पृ. १७६] लोकके मस्तक पर तनुवातबलय में कर्म और नोकर्मसे रहित तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे सहित सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं । जो अन्तरहित- अविनाशी हैं, अथवा जो अन्तरहितअनन्त हैं ॥ १२१ ॥ जिन जीवोंसे यह लोक भरा हुआ है, उन्हें बतलाते हैं । अर्थ-यह लोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवोंसे सर्वत्र भरा हुआ है । किन्तु सजीव प्रसनाली में ही होते हैं, उसके बाहर सर्वत्र नहीं होते । भावार्थ- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अभिकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, ये पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय जीव ३४३ राज प्रमाण सभी लोकमें भरे हुए हैं । किन्तु त्रस अर्थात् दोइन्द्रिय, इन्द्रिय, चौइन्द्रिय, और पश्चेन्द्रिय जीव प्रसनालोंमें ही पाये जाते हैं । उदूखल [ कोशकारोंने उदूखलका अर्थ ओखली और जुगुलवृक्ष किया है । यहा वृक्ष लेना ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति तथा त्रिलोकसार में बसनालीकी उपगा वृक्षके सार अर्थात् छाल वगैरह के मध्य में रहनेवाली लकड़ी से दी है। अनु० ] के बीच में छेदकरके उसमें रखी हुई बाँसकी नलीके समान लोक मध्यमें चौकोर त्रसनाली है। उसीमें सजीव रहते हैं। [उपपाद और मारणान्तिक समुद्धात के सिवाय त्रसजीव उससे बाहर नहीं रहते हैं "उववादमारणंतियपरिषद तसमुज्झिऊण सेसतसा । तसणालिबाहिर म्हि य १ भण्णा । २ ल म स ग विरायंति ३ अनु वा अनू इति मूलपाठः । ४ ब स दिहि । ५ व नाडिए । • Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा समस्य, अनामय पर्व: : उपवादारण सिफरिणतत्रसान् विहाय असा भवन्धीलःपपादरा ति सम्पत्य इति पाठे सर्वत्र लोके वादराः स्यूलाः पृथ्वीकायिकाइयवसाय न सन्ति । 'भापारे लामो प्रतिक बचमात् । ननु सनाख्या सर्वत्र प्रसास्तिष्ठन्ति इति चेस्पाइ । असनाच्या वसा इति सामान्यवचनम् । विशेषाम त्रिलोकप्रशती प्रोतं च । 'लोयबहुमजावेसे सम्मि सारं प रज्युपदरजुदा । तेरसरजस्सेदा किंधूणा होदि तमगाली ।' यि ति जिणेहिं णिदिट्ट ॥ १९२ ।।" गो० जीयकाण्ड ] सनालीसे बाहरका कोई एकेन्दिय जीव वसनाभकर्मका बन्ध करके, मृत्युके पश्चात् सनालीमें जन्म लेने के लिये गमन करता है, तब उसके असनामकर्मका उदय होने के कारण उपपादकी अपेक्षासे त्रसजीव सनालीके बाहर पाया जाता है। तथा, जन कोई उसजीव प्रसनालीसे बाहर एकेन्द्रियपर्यायमें जन्म लेनेसे पहले मारणान्तिक समुद्रात करता है, तब उसपर्यायमें होते हुएमी उसकी आत्माके प्रदेश प्रसनालीके बाहर पाये जाते हैं । 'ण बाहिरा होति सम्वत्थ के स्थानमें 'ण बादरा होति सम्वत्थ' ऐसा भी पाठ है। इसका अर्थ होता है कि बादर जीव अर्थात् स्थूल पृथ्वीकायिक बगैरह एकेन्द्रिय जीव तथा असंजीव सर्वलोकमें नहीं रहते हैं। क्योंकि जीवकाण्डमें लिखा है-'स्थूलजीव आधारसे ही रहते हैं। ['आधारे थूलाओ' ॥१९३॥ ] शङ्काक्या असनालीमें सर्वत्र प्रसजीव रहते हैं। उत्तर-सनालीमें प्रसजीव रहते हैं, यह सामान्यकमन है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इसका विशेष कपन किया है। [*लोयबहुमजादेसे तरुम्मि सारं व रजुपदरजुदा । तेरस रज्जुस्सेझा,किंचूणा होदि तसणाली ॥ ६ ॥" वि. अधि.] उसमें कहा है-“वृक्षमें उसके सारकी तरह, लोकके ठीक मध्यमें एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची प्रसनाली है ।" शका-सनालीको कुछ कम तेरइ राजू ऊँची कैसे कहा है ! उत्तर-सातवी महातमःप्रभा नामकी पृथिवी आठ हजार योजनकी मोटी है [देखो, त्रिलोकसार गा. १७१ की टीका । उसके ठीक मध्यमें नारकियोंके श्रेणीबद्ध बिले बने हुए हैं । उन बिलोंकी मोटाई , योजन है । इस मोटाईको समच्छेद करके पृथिवीकी मोटाईमें घटानेसे २४०-२१५५ योजन शेष मचता है। इसका बाधा १.१९९८ योजन होता है । भाग देनेपर ३९९९३ योजन आते हैं। इतने योजनोंके ३१९९१६६६ धनुष होते हैं । यह तो नीचेकी गणना हुई । अब ऊपरकी लीजिये । सर्वार्थसिद्धि विमानसे ऊपर १२ योजनपर ईषत्वाग्भार नामकी आठवीं पृथ्वी है, जो आठ योजन मोटी है । ["तिक्णमुडारूढा इसिपभारा धरहमी रुंदा । दिग्घा इगिसगरजू अडजोयणपमिदवाहला ॥ ५५६ ॥" त्रिलोकसार, अर्थ-'तीनों लोकोंके मस्तकपर आरूढ ईषत्प्रारभार नामकी पाठवीं पृथ्वी है। उसकी चौगाई एक राग लम्बाई सात राज और मोटाई आठ योजन है। १२ योजनके ९६००० धनुष होते हैं। और आठवीं पृथ्वीके ८ योजनके ६४००० धनुष होते हैं। ["कोसाणं दुगमेक्कं देसूणेक्कं च लोयसिहरम्भि। ऊणधणूणपमाणं पणुवीसशहियचारिसयं ॥ १२६ ॥" किलोकसार. अर्य-'लोकके शिखरपर तीनों वातवलयोंका बाहुल्य दो कोस, एक कोस और कुछ कम एक कोस है। कुछ कमका प्रमाण १२५ धनुष है । अतः तीनों वातबल्योंका बाहुल्य ४०००+२०००+१५७५-७५७५ धनुष होता है । क्योंकि एक कोसके २००० धनुष होते हैं।] उसके उपर तीनो वातवलयोंकी मोटाई ७५७५ धनुष है । इन सब धनुषोंका जोड ३२१६२२४१३ धनुष होता है। [अपमाण देहा कोदितियं एकवीसलक्खाणं । वासद्धिं च सहस्सा दुसमा इगिदाल दुर्तिभाया ॥७॥" त्रिलोकप्र०, २ या अधिः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ . स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १२३किंणा होधि समाली इत्यत्र सनदण्डप्रमाणं कयमिति, सप्तमपृथिव्याः श्रेणिबदादधोयोजनाना ३९९९, दंडाः ३१९९४ १६६सर्वार्षसिद्धरूपरियोजनानां १२, दण्डाः १६...] अष्टमपृथ्व्या योजनानां ८, दण्डाः ६४०००। तथा सुपरि वायुत्रयदण्डाः ५५७५ । एते सर्वे दण्डाः ३२१६२२४१३। किचिन्यूनत्रयोदशरजुप्रमाणवसनाख्यां प्रसास्तियन्तीत्यर्थः । १२२ ॥ अथ स्थूलसूक्ष्मादिभेदेन जीवान विभजति पुण्णा वि 'अपुण्णा वि य थूला जीवा हवंति साहारा । छधिह-सुहुमौ जीवा लोयायासे वि सधस्थ ॥ १२३ ॥ [छाया-पूर्णाः अपि अपूर्णाः मपि च स्थूलाः जीवाः भवन्ति साधाराः। पड्डिधसूक्ष्माः जीवाः लोकाकाशे अपि सर्वत्र स्थूलाः पादराः यादरनामकर्मोदय निष्पादितपर्यायाः । कथंभूताले स्थूलाः । पूर्णाः अपि च अपूर्णा अपि च, पर्याप्ताः अपर्याप्ता अपि व बीयाः प्राणिनः । साहारा साधाराः पृथिव्याविकमाचारमाधिस्य भवन्ति तिष्ठन्तीत्यर्थः । अथवा जायन्ते उत्पयन्ते । 'भाधारे थूलाओ' माधारे भाश्रये वर्तमानशरीरबिशिष्टा ये जीवास्ते सर्वेऽपि स्थूलाः पादरा इत्यर्थः इति गोम्मटसारे । मुहमा सूक्ष्मा: सूक्ष्मनामकर्मोदयापादितपोया जीवाः प्राणिनः षविधाः षट्नेदाः । पृथिवीकामिकसूक्ष्मः १, जलकायिकसूक्ष्मः २, अस्कायिक्रसूक्ष्मः ३, वायुकायिकसूक्ष्मः ४, नित्यनिगोदवनस्पतिकाविकसूक्ष्मः ५, इतरनिगोदवनस्पतिकायिकसूक्ष्मजीवाः ६, इति षोता। लोकाकाशे सर्वत्र सर्वलोके, जले स्थस्ने बाकाशे वा, निरन्तराः आधारानपेक्षितशरीराः जीयाः पुक्ष्मा भवन्ति । जलस्थलरूपाधारेण तेषां शरीरगतिप्रतिघातो नास्ति, मखन्तसूक्ष्मपरिणामत्वात् । ते जीवाः सूक्ष्माः निराधारा निरन्तरास्तिधन्ति उत्पद्यन्ते च ॥ ११ ॥ पुढवी-जलग्गि-वाऊ चत्तारि वि होति बायरा सुहुमा । साहारण-पत्तेया षणप्फदी पंचमा दुविहा ॥ १२४॥ [छाया-पृथ्वीजलामिवायवः यत्वारः अपि भवन्ति बादराः सूक्ष्माः । साधारणप्रत्येकाः वनस्पतयः पञ्चमाः द्विविधाः ॥ ] पृथिवीजलामिवायपश्चस्वारोऽपि जीवा बादराः सूक्ष्माश्च भवन्ति । पृथिवीकामिकजीवा बादराः सूक्ष्माघ अर्थ-कमधनुरोंका प्रमाण ३२१६२२११३ है । अनु०] इतने धनुष कम तेरह राजप्रमाण सनाळीमें प्रसजीव रहते हैं। सारांश यह है कि लोककी ऊँचाई १४ राजू है । इतनीही ऊँचाई असनालीकी है। उसमेंसे सातवे नरकके नीचे एक राजूमें निगोदिया जीव ही रहते हैं । अतः एकराजू कम होनेसे १३ राजू रहते हैं । उनमेंमी सातवीं पृवीक मध्यमें ही नारकी रहते हैं, नीचेके ३९९९६ योजन प्रमाण पृथ्वीमें कोई त्रस नहीं रहता है । तथा ऊलोकमें सर्वार्थसिद्धि विमानतकही सजीव रहते .. है। सर्वार्थसिद्धिसे ऊपरके क्षेत्रमें कोई त्रसजीव नहीं रहता है । अतः सर्वार्थसिद्धिसे लेकर आठवी पृथिवीतकका अन्तराल १२ योजन, आठवीं पृथिवीकी मोटाई ८ योजन और आठवीं पृथ्वीके ऊपर ७५७५ धनुष प्रमाण क्षेत्र त्रसजीवोंसे शून्य है । अतः नीचे और ऊपरके उक्तधनुषोंसे कम १३ राज् प्रमाण प्रसनालीमें त्रसजीव जानने चाहिये ॥ १२२ ।। अब स्थूल, सूक्ष्म आदि भेदसे जीवोंका विभाग करते हैं । अर्थ-पर्याप्तक और अपर्याप्तक, दोनोंही प्रकारके बादरजीव आधारके सहारेसे रहते हैं। और छह प्रकारके सूक्ष्मजीव समस्त लोकाकाशमें रहते है ।। भावार्थ-जीव दो प्रकारके होते हैं-चादर और सूक्ष्म । बादर नामकर्मके उदयसे बादर पर्यायमें उत्पन्न जीवोंको बादर कहते है, और सूक्ष्मनामकर्मके उदयसे सूक्ष्म पर्यायमें उत्पन्न जीवोंको सूक्ष्म कहते हैं। सूक्ष्मजीवोंके मी छह मेद है-- पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद बनस्पतिकायिक और इतरनिगोद बनस्पतिकायिक । ये सब जीव पर्याप्त कभी होते हैं। और अपर्याप्त कमी होते हैं । जो बादर होते हैं, समस ग यपुण्णा । २ सय छषिह। ३ मा। ४४ ग पुढपि । ५५ हुँति । ३५ ण फांदै । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I - १२३] १०. लोकानुप्रेक्षा भवन्ति । अपूकायिका जीवा बादराः सूक्ष्माश्च भवन्ति । तेजस्कायिका जीवा वादराः सूक्ष्माथ सन्ति । बालुकायिका जीवा बादराः सूक्ष्माश्च भवन्तीत्यर्थः । पञ्चमाः पृथिव्यादिसंख्यया पचमत्वं प्राप्ताः वनस्पतयः द्विविधा द्विप्रकाराः । कुतः । साधारणप्रत्येकात साधारणच नस्पति प्रत्येक वनस्पति मेदात् । ये तु साधारणधनस्पति कार्यिकारते निलचतुर्गतिनिगोदजीवाः बादराः सूक्ष्माश्च भवन्ति । ये प्रत्येकवनस्पत्तिकामिका जीवास्ते तु बादरा एव न तु सूक्ष्माः ॥ १२४ ॥ अथ साधारणानां द्विविघत्वं दर्शयति साहारा वि दुबिहा अइ-काला ये साइ-काला य । ते वि' य बादर-सुमा सेसा पुर्णे बायरा सबे ॥ १२५ ॥ ६३ [ छाया - साधारणाः अपि द्विविधाः अनादिकालाः च सादिकालाः च । ते अपि च पादरसूक्ष्माः शेषाः पुनर्बादराः सर्वे ॥ ] साधारणनामकर्मोदयात् साधारणाः साधारणनिगोदा, मपि पुनः, द्विविधा द्विप्रकाराः । ये के प्रकाराः । अनादिकालाश्च सादिकालाच नित्यनिगोदाश्वतुर्गतिनिगोषाश्च । च शब्दः समुचयार्थः । ये चि त एव निष्प'चतुर्गतिनिगोदजीवा बादरसूक्ष्माः बादरसूक्ष्मनामकर्मोदयं प्राप्नुवन्ति । पुनः शेषाः सर्वे प्रत्येकवनस्पतयः द्वीन्द्रियादमथ सर्वे समस्ता बादरा एव ॥ १२५ ॥ अथ तेषां निगोदानां साधारणत्वं कुत इति चेदुच्यते साहारणाणि जेसिं आहारुस्सास- काय आऊणि । ते साहारण- जीवा णंताणंत-प्यमाणाणं ॥ १२६ ॥ - साधारण नाम [छामा - साधारणानि येषाम् आहारोच्छास काय आधि । ते साधारणजीवा मनन्तामन्तप्रमाणानाम् ॥ ] येवो साधारणनामकर्मोदय वशवर्त्यनन्तानन्दजीवानां निगोदानाम् आहारोच्छ्वासकायायूंषि साधारणानि सदृशानि समकामानि वे किसी आधारसे रहते हैं । किन्तु सूक्ष्मजीव बिना किसी आधारके समस्त लोक में रहते हैं ॥ १२३ ॥ अर्थ-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीव बादर मी होते हैं। और सूक्ष्म मी होते हैं। पाँचवे वनस्पतिकायिकके दो भेद हैं-साधारण और प्रत्येक ॥ १२४ अब साधारण वनस्पतिकायके दो भेद बतलाते हैं । अर्थ साधारण वनस्पति काय के दो भेद है - अनादि साधारण वनस्पति काय और सादि साधारण वनस्पति काय । ये दोनों प्रकार के जीव बादर भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं। बाकी के सब जीव बादरही होते हैं। भावार्थ-र कर्म के उदय से साधारण वनस्पतिकायिक जीव होते हैं, जिन्हें निगोदिया जीव भी कहते हैं । उनके भी दो भेद हैं- अनादिकालीन और आदिकालीन । अनादिकालीन साधारण वनस्पति कायको नित्य निगोद कहते हैं और सादिकालीन वनस्पति कायको चतुर्गति निगोद कहते हैं। ये नित्य निगोदिया और चतुर्गति निगोदिया जीव भी बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। जिन जीवोंके बादर नाम कर्मका उदय होता है वे बादर कहलाते हैं और जिन जीवोंके सूक्ष्म नाम कर्मका उदय होता है वे सूक्ष्म कहलाते हैं । दोनों ही प्रकारके निगोदिया जीव बादर भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं । किन्तु बाकी सब प्रत्येक वनस्पति कायिक जीव और द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव बादर ही होते हैं ॥ १२५ ॥ अब यह बतलाते हैं कि वे निगोदिया जीव साधारण क्यों कहे जाते हैं । अर्थ- जिन अनन्तानन्त जीवका भहार, श्वासोच्छ्वास, शरीर और आयु साधारण होती है उन जीर्वोको साधारणकायिक जीव कहते हैं । भावार्थ - जिन अनन्तानन्त निगोदिया जीवोंके साधारण नाम कर्मका उदय होता है उनकी १ क ग अगाव कम का सार काकाई । १ ब से पुणु बाहर से चिय ४ पुशु ५ गर्छ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १२७भवन्ति। एकस्मिन् जीचे आहारं गृहति सवि अनन्तानग्तजीवाः साधारणं समान सदर्श समकालं गृह्णन्ति । एकस्मिन् जीवे यासोच्छ्वास गृहति सति अनन्तानन्त जीवाः साधारणं सहर्श समकाले श्वासोवास गृहन्ति । एकस्मिन् जीवे शरीर गृति सति अनन्तानन्तजीवाः शरीरे गृहन्ति मुञ्चन्ति च । एकस्मिन् जीवति सति अनन्तानन्तजीवा जीवन्ति भियन्ते नाले साधारणजीवाः कथ्यन्ते । सर्वभूतानी येषाम् । अनन्तानन्तप्रमाणानाम् । तपथा। यत्साधारणजीवानाम् उत्पन्न प्रथमसमये भाहारपर्याप्तिः, तस्कार्य चाहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां स्खलरसभागपरिणमनं साधारण सहर्श समकाल च भवति । १ । तथा शरीरपर्याप्तिः, तत्कार्य चाहारवर्गणायातपुद्रलस्कन्धानां शरीराकारपरिणमन साधारण सदर्श समकालं च भवेत् । २१ तथा इन्द्रियाप्तिः, तत्कार्य च स्पर्शनेन्द्रियाकारेण परिणमनम् ।।भानपानपर्याप्तिः, तस्कार्य चोच्चासनिःश्वासप्रहणं साधारण सदृशं समकाल भवति । ४ । तथा गोम्मटेसारे साधारणलक्षणं प्रोक्तं च । आहार, श्वासोष्छास, शरीर और आयु साधारण यानी समान होती है । अर्थात् उन अनन्तानन्त जीवों का पिण्ड मिलकर एक जीवके जैसा हो जाता है अतः जब उनमेंसे एक जीव आहार ग्रहण करता है तो उसी समय उसीके साथ अनन्तामन्त जीव आहार ग्रहण करते हैं। जब एक जीब र लेता है तो जशी रस्य श साग जगमग जीव श्वास लेते हैं। जब उनसे एक जीव मरकर नया शरीर धारण करता है तो उसी समय उसीके साथ अनन्तानन्त जीव वर्तमान शरीरको छोड़ कर उसी नये शरीरको अपना लेते हैं। सारांश यह है कि एकके जीवन के साथ उन सब का जीवन होता है और एककी मृत्युके साथ उन सबकी मृत्यु हो जाती है इसीसे उन जीवोंको साधारण जीव कहते हैं। इसका और भी खुलासा इस प्रकार है साधारण वनस्पति कायिक जीव एकेन्द्रिय होता है। और एकेन्द्रिय जीवके चार पर्याप्तियों होती हैं आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छ्रास पर्याप्ति । जब कोई जीव जन्म लेता है तो जन्म लेने के प्रथम समयमें आहार पर्याप्ति होती है, उसके बाद उक्त तीनों पर्याप्तियाँ एकके बाद एकके क्रमसे होती हैं। आहार वर्गणाके रूपमें ग्रहण किये गये पुद्गल स्कन्धोंका खल भाग और रस भाग रूप परिणमन होना आहार पर्याप्तिका कार्य है । खल भाग और रस भागका शरीर रूप परिणमन होना शरीर पर्याप्तिका कार्य है । आहार वर्गणाके परमाणुओंका इन्द्रियके आकार रूप परिणमन होना इन्द्रिय पर्याप्तिका कार्य है । और आहार वर्गणाके परमाणुओंका श्वासोच्छास रूप परिणमन होना वासोच्छास पर्याप्तिका कार्य है। एक शरीरमें रहनेवाले अनन्तानन्त साधारण कायिक जीवोंमें ये चारों पर्याप्तियां और इनका कार्य एकसाथ एक समयमें होता है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें साधारण वनस्पति कायका लक्षण इस प्रकार कहा है- 'जहाँ एक जीवके मर जाने पर अनन्त जीवों का मरण हो जाता है और एक जीवके शरीरको छोड़ कर चले जाने पर अनन्त जीव उस शरीर को छोड़ कर चले जाते हैं वह साधारण काय है । वनस्पति कायिक जीर दो प्रकारके होते हैं-एक प्रत्येक शरीर और एक साधारण शरीर । जिस वनस्पतिरूप शरीरका वा एक ही जीव होता है उसे प्रत्येक शरीर कहते हैं । और जिस वनस्पति रूप शरीरके बहुतसे ! समान रूपसे स्वामी होते है उसे साधारण शरीर कहते हैं। सारांश यह है कि प्रत्येक वनस्पति तो एक जीवका एक शरीर होता है । और साधारण वनस्पति, बहुतसे जीवोंका एक ही शरी होता है। ये बहुतसे जीव एक साथ ही खाते हैं, एक साथ ही श्वास लेते हैं। एक साथ ही मरते हैं और एक साथ ही जीते सर्वत्र 'गोमति पाठः। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२८] १०. लोकानुप्रेक्षा 'जरा मरदि जीवो तस्थ हु मरण हवे ताणे । पकाइ अरथ एको चकमर्ण तत्व ताण १२६ ॥ मथ सूक्ष्मलं पावरवं च व्यनकि णय जेसि पडिखलणं पुढवी-तोएहि अग्गि-वाएहि । ते जाणे सुहुभ-काया इयरा पुण' थूल-काया य ॥ १२७ ।। [छाया-न च येषा प्रतिस्खलनं पृथ्वीतोयाभ्याम् भमित्राताभ्याम् । ते जानीहि सक्ष्मकायाः इसरे पुनः स्थूलकायाः च ते पञ्च स्थाचरा जीवाः सूश्मा इतिजामीदि । येषां जीवाना प्रतिस्सलने इन्धनम्। कैः । पृथिवीतोयः पृथिवीकायापकायेःच पुनः, अमिवातैः अनिकायबायकायः, न च कैरपि द्रव्यैः बजपटलादिभिः येषा जीवाना प्रतिस्खलनं बन्धनं न विद्यते इति मावते सुक्ष्मकायाः सूक्ष्मऋयिका जीवास्तान जानीहि विदित्वम् । पुन: इमरा इतरे अन्वे पृथिवीकायिकादयः पृथ्वीजलवातामिकाविभिः प्रतिस्खलनोपेता: स्थूलकायाश्च बादराः कण्वन्ते ॥१२॥ भय प्रत्येकखरूप प्ररूपयति पत्तेया वि य दुविहा णियोद-सहिदों तहेव रहिया य । दुविहा होति' तसा वि य वि-ति-चउरक्खा तहेव पंचक्खा ॥१२८ ॥ [छाया-प्रत्येकाः अपि च द्विविधाः निगोदसहिताः तथैव रहिताः । द्विविधाः भवन्ति त्रसाः अपि च द्वित्रिभतरक्षाः तगापा रिन, प्रोका शिकागचा , मुनिमा द्विविधाः द्विप्रकाराः, एके निगोदसहिताः हैं। इन्हें ही निगोदिया जीव कहते हैं। इन साधारण अथवा निगोदिया जीवोंके भी दो भेद हैं-एक निस्य निगोदिया और एक इतर निगोदिया अथवा चतुर्गति निगोदिया । जो जीव अनादिकालसे निगोदमें ही पडे हुए हैं और जिन्होंने कभी भी उस पर्याय नहीं पाई है उन्हें नित्य निगोदिया कहते हैं। और जो जीव स पर्याय धारण करके निगोद पर्यायमें चले जाते हैं उन्हें इतर निगोदिया कहते हैं । साधारण वनस्पतिकी तरह प्रत्येक वनस्पतिके भी दो भेद है-सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जिस प्रत्येक वनस्पतिके शरीरमें बादर निगोदिया जीवोंका आवास हो उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिस प्रत्येक वनस्पतिके शरीर में बादर निगोदिया जीवोंका वास न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। प्रत्येक वनस्पतिका वर्णन ग्रन्थकारने आगे खयं किया है ॥ १२६ ॥ अत्र सूक्ष्म और बादर की पहचान बतलाते हैं। अर्थ-जिन जीवोंका पृथ्वीसे, जलसे, आगसे, और वायुसे प्रतिघात नहीं होता उन्हें सूक्ष्मकायिक जीव जानो। और जिनका इनसे प्रतिघात होता है उन्हें स्थूलकायिक जीव जानो ।। भावार्थ-पांच प्रकारके स्थावर कार्योंमें ही बादर और सूक्ष्म मेद होता है। त्रसकायिक जीव तो बादर ही होते हैं। जो जीव न पृथ्वीसे रुकते हैं, न जलसे रुकते हैं, न आगरसे जलते हैं और न घायुसे टकराते है, सारांश यह कि वज्रपटल वगैरहसे भी जिनका रुकना सम्भव नहीं है-उन जीवोंको सूक्ष्मकायिक जीय कहते हैं । और जो दीवार वगैरहसे रुक जाते हैं, पानीके वहावके साथ बह जाते हैं, अग्निंसे जल जाते है और वायुसे टकराते हैं वे जीव बादरकायिक कहे जाते हैं ॥ १२७ ॥ अब प्रत्येक वनस्पतिका स्वरूप बतलाते हैं। - - - -...--. . . मपुई, लग पुडची। २५ जाणि। ३ व बु। ४ ब सहिया । ५ ब दुति । ६ माहारणाणि श्लादिनाथा (१२६) पुस्तकेत 'आहाउसास्स आज काऊणि' इति पाठाम्सरेण पुनक्ता दृश्यते । बचिों Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GE खामिकादियानुप्रेक्षा [गा० १२८प्रविछिसप्रत्येकाः भवन्ति । प्रतिष्ठित साधारमशरीरैराश्रित प्रत्येकशरीरं देषो के प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीराः । शति पेद,गोम्मटसारे प्रोफच। 'मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदमीवधीजहा। समुच्छिमा म भणिया पोयाणतकामा य॥ मूवीड येषां से मूलबीजाः, भाकहाद्विादयः।।मबीजं वेको से अप्रवीत्राः, मायकोडीच्यादयः ।। पर्वबीजाः इसवेत्रादयः ।। कन्दमीजाः पिण्डालसरणादयः । ४। स्कन्धवीजाः सहकीकण्टकीपछाशादयः ।। पीजा रोहन्तीति बीजरुहाः, शालिगोधूमादयः ।६। [संमूळे समन्तात् प्रसतपुलस्कन्धे भवाः] संमूर्थिमाः । ७॥ भनन्तानां निगोदजीवाना कायाः शरीराणि येष्विसनन्तकायाः प्रतिष्ठित प्रत्येका भवन्ति । सथा। 'गूढसिरसंधिपम् समभंगमहीरई च छिण्णरुहं । साहारा चिवरील प रस्मेवारी तिम् श्यपाहिःमायुकम् १. अदृश्यसंधिरेखाबन्धम् । अदृश्यग्रन्थिकम् । ३। समग त्वग्गृहीतत्वेन सहशच्छेदम् ।४।महीरकम् अन्त रहिता५। छिम् रोहतीति छिपाई वा तत्साधारण साधारणजीवाश्रितत्वेन हाधारणमित्युपपर्यते, प्रतिष्ठितशरीरमियर्थः। तद्विपरीतम् अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीरमिति तथा 'मूले कन्दे छछीपवालसालदलकुसुमफलबीजे धममंगे यदि गंता बसमे सवि होति पाया । मूले कन्दे त्वधि पलवारे शुद्रशाखायां पत्रे कुसुमे फले बीजे च समरे सति मगन्ताः अनन्तकायाः, प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीरा इत्यर्थः । मूलादिषु समभार हितबमस्पतिषु अप्रतिष्ठितप्रसेकसरीस भवन्ति । । तथा । 'कंदस्सव मूलस्सप सालासंदस्स मावि बहुलतरी। छल्ली साणंतजिया पत्यजिया तु तशुरुदरी॥ येषां प्रत्येक बनस्पतीमा कन्दस का मूलस्य वा शालाया वा क्षुद्रशास्चाया या स्कन्धस्य था या वक् महुतरी स्थूलतरी स्वात् , ते पनस्पतयोऽनन्तकायजीवा भवन्ति । निगोवसहितप्रतिष्ठितप्रत्येका मातीत्यर्थः। तु पुनः। येषां कन्वादिषु व तनुतरी ते वनस्पतयो अप्रतिष्टित प्रत्येकशरीरा भवन्तीत्यर्थः । अथ प्रकृतथ्याख्यामाह। प्रत्येकवनस्पतयः द्विग्राराः। एके निपोर पहिताः साधारणैः संयुक्ताः प्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतयो भवन्ति । तेषां लक्षणं गाथाचतुष्कोणोकम् । तदेव तथैव, रहिया म निगोदरहिताश्व साधारणरहिता इत्यर्थः, अप्रतित्रितप्रत्येकाः । प्रतिष्टित साधारणदारीरैराश्रित प्रत्येकमारी येको के प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीराः पूर्वोकाः । तैरनाश्रितशरीर। मप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीराः स्युः । । तालमाहिर अर्थ-प्रत्येक वनस्पति कापिक जीव दो प्रकार के होते हैं-एक निगोद सहित, दूसरे मिगोद रहित । स जीव भी दो प्रकारके होते हैं-एक दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय, दूसरे पश्चन्द्रिय ॥ भावार्य-प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं। एक निगोंद सहित अर्थात् जिसके आश्रय अनेक निगोदिया जीक रहते हैं। ऐसे प्रत्येक वनस्पतिको सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। गोम्मटसारमें कहा है-वनस्पतियाँ ७ प्रकारकी होती है-मूलबीज, अप्रवीज, पर्यवीज, कंदवीज, स्कन्धबीज, वीजरुह और सम्मर्छन । जिन वनस्पतियोंका बीज उनका मूल ही होता है उन्हें मूलबीज कहते हैं। जैसे अदरक हल्दी वगैरह। जिन वनस्पतियोंका बीज उनका अग्रभाग होता है उन्हें अप्रवीज कहते हैं। जैसे नेत्रबाला वगैरह। जिन बनस्पतियों का पीज उनका पर्वभाग होता है उन्हें पर्वधीज कहते हैं जैसे ईख, बेंत वगैरह। जिन वनस्पतियोंका बीज कंद होता है उन्हें कैदबीज कहते है। जैसे रताल, सूरण वगैरह । जिम वनस्पतियोंका बीज उनका स्कन्धभाग होता है उन्हें स्वन्धवीज कहते हैं। जैसे सलई, पालाश वगैरह । जो वनस्पतियां बीजसे पैदा होती हैं उन्हें बीजरुह कहते हैं। जैसे धान, गेहूं औरह । और जो वनस्पति स्वयं ही उग आती है यह सम्मूर्छन कही जाती हैं। ये वनस्पतियां अनन्सकाय अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येक भी होती हैं और अप्रतिष्ठित प्रत्येक भी होती है ॥१॥ जिस प्रत्येक वनस्पतिकी धारियां, फांक और गांठे दिखाई न देती हो, जिसे तोड़नेपर खटसे दो टुकड़े बराबर २ हो जायें और बीचमें कोई तार वगैरह न लगा रहे तथा जो काट देने पर भी पुनः उग आये वह साधारण अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येक है। यही सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२९1 १०. लोकानुप्रेक्षा तितिणीकसहाराविशारीरम् षप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरमित्येते । अपि च त्रसाः प्रसनामकमोदयात् प्रसजीवा विविधाः द्विप्रकाराः, विकलेन्द्रियाः सकलेन्द्रियाश्चेति । तत्र विकलेन्द्रियाः वितिचउरवा द्वित्रिचतुरिन्द्रिया जीवाः। शंखादयो दौन्द्रियाः पकनरसनेन्द्रिययुक्ताः। पिपीलिकामत्कुणादयश्रीन्द्रियाः स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रिययुक्ताः। प्रमरमक्षिचदशमनकादयश्चतुरिन्द्रियाः स्पर्शनरसनधाणलोचनेन्द्रिययुक्ताः। तहेव तथैव, पञ्चेन्द्रियाः सकतेन्द्रियाः, मनुरूपदेवनारकपवादयः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रिययुक्ताः सकलेन्द्रियाः कथ्यन्ते ॥ १२८ ॥ अथ पश्चन्द्रियतिरश्चा मेदं विगोति सानिया सिविहा जल-थल-आयास-गामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता' अजुत्ता य ॥ १२९ ॥ [छाया-पसाक्षाः अपि व विविधाः अलस्थलमाकाशगामिनः तिर्मनः । प्रत्येक ते द्विविधाः मनमा पुजाः अयुजाः च ॥ ] पश्चाक्षाः पचेन्द्रियनामकोदयेन पक्षेन्द्रियतियको जीवाः भवन्ति । अपि च पुनः, वे त्रिविधाः बनस्पतिको साधारण जीवोंका आश्रय होनेसे साधारण कहा है। तथा जिस वनस्पतिमें उक बातें न हों अर्थात् जिसमें धारियां वगैरह स्पष्ट दिखाई देती हों, तोड़ने पर समान टुकड़े न हों, टूटने पर तार लगा रह जाये आदि, उस वनस्पतिको अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं ॥२॥ जिस वनस्पतिकी जड़, कन्द, छाल, कोंपल, टहनी, पत्ते, फल, फल और बीजको तोड़ने पर खटसे बराबर २ दो टुकड़े हो जायें उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । और जिसका समभंग न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ॥३॥ तथा जिस वनस्पतिके कंदकी, जड़की, टहनीकी, अथवा तनेकी छाल मोटी हो वह अनन्त काय यानी सप्रतिष्ठित प्रत्येक है । और जिस वनस्पतिके कन्द वगैरहकी छाल पतली हो वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक है ॥ ४ ॥ इस तरह श्री गोम्मटसारमें सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित वनस्पतिकी पहचान बतलाई है। अस्तु, अब पुनः मूल गाथा का व्याख्यान करते है। प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं-एक निगोद सहित, एक निगोद रहित । अथवा एक सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर, एक अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर । जिन प्रत्येक वनस्पतिके शरीरोंको निगोदिया जीयोंने अपना वासस्थान बनाया है उन्हे सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं। उनकी पहचान ऊपर बतलाई है। और जिन प्रत्येक वनस्पतिके शरीरोंमें निगोदिया जीवोंका आवास नहीं है उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं। जैसे पके हुए तालफल, नारियल, इमली,आम वगैरहकर शरीर । जिनके त्रस नाम कर्मका उदय होता है उन्हें त्रस जीव कहते हैं । उनके भी दो भेद हैं-एक विकलेन्द्रिय, एक सकलेन्द्रिय । दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवोंको विकलेन्द्रिय कहते हैं, क्यों कि शंख आदि दो इन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन और रसना दो ही इन्द्रियां होती हैं। चिऊंटी, खटमल वगैरह तेइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण, ये तीन ही इन्द्रियां होती हैं । और मौरा, मक्खी, डांस, मच्छर वगैरह चौइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु ये चार ही इन्द्रियां होती है। अतः ये जीव विकलेन्द्रिय कहे जाते है .। मनुष्य, देव, नारकर, पशु आदि पश्चेन्द्रिय जीवोंको सकलेन्द्रिय कहते हैं। क्यों कि उनके स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांचों इन्द्रियां पाई जाती हैं ॥ १२८ ॥ धब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके भेद बतलाते हैं । अर्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीवोंके भी तीन भेद हैं-जलचर, बलचर और १७ तितिक, म स्विीक। २म हुता कुत्ता । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सामिकार्तिकेयानुसा [गा-१३०त्रिप्रकास पथकाकासयामिमो मेवात्। केचन जळयारिणो मरणकर्मावयःचन स्वचाविक गोमहिरव्ययाकसिंहमृगक्षणकादयः ।२ । केवन गावागामिनः शुककामाचटकासारसाईसमयूरादकः । व पुनः, जलमामिप्रमशास्तिर्यवो जीवानिविधा थपि, प्रत्येक एक एवं प्रति प्रत्येके, द्विविधा भवन्ति । तेकाएक मानामिकापजाम येतख युकाः हिताः संशिनस्तिर्गको जीपा । एके नानाविकल्पजापानमा अयुताः नानाविकल्पबारमनोरहिता मशिनः पादयः । तथा विजलपरतिषी पायसशिनी, स्थलचरतिर्मयो संश्वसंज्ञिनौ, नमःस्पतिर्मयो संश्यसशिनी, इत्यर्थः ॥ १२९ ॥ अथ तेषां सिरसा भेदानाह ते वि पुणो विम दुविहा गम्भज-जम्मा तहेव संमुछा। भोग-भुवा गम्भ-भुवा थलयर-णहे-गामिणो सण्णी ॥ १३०॥ [मावा-ते अपि पुनः अपि च द्विविधाः गर्भजजन्मानः तपैव संमूर्छनाः । भोगभुवः मर्मभुवः स्वम्बर नभोगामिनः संशिनः ॥] पुनः तेऽपि पूर्वोचकाः पहिचारिहर्ययो द्विविधा द्विप्रकाराः । एके पर्भजन्मानः, जाबमामश्रीवेन शाकयोगितरूपापिन्सस्स मरणे सरीरतयोपादान गर्भः ततो जाता ये मर्मजाः तेषां गर्भजानां जन्म उत्पत्तियां ते गर्भअन्मान: मातम ममत्पशा रार्थ: । तशेष संमळना-गर्भोत्पादरहिताः (से समन्तात् मूर्छनं जायमानजीवानुमाइनर्णा" जीवोपकारापा शरीराबरपरिणमनयोग्यपुनमस्कन्धानां समच्छ्रमण तत् विद्यते पेषो ते समूच्र्छनचरीराः ।। नभचर । इन तीनोभेसे प्रत्येकके दो दो भेद हैं-एक मन सहित सैनी और एक मन रहित असैनी ॥ भावार्थ-पश्चेन्द्रिय नाम कर्मके उदयसे तिर्यश्च जीव पश्चेन्द्रिय होते हैं । पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीवोंके तीन भेद हैं-जलचर, यलचर और नभचर । अर्थात् कुछ पञ्चेन्द्रिय जीव जलचर होते हैं। जैसे मछली, कछुआ वगैरह। कुछ पल पर होते हैं-जैसे हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस, व्याध, भेड़िया, सिंह, मृग, खरगोश, वगैरह । और कुछ पञ्चेन्द्रिय जीव नभचर होते हैं, जैसे तोता, कौआ, बगुला, विडिया, सारस, हंस, मयूर, वगैरहा इन तीनों प्रकार के तिर्यश्चोंमेसे मी प्रत्येकके दो दो भेद होते हैं-एक अनेक प्रकारके संकल्प विकल्पसे युक्त मन सहित सैनी तिर्यश्च और एक अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प युक्त मनसे रहित असैनी तिर्यश्च । अर्थात् सैनी जलचर तिर्यश्च, असैनी जलचर तिर्थञ्च, सैनी थलचर तिर्यन असनी थलचर तिर्यन, सैनी नभचर तिर्यन, असैनी नभचर तिर्यश्च । इस तरह पञ्चेन्द्रिय तिर्योंके छ: भेद हुए ॥ १२९ ॥ अब इन तिर्योंके भी भेद कहते हैं। अर्थ-इन छ: प्रकारके तिर्योंके भी दो भेद हैं--एक गर्भजन्म वाले और एक सम्मूर्छन जन्म वाले । किन्तु भोग भूमिके तिर्यश गर्भज ही होते हैं। तथा वे घलन्चर और नभचर ही होते हैं, जलचर नहीं होते। और सब सैनी ही होते हैं असैनी नहीं होते ॥ भावार्थ-वे पूर्वोक्त छ: प्रकारके तिर्यच मी दो प्रकारके होते हैं-एक गर्भजन्म वाले और एक सम्मूर्छन्न जन्म वाले। जन्म लेने वाले जीवके द्वारा रज और वीर्य रूप पिण्डको अपने शरीर रूपसे परिणमानेका नाम गर्भ है। उस गर्भसे जो पैदा होते हैं उन्हें गर्भजन्म वाले कहते हैं । अर्थात् माताके गर्भसे पैदा होने वाले जीव गर्भजन्मवाले कहे जाते हैं। शरीरके आकाररूप परिणमन करनेकी योग्यता रखनेवाले पुद्गल स्कन्धोका चारों ओरसे एकत्र होकर जन्म लेने वाले जीवके शरीर रूप होनेका नाम सम्मुर्छन है और सम्मूईनसे जन्म लेने वाले जीव सम्पूर्छन जन्म वाले कहे जाते हैं। किन्तु भोगभूमिया तिर्यश्च गर्भज ही होते हैं, सम्मूर्छन जन्माले १. भुया । २ नम। कमवायते कारणं । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J J 1 - १३१] १० छोकातुमेशा अपि च भोवला भोम-भूमिगताखियो गर्भभषा एवं गर्भोपवा भवन्ति, न तु संमूर्च्छनाः । वलचरणभोगाधिनः स्थळ गामिनः गोमदेव मृगादयः १, नभोगामिनः हंसमयूराकादयः १, न तु जलचराः, शिन एम, म तु व्यशिनः ॥ १३० ॥ अम तिर जीवसमास मेदामाह अवि भज दुविहा तिविहा 'समुच्छिणो वि तेवीसा । हृदि पणसीदी भेयां सब्वेसिं होंति तिरियाणं ॥ १३१ ॥ ६९ [ छाया-अशे अपि मर्मजाः द्विविधाः त्रिविधाः संमूर्च्छनाः अपि त्रयोविंशतिः । इति पचाशीतिः भेदाः सर्वेषां भवन्ति तिराम् ॥ ] सर्भवाः गर्भेस्पाः कर्मभूमि गर्भजविर्यवो जलबराः मत्स्यादमः शिनः अशिनव म, कर्मभूमिजगर्भजविर्यश्वः स्वराः मृगादयः संशिनः असिमख २ कर्मभूमियम जतिर्यथः भमबराः पक्ष्याश्यः संशिनः असैशिनथ २, भोगभूमिजस्थलचरतिर्जयः भ्रंशिन एवं १, भोगभूमिजन बरतिर्वधः शिन एवं १, एवम् भ्रष्टावपि च ते द्विविधा द्विप्रकाशः, पर्याप्ता निवृत्यपर्यासाब, इदि गर्भनविदा पोडशमेदाः १६ । अपि पुनः संमूर्च्छनाः त्रयोविंशतिमेदा भवन्ति । तथा हि । पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मकारा छवि १, अकामिका सूक्ष्मवादरा इति द्वौ २, तेजस्कामिकाः सूक्ष्मबावरा इति द्वौ २, वायुका विकाः सूक्ष्मवादरा इविंदौ २, नित्यनिगोदसाधा रणवनस्पतिकायिकाः सूक्ष्मवादरा इति द्वौ २, चतुर्थ तिनि सोदसाधारण वनस्पतिकःमिताः सूक्ष्मयात्रा इति नया भनिन्तानन्त जीवानां दहावीति निगोदम् ) निगोएं शरीरे देव से निगोदारा इति निरुकेः । प्रतिष्ठित प्रत्येकमनस्पतिकायिका बादरा एवेत्येकः १ नप्रविधिप्रस्कवनस्पतिकाका बादरा एवेत्येकः १, इसोफेन्द्रियस्य चतुर्दशमेदाः १४ पांशुतयादयो द्वन्द्रिया १, कुन्युपिपीलिकाइयत्रीन्द्रियाः २, शमशकावयवतुरिन्द्रियाः ३, इति विकलत्रयाणां त्रयो मेदाः । कर्मभूमिजलचरति चपश्चेन्द्रियर्धशिनः असंज्ञिनथ इति द्वौ २, कर्मभूमिजस्थलचरपये न्द्रियतिर्यधः सेशिनः मशिन इवि द्वी २, कर्मभूमिजनभश्वरपक्षेन्द्रिय तिर्यथः संशिनः असंज्ञिनव इवि हो २, इति कर्मभूमिजतिरवां पञ्चेन्दिवाणं पट्टेदाः ६ । नहीं होते । और भोगभूमिमें गो, भैंस, हिरन वगैरह पलचर तिर्यश्च तथा हंस, मोर, तोता वगैरह नभचर तिर्यञ्च ही होते हैं, जलचर तिर्यश्व नहीं होते। तथा ये सब पचेन्द्रिय तिर्यश्व संत्री ही होते हैं, असंही नहीं होते ॥ १३० ॥ अब तिर्यमें जीवसमासके भेद बतलाते हैं । अर्थ-आठों ही गर्मजोंके पर्याप्त और अपर्याप्तकी अपेक्षा सोलह भेद होते हैं। और तेईस सम्मूर्छन जन्म वालोंके पर्याप्त निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षा उनहत्तर भेद होते हैं। इस तरह सब तिर्यञ्चके पिचासी भेद होते हैं || भावार्थ - कर्मभूमिया गर्भज तिर्यश्च जलचर, जैसे मछली गैरह। ये संज्ञ और असंज्ञीके मेदसे दो प्रकारके होते हैं । २ । कर्मभूमिया गर्भज तिर्यन धलचर, जैसे हिरन वगैरह, मे भी संज्ञी और असंज्ञीके मेदसे दो प्रकारके होते हैं । २ । कर्मभूमिया गर्भज तिर्यद्य नभचर, जैसे पक्षी वगैरह, ये मी संज्ञी और असंज्ञीके भेदसे दो प्रकार के होते हैं । २ । भोगभूमिया क्लचर तिर्यश्च संज्ञी ही होते हैं । १ । और भोगभूमिया नभचर तिर्पश्च मी संज्ञी ही होते हैं । १ । इस तरह ये आठही कर्मभूमिया और भोग भूमिया गर्भज तिर्यश्च पर्याप्त मी होते हैं और निवृत्त्यपर्याप्त भी होते हैं। अतः गर्भज तिर्यों के सोलह भेद होते हैं। तथा सम्मूर्छन जन्मवाले तिर्यञ्चोंके तेईस भेद होते हैं, जो इस प्रकार हैंसूक्ष्म पृथिवी कायिक, बादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, श्रादर तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायु कायिक, बादर वायु कायिक, सूक्ष्म नित्य निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, ११ मैदा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामिकारिकैातुप्रेक्षा [mo १३२ , एगब्द एकत्रीकृशानविंशतिभेदाः संमूर्च्छन तिर्यशो भवन्ति २३ । सेऽपि त्रयोविंशतिसंमूर्च्छनविर्वधविधाः पर्याप्ताः निवपाः लब्ध्यपर्याप्ता इति, एवं तेन सर्वे संमूर्च्छम तिर या मे कोन हप्तातिभेदा भवन्ति ६५ पूर्वोकगर्भजविर्वग्भिः 'पोस मेदेषाः पञ्चाशीतिभेदाः ८५ भवन्ति ॥ इति सर्वेषां तिरश्चाश्रीतिजीवसमासभेदाः सन्ति ॥ १३१ ॥ श्रथ मनुष्यजीवसमासभेदान् निरूपयति Us अज्जव मिले थंडे भोग-महीसुं वि कुभोग-भूमीसु । मणुयी हवंति दुविधा णिग्विचि अपुण्णगा पुष्णा ॥ १३२ ॥ [ छाया-आर्यध्छण्डयोः भोगमद्दीषु अपि कुभोगभूमीषु । मनुजाः भवन्ति द्विविधाः निèश्यपूर्णका पूर्णाः ॥ ] कार्यकाण्डखण्डेषु भोगभूमिष्वपि कुभोगभूमिषु मनुष्या मानवाः भवन्ति से द्विविधा निर्ऋत्वपर्याप्ताः हि सप्ताहकसेवा १७० मनुष्या निर्वस्मपर्याप्तकाः पर्यातकाय इति द्वौ १, पचाश बादर नि निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, बादर चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिका विक, तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीव बादर ही होते हैं। इस तरह एकेन्द्रियके चौदह भेद हुए । १४ । शंख सीप वगैरह इन्द्रिय, कुन्धु चींटी वगैरह सेइन्द्रिय और डांस मच्छर वगैरह चौइन्द्रिय, ये विकलेन्द्रियके तीन भेद हैं । ३ । कर्मभूमिया जलचर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं । कर्मभूमिया पश्चेन्द्रिय तिर्यच संज्ञी और असंज्ञी । २ । कर्मभूमिया नभचर पशेन्द्रिय तिर्यश्च संज्ञी और असी । २। इस तरह कर्मभूमिया पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके छः भेद हुए । इन सबको जोडनेसे १४+३+ ६ = २३ मेद सम्मूर्छन तिर्यच्चोंके होते हैं। ये तेईस प्रकार के सम्मूर्छन तिर्यश्च भी तीन प्रकारके होते हैं पर्याप्त, निधू चर पर्याप्त और लम्ध्यपर्याप्त । अतः तेईसको तीनसे गुणा करनेपर सब सम्मूर्छन तिर्योंके ६९ भेद होते हैं। इनमें पहले कहे हुए गर्भज तिर्यच्चोंके १६ भेद मिलानेसे सब तिर्यञ्चोंके ६९+११ ८५ पिचासी भेद होते हैं ॥ १३१ ॥ अथ मनुष्यों में जीवसमास के भेद बतलाते हैं । अर्थ-आर्यखण्डमें, म्लेच्छस्वण्डमें, योगभूमिमें और कुभोग भूमिमें मनुष्य होते हैं। ये चारों ही प्रकार के मनुष्य पर्याप्त और विवृत्त्पपर्याप्त के भेदसे दो प्रकार के होते हैं | भावार्थ- आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड, भोगभूमि और कुभोग भूमिकी अपेक्षा मनुष्य चार प्रकास्के होते हैं। तथा ये चारोंही प्रकारके मनुष्य नित्यपर्याप्त मी होते हैं और पर्यास भी होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-आर्यखण्ड १७० है- पांच भरत सम्बन्धी ५, पांच ऐरावत सम्बन्धी ५, और पांच विदेह सम्बन्धी १६० । क्योंकि एक एक महाविदेशमें बत्तीस बत्तीस उपधिवेह होते हैं । तथा आठसौ पचास म्लेलखण्ड है; क्योंकि प्रत्येक भरत, प्रत्येक ऐरावत और प्रत्येक उपविदेह क्षेत्र के छः छः खण्ड होते हैं। जिनमेंसे एक आर्यखण्ड होता है, और शेष ५ म्लेच्छखण्ड होते हैं। अतः एक सौ स्वर आर्यखण्डोंसे पांच गुने म्लेष्ठखण्ड होते हैं। इससे १७०४५-८५० आठ सौ पचास म्लेच्छखण्ड हैं। और तीस भोगभूमियां हैं जिनमें ५ हेमवत् और ५ हैरण्यवत् ये दस जघन्य भोगभूमियां हैं । ५ हरिवर्ष और पांच रम्यक वर्ष ये दस मध्यम भोगभूमियां हैं। और पांच देवकुल और पांव उत्तरकुरु ये दस संकृष्ट भोगभूमियां हैं। इस तरह कुल तीस भोगभूमियां हैं। १] मिलके, गम र ग मोगभूमीस श्म सग मणुआ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३३] १०. लोकानुप्रेक्षा इधिकाशतेषु साम्येषु ८५. मनुष्या निश्श्यपर्याप्तकाः पर्यायाम इति द्वौ २, त्रिशास्सु बपन्याविभोलभूमिषु ३. मनुष्या निवपर्याप्तकाः पर्याप्तकामा हानि द्वौ , समुद्रात गावियोगागि निर्वस्यपप्तिकाः पर्याप्तकाब इति द्वौ २, इति मयप्रकारा मनुष्या भवन्ति ॥ ११ ॥ अथ ध्यपशिकमनुष्यस्थाननियम पारवेषजीपसमासांचाई संमुच्छिया मणुस्सा अजष-खंडेसु होति' णियमेण । से पुण लगि'-अपुण्णा णारय-देवा वि ते दुविहा ॥ १३३ ॥' [अया-सममिताः मनुष्याः आर्यखण्डेषु भवन्ति नियमेन 1से पुनःसन्ध्यपूर्माः नारकदेवाः मपि ते द्विविधाः ॥ भार्यखण्डेय समयपिकातप्रमागेधु १५० समूठना मनुष्या नियमेन भवन्ति, नियमात् नान्यत्र भोगभूम्यादिषु । पुन: समीमा बनुष्या साध्यपक्षका एवम् उत्पद्यन्ते इति भगवत्याराधनाटीया प्रोस। 'क्रिसिंहाणकष्पदन्तकमलेषु ष 1 अत्यन्ताशुविदेशेषु सद्यः संमूर्च्छना भवेयुः ॥ इति । मवहारमनुष्यजीवसमासाः अपि पुनः नारा देवाब वे द्विविधा द्विप्रकाराः । नारकाः पर्याप्ता नित्यपर्याप्सायेति हो । मवनवासिम्वन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनो देवाः पर्याप्ता निवरयपर्याप्ताति । एवममुना प्रकारेणाटानपतिषीवसमासाः पीपाः समस्यन्ते संगृह्यन्ते यैर्येषु पाते जीवसमासा इति निर्वचनात् ॥ इति श्रीखामिकार्तिकेयायप्रेक्षायों महारकामचन्द्रकूतय्याश्यायो त्यष्टानपतिजीवसमापाः समाः । ९८ ॥ १३॥ अष पर्याप्तिमेदान तल्याण गावावयन प्रतिपादयति तया लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र में जो ९६ असाप हैं जिनमें से २४ अन्तीए लवणसमुद्रके जम्बूद्वीप सम्बन्धी तटके करीबमें हैं और २५ अन्तपि धातकी खण्ड सम्बन्धी तटके निकट हैं । इस तरह ४८ अन्तर्वीप तो लवण समुद्र में हैं और इसी प्रकार १८ अन्तीप कालोदधि समुद्रमें हैं, जिनमेंसे चौबीस अभ्यन्तर तटके करीब हैं और २७ माघ तटके करीब हैं। इन ९६ अन्तर्वीणोंमें कुभोगभूमि है । अतः ९६ कुमोगभूमियां हैं। इन १७० धार्यखण्डोंमें, ८५० म्लेच्छखण्डोंमें, ३० भोगभूमियोंमें और ९६ कुभोगभूमियोंमें रहनेवाले मनुष्य मिकृत्त्यपर्याप्तक और पर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं । इस तरह मनुष्योंके आठ भेद होते हैं ॥१३२ ॥ अब मध्यपर्यासक मनुप्योंका निवासस्थान बतलाते हुए नारकियों और देवोंमें जीवसमासके भेद बतलाते हैं । अर्थ-सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे आर्यखण्डोंमें ही होते हैं। और वे लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं । तथा नारकी और देव निवृत्त्यपर्यातक और पर्याप्तकके भेद से दो प्रकारके होते हैं। मावाई-एक सौ सत्तर वार्यखण्डोंमें ही सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे होते हैं, आर्यखण्डके सिवा अन्य भोगभूमि वगैरहमें नहीं होते। तथा बे सम्मर्छन मनुष्य लन्थ्यपर्याप्तक ही होते हैं। वे सम्मईन मनुष्य का उत्पन्न होते हैं। इस प्रका उचर भगवती आराधनामें देते हुए बतलाया है कि वीर्यमें, नाकके सिंहाणकोंमें, कफ, दाँतके मैल में, कानके मैलमें और शरीरके असन्त गन्दे प्रदेशोंमें तुरन्त ही सम्र्छन जीव पैदा हो जाते हैं। मस्त, इस प्रकार मनुष्यकी अपेक्षा जीव समास के मौ भेद होते हैं। तथा नारकी भी पर्याप्त और नित्यपर्याप्सकी अपेक्षा दो प्रकारके होते हैं। और भवनवासी, न्यन्तर, ज्योतिक और कल्पवासी देव मी पर्याप्त और निपस्यपर्यातकी अपेक्षा दो प्रकारके होते हैं । इस तरह तिर्थयोंके पिचासी, १ ति। पला । १८ एव अड्डाणउदी मैया । 'राधना। ५गसिंघाणक ! Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ लामिकार्त्तिकेयादुप्रेक्षा आहार -सरी रिंदिये णिस्लासुस्तास - भार्स - मणसाणं' | परिर्णे-वावारेसु य जाओ छ श्वेव सचीओ ॥ १३४ ॥ [te the [ खया भाहार शरीरेन्द्रियनिः श्वासोच्छ्वास भाषामनसाम् परिणतिव्यापारेषु च याः षदेव शक्तयः ।] ] आहारशरीरेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्वासभाषामनसां व्यापारेषु ग्रहणप्रवृत्तिषु परिणतयः परिणतिः परिणमनं वा ताः पर्याशयः । जाओ गाः, छत्तीओ शक्तयः, समर्थता षडेव । एवकारात् न च पश्च सप्त च । अत्रोदारिकमै क्रियकाद्वार कशरीरनाम कमीदमप्रथमसमयमादिंकृस्वा तच्छरीरत्रय षट्पर्याप्तिपर्यायपरिणमन्नयोग्य पुरूस्कन्धान् खलरसभागेन परिणामयितुं पर्यासनामकमद्यावष्टम्भप्रभूतात्मनः शक्तिनिष्पत्तिराद्वारपर्याप्तिः । तथापरिणतपुद्गलस्कन्धानां खमार्ग अस्ध्यादि स्थिरावयवरूपेण रथभागं रुधिराद्रिवावयवरूपेण च परिणामयितुं शक्तिनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः । २ आवरणवीर्यान्तरायक्षयोपशम विजृम्भितात्मनो योग्यदेशावस्थितस्यादिविषयप्रहृणव्यापारे शक्तिनिष्पतिर्जातिनामकमदयजनितेन्द्रियपर्याप्तिः) । ३ । (माहारकवर्गणायातपुत्रस्कन्धान् उच्छ्वासरूपेण परिणाम यितुमुच्छासनिःश्वासना मकमदयजनितशक्ति निष्पतिरुच्छ्रासनिःश्वासपर्याप्तिः । ४ । (स्वर नामकर्मश्यवशाद् भाषावर्गणाया तपुत्रलस्कन्धान् सत्यासत्यो मयानुभय भाषारूपेण परिणामयितुं शक्तिनिष्पत्तिः भाषापर्याप्तिः ५ । मनोवगणायात पुगुलस्कन्धान् अक्षेपात्रनामकर्मोदय जलाघानेन "द्रयमनोरूपेण परिणामयितुं तद्रव्यमनोबलाधानेन मोईन्द्रियावरणवयन्तरा यक्षयोपशमविशेषेण गुणदोषविचारानु मनुष्योंके नौ और नारकी तथा देवोंके चार ये सब मिलकर जीव समास के ९८ अठानवें भेद होते हैं । जिनके द्वारा अथवा जिनमें जीवोंका संक्षेपसे संग्रह किया जाता है उन्हें जीवसमास कहते हैं सो इन ९८ जीवसमासों में सब संसारी जीवका समावेश हो जाता है ॥ १३३ ॥ इस प्रकार खामिकार्त्तिकेयानुपेक्षा की आचार्य शुभचंद्रकृत टीकामें अठानवें जीव समासों का वर्णन समाप्त हुआ || अब दो गाथाओंके द्वारा पर्याप्तिके भेद और लक्षण कहते हैं । अर्थ- आहार, शरीर, इन्द्रिय, धासोच्छ्रास, भाषा और मनके व्यापारोंमें परिणमन करने की जो शक्तियां हैं वे छः ही हैं ॥ भावार्थआहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्रास, भाषा, और मनके व्यापारोंमें अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जो शक्तियां हैं उन्हीं को पर्याप्त कहते हैं। वे छः ही हैं। पांच नहीं हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है । पर्याप्त नाम कर्मके उदयसे विशिष्ट आत्माके, औदारिकशरीरनामकर्म, वैक्रियिक शरीरनामकर्म और आहारक शरीर नामकर्मके उदयके प्रथम समयसे लेकर इन तीनों शरीरों और छ: पर्यासियों रूप होने के योग्य पुत्रलस्कन्धोंको, खल भाग और रस भाग रूप परिणामानेकी शक्तिकी पूर्णताको आहार पर्याप्त कहते हैं । ११ तथा जिन स्कन्धोंको खल रूप परिणमाया हो उनको अस्थि आदि कठोर अक्यक्ष रूप और जिनको रसरूप परिणमाया हो उनको रुधिर आदि द्रव अवयव रूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको शरीर पर्याप्त कहते हैं ॥ २ ॥ ज्ञानावरण और वीर्यान्तरस्य कर्मके क्षयोपशमसे विशिष्ट आत्मा के जातिनाम कर्मके उदयके अनुसार योग्य देशमें स्थित रूप आदि विषयक प्रहण करने की शक्तिकी पूर्णताको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं ॥ ३ ॥ उच्छ्रासनिःश्वासनाम कर्मका उदय होनेपर आहार वर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुङ्गलस्कन्धोंको वासोच्छवास रूपसे परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको उच्छासनिःश्वास पर्याप्त कहते हैं ॥ ४ ॥ खर नाम कर्मका उदय होनेसे भाषा वर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुलस्कन्धोंको सत्य असाय, उभय और अनुभय १ म ग सरीरेदिय । स परस्र ३ मा ४ परिणय ५ छब्वेव ३ ग मनो इन्द्रिया । C Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३६ १०. लोकानुप्रेक्षा स्मरणप्रणिधानलक्षणभाषमनःपरिणममशरुनिष्पत्तिमनःपर्याशिः ।। पानेः प्रारम्भः पूर्णताका च कथमिति चेद गोम्मटसारोकगाथामाह । 'पजतीपट्टवणं जुग तु कमेण होवि गिट्ठवर्ण । भंतोमुहाकालेपहियकमा तत्नियालावा ।।' समस्तम्खयोग्यपर्याप्तीना शरीरनामकर्मोदयप्रथमसमये एव युगपत्प्रतिष्ठापन प्रारम्भो भवति । तु पुनः । तनिष्ठापनात्यन्तहितेन क्रमेण तथापि तावन्मात्रालापेनैव भवन्ति ॥ १३४ ॥ तस्सेव कारणाणं पुग्गल-खंधाण जा हु णिप्पत्ती। सा पजती भण्णदि छन्मेया जिणवरिंदेहि ॥ १३५ ॥ [छाया-तस्याः एष कारणानी पुद्गलस्कन्धानां या खलु निष्पत्तिः । सा पर्याप्तिः भव्यते षड्भेदा जिनवरेन्द्रः ॥ तस्सेव तस्याः एव शते, कारणानां हेतुभूतानां पुलस्कन्धानां महाराशायातपुद्गलस्कन्धाना या निष्पसिः शक्तिनिष्पत्तिः समर्थतासिद्धिः, हु इति स्फुटम् , जिनखामिभिः सा पर्याप्तिर्भयते । सा कतिधा। पढ़ेदाः षट्प्रकाराः । माहारपर्याप्तिः १, शरीरपर्याप्तिः २, इन्द्रियापतिः ३, आनप्राणपर्यामिः ४, भाषापर्याप्तिः ५, मनः पर्याप्तिः ६, इति पर्याप्तयः षट् ।। १३५ ॥ अथ निtatयांतकाल एयोपकाल च लयात पजा िगिण्हंतो मणु-पज्जत्तिं ण जाव समणोदि'। ता णिव्वत्ति-अपुण्णो मणे-पुण्णो भणदे पुण्णो ।। १३६ ॥ भाषारूपसे परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं । ५॥ मनोवर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुद्गल स्कन्धोंको अलोपाङ्ग नामकर्मके उदयकी सहायतासे द्रव्यमनरूपसे परिणमानेकी, तथा उस द्रव्यमनकी सहायतासे और नोइन्द्रियावरण तथा वीर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम होनेसे गुणदोषका विचार व स्मरण आदि व्यापाररूप भावमनकी शक्तिकी पूर्णताको मनःपर्याप्ति कहते हैं॥६॥ पर्याप्तिका आरम्भ कैसे होता है और उसके पूरे होनेमें कितना समय लगता है ! इन बातोंको गोम्म टसारमें इस प्रकार बतलाया है-पर्याप्तियोंका आरम्भ तो एकसाथ होता है किन्तु उनकी समाप्ति क्रमसे होती है । तथा प्रत्येक पर्याप्तिके पूर्ण होनेमें अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है और वह अन्तर्मुहर्त उत्तरोत्तर अधिक २ होता है। किन्तु सामान्यसे एक अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं। आशय यह है कि शरीरनामकर्मका उदय होते ही जीवके अपने योग्य समस्त पर्याप्तियोंका आरम्भ एक साथ होजाता है और समाप्ति पहले आहारपर्याप्तिकी होती है, फिर शरीरपर्याप्तिकी होती है, फिर इन्द्रियपर्याप्तिकी होती है, इस तरह क्रमसे समाप्ति होती है और सब पर्याप्तियां एक अन्तर्मुहूर्त में निष्पन्न हो जाती हैं ॥ १३४ ॥ अर्थ-उस शक्तिके कारण जो पुद्गलस्कन्ध हैं उन पुद्गलस्कन्धोंकी निम्पत्तिको ही जिनेन्द्रदेवने पर्याप्ति कहा है। उस पर्याप्तिके छ: भेद है॥ भावार्थ-ऊपर जो जीवकी छ: शक्तियां बतलाई है उन शक्तियोंके हेतुभूत जिन पुद्गलस्कन्धोंको आहार आदि वर्गणारूपसे जीव ग्रहण करता है उन पुगलस्कन्धोंका शरीर आदि रूपसे परिणत होजाना ही पर्याप्ति है। भाशय यह है पहली गायामें शक्तिरूप पर्याप्तिको बतलाया है और इस गाया उन शक्तियोंका कार्य बतलाया है । जैसे, आहारवर्गणाके द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गलस्कन्धोंको स्खलभाग और रसभाग रूप करनेकी जीवकी शक्तिकी पूर्णताका नाम आहारपर्याप्ति है । वह पर्याति शक्तिरूप है । और इस शक्तिके द्वारा पुद्गलस्कन्धोंको खल भाग और रस भाग रूप कर देना यह २ मणिदि छमैया । २म समागेदि। ३ पमस मगु- । ४ छग मण्णवे । कार्तिक १. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १३___ [छाया-पर्याप्तिं गृहन् मनःपर्याप्ति न यावत समाप्नोति । तावनिवृत्त्यपूर्णः मनःपूर्णः भण्यते पूर्णः ॥ ] (जीकः पर्याप्ति गुण्हन सन् यावत्काल मनःपर्याप्तिं न समणोदि न समाप्तिं नयति,परिपूर्णता न यातीत्यर्थः, ता तावत्काल नित्यपर्याप्तको जीवः भण्यते मनःपूर्णः मनःपर्याप्तिपूर्णता प्राप्तो जीवः पूर्णः पर्याप्तको भण्यते । केचन नेमिचन्द्राचार्यादयः पर्यासनिईश्वपर्याप्तकालविभागमीदर्श कथयन्ति । तथा हि । 'पज्जत्तस्स य उदये णियाणियपजत्तिणिद्विदो होदि । आव सरीरमपुणे जिम्वत्तियपुग्णगो ताव ॥' पर्याप्तनामकर्मोदये सत्यकेन्द्रियविकलचतुष्कसझिजीवाः निजनिजचतुःपञ्चषट्पर्यासिभिनिष्ठिताः निष्पनशक्तयो भवन्ति । यावत् शरीरपर्याप्तिर्न निष्पना तावते च जीवाः समयोनशरीरपर्याप्तिकालान्तमुहूर्तपर्यन्तं 1 २४ नित्यपर्याप्ता इत्युच्यन्ते । नित्या पारीरनिष्पत्या अपर्याप्ता अपूर्णा नित्यपर्याप्सा इति निर्वचनात् ॥ १३६ ॥ अथलब्ध्यपर्याप्तरूपं निरूपयति उस्सासद्वारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि । एको वि य पजत्ती लद्धि-अपुण्णो हवे सो दु॥१३७॥ [छाया-उच्छासाष्टादशमे भागे यः प्रियते न च समाप्नोति । एकाम् अपि पाप्ति लन्थ्यपूर्णः भवेद स तु ॥] तु पुनः, स जीवः लब्ध्यपर्याप्तको भवेत् । स कः । यो जीयः एका वि य पजत्ती एकामपि पर्याप्ति न च समाणेदि न च कार्यरूप पर्याप्ति है । अथवा यह कहना चाहिये कि यह उस शक्तिका कार्य है । इसी तरह छहों पर्याप्तियों में समझ लेना चाहिये ।। १३५ ॥ अब निर्वृत्यपर्याप्त और पर्याप्तका काल कहते हैं । अर्थजीवपर्याप्तिको ग्रहण करते हुए जबतक मनःपर्याप्तिको समाप्त नहीं करलेता तबतक निर्वृत्त्यपर्याप्त कहाजाता है । और जब मनपरिको पूर्ण कर लेता है त पर्याम कहा जाता है ॥ भावार्थपर्याप्तिको ग्रहण करता हुआ जीव जबतक मनःपर्याप्तिको पूर्ण नहीं कर लेता तबतक निर्वृत्त्यपप्तिक कहा जाता है। और जब मनःपर्याप्तिको पूर्णकर लेता है तब पूर्ण पर्याप्तक कहा जाता है। किन्तु नेमिचन्द्र आदि कुछ आचार्य पर्याप्त और नित्यपर्याप्तके कालका विभाग इस प्रकार बतलाते है-'पर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर जीव अपनी अपनी पर्याप्तियोंसे निष्ठित होता है। जबतक उसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक वह निर्वृत्यपर्याप्त कहा जाता है । आशय यह है कि निवृत्त्यपर्याप्तकके मी पर्याप्तनामकर्मका ही उदय होता है । अत: पर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर एकेन्द्रिय जीव अपनी चार पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उनको पूरा करनेमें लग जाता है, दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव अपनी पांच पर्याप्सियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उन पांचोंको पूरा करनेमें लग जाते हैं । संन्नीपश्चेन्द्रिय जीव अपनी छ: पर्याप्तियोंको पूरा करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उन छहोंको पूरा करनेमें लग जाता है। और जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, अर्थात् शरीरपर्याप्तिके अन्तर्मुहर्तकालमें एक समय कम काल तक वे जीव नित्यपर्याप्त कहे जाते हैं । क्यों कि निवृत्ति अर्थात् शरीरकी निष्पत्तिसे जो अपर्याप्त यानी अपूर्ण होते हैं उन्हें निर्वृत्त्यपर्याप्त कहते हैं ऐसी निर्वृत्यपर्याप्त शब्दकी व्युत्पत्ति है। सारांश यह है कि यहां प्रन्थकारने सैनी पश्चेन्द्रिय जीवकी अपेक्षासे कयन किया है। क्योंकि मनःपर्याप्ति उसीके होती है । किन्तु अन्य ग्रन्थोंमें 'जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक जीव निर्वृत्त्यपर्याप्त होता है ऐसा कथन सब जीवोंकी अपेक्षासे किया है ॥ १३६ ॥ अब लब्धपर्याप्त का स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव श्वासके अट्ठारहवें भागमें मर जाता है और एक भी पर्याप्तिको समाप्त नहीं करपाता, उसे लब्ध्यपर्याप्त १ व एका (१), लम सग एका। २मग लशियपुण्णो। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३८] १०. लोकानुमेशा प्रामोति न च समाति नयति, परिपूर्णता न नमति । च पुनः । स्वासहारसमे मागे उच्छासाष्टादशैकमागम्यत्रे मिक्ते स ठन्ध्यपर्याप्तकः । तथा गोमाग प्रोक्तं चाइये सुमागास समागपति ण णिहुदि। अंतोमुत्तमरम दियपजागो सो दु॥' अपर्याप्तनामकर्मोदये सत्येकेन्द्रियनिकलचतुष्कसंझिनीयाः स्वखापञ्चपदपर्याप्तीनं निष्ठापयन्ति (उच्छासाष्टादर्शक र भागमात्रे एकान्तर्मुहूर्ते म्रियन्ते हे जीवा लब्ध्यपर्याप्तका इत्युच्यन्ते । सन्ध्या खस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिरुपमाः लन्ध्यपर्याप्ता इति निरुतः । अयेकेन्द्रियादिसंक्षिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तसम्म पर्याप्तकजीवेषु सर्दनिरन्तर जन्ममरणकालप्रमाणम्। गोम्मटसारोकगाथाश्यमाह । 'विणि सया छतीसा छावष्टिसहस्सगावि मरणाणि । अंतोमुहुतकाले तावदिया व मुहमवा ॥ १॥ अन्तर्मुहर्तकाले शुदाणा लण्यपर्याप्ताना मरणानि पदाति शनिशताधिकषट्षष्टिसहस्राणि ६६३३६ संभवन्ति । तथा तवा अपि सावन्तः ६१३३६ एव । 'सीदी सही पाई विमले चउवीस होति पंचक्यो । छावहि च सहस्सा सयै च पत्तौसमयक् ॥ २ ॥ ते निरन्तरक्षुदभवाः सन्ध्यपरिष एकेन्द्रियेषु द्वात्रिंशदप्रताधिकषधिसहस्राणि भवन्ति १६१३२ । तद्यथा । कश्चिदेकेत्रियो लमध्यपय प्रयमसमयादारभ्योष्ठामाटादकभागमात्रा खस्थिति जीविरवा पुनः तदेकेन्द्रिये एवोत्पनः तावन्मात्री सस्थिति जीविप्तः । एवं निरन्तरमेकेन्द्रियो लन्थ्यपर्याप्तकभवानेए बहुवार ग्रहाति तदा उक्तसंख्या ६६६३२ नातिकामति । एवमेव द्वीन्द्रिये लमध्यपर्याप्तके अधीतिः ८०, श्रीन्द्रिये लन्थ्यपर्यातके षष्ठिः६., चतुरिन्द्रिये लन्थ्यपर्याप्तके वस्वारिंश्चद ४०, पश्चेन्द्रियलाध्यपर्याप्तके चतुर्विशतिः २४, तत्र तु मनुष्यलयपर्याप्तकेऽष्टी ८, असशिपञ्चेन्द्रियलमध्यपर्याप्त केऽष्टी ,संज्ञिपश्चेन्द्रिये लयपर्याप्तकेseी.मिलित्वा पवेन्द्रियलस्थ्यपर्यासके चतुर्विशतिर्भवन्ति २४। अषैकेन्द्रिय लन्यपर्याप्तकस्य निरन्तरक्षुदभवसंख्या खामिमेदान् भाधित्य विभजति । 'पुढानिदगागजिमारुदसाहारणथमहमपोया । एवेसु अपुष्णेस य एषके वार ख छकं ॥३॥ पुषिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतयः पचापि प्रत्येक बादरसूक्ष्ममेदेन दश १ तथा प्रत्येकवनस्पतिश्चेत्येतेष्वेकादश लब्ध्यपर्याप्तकमेदेध्येकैकस्मिन् मेवे प्रत्येक दापयोत्तरषदसहस्रनिरन्तररुद्रमवा भवन्ति ६.१२॥ सध्यपर्याप्तानां मरणानि भषा ६६३३६ ॥ पृ. सू. ६.१२+ . बा. कहते हैं | भावार्थ-यह जीव लब्ध्यपर्याप्तक है जो एक भी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं करता और एक यासके अट्ठारह भागोंमेंसे एक भागमें ही मर जाता है। गोम्मटसारमें मी कहा है अपर्याप्त नाम . कर्मका उदय होनेपर जीव अपनी अपनी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं करता और अन्तर्मुहूर्त, मर जाता है। उसे लम्ब्यपर्याप्तक कहते हैं। अर्थात् एकेन्द्रिय, दोहन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंही पश्चेन्द्रिय और संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तनामकर्मका उदय होनेपर वे जीव अपनी अपनी चार, पांच या छः पर्याप्तियों से एक भी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं कर पाते । तथा चासके अट्ठारहवें भाग प्रमाण अन्तमुंइतकालमें ही मर जाते हैं । उन जीवोंको लक्थ्यपर्याप्तक कहते हैं । क्योंकि लन्धि अर्थात् अपनी अपनी पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी योग्यतासे जो अपर्याप्त अर्थात् अपूर्ण है वे लध्यपर्याप्त है-ऐसी लन्ध्यपर्याप्त शब्दकी व्युत्पत्ति है । एकेन्द्रियसे लेकर संझी पश्चेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें निरन्तर जन्ममरणका काल गोम्मटसारमें तीन गाथाओंके द्वारा इस प्रकार कहा है एक अन्तर्मत कालमें क्षुद्र अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त जीव ६६३३६ बार मरता है. और ६६३३६ बार ही जन्म लेता है। १। उन छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस क्षुद्र भवोंमें से ६६१३२ बार तो लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियोंमें जन्म लेता है । जिसका खुलासा इस प्रकार है-कोई एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने भवके प्रथम समयसे लेकर उच्छासके अट्ठारहवें भाग प्रमाण अपनी आयु पूरी करके पुनः एकेन्द्रिय पर्यायमें ही उत्पन्न हुआ । और उच्छासके अट्ठारहवें भाग काल सक जीकर मरगया और पुनः एकेन्द्रियपर्यायमें उत्पन्न हुआ। १ सर्वत्र 'गोमा' इति पाठः । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ मा० १३८ = ६०१२ + अ. सु. ६०१२. मा. ६-१२ + ते सु ६०९१+ ते. बा. ६०१२ + वा. सु. ६०१२ + वा बा. ६०१२ + सा. सू. ६०१२ + सा. वा. ६०१२ + प्र. ६.६०१२ ÷ द्वि. ल. ८० + त्रि. ल. ६०+च. रू. ४० + पं. ल. २४ [ = ६६३३६]॥ प्र. [म. ] १. [म. ] ६६३३६. [.] [ल, उ. ] [ल. म.] ६६३३६ । [ प्र. म. ] ३६८५३ । [. उ.] [इ. उ. ३६०५ [फ.म.] १= ६६३३६ [ ६. स. ] १ [ फ. उ. ] ३६८५ = [ल. उ. ] [ प्र.उ. ] ३६८५ : [इ. उ. ] ट [फ.] मरणलब्ध ६६३२६ = [ल. म. ] १ ॥ मुहूर्तस्य उ. ३७७३, नं. ३६८५, १ मरण ल. उ. [प्र. = प्रमाणराशी, इ. = इच्छमराशी, फ. फलराशी, ल = लब्धराशी उत्तर, भे. अंतर्मुहूर्त, व. = उच्छ्वास, म. मरण। यहां मूल प्रतिकी संदृष्टी आधुनिक त्रैराशिक पद्धतीसे ऊपर लिखी गई है।] ॥ १३७ ॥ अथ पर्याप्तिप्यपर्याप्त्योः पर्याप्तिसंख्यां कथयति 1 लद्धियपुणे पुण्णं पाती एयक्ख - वियल-सण्णीणं । कमसो पज्जतीपं वियाणेह ॥ १३८ ॥ - पण १ [ छाया-लक्ष्ध्यपूर्ण पूर्ण पर्याप्तिः एकाक्ष विकलसे शिनाम् । चतुःपञ्चषट्कं क्रमशः पर्याप्ती : विजानीहि ॥ ] लभ्ध्यपर्याप्त जी पर्याप्त्यपूर्ण पर्याप्तम्। लब्ध्यपर्याप्तकजीवानां पर्याप्त्या व्याख्यानं परिपूर्ण जातम् । एयक्खादि इस तरह यदि वह निरन्तर एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त में ही बार-बार जन्म लेता है तो ६६१३२ वारसे अधिक जन्म नहीं ले सकता | इसी तरह दो इन्द्रिय लब्ध्यपर्यातकों ८० बार, तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्यासोमै ६० बार, चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्यातकों में ४० बार और पश्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्यातकों में २४ बार, उसमें भी मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में आठ नार, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ बार और संज्ञी पचेन्द्रिय न्ध्यपर्याप्त में आठ बार इस तरह मिलकर पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें चौबीस बार निरन्तर जन्म लेता है । इससे अधिक जन्म नहीं ले सकता । एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के निरन्तर क्षुद्र भवोंकी संख्या जो ६६१३२ बतलाई है उसका विभाग स्वामिकी अपेक्षासे इस प्रकार है- पृथिवीकाय, जलकाय, तेजकाय, वायुकाय और साधारण बनस्पतिकाय ये पांचों बादर और सूक्ष्मके मेदसे १० होते हैं। इनमें प्रत्येक वनस्पतिको मिलानेसे ग्यारह होते हैं । इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्यातकों से एक एक मेदमै ६०१२ निरन्तर क्षुद्र भव होते हैं । अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त जीव जो एकेन्द्रियपर्याय में ६६१३२ भव धारण करता है उन भवोंमें से ६०१२ भव पृथिवीकाय में धारण करता है, ६०१२ भव जलकायमें धारण करता है, ६०१२ भव तेजकाय में धारण करता है। इस तरह एकेन्द्रियके ग्यारहों भेदोंमें ६०१२, ६०१२ बार जन्म लेता और मरता है । इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्तकालमें लब्ध्यपर्याप्तक जीव ६६३३६ बार जन्म लेता है, और उतनी ही बार मरता है ॥ १३७ ॥ गाधा १३७ की संदृष्टिका खुलासा इस प्रकार हैं- (१) पृथिवीकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ (२) पृथिवीकायिक बादरके भव ६०१२ (३) जलकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ ( ४ ) जळकायिक बादरके भव ६०१२ + ( ५ ) तेजकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२+ (६) तेजकायिक बादरके भव ६०१२ (७) वायुकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ (८) वायुकायिक बादरके भव ६०१२ + ( ९ ) साधारणकायिक सूक्ष्मके भत्र ६०१२ + (१०) साधारणकायिक बादरके भव ६०१२ (११) प्रत्येक वनस्पतिकायिकके भव ६०९२=६६१३२+दोइन्द्रिय लय १ व पक्षी (१) । ↓ 1 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३९] १०. लोकानुप्रेक्षा एकेन्द्रियविकलसशिनो क्रमशः युपण चतन्नः, पश्च, षद् च पर्याप्तीर्जानीहि । एकान्द्रयजीवानाम् भाहारशरीरेनित्रयोच्छ्वासपर्याप्तयश्चतस्त्रो ४ भवन्ति । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासज्ञिपश्चेन्द्रियजीवानाम् माहारशरोरेन्दियोरया भाषापर्यातयः पन्न स्यु: ५। संशिपञ्चेन्द्रियजीवानाम् भाहारशरीरेवियोच्छासभाषामनःपयातयः षट् ६ सन्ति ॥ १६॥ अय दश प्राणान् लक्षयति-- मण-वयण-काय-इंदिय-णिस्सासुस्सास-आउ-उदयार्ण । जेसिं जोए अम्मदि मरदि विओगम्मि ते वि दह पाणा ॥१३९ ।। [छाया-मनोवयन कायेन्द्रियनिःश्वासोच्छासायुरुदयानाम् । येषां योगे जायते त्रिमते वियोगे वे अपि दश प्राणाः ॥ येषां मनोवचनकायेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्वासायुरुदयानां जोए संरोगे जम्मदि जीवो जायते उत्पद्यते, देवा बियोगे सति जीवो नियते जीवितभ्यरहितो भवति, तेऽपि दश प्राणाः कप्यन्ते इत्यभूतैर्दशभिभ्यप्राणः यथासंभवं जीवति पर्यातकके ८०+तेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ६०+चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्यासक्के ४०+पवेन्द्रिय लन्थ्यपर्याप्तकके २४-६६३३६॥ ये ६६३३६ भव एक अन्तर्मुहूर्तमें होते हैं। १)-अत: यदि एक भवका काल एक उच्छासका अट्ठारहवां भाग है तो ६६३३६ भवका काल कितने उच्छास होगा? ऐसा त्रैराशिक करते र ६६३३६ कर भाग कोसे लाभ ३६८५३ होता है सो इतने उच्छासमें ६६३३६ भव लब्ध्यपर्याप्तक जीव धारण करता है। एक मुहूर्तमे ३७७३ उध्यास होते हैं। अतः ३६८५३ उच्छृास एक एक अन्तमुहूर्तमें हुआ। २) यदि । उच्छासमें १ भव धारण करता है तो ३६८५३ उच्छासमें कितने भव धारण करेगा ऐसा पैराशिक करनेपर ३६८५३ में १८ का गुणा करनेसे ६६३३६ भव होते हैं । ३) यदि छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस भवका काल ३६८५ उच्छास है तो एक भवका काल कितना है ऐसा त्रैराशिक करने पर ६६३३६ से ३६८५, उच्छासमें भाग देनेसे एक भवका काल १४ उच्छवास आता है । ४) यदि ३६८५३ उच्छ्वासमें ६६३३६ भत्र धारण करता है तो उच्छ्रासमें कितने भव धारण करेगा ? ऐसा त्रैराशिक करने पर उत्तर एक भव आता है । अब पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके पर्याप्तियोंकी संख्या कहते हैं। अर्थ-लब्ध्यपर्याप्त जीय सो अपर्याप्तक होता है अतः उसके पर्याप्ति नहीं है। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और संझी पश्चेन्द्रिय जीवके क्रमसे चार, पांच और छ: पर्याप्तियां जानो || भावार्थ-लग्थ्यपर्याप्तक जीवके किसी पर्याप्तिकी पूर्ति नहीं होती; क्योंकि वह अपर्याप्तक है। अतः लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके पर्याप्तिका कपन इतनेसे ही पूर्ण हो जाता है । पर्याप्तक जीवोंमें एकेन्द्रियके आहारपति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, उच्छासपर्याप्ति ये चार पर्याप्तियां होती हैं। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पवेन्द्रिय जीवोंके आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छास और भाषा ये पांच पर्याप्तियां होती हैं । संशी पश्चेन्द्रिय जीवोंके आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छास, भाषा और मन ये छः पर्याप्तियां होती हैं ॥ १३८ ॥ पर्याप्तियोंका कथन करके अब प्राणोंका कपन करते हैं । अर्थ-जिन मन, वचन, काप, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्रास और आयुके उदयके संयोगसे जीव जन्मलेता है और वियोग होनेसे मर जाता है उन्हें प्राण कहते हैं। वे दस है भावार्थ-जिनके संयोगसे जीवन और वियोगसे मरण होता है उन्हें प्राण कहते हैं षे प्राण दस हैं-मनोबल, बचनबल, कायबल, पांच इन्द्रियां, श्वासोच्छास और आयु । इन दस द्रव्य प्राणोंमें से जो १ क म ग आउदयाणं, स आउहियाणं । २२ग मरिवि । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १४० जीविष्यति जीवितपूर्वो वा यो व्यवहारनमात् स जीवः ) (सत्ताचैतन्यसुखबोधादयः शुद्धभावप्राणाः ॥ १३९ ॥ अकेन्द्रमादीनां पर्याप्तानां प्राणसंख्यां ख्यापयति ७८ एक्खे व पाणाविति चउरिदिय असण-सणीणं । छह सत्त अ' णवयं दह पुण्णाणं कमे पाणा ॥ १४० ॥ अवा-का हरिया वशिनाम् । षट् सप्त अष्ट नव दश पूर्णानां क्रमेण प्राणाः ॥ ] क्रमेण एकेन्द्रियादिपर्याप्तकेषु चतुः षट्सप्ताष्टनवदशप्राणा भवन्ति । तथा हि । पृथिव्यप्तेजोशयुवनस्पतिकायिकान पर्यातकजीवाना स्पनेन्द्रिय कार्याोच्छ्वास निः श्वासायुः कर्मरूपा बरवारः प्राणाः ४ भवन्ति । शङ्खतिकवर टिक जाली का दि चीन्द्रिर्याकजीवन स्पर्धानरसनेन्द्रिय कायवचनानप्राणायुरूपाः षट् प्राणाः ६ स्युः । कुन्थुयूका मत्कुणवृश्चिकादि -- श्रीन्द्रियपर्यातकजीवानां स्पर्शनरसनप्राणेन्द्रियकायवचननिःश्वासोच्छ्वासा दुर्लक्षणाः सप्त प्राणाः सन्ति दंशमशकपतंग -- भ्रमराणि चतुरिन्द्रियपर्याप्ताना स्पर्शन र सनम्राणचक्षुरिन्द्रियकामवचनानप्राणायूरूपाः अष्टौ ८ प्राणाः । असशिनाम् अमनस्कानt विर पञ्चेन्द्रियपय साना स्पर्शनर सनघ्राणचष्टुः श्रोत्रे न्द्रियकायवचनश्वासोच्छ्वासायुः कर्मरूपाः नव प्राणाः विद्यते संशिनां समनकानां देवमनुष्यादीनां पञ्चेन्द्रियपर्याप्ताना स्पर्शनरसनघ्राणचष्टुः श्रोत्रेन्द्रियमनोवचनकाय प्राणा 1 अपने योग्य प्राणोंसे वर्तमानमें जीता है, भविष्य में जियेगा और भूतकालमें जिया है, व्यवहारनयसे वह जीव है । तथा सत्ता, चैतन्य, सुख और ज्ञान आदि शुद्ध भाव प्राण हैं। आशय यह है कि ऊपर जो दस प्राण बतलाये हैं वे द्रव्य प्राण हैं, जो संसारी जीवोंके पाये जाते हैं । किन्तु मुछावस्थामें ये द्रव्य प्राण नहीं रहते, बल्कि सत्ता आदि शुद्ध भाव प्राण रहते हैं। ये भाव प्राण ही जीवके असली प्राण हैं; क्योंकि इनके बिना जीवका अस्तित्व ही नहीं रह सकता । अतः निश्वयनयसे जिसमें ये शुद्ध भाव प्राण पाये जाते हैं वही जीव है । यद्यपि संसारी जीवमें भी ये भाव प्राण पाये जाते हैं, किन्तु वे शुद्ध भाव प्राण नहीं है | १३९ || अब एकेन्द्रिय आदि पर्याप्त जीवोंके प्राणोंकी संख्या बतलाते हैं। अर्थ - पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवके चार प्राण होते हैं और पर्याप्त दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पश्चेन्द्रिय और संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीवके क्रमसे छः, सात, आठ, नौ और दस प्राण होते हैं || भावार्थ- पर्याप्त एकेन्द्रिय आदि जीवोंके क्रमसे चार, छ, सात, आठ, नौ और दस प्राण होते हैं । जिसका विवरण इस प्रकार है- पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जीवोंके स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, श्वासोच्छ्रास और आयुकर्म, ये ४ प्राण होते हैं । शंख, सीप, कौडी जोंख आदि दो इन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके स्पर्शन और रसना इन्द्रिय, कायबल, वचनबल, श्वासोच्छ्रास और आयु, ये छ प्राण होते हैं। कुंथु, जं, खटमल बिच्छु वगैरह इन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके स्पर्शन, रसना और प्राण इन्द्रिय, कायबल, वचनबल, श्वासोच्छ्रास और ये सात प्राण होते हैं । डांस, मच्छर, पतङ्ग, भौंरा आदि चौइन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंक स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु इन्द्रिय, कायबल, वचनबल, वासोच्छ्वास और आयु ये आठ प्राण होते हैं । असैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यश्चों के स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय, कायबल, वचनबल, वसोवास और आयु ये नौ प्राण होते हैं। सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्रेन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छ्रास और आयु ये दस प्राण होते हैं । इन दस १ ब सचद्ध Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 -१४१] १०. लोकानुप्रेक्षा ७९ पानायूरूपाः दश प्राणाः १० भवन्ति ॥ वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमजनिताः स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः धोत्रेन्द्रियमनोवलप्राणाः ६ भवन्ति । शरीरनामकर्मोदये सति कायबलप्राणाः अनप्राणश्च भवन्ति २ । शरीर नामकर्मोदये स्वरनामकमदये च वचो बलप्राणो भवति १ । आयुः कर्मोदये आयुः प्राणो भवति १ एवं प्राणानामुत्पत्तिसामभी सुचिता ॥ १४० ॥ अथ द्विविधानामपर्याप्तानां प्राणसंख्यां विभजति– दुविहाणमपुण्णाणं इगि' - वि-ति- चउरक्ख- अंतिम दुगाणं । तिय च पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयता ॥ १४१ ॥ [छाया-- द्विविधानाम् अपूर्णानाम् एकद्वित्रिचतुरक्षान्तिमद्विकानाम् । श्रयः चत्वारः पट षद् सप्त च क्रमेण प्राणाः ज्ञातव्याः ।। ] द्विविभागामपूर्णानां निर्वृत्यपर्याप्तानां लब्ध्यपर्याप्तानां च । इगि इत्यादि एकद्वित्रिश्चतुरक्षान्तिमद्विकानाम् एकेन्द्रियन्त्रन्द्रियाद्वारे न्द्रियासं शिपत्रियाणां क्रमेण आणाः मन्तव्याः शातव्याः । कतितीत्यादि त्रयश्वत्वारः पञ्च षट् सप्त च ज्ञातव्याः । तथा हि नित्यपर्यातकलव्ध्यपर्याप्तकामा मेकेन्द्रिय जीवाना स्पर्शनेन्द्रियकाय वायुः प्रणाश्रयो भवन्ति ३, न तु निश्वासोच्छ्वासः । नित्यलब्ध्यपर्याप्तानां द्वीन्द्रियजीनाना स्पर्शनरसनेन्द्रियकायमायुः प्राणाश्चत्वारो ४ विद्यन्ते नतु भाषोच्छ्वासो । निर्वृस्यलब्ध्यपर्याप्तानां त्रीन्द्रियजीवानां स्पर्शनरखनाणेन्द्रियकाय वायुः प्राणाः पत्र ५ सन्ति न तु भाशेवासी । निरृत्यलब्ध्यपर्याप्तानां चतुरिन्द्रियजीवानां स्पर्शनर सनघ्राणचक्षुरिन्द्रियकाय भल।युः प्राणाः षट् ६ स्युः, न तु निश्वासभाषाप्राणो । निर्ऋत्यलन्ध्यपर्याप्तानाम् असंक्षिजीवानां प्राणोंसे स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियां और मनोबल प्राण वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम से होते हैं। शरीर नाम कर्मका उदय होनेपर कायबल प्राण और बसोवास प्राण होते हैं। शरीर नाम कर्म और खरनामकर्मका उदय होनेपर वचनबल प्राण होता है। और आयुकर्मका उदय होनेपर आयुप्राण होता है। इस तरह प्राणोंकी उत्पत्तिकी सामग्री बतलाई है ॥ १४० ॥ अब दोनों प्रकारके अपर्याप्तकोंके प्राणोंकी संख्या कहते हैं । अर्थदोनों प्रकारके अपर्याप्त एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पश्चेन्द्रिय और संत्री पश्चेन्द्रिय जीवोंके क्रमसे तीन, पांच, छः और सात प्राण जानने चाहिये । भावार्थ- दोनों प्रकारके अपर्याप्त अर्थात् निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौहन्द्रिय असंज्ञी प न्द्रिय और संज्ञी पचेन्द्रिय जीवोंके क्रमसे तीन, चार, पांच, छः और सात प्राण होते हैं अर्थात् निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु ये तीन प्राण होते हैं, श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं होता । निर्वृत्थपर्याप्त और लब्ध्वपर्याप्त दो इन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन और रसना इन्द्रिय, कायबल, आयु, ये चार प्राण होते हैं, बचनबल और श्वासोच्छूास प्राण नहीं होते। निर्दृश्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त तेइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना और प्राण इन्द्रिय, कायबल और आयु ये पांच प्राण होते हैं, वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं होते । निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्यास चौsन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु इन्द्रिय, कायबल और आयु ये छः प्राण होते हैं, वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं होते । निरृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त असंज्ञी पश्चेन्द्रिय तथा संझी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय, कायबल और आयु ये सात प्राण होते हैं, वासोच्छ्रास वचनबल और मनोबल प्राण नहीं होते । शङ्का पर्याप्त और प्राणमें क्या भेद है ? समाधान -- आहारवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणाके परमाणुओंको आहार, शरीर, I I १ ग इग " Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सामिकाठिकेयानुप्रेक्षा [गा० १४३स्पर्शनरसनघ्राणरक्षुःश्रोत्रेन्द्रियकायबलायुःप्राणाः सप्त ७ भवन्ति, न तु भाषोक्तासमनःप्राणाः चित्र पर्याप्तिप्राणयोः को मेवः। आहारशरीरेन्द्रियान प्राणभाषामनोर्थपणशक्तिनिष्पत्तिरूपाः पर्याप्तयः, विषयप्रहणव्यापार व्यक्तिरूपाः प्राणाःति मेदो ज्ञातव्यः ॥ १४१॥ ननु प्रसनाध्यां साः सर्वति प्रश्ने, अथ विकलत्रयाणां स्थान नियम निर्दिशति वि-ति-चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्म-भूमीसु। परिमे दीवे अद्धे चरम-समुहे वि सव्वेसु ॥ १४२॥ [छाया-वित्रिचतुरक्षाः जीवाः भवन्ति नियमेन कर्मभूमिषु ! चरमे ट्रीपे अर्धे चरमसमुदे अपि सर्वेषु ॥] द्वित्रिचतुरिन्दिया जीवाः प्राणिनः नियमतः वर्षातु कर्मभूमिघु पञ्चभरतपश्चराक्तपञ्चविदेहेषु पञ्चदशकर्मधरासु विकलत्रयासंज्ञिजीवा भवन्ति, नतु भोगभूम्यादिषु । अपि पुनः, चरम द्वीपे अर्धे खयंप्रमद्वीपे चरमे तस्या) खयप्रभपर्वतोऽस्ति मानुषोत्तरवत् । तस्य स्वयंप्रभस्य परतः अर्धद्वीपे चरमसमुद्रे स्वयंभूरभणसभुरे सर्वस्मिन् द्वित्रिचनीयाः पादः माजिद नाति एनालगत्र स्थानेषु ॥ १४२ ॥ अथ मानुषक्षेत्रबहिर्भागेषु तिरश्चामायुःकायादिनियमे निगपति माणुस-खिप्सस्स बहिं चरिमे दीवस्स अद्धयं जाँघ । सैब्यत्थे वि तिरिच्छा हिमवद-तिरिएहिँ सारिच्छा ॥ १४३ ॥ या-मानपत्र बहिः बरमे द्वीपस्य अधक यावत । सर्वत्र अपि लिय: हैमवततिर्यविभः सदृशाः! मनुष्यक्षेत्रस्य बहिर्भागे चरमे द्वीपस्य स्वयंप्रभद्वीपस्य यावत्, अद्वयं अर्धक, पुष्करद्वीपार्थस्थितमानुषोत्तरपर्वतात् अग्रे स्वयंप्रमद्वीपमध्यस्थितखयंप्रभाचलात भक्,ि सम्बत्थे वि सर्वत्रापि, अपरपुष्कररार्धद्वीपादिस्वयंप्रमद्वीपार्धपर्यन्तेषु इन्द्रिय, श्वासोच्छास, भाषा और मनरूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं। और पर्याप्तिके पूर्ण हो जानेपर इन्द्रिय वगैरहका विषयोंको ग्रहण करना आदिरूप अपने कार्यमें प्रवृत्ति करना प्राण है । इस तरह दोनोंमें कारण और कार्यका भेद है ॥ १४१ ॥ किसीने प्रश्न किया कि क्या अस नाडीमें सर्वत्र त्रस रहते हैं ! इसके समाधानके लिये प्रन्यकार विकलत्रय जीवोंके निवासस्थानको बतलाते हैं । अर्थ-दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं । तथा अन्तके आधे द्वीपमें और अन्तके सारे समुद्र में होते हैं ॥ भावार्थ-पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह, इन पन्द्रह कर्मभूमियोंमें विकलत्रय और असंशी पश्चेन्द्रिय जीव होते हैं, भोगभूमि वगैरहमें नहीं होते । तथा जैसे पुष्कर द्वीपके मध्यमें मानुषोत्तर पर्वत पड़ा हुआ है वैसे ही अन्तके स्वयंप्रभद्वीपके बीचमें स्वयंप्रम पर्वत पड़ा हुआ है। उसके • कारण द्वीपके दो भाग हो गये हैं। सो स्वयंप्रभ पर्वतके उस ओरके आधे द्वीपमें और पूरे स्वयंभूरमण समुद्र में दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव तथा 'अपि' शब्दसे असंज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव होते हैं । इनके सिवा अन्य स्थानोंमें ये जीव नहीं होते ॥ १४२ ।। अब मनुष्यलोकसे बाहरके भागोंमें रहनेवाले तिर्यञ्चोंकी आयु और शरीर बगैरहका नियम कहते हैं। अर्थ-मनुष्यलोकसे बाहर अन्तके स्वयंप्रभ द्वीपके आधे भाग तक, सब द्वीपोंमें जो तिर्यश्च रहते हैं वे हैमवत क्षेत्रके तिर्यञ्चोंके समान होते हैं। भावार्थ-पुष्करद्वीपके आधे भागमें स्थित मानुषोत्तर पर्यनसे आगे और स्वयंप्रभ द्वीपके मध्यमें स्थित स्वयंप्रभ पर्दतसे पहले अर्थात् पश्चिम पुष्कराध द्वीपसे लेकर स्वयंप्रभद्वीपके आधे भाग तक असंख्यात द्वीपोंमें जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय थलचर और नभचर तिर्थश्च होते हैं वे हैमवत भोगभूमिके तिर्यश्चोंके ल चरिम । २ ग परमे। ३ व जाम। ४ ल स ग सब्बथि वि। ५ व हिमवदितिरिहि । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा असंख्यातद्वीपेषु, तिरछा तिर्यवः, पस्नेन्द्रियाः संशिनः स्थलबरनभश्वरा भवन्ति । हिमवदतिरिएहि हैमवतभोगभूमिजतिर्यग्भिः, सारिच्छा आयुःकायाहारयुम्मोत्पत्तिमुखादिभिः सहशा भवन्ति उत्सेधाः पल्यायुकाः । सौम्याः मृगादयः पक्षिणश्च स्युरिस्यर्थः ॥ १४३ ॥ अथ लवणाविसमुद्रेषु जलचरजीवभावाभावं प्ररूपपति लवणोए कालोए अंतिम-जलहिम्मि जलयरो संति । सेस-समुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण ॥१४४ ।। [छाया-लवणो कालोदे अन्तिमजलधी जलचराः सन्ति । शेषसमुदेषु पुनः न जलचराः सन्ति नियमेन ॥] लवणोदके जलधी द्विलक्षयोजनप्रमाणसमुद्रे जल चराः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवाः सन्ति । कालोदकसमुद्र भष्टलक्षयोजनप्रमाणे जलचरास्त्रमा विद्यन्ते। अन्तिमजलधी चरमाय भूरमगसमुद्रे असंख्यातयोजनप्रमाणे अलवराः द्वित्रिचतु:पधेन्द्रियपाणिनो भवन्ति । पुनः शेषसमुद्रेषु सर्वेषु असंख्यातप्रमितेषु नियमतः जल बराःद्वीन्द्रियादयो जीवा न सन्ति । ननु समुद्देषु जलखादः कोहक इति चेत्रैलोक्यसारगाथामाह । " लवर्ण वाहणतियमिदि काल दुर्गतिमसयंभुरमणमिदि । पोयजल स्सादा अवसेसा होति इच्छुरया ॥” इति ॥ १४४ ॥ अथ भवनवासिदेवादीनां स्थाननियम वक्ति खरभाय-पंकभाए भावण-देवाण होति भवणाणि । वितर-देवाण तहा दुण्हं पि य तिरिय-लोयमि ॥ १४५ ॥ [छाया-खरभागपडभागयोः भावनदेवानां भवन्ति भवनानि । व्यन्तरवेशानां तथा द्वयोरपि च तिर्यग्ले के 1] रमप्रभायां प्रथमपृथिव्यामेकलक्षाशीतिसहसयोजनबाहुल्यप्रमिलायां १८०००० प्रथमसरभागे षोडशसहस्रयोजनमाहुल्यै असुरकुलं विहाय नाग १ विद्युत् २ सुपर्ण ३ अग्नि ४ वात ५ स्तमित ६ उदधि ५ द्वीप ८ विक ५ समान होते हैं । अर्थात् उनकी आयु, शरीर, आहार, युगलरूपमें जन्म और सुख वगैरह जघन्य भोगभूमिके तिर्यञ्चोंके सदृश ही होते हैं । उन्हींके समान वहांके भृग आदि थलचर और पक्षी आदि नभचर तिर्यश्च सौम्य होते हैं, शरीरकी ऊंचाई भी उन्हीं के समान होती है और एक पल्पकी आयु होती है ॥ १४३ ।। अम लवण आदि समुद्रोंमें जलचर जीवोंके होने और न होनेका कथन करते हैं । अर्थ-लवणोद समुदमें, कालोद समुद्रों और अन्तके स्वयंभूरमण समुद्रमें जलचर जीव हैं । किन्तु शेष बीचके समुद्रोंमें नियमसे जलचर जीव नहीं हैं ।। भावार्थ-दो लाख योजन विस्तारवाले लत्रण समुद्र में और आठ लाख योजन विस्तारवाले कालोद समुदमें दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय जलचर जीव होते हैं । असंख्यात योजन' विस्तारवाले अन्तके स्वयंभूरमण समुद्रमें मी दो इन्द्रिय आदि जलचर जीव होते हैं। किन्तु बाकीके सब समुद्रोंमें जलचर जीव नियमसे नहीं होते । शङ्का-समुद्रोंके जलका स्वाद फैसा है ? समाधान-त्रैलोक्यसार नामक ग्रन्थमें कहा है कि लवण. समुद्रके जलका खाद नमककी तरह है । वारुणीवर समुद्के जलका खाद शराबके जैसा है, घृतवरसमुद्रके जलका खाद बीके जैसा है। क्षीरवर समुद्रके जलका खाद दूधके जैसा है | कालोद, पुष्करघर और स्वयंभूरमण समुद्रोंके जलका खाद जलके जैसा है, और शेष समुद्रोंका खाद गन्नेके रसके जैसा है ॥ १४४ ॥ अब भवनवासी आदि देवोंका निवासस्थान बतलाते हैं । अर्थ-खरभाग और पैकभागमें भवनवासी देवोंके भवन हैं और व्यन्तरोंके भी निवास है । तथा इन दोनोंके तिर्यग्लोकमें भी निवास स्थान हैं ॥ भावार्थ-रत्नप्रभा नामकी पहली पृधिवी एक लाख अस्सी हजार योजन अंतम । २ भर्तिक. ११ जलचरा। ३ग बितर ४ ल म स ग तिरियलोप लि। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकासियानुप्रेक्षा [मा० १०५ कुमाराणा भवनवासिनी नवाना, तथैव राक्षसकुल विहाय प्यन्तरा सताना किंनर पुरुष २ महोरम गन्धर्व ४ यक्ष ५ भूत ६ पिशाचाना भवनानि आवासाः सन्ति । मपिशब्दात चतुरशी तिसइनयोजनप्रमितहमागे बसुरकुमाराणों राक्षसानाचावासा भवन्ति। मशीतिसहस्रयोजनप्रमाणाध्यहतभागे नारकास्सिन्ति । प्रसंगात्रामा पाण्यानमिदम् । अपि दुई पिसिरियलोए खानामपि भवनवासिदेवाना व्यन्तरदेवानां च नियंग्लोके भादासाः सन्ति । व्यन्तरा निरन्तरा इति वचनात् सर्वद्वीपसमुद्रेषु तदासाः अपनेषु बसन्तीत्येवंशीला भवनवासिनः) विधदेशान्तरेषु मेषां निवासास्ते व्यन्तराः ॥१४५ ॥ अथ ज्योतिषां करूपसुराणा कारकाणां च स्थाननियममाह जोइसियाण विमाणा रजू-मिते वि तिरिय-लोए वि। __ कप्प-सुरा उहम्मि' य अह-लोए होति'णेरइया ॥ १४६ ॥ [छाया-ज्योविष्काणा धिमाना रज्जूमात्रे अपि तिर्यरलोके अपि । कापसुराः सर्वच भयोलोके भवन्ति नरविकाः ॥] रजमाने तिर्यग्लोके मध्यलोके चित्राभूमितः उपरि नवसधिकानि सप्तशतयोजनानि विहायसि गला हारकाणां विमानाः सन्ति । ततोऽपि योजन दशकं गत्वा सूर्याणा विमानाः। ततः परम् अधीतियोजमानि गत्वा बनाना विमानाः सन्ति । ततोऽपि योजनचतुष्य गते अश्विन्यादिनक्षत्राणो विमानाः । तदनन्तर योजनपश्ये गते बुधाना विमानाः। ततोऽपि योजनय गते शुकाणा विमानाः । ततः परं योजनाये गते बृहस्पतीनां विमानाः । ततो रोजनप्रयानन्तरं माल विमानाः । तसोऽपि योजनश्रयानन्तरं शनैश्वराणा बिमामाः। तथा चोतं च । “णवतरसतसया पस सीरी चत दुर्ग तु तिचउछ । तारारविससिरिक्सा अहमग्गवअंगिरारसणी ॥" इति पशोत्तरशतयोजन ११० बाहुल्य प्रमाणे ज्योतिषां चन्द्रादिस्यमहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाणां विमानाःभ्योमयानानि भवन्ति विद्यन्ते । य पुनः,कपसरा नवृमि कल्पवातिदेवा अवलोके । तथा हिमादिमध्यान्तेषु द्वादशाष्टचतुर्योजनवाणविष्कम्भा चत्वारिंवारप्रमितमोजनोस्लेषा या मेरुपलिका तिष्ठति, तस्या उपरि कुरुभूमिबालाप्रान्तरितं पुनः प्राजुविमानमस्ति। तदादि फस्या पलिकासहितपक्षयोजन प्रमाणमेहस्सेधन्यूनमधोधिकरप्रमाणं खासक्षेत्रं सत्पर्यन्तं सौधर्मशानशेखर्गयुगई विति। तदः परमर्धाधिकरजुपर्यन्तं । सनत्कुमारमाहेन्द्रसम खर्गयुगलं भाति । तस्मारिजुप्रमाणाशासपर्यन्त प्रमामोत्तरामिषान वर्गयुगलमस्ति । तस्मादरजुपर्यन्त लान्तवकापिटसर्गवयं विधति । ततधारनुपर्यन्तं । शुक्रमहामोटी है। उसका प्रथम भाग, जिसे खर भाग कहते हैं, सोलह हजार योजन मोटा है । उस खर भागमें असुरकुमारोंको छोड़कर बाकीके नागकुमार, विद्युत् कुमार, सुपर्णकुमार, अमिकुमार, बातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार नामके नौ भवनवासियोंके भवन है । तथा राक्षसोंको छोड़कर किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्य, यक्ष, भूत और पिशाच, इन सात प्रकारके व्यन्तरोंके आवास हैं । 'अपि' शब्दसे चौरासी हजार योजन मोटे दूसरे पकभागमें असुरकुमारोंके भवन और राक्षसोंके आवास हैं । और अस्सी हजार योजन मोटे तीसरे अब्बाहुल भागमें नारकी रहते हैं । पहा नारकियोंका कपन प्रसङ्गवश कर दिया है । अस्तु, इसके सिवा भवनवासी और व्यन्तर देवोंके बासस्थान तिर्यग्लोकमें भी हैं । क्यों कि ऐसा वचन है 'व्यन्तरा निरन्तराः। अतः समी द्वीप समुद्रोंमें उनका निवास है। जो भवनों में निवास करते हैं उन देवोंको भवनवासी कहते हैं । और विविध देशोंमें जिनका निवास है उन देवोंको व्यन्तर कहते हैं ॥ १४५ ॥ अब ज्योतिषी देव, कल्पवासी देव और नारकियोंका निवास स्थान बतलाते हैं । अर्थ-ज्योतिषी देवोंके विमान एक राजुप्रमाण तिर्यगलोकमें है | कल्पवासी देव ऊलोकमें रहते हैं और नारकी अधोलोकमें रहते हैं। भावार्थ-एक राजु प्रमाण मध्यलोकमें, चित्रा भूमिसे ऊपर सातसौ नम्वे योजन जाकर आकाशमें तारोंके विमान है। .१वलोए मि। २७ म उम्हि, सम्हि । ३ वहुँति । ४ बलितित्व । बादर इत्यादि । ५ निद्रामालपि संस्था निर्देशः । ६ चित्संख्यावनिर्देशो वाक्यान्ते। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुमेशा शुक्रनमिधानखर्गदर्य सातव्यम् । तदनन्तरम् अर्धरज्जुपर्यन्तं । शतारसहस्रार वर्गयुगलं भवति । ततोऽप्यर्थरखुपर्यन्तम् मानतप्राणतमामखर्गयुगलम्। ततः परमधरजुपर्यन्तमाका याबदारणाच्युताभियानस्वर्गद्वय शासम्पमिति । षोडशखदूमेकरजमध्ये नववेय कनवानुदिशपश्चानुत्तरविमानवासिंदेवास्तिष्ठन्ति । ततः परतग द्वादशयोजनेषु गतेष्वटयोजनबाहुल्या मनुष्यलोकवत् पखाधिकचत्वारिंशवक्षयोजनविखारा ४५०.... मोक्षशिला भवति। तस्य उपरिषनोदधिषनदाततनुपातत्रयमखि । सत्र ततुवातमध्ये लोकान्ते केवलज्ञानाचनम्तगुणसहिताःतिसाच विहन्तीतिः बहोए गारया होति, अधोलोकेअधोमागे मेरोराधारभूता रमप्रभाख्या प्रथमपृषिवी, तस्यास्तृतीये असमागे अशीतिसहस्रयोजनवाहस्ये रमप्रभाभूमी पर्मानाम्नि प्रथमनरके त्रयोदशपटलेषु शिक्षविलेषु३०.....भारतभवन्ति विन्ति । शर्करापभाभूमौ वंशानामनि द्वितीयनरके एकादशपटलेषु पञ्चविंशविलक्षविले हारकाः सन्ति । पाका उससे मी दस योजन ऊपर जाकर सूर्योके विमान हैं । उससे ऊपर वस्सी योजन जाकर चन्द्रमाओंके विमान है। उससे मी चार योजन ऊपर जाकर अश्विनी आदि नक्षत्रोंके बिमान हैं । उससे ऊपर चार योजन जाकर बुधग्रहोंके विमान हैं। उससे ऊपर तीन योजन जाकर शुक्रग्रहों के विमान हैं । उससे ऊपर तीन योजन जाकर बृहस्पति ग्रहोंके विमान हैं । उससे ऊपर तीन योजन जानेपर मंगलग्रहोंके विमान है। उससे मी ऊपर तीन योजन जानेपर शनिग्रहोंके विमान हैं। कहा मी है-७९० योजनपर तारा है, उससे दस योजन ऊपर सूर्य है। सूर्यसे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा है । चन्द्रमासे चार योजनपर नक्षत्र और नक्षत्रसे चार योजनपर बुध है । बुधसे तीन योजनपर शुक्र, उससे तीन योजन ऊपर वृहस्पति, उससे तीन योजन ऊपर मंगल और उससे तीन योजन ऊपर शनि है। इस तरह एक सौ दस योजनकी मोटाईमें चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारोंके विमान रहते हैं । और कल्पवासी देव ऊर्यलोकमें रहते हैं। सो पुमेरु पर्वतकी चूलिका (चोटी) का विस्तार नीचे बारह योजन, मध्यमें आठ योजन और ऊपर चार योजन है तथा ऊँचाई चालीस योजन है | उस चूलिकासे ऊपर उत्तरकुरु भोगभूमिके मनुष्य के बालके अप्रभाग जितना अन्तर देकर ऋजु नामक विमान है । उस जु विमानसे लेकर चूलिका सहित मेरुकी ऊँचाई एक लाख चालीस योजनसे हीन डेद राजू प्रमाण आकाश प्रदेश पर्यन्त सौधर्म और ऐशान नामका खर्गयुगल है। उससे ऊपर डेद राजु तक सनत्कुमार और माहेन्द्र नामका खर्गयुगल है। उससे ऊपर आधा राजु आकाशपर्यन्त ब्रा और ब्रह्मोत्तर नामका वर्गयुगल है। उससे ऊपर आधा राजुपर्यन्त लान्तव और कापिष्ट नामका खर्गयुगल है। उससे ऊपर आधा राजुपर्यन्त शुक्र और महाशुक्र नामका वर्गयुगल है। उससे ऊपर आधा राजु पर्यन्त शतार और सहस्रार नामका खर्गयुगल है । उससे ऊपर आधा राजुपर्यन्त आनत और प्राणत नामका खर्गयुगल है । उससे ऊपर आधा राजु पर्यन्त आरण और अध्युत नामका वर्ग युगल है । इन सोलह स्वगीसे ऊपर एक राजुके भीतर नौ प्रैवेयक, नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानोंके वासी देव रहते हैं । अनुत्तर विमानोंसे बारह योजन ऊपर जानेपर उसी एक राजुके भीतर आठ योजनकी मोटी सिद्धशिला है, जिसका विस्तार मनुष्यलोककी तरह पैतालीस लाख योजन है । उसके ऊपर घनोदधिवात, घनवात और तनु वात नामके तीन वातत्रलय हैं | उनमेंसे लोकके अन्तमें तनुवासवलयमें केवल झान आदि अनन्त गुणोंसे युक्त सिद्ध परमेष्टी विराजमान हैं । इस तरह ऊर्ध्व लोकमें वैमानिक देवोका निवास है । तथा अधोलोकमें नारकी रहते हैं । सो अधोलोकमें मेरु पर्वतकी आधारभूत रनप्रभा नामकी पहली पृपियी है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १४७प्रभापृथिव्यां मेघानाम्नि तुवीयनरके नषपटकस्थितपश्चदशलक्षविलेषु नारकाः स्युः। पाप्रभामा अधानानामचतुषनरके सप्तपत्लास्थितपालक्षपिछेषु मारका वियन्ते । धूमप्रभाथिष्यां रिष्टानामपञ्चमनरके पचपदलस्थितत्रिमक्षविलेषु नारका भवन्ति। समःप्रभाभूमी मघवानामषष्टनरके त्रिपटलस्थितपोनलक्षविलेषु नारकाः सन्ति। मातमःप्रभाभूमी सप्तमे नरके एकपटलस्थितपञ्चविलेषु भारका भवन्ति । एवमेकोनपञ्चाशत्पटलस्थित ४५ चतुरसीविलक्ष ..... मरकविलेषु पूर्वपापोदयकर्म पीडिताः पत्रकारदुःसाकान्ता मारका भवन्ति । रमप्रमादिथिवीन प्रत्येक घनोदविपनवाततमुवातवमाधारभूतं भवतीति विहेयम् । अच्छणं स्थानं गतम् ॥ १४६॥ अथ तेजस्काधिकादिबीवाना संस्थां गायापश्चकेनाह बादर-पजत्ति-जुदा घण-आवलिया-असंख-भागा दु। किंचूर्ण-लोय-मित्ता तेज-घाऊ जहा-कमसो ॥ १४७॥ [छाया-बादरपर्याप्तियुताः घनावलिका-असंख्मभागाः तु । लविनलोकमात्राः तेजोवायवः यथाक्रमशः] सवाकमशः अनुक्रमतः, तेज तेजस्कायिका जीवा बादराः स्थूलाः पर्याप्तियुकाः बनावलिकाऽसंख्यमागमात्रा। तु पुनः, पायुकायिकाः प्राणिनः बादराः स्थूलाः पर्यामाः निविभ्यूनलोकभाषाः । गोम्मटसारे व तन्मानमुकमा उसके तीन भाग हैं । तीसरा अम्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है। उसमें धर्मा नामका प्रथम • नरक है । उस नरकमें तेरह पटल हैं, और तेरह पटलोंमें तीस लाख बिल हैं । उन बिलोंमें नारकी रहते हैं। उसके नीचे शर्कराप्रभा नामकी भूमिमें वंशा नामका दूसरा नरक है। उस नरकमें ग्यारह पटल है और उन पटलोंमें पच्चीस लाख बिल हैं। उन बिलोंमें नारकी रहते हैं। उसके नीचे वालकाप्रभा नाममा यिधीमें मेधा न समस्या है। उसमें नौ पटल हैं । उन पटलोंमें पन्द्रह लाख बिल हैं। उन बिलोंमें नारकी रहते हैं। उसके नीचे पक्ष्यभा नामकी भूमिमें अंजना नामका चौथा नरक है । उस नरको सात पटल हैं । उन पटलोंमें दस लाख बिल हैं। उन बिलोंमें नारकी रहते हैं। उसके नीचे धूमप्रभा नामकी पृथिवीमें अरिष्टा नामका पांचवा नरक है । उस नरक में पांच पटल हैं। उन पटलोंमें तीन लाख बिल हैं। उन बिलोंमें नारकी रहते हैं। उसके नीचे तमःप्रभा नामफी पृथ्वी में मघवी नामका छठा नरक है। उसमें तीन पटल हैं। उन पटलोंमें पांच कम एक लाख बिल है। उन बिलोंमें नारकी रहते हैं । उसके नीचे महातमःप्रभा नामकी पृथिवीमें माधवी नामका सातवा नरक है। उसमें एकही पटल है और उस एक पटलमें कुल पांच बिल हैं। उन बिलों में नारकी रहते हैं। इस तरह सातों नरकोंके १९ पटलोंमें कुल चौरासी लाख बिल हैं । और इन बिलोंमें पूर्वजन्ममें उपार्जित पापकर्मसे पीड़ित और पांच प्रकारके दुःखोंसे घिरे हुए नारकी निवास करते हैं । रमप्रभा आदि सातों पृथिवियों से प्रत्येकके आधारभूत घनोदधि, घन और तनु ये तीन वातवलय हैं ॥ १४६ ।। अब पांच गाथाओंसे तेजस्कायिय आदि जीवोंकी संख्या कहते हैं। अर्थ-बादर पर्याप्त तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव क्रमसे घनावलीके असंख्यातवें भाग और कुछ कम लोक प्रमाण है ॥ भावार्थ-कमानुसार बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीव घनाबलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । और बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव कुछ कम लोक प्रमाण है । गोम्मटसारमें उनका प्रमाण इस प्रकार बतलाया है-'धनावलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण तो बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीव हैं और लोक सग वादर। २ स ग किंचूणा । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा “विंदावलिलोग्दागमसन संत्रं च लेउमाज । पजताग पमाणं तेहि विहीणा अपजता॥" बन्दापरसस्मातमतकभागमात्राः पादरतेजस्कायिकपर्याप्तत्रीवा भवन्ति । तथा लोकस्य संख्यातमकेकमागप्रमिताः पावरमाधुकानिकपर्याप्तजीवा भवन्ति ॥ १४७ ॥ पुढवी-तोर्य-सरीरा पसेया वि य पइडिया इयरा । होति' असंखा सेढी पुण्णापुण्णा य तह य तसा ॥ १५८॥ [छाया-पृथ्वीतोयशरीराः प्रत्येकाः अपि च प्रतिडिताः इतर । भन्ति संख्यातनयः पूर्वापूर्णः - तथा च त्रमाः पृथिवीकायिका जीवाः १, तोपकायिका जीवाः २, प्रत्येकाः प्रत्येकवनस्पतिकाविच जीवाः ३, अपि र प्रतिष्ठित प्रत्येकवानस्पतिकायिका जीवाः ४, इतरे अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिकाः ५, एते सर्वेऽपि पूर्णपूर्ताव पर्याप्ता अपर्याप्माश्च १० । एते दश प्रकाराः प्रये असंख्यातश्रेणिमात्रा:-8। तह य तसा तक प्रसा: पर्वाता अपर्याप्ताश्च । एतेऽपि दशप्रकारा भवन्ति वित्रिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंश्यसज्ञिभेदात् । एतेऽपि मसंख्यातलमात्राः भवन्ति =10/२/2 । पजानकाय =/1/५ । अपजसकाय =//a-५ ॥ १० ॥ बादैर-लद्धि-अधुणा असंख-लोया हवति पत्तेया। तह य अपुण्णा सुहुमा पुण्णा वि य संख-गुण-गणिया ॥ १४९ ॥ राशिके संख्यातवें भाग प्रमाण बादर पर्याप्त वायुकायिक जीत्र हैं । और बादर तेजस्कायिक तथा बादर वायुकायिक जीवोंके प्रनाणमेसे बादर पर्याप्त तेजस्कायिकोंका तथा बादर पर्याप्त वायुक्ायिक जीवोंका प्रमाण कम कर देनेसे जो शेष रहे उतना बादर अपर्याप्त तेजस्कायिक तथा बादर अपर्याप्त घायुकायिक जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार घनवलीके असंख्यात भागों से एक भाग प्रमाण बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीव होते हैं । और कुछ कम लोक प्रमाण (गोम्मटसारके मतसे लोकके संख्यात भागोंमेंसे एक भाग प्रमाण) बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव होते हैं ॥ १४७ । अब पृथिवी कायिक आदि जीवोंकी संख्या कहते हैं । अर्थ-पृथिवीकायिक, अप्कायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, प्रतिष्ठित और अप्रतिष्टित तथा स, ये सब पर्याप्त और अपर्याप्त जीव जुदे जुदे असंख्यात जगत्श्रेणिप्रमाण होते हैं । भावार्थ-पृथिवीकायिक जीव, जलकायिक जीव, प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीक, प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव, अप्रतिष्टित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव ये सब पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दस हुए । इन दसों प्रकारके जीवोंमेंसे प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात जगवश्रेणि है। तथा त्रस भी दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और संक्षिपञ्चेन्द्रियके भेदसे पांच प्रकार के होते हैं। तथा ये पांचों पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । ये दसों प्रकारके प्रस जीव भी असंख्यात जगतश्रेणि प्रमाण होते हैं ॥१४८॥ अर्थ-प्रत्येक वनस्पतिकायिक वादर लन्थ्यपर्यातक जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं । सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव भी असंख्यात लोक प्रमाण है और सूक्ष्मपर्याप्तक जीव संख्यातगुने हैं । भावार्थ-प्रत्येक बनस्पति कायिक बादर लब्ध्यपर्यातक जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं । सूक्ष्मलध्यपर्याप्तक जीव मी यद्यपि असंख्यात लोक प्रमाण है। किन्तु उनसे संख्यातगुने हैं । तथा सूक्ष्म पर्याप्त जीप उनसेमी संख्यातगुने हैं । [यहां जो संख्या बतलाई १ ग पुढवीयतोय। २ ब हुति। ३ ब वायर। ४ म स ग बद्रियपुग्णा। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १५० [छाया-बादरलमध्यपूर्णाः असंख्य लोकाः भवन्ति प्रत्येकाः । तथा च अपूर्णाः सूश्माः पूर्णाः अपि च संख्या गुणगपिताः॥ पत्तेया प्रत्येकवनस्सतिकायिकाः बादरलज्यपोशकाः भसंख्यातलोकमात्रा भरन्ति । तहय तपा सुहुमा सूक्ष्माः अपुष्पा लब्ध्यपातका: संख्यातगुणितक्रमाः स्युः। अपि पुनः, सूक्ष्माः पर्याप्ताः संख्यातगुणाकार. गुणितकमा भवन्ति ॥ १४॥ सिद्धा संति अणंता सिद्धाहतो' अर्णत-गुण-गुणिया । होति णिगोदा जीवा भागमणतं अभव्या य ॥ १५०॥ [अया-सिताः सन्ति अनन्ता: सिदेभ्यः अनन्तगुणगुणिताः । भवन्ति निगोदाः जीवा: भागमनन्त अभव्याः सिद्धाः सिद्धपरमेछिनः कर्मकलङ्कविमुक्तजीवाः अनन्ता द्विस्वारानन्तसंख्योपेताः सन्ति भवन्ति । सिद्धाहितो यः सिदराशेः निगोदा जीवनि नियतां गां भूमि क्षेत्र ददातीति अनन्तानन्तजीवानाम् इति निगोदाःसाधा, रणजन्तवोऽनन्तगुणकारगुणिताः १३ = भवन्ति । च पुनः, अभव्या जीवाः सिद्धानन्तकभागमात्रा जपन्ययुक्कानन्तमाश भवन्ति ॥ १५॥ सम्मुच्छिमा' हु मणुया सेडियसंखिज्ज-भाग-मित्ता हु। गम्भज-मणुया सब्वे संखिजा होति णियमेण ॥ १५१॥" है उसमें और गोम्मटसारमें बतलाई हुई संख्या में अन्तर हैं। तथा इस गाया जो 'पत्तेया' शब्द है उसका अर्थ टीकाकारने प्रत्येक वनस्पतिकायिक किया है। किन्तु मुझे यह अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता । क्यों कि यदि ऐसा अर्थ किया जाये तो प्रथम तो चूंकि प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीव सब बादर ही होते हैं । अतः प्रत्येक वनस्पति बादर लब्ध्यपर्याप्तक कहना उचित नहीं जंचता । दूसरे, शेष पृथिवीकायिक आदि बादर लब्ध्य पर्याप्तकोंकी संख्या बतलानेसे रह जाती है। अतः "पत्तेया'का अर्थ यदि प्रत्येक मात्र किया जाये तो अर्थकी संगति ठीक बैठती है । अर्थात् प्रत्येक पृथिवीकायिक आदि बादर लब्ध्यपर्याप्तकोंका प्रमाण असंख्यात लोक है । ऐसा अर्थ करनेसे बादर लब्ध्यपर्याप्तकोंका प्रमाण बतलाकर फिर सूक्ष्मलब्भ्यपर्याप्तकोंका प्रमाण बतलाना और फिर सूक्ष्म पर्याप्तकोंका प्रमाण बतलाना ठीक और संगत प्रतीत होता है । अनु०] ॥ ११९॥ अर्थ-सिद्ध जीव अनन्त हैं । सिबोंसे अनन्तगुने निगोदिया जीव है । और सिद्धोंके अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं || भावार्थ-कर्मकलकसे रहित सिद्धपरमेष्ठी जीव अनन्तानन्त हैं । जो एक सीमित स्थानमें अनन्तानन्त जीवोंको स्थान देते हैं उन्हें निगोदिया अथवा साधारणवनस्पतिकायिक जीव कहते हैं। सिद्ध जीवोंकी राशिसे अनन्तगुने निगोदिया जीव हैं। तथा सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं, जो जघन्य युक्तानन्त प्रमाण होते हैं । सारांश यह है कि अनन्तके तीन मेद हैं परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । इनमेंसे भी प्रत्येकके जघन्य मध्यम और उत्कृष्टकी अपेक्षासे तीन तीन भेद हैं । सो सिद्ध जीव तो अनन्तानन्त हैं, क्योंकि अनादिकालसे जीव मोक्ष जारहे हैं। निगो. दिया जीव सिद्धोंसे भी अनन्तगुने हैं, क्योंकि एक एक निगोदिया शरीरमें अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं | तथा अभव्य जीव, जो कभी मोक्ष नहीं जा सकेंगे, जघन्य युक्तानन्त प्रमाण हैं । यह राशि सिद्ध राशिको देखते हुए उसके अनन्तवें भाग मात्र है ॥ १५० ॥ अर्थ-सम्मूर्छन मनुष्य जगत्श्रेणिके मसिदेहितो। २व समुच्छिमा, कम स सम्मुच्छिया, ग सम्मुच्छिया। ३ व सेडिमस०। ४व संशा छ । देवा वि इत्यादि। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा छाया-संमूर्छनाः खलु मनुजाः श्रेण्यसंख्यातभागमात्राः मल । गर्भजमनुजाः सर्वे संख्माताः भवन्ति नियमेन n] सम्मुच्छेना मनुध्या लाएपर्यामका एवं । सेवियसंखिजभाममिता श्रेणेर संख्यातकभागमात्रा: भवन्ति । नियमतः सर्वे गर्भजमनुष्याः संख्यातमात्राः स्युः । तथा गोम्मरसारे मनुष्यगतिजीवसंख्या गायात्रयेणोक्त च । "सेढी सूईअंगुलभादिमनदियपदभाजिदेगूणा 1 सामण्णमणुसरासी पंचमकदिघणसमा पुण्णा ।।" अगच्छ्रेणि सूच्याहलस्य प्रथम. मूलतृवीयमूलाभ्यां भक्त्वा तलमधे एकरूपेऽपनी ते प्रराशिः सामान्यमनगराशि: स्यात ।M: हिमपवर्गधारासंबन्धिपश्वमवर्गस्य पादालसंशस्य घनप्रमाणाः पयोप्तमनुष्या भवन्ति । ४२ । ४२ = । ४२ = । अस्मिन् राशी परस्पर मुणिते यालन्ध त राशिमक्षरसंज्ञयाक्रमेण कथयति । “तललीनमधुगविमलं धूमसिलागाविचौरमयमेरू । तटहरिखममा होति तु माणुसपञ्जनसंखेका ॥" सप्तवतुर्वारकोटिद्वानवतिलक्षाष्टाविंशतिसहसैकशतद्वाषष्टित्रिचारकोट्येकरवाशालक्षद्वाबस्वारिंशत्सहस्रक्टूशतत्रिचत्वारिंशद्विवारकोरिसप्तत्रिंशाहक्ष कोनषष्टिसइसत्रिशतचतुःपक्षाशकोठ्येकानयत्वारियालक्षधाशरसहस्रतिशतषत्रिंशत्प्रमिता पर्याप्तमनुष्याणां संख्या भवति । ७,९१२८१६२,५१४१६४३,३५५९३५४, १९५०१३६ । 'पजसमणुस्साणं तितश्यो माणुसीण परिमाणे । सामण्या पुण्णूणा मणुव अपजतमा होति । पर्याप्ता मनुष्यराशेः त्रिचतुर्भागो भानुषीणां दव्यत्रीणां परिमाणं भवति । १२ : ४२% ४२% । सामान्यमनुष्यराशी पर्याप्तमनुष्यराशावपनीते अपर्यापमनुष्यप्रमाणं भवति 18-इति संख्या गता । १५१॥ अथ सान्तरमार्गमामाह असंख्यातः भाग मात्र हैं। और गर्भज मनुष्य नियमसे संख्यातही हैं ।। भावार्थ-सम्मर्छन मनुष्य लन्थ्यपर्याप्तक ही होते हैं । उनका प्रमाण श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र है । तथा सन गर्भज मनुष्य नियमसे संख्यात ही होते हैं । गोम्मटसारमें मी तीन गाथाओंके द्वारा मनुष्य गतिमें जीवोंकी संख्या इस प्रकार बतलाई है-सूच्यगुलके प्रथम वर्गमूल और तृतीय वर्गमूलसे जगत् श्रेणिमें भाग दो । जो लम्ध आवे उसमें एक कमकर लो। उतना तो सामान्य मनुष्यराशिका प्रमाण है । तथा द्विरूप वर्गधारा सम्बन्धी पाँचवें धर्गका, जिसे बादाल कहते हैं, धन प्रमाण पर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण हैं । आशय यह है कि दोसे लेकर जो वर्गकी धारा चलती है उसे द्विरूपवर्गधारा कहते हैं । जैसे २४२ - ४ या प्रथम वर्ग है। ४४४ - १६ यह दूसरा वर्ग है । १६४१६ =२५६ यह तीसरा वर्ग है । २५६५ २५६ = ६५५३६ यह चौथा वर्ग है । ६५५३६ ४६५५३६ = ४२९५२६७२९६ यह पांच्या वर्ग है ।.इसके शुरुके ४२ के अंकके ऊपरसे इस संख्याका संक्षिप्त नाम बादाल है । इस बादालको तीन वार परस्परमें गुणा करनेसे (४२९५२६७२९६४४२९५२६७२९६४४२९५२६७२९६) जो राशि पैदा होती है गोम्मटसारमें अक्षरोंके संकेतके द्वारा एक गाथामें उस राशिको इसप्रकार बतलाया है 'तललीनमधुगविमलं धूमसिलागाविचोरभयमेरू । तटहरिखनसा होति दु माणुसपमतसंखका ।' ।। २ ॥ इसका अर्थ समझने के लिये अक्षरोंके द्वारा अंकोंको कहनेकी विधि समझ लेनी चाहिये जो इस प्रकार है-ककारसे लेकर प्रकार तकके नौ अक्षरोंसे एक से लेकर नौ तकके अंक देना चाहिये । इसी तरह टकारसे लेकर धकार तकके नौ अक्षरोंसे एक, दो, तीन आदि अंक लेना चाहिये । इसी तरह पकारसे लेकर मकार तकके अक्षरोंसे एक दो आदि पांच अंक तक लेना चाहिये । इसी तरह यकारसे लेकर हकार तक आठ अक्षरोंसे क्रमशः एकसे लेकर आठ अंक तक लेना चाहिये । जहाँ कोई स्वर हो, या अकार हो अथवा नकार लिखा हो तो वहाँ शून्य लेना । सो यहाँ इस विधिसे अक्षरोंके द्वारा अंक कहे हैं। उन अंकोंको बाई ओरसे लिखनेसे वे इस प्रकार होते हैं-७,९२२८१६२,५१४२६४३,३७५९३५४,३९५०३३६ । सो सात कोडाकोड़ी कोड़ाकोड़ी, बानवे लाख अटाईस हजार एकसौ बासठ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १५२देवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु संतरी होति । सम्मुच्छियां वि मणुया सेसा सच्चे णिरंतरया ॥ १५२।। [छाया-देशः अपि नारकाः अपि च लभ्यपूर्णाः खच सान्तराः भवन्ति । संछिताः अपि मनुजाः शेषाः सर्व निरन्तरकाः ॥j देवा ध य देवाः, आप पुनः, ना(का: अपि च, अपिशब्दात् देवानां नारकाणां च उत्पनिमर. णान्तरं लभ्यते। चतुर्णिकायदेवानां सप्लनरके नारकाणां च गोम्मटसारादौ अन्तरप्रतिपादनात्।हु स्फुटम् । लमध्यपर्याप्ताः सन्मूछनमनुष्याः पत्यासंख्यभागमात्रान्तरमुत्कृटन, शेषाः एकेन्द्रियादयः सर्वे निरन्तराः अन्तररहिताः । तथा गोम्मटसारे गायत्रयेग प्रोक्तं च । "उवसमसुहुमाहारे वेगुब्वियमिस्सणरअपजते। सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मम्गणा अद्व । सत्तदिगा इम्मामा बासपुतं च पारस मुहुत्ता। पावसंखं तिह परमपरं एकसमओ दु ॥"(लोके नानाजीवापेक्षया विषक्षितगुणस्थानं मागणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे गाठणास्थानान्तरे बा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मागगास्थान वा नायाति तावान् कालः अन्तरं नाम तिवोत्कृष्टेनौपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सप्तदिनानि । तदनन्तर कमिन् स्यादेखः । सूक्ष्मपरायसंयाममा पामासाः ६ । आहारकतन्मिश्राययोगिनां वर्षपृथक्वं ४॥ त्रितयादुपरि मवादयः पृथक्वमिवागमसंज्ञा) क्रियिकमिश्रकाययोगिनां द्वादशमुहतोः । लम्पपर्यासकमनुष्याणां सासादनसम्बमष्टोमा सम्यग्मियादधाना स प्रत्येक पत्यासंख्यासमभागमात्रम् । उप. दि. ७ । सूक्ष्माप- मास ६ । वैक्रियिक मिथ मुहु. १२ पर अ. ५/३। सासादन प/ मिश्र प/a। एवं सान्तरमार्गणा अष्टौ तासां अपन्येनान्तरभेरुसमन एव ज्ञातव्यः । “पटमुवसमसहिद ए विरदायिरदीए चोदसा दिवसा । घिरीए पण्णरसा विरहिदकालो दु पोटुम्यो ।” यिरहकाल: उत्कृटनान्तर प्रथमोपशमसम्यक्त्वराहितायाः विरताविरते. अणुव्रतस्य चतुर्दश दिनानि १४।। तस्प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहितविरसमहावतस्य पच्दश दिनानि १५तु पुनः, द्वितीयसिद्धान्तापेक्षया चतुर्विशतिदिनानि २४ । इदम् उपलक्षणम् इत्येकजीवापेक्षया युतमार्गणानामन्तरे प्रवचनानुसारेण बोद्धव्यम् ॥ अन्तरं गतम् ॥ १५२ ।। मणुयादो रइया णेरइयादो असंख-गुण-णियों। सम्वे हवंति देवा पस्तेय-यणप्फदी' तत्तो ॥१५३ ॥ कोडाकोड़ाकोड़ी, इक्यावन लाख बयालीस हजार छसौ तेतालीस कोडाकोड़ी सैंतीस लाख उनसठ हजार तीन सौ चौवन कोड़ी, उनतालीस लाख पचास हजार तीन सौ छतीस, इतनी पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या जाननी चाहिये । तथा पर्याप्त मनुष्यों की इस संख्याके चार भाग करो । उसमेंसे तीन भाग प्रमाण मनुष्यणी हैं। और सामान्य मनुष्य राशिमेंसे पर्याप्त मनुष्यों की संख्याको घटानेसे जो शेष रहे उतना अपयोप्स मनुष्योंका प्रमाण है । इस प्रकार गोम्मटसारमें भी मनुष्योंका प्रमाण कहा है। संख्याका वर्णन समाप्त दुआ ॥ १५१ ॥ अब सान्तरमार्गणा बतलाते हैं । अर्थ-देव नारकी, और लब्ध्यपर्याप्तक सामूर्छन मनुष्य, ये तो सान्तर अर्थात् अन्तर सहित हैं। और बाकीके सब जीव निरन्तर हैं। भावार्थ-देवों और नारकियोंमें जन्म और मरणका अन्तरकाल पाया जाता है, क्यों कि गोम्मटसार वगैरह ग्रन्धोंमें चार प्रकारके देवोंका और सातवें नरक में नारकियोंका अन्तर काल कहा है । सम्मूठन जन्मत्राले लन्थ्य, पर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है। बाकीके एकेन्द्रिय आदि सब जीव अन्तर रहित हैं, वे.सदा पाये जाते हैं । गोम्मटसारमें तीन गाथाओंके द्वारा सान्तर मार्गणाओंका कथन किया है। यह कथन नाना जीवोंकी अपेक्षासे है । विवक्षित गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानको छोड़कर अन्य किसी गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानकों चला जाये और उस १मसग सांतरा। २ग समुधिया। ३. अंतरमणुयादी इत्यादि। ४स गुणिदा। ५ग वणपदी। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५४] १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-मनुजात नैरयिकाः नैरयिकात असंख्यगुणगुणिताः । सर्वे भवन्ति देवाः प्रत्येकानस्पतयः ततः ॥] मशुवादो सामान्यमनुष्यराशितः सूच्यकुलप्रथमतृवीयमूलभकश्रेणिमात्रात् । गेरड्या नारकाः असंख्यातगुणाः घनाकुल द्विवीयमूलजगच्छ्रेणिमात्रा-२ मू। ततो नारकराशितः सर्वदेवा असंख्यातगुणाः दा६५%, 1/1/4/1 ततः असंख्यातगुणाः = ॥ १५३ ॥ पंचक्खा बरक्सा लजियपुण्णो तहेव तेयक्खा । धेयक्खा वि य कमसो विसेस-सहिदा हु सब्व-संखाएं ॥ १५४ ॥ [छाया-पक्षाक्षाः 'चतुरक्षाः लमध्यपूर्णाः तथैव यक्षाः । सक्षाः अपि व क्रमशः विशेषसहिताः सात सवसंख्यया ॥] पंचवम्ला लम्भ्यपर्याप्ताः पोन्द्रियास्तिश्वः संख्यातचनागुलभताजगत्प्रतरमात्राः। ततः चतुरिन्दिया लन्थ्यपर्याप्ता विशेषेणाधिकाः । तहेव सौर श्रीन्द्रिया सध्यपर्याप्ता विशेषाधिकाः । ततः वेगाखा द्वीन्द्रिया लम्भ्यपर्याशाः विशेषाधिकाः कमशः क्रमेण सर्वसंख्यया ॥ १५४ ॥ विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थानको जब तक प्राप्त न हो उतने कालको अन्तर काल कहते हैं । सो नाना जीयोंकी अपेक्षा उपशम सम्यादृष्टि जीवोंका अन्तरकाल सात दिन है । अर्थात् तीनों लोकोमें कोई जीव उपशम सम्यक्त्वी न हो तो अधिकसे अधिक सात दिन तक नहीं होगा, उसके बाद कोई अवश्य उपशम सम्यक्त्वी होगा। इसी तरह सबका अन्तर समझना चाहिये । सूक्ष्म साम्पराय संयमका अन्तरकाल छ: महिना है । छः महिनेके बाद कोई न कोई जीव सूक्ष्म साम्पराय संयमी अवश्य होगा । आहारक और आहारक मिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । तीन से ऊपर और नौसे नीचेकी संख्याको पृथक्त्व कहते हैं । सो इन दोनोका अन्तर तीन वर्षसे अधिक और नौ वर्षसे कम है । इतने कालके बाद कोई आहारककाययोगी अवश्य होगा । वैक्रियिक मिश्र काययोगका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। बारह मुहूर्तके बाद देवों और नारकियोंमें कोई जीव अवश्य जन्म लेगा । तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सासादन गुणस्थानवर्ती और मिन गुणस्थानवी जीव, हन तीनोंमेंसे प्रत्येकका अन्तर पल्पके असंख्यातवें भाग है | यह आठ सान्तर मार्गणा हैं । इनका जघन्य अन्तर एक समय है ॥ तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित पंचमगुणस्थानवी जीवका अन्तर काल चौदह दिन है । और प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित महावतीका अन्तरकाल पन्द्रह दिन है। और दूसरे सिद्धान्तकी अपेक्षा चौबीस दिन है। इस तरह नाना जीवोंकी अपेक्षा यह अन्तर कहा है। इन मार्गणाओंका एक जीत्रकी अपेक्षा अन्तर अन्य प्रन्थोंसे जानलेना चाहिये । अन्तरका कथन समाप्त हुआ ॥ १५२ ।। अब जीओंकी संख्याको लेकर अल्पबदुत्व कहते हैं । अर्थ-मनुष्यों से नारकी असंख्यातगुने हैं। नारकियोंसे सब देव असंख्यात गुने हैं । देवोंसे प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव असंख्यात गुने हैं ॥ भावार्थ-सूष्यंगुलके प्रयम और तृतीय वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणि प्रमाण तो सामान्य मनुष्यराशि है । सामान्य मनुष्पराशिसे असंख्यात गुने नारकी हैं । नारकियोंकी राशिसे सब देव असंख्यात गुने हैं और सब देवोंसे प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुने हैं ॥ १५३ ।। अर्थ-पत्रेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और दोइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव संख्याकी अपेक्षा कमसे विशेष अधिक हैं । भावार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च संख्यात धनांगुलसे भाजित जगत १.दिमपुण्णा तहेय। २. विसेसिसवदा, ग विसेसहिदा। इस संक्वाय, म सबजए । मासिक. १२ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाभिकार्तिकथामा [गा० १५५चउरक्खा पंचक्खा यक्सा तह य जाण सेयक्खा। एदे पजसि-जुदा अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥ [अया-चतुरक्षाः पञ्चाक्षाः पक्षाः तथा च जानीहि त्र्यक्षाः । एते पर्याप्शियुताः अधिकाः अधिकाः क्रमेण एवं ॥ एते चतुरिनियादयः पतियताः क्रमेण अधिका अधिका भवन्ति । पतुरिन्दियपर्याप्तभ्यः पञ्चेन्द्रिय अधिकाः स्युः । तथा चलतः परन्त्रिपपर्याप्तेभ्यःहीन्द्रियाः पर्वाता अधिकाः। ततः द्वीन्द्रियपर्याप्तेभ्यः त्रीन्द्रियाः पर्याप्त अधिका भवन्ति । एते चतुरिन्द्रियादयः पर्याप्तियुक्ताः पर्याप्तकाः क्रमेण अधिकाधिका विशेषाधिका भवन्ति ॥ १५५ ॥ परिवजिय सुहमाणं सेस-तिरिक्खाणे पुण्ण-देहाणं । इको भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ॥ १५६ ॥ [छाया-परिवयं सूक्ष्माणां शेषतिरश्वा पूर्णदेहानाम् ! एकः भागः भवति खष्ठ संख्यातीताः अपूर्णानाम् ॥] सहमाणं सूक्ष्माणो, परिवजिय वयित्वा, सूक्ष्मान् जीवान् पृथ्व्यप्लेजोवायुवनस्पतिकायिकान् बर्जविरवा इत्यर्थः । पुण्णदेहाणं पयांताना शेषतिरश्वा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाना पादराणाम् एको भागः संख्या भवति । हु इति स्फुटम् । अपुण्याण लब्ध्यपर्याप्तानां तिरश्च संखातीदा असंख्यातलोकबहुभागा भवन्ति ॥ १५६ ॥ सुहमापजत्ताणं इको भागो हवेदि णियमेण । संखिजा खलु भागा तेर्सि पजसि-देहाणं ।। १५७ ॥ प्रतर प्रमाण हैं । उनसे चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त विशेष अधिक है । उनसे तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त विशेष अधिक हैं। उनसे दोइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त विशेष अधिक है। इस प्रकार क्रमसे ये सब जीव कुछ अधिक कुछ अधिक हैं ॥१५४ ।। अर्थ-चौइन्द्रिय, पश्चेन्द्रिय, दोइन्द्रिय और सेइन्द्रिय पर्याप्त जीव अमसे अधिक अधिक है ॥ भावार्थ-ये पर्याप्त चौइन्द्रिय आदिजीव क्रमसे अधिक अधिक है। अर्थात् चौइन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव अधिक हैं । पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे दोइन्द्रिय पर्याप्त जीत्र अधिक हैं। दोइन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे तेइन्द्रिय पर्याप्त जीव अधिक हैं । इस तरह ये पर्याप्त चौइन्द्रिय आदि जीव क्रमसे अधिक अधिक है ॥ १५५ ॥ अर्थ-सूक्ष्म जीवोंको छोड़कर शेष जो तिर्यश्च हैं, उनमें एक भाग तो पर्याप्त हैं और असंख्यात बहुभाग अपर्याप्त है । भावार्थ-सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंको छोड़कर शेष जो बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर वायुकायिक और बादर बनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यच हैं उनमें एक भाग प्रमाण पर्याप्तक हैं और असंख्यात लोक बहु भाग प्रमाण अपर्याप्तक है। अर्थात्, बादर जीवोंमें पर्याप्त थोड़े होते हैं, अपर्याप्त बहुत हैं ।। १५६॥ अर्थ-सूक्ष्म अपर्याप्त जीव नियमसे एक भाग प्रमाण होते हैं और सूक्ष्म पर्याप्त जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण होते हैं। भावार्थ-एकेन्द्रिय जीवोंकी राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे लब्ध एक भाग प्रमाण सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक पृथिवीकायिक आदि जीयोंका परिमाण होता है। गोम्मटसारमें जीवोंकी जो संख्या बतलाई है वह इस प्रकार है-साढ़े तीन बार लोकराशिको परस्परमें गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना तेजस्कायिक .. . -. ...- .. -........ १ म जाणि। २0 मसतिरिक्खाण। ३8 मसग एगो मागो दह ४ संखया। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५७] १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-सूक्ष्मपर्याप्तानाम् एकः भागः भवति नियमेन । संख्येयाः खल भागाः तेषां पर्याप्तबहानाम् ॥] मुहुमापज्जत्ताणं सूक्ष्मवन्यपयोताना पृथ्वीकायिका दिजीवानामेकेन्द्रियजीवराशेरसंख्यातलोकभागपरिमार्ण भवः। तचा गोम्मटसारे प्रोकं च । “आउहासिवार लोगे अण्णोष्णसंगुणे तेऊ । भूजलवाऊ अहिया पविभागोऽसंचलोगो दु ।" असंख्यातगुणितलोकमात्रतेजस्कायिकजीवराशि प्रमाण = 8. भवति । भूजलबायुकायिकाः कमेण सेजस्कायिकराशितोऽधिका भवन्ति तदधिकागमन निमितं भागहारः प्रतिभागहारोऽसंख्यातलोकप्रमितो भवति । तसंवशिनवार: ९। अधिकक्रमो दर्यते । तद्यथा। उकतेजस्कायिकराशौ = a अस्यैव तत्पतिभागहारभरोडमागेन = 1: अधिकीकृते सत्ति पृथिवीकामिकजीवराशिप्रमाणं भवति = .1 पुनः अस्मिमेव राशी अम्मर तत्प्रतिभागहारभकभागेन = . . अधिकीकृते सति अप्कायिकजीवराशिप्रमाण भवति । = पुनः अस्मिोग राशो अस्यैव प्रतिभागहारभकभागेन = ..... अधिकीकृते सति वायुकाबिकजीवराशिप्रमाणं भवति = & १०१०१। “अपदिदिपाया असंखलोगप्पमाणया होति । तत्तो पदिदिदा पुण असंखलोगेण संविदा ॥" अप्रतिछित प्रत्येकवनस्पतिकायिका जीवाः यथायोग्यासंख्यातलोकप्रमाणाः भवन्ति = 81 पुनः प्रविधित प्रत्येक A TT जीवराशिका प्रगण है । सो गणा करनेकी पद्धति इस प्रकार है-लोकके प्रदेश प्रमाण विरलन, शलाका और देय राशि रखकर विरलन राशिका विरलन करके एक एक जुदा जुदा रखो । और प्रत्येकपर देय राशिको स्थापित करके परस्परमें गुणा करो। तथा शलाका राशि से एक घटाओ । ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एक के ऊपर उसी राशिको देकर फिर परस्परमें गुणा करो और शलाका राशिमेंसे एक घटाओ। जब तक लोकप्रमाण शलाका राशि पूर्ण न हो तब तक ऐसा ही करो। ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो, फिर उतनी ही शलाका, विरलन और देयराशिको रखकर विरलन राशिका विरलन करो और एक एकपर देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करो। तथा दूसरी बार रखी हुई शलाका राशिमेंसे एक घटाओ । इस तरह गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एकपर उसी राशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और शलाका राशिमेसे पुन: एक घटाओ । इस तरह दूसरी बार रक्खी हुई. शलाका राशिको भी समाप्त करके जो महाराशि उत्पन्न हो, तीसरी बार उतनी ही शलाका विरलन और देय राशि स्थापित करो। बिरलन राशिका विरलन करके एक एकके ऊपर देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और तीसरी बारकी शलाका राशिमेंसे एक घटाओ। ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एकके ऊपर उसी राशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और शलाका राशिमेंसे एक घटाओ। इस तरह तीसरी बार रक्खी बुई शलाका राशिको भी समाप्त करके अन्तमें जो महाराशि उत्पन्न हो उतनी ही विरलन और देयराशि रखो । और पहलीबार, दूसरीबार, तीसरीबार रखी हुई शलाका राशिको जोड़कर जितना प्रमाण हो उतना उस राशिमेंसे घटाकर शेष जो रहे उतनी शलाका राशि रखो। विरलन राशिका विरलन करके एक एकके ऊपर देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और चौथी बार रक्खी हुई शलाका राशिमें से एक घटाओ । ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एकके ऊपर उसी राशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और शलाका -- ---- ----- १ कुत्रचित् संवायाः माने ७ सपाङ्गनिर्देशः पयते, समानार्थत्वात् । • Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ९२ स्वामिकार्त्तिकेयातुप्रेक्षा [ गा० १५०"तसरासिपुढ विभावरी चलतेय. वनस्पतिकारिका जीवाः देने का ही संसारी । साहारणजीवाणं परिमाण होदि जिगदिहं ॥" सराशिना मात्रल्यसंख्येय भागभ करत राहुलभाजित जगत्प्रतरप्रमिलेन २/२ तथा पृथिव्यादिचतुष्टयेन प्रत्येक वनस्पतिराशिद्वयेन चेति । शिश्रयेण विहीनः संसार शिरेन साधारणजीवराप्रमाणं भवति १३ = ॥ " सगसग असंभागो बादरकायाण होदि परिमाणं सेसा सुहुमपमाणं पचिभागो पुष निहिडो ॥ " पृथिव्यप्तेजोवायुका चिकानां साधारण वनस्पतिकायिकानां चासंख्येयलो के भागमात्रं खखमा दरकाथानां परिमाणं भवति । दशेषत तद्वभागाः सूक्ष्मकारा जीवानां प्रमाणम् ॥ " हुमेसु संखभाग संकाभागा अपुण्णगा इदरा ।" पृथिव्यप्तेजोवायु साधारण वनस्पतिकायिकानां ये सूक्ष्माः प्रागुतास्तेष्वपर्याप्ताः तत्संख्या तकभागप्रमाणा भवन्ति । पर्याप्त-, कास्तरसंख्यातबहुभागप्रमिता भवन्ति । तथा बालापयोधार्थ पुनरप्येकेन्द्रियादीनां सामान्यसंख्यां गोम्मटसारोकामाह । "चावर संश्च पिपीलिय भमरमणुस्वादिगा सभेदा जे | युगवारमसंखेाणंताणंता मिगोदभवा ॥” स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकचनस्पति कामिकना मानः पचविषैकेन्द्रियाः, शंखादयो होन्द्रियाः, पिपीलिकादयस्त्रीन्द्रियाः, भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः, मनुष्यामः पचेन्द्रियशश्व स्वस्वावान्तर मेदसहिताः प्राक्कथितास्ते प्रत्येकं द्विकवारासंख्यातप्रमिता भवन्ति । निगोधाः साधारणवनस्पतिकायिकाः अनन्तानन्ता भवन्ति ॥ अथ विशेष संख्यां कययंस्तावदेकेन्द्रिय संख्यामाह । "तसहीगो संसारी एक्खा तान संखगा भागा । पुष्णाणं परिमाणं संखेजदिमं अपुण्यानं ॥" सराधिहीन संसारिराष्टिरेव एकेन्द्रिय रानिर्भवति १३ । अस्य च संख्या तबहुभागाः पर्याप्तकपरिमाणं भवति १३ । । सकभागः अपप्रमाणं भवति १३ । ३ । अत्र संख्यातस्य संदृष्टिः पाकः ५ ॥ व्यथैकेन्द्रियावान्तर मेहसंख्या विशेषमाह । "रहुमा तेसिं पुष्णा पुष्णोत्ति छव्हिाणं पि । तकायमग्गणाए भणिजमाणको यो | " सामान्यै केन्द्रिमराशेः बादर सूक्ष्माविति द्वो मेदौ तयोः पुनः प्रत्येकं पर्याप्ता पर्याप्ताविति चत्वारः । एवं षदान तस्काय मार्गणाय मणिष्यमाणः क्रमो हेयः । तथा हि एकेन्द्रियसामान्य राशेर संख्या तलोकभकेकभागो बावकेन्द्रिय राशिप्रमाणे १३-३ राशिमेंसे एक घटाओ। इस तरह जब शलाका राशि समाप्त हो जाये तो अन्तमें जो महाराशि उत्पन्न हो उतनी ही तैजस्कायिक जीव राशि है । इस राशि में असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे तैजस्कायिक जीवोंके प्रमाण में मिला देनेसे पृथिवीकायिक जीवोंका प्रमाण होता है। इस पृथिवीकायिक राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे पृथिवी कायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे अष्कायिक जीवोंका प्रमाण होता है । अप्कायिक राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे अकायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे वायुकायिक जीवोंका प्रमाण आता है। इस तरह तैजस्कायिक जीवोंसे पृथ्वीकायिक जीव अधिक हैं। उनसे अकायिक जीव अधिक हैं । और उनसे वायुकायिक जीव अधिक हैं ॥ १ ॥ अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव यथायोग्य असंख्यात लोक प्रमाण हैं । इनको असंख्यात लोकसे गुणा करने पर जो प्रमाण आवे उतने प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हैं ॥ २ ॥ आवलीके असंख्यातयें भागसे भाजित प्रतशंगुलका भाग जगत्प्रतर में देनेसे जो लब्ध आवे उतन, यस राशिका प्रमाण है । इस स राशिके प्रमाणको तथा ऊपर कहे गये पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रमाणको संसारी जीवोंके परिमाण मेंसे घटाने पर जो शेष रहे उतना साधारण वनस्पतिकायिक अर्थात् निगोदिया जीवोंका परिमाण होता है || ३ || पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और साधारण वनस्पतिकायिक जीवका जो ऊपर प्रमाण कहा है उस परिमाण में असंख्यातका भाग दो । सो एक भाग प्रमाण तो बादर कायिकों का प्रमाण है और शेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्म कायिक जीवोंका प्रमाण है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा तनहुभाग: १३-६ सूक्ष्मैकेन्द्रियराशिप्रमाणम् । अप्रासंख्यातलोकस्य संदृष्टिनवारः ९ । पुनः बादरैकेन्द्रियराशेरसंख्यातलोकमकैकभागस्तत्पर्याप्तराधिः १३-१। बहुमागस्तदपर्याप्तराशिः १३-11। मनासंख्यातलोकस्य संदृष्टिः सप्ताः । सक्ष्मैकेन्द्रियराशेः संख्यातभक्तबहुभागस्तरपर्याप्तराशिः १३-६।६ तदेकभागस्तदपतराशिः १३१६ अत्र संख्यातरूप संदृष्टिः पञ्चाङ्गः ५। २/५ । पर्याप्ताः १३-१५ । अपर्याः १३-२ ॥ एईदिय १३-, यादर १३-२, सूक्ष्म १३-६। बादर पर्या० १३-. बादर अपर्या. १३- सूक्ष्मपर्याप्त १३-६६, सूक्ष्म अपर्या० १३-६६ ।। असंखिजलोयस्स संदिट्टी ९ । ७ । संख्यातस्य संदृष्टिः ५। जैसे पृथिवीकायिकोंके परिमाणमें असंख्यातका भाग देनेसे एक भाग प्रमाण बादर पृथ्वीकायिक जीवोंका परिमाण है और शेष बहु भाग प्रमाण सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंका परिमाण है । इसी तरह सबका समझना । यहाँ मी भागहारका प्रमाण जो पहले असंख्यात लोक कहा है वही है ।। ४ ॥ पृथ्वी, अप, तेज, वायु और साधारण वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीवोंका जो पहले प्रमाण कहा है उसमेसे अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके प्रमाणमें संख्यातका भाग देनेसे एक भाग प्रमाण तो अपर्याप्त हैं और शेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त हैं । अर्थात् सूक्ष्म जीवोंमें अपर्याप्त राशिसे पर्याप्त राशिका प्रमाण बहुत है; इसका कारण यह है कि अपर्याप्त अवस्थाके कालसे पर्याप्त अवस्थाका काल संख्यात गुणा है ॥ ५ ॥ मन्दयुद्धि जनोंको समझाने के लिये गोम्मटसारमें कही हुई एकेन्द्रिय आदि जीवोंकी सामान्य संख्याको फिर मी कहते हैं-पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति ये पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय, शंख वगैरह दो इन्द्रिय, चीटी वगैरह तेइन्द्रिय, भौरा वगैरह चौइन्द्रिय और मनुष्य घगैरह पंचेन्द्रिय जीव अलग अलग असंख्यातासंख्यात हैं। और निगोदिया जीव जो साधारण वनस्पतिकायिक होते हैं, वे अनंतानन्त हैं ॥ १ ॥ सामान्य संख्याको कहकर विशेष संख्या कहते हैं। सो प्रथम एकेन्द्रिय जीवोंकी संख्या कहते है'संसारी जीवोंके प्रमाणमेंसे त्रस जीवोंका प्रमाण घटाने पर एकेन्द्रिय जीवोंका परिमाण होता है, एकेन्द्रिय जीवोंके परिमाणमें संख्यातका भाग देने पर एक भाग प्रमाण अपर्याप्त एकेन्द्रियोंका परिमाण है और शेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त एकेन्द्रियोका परिमाण है ॥ २॥' आगे एकेन्द्रिय जीवोंके अवान्तर मेदोंकी संख्या कहते हैं-'सामान्य एकेन्द्रिय जीवों के दो मेद हैं-एक बादर और एक सूक्ष्म । उनमेंसे मी प्रत्येकके दो दो भेद हैं-एक पर्याप्त और एक अपर्याप्त । इस तरह ये चार भेद हुए | इन छहों मेदोंकी संख्या इस प्रकार हैसामान्य एकेन्द्रिय जीव राशिमें असंख्यात लोकका भाग दो। उसमें एक भाग प्रमाण सो बादर एकेन्द्रिय हैं और शेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव हैं। बादर एकेन्द्रियोंके परिमाणमें असंख्यात लोकका भाग दो । उसमें एक भाग प्रमाण पर्याप्त है और शेष बहुभाग प्रमाण अपर्याप्त है। तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके परिमाणमें संख्यातका भाग दो। उसमें एक भाग प्रमाण तो अपर्याप्त है और शेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त हैं । अर्थात बादर जीर्वोने तो पर्याप्त थोड़े हैं, अपर्याप्त ज्यादा हैं। और सूक्ष्म जीवों में पर्याप्त ज्यादा है,अपर्याप्त थोचे हैं ॥ ३ ॥ आगे वस जीवोंकी संख्या कहते हैं-'दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय-इस सब प्रसोका Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० १५७अब सजीवसंख्या प्राई। “वितिक्षपमाणमसंखे वहिदपदरेगुलेग हिदपदर। हीणकर्म परिमायो भापकियासभागो तु ॥" द्वित्रिचतुःपवेन्द्रियजीवानां सामान्यराधिप्रमाणम् असत्यातभक्तपतरालभचजगरप्रतरप्रमितं भवति । अत्र द्वीन्द्रियराक्षिप्रमाण सर्वाधिकम् । ततः श्रीन्द्रियराशिः विशेषहीनः । ततः चतुरिन्द्रियराशिविशेषहीनः । ततः पञ्चेन्द्रियराशिविशेषहीनः । तथा पवेन्द्रियेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषेण बहवः । चतुरिन्द्रियेभ्यः त्रीन्द्रिया बहवः । श्रीन्द्रियेभ्यो द्वीन्द्रिया गइयः,वेभ्यः एकेन्द्रिया अहवः । अत्र विशेषागमनिमितं मागहारः प्रतिभागहारः सचावस्यसंख्येमभागमात्रः । एसेषां प्रसानां सामान्यराशेः पर्याप्तराशेः अपर्यातराशेष रचना लिख्यते । 'हारमा हारी गुणकोऽशराशेः' इति सोप हारहारभुतागामध्यम गराशेर्पणाकारोऽभूत् ॥ बेइंदिय तेइंदिय । वरिदिय एवेदिय ८४२४ ६१२० ४।६५६१ ४।४।६५६१/ -५८६४ ६५६५ | ४॥४॥६५६१ सामग्णरासी | =५८६४ । =६१२० 3८४१४ =५८३६ ४|४१६५६१ ४४१६५६:४४६५६१ ४४६५६१ पज्जत्तरासी स्सोक ५।६१२० । ५।८४२४ । ५/५८३६ । ५/५८६४ । -८४२४१७ =६१२०१७ =५८६४१७ =५८३६१७ | अपजत्तराखी | ४४०६५६१ ४॥४॥६५६१ ४४६५१ ६५६१ ७ परिमाण प्रतरांगुलमें असंख्यातका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उसका भाग जगत् प्रतरमें देने से जितना लग्ध आता है उतना है। इसमें दोइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण सबसे अधिक है। उनसे तेइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण कुछ कम है। तेइन्द्रिय जीवों के प्रमाणसे चौइन्द्रिय जीवोंका प्रमाण कुछ कम है । चौइन्द्रिय जीवोंसे पञ्चेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण कुछ कम है। तथा पञ्चेन्द्रियोंसे चौइन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। चौइन्द्रियोंसे तेइन्द्रिय जीव विशेष अधिक है और तेइन्द्रियोंसे दोइन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं तथा उनसे चारों प्रकारके एकेन्द्रिय जीव बहुत हैं। यहाँ विशेषका प्रमाण लाने के लिये भागहार और भागहारका भागहार आवलीके असंख्यातवें भाग है। टीकाकारने अपनी टीकामें एकेन्द्रिय जीवों और उस जीवोंकी राशि संदृष्टिके द्वारा बतलाई है । उसका खुलासा किया जाता है। एकेन्द्रिय जीवोंकी राशिकी संदृष्टि इस प्रकार है १३- यहाँ तेरहका मंक संसार राशिको बतलाता है और उसके आगे यह - घटाने का चिन्ह है। सो सराशिके घटानेको सूचित करता है अर्थात् संसार राशि (१३) में से सराशिको घटानेसे एकेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण आता है जिसका चिह (१३ -) यह है । संख्यातका चिह्न ५ का अह है। सो एकेन्द्रिय राशिमें संख्यात. का भाग देनेसे बढ़ भाग प्रमाण पर्याप्त जीव होते हैं और एक भाग मात्र अपर्याप्त जीव होते हैं । सो पर्याप्त जीवोंकी संदृष्टि इस प्रकार है – १३ -- । यहां बहुभागका ग्रहण करनेके लिये एकेन्द्रिय राशि (१३-) को पांच से भाग देकर चारसे गुणा करदिया है । जो यह बतलाता है कि ५ प्रमाण पर्याप्त है और शेष ' अपर्याप्त है अतः अपर्याप्त राशिकी संदृष्टि इस प्रकार है १३-५ । असंख्यात लोकका चिल्ड नौ ९ का अंक है । सामान्य एकेन्द्रिय राशिमें असंख्पात लोक {९) का भाग Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५७] १०. लोकानुप्रेक्षा देने से एक भाग बादर और बहुभाग सूक्ष्म जीव होते हैं । बादर एकेन्द्रिय जीओंकी संदृष्टि १३-१ इस प्रकार है और सूक्म जीवों की संदृष्टि १३-६ है । नीचे असंख्यात लोकका चिद्ध ७ का अंक है । सो बादर एकेन्द्रिय राशि १३-१ को असंख्यात लोक (७) कर भाग देनेसे बहु भाग मात्र अपर्याप्त और एक भाग मात्र पर्याप्त जीव होते हैं | सो बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशिकी संदृष्टि १३- ऐसी हे और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त राशि की संदृष्टि ३१-11 ऐसी है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय राशि १३-१ को संख्यात (५). का भाग देने पर बहु भाग प्रमाण पर्याप्त राशि और एक भाग प्रमाण अपर्याप्त राशि आती है । सो यहां पर्याप्त राशिकी संदृष्टिं १३-१६ यह है और अपर्याप्त राशिकी संदृष्टि १३-१६ यह है । अब स राशिको संदृष्टिका खुलासा करते हैं वह इस प्रकार है-जगत्प्रतरका चिह्न - यह है। प्रतरांगुलका चिह्न ४ का अंक है। और असंख्यात का चिह ७ का अंक है । प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागका भाग जगत्प्रतरको देनेसे बस राशिका प्रमाण माता है । सो बस गाशिका रकेत ४ या है। आवलीके असंख्यातवें भागका संकेत नौ का अंक है । सो सराशिमें आवलीके असंख्यातवें भाग (९) का भाग देकर बहु भाग निकालो। सो बहुभाग राशिका प्रमाण सर यह है । इसको चार हिस्सोंमें वांटनेके लिये चारका माग =८ देनेसे ऐसे हुआ ४९४ । यह एक एक समान भाग दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय और पंचें. न्द्रिय जीवोंको दे दो। शेष एकभाग रहा उसका प्रमाण यह है । इसको आवलीके असंख्या -t तर्वे भाग (९) का भाग देकर बहुभाग निकाला सो ४९९ इतना हुआ। यह दो इन्द्रियको देदो। शेष एक भाग ११९९ ऐसा रहा । इसको आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देकर बहुभाग निकाला सो ६५ इतना हुआ। वह तेइन्द्रियको देदो । शेष एक भाग ४४ रहा । इसमें भी आनलीने असंख्यातवें भागका भाग देनेसे बहुभाग ४।९।९९।९ ऐसा हुआ। यह चौइन्द्रियको देना । शेष एकभाग रहा ॥९।९।९।९ यह पश्चेन्द्रियको देना । सम भाग और देय भागका प्रमाण इस प्रकार हुआ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १५७- यहां देय भाग के भागहार में सब से अधिक चार बार नौ के अंक हैं । और सम दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्दिय पञ्चेन्द्रिय समभाग देयभाग समभाग ७ = 6 ४६४ ७ ७ =< ४१९१९ ७ ४९९ देयभाग ४|४|१|९||s = 19 ४1९18 ७ ₪ = ४९९ ७ = ४९३४ २८२४१९ ४१४९९९९ ७ भाग भागहार में नौका अंक एक ही है। इसलिये भागहार में सर्वत्र चारबार नौका अंक करने के लिये सम भाग में तीन बार नौ के अंक का गुणाकार और भागहार करो। तथा देय राशिके भागहारमें चारका अंक नहीं है और समभागके भागहारमें चारका अंक है । इसलिये समच्छेद करने के लिये देयराशिमें सर्वत्र चारका गुणाकार और भागहार रखो। तो सर्वत्र चार बार नौके अंकका भागहार करना है अतः चूंकि दो इन्द्रियकी के शिमें दो बार नौके भागहार है इस लिये वहाँ दो बार नौके अंकको गुणाकार और भागहारमें रखो । तेइन्द्रियकी देयराशिमें तीनबार नौके अंकका भागद्वार है अतः वहाँ एक बार मौके अंकको गुणाकार और भागहारमें रक्खो । चौइन्द्रिय और पश्चेन्द्रियकी देय राशिमें चार बार नौ का भागहार है ही, अतः वहाँ और गुणाकार और भागहार रखनेकी जरूरत नहीं है । इस तरह समच्छेद करनेपर समभाग और देय भाग की स्थिति इस प्रकार होती है यहाँ सुमभागका गुणाकार दोइन्द्रिय =GIRIS13 ४|४|१९|| =& आठ और तीन तेइन्द्रिय =८९९९ ४|४|१|| ७ 2 ४९९१९९४/९/९/९/१ =& ४।९१४ =33831 ४१४१९१९९९ V ७ ७ ४. ४४९९/९/९ ७ बार नौ है । इनको परस्पर में इन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय =ISIS ४१४१९४९/९/९ ७ =१४ ४४९९९९ ७ गुणनेसे (८x९x९x९ = ५८३२ ) अठावनसौ बत्तीस होते हैं । तथा देय भागके गुणाकारमें दोइन्द्रिय के ८x४४९x९ को परस्पर में गुणा करने से २५९२ पच्चीस सौ बानवें होते हैं । तेइन्द्रिय के ८x४४९ को परस्परमें गुणनेसे २८८ दो सौ अठासी होते हैं। चौइन्द्रियके ८x४ को परस्परमै गुणाकरने से ३२ बत्तीस होते है और पञ्चेन्द्रियकें चार ४ ही है । तथा भागार में सर्वत्र चार के गुणाकारको अलग करके चार बार नौ के अंकोंको परस्पर में गुणा करने से ९x९x९x९=६५६१ पैंसठ सौ इकसठ होते हैं । इस तरह करने से समभाग और देयभाग की स्थिति इस प्रकार हो जाती है I Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. लोकानुप्रेक्षा दोइन्द्रिय । इन्द्रिय । चौइन्द्रिय | पवेन्द्रिय =५८३२ समभाग ४४६५६१ ४॥४॥६५६७ ४१४६६५६१ ४४०६५६१ -४ देयभाग =२५९२ ४४६५६१ =२८८ ४१४६५६१ ४१६५६१ VI१६५६१ इस समभाग और देखभागोंको जोड़नेसे दोइन्द्रिय आदि जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टि इस प्रकार होती है | दोइन्द्रिय | तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय | पवेन्द्रिय 30२४ ६१२० । ५८६४ | =५८३६ प्रमाण ४४६५६१४|४१५६५४४६५६१] [४६५६ अब पर्याह श्रस जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टिकन खुलासा करते हैं-संख्यातका चिह्न पांचका अंक हैं । संख्यातसे भाजित प्रतरांगुलका भाग जगत्प्रतरमें देनेसे पर्याप्त स जीवोंका प्रमाण आता है । वह इस प्रकार है । इसमें पूर्वोक्त प्रकारसे आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देकर बहुभाग निकालना चाहिये और बहुभागके चार समान भाग करके तेइन्द्रिय,दोइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और चौइन्द्रियको देना चाहिये । शेष एक भागमेंसे बहुभाग क्रमसे तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय और पथेन्द्रियको देना चाहिये तथा बाकी बचा एक भाग चौइन्द्रियको देना चाहिये । उनकी संदृष्टि इस प्रकार होती है तेइन्द्रिय | दोइन्द्रिय पथेन्द्रिय चौइन्द्रिय %3Dt समभाग ४।९१४ ४१९।४ ४।९।४ ४/५/४ ८ देयभाग ४.९१९ ४।९४९९ १४॥९९९९ इनको पूर्वोक्त प्रकारसे समष्छेद करके मिलानेपर पर्याप्त त्रस जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टि इस प्रकार होती है Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ কট अनुदिशेषु S स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा संखिज्ज - गुणा देवा अंतिम-पंडला आणदं जावें । तो असंख-गुणिदा सोहम्मं जाव पडि पडलं ॥ १५८ ॥ [ छाया संख्येयगुणाः देवाः अन्तिमपटलात् आनतं यावत् । ततः असंख्यगुणितम साधनं यावत् प्रतिपटलम् ॥ ! अन्तिमपटलात् पचानुत्तरपदळात, आनतखर्ग यावद आनतस्वर्गयुगलपर्यन्तं संख्यातगुणा देश भवन्ति । तत्रान्तिमपटले पल्या संख्यातैक भागभाश्रा अदमिन्द्रसुराः पुं पञ्चानुत्तरे (नानुत्तरेषु वैकत्रये मध्यममैवेयकत्रये अधोत्रैवेयकश्ये अच्युतारणयोः प्राणतानतयोश्च सर्वत्र सत स्थानेषु प्रत्येकं देवानां पयासंख्यातस्त्वेऽपि संख्यातगुणत्थसंभवात्। सत्तो ततः आनतपटलात् अधोऽधोभागे सौधर्मपर्यन्तं प्रतिपटलं, पटले पटले प्रति असंख्यात गुणत्वात् । प्रमाण चौइन्द्रिय इन्द्रिय दोइन्द्रिय पचेन्द्रिय =८४२४ =६१२० =५८६४ =५८३६ ४/४/६५६१४६४१६५६१ ४/४/६५६१ ४४६५६१ ५ प्रमाण [ ० १५६० नवानुदिशसु ५. ५ पूर्वोक्त सामान्य त्रस जीवोंके प्रमाणमें से इस पर्याप्त नस जीवोंके प्रमाणको घटानेपर अपर्याप्त स जीवोंके प्रभाणकी संदृष्टि इस प्रकार होती है दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय पचेन्द्रिय ५५८६४ ५।६१२० ८४२४७ ५/८४२४ ५१५८३६ =६१२०१७ =५८६४७ =५८३६।७] *४।४।६५६१| ४|४६५६१ ४१४१६५६१ ४/४/६५६१ इसका खुलासा इस प्रकार हैं । सामान्य बस राशि तो मूलराशि है और पर्याप्त त्रस राशि ऋणराशि हैं। इन दोनों राशियों में जगत्प्रतर और उसमें प्रतरांगुल और चार गुने पैंसठ सौ इकसठ का भाग ४१६५६१ समान है । अतः इसको मूल राशिका गुणाकार किया । और 'भागहारका भागहार भाग्यका गुणकार होता है इस नियमके अनुसार मूल राशिमें जो भागहार प्रतरांगुल, उसका भागहार असंख्यात है उसको मूलराशिके गुणकारका गुणकार कर दिया । और ऋणराशिमें जो पांचा अंक है उसको ऋणराशिके गुणकारका गुणकार करदिया । ऐसा करनेसे जो स्थिति हुई वही ऊपर संदृष्टि के द्वारा बतलाई है ॥ १५७ ॥ अर्थ - अन्तिम पटळसे लेकर आनत स्वर्ग तक देव संख्यातगुने हैं। और उससे नीचे सौधर्म स्वर्ग पर्यन्त प्रत्येक पटलमें असंख्यात गुने हैं ॥ भावार्थअन्तिम पटल अर्थात् पश्च अनुत्तर विमानसे लेकर आनत स्वर्ग युगल तक संख्यातगुने देव हैं। उनमें से अन्तिम पटल में पत्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण अहमिन्द्र देव हैं। तथा पांच अनुत्तर, नौ अनुदिश, तीन ऊर्ध्वं प्रैवेयक, तीन मध्य मैवेयक, तीन अधो ग्रैवेयक, अभ्युत आरण, और प्राणत आनत इन सातों स्थानोंमेंसे प्रत्येकमें यद्यपि देयों का प्रमाण एल्यके असंख्यातवें भाग है फिर भी एक स्थान से दूसरे स्थान में संख्यातगुना संख्यातगुना प्रमाण होना संभव है । अर्थात् सामान्य रूपसे उक्त सातों स्थानों में यद्यपि देवोंका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग है, किन्तु फिर भी ऊपरसे नीचे की ओर एक स्थानसे दूसरे स्थान में संख्यातगुने संख्यातगुने देव हैं । आनत पटलसे लेकर १ पटक, सलादो ग पटलादो २ आरणं, स जाणवे जाम । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५८ ] १०. लोकानुप्रेक्षा ९९ तत्संख्या गोम्मटसारोका विस्वते । प्रतारसारखचुगल निश्चतुर्थमूलेन भाजितजगच्छ्रेणिप्रमिता देवा भवन्ति । ततः शुक्रमहाशुक्र वर्गबुगले निजप श्रममूलेन भाजितजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः भवन्ति । ततः लान्तवकापिष्ट वर्गयुगळे निससम भूल्न भाजित जगच्छ्रेणित्रमित देशः भवन्ति । ततः ब्रह्मोत्तरवर्गयुगळे निजनवममूलेन भजगच्छ्रेणिमात्रा देनाः स्युः । ततः सनत्कुमारमा हेन्द्र स्वर्गयुगले निजैकादशमूलेन भाजितजगच्छ्रेणिमात्रा देवा: सन्ति । ततः सोधर्मेशान स्वर्गयुग श्रेणिगुणितघन । कुलतृतीयमूलप्रमिता देवाः भवन्ति - ३ पनाकुलतृतीयमूछेन गुणितजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः सौधर्मेशानजा उत्कृष्टेन भवन्तीत्यर्थः । सर्वार्थसिद्ध जाहमिन्द्राः त्रिगुणाः । तिगुणा वृत्तगुणा वा सम्बद्वा माणुसीपमाणादो ॥ १५८ ॥ प ७ प ७ ५ ९ ए ७ ३ प " प ७ प ७ ३ ११ प ७ ४ ५. ७ ११ 919 १० १/० १० १० १४१ 919 नीचे नीचे सौधर्म स्वर्ग तक प्रत्येक पटल में देव असंख्यातगुने असंख्यात गुनहैं । यहाँ गोम्मटसार में जो देवोंकी संख्या बतलाई है [ घणअंगुलपदमपदं तदियपदं सेढिसंगुणं कमलो । भवष्णो सोहम्म. दुगे देवाणं होदि परिमाणं ॥ १६९ ॥ तत्तो एगारणव सग पण चाउ नियमूल भाजिदा सेढी । पल्ला संखेज्जदिमा पत्तेयं आणदादि सुरा ॥ १६२ ||" गो० ] वह लिखते हैं- जगतश्रेणीके चौथे वर्गमूल का जगतश्रेणीमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे, उतने देव शतार और सहस्रार स्वर्गमें हैं । जगतश्रेणीके पांचवे वर्गमूलका जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने देव शुक्र और महाशुक स्वर्गमें हैं। जगतश्रेणिके सातवें वर्गमूल से जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जो लम्ध आवे उतने देव लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग में हैं। जगतश्रेणिके नौवे वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतने देव ब्रह्म और मझोत्तर खर्गमें हैं। जगतश्रेणिके ग्यारहवें वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतने देव सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें है । और सौधर्म तथा ऐशान स्वर्ग में घनांगुलके तीसरे वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण देवराशि है । इस तरह ऊपरके स्वर्गेसे नीचेके वर्गों मैं देवराशिका प्रमाण उत्तरोत्तर अधिक अधिक है। यह प्रमाण उत्कृष्ट है । अर्थात् अधिक से अधिक I इतनी देवराशि उक्त खर्गे में होसकती है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें देवराशिकी संदृष्टि - ३ ऐसी है। यहाँ यह जगतश्रेणीका चिह्न है। और घनांगुल का तृतीय वर्गमूलका चिह्न ३ है । तो जगतश्रेणीको घनांगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर - ३ ऐसा होता है यही सौधर्म युगल में देवोंका प्रमाण है । सनत्कुमार माहेन्द्र युगलसे लेकर पाँच युगलोंमें देवराशिकी संदृष्टि कमसे इस प्रकार - ११ १. 15 ५ ४ । जिसका आशय यह है कि जगतश्रेणिको क्रमसे जगतश्रेणिके ही ग्यारहवें नौवें सातवें, पाँचवें और चौथे वर्गमूलका भाग दो । तथा आनतादि दो युगल, ३ अधोत्रैवेयक, ३ मध्यमग्रैवेयक, ३ उपरिम ग्रैवेयक, ९ अनुदिश विमान और ५ अनुत्तर विमान इन सात स्थानों में से प्रत्येक में पत्य असंख्यातर्वे भाग देवराशि है । उनकी संदृष्टि ऐसी है। ऊपर जो संदृष्टि दी है वह पाँच अनुत्तरसे लेकर सौधर्मयुगल तक की है। सो ऊपरवाली पंक्तिके कोठोंमें तो देवोंका प्रमाण लिखा है । और नीचेवाली पंक्ति में अनुत्तर वगैरह का संकेत है । सो पाँच अनुत्तरों का संकेत 1 I Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सम-णारयहिंतो असंख-गुणिदां हवंति णेरइया । जाय पढमं र बहु-दुक्खा होति' देहिद्वौ ॥ १५९ ॥ ५५ ९५ [ श्छाया - सप्तमनारकेभ्यः असंख्यगुणिताः भवन्ति नैरयिकाः । यावत् च प्रथमं नरकं बहुदुःखाः भवन्ति अघोऽधः ॥ ] सप्तमनरकात् तमस्तमः प्रमामाघवीनाम्रः सकाशात् उपर्युपरि नारकाः यावत् प्रथमगरके रत्नप्रभाघर्मानामप्रथम नरकपर्यन्तं असंख्यातगुणिता नारकाः भवन्ति । सप्तमे मानवीनानि नरके नारकाः खोकाः, श्रेण्यसंख्येयभामप्रमिताः निजद्वितीय वर्गमूलमक जगच्छ्रेणिमात्रा नारकाः भवन्ति । पले मघवनानि नरके सप्तम पृधिवीनारकेभ्यः षष्ठतमःप्रभापृथिवीनारका असंख्यातगुणाः, निजतृतीय वर्गमूलभाजित जगच्छ्रेणिमात्रा भवन्ति । वेभ्वव बन्नारकेभ्यश्च पञ्चमपृथिवीनारका असंख्यातगुणाः, पञ्चमेऽरिष्टानामनि नरके निजवलवर्गमूलभतजगच्छ्रेणिमात्रा मारकाः स्युः । तेभ्यश्च पथमपृथिवीनार केभ्यश्च पतुर्थपूथिवीनारकाः असंख्यातगुणाः सन्तः अलनानानि चतुर्थनरके व्यष्ठमनिजवर्गमूलविभक्तज गच्छ्रेणिमात्रा नारका मदन्ति । तेभ्यश्चतुर्थना रकेभ्यस्तृतीय पृथिवीनारकाः असंख्यात गुणाः सन्तः श्रालुकाप्रभामेघानामनि तृतीयनरके दशमनिजवर्गमूलापहृतजगच्छ्रेपिमात्रा नारका भवन्ति । वेपथ तृतीयपृथिवी नारकेभ्यो द्वितीयनर के नारकाः असंख्यातगुणाः, द्वादशनिअ वर्गमूलस मगरलेनिमात्राः सामानि द्वितीये तीन तीन उपरिम, मध्य और अधोग्रैवेयकका संकेत ३ का चिह्न है । तथा नौ अनुदिशोंका पहले दूसरे, सातवें आठवें स्वर्गयुगलमें दो दो इन्द्रसम्बन्धी देवोंका प्रमाण है। अतः वहाँ यो एक १११ रखे हैं । और तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे युगलमें एक एक ही इन्द्र होता है अतः यहाँ एक एक और एक बिन्दी ११० इस तरह रखी है ।। १५८ ॥ अर्थ -सातवें नरकरी लेकर ऊपर पहले नरक तक नारकियोंकी संख्या असंख्यात गुणी असंख्यात गुणी है। तथा प्रथम नरकसे लेकर भीचे नीचे बहुत दुःख है ॥ भावार्थ - महातमः प्रभा नामक पृथ्वी में स्थित माघवी नामके सातवें नरकसे लेकर ऊपर ऊपर रमप्रभानामक पृथ्वीमें स्थित धर्मा नामके प्रथम नरकतक नारकियोंकी संख्या असंख्यातगुणी है । अर्थात् सातवें माधवी नामके नरकमें सबसे कम नारकी हैं । उनका प्रमाण जगतश्रेणिके दूसरे वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणि प्रमाण है। छठे मघवी नामके नरक में सातवें नरकके नारकियोंसे असंख्यात गुने नारकी हैं। उनका प्रमाण जगतश्रेणिके तीसरे वर्णमूल से भाजित जनत श्रेणि प्रमाण है। छठे नरक के नारकियोंसे पांचवे नरकके नरकियोंका प्रमाण असंख्यातमुमा है जो जगतश्रेणिके छठे वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणि प्रमाण है। उन पांचवें नरकके नारकियोंसे चौथे नरक के नारकियोंका प्रमाण असंख्यातगुणा है जो जगतश्रेणिके आठवें वर्गमूळ भाजित जगतवेणिप्रमाण है। चौथे नरक से तीसरे नरकके नारकियोंका प्रमाण असंख्यातगुणा है । अतः वालुकाप्रभाभूमिमें स्थित मेघा नामके तीसरे नरकमें जगतश्रेणिके दसवें वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणिप्रमाण नरकी हैं। तीसरे नरकके नारकियोंसे दूसरे नरकमें नारकी असंख्यातगुने हैं। अतः वंशा नामके दूसरे नरकमें जगतश्रेणिके बारहवें वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणि प्रमाण नारकी हैं। दूसरे नरकके नारकियोंसे अर्स ख्यातगुने प्रथम नरकके नारकी हैं। सो समस्त नरकोंके नारकियोंका प्रमाण धनांगुलके दूसरे वर्ग - मूलसे जगतश्रेणिको गुणा करनेसे जो प्रमाण आवे, उतना है। इस ऊपर कहे छ: नरकोंके नारकियों के प्रमाणको जोड़कर इस प्रमाणमें से घटा देने पर जो शेष रहे उतना प्रथम नरकके नारकियोंका प्रमाण है। तथा नीचे नीचे नारकी उत्तरोत्तर अधिक २ दुखी हैं । अर्थात् प्रथम नरकके दुःस्खसे दूसरे 1 १ ग्रणिया । २ स ग इति । १ ब म विडिंडा । १०० [ गा० १५१९ L Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " PRAGAnyon: १०. लोकानुपेक्षा Rel १०१ नरके मारका मपन्ति तेभ्यश्च द्वितीयपृषिवीनारकेभ्यः प्रथमपृथिवीनारकाः सन्तः रत्नप्रमाानानि प्रथमनर के धमालद्वितीयमूलगुणितजगणिमात्रा मारका भवन्ति -२।। एकत्रीकृत पदनारकसंख्याहीना प्रथमनरके मारकसंख्या भवति । सामान्यनारकाः सवैपूवीजाः पनाद्वितीयवर्गमूलगुणितजगच्छेमिप्रमिता भवन्ति-३ मू। हिटिंडा भयोऽधो नारका पाहतुःसा भवन्ति । प्रथमनरकदुःसाद द्वितीये नरके अनन्तगुणं दु:खम, एवं तृतीयादिषु । रमणपहा-२-1, सकरा वाज , पंक, घूम , मस्तम, सर्वनार का -२ मू ॥ १५९ ॥ कप्प-सुरा भावणया वितर-देवा तहेव जोइसिया। हुति असंल-गुणा संख-गुणा होति जोइसिया ॥१६० ।। [छावा-कल्पमराः मावनकाः व्यन्तरदेवाः तथैव ज्योतिष्काः । द्वौ भवतः असभ्यगुणौ संख्यगुणाः भवन्ति ज्योतिष्काः॥ कप्पसुरा कल्पवासिनो वेवाः षोडशस्वर्गनवप्रवेयकनवानुदिशपश्चानुत्तरजाः विमानवासिनः सुराः असंख्यातषिप्रमिताः, प्राधिकघनाकुलवृतीयमूलगुमितधेणिमात्राः-३। तेभ्यश्च वैमानिकेभ्यः देवेभ्यः असंख्यातगुणा असुरजमारादिदयविषा भवनवासिनो देवाः घनालप्रथममूलगुणितश्रेणिमात्राः - १। वेभ्यो भक्नेभ्यः असंख्यातगुणाः बिनरायनप्रकारा ध्यन्तरदेवाः, त्रिशतयोजनकृतिभकअगस्पतरमात्राः ६५:८11०। तेभ्यश्च व्यन्तररेभ्यः सूर्यचन्दमसौ प्रहनक्षत्रताका पचप्रकाराः श्योतिका संस्थातगुणा, बेसदछप्पण-घनालकृतिमागायतरमात्राः प। अत्र चतुर्णिकायदेवेषु कल्पवासिदेवता भावनन्मन्तरदेवानां द्वौ रात्री असल्यातगुणौ स्वः । व्यन्तरेभ्यः ज्योतिष्कदेवराशिः संख्यातगुणः क ३ भ-१ ये ४६५८1 1 . । इस्पल्पबहुत्वं पतम् ।। अकेन्द्रिमादिजीवा--- नामुत्कुष्ठमायुर्गाषात्रयेण निगदति ॥ १६ ॥ नरकम अनन्तगुणा दुःख है। इसी तरह तीसरे आदि नरकोंमें भी जानना ।। यहाँ जो प्रथम दितीय आदि वर्गमूल कहा है उसका उदाहरण इस प्रकार है । जैसे दो सौ छप्पनका प्रथमवर्गमूल सोलह है। क्योंकि सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन होता है । दूसरा वर्गमूल चार है । क्योंकि चारका वर्ग १६ और १६ का वर्ग २५६ होता है। तथा तीसरा वर्गमूल दो है। अब यदि जगतश्रेणिका प्रमाण २५६ मान लिया जाये तो उसके तीसरे वर्गमूल दो का दो सौ छप्पन में भाग देनेसे १२८, दूसरे वर्गमूल ४ का भाग देनेसे चौसठ और प्रथम वर्गमूल १६ का भाग देनेसे १६ आता है । इसी तरह प्रकृतमें समझना ।। १५९ ॥ अर्थ-कल्पवासी देवोंसे भवनवासी देव और व्यन्तर देव ये दो राशियाँ तो असंख्यात गुणी हैं। तथा ज्योतिषी देव व्यन्तरोंसे संख्यातगुणे हैं ॥ भावार्थ-सोलह वर्ग, नौ अवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंके घासी देवोंको कल्पवासी कहते हैं। कल्पवासी देव धनांगुलके तीसरे वर्गमूल से गुणित जगतश्रेणिके प्रमाणसे अधिक है । इन कल्पवासी देवोंसे असंख्यात गुने अमर कुमार आदि दस प्रकारके भवनवासी देव हैं । सो भवनवासी देव धनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण हैं । भवनवासियों से असंख्यातगुने किमर आदि आठ प्रकारके व्यन्तर देव हैं, तीन सौ योजन के वर्गका जगत्प्रतरमें भाग देनेसे जितना प्रमाण आता है उतने व्यन्तर देन हैं । व्यन्तर देवोंसे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पाँच प्रकारके ज्योतिषी देव संख्यातमुने हैं । सो दो सौ छप्पन धनागुल के बर्गका जनतातरमें भाग देनेसे जितना प्रमाण आता है उतने ज्योतिषी देव हैं। इस तरह चार निकायके देवोंमें कल्पवासी देवोंसे भवनवासी और व्यन्तर देवोंकी संख्या असंख्यात गुणी है और भ्यन्तरोंसे संख्यात गुणी ज्योतिष्क देवोंकी संख्या है । इस प्रकार अल्प बहुत्व समाप्त हुआ।॥१६॥ समते। २ व अल्पवतुरुवं । पत्तेयाणं इत्यादि । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०१६१पत्तेयाणं आऊ पास-सहस्साणि दह हवे परमं । अंशो मुहसमा साहारण शब हुमाणं ॥ १६१॥ ' [छाया-प्रत्येक्चनाम् आयुः वर्षसहस्राणि वश भवेत् परमम् । अन्तर्मुहूर्तम् भायुः साधारणसर्वसूक्ष्माणाम् ॥] प्रत्येकानां प्रत्येकवनस्पतिकाथिकानो तालनालिफेरतिन्तणीकादीनो आयुरत्कृष्ट दशवर्षसहस्राणि १.... । साहारणसव्यमूहमाण साधारणसर्वसश्माणां, साधारणानो निवेतरनिगोदजीवसूक्ष्मवादराणा, सर्वसूक्ष्माणां च पृच्चीकायिकापूकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकसूक्ष्मजीवानां च उत्कृष्टायुरन्तर्मुहूर्तमात्रम्,२१ ॥ १६॥ बावीस-सस-सहसा पुढवी-तोयाण आउसं होदि । अग्गीण तिष्णि दिणा तिणि सहस्साणि वाऊणं ॥१६॥ [छाया-द्वाविंशतिसप्तसहस्राणि पृथ्वीतीययोः आयुः भवति । मीनां त्रीणि दिनानि त्रीणि सहस्राणि वायूनाम् ॥] द्वाविंशतिसप्तसहस्रवर्षाणि पृथ्वीतोयानाम् आयुष्कं भवति । स्वर पृथ्वी कायिकजीयाना ज्येष्ठायुः द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि २२.००, कोमलपृथ्वीकायिकजीवानां ज्येष्ठायुर्वादशवर्षसहस्राणि भवन्ति १२००० । तोयानाम् अकायिकजीवानाम् उस्कृष्टायुः स कजीवानाम् उत्कृष्टायुः सावर्षसहस्राणि ७००० । अम्गीण मनिकायिकानां जीवाना प्रयो दिवसाः, दिवसत्रयमुस्कृष्टायुः ३ । चायुकायिकानों विसहस्रवर्षाण्युत्कृष्टायुः ३००० ॥ १२ ॥ बारस-चास विर्यक्खे एगुणवण्णा दिणाणि तेयकखे। घउरक्खे छम्मासा पंचक्खे तिणि पल्लाणि ॥ १६३ ॥ [छाया-द्वादशवर्षाणि व्यक्षे एकोनपश्चाशत् दिनानि श्यने । चतुरझे षण्मासाः पञ्चाक्षे त्रीणि एल्यानि ॥] नारसवास वियम्से द्वादशवर्षाणि यक्षे, शस्त्रशुसिजलौकादीनां द्वौन्द्रिगजीनानां द्वादशवर्षाण्युत्कृष्टायुः १२ । एकोनपाशदिनानि ज्यझे, कुन्थू हिकापिपीलिकायूकामस्कुणवृधिकशतपाविकादीनां त्रीन्द्रियजीवानामुत्कृष्ट कोनपचाशदिनाअब तीन गाथाओंसे एकेन्द्रिय आदि जीवोंकी उत्कृष्ट आयु कहते हैं। अर्थ-प्रत्येक वनस्पतिकी उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष है । तया साधारण वनस्पति और सब सूक्ष्म जीवों की उत्कृष्ट आयु अन्तर्मुहूर्त है || भावार्थ-ताड़, नारियल, इमली आदि प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष है । सूक्ष्म और बादर नित्य निगोदिया और इतर निगोदिया जीवोंकी तथा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अक्रायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, और सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र है ।। १६१ ॥ अर्थ-पृथिवीकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष है । अप्कायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्ष है । अग्निकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु तीन दिन है और वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्ष है ॥ भावार्थ-कठोर पृथिवीकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष है । कोमल पृथिवीकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु चारह हजार वर्ष है । अकायिक जीयोंकी उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्ष है। अग्निकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु तीन दिन है और वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्ष है ॥ १६२ ॥ अर्थ-दो इन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष है। तेइन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु उनचास दिन है। चौइन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु छ महीना है और पश्चेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्प है ॥ भावार्थ-शंख, सीप, जोक आदि दोइन्द्रिय जीवोंकी उसकेष्ट आयु बारह वर्ष है । कुथु, दीमक, चींटी, जू, खटमल, बिच्छु, गिर्जाइ आदि १लग परमा । २ व गहुत्तमा । ३ब: गि, म अगा। ४ व बिशाले । ५बसे भक्थे । ६५ उत्कृरं सब इत्यादि। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६५ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १०३ न्यायुः ४९ । चतुरक्षे षण्मासाः, दंशमशक मक्षिकाभ्रमरादीनां चतुरिन्द्रियजीवानामुत्कृष्टं षण्मासायुः ६ । एशक्षे श्रीणि पल्यानि, उत्तमभोगभूमिजानां मनुष्यतिरक्षामुत्कृष्टेन श्रीणि पत्यान्यायुः ३ । इत्युत्कृष्टमायुतम् ॥ १६३ ॥ अप सर्वेषां तिर्यग्मनुष्याणां जघन्यायुर्देवनारकाणां च जघन्योत्कृष्ट मार्गाथाइयेनाह सम्व जहणणं आऊं लद्धि- अपुष्णाणं सन्त्र-जीवाणं । मज्झिम-हीन-महुतं' पज्जत्ति जुदाण णिकि ॥ १६४ ॥ [ छाया - सर्वजधन्यम् आयुः लब्ध्यपूर्णानां सर्वजीवानाम् । मध्यमहीन मुहूर्तं पर्याप्ततानां निःकृष्टम् ॥ ] भ्य पर्याप्तानां सर्व जीवानां लब्ध्यपर्यामै केन्द्रियजीवानां लब्ध्यपर्यासद्वीन्द्रियप्राणिनां लब्ध्यपर्यमित्रीन्द्रियप्राणिनां लब्ध्यपर्या चतुरिन्द्रियप्राणिनां लब्ध्यपर्याप्तपश्वेन्द्रिय से झिजीवा झिजीवानां च सर्वजधन्यमायुः क्षुद्रग्रहणम् उच्ता सस्यैकस्याष्टादशो भागः लक्ष्यः मध्यमान्तर्मुहूर्तमात्रं । तथा वसुनन्दिन्यत्याचारे सर्वलब्ध्यपर्याप्तानाम् उच्वासस्य किंचिन्यूनाटादशो भागः । प्रखत्तिजुदाणं पर्यामियुक्तानां पृथिव्यप्ते त्रोवायुवनस्पतिकायिकै केन्द्रियाणां पर्याप्तानां शंखादिद्वीन्द्रिमपान गोम्यादिन्द्रियपर्याप्तानां भ्रमरादिचतुरिन्द्रियपर्याप्तानां गोगजाश्वहं सादीनां कर्मभूमिजानां कर्मभूमिप्रतिभागजानो पछेन्द्रियतिरश्च कर्मभूमिजत्रिषष्टिशलाका पुरुषचरम देहादिवर्जितमनुष्याणां च मध्यमहीन मुहूर्त बिनरष्ट मध्यमान्तमुहूर्त मात्र निकाएं जघन्यायुः हीनमुहूर्त मिमुहूर्त था, किंतु पूर्वोक्तान्मुहूर्तात् अयं मद्दान्मुहूर्तः ॥ १६४ ॥ देवा णायाणं सायर-संखा हवंति तेतीस । उचि जणं वासाणं दस सहस्वाणि ॥ १६५ ॥ * तेइन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु ४९ दिन है । डोस, मच्छर, मक्खी, भौंरा आदि चौइन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु छ: मास है । उत्कृष्ट भोगभूमिया मनुष्य तिर्यञ्चोकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है। इस प्रकार उत्कृष्ट आयुका वर्णन समाप्त हुआ || १६३ || अब तिर्यश्च और मनुष्योंकी जघन्य आयु तथा देव और नारकियोंकी जघन्य और उत्कृष्ट आयु दो गायाओंसे कहते हैं । अर्थ-लब्ध्यपर्याप्तक सब जीवोंकी जघन्य आयु मध्यम हीनमुहूर्त है और पर्यातक सब जीवोंकी जघन्य आयु मी मध्यम हीन मुहूर्त है ॥ भावार्थ-लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवोंकी, लब्ध्यपर्याप्तक दोइन्द्रिय जीवोंकी, लब्ध्यपर्यातक तेइन्द्रिय जीवोंकी, लब्ध्यपर्याप्तक चौइन्द्रिय जीवोंकी और लब्ध्यपर्यातक पश्चेन्द्रिय असंज्ञी तथा संज्ञी जीवोंकी सबसे जघन्य आयु क्षुद्र भत्र ग्रहण है जो एक श्वासका अट्ठारहवां भाग है। यह मध्यम अन्तर्मुहूर्त मात्र है। जैसा कि वसुनन्दि श्रावकाचार में भी बतलाया है कि सब लब्ध्यपर्याप्तोंकी जघन्य आयु बास के अट्ठारह भाग है । तथा पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय पर्यातकोंकी, शंख आदि दोइन्द्रिय पर्यातकोंकी, बिच्छु आदि तेइन्द्रिय पर्याप्तकोंकी, भौरा आदि चौइन्द्रिय पर्याप्तकोंकी, गाय हाथी घोड़ा हंस आदि कर्मभूमिया पञ्चेन्द्रिय तिर्यों की तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष और चरमशरीरी पुरुषोंके सिवा शेष कर्मभूमिया मनुष्योंकी जघन्य आयु भी मध्यम अन्तर्मुहूर्त मात्र है । किन्तु पूर्वं मध्यम अन्तर्मुहूर्तसे यह मध्यम अन्तर्मुहूर्त बड़ा है ।। १६४ ॥ अर्थ-देवों और नारकियों की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है। और जघन्य आयु दस हजार वर्ष है || भावार्थ- देवों और नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर प्रमाण होती है और १ ब आब, म आएं, ग आयु ९ छ म सग पुण्णाण । मग १] वेतसा । ७ ब आउ । अंगुळे इत्यादि । ४] निकिहूं ५ स देणं । 1 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ लामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०१६६[छाबा-देवानां नारकागा सागरसंख्या भवन्ति प्रसिंशत् । उत्कृष्ट च जघन्यं वर्षाणां दश सहलाण देवाना नाराणा बोस्कृष्ठमायुनयविंशत्सागरोपमप्रमाण भवति । च पुनातेषां देवाना मारवाणां च जपन्यायुर्दशवर्षसहस्राणि १....। तथा हि। "बेसलदसमचोदसखोलसभट्ठारवीसवावीमा । एयाषिया य एसो सकादिसु सागरुक्माण ॥" २०७।१०।१४।१६।१८।१०।२२। २३ । २४ । २५ २६ । २७ २८ २९ । ३.१ ३१ १२ । ३३ । सौधर्मशानोदेवानां सागरोपमे परमायुषः स्थितिः २। अधातायुषोऽक्षयेतदुक्तम् । पातायुषोऽपेक्षया पुन सागरोप सागरोपमानाधिके भवतः 11 एवम् अर्धसागरोपममधिकं पातायुषां देवानां सहस्रारकल्पपर्यन्तम्, ततः समुत्पत्तेरभावात् । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः देवानां परमायुः सप्तसागरोपमाणि ७ । प्राब्रह्मोत्तरयोदेवाना परमायुः पशसागरोपमाणि १० । किंतु लौकान्तिकानां सारखतादीनाम् अटो सागरा: । लान्तधकापिष्टयोः देवाना अतुईया सागराः १४ । शुक्रमहाशुक्रयोः षोडश सागराः १६ । सतारसहनारयोरष्ठावशसागराः १८ । आनतप्राणतयोविंशतिः सागरा: २. । भारणाच्युतयोविंशतिः सागराः २२ । सुदर्शने अयोविशतिरब्धीनां परमा स्थितिः २३ । अमोधे पतुर्विंशतिः सागराः २४ । सुप्रबुद्ध पञ्चविंशतिः सागराः २५ । यशोधरे सागराः २६ । सुभदे सामराः २७ । सुविशाले सागरा: २८ । सुमनति सागराः २९ । सौमनस्ये सागराः३०। प्रीतिकरे सागराः ३१॥ मादित्ये सागराः३३ सर्वार्थसिद्धी प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ३३॥ जघन्य तु 'भपरा पस्योपममधिकम् सौधर्मशानयोः प्रथमपटले अन्यायुःस्थितिः एकपल्योप किन्धिदधिकं भवति । सौधर्मशानयोकरायायुषः स्थितिः २। सनत्कुमारमाहे. प्रयोदेवानां समयाधिका जघन्या सा स्थितिः । एषमुपयुपरि ब्रममझोत्तराविषु ज्ञेया। तथा सौधर्मशानयोः प्रथमपटले जघन्य आयु दस हजार वर्ष है । कहा भी है-- त्रैमानिक देवोंकी आयु क्रमश दो, सात, दस, चौदह सोलह, अठारह, बीस और बाईस सागर है और आगे एक एक सागर अधिक है ।' अर्थात् सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो सागर है । यह स्थिति अघातायुष्ककी अपेक्षासे कही है। घातायुष्ककी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति आधा सागर अधिक दो सागर होती है । आशय वह है कि जिस जीवने पूर्वभवमें पहले अधिक आयुका बन्ध किया था पीछे परिणामोंके वशसे उस आयु को घटाकर कम कर दिया वह जीव घातायुष्क कहा जाता है । ऐसा घातायुष्क जीव अगर सम्यराष्टी होता है तो उसके उक्त उत्कृष्ट आयुसे आधा सागर अधिक आयु सहस्रार स्वर्गपर्यन्त होती है; क्योंकि घातायुष्क देव सहनार वर्गपर्यन्त ही जन्म लेते हैं, उससे आगे उनकी उत्पत्ति नहीं होती । अस्तु, सनत्कुमार माहेन्द्र स्वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु सात सागर है । ब्रह्म महोत्तर खर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु दस सागर है । किन्तु ब्रह्म स्वर्गके अन्तमें रहनेवाले सारखत आदि लौकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट आयु आठ सागर है । लान्तव कापिष्ठ वर्गके देवोंकी आयु चौदह सागर है । शुक्र म्हायुक्र स्वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु सोलह सागर है । सतार और सहनार खर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आधु भट्ठारह सागर है । आनत और प्राणत खर्गके देवोंकी उत्कष्ट आयु वीस सागर है। आरण और अच्युत खर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु बाईस सागर है । प्रथम, सुदर्शन अवेयकमें तेईस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है । दूसरे अमोघ अवेयकमें चौबीस सागर, तीसरे सुप्रबुद्धमै पचीस सागर, चौथे यशोधरमें २६ सागर, पांचवें लभद्र में सत्ताईस सागर, छठे सुविशालमें अट्ठाईस सागर, सातवें सुममसमें उनतीस सागर, आठवें सौमनस्यमें तीस सागर और नौवें प्रीतिकर अवेयकमें इकतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है। आदिल पटलमें स्थित नौ अनुदिशोंमें असीस सागर तथा साथसिद्धि आदि पंच अनुत्तरोंमें तेतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है । सौधर्म और ऐशान खर्गके प्रयम Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६६ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १०५ उत्कृष्टायुरर्धसागरोपमम् । तत् द्वितीयपटले जघन्यम् । एवं त्रिषष्टिपटलेषु ज्ञेयम् ॥ भवनवासिनां तु 'स्थितिरसूर नागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्थहीनमिता । असुरकुमाराणां उत्कृष्टा स्थितिः खागरोपमा एका १ नागानो पश्यश्रयमुत्कृष्टायुः ३ । सुपर्णाना सापल्यद्वयमुत्कृष्टायुः । द्वीपानामुत्कृष्टायुः पत्यद्वयं २ । विधुरकुमारादीनां षट्काराणां प्रत्येक सार्धं पस्योपममेकम् - उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । भवनवासिदेवानां दशसहस्रवर्षाणि १०००० जथन्या स्थितिर्भवति । परा पत्योपममधिकम् व्यन्तराणाम् उत्कृष्टम् आयुः पश्योपमैकं किंचिदधिकं भवति । मन्य तु दशवर्षसहस्राणामायुः । ज्योतिषकाणां परमायुः पत्योपयमेकं किंचिदधिकं भवति । जघन्यं तु तदष्टभागोऽपरा पत्योपमस्याष्टमो भागः । नारका तु वे ११ सप्त ७ दश १० सप्तदश १७ द्वाविंशति २२ श्रयास्त्रेशत्सागरोपमा सश्वानां परा स्थितिः । रमप्रमार्या नारकाणां उत्कृष्टायुः सागरः १ शर्क राप्रभार्या नारकाण त्रिसागरोपमा परा स्थितिः ३ । वालुकायां नारकाणामुत्कृष्टायुः सागराः ७ । पद्मप्रभाय नारकाणां दशसागरोत्कृष्टाशुष्कम् १० । धूमप्रभायां नारकार्णा सप्तदश सागराः १७ उत्कृष्टायुः । तमः प्रभायां नारकाणां द्वाविंशति सागरोपमा परा स्थितिः २२ । महातमः प्रमायां नारकाणां श्रयत्रिंशत्सागरोपमोत्कृष्टायुः ३३ ॥ विस्तरेण तु रमप्रभायाः प्रथमनर कपटले नबतिवर्षसहस्राणि परा स्थितिर्भवति । जघन्ये तु दशवर्षसहस्राण्यायुर्ज्ञेयम् । यदायुः प्रथमनरकपटले वा उत्कृष्टं तदायुः द्वितीयनर कपटले ना जघन्यायुः ॥ इत्यायुः कर्मवर्णना पूर्णा जाता च ॥ १६५ ॥ वर्षान कि अथै केन्द्रियादिजीवानां शरीरावगाहमुत्कृष्टजघन्यं गाधादशकेन । ह— अंगुल असंख-भागो एयक्लं- चउक्ख- देह परिमाणं । जोयणे - सहस्समहियं परमं उक्कस्यं जाण ॥ १६६ ॥ पटल में जघन्य आयु एक पल्यसे कुछ अधिक है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें उत्कृष्ट आयु दो सागर है । वही एक समय अधिक सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देवोंकी जघन्य आयु है । इसी तरह ब्रह्म ब्रह्मोत्तर आदि स्वगों में भी जानना चाहिये । अर्थात् जो नीचे युगलमें उत्कृष्ट स्थिति है वही एक समय अधिक स्थिति उसके ऊपरके युगलमें जधन्य स्थिति हैं। तथा सौधर्म और ऐशान स्वर्गके प्रथम पटरूमें उत्कृष्ट आयु आधा सागर है वही उसके दूसरे पटलमें जघन्य आयु है। इसी तरह तरेसठ पटलोंमें जानना चाहिये । भवनवासियोंमें असुरकुमारोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागर है, नागकुमारोंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है, सुपर्णकुमारोंकी उत्कृष्ट आयु दाई पल्य हैं, द्वीपकुमारोंकी उत्कृष्ट आयु दो पल्य है, शेष विद्युत्कुमार आदि छः प्रकारके भवनवासियोंकी उत्कृष्ट आयु डेढ़ डे पल्प है । तथा भवनवासी देवोंकी जधन्य आयु दस हजार वर्ष है । व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्यसे कुछ अधिक है । जघन्य आयु दस हजार वर्ष है। ज्योतिष्क देवोंकी उत्कृष्ट आयु भी एक पल्यसे कुछ अधिक है। तथा जघन्य आयु एक पत्यका आठवां भाग है। रत्नप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागर है। शर्कराप्रभामें उत्कृष्ट आयु तीन सागर हैं । बालकप्रभा में उत्कृष्ट आयु सात सागर है। पंकप्रभा उत्कृष्ट आयु दस सागर है। धूमप्रमानें उत्कृष्ट आयु सतरह सागर है । तमःप्रभामें उत्कृष्ट आयु बाईस सागर है। और महातमः प्रभा में उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है । विस्तारसे रत्नप्रभाके प्रथम नरक पटल में नौवे हजार वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है और जवन्य आयु दस हजार वर्ष है, तथा प्रथम नरकपटल में जो उत्कृष्ट आयु है वह दूसरे नरकपटलमें जधन्य है । इस प्रकार आयुका वर्णन पूर्ण हुआ ।। १६५ || अब एकेन्द्रिय आदि जीवोंके शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाइना दस गाथाओंसे कहते हैं । अर्थ-एकेन्द्रिय चतुष्कके शरीरकी अवगाहनाका प्रमाण अंगुलके असं 1 1 १ ग २ व जोहण कार्तिके० १४ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १६७-. [छाया-बालासंख्यमागः एकाक्षचतुष्कवेहपरिमाणम् । योजनसहनमधिक पधम उत्कृष्टकं जानीहि ॥] एकाक्षचतुष्कबेहपरिमाणम् एकेन्द्रियचतुष्काणां पृथिवीकायिकानाम अपूकायिकानो तेजस्कायिकानां पायुकायिकाना जीवानी प्रत्येक चतुर्णा देप्रमाणे शरीरावगाहक्षेत्र अघन्योत्कृष्टम् असमागो भंगुलस्यासंख्यातो भागः धनालस्यासंख्येयभागमात्र । तया बसुनन्दियसाचारे प्रोकं च। "अंगुलअसंखभागं बादरमुहमा य सेसया काया। उकस्सेज बु णियमा मणुगा य तिगावदुविधा ॥"(अल द्रव्याडलम् अश्यनिष्पकम् ।) भेगुलेन येऽवष्म्याः माकासप्रदेशाः तेषां मध्येऽनेकस्याः प्रदेशपलेर्यावत् मायामः तावन्मात्रं द्रव्याकुलम् । तस्य दृष्यालस्य असंख्यातखण्ड कृत्वा तत्रैकखनाम् अकुलासंख्यातभागम् । खादरनामकर्मोदयादादराः, लक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, वादराच सूक्ष्माच सादरसूक्ष्मा, पृथिवीकायिकादयः। शेषाः कायाः, पृथिवीकायापकायतेजस्कायवायुकामाः, कृष्लेन सुनु महरवेन विशेषेण द्रव्याकुलस्यासंख्यातभागमात्रशरीराः । सर्वेऽपि वादरकायाः पृथिवीकायिकादिवायुकायान्ता द्रश्यात लासंख्यातभागशरीरोत्सेधाः। सूक्ष्माश्च किंचित् हीनमात्रशरीरा बदन्ते। मनुष्याश्च उसमभोगभूमिजाः निगम्यूतिशरीरोत्सेधाः ॥ तथा गोम्मउसारे सूक्ष्मवावराणां पर्याप्तपर्याप्ताहीनां च अघन्योत्कृष्टमेदेन बहुधा मेदोऽस्ति तंत्र शातभ्यः। प्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु परम पद्मं कमलम् उत्कृष्टमानयुक्तं साधिकसइनयोजनप्रमितं जानीहि ॥१६॥ वारस-ओयण-संखो कोस-तियं गोभियों समुहिट्ठा । भमरो जोयणमेग' सहस्स समुच्छिमो मच्छो ॥१७॥ [छाया-द्वादशयोजनः शङ्खः कोशत्रिक गोभिका समुरिष्टा । अमरः योजनमेकं सहस्र समूछिमः मरस्यः ॥ ] द्वीन्द्रियेषु शंखः द्वादशयोजनामा १६, चतुर्भो भन्मुख योजनाका है। मानियेषु गोभिका, प्रेमिका कर्ण. ख्यातवें भाग है । और कमलकी उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है ॥ भावार्थएकेन्द्रिय चतुष्क अर्थात् पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों से प्रत्येक के शरीरकी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना धनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है । बसुनन्दि श्रावकाचारमें भी एक गाथाके द्वारा इसी बातको कहा है जिसका अर्थ इस प्रकार है-'अंगुलसे द्रव्यांगुल लेना, जो आठ यव मध्यका लिखा है। उस अंगुल प्रमाण क्षेत्रमें आकाशके जितने प्रदेश आयें उन प्रदेशोंसे बनी अनेक प्रदेशपंक्तीयोंकी जितनी लम्बाई हो उतना द्रव्यांगुल होता है 1 उस द्रव्यांगुलके असंख्यात खण्ड करो । उसमेंसे एक खण्डको मुलका असंख्यातवां भाग कहते हैं । जिन जीवोंके बादर नामकर्मका उदय होता है उन्हें बादर कहते हैं और जिन जीवोंके सूक्ष्म नामकर्मका उदय होता है उन्हें सूक्ष्म कहते हैं । जितने भी बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव हैं उनके शरीरकी उत्कृष्ट ऊँचाई द्रव्यांगुलके असंख्यातवें भाग है । किन्तु बादर जीवोंसे सूक्ष्म जीवोंकी ऊँचाई कुछ कम होती है । तथा उत्तम भोगभूमिया मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई तीन कोस होती है। तथा गोम्मटसारमें सूक्ष्म बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त वगैरह जीवोंके जधन्य और उत्कृष्टके मेदसे बहुससे अवगाहनाके मेद बतलाये हैं सो वहाँसे जान लेना। यह तो हुआ एकेन्द्रिय चतुष्ककी अवगाहना का प्रमाण । और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंमें कमलकी उत्कृष्ट अषगाइनाका प्रमाण कुछ अधिक एक हजार योजन जानना चाहिये ।। १६६ ॥ अर्थ-दो इन्द्रियोंमें शंखकी उस्कृष्ट अवगाहना बारह योजना है। तेइन्द्रियों में गोभिका (कानखजूरा) की उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस है । चौइन्द्रियोंमें भ्रमरकी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन है । और पश्चन्द्रियों में १५ जोरण । २कोस । ३ खमसग गुम्भिया ।४ ब जोइणमेक। ५ग सहस्सम सहस्सा। लिमसग समुच्छिदो Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६७] १०. लोकानुप्रेक्षा श्चिक इत्यर्थः, कोशभिकायामा । समुद्दिष्टा। चतुरिन्द्रियेषु अमरः एकयोजनायामः १, तद्विस्तारस्तु कोशत्रिकः३, वेधस्तु द्विकोशमात्र पन्द्रियेषु नाय. नमुना एखापाम: ..., पञ्चशसयोजन विस्तारः ५००, सार्धद्विशतयोजनोत्सेधः २५.। एतत्समुत्कृष्ठमानं जानीहि। तथा गोम्मटसारे प्रोकं । 'साहियसहस्समेकं वारे कोसूणमेकमेय। जोयणसहस्सहीहं पलमे विषले महामच्छे।।' एकेन्द्रियेषु खयम्भरमणद्वीपवर्तिस्वयंप्रभावलापरभागस्थिसक्षेत्रोत्पमपने साधिकसहनयोजनाया मैफयोजनण्यासोरकष्टावगाहो भवति। अस्य च ध्यासः योजन १, त्रिगुणः १३ परिधिः, अयं च म्यासचतुर्या । इतः १।३। क्षेत्रफलम् । तर वेधेन यो १००. चतुर्भिरपवर्तितेन गुणिस योजनात्मक खातफलं भवति ५५० ॥ द्वीन्द्रियेषु तरखयम्भूरमगवर्तिशंखे द्वादशयोजनामामशेजनपवचतुर्थोऽशोस्सेषः चतुर्योजनमुखभ्यासोत्कृषगाहो भवति । अस्य च व्यासः यो १२ तावाणितो 1४४, बदन ,दल २, मनो १४२, मुखावर्ग ४ युतः १४६, द्विगुणः २९२, चतुर्विभकः ७३, पबगुणः ३६५ शंखखातफलम् ॥ श्रीन्द्रियेषु स्वयम्भूरमणद्वीयापरभागवर्तिकर्मभूमिप्रतिवनक्षेत्र रधिकीचे योजनत्रिचतुर्भाग्गयामः ३, तदष्टमांशम्पासा, तदर्घोत्सेधः ३ उस्कृष्ठावगाहोऽस्ति, अस्य च भुजकोदिवधात् प्रजायते क्षेत्रफलं ३ । ३ तब वेषगुणं ।।३।। ४३२ घनफलं भवति १५ ॥ चतुरिन्द्रियेषु खयम्भरमगद्वीपापरभागकर्मभूमिप्रतिबद्धक्षेत्रवर्तिममरे एकयोजनायामः१, तस्त्रि ८११२ चतुर्भागण्यासः अर्घयोजनोत्सेधः - उत्कृष्टावगाहोऽस्ति । अस्य च भुजकोटीयादिनानीतं घनफूल योजनयष्टमभागो भवति ।। पश्चेन्द्रियेषु लयम्भूरमणसमुत्रमध्यवर्तिमहामत्स्ये सहनयोजनायाम: १.०० पशतयोजनव्यासः५००, पञ्चाशदद्विशतयोजनोस्सेधः २५. उत्कटायगाहोऽस्ति । अस्य च भुजकोटीत्यादिनानीतधनफल १२५०..... महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाइना एक हजार योजन है || भावार्थ-दो इन्द्रियोंमें शंखकी लम्बाई बारह योजन है। चार योजनका उसका मुख है और सवा योजन ऊँचाई है.। तेइन्द्रियोंमें गोभिका अर्थात् कानखजूराकी लम्बाई तीन कोस बसलाई है । चौइन्द्रियोंमें भौरा एक योजन लम्बा है, उसका विस्तार तीन कोस है और ऊँचाई दो कोस है । पञ्चेन्द्रियोंमें मत्स्य, जो कि सम्मूर्छन है, एक हजार योजन लम्बा है, पाँच सौ योजन चौड़ा है और अढाई सौ योजन ऊँचा है। यह सब उत्कृष्ट प्रमाणं है । गोम्म सारमें भी कहा है-'स्वयंभूरमणके द्वीपके मध्यमें जो वयंप्रभ नामका पर्वत है उसके उधर कर्मभूमि है । वहाँ पर एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट अवगाहनावाला कुछ अधिक एक हजार योजनका लम्बा और एक योजन चौका कमल है । उसका क्षेत्रफल इस प्रकार है-कमल गोल है । गोल वस्तु का क्षेत्रफल निकालनेका कायदा यह है-'व्याससे तिगुनी परिधि होती है । परिधिको ब्यासके चौथाई भागसे गुणा करनेपर क्षेत्रफल होता है । और क्षेत्रफलको ऊँचाईसे गुणा करनेपर खात क्षेत्रफल होता है । सो कमल का व्यास एक योजन है । उसको तिगुना करनेसे तीन योजन उसकी परिधि होती है । इस परिधिको व्यासके चौथे भाग पाव योजनसे गुणा करनेपर क्षेत्रफल पौन योजन होता है । उसको कमलकी लम्बाई एक हजार योजनमें गुणाकरनेपर ४१००० = ७५० योजन कमलका क्षेत्रफल होता है । तया दो इन्द्रियों में उत्कृष्ट अवगाहनवाला उसी स्वयंभूरमण समुदमें बारह योजन लम्बा, सवा योजन ऊँचा और चार योजन का मुख वाला शंख है । इसका क्षेत्रफल निकालनेका नियम इस प्रकार है-व्यासको व्याससे गुणित करके उसमें मुखका आधा प्रमाण घटाओ। फिर उसमें मुखके आधे प्रमाणके वर्गको जोड़ो । उसका दूना करो। फिर उसे चारका भाग दो और पाँचसे गुणाकरो। ऐसा करनेसे शंखका क्षेत्रफल निकल आता है | सो यहाँ व्यास बारह योजनको बारह योजनसे गुणाकरो Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --.-. १०८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १६८सार्धवादशकोरियोजनमात्रं भवति । एतान्युक्तपनफलानि प्रदेशीकृतानि तदेकेन्द्रियस्य चतुम्सख्यालगुपितषणाकुलमात्र ६0000द्वीन्द्रियस्य त्रिसंख्यातगुणितघनाकुलमात्र । श्रीन्द्रियस्सैकसंख्यातगुणितपना समात्र ६। चतुरित्रियस्य धिसंख्यातगुपितषनाइलमात्र ६00 पथेन्द्रियस्य पञ्चसंख्यातगुणितघनाइलमात्र0000 ॥ १६॥ अथ नारका देहोस्सैधमाह पंच-सया-धण-छेदी सत्तम-गरए हवंति णारइयाँ । तत्तो उस्सेहेण य अद्धद्धा होति उवरुवरि ॥१६८॥ [छाया-पञ्चशतधनत्सेधाः सप्तमनरके भवन्ति नारकाः। ततः उत्सेधेन च अर्धार्धाः भवन्ति उपर्युपरि ॥1 सममे नरके माधष्याम् उत्कृष्टतो नारका पञ्चशतधन शरीरोत्सेधाः भवन्ति ५०० । ततः सप्तमनरकात् उपर्युपार एकसौ चवालीस हुए। उसमें मुख ४ का आधा २ घटानेसे १४२ रहे । उसमें मुखके आधा प्रमाण २ के वर्ग चारको जोड़नेसे एकसौ छियालीस हुए । उसका दूना करनेसे २९२ हुए। उसमें ४ का भाग देनेमे ७३ हुए । ७३ में पाँचको गुणा करनेसे तीन सौ पैंसठ योजन शंखका क्षेत्रफल होता है । तेइन्द्रियों में उत्कृष्ट अवगाहनावाला, उसी स्वयंभूरमण द्वीपके परले भागमें जो कर्म भूमि है वहाँ पर लाल बिच्छु है । वह बोजन लम्बा, और लम्बाईके आठवें भाग चौड़ा और चौड़ाई से आधा ऊँचा है । यह क्षेत्र लम्बाईकी लिये हुए चौकोर है । इस लिये लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाईको गुणा करनेसे क्षेत्रहल निकलता है । सो यहाँ लम्बाई १ को चौड़ाई ३३ से गुणा करनेपर ट हुआ इसको ऊँचाई १२ से गुणा करनेपर २४ = ३५३ योजन धन क्षेत्रफल होता है | चौइन्द्रियोंमें स्कृष्ट अवगाहनावाला उसी स्वयंभूरमणद्वीप सम्बन्धी कर्मभूमिमें भौरा है। वह एक योजन लम्बा, यौन योजन चौड़ा और आधा योजन ऊंचा है । सो तीनोंको गुणाकरनेसे १४:४३ = योजन धन क्षेत्रफल होता है । पञ्चेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट अत्रगाहनावराला स्वयंभूरमण समुद्रका महामत्स्य है । वह एक हजार योजन लम्बा, पांचमी योजन चौड़ा और दो सौ पचास योजन ऊँचा है | मो इन तीनोंको परसारमें गुणा करने से १०००-५००४२५०= सादे बारह करोड़ योजन धनक्षेत्रफर होता है । इन योजनरूप घनफलोंको यदि प्रदेशोंके प्रमाणकी दृष्टिसे आंका जाये नो धनांगुरको चार वार संख्यातसे गुणा करने पर जितना परिमाण होता है उतने प्रदेश एकेन्द्रिय कमन्टन्की उत्कृष्ट अवगाहनाके होते हैं । इसी तरह घनांगुलको तीन बार संख्यातसे गुणा करनेपर जितना प्रदेशोंका प्रमाण हो उतने प्रदेश दो इन्द्रियको उत्कृष्ट अवगाहनामें होते है। घनांगुलको एक बार संख्यातने गुणा करनेपर जितना प्रदेशोंका परिमाण हो उतने प्रदेश तेइन्द्रियकी उत्कृष्ट अवगाहनाम होने हैं। धनांगुरको दो बार संख्यातसे गुणा करनेपर जितना प्रदेशोंका परिमाण हो उतने प्रदेश -ौन्द्रियकी उत्कृष्ट अवगाहनामें होते हैं । और घनांगुलको पांचवार संख्यान गुणाकरने पर जितना प्रदशोंका परिमाण हो उतने प्रदेश पंचेन्दियकी उत्कृष्ट अवगाहनाम होते हैं ।। १६७ || अब नारकियोंके शगैरकी ऊंचाई कहते हैं । अर्थ-सातवें नरकमें नारकियोंका शरीर पांचनी धनुष उंचा है । उससे ऊपर ऊपर देहकी ऊंचाई आधी आधी है ।। भावार्थ-माघी नामक गाना नरकम नारकी जीयोंके शरीरकी ऊंचाई अधिकसे अधिक पांचसो बरंचसोश (१)। म गलया। बहुति । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६८] १०. लोकानुप्रेक्षा १०९ षष्ठादिनरकेषु शरीरोत्सेवेन अर्थार्धमानाः भवन्ति । तत्र षष्ठे नरके मघव्यां नारकाः साद्विशतचापोत्तमाः स्युः २५० पञ्चमे नरके रिष्टायां पश्वविंशत्यधिकशतशरासनोत्सेधशरीराः नारकाः भवन्ति १२५ । चतुर्थे नरके अशनाय सार्धपष्टिचा पोत्तुङ्गाः नारकाः सन्ति १३५ तृतीयनरके मेघायां सपादैकत्रिंशश्रापोत्सेधशरीराः नारकाः, धनुः ३१ इस १ । द्वितीये नरके वंशाय सार्धपापा द्वादशाङ्गुलाधिकाः शरीरोन्तुना नारकाः स्युः, धनु १५, हस्त २, अकुल १२ । प्रथमे नरके साधु नारा अवधि, धनुः ७, दस्ताः ३, भकुलाः ६ ॥ तथा त्रैलोक्यसारे पटलं प्रति नारकाणां शरीरोत्सेधः । उतं च "पढमे सप्त ति उदयं धणु स्यणि अंगुलं सेसे । गुणक्रमं परियमितियं आण द्वाणिचयं ॥" प्रथमपृथिव्याश्वरमपटले सप्त ७त्रि ३ षठ्ठे ६ उदयः धनुरन्येगुलानि । द्वितीयाविपृथिन्याश्वरमपदले द्विगुणकम् । प्रथम पृथिव्याः प्रथमेन्द्र के इस्तत्रियम् । एतद्धृत्वा हानिचर्य जानीहि । बावी अंतविसेसे रूकणद्धा हिदम्हि हाणिवयं प्रथमे नरके हानिचयं ख २, अकुल ८ भाग १, द्वितीये हस्त २ अङ्गुलः २० भाग, तृतीये दण्ड १ इस २ अङ्गुल २२ भाग चतुर्थे दण्ड ४ १ अकुल २० भाग पचमे दण्ड १२ व २ षछेद ४१ हस्त २ अङ्गुल १६, सप्तमे दण्ड २५० । इति हानिचयम् ॥ प्रथमनर के पटनं २ प्रति नारकाणां देहोत्सेधः । १५०, ६० ह ३ अं० मा ० २५०, ६१ ६ १ ८ मा ३ | ३० दं १६३ १७ मा ०। ४० १ इ २ १ मा ५१०, ३६ ० अ १० भा३ । ६ ५०, ३६२ १८ मा ३ । ७प०, ९५०, ६ ५ ई ४ ६ १ ३ भा० । ८ प०, ४३ अं ११ । ४ भा३।११ ५० ६ ६ ६२ अं १३ मा १२० ७ ६ भा० ॥ द्वितीयनरके पटलं २ प्रति नारकाणां वेद्दोत्सेधः । १प०, २२ मा ४३५०, ९६३ ५० ६ ११६ १ १० मा १६ । ६ १०, १२ ६० ६ १ ९ १८ मा ११ १ अं २० भा० । १० प०, ० अ २१ मा ३ । १३१० ६ ७ ८ इ २ अं २ मा १२१० ४५०, ६ १० ६ २ अं १४ मा ६ । ७१० १२ ६ ३ ३ भा ७ मा धनुष होती है। और सातवें नरकसे ऊपर ऊपर शरीरकी ऊँचाई आधी आधी होती जाती है। अतः मघवी नामक छठे नरकमें शरीरकी ऊँचाई अदाईसौ धनुष है। अरिष्टा नामके पांचवे नरकमें शरीर की ऊंचाई एकसो पचीस धनुष है। अंजना नामक चौथे नरकमें सादे बासठ धनुष है । मेघा नामके तीसरे नरकमें नारकियोंके शरीर की ऊंचाई सवा इकतीस धनुष है। वंशा नामके दूसरे नरक में नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई १५ धनुष, २ हाथ, १२ अंगुल है। और धर्मा नामके प्रथम नरक में नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई ७ धनुष, ३ हाथ, ६ अंगुल है । त्रिलोकसार नामक ग्रन्थ में प्रत्येक पटल में नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई बतलाई है जो इस प्रकार है-प्रथम नरकके अन्तिम पटलमें ७ धनुष, ३ हाथ, ६ मंगुल ऊंचाई है। दूसरे आदि नरकोंके अन्तिम पलमें दूनी दूनी ऊंचाई पटलोंमें हानि वृद्धि जाननेके है । तथा प्रथम नरकके प्रथम पटलमें तीन हाथ ऊंचाई है। आगे लिये अन्तिम पटलकी ऊंचाईमें प्रथम पटलकी ऊंचाई घटाकर जो शेष रहे उसमें प्रथम नरकके पटलोंकी संख्या में एक कम करके उसका भाग दे देना चाहिये । सो ७-३-६ में ३ दाथको घटानेसे ७ धनु, ६ मं० शेष बचते हैं। इसमें प्रथम नरकके कुल पटल १३ में एक कम करके १२ का भाग देने से २ हाथ, ८३ अंगुल हानि वृद्धिका प्रमाण आता है । अर्थात् प्रथम नरकके दूसरे आदि पटलोंमें शरीर की ऊंचाई २ हाथ, ८३ अंगुल बढती जाती हैं। इसी तरह दूसरे नरकके अन्तिम पटलमें शरीर की ऊंचाई १५ धनुष, २ हाथ, बारह अंगुल है । इसमेंसे प्रथम नरकके अन्तिम पटल में जो शरीरकी ऊंचाई है उसे घटानेसे ७ धनुष, ३ हाथ, ६ अंगुल शेष रहते हैं । इसमें दूसरे नरक पटलोंकी संख्या ११ का भाग देनेसे वृद्धि हानिका प्रमाण २ हाथ २० I अंगुल आता Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १६९३।८ प०, १३६१ अं २३ भा १।९ प०, १४. १९ भा५। १. प०, दे १४ ६३ अं १५ मा । ११ प०, दै १५४ २ अं१२ भा . || तृतीयनरके पटल प्रति नारकाण देहोत्सेधः। १ प.. दं १५ १ अ १. भा ।२ प०, दै १९ ह , अं १ मा ।। ३ ५०, द २०, ह ३, में भा० । ४५०, दै २२ ह २ अं ६ भा । ५५०, २४ ४१ अं५ भा ६१०, २६ है. अं४ भा०।७१०, २७ ४ ३ ॐ २ भा३।८०, दै २९ है २ अंभा । ९५०, दं ३१६१ अं० मा ।। चतुर्थनरके पटल प्रति नाराणा देहोत्सेधः । १ प०,दं ३५ ह २ २. भा २ प.,दै ४. . *१७ भा ।।३५०, ४४ हुअंभा ४५०,६४५६. अं. भा५१०, ५३४ २ अंभाई। प०, ५८ ६. अं३ भा ।७५०, ६२ ह २ अं. भा. ॥ पञ्चमनरके पटल प्रति नारकाण देहोत्सेधः । १ प०, ७५ ह. अ. भा। २५०, ८५ ह२ अं० भा०।६ प०, १०० ६० अं० भा० । ४ ५०, ११२ हर अं०भा०। ५५०,दं १२५ ह. भा०॥ षटनरके पटलं प्रति नारकाणां देहोत्सेधः । ११०,द. १६६ ह२ अं १६ भा०।२५०,२०८११८ भा० । ३ ५०, दं २५० ह. अ. भा.सप्तमे नरके पटल प्रति नारकाणां देहोत्सेधः । १५०, ५.. ह. अ. भा. ॥ १६८ ॥ असुराणं पणवीस सेसं-पव-भावणा य दह-दंडं । वितर-देवाण तहा जोइसिया सत्त-धणु-देहा ॥१६९। [छाया-अमुराणा पञ्चविंशतिः शेषाः नयभाषनाः च दशदण्डाः । भ्यन्तरदेवानां तथा ज्योतिष्काः सप्तधनुर्वेदाः ।।] असुरकुमाराणा प्रथमकुलानां देहोदयः पञ्चविंशतिधषि २५ । सेस-व-भारणा, शेषनवभावनाच नवभवनवासिनो देवाः नवकुलमेदाः। नागकुमार विद्युत्कुमार २ सुपर्णकुमार ३ अभिकुमार ४ वातकुमार ५ स्खनितकुमार ६ उद. विकुमार द्वीपकुमार 4 दिकुमार देवाः ९ नवप्रकारा दशदण्डशरीरोत्सेधा भवन्ति १ । बितरदेवाण व्यन्तरदेवानां किभर १ किंपुरुष २ महोरग ३ गन्धर्व ४ यक्ष ५ राक्षस ६ भूत पिशाचानाम् ८ अष्टप्रकाराण तथा तेनैव है । सो दूसरे नरकके प्रत्येक पटलमें नीचे नीचे इतनी ऊंचाई बढ़ती गई है। तीसरे नरकके अन्तिम पटलमें शरीरकी ऊँचाई ३१ धनुष १ हाथमेंसे दूसरे नरकके अन्तिम पटलकी ऊंचाई १५ धनुष, २ हाथ बारह अंगुटको कम कर देनेसे १५ धनुष, २ हाथ, बारह अंगुल शेष रहते हैं । इसमें पटलोंकी संख्या ९ का भाग देनेसे १ धनुष, २ हाथ २२९ अंगुल हानि वृद्धिका प्रमाण आता है। सो तीसरे नरकके प्रत्येक पटलमें इतनी ऊंचाई नीचे नीचे बढ़ती जाती है। इसी तरह चौथे नरक के प्रत्येक पटलमें हानि वृद्धिका प्रमाण ४ धनुष, १ हाथ २०४ अंगुल है । पांचवे में १२ धनुष, २ हाथ है। और छठे में ४१ धनुष, २ हाथ, १६ अंगुल है । सातवें नरकमें तो एक ही पटल है अतः छठे नरकके अन्तिम पटलमें शरीरकी उचाई २५० धनुषमें २५० की वृद्धि होनेसे सातवें नरककी ऊंचाई आजाती है । इस प्रकार प्रत्येक नरकके प्रत्येक पटल में शरीरकी ऊंचाई जाननी चाहिये । जैसा कि ऊपर दिये नकशेसे स्पष्ट होता है || १६८ ॥ अब देवोंके शरीरकी ऊंचाई बतलाते हैं । अर्थ-भवनवासियोंमें असुरकुमारोंके शरीरकी ऊंचाई पच्चीस धनुष है और शेष नौ कुमारोंकी दस धनुष है । तथा व्यन्तर देवोंके शरीरकी ऊंचाई भी दस धनुष है, और ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊंचाई सात धनुष है । भावार्थ-भवनवासियोंके प्रथम भेद असुरकुमारों के शरीरकी ऊंचाई पच्चीस धनुष है । और शेष नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार इन नौ प्रकारके भवनवासी देवोंके शरीर गोयसिया। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -१७०] १०. लोकानुप्रेक्षा प्रकारेण शरीरं दशदण्डोश्यत्वं १० भवति । ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रप्रहनक्षत्रतारकाः पञ्चविधा ज्योतिष्मदेवाः सप्तधनुर्देहाः सप्तथरासनोत्सेधदेहा भवन्ति ।। १६५॥ वर्गवेयकादिदेवानां बेहोदयमाह दुग-दुग-च-चदु-दुग-दुग-कप्प-सुराणं सरीर-परिमाणं । ससच्छे-पंच-हत्था चाउरो अखडू-हीणा य ॥ १७ ॥ [छाया-द्विकद्विकचतुश्चतुर्तिकहिककल्पसुराणां शरीरपरिमाणम् । सप्तषट्पञ्चहस्ताः चत्वारः अर्धाहीनाः च ॥] विकनिकचतुश्चदकिद्विककल्पसुराणा प्रथमयुगल २ विवीययुगल २ तृतीयचतुर्थयुगल ४ पञ्चमषष्ठयुगल ४ सप्तम २ अष्टमयुगळ २ निवासिदेवानां शरीरप्रमाणं देहोदय यथाक्रम सप्त, षट् ६, पश्च ५, चत्वारो इस्ता ४, अधिद्दीनाब है,३1 तथा सौधर्मशानयोः देवाः सप्तहलोत्सेधशरीराः ७, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोदेवाः पर हस्तोदय देहाः इब्राझोतरलान्तयकापिष्ठेषु चतुपु देवाः पचहतोत्सेधारीराः ५, शुक्रमहाशुकशतारसहन्नारकरुपेषु चतूर्षु चतुः करोदयशरीराः ४ । ततश्च अाधहस्तहीनक्रमाः। आनताणतयोः सुराः सार्धत्रिस्वोदयशरीरा भवन्ति । तथा त्रैलोक्यसारे एममायुकं च । "दुसु सु यदु तुसु दुसु चदु सिसिसु सेसेसु देहस्सेहो। रयणीण साल छप्पण चतार दलेण होणकमा ।' द्वयोईयो २ चतुर्यु ४ योयो २ चतुर्ष वित्रिषु । शेषे १४ विति दशसु स्थानेषु देहोत्सेधो यथासंभव सप्त ७ पद' पश्च ५ चत्वारो ४ रमयः । ततः उपर्यघेहस्तहीनक्रमो शातल्याः । सौ. ई. ह. ५, स. मा. ६, प्र.अ. लो. का. इ. ५, शु. म. इ. ४,सतारसइ.३, आ. प्रा. आ. अच्यु.६,प्र०त्रि,द्वि. त्रि.२,त. त्रि. नवानुदिशपश्चा. नुत्तरदेवशरीराः, हस्त ॥१७. || RRB-12 sajanand ... की ऊंचाई दस धनुष है । तथा किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच इन आठ प्रकारके ब्यन्तर देवोंके शरीरकी ऊंचाई भी दस धनुष है । सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे इन पांच प्रकारके ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊंचाई सात धनुष है ॥ १६९॥ अब वैमानिक देवोंके शरीरकी ऊंचाई कहते हैं । अर्थ-दो, दो, चार, चार, दो, दो कल्पोंके निवासी देवोंके शरीरकी ऊंचाई कमसे सात हाथ, छः हाथ, पाँच हाथ, चार हाथ और फिर आधा आधा हाथ हीन है। भावार्थ-प्रथमयुगल, द्वितीययुगल, तृतीय और चतुर्थ युगल, पश्चम और छठे युगल, सातवें युगल, और आठवें युगलके निवासी देवोंके शरीरकी ऊंचाई क्रमसे सात हाथ, छ: हाय, पांच हाय, चार हाथ और आधा आधा हाथ हीन है । अर्थात् सौधर्म और ऐशान वर्गके देवोंका शरीर सात हाय ऊंचा है । सनत्कुमार और माहेन्द्र खर्गके देवोंका शरीर छ: हाय ऊंचा है | ब्रह्म,ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गमें देवोंका शरीर पांच हाथ ऊंचा है। शुक्र.महाशुक्र, शतार और सहस्रार खर्गमें देवोंका शरीर चार हाय ऊंचा है । आनत प्राणतमें ३॥ हाथका ऊंचा शरीर है और आरण अध्युतमै तीन हाथका ऊंचा शरीर है । त्रिलोकसारमें भी इसी प्रकार (थोड़े मेदसे ) देवोंके शरीरकी ऊंचाई बतलाते हुए लिखा है-दो, दो, चार, दो, दो, चार, सीन, तीन, तीन, और शेषमें शरीरकी ऊंचाई क्रमसे ७ हाथ, छ: हाथ, पांच हाथ, चार हाथ और फिर आधा आधा हाथ कम जानना चाहिये । अर्थात् सौधर्म ईशानमें ७ हाथ, सनत्कुमार माहेन्द्र में छ: हाय, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तक कापिष्टमें पांच हाथ, शुक्र महाशुक्रमे १ हाप, शतार सहस्रारमें ३३ हाथ, आनत प्राणत आरण अच्युतमें ३ हाप, तीन अधोवेयकमें २३ हाथ, तीन मध्यप्रैवेयकमें दो हाथ, तीन उपरिमौवेयकमें १३ हाए और १ग सत्तवपंच [सत्तापंच !! Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १७१हिडिम-मझिम-रवरिम-गेवजे नई विमाण-सदमए । अद्ध-जुदा थे हत्था हीणं अद्धयं उपरि ।। १७१॥ [छाया-धस्तनमध्यमोपरिमप्रवेयके तथा विमान चतुर्दशके । अर्धयुती द्वौ हस्ती हीनम् अर्धार्थकम् उपरि ।] स्मघस्तनमध्यमोपरिमवेयकेषु तथा विमानचतुर्दशेषु अर्धयुक्तद्वौ हस्ती , द्रौ हस्ती, ततः उपरि अर्धाहीनः ।।।। तश्या ! अधोवेयकत्रिकेऽहमिन्द्राणां शरीरोनत्वं सार्धद्विहस्त्रौ, मध्यमवेयकत्रिके अहमिन्द्राणां शरीरोदयः द्वौ हस्ती २, उपरिमप्रैदेयकत्रिके अहमिन्द्रदेवानां हेहोदयः यहखप्रमाणः ।, नवानुदिशपश्चानुत्तरचतुर्दशषिमानेषु एकहत्तोदयशरीरा अहमिन्द्रा भवन्ति ॥ ११॥ अथ भरतराषतक्षेत्रेषु अवसर्पिण्या: षट्कालापेक्षया शरीरोत्सेध साधयति अवसप्पिणीए पढमे काले मणुया ति-कोस-उच्छेहा । छहस्स वि अवसाणे हत्थ-पमाणा विवत्था य ॥ १७२॥ [छाया-अवसर्पिण्याः प्रथमे काले मनुजाः त्रिकोशोत्सेधाः । षष्ठस्य अपि अवसाने हस्तप्रमाणाः विवस्त्राः च ॥] अवसर्पिण्या: प्रथमकाले सुषमसुषमसो मनुष्याः त्रिकोनोस्सेधशरीराः को, ३, तस्यान्ते द्वितीयकालमादी च द्विकोशोदयशरीराः २, सस्यान्ते सुषमषमतृतीयकालस्पादौ च क्रोशोत्सेधवेहाः को. १,तस्यान्ते दुषमसुषमचतुर्थकालस्वादीच पानशतधनुःसमुत्तुलाशा५.., तस्यान्ते दुषमसंज्ञपश्चमकालस्यादौ च समइस्लोजतमनुष्याः, षष्ठकालस्यापि भवसाने अन्ते एकहखप्रमाणोदयाः मनुष्याः १। विवनाश्व वनरहिताः, चकारात् आमरणगृहाविरहिता भवन्ति ॥ १७२।। अथ सर्वजीवानामुत्कृष्टोदय प्रकाश्य जघन्योदयं व्यनषि सष-जहण्णो देहो लद्धि-अपुण्णाण सम्य-जीवाणं । ___अंगुल-असंख-भागो अणेय-भेओ हवे सो वि ॥ १७३ ॥ नौ अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरोंमें १हाथ ऊँचाई है ॥१७०॥ अर्थ-अघोप्रैबेयक, मध्यमवेयक, उपरिमप्रैवेयक तया चौदह विमानोंमें देवोंके शरीरकी ऊंचाई क्रमसे अदाई हाय, दो हाथ, बेड हाय और एक हाथ है || भावार्थ-तीन अधोगवेयकोंमें अहमिन्द्रोंके शरीरकी ऊंचाई अढाई हाय है। तीन मध्यमत्रेयकोंमें अहमिन्द्रदेवोंके शरीरकी ऊंचाई दो हाय है। तीन उपरिम अवेयकोंमें अहमिन्द्र देवोंके शरीरकी ऊँचाई डेढ हाथ है । तथा नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानोंके अहमिन्द्रोंके शरीरकी ऊँचाई एक हाथ है ॥ १७१ ॥ अब भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी कालकी अपेक्षासे मनुष्योंके शरीरफी ऊंचाई कहते हैं । अर्थ-अवसर्पिणीके प्रथम कालमें मनुष्यों के शरीरकी ऊंचाई तीन कोस है । और छठे कालके अन्तमें एक हाथ है । तथा छठे कालके मनुष्य नंगे रहते हैं ।। भावार्थ-अवसर्पिणीके सुधमनुषमा नामक प्रथम कालमें मनुष्योंका शरीर तीन कोस ऊँचा होता है। उसके अन्तमें और सुषमा नामक दूसरे कालके आदिमें दो कोस ऊंचा शरीर होता है । दूसरेके अन्तमें और सुषमदुषमा नामक तीसरे कालके आदिमें एक कोसका ऊंचा शरीर होता है। तीसरेके अन्तमें और दुषमसुषमा नामक चौथे कालके आदिमें ५०० धनुषका ऊंचा शरीर होता है । चौथेके अन्त में और दुषमा नामक पांचवे कालके आदिमें सात हायका उचा शरीर होता है । पांचवेके अन्तमें और दुषमा दुषमा नामक छठे कालके आदिमें दो हाथका ऊंचा शरीर होता है । तथा छठेके अन्तमें मनुष्यों के शरीरकी ऊंचाई एक हाथ होती है । वे नंगे रहते हैं और न उनके घर-द्वार होता है ॥ १७२ ॥ अब सब जीवोंके शरीरकी उत्कृष्ट ऊंचाई बतलाकर जघन्य व गेनजे, म विश्ले । २ [१]. म उनसः । ४ ग सुमसुम'। ५ग दुःखम । म कवियपुष्णाण (1)। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-सर्वजधन्यः देहः लब्ध्यपूर्णानो सर्पजीवानाम् । भालासंख्यभागः अनेकमेदः भवेत् स अपि ॥1 लम्पपयोताना सर्पजीवानाम् एकेन्द्रियदीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियाशिसंज्ञिप्राणीनां सर्पजधन्यो देहो भवति शरीरावमाहः सर्वजपन्यः स्यात् । स कियमान इति चेत्, अंगुलअसंखभागो पनालस्यासंख्यातभागमात्रः। सोऽप्यवगाहः एकप्रकारो अनेकप्रकारो वा इत्युक्त आह । अनेकभेदः मनेकप्रकार: स्यात् । गोम्मटसारे मत्स्य. रचनाया चतुःषष्टिजीसमासाचगाहः घनालस्यासंख्येयभागः अनेकप्रकारः अवलोकनीयः ॥ १३॥ अय द्वीन्त्रियाहीना जघन्यावगाई गाथाद्वयेनाइ वि-ति-घउ-पंचक्खाणं जहण्ण-देहो हवेइ पुण्णाणं । अंगुल-असंख-भागो संख-गुणो सो वि उवरुवार' ॥ १७४॥ [छाया-द्वित्रिचतुःपञ्चाक्षाणां जघन्यवेहः भवति पूर्णानाम् । अङ्गलासंख्यभागः संख्यगुणः स अपि उपर्युपरि ] वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणा द्वीन्द्रियत्रीन्नियचतुरिन्द्रिग्रपञ्चेन्द्रियजीवानाम् । कर्थभूतानाम् ! पूर्णानां पर्याप्तकाना, जपन्यदेहः जघन्यशरीरावगाहः, भालासंख्यातभागः । घनाकुलस्यासंख्यातभागमाशोऽपि उपर्युपरि सोऽपि तत्संख्यातगुणो भवति । द्वीन्द्रियादिपर्यासकस्प जघन्याचगाहः ॥त्री. प. ज. , च.प. ज. प. प. ज.. . । अपर्याप्तद्वीन्द्रियाशीनाम् उत्कृतशरीरावगाहः जघन्यतः किंचिकिचिदधिककमो ज्ञातव्यः ॥ १७४ । पूर्वचितपर्याप्तकदीन्द्रियादीन खामिनिर्देशमाइ अणुरीयं कुथो' मच्छी काणा य सालिसित्थो य। पज्जत्ताण तसाणं जहण्ण-देहो विणिहिट्ठो ॥ १७५ ॥ ऊंचाई बतलाते हैं । अर्थ-लन्थ्यपर्याप्तक सब जीनोक' सबसे जन्य सरीजा है, जो कार असंख्यातवें भाग है । तथा उसके मी अनेक मेद है ।। भावार्थ-लन्यपर्याप्तक एकेन्द्रिय, लब्ध्यपर्यासक दोइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक तेइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक चौइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और लब्ध्यपर्याप्तक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंका शरीर सबसे जघन्य होता है । उसकी अवगाहना धनांगुल के असंख्यातवें भाग होती है । किन्तु उसमें भी अनेक भेद हैं । गोम्मटसार जीवकण्डके जीवसमास अधिकारमें मत्स्यरचनाका कथन करते हुए चौसठ जीवसमासोंकी अवगाहना घनांगुलके असंख्यात भाग बतलाई है और उसके अनेक अवान्तर भेद बतलाये हैं। सो वहांसे जानलेना चाहिये ॥ १७३ ।। अब दोइन्द्रिय आदि जीवोंकी जघन्य अबगाइना दो गाथाओंसे कहते हैं। अर्थ-दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्यास्त जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग है । सो मी ऊपर ऊपर संख्यातगुणी है | भावार्थ-दोइन्द्रिय पर्याप्त, तेइन्द्रिय पर्याप्त, चौइन्द्रिय पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शरीरकी जघन्य अवगाहना यमपि सामान्यसे घनांगुलके असंख्यातवें भाग हैं किन्तु ऊपर ऊपर वह संख्यातगुणी संख्यातगुणी होती गई है। अर्थात् दोइन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंड्यातवें भाग है । उससे संख्यात गुणी तेइन्द्रिय पर्याप्तक जीवके शरीरकी अवगाहना है । तेइन्द्रियसे संख्यातगुणी चौइन्द्रिय पर्याप्तक जीवकी अवगाहना है । चौइन्द्रियसे संख्यातगुणी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तककी अनगाहना है । पर्याप्त दो इन्द्रिय आदिके शरीरकी उत्कृष्ट अबगाइना जघन्य अवगाहनासे कुछ अधिक कुछ अधिक --.-.-. -- -- - १ग उवरवरि।२ब अण्णुधरी, कम आणुध०,सार, गमध०। छग पुमच्छामस (). ४ देवप्रमाण । कोय इत्यादि । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १७१[छाया-अनुवरीकः कुन्युः काणमक्षिका च सालिसिक्यः च । पर्याप्ताना प्रसानां जपन्यतः विनिर्दिष्टः ।। पर्याप्तानां प्रसानां पर्यातिप्राप्तानो हौनियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानां जघन्यदेहोदयः जघन्यशरीरावगाहः । भणुरीय वीन्द्रियजन्तु विशेषः । कुन्योरपि सूक्ष्मो जीवः अणुवरी कथ्यते । त्रीन्द्रियः कुन्युनीवः । चतुरिन्द्रियः काणमक्षिका । लोके मिसिनामगेहवानामजीवाः। पञ्चेन्द्रियः शालिशिक्थकास्यो मत्स्य च । एतेषां पर्याप्ताना जघन्यदेहो निर्दिष्टः, चितो बिनरिति शेषः । तथा गोम्मटसारे प्रोकं च। "वितिचपपुण्णजहण अणुवरीकथुकाणमच्छीसु । सित्ययमच्छे दिवंगुलसन संशगुणिदकमा ।" वित्रिचतुःपक्षेन्द्रियपर्याप्तकेषु गवाख्यं अणुवरी थुकाणमक्षिकाधिनयमत्स्यजीवेषु जयन्यावयाहा विविश्वशरीरावस्थप्रदेशप्रमाणे वृन्दालसंख्यातकभागमादिं कृत्वा संश्यातगुणितक्रमेण भवति । वि.प. (अशुद्धरी)/ .000६त्रि.प (कुन्धु)/000६च.प. (अणमक्षिका) । पं. प. (मत्स्य )/०। एषामिदानी व्यासायामोसेपानामुपदेशो नास्तीति घनफलमेवोकम् ॥ गोम्मटसारोक्कसर्वजपन्योस्कृष्टशरीरावगाइनखामिनो निर्दियति । "मुहमणिगोदअपवासयस जादस्स सदियसमयम्मि । मंगुलअसंखभागं जहष्णमुक्कस्सर्थ मके "सक्ष्मनिगोदकमध्यपर्याप्तकस्य स जुगलोत्पलस्य तृतीयसमये पनालासंख्यातकभागमात्रप्रदेशावगाह जाननी चाहिये ॥ १७४ ।। अब पूर्वोक्त जघन्य अवगाहनाके धारी दो इन्द्रिय आदि जीवोंको बतलाते हैं । अर्थ-पर्याप्त बसोंकी जघन्य अवगाहनाके धारी अणुंधरी, कुंथ, काणमक्षिका, और शालिसिक्यक नामक मत्स्य बतलाये हैं | भावार्थ-पर्याप्तक त्रसजीवोंमेंसे दोइन्द्रिय जीवकी जघन्य अवगाहनाका धारी अणुंधरी नामक जन्तुविशेष है, यह नुन्थुसे निगम शोन्द्र जीवकी जघन्य अवगाहनाका धारी कुन्थु जीव है। चौइन्द्रिय जीवकी जघन्य अवगाहनाका धारी काणमक्षिका नामका जीव है जिसे लोग गेरुआ कहते हैं । पश्चेन्द्रिय जीवकी जघन्य अवगाहनाका भारी तन्दुल मत्स्य है । गोम्मटसारमें मी कहा है--पर्याप्त दोइन्द्रियों में अणुंधरी, तेइन्द्रियोंमें कुंथु, चौइन्द्रियोंमें काणमक्षिका, पश्चेन्द्रियोंमें तन्दुल मत्स्स इन जीवोंके जघन्य अवगाहनाके धारी शरीर जितना क्षेत्र रोकते हैं उसके प्रदेशोंका प्रमाण घनांगुलके संख्यातवें भागसे लगाकर क्रमसे संख्यातगुणा २ जानना । अर्थात् चार बार संख्यावका भाग धनांगुलमें देनेसे जो आवे उतना दो इन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाके प्रदेशोंका परिमाण होता है। तीन बार संख्यातका भाग धनांगुलमें देनेसे जो बावे उतना तेइन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाके प्रदेशोंका परिमाण होता है । दो बार संख्यातका भाग घनांगुलमें देनेसे जो आवे उतना चौइन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाके प्रदेशोंका प्रमाण होता है। एक बार संख्यातका भाग धनांगुलमें देनेसे जो आरे उतना पश्चेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाके प्रदेशोंका प्रमाण होता है । आशय यह है कि शरीरकी अवगाहनाका मतलब है कि उस शरीरने कितना क्षेत्र रोका। जो शरीर जितना क्षेत्र रोकता है उस क्षेत्रमें जितने आकाशके प्रदेश होते हैं उतनी ही उस शरीरकी अवगाहना कही जाती है जैसा ऊपर बतलाया है। इन जीवोंके शरीरकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई का कथन नहीं मिलता। इससे इनका घनफल ही कहा है। गोम्मटसारमें सबसे जघन्य और सबसे उत्कृष्ट शरीरंकी अवगाहनाके स्वामी बतलाये हैं सो यहां. बतलाते हैं । उसमें कहा है जो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव उस पर्यायमें ऋजुगतिसे उत्पन्न हुआ हो उसके तीसरे समयमें घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाइना होती है । यह अवगाहना सबसे १गमोमहक गोमब Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा विशिष्टशरीरं सर्वावगाहविकल्पेभ्यो जघन्य भवति। स्वयंभूरमणसमुद्रमभ्यवर्तिमहामास उद्यानगाहेभ्यः सर्वेभ्यः सोक टावगाहविशिष्टशरीरं भवतीति । इति वेहाबगाहप्रमाणं गतम् ॥१७५|| मय जीवस्य कचित्सर्वगतवं देहप्रमाणे पाचष्ठे लोय-पमाणो जीवो देह-पमाणो वि अच्छदे खेते। उग्गाहण-सत्तीदो संहरण-विसप्प-धम्मादो ॥ १७६ ॥ [छाया-लोकप्रमाणः जीवः देहप्रमाणः अपि आस्ते क्षेत्रे। अवगाहनशक्षितः संहरणविसर्पधर्मात् ॥ ] जीवः भारमा मोकप्रमाणः, निचयनयतः लोकाकाशत्रमाणो जीवो भवति । कुतः। जीवस्य लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशमात्रस्वात, केवलिनो दसकपाटपतरलोकपूरणसमुद्भातकाले लोकव्यापकत्वाच । भपिशवात् स्वयं चित्समुत्पन्न केवलज्ञानोस्पत्तिप्रस्ताव मानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापको जीवो भवेद, न च प्रदेवापेक्षया । अपि पुनः, क्षेत्र शारीरे, अच्छये आस्ते सतिष्ठते । व्यवहारनयेन नामकर्मोदयात् अत एव वेहप्रमाणः जीवः । अमन्येन उस्सेधघनाकुमासंख्येवभागप्रमितलमध्यपूर्णसूक्ष्मनिगोदशरीरमात्रः भात्मा। उत्कृष्टन योजनसहनप्रमाणमहायस्पशरीरमात्रो जीवः । मध्यभाषगाइन मध्यमशरीरप्रमाणः प्राणी । अत्रानुमानं देवदशात्मा देवदत्तशरीरे एव । तत्रैव सर्वश्रेवोपालभ्यते तब तत्र सर्वत्रैव तदसाधारणतद्गुणत्वोपलमध्यन्यथानुपपत्तेः । ननु व्यापकत्वं कथमिति चेत्, अवगाहनशक्तिः । सा पति कुतः । सहरणविसर्पणधर्मात् । संहरणं संकोचः विसर्पर्ण विस्तारः स एव धर्मः समावः तस्मात्, शरीरनामकमजनितविखारोपसंहारधर्माभ्यामित्यर्थः । कोऽत्र दृष्टान्तः। यथा प्रदीप उपसंहरणखभाकेन पट्टीधबेदचनादिलघुभावनप्रच्छादितस्तद्धाजनान्तरे प्रकाशयति. विसारेण पीपः भर्तिरमहाविमहाजनप्रच्छादितः तम्राजनान्तर प्राशयति । तथारमा संहरणधर्मेण निगोदादिशरीरमात्रः, विसर्पण[-धर्मेण] मत्स्यादिशरीरमात्रो जायते । तया देवमास्यायविकिवामारणान्तिकतेजसाहार केवलि संशसप्तसमुद्रातपर्जनात् जीवः शरीप्रमाणः । तथया । “मूसरीरमछबिय उत्तरबेहस्त जीवपिंडस्स । जिग्गमण हेहादो हदि समुग्पादयं णाम तीनवेदनानुभवात् मूलशरीरमलत्वा भासप्रदेसाना बहिर्गमनम् , सीतादिपीडिताना रामचन्द्रादीनां रेशाभिरिवे, वेदनासमुद्रातः दृश्यते इति वेदनासमुद्रातः) (तीनमायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घासार्थमात्मप्रवेशाना बहिनिर्गमनं संग्रामे सुमटानारकलोचनादिभिः प्रत्यक्षालमानमिति जघन्य है । तथा स्वयंभूरमण समुद्र में जो महामत्स्य रहता है उसके शरीरकी अवगाहना सबसे उत्कृष्ट होती है । इस प्रकार शरीरकी अवगाहनाके प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ ॥ १७५ ॥ अब जीवको कथंचित् सर्वगत और कथंचित् शरीर प्रमाण बतलाते हैं। अर्थ-अवगाहन शक्तिके कारण जीव लोकप्रमाण है । और संकोच विस्तार धर्मके कारण शरीरप्रमाण मी है । मावार्यनिश्चयनयसे जीव लोकाकाशके बराबर है; क्योंकि जीवके लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेश होते हैं | तथा जब केवली दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्रात करते हैं उस समय जीव समस्त लोकमें व्याप्त हो जाता है । 'अपि' शब्द से जब जीवको केवल ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह लोकालोकको जानता है । अतः व्यवहार नयसे ज्ञानकी अपेक्षा जीव लोकालोको ब्यापक प्रदेशोंकी अपेक्षासे नहीं । तथा नामकर्मके उदयके कारण जीव शरीरमें रहता है अतः व्यवहारनयसे शरीरके बराबर है। जघन्यसे जीव धनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके शरीरके बराबर है । उत्कृष्टसे एक हजार पोजन प्रमाण महामत्स्यके शरीरके बराबर है । और मध्यम अवगाहनाकी अपेक्षा मध्यम शरीरके बराबर है जीव शरीरके बराबर है, इसकी सिद्धि अनुमानसे मी होती है । देवदत्तकी आत्मा देवदरके शरीरमें ही सर्वत्र है; क्योंकि देवदत्तके सर्व शरीरमें ही उसके असाधारण गुण देखे जाते हैं । शाहा-बामा [ओगाइण ?] २ मूले तु सीदादि। ३ मुले तु रामचन्द्रयेद्यमिः' । --. - ..-. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १७६ कामसमुंद्वातः । २ ) ( मूलशरीरमत्यक्त्वा किमपि विकुर्वयितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति विकुर्वणासमुद्रातः स तु विष्णुकुमारादिवस महणा देवानां च भवति । ३ ( मरणान्तसमये मूलशरीरमत्यक्त्वा यत्र कुत्रचित् कदमायुस्तप्रवेशं स्फुटितुम् आत्मप्रवेशानां महिर्गमन मिति मारणान्निपि स्यात् ॥ (खस्य मनो ऽनिष्टजनकं किंचित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्न कोषस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरथुप्रभः पीत्वेन द्वादशयोजन प्रमाणः १२ सूच्य कुलसंख्येयभागो भूलविस्तारः २ नवयोजनाप्रविस्तारः ९ कालाकार உ ger: वामस्कन्धानिर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदयनिहितं विरुद्ध वस्तु भस्मसास्कृल तेनैव संयमिना सह च भस्म व्रजति, द्वौपायभवत् । अस्रावशुभस्तेजः समुद्घातः । ठीकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पञ्चकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेदप्रमाणः दीर्घयो १२ । सू २ वि. यो. ११९ पुरुषो दक्षिणस्कन्धानिर्गत्य Q2. दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फेटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति । भसौ शुभरूपस्तेजः समुद्वातः । "समुत्पलपदपदार्थधान्तेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षेः मूलशरीरमत्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिः एकदस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यानिर्गत्य यंत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्तमध्ये केवलज्ञानिनं पश्यतस्तदर्शनात् च खाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थनिवयं समुत्पाद व्यापक कैसे है ? समाधान क्योंकि उसमें अवगाहन शक्ति है । शङ्का - अवगाहन शक्ति क्यों हैं ? समाधान - शरीर नाम कर्मका उदय होनेसे आत्मामें संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। जैसे दीपकको यदि घड़े घड़िया या सकोरे वगैरह छोटे बर्तनोंसे ढक दिया जाये तो वह अपने संकोच खभावके कारण उसी बर्तनको प्रकाशित करता है । और यदि उसी दीपकको किसी बड़े बरतनसे ढाक दिया जाये या किसी घर कौरइमें रखदिया जाये तो वह फैलकर उसीको प्रकाशित करता है। इसी तरह आत्मा निगोदिया शरीर पानेपर सकुचकर उतना ही होजाता है और महामत्स्य वगैरहका बच्चा शरीर पानेपर फैलकर उतना ही बड़ा होजाता है । तथा वेदना समुद्रात, कषाय समुद्रात, विक्रिया समुद्वात, मारणान्तिक समुद्रात, तैजस समुद्रात, आहारक समुद्धात और केवल समुद्धात इन सात समुद्धातों को छोड़कर जीव अपने शरीरके बराबर है। मूल शरीरको न छोड़कर आरमप्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्रात कहते हैं। तीन कष्टका अनुभव होनेसे मूलशरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलने को वेदना समुद्धात कहते हैं । तीव्र कषायके उदयसे मूल शरीरको न छोड़कर परस्पर में एक दूसरेका घात करनेके लिये आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको कषाय समुद्रात कहते हैं। संग्राम में योद्धा लोग क्रोधमें आकर लाल लाल आँखे करके अपने शत्रुको ताकते हैं यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, यही कषाय समुद्घातका रूप हैं । कोई भी विक्रिया करते समय मूल शरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको विक्रिया समुद्रात कहते हैं । तवोंमें शंका होनेपर उसके निश्चयके लिये या जिनालयोंकी वन्दनाके लिये छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकसे जो पुतला निकलता है और केवली या श्रुतकेवलीके निकट जाकर अथवा जिनालयोंकी वन्दना करके लौटकर पुनः मुनिके शरीर में प्रविष्ट होजाता है वह आहारसमुद्रात है। जब केवल की आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहती हैं और शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति उससे अधिक होती है तो मिना भोगे तीनों कम की स्थिति आयुकर्मके बराबर करनेके लिये दण्ड, कपाट, मचानी, और लोकपूरण रूपमें केवली भगवान्, अपनी आत्माके प्रदेशों को सब लोकमें फैला देते हैं उसे केवळी समुद्रात कहते हैं। इन सात समुद्रातोको छोड़कर जीन अपने शरीरके - ' Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७७ १०. लोकानुप्रेक्षा १९७ यिष्यतः पुनः खस्थान प्रविशति । असावाहारकसमुद्धातः) ६ । सप्तमः फेवलिना दण्डकपाटमन्यानधतरणलोकपूरण: सोऽयं केवलिसमुद्धातः सप्त समुद्धातान् वजेयित्वा जीवः शरीरप्रमाण इत्ययः॥ १७६ ॥ अथ केचन नैयायिकादयः जीवस्य सर्वंगतस्वं प्रतिपादयन्ति, तनिषेधपर सूत्रमाचष्टे सब्ब-गओ जदि जीवो सम्वत्थ वि दुक्ख-सुक्ख-संपत्ती । जाइज ण सा दिट्ठी णिय-तणु-माणो तदो जीवो ॥ १७७ ।। [छाया-सर्वगतः यदि जीवः सर्वत्र अपि दुःखसौख्यसंप्रातिः । जायते न सा दृष्टिः निजतनुमानः ततः जीवः । भो नैयायिकाः, यदि चेत् जीवः, सर्वगतः सर्वव्यापकः, "एक एव हि भूतारमा देहे देहे व्यवस्थितः । एकथा बहुधा नैव दृश्यते जलफुण्डवत् ॥” इति जीवस्य व्यापकत्वम् अङ्गीक्रियते तहि सर्वत्रापि खशरीरेऽपि खप्रदेशवत् परप्रदेशेऽ सखदःखसंपत्तिः सुखदुःखसंप्राप्तिजोयते उत्पद्यते । यथा खशरीरे जीवस्य सुखदुःखावाप्तिः तथा परशरीरेऽपि भवत नाम को दोषः । सा. दिवाण, परशरीरसुखदुःखसंपतिः प्रत्यक्षादिप्रमाणतः दृष्टा न । तदो ततः कारणात (खशरीरखशरीरे मुखदुःखानुभवनात् जीवः निजतनुप्रमाणः खकीयशरीरप्रमाणः खकीयदेहमात्र इत्यर्थः ॥१७॥ नयाथिकाख्यादए: अर्थवतरभतेन शादेन जीवं जानिन निमदन्ति तभिषेधमाह बराबर है । आशय यह है कि समुद्धात दशामें तो आत्मप्रदेश शरीरसे बाहर भी फैले रहते हैं, अतः उस समय जीव अपने शरीरके बराबर नहीं होता । समुद्रात दशाको छोड़कर जीव अपने शरीर के बराबर होता है ।। १७६ ॥ नैयायिक वगैरह जीवको व्यापक मानते हैं । उनका निषेध करनेके लिये गाया कहते हैं । अर्थ-यदि जीव व्यापक है तो इसे सर्वत्र सुखदुःखका अनुभव होना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । अतः जीव अपने शरीरके बराबर है ॥ भावार्थ-हे नैयायिकों । यदि आप जीवको व्यापक मानते हैं; क्यों कि ऐसा कहा है "एक ही आत्मा प्रत्येक शरीरमै वर्तमान है। और यह एक होते हुए भी अनेक रूप दिखाई देता है। जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलाशयोंमें प्रतिविम्बित होनेसे अनेक दिखाई देता है।" तो जैसे जीवको अपने शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका अनुभव होता है वैसे ही पराये शरीरमें होने वाले सुखदुःखका भी अनुभव उसे होना चाहिये । किन्तु यह बात प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे सिद्ध है कि पराये शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका अनुभव जीवको नहीं होता, बल्कि अपने शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका ही अनुभव होता है । अतः जीव अपने शरीरके ही बराबर है | अन्य मोंमें जीवके विषयमें जुदी जुदी मान्यताएँ है। कोई उसे एक मानकर व्यापक मानता है, और कोई उसे अनेक मानकर व्यापक मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक वगैरह जैनोंकी तरह प्रत्येक शरीरमें जुदी जुदी आत्मा मानते हैं, और प्राश्येक मात्माको व्यापक मानते हैं । ब्रह्मवादी एक ही आत्मा मानते हैं और उसे व्यापक मानते हैं। ऊपर टीकाकारने जो चन्द्रमाका दृष्टान्त दिया है वह प्रामवादियोंके मतसे दिया है। जैसे एक चन्द्रमा अनेक जलपात्रों में परछाईके परनेसे अनेक रूप दिखाई देता है वैसे ही एक श्रात्मा अनेक शरीरोंमें व्याप्त होनेसे अनेक प्रतीत होता है । इसपर जैनोंकी यह आपत्ति है कि यदि आत्मा व्यापक और एक है तो सब शरीरोंमें एक ही आत्मा व्यापक दुआ। ऐसी स्थितिमें जैसे हमें अपने शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका अनुभव होता है वैसे ही अन्य शरीरोंमें होनेवाले सुख दुःसका एम मोरन Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० १७८जीवो णाण-सहावो जाह अग्गी उण्हवो' सहावेण । अत्यंतर-भूदेण हि णाणेण ण सो हवे गाणी ॥ १७८ ॥ [छाया-जीवः शानखभावः यथा अग्निः उष्णः खमाक्न । अर्थान्तरभूतेन हि ज्ञानेन न स भवेत् शानी ॥] हिनश्चित कामेरकर जीवात् सर्वथा भिलेन स जीवः हामी भवेत् न । नैयायिकाः गुण प्रणिनोरात्मज्ञानयोजिस्वमाचक्षते । सांख्यास्त आत्मनः सकाशात प्रकृतिमिछाततः बुद्धिर्जायते. प्रतेमहान इति वचनात् । तदपि सर्वमसत् । जीवः शानखभाषः । यथा अग्निः खभाचेन वष्णः, तथा बाल्मा समान ज्ञानमयः ॥ १७८॥ अथ जीवात् सर्वषा शान भिन्न प्रतिपादयतो नैयायिकान् दूषयति-- जदि जीवादो भिण्णं सध्य-पयारेण हवदि तं णाणं । गुण-गुणि-भावो य तहा दूरेण पणस्सदे' दुपहं ॥ १७९ ॥ [छाया-यदि जीवाद मिमं सर्वप्रकारेण भवति तत् शामम् । गुणनिभावः च तथा दूरेण प्रणश्यवे वोः॥] अथ जीवात् आत्मनः सर्वकारेण गुणगुणिभावन जन्यजनकभावेन ज्ञानात्मखमावेन खभावविभावेन पणाण ज्ञाने अनुभव भी हमें होना चाहिये; क्यों कि एक ही आमा सब शरीरोंमें व्याप्त है । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । प्रत्येक प्राणीको अपने ही शरीर में होने वाले सुख दुःखका अनुभव होता है । इस लिये जीवको शरीर प्रमाण मानना ही उचित है ।। १७७ ॥ नैयायिक सांख्य वगैरह आरमासे ज्ञानको भिन्न मानते हैं । और उस भिन्न ज्ञानके सम्बन्धसे आत्माको ज्ञानी कहते हैं । आगे इसका निषेध करते हैं। अर्थ-जैसे अग्नि खभावसे ही उष्ण है वैसे ही जीव ज्ञानस्वभाव है। वह अर्यान्तरभूत ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञानी नहीं है । भावार्थ-नैयायिक गुण और गुणीको भिन्न मानता है । आत्मा गुणी है और ज्ञान गुण है । अतः वह इन दोनोंको भिन्न मानता है । सांख्य मतमें आत्मा और प्रकृति ये दो जुदे जुदे तत्त्व हैं । और प्रकृतिसे बुद्धि उत्पन्न होती है; क्यों कि 'प्रकृतिसे महान् नामका तव पैदा होता है। ऐसा सांख्य मतमें कहा है । इस तरहः ये दोनों मत आत्मासे ज्ञानको मिन्न मानते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि जैसे अग्नि खभावसे ही उष्ण होती है वैसे ही आत्मा मी स्वभावसे ही ज्ञानी है । जिनके प्रदेश जुदे जुदे होते हैं वे भिन्नभिन्न होते हैं। जैसे डण्डाके . प्रदेश जुदे हैं, और देवदत्तके प्रदेश जुदे हैं । अतः वे दोनों अलग २ दो वस्तुएं मानी जाती है । तथा • जब देवदत्त हायमें डण्डा लेता है तो इण्डेके सम्बन्धसे वह दण्डी कहलाने लगता है। इस तरह गुण और गुणीके प्रदेश जुदे जुदे नहीं हैं। जो प्रदेश गुणीके हैं वे ही प्रदेश गुणके हैं। इसीसे गुण हमेशा गुणीवस्तुमें ही पाया जाता है । गुणीको छोड़कर गुण अन्यत्र नहीं पाया जाता । अतः गुणके सम्बन्धसे वस्तु गुणी नहीं है। किन्तु खभावसे ही वैसी है । इसीसे अग्नि खभावसेठी उष्ण है, आत्मा खभावसे ही ज्ञानी है; क्योंकि अग्नि और उष्णकी तथा आत्मा और जानकी सचा खतत्र नहीं है ।। १७८ ॥ आगे आमासे ज्ञानको सर्वथा भिन्न माननेवाले नैयायिकोंके मतमें दूषण देते हैं। अर्थ-यदि जीवसे ज्ञान सर्वथा भिन्न है तो उन दोनोंका गुणगुणीभाव दूरसे ही नष्ट हो जाता है | भावार्थ-यदि जीवसे ज्ञान सर्वथा भिन्न है, अर्थात् मति श्रुत आदिके मेदसे प्रसिद्ध शानमें और आत्मा में न गुणगुणी भाव है, न जन्यजनक भाव है, और न ज्ञान आत्माका खभाव है, १समस उपहजओ। २ गुणिगुणि । ३ मविणस्सरे। ४ प सर्पया प्रकारेण। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. लोकांपेक्षा तत् मतिश्रुतादि मेधेन प्रसिद्ध शान बोधः मि पृथक् भवति यदि चेत्, सदा दोण्ट जीवशानयोः गुणगणिभावः,.शान गुणः जीवः गुणी इति भावः, रेण अस्यर्थ प्रणश्यति । शब्दात् खभावविभावः कार्यकारणभावच गृह्यते, समविन्ध्यवत् । यथा सद्यविध्ययोरत्यन्तभेदिन न घटते तथास्मशानयोरपि ॥ १५ ॥ अष जीवज्ञानयोः गुणगुणिभावन मेद निगवति जीवस्स वि णाणस्स वि गुणि-गुण-भावेण कीरए भेओ। (जं जाणदि तं गाणं एवं भेओ कहं होदि ॥ १८० ।। [छाया-जीवस्य अपिज्ञानस्य अपि गुणिगुणभावेन क्रियते मेदः । यत् जावाति तत् शानम् एवं भेदः कथं भवति ॥ जीवस्यापि शानस्यापि भेदः पृथक्त्वं गुणगुणिभावेन क्रियते । ज्ञान गुणः, भारमा गुणी, सानजीवखमान गुणगुणिनोः कविद्वेदः भिन्नलक्षणस्वात् , घटवषदिति तयोभिवलक्षणत्वं परिणाम विशेषात् शक्किमच्छजिमावतः संशसंख्याविशेषाण कार्यकारणभेदाच पावकोष्णावत् । तथा चोकमष्टसहभ्याम् । “मपवियोरेक्म सबोरष्यतिरेकातःपरिगामधिशेषाच शचिमच्छतिभावतः ॥ संज्ञासंख्याविशेषाश्च खलक्षणविभेदतः । कार्यकारणभेदाच तमानास्वं म सर्वथा ॥" इति ॥ १०॥ अथ ज्ञानं पृळ्यादिभूतविकारमिति वादिनं यावाकं निराकरोति यदि ऐसा मानते हो तो जीव और ज्ञानमें से जीव गुणी है और ज्ञान गुण है यह गुणगुणी भाव एकदम नष्ट होजाता है । जैसे सम और विन्थ्य नामके पर्वतोंमें न गुणगुणी भाव है, न कार्यकारण भाव है, और न खभाव स्वभाववान्पना है । इसलिये वे दोनों असन्त भिन्न हैं । इसी तरह आत्मा और ज्ञानको भी सर्वथा भिन्न माननेसे उनमें गुणगुणीपना नहीं बन सकता ।। १७९ ॥ अब कोई प्रश्न करता है कि यदि आत्मा और ज्ञान जुदे जुदे नहीं हैं तो उनमें गुण गुणीका मेद कैसे है ! इसका उत्तर देते हैं । अर्थ-जीव और ज्ञानमें गुण-गुणी भावकी अपेक्षा भेद किया जाता है। यदि ऐसा न हो तो 'जो जानता है वह ज्ञान है। ऐसा मेद कैसे हो सकता है। भावार्थ-गुणगुणी भावकी अपेक्षा जीव और ज्ञानमें भी भेद किया जाता है कि ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है। क्योंकि जैसे भिन्न लक्षण होनेसे घट और वन भिन्न भिन्न है वैसे ही गुण और गुणी भी भिन्न लक्षणके होनेसे भिन्न भिन्न हैं-गुणका, लक्षण जुदा है और गुणीका लक्षण जुदा है । गुणी परिणामी है और गुण उसका परिणाम है । गुणी शक्तिमान् है और गुण शक्ति है । गुणी कारण है और गुण कार्य है । तथा गुण और गुणीमें नाम भेद है । संख्याकी अपेक्षा भेद है गुणी एक होता है और गुण अनेक होते हैं । जैसे अग्नि गुणी है और उष्ण गुण है । ये दोनों यद्यपि अभिम है फिर मी गुण गुणी भावकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद है। इसी तरह जीव और ज्ञानमें मी जानना चाहिये । आचार्य समन्तभद्रने भी आप्तमीमांसा कारिका ७१-७२ में ऐसा ही कहा है और अष्टसहनीमें उसका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि 'द्रव्य अर्थात् गुणी और पर्याय अर्थात् गुण दोनों एक वस्तु है; क्योंकि वे दोनों अभिन्न हैं फिर भी उन दोनोंमें कथंचित् भेद है । क्योंकि दोनोंका खभाव भिन्न भिन्न है-द्रव्य अनादि अनन्त और एकखभाव होता है और पर्याय सादि सान्त और अनेक खभाषयाली होती है। द्रव्य शक्तिमान होता है और पर्याय उसकी शक्तियां हैं । इज्यकी स्वा द्रव्य है और पर्यायकी संज्ञा पर्याय है । द्रन्यकी संख्या एक होती है और पर्यायोंकी संख्या अनेक गुणिणि, कमलमणि । आदर्श कारिकारण' इति पाठः।. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा गाणं भूय-वियारं जो मण्णदि सो वि भूद-गहिदन्वो । जीवेण विणा गाणं किं केण वि दीखदे' कत्थ ॥ १८९ ॥ [छपानं तनिक भूतगृहीतव्यः । जीवेन विना ज्ञानं किं केन अपि दृश्यते कुत्र ॥ ] rain: शान जीवः । गुणगुणिनोरमेदात, कारणे कार्योपचाराच ज्ञानशब्देन जीवो रयते । भूतविकारं ज्ञानं पृथि तेजोवायुविकारो जीवः मन्यते अशीकरोति । सोऽपि चार्वाकः भूतगृहीतव्यः भूतैः पिशाचादिभिः ग्रहीतव्यः गृथिकल इत्यर्थः + कवि कुत्रापि स्थाने केनापि मनुष्यादिजीयेन आत्मना विना ज्ञानं बोधः किं दृश्यते । अपि पुनः ॥ १८१ ॥ अथ सचेतन प्रत्यक्ष प्रमाणषा दिनं जीवाभाववादिनं च चार्वाकं दूषयति सश्रेयण-पच्चक्खं जो जीवं जेवं मण्णदे' मूढो । सो जीवं ण मुतो जीवाभावं कहं कुणदि ॥ १८२ ॥ [ छाया - सचेतन प्रत्यक्षं यः जीवं नैव मन्यते गूढः । स जीषं न जानन् जीवाभावं कथं करोति ॥ ] यश्चार्यको मूतः जीवमात्मानं नैव मन्यते, जीवो नाखीति कथयतीत्यर्थः । कीदृशं जीवम् । सचेतनं प्रत्यक्षं सत् विद्यमानं चेतन प्रत्यक्ष I १२० [ गा० १८१ होती है । द्रव्यका लक्षण गुणपर्यायवान् है और गुण या पर्यायका लक्षण द्रव्याश्रयी और निर्गुण है । द्रव्यका कार्य एकका और अन्वयपनेका ज्ञान कराना है, और पर्यायका कार्य अनेकत्वका और व्यतिरेकपनेका ज्ञान कराना है | अतः परिणाम, स्वभाव, संज्ञा, संख्या और प्रयोजन आदिका मेद होनेसे द्रव्य और गुण भिन्न हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न नहीं हैं' ॥ १८० ॥ चात्रक ज्ञानको पृथिवी आदि पञ्चभूतका विकार मानता है। आगे उसका निराकरण करते हैं । अर्थ- जो ज्ञानको भूतका विकार मानता है उसे भी भूतोंने जकड़ लिया है; क्योंकि क्या किसीने कहीं जीवके बिना ज्ञान देखा है ॥ भावार्थ-यहां पर ज्ञानशब्दसे जीव लेना चाहिये; क्योंकि गुण और गुणीमें अभेद होनेसे अथवा ज्ञानके कारण जीवमें, कार्य ज्ञानका उपचार करनेले जीवको ज्ञान 'शब्दसे कहा जा सकता है । अतः गाथाका ऐसा अर्थ करना चाहिये जो चार्वाकमतानुयायी जीवको पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका विकार मानता है, उसे भी भूत अर्थात् पिशाचोंने अपने वशमें कर लिया है; क्योंकि किसी भी जगह बिना आत्माके ज्ञान क्या देखा है ? चार्वाक मतमें जीव अथवा आत्मा नामका कोई अलग तत्व नहीं है। पृथिवी, जल, आग और वायुके मेलसे ही चैतन्यकी उत्पत्ति या अभिव्यक्ति होजाती है ऐसा उनका मत है । इसपर जैन का कहना है कि भूतवादी चार्वाक पर अवश्य ही मूत सवार हैं तभी तो यह इस तरह की बात कहता है, क्योंकि जीवका खास गुण ज्ञान है । ज्ञान चैतन्य ही रहता है, पृथिवी आदि भूतोंमें नहीं रहता । अतः जब पृथिवी आदि भूतोंमें चैतन्य अथवा - ज्ञानगुण नहीं पाया जाता तब उनसे चैतन्यकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है; क्योंकि कारणमें जो गुण नहीं होता वह गुण कार्य में मी नहीं होता । इसके सिवा मुर्देके शरीर में पृथिवी आदि भूतोंके रहते हुए भी ज्ञान नहीं पाया जाता । अतः ज्ञान भूतोंका विकार नहीं है ॥ १८९ ॥ केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण माननेवाले और जीवका अभाव कहनेवाले चार्वाकके मतमें पुनः दूषण देते हैं । अर्थ-जो मूढ खसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध जीवको नहीं मानता है वह जीवको बिना जाने जीवका अभाव कैसे करता है ? || भावार्थ -- जो मूढ़ चार्वाक स्वसंवेदन अर्थात् स्वानुभव प्रत्यक्षसे सिद्ध जीवको नहीं मानता १ म स दीसप २ स स णेय, म गय। ३ग भष्णवि । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८४] १०. लोकानुप्रेक्षा स्वसंवेदनप्रस स्वानुभवप्रत्यक्षमिति यावत् । स चार्वाकः जीवमात्मानं आनन् सन् जीवाभावं जीवस्यास्मनः अभावं नास्तिव कहं कथं करोति केन प्रकारेण विदधाति । यो यै न वेत्तिस तस्याभावं कर्तुं न शकतीत्यर्थः ॥१८॥ अप युज्या चार्कि प्रति जीयसका विमावति जदि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख-दुक्खाणि । इंदिय-विसया सन्धे को वा जाणदि बिसेसेण || १८३ ॥ [डाया-यदि न च भवति जीवः तत् कः वेत्ति मुखदुःखे । इन्द्रियविषयाः सर्वे का का जानाति विशेषेण ॥] यदि चेत् जीयो न च भवति तोताह का जीवः सुखदुःखानि ति बानाति । वि पुनः, विशेषेण विशेषतः, सर्वे इन्द्रियविषयाः स्पर्श रस ५ गन्ध २ वर्ण ५ शब्द रूपाः । प्राकृतस्थात् प्रथमा अर्थतस्तु द्वितीया विभक्तिः क्लिोक्यो । नामन्द्रियतिपमान को जानाति से नेटि। मनोभावे प्रत्यक्षकप्रमाणवाविनश्वार्याकस्येन्द्रिय प्रत्यक्ष कथं स्मात् ॥ १८३॥ अपात्मनः सतावे उपपत्तिमाह संकप्प-मओ जीयो सुह-दुक्खमय हवेइ संकप्पो । तं चिय वेददि जीवो देहे मिलिदो वि सम्वत्थ ॥ १८४ ।। और कहता है कि जीव नहीं है । यह चार्वाक जीवको विना जाने कैसे.कहता है कि जीव नहीं है ! क्योंकि जो जिसे नहीं जानता वह उसका अभाव नहीं कर सकता । चावीक केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है। उसके मतानुसार जो वस्तु प्रत्यक्ष अनुभत्रमें आती है केवल वही सत् है और जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता वह असत् है | उसकी इस मान्यताके अनुसार मी जीवका सद्भाब ही सिद्ध होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिको 'मैं हूँ ऐसा अनुभव होता है । यह अनुभव मिथ्या नहीं है क्योंकि इसका कोई बाधक नहीं है । सन्दिग्ध भी नहीं है, क्योंकि जहाँ सीप है या चांदी' इस प्रकारकी दो कोटियां होती हैं वहां संशय होता है। शायद कहा जाये कि 'मैं हूँ' इस अनुभवका आलम्बन शरीर है, किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'मैं हूँ. यह अनुभव बिना बाम इन्द्रियोंकी सहायताके मनसे ही होता है, शरीर तो बाह्य इन्द्रियोंका विषय है। अतः वह इस प्रकारके खानुभवका विषय नहीं हो सकता । अतः 'मैं हूं' इस प्रकारके प्रत्ययका आलम्बन शरीरसे भिन्न कोई ज्ञानवान् पदार्थ ही हो सकता है। वही जीव है । दूसरे, जब चार्वाक जीवको प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय ही नहीं मानता तो वह बिना जाने यह कैसे कह सकता है कि 'जीव नहीं है । अतः चार्वाकका मत ठीक नहीं है ॥ १८२ ।। अब अन्धकार युक्तिसे चार्वाकके प्रति जीवका सद्भाव सिद्ध करते हैं । अर्थ-यदि जीव नहीं है तो सुख आदिको कौन जानता है ? तथा विशेष रूपसे सब इन्द्रियोंके विषयोंको कौन जानता है। भावार्थ-यदि जीव नहीं है तो कौन जीव सुख दुःख वगैरहको जानता है । तथा खास तौरसे इन्द्रियोंके विषय जो ८ स्पर्श, ५ रस, २ गन्ध, ५ वर्ण, और ७ शब्द है, उन सबको मी कौन जानता है क्योंकि आत्माके अभाव में एक प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाकका इन्द्रियप्रत्यक्ष मी कैसे बन सकता है ! यहां गाथामें 'इंदियविसयश सव्वे' यह प्राकृत भाषामें होनेसे प्रथमा विभक्ति है किन्तु अर्थ की दृष्टि से इसे द्वितीया विभक्ति ही लेना चाहिये ।। १८३ ।। फिर भी आत्माके सदावमें युक्ति देते हैं । अर्थ-यदि जीव संकल्पमय है और संकल्प सुखदुःखमय है तो सर्व शरीरमे मिला हुआ १गददे। कार्तिक १६ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १८५ १२२ · [ छाया-संकरूपमयः जीवः सुखदुःखमयः भवति संकल्पः । तत् एव वेति जीवः देहे मिलितः अपि सर्वत्र ॥ ] जीवः आत्मा चेत् यदि संयमयः संकल्पनिर्वृतः स संकल्पः सुखदुःखमयो भवेत् सुखदुःखात्मको भवति । देहे शरीरे मिलितोऽपि श्रतोऽपि सर्वत्र सर्वात्रे सर्वशरीरप्रदेदो तं चिय तदेव सुखदुःखं वेति जानातीत्यर्थः ॥ १८४ ॥ अष देह मिलितो जीनः सर्वकार्याणि करोति सद्दर्शयति देहे - मिलिदो वि जीवो सव्य-कम्माणि कुब्वदे जम्हा । तम्हा पयट्टमाणो यत्तं बुझदे' दोन्हं ॥ १८५ ॥ [ छाया- देवमिलितः अपि जीवः सर्वकर्माणि करोति यस्मात् । तस्मात् प्रवर्तमानः एक बुध्यते द्वयोः ॥ यस्मात्कारणात् जीवः देह मिलितोऽपि शरीरयुकोऽपि । अपि शब्दात् विग्रहगत्यादी औदारिकवैषियिका हार कशरीररहितोऽपि । सर्वकर्माणि सर्वाणि कार्याणि घटपटलकुट मुकुटश कटगृहा सिमपि कृषिवाणिज्य गोपाल दिसर्वकार्याणि तथा शानाचरणादिशुभाशुभकर्माणि कुर्वते करोति विदधाति । तस्मात्कारणात् कार्यादिषु प्रवर्तमानो जनः । दण्डं द्वयोः जीवशरीरयोः एकस्व बुध्यते मन्यते जानाति ॥ १८५ ॥ अथ शरीरयुकत्वेऽपि जीवस्य दर्शनादिक्रियां ष्यनक्ति देह मिलिदो वि पिच्छदि देह-मिलिदो वि णिसुष्णदे' सदं । देह - मिलिदो वि भुंजदि देई - मिलिदो वि गच्छेदि ॥ १८६ ॥ [ छाया - देहमिलितः अपि पश्यति देहमिलितः अपि निवणोति शब्दम् । देवमिलितः अपि मुझे देहमिलितः अपि गच्छति ॥ ] अपि पुनः, देहमिलितो जीवः शरीरेण संयुक्त आत्मा पश्यति श्वेतपीतहरितारुण कृष्णरूपाणि वस्तूनि सर्वकार्याणि लोचनाभ्यां मनसा वा चावलोकयति जीवः । अपि पुनः, निसुणवे कर्णाभ्यां शृणोति । कि इति बेयुक्त न । होनेपर भी जीव उसीको जानता है । भावार्थ-यदि जीत्र संकल्पमय है अर्थात् संकल्पका एक पुंज मात्र है और संकल्प सुखदुःखमय है तो शरीरमें मिला होनेपर भी जीव समस्त शरीरप्रदेशोंमें होने वाले सुखदुःखको ही जानता है । आशय यह है कि यदि चार्वाक जीवको संकल्पविकल्पों का एक समूह मात्र मानता है तो वे संकल्पविकल्प सुखदुःखरूप ही हो सकते हैं। उन्हींको जीव जानता है तभी तो उसे 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं' इत्यादि प्रत्यय होता है । बस वही तो जीत्र है ॥ १८४ ॥ आगे बतलाते हैं कि जीव शरीर में मिला हुआ होनेपर भी सब कार्य करता है। अर्थ-यतः शरीरसे मिला हुआ होनेपर भी जीव सब कार्यो को करता है । अतः प्रवर्तमान मनुष्य जीव और शरीरको एक समझता है || भावार्थ - जिस कारण से शरीरसे युक्त मी जीव तथा 'अपि' शब्द से विग्रहगति वगैरह में औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरसे रहित भी जीव घट, वस्त्र, लकड़ी, मुकुट, गाडी, घर, वगैरह बनाता है, असि, मधी, कृषि, व्यापार, गोपालन आदिसे आजीविका करता है, इस तरह वह सब कार्यों को करता है तथा ज्ञानावरण आदि जो शुभाशुभ कर्म हैं उनको करता है, इसकारणसे कार्य वगैरह करनेवाला मनुष्य यह मान बैठता है कि जीव और शरीर दोनों एकही हैं । किन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है- जीत्र जुदा है और शरीर जुदा है || १८५ ॥ आगे बतलाते हैं कि शरीरसे युक्त होने परभी जीव देखता सुनता है । अर्थ- शरीरसे मिला हुआ होनेपर भी जीव देखता है। शरीरसे मिला हुआ होनेपर भी जीव सुनता है । शरीर से मिला हुआ होनेपर भी जीव भोक्ता है और शरीरसे I १ ब देहि । [सम्वं कम्माणि ] । १ क म ल ग बुझदे । ४] दुर्ग ५ छ म स ग णिसुणवे, [ देहे मिलिदो वि शिक्षणदे] ६ [ देखे ] म सग गच्छे व गच्छेदि (१) । ८। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा १५३ “निषादभगान्धारषड्जममध्यमथैवताः । पञ्चमश्चेति सप्तैते तन्त्रीकण्ठोत्थिताः खराः ॥ १ ॥ कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरःस्थ ऋषभस्तथा । नासिकायां च गान्धारो हृदये मध्यमो भवेत् ॥ २ ॥ पचमथ मुखे वस्तादेशे तु भवतः । निषादः सर्वगात्रे च वैमाः सप्त खरा इति ॥ ३ ॥ निषादं कुअरो भक्ति ब्रूते गौ अषभं तथा । अत्रा वदति गान्धार प भूते मुमुक् ॥ ४ ॥ अनीति मध्यमं फोन नः । पुम्पा काले कः समम् ॥ ५ ॥ नासाकण्ठमुरस्ताद्यजिह्वावन्तश्च संस्पृशन । वचः जायते यस्मात् तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ ६ ॥ गुणामुरसि मन्त्रस्तु द्वाविंशतिविधो ध्वनिः । स एव कण्ठे मध्यः स्यात् तारः शिरसि गीयते ॥ ७ ॥ वनं तु कांस्यताकावि वंशादिसुषिरं विदुः । ततं वीणाविकं वायं विततं पटादिकम् ॥ ८ ॥” इति खरसवाच्यं श्रवणविषयं करोति । क देहमिळतो जीवः । अपि पुनः, मुंजदि अनं भुझे, रानपान खाद्यखाथमाहारं भुंके मश्नाति । कः । देहमैलितो जीवः अपि पुनः गच्छति चतुर्दिखार्गे चतुर्दिदिया में अघ ऊर्ध्वमार्गे च याति प्रति कः । देहमिलितो जीनः ॥१८६॥ Brr जीवस्याम देहयोः जीवस्य भेदापरिज्ञानं दर्शयति - १८७] राओ हं भिचो हं सिट्ठी हं चेव दुब्बलो बलिओ । इदि एयत्ताविडो दोण्ह' भेयं ण बुञ्झेदि ॥ १८७ ॥ छाया - राजा कई मृत्यः अई श्रेष्ठी आई चैव दुर्बलः यदी । इति एकस्वाविष्टः द्वयोः मेदं न बुध्यति ॥ ] इस्यमुना प्रकारेण एकस्याविष्टः, अहं पशरीरमेवमित्येकत्वं परिणतः एकान्तत्वं मिध्यात्वं प्राप्तो महिरात्मा वा दोष्ठं इंयोजकमिला हुआ होनेपर भी जी चलता है । भावार्थ - ऊपर कही गई बातोंके सिवा शरीरसे संयुक्त होनेपर मी जीव सफेद, पीली, हरी, लाल और काले रंगकी विविध वस्तुओंको आंखोंसे मन लगाकर देखता है । तथा कानोंसे शब्दों को सुनता है । शब्द अथवा स्वर के भेद इस प्रकार बतलाये हैं निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत, और पश्चम ये सात स्वर तीरूप कण्ठसे उत्पन्न होते हैं । १ । जो स्वर कण्ठ देशमें स्थित होता है उसे षड्ज कहते हैं। जो स्वर शिरोदेशमें स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं । जो खर नासिका देशमें स्थित होता हैं उसे गान्धार कहते है । जो वर हृदयदेशमें स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं । २ । मुख देशमें स्थित खरको पश्चम कहते हैं । तालदेशमें स्थित स्वरको धैवत कहते हैं और सर्व शरीरमें स्थित खरको निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात खर जानने चाहिये । ३ । हाथीका खर निषाद है। गौका खर वृषभ है। बकरीका स्वर गान्धार है और गरुडका स्वर षड्ज है । ४ । औौच पक्षीका शब्द मध्यम है । अबका खर चैत्रत है और वसन्तऋतु कोयल पाम खरसे कूजती है । ५ । मासिका, कण्ठ, अर, ताल, जीभ और दांत इन के स्पर्शसे बज स्वर उत्पन्न होता है इसीसे उसे षड्ज कहते हैं । मनुष्योंके उरप्रदेशसे जो बाईस प्रकारकी ध्वनि उच्चरित होती है वह मन्द्र है। यही जब कण्ठदेशसे उच्चरित होती है तो मध्यम है। और जब शिरो देशसे गाई जाती है तब 'सार' है । ७ । कांके बाजोंके वगैरह के शब्दको सुषिर कहते हैं। धीणा वगैरह वार्थोके वगैरह शब्दको वितत कहते हैं । ८ । इन सात स्वरोंको सही अशन, पान, खाद्य और खाद्यके मेदसे चार प्रकारके आगे बतलाते हैं कि जीव आत्मा और शरीर के मेदको मूख्य हूं, मैं सेठ हूं, मैं दुर्बल हूं, मैं बलवान् हूँ, इस प्रकार I शब्दको धन कहते हैं। बांसुरी शब्दको तत कहते हैं और दोल यह शरीरसे संयुक्त जीव ही सुनता है । आहारको ग्रहण करता है ॥ १८६ ॥ नहीं जानता । अर्थ- मैं राजा हूं, मैं शरीर और आत्माके एकको मानने १। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ auth 181 से १२४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १८८ वेदयोर्भेद मेदभि पृथतवं न मुध्यते न जानावि इति किम्। राजाहं, अई राजा नृपोऽहं पृथ्वीपाल कोऽहम्। भृत्योऽई, च पुन:, अहमेव सूत्यः कर्मकरोऽयं । अहमेव श्रेष्ठी । न्य पुनः अहमेव दुर्बलः निःखोऽहं वा कृणीभूतशरीरोऽहम् । अहमेव बलिष्ठः बलवान् बलवत्तरशरीरोऽहम् । इति एकत्वं परिणतो मिध्यात्वं प्राप्तो महिरात्मा जीवः जीवशरीरयोर्भेद पृथकः भिनं न जानातीत्यर्थः ॥ तथा योगीन्द्रदेवैः दोघकपटकन मिध्यात्वपरिणामेन कृत्वा बहिरात्मात्मनि योजयतीति स्वस्वरूपं निरूप्यते । "हउँ गोरज हउं सांवल हउं जि विभिण्ड वण्णु । हवं तणुअंगडं धूल हवं एहउ भूबज मण्णु ॥ १ ॥ ३ वजे । इत्थवं मण्णइ मुटु विसे ॥ २ ॥ मण्णइ सबु ॥ ३ ॥ जणणी जगणु वि कंत तवमित्तुविद । मायाजालु वि अध्पणजं मूढउ मण्णइ सब्बु ॥ ४ ॥ दुखई कारणि जे विषय ते सुहेब रमेश | मिच्छाइटिड जीवडड एस्थु ण काई करेइ || ५ ||" इति मूढात्मा मिध्यादृष्टिः जनः सर्वम् एवं मन्यते ॥ १८७॥ जीवकर्तृत्वादिधर्मान् गाणचतुष्टयेनाह - सहगल गूढउ स्पष्ट सूरउ पंडित वेषु । खवणस बंदर सेवडज मूह जीवो हवे' कत्ता सम्माणि कुब्वदे जम्हा | कालाइ - लद्धि-जुत्तो संसारं कुणइ मोक्खं च ॥ १८८ ॥ वाला जीव दोनोंके भेदको नहीं जानता । भावार्थ- मैं राजा हूं, मैं नौकर हूं, मैं सेठ हूं, मैं दुर्बल हूं, मैं बलवान् हूं इस प्रकारसे लोग शरीरको ही आत्मा मानते हैं क्योंकि वे मिध्यादृष्टि हैं, अतः वे दोनोंके भेदको नहीं समझते । 'मैं राजा हूं' इत्यादि जितने भी विकल्प हैं वे सब शरीरपरक ही हैं; क्योंकि आत्मा तो न राजा है, न नौकर है, न सेठ है, न गरीब हैं, न दुबला है और न बलवान हैं । बहिर्दृष्टि लोग शरीरको ही आत्मा मानकर ये विकल्प करते हैं और यह नहीं समझते कि आत्मा इस शरीर में रमा होकर भी इससे जुदा है || १८७ ।। अब चार गाथाओंसे जीवके कर्तृत्व आदिका कथन करते हैं । अर्थ-यतः जीव सब कमको करता है अतः वह कर्ता है। वह स्वयं ही संसारका कर्ता है और काललब्धि आदिके मिलनेपर स्वयं ही मोक्षका कर्ता है || भावार्थ - यद्यपि शुद्ध निश्चय नयसे आदि मध्य और अन्तसे रहित तथा ख और परको जानने देखने वाला यह जीव अविनाशी निरुपाधि चैतन्य लक्षण रूप निश्चय प्राणसे जीता है तथापि अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा श्रनादिकालसे होनेवाले कर्मबन्धके कारण अशुद्ध द्रव्यप्राण और भाषप्राणोंसे जीता है इसीलिये उसे जीव कहते हैं । यह जीव शुभाशुभ कर्मोंका कर्ता है क्योंकि वह सम काम करता है । व्यवहार नयसे घट, वस्त्र, लाठी, गाड़ी, मकान, प्रासाद, स्त्री, पुत्र, पौत्र, असि, मषि, व्यापार आदि सब कायाको, ज्ञानावरण आदि शुभाशुभ कर्मोंको, और औदारिक वैक्कियिक और आहारक शरीरोंकी पर्याप्तियोंको औव करता है | और निश्चय नयसे टांकीसे पत्थर में कडेरे हुए चित्रामकी तरह निश्चल एक हायक स्वभाववाला यह जीव अपने अनन्त चतुष्टय रूप स्वभावका कर्ता है । यही जीव द्रव्य, क्षेत्र, फाल, भव और मायके भेद से पच परावर्तन रूप संसारका कर्ता है। यही कर्मोंसे बद्ध जीव जब संसार परिभ्रमणका काल अपुगल परावर्तन प्रमाण शेष रह जाता है तब प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करने के योग्य होता है इसे ही काल लब्धि कहते हैं। आदि शब्द से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव लेना चाहिये। सो द्रव्य तो वज्रवृषभ नाराच संहनन होना चाहिये । क्षेत्र पन्द्रह कर्मभूमियोंमें से होना चाहिये, काल I १ ग आफ २ ग कारण बिविधा २६ दि । ४स पनि । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 -tee] १०. लोकानुप्रेक्षा १२५ [ छाया - जीवः भवति कर्ता सर्वकर्माणि करोति यस्मात् । कालादिलब्धियुक्तः संसारं करोति मोक्षं च ॥ ] जीवः शुद्धनिश्चयन येनादिमध्यान्तवर्जितः स्वपर प्रकाशकः अविनश्वर निरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षण निश्चय प्राणैः यद्यपि जीवति तथाप्यशुद्धन येनानादि कर्मबन्धवशाद शुद्ध द्रव्यभावप्राणजनिति इति जीवः । तथा करोति कर्ता भवति शुभाशुभक निष्पादकः स्यात् । कुतः । यस्मात् सर्वकर्माणि कुर्वते । हायेन घटपटलकुटशकट गृहहीपुत्रपौत्रासिम षिवाणिज्यातीन् सर्वकार्याणि ज्ञानावरणादिशुभाशुभकर्माणि शरीर त्रयस्य पर्याप्तीश्च करोति औवः विदधाति । निश्रयनयेन निःक्रिय टंकोरकीर्णशाय के खभावोऽयं जीवः । तथानन्तचतुष्टयस्य कर्ता च पुनः संसारे कुणदि संति करोति प्रय १ क्षेत्र २ काल ३ भव ४ भाव ५ मेदभिनं पचविधं विदधाति सृजति च । पुनः एवंभूतो जीवः कर्माविष्टः अपु चतुर्थ हो, मत्र मनुष्य पर्याय हो, और मासे विशुद्ध परिणामवाला हो । तथा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्यलब्धि और अधःकरण, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण रूप पांच लब्धियोंसे युक्त होना चाहिये। ऐसा होनेपर वही जीव कर्मोंका क्षय करके संसारसे अथवा कर्मबन्धनसे छूट जाता है। जो जिये अर्थात् प्राणधारण करे उसे जीव कहते हैं। प्राण दो तरह के होते हैं - एक निश्चय प्राण और एक व्यवहार प्राण | जीव के निश्चय प्राण तो सत्ता, सुख, ज्ञान और चैतन्य हैं। और व्यवहार प्राण इन्द्रिय, बल, आयु, और श्रासोच्छ्वास हैं। ये सब कर्मजन्य हैं, संसारदशामें कर्मबन्धके कारण शरीर के संसर्गसे इन व्यवहार प्राणों की प्राप्ति होती है । और कर्मबन्धन से छूटकर मुक्त होनेपर शरीरके न रहनेसे ये व्यवहार प्राण समाप्त होजाते हैं और जीवके असली प्राण प्रकट हो जाते हैं। यह जीव निश्चय नयसे अपने भावोंका कुर्ता है क्योंकि वास्तव में कोई भी द्रव्य पर भावोंका कर्ता नहीं हो सकता । किन्तु संसारी जीवके साथ अनादि कालसे कर्मोंका संबंध लगा हुआ है। उन कर्मोंका निमित्त पाकर जीवके विकाररूप परिणाम होते हैं । उन परिणामोंका कर्ता जीव ही है इस लिये व्यवहारसे जीवको कमोंका कर्ता कहा जाता है। सो यह संसारी जीव अपने अशुद्ध भावोंको करता है उन अशुद्ध भावोंके निमित्तसे नये कर्मोका बन्ध होता है। उस कर्मबन्धके कारण उसे चतुर्गतिमें जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेनेसे शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों से वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोंको जानता है, उससे उसे राग द्वेष होता है । रागद्वेषसे पुनः कर्मबन्ध होता है । इस तरह संसाररूपी चक्र में पड़े हुए जीवके यह परिपाटी तब तक इसी प्रकार चलती रहती है जब तक काल लब्धि नहीं आती। जब उस जीवके संसारमें भटकनेका काल अपुगल परावर्तन प्रमाण शेष रहता है तब वह सम्यक्त्व ग्रहण करनेका पात्र होता है। सम्यक्ती प्राप्ति के लिये पांच लब्धियोंका होना जरूरी है । वे पांच लब्धियां हैं- क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करणलब्धि । इनमें से चार लब्धियां तो संसारमें अनेक बार होती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्यके ही होती है और उसके होने पर सम्यक्त्व अवश्य होता है । अप्रशस्त ज्ञानावरणादि कर्मोंका अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ उदयमें आवे तो उसे क्षयोपशम लब्धि कहते हैं। क्षयोपशम लब्धिके होनेसे जो जीवके साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धयोग्य धर्मानुरागरूप शुभ परिणाम होते हैं उसे विशुद्धि लब्धि कहते हैं । छः द्रव्यों और नौपदार्थों का उपदेश करने वाले आचार्य वगैरह से उपदेशका लाभ होना देशना लब्धि है। इन तीन छवियोंसे युक्त जीव प्रतिसमय विशुद्धतासे बर्धमान होते हुए जीवके आयुके सिवा शेष सात कमकी स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी मात्र शेष रहती है तब वह उसमेंसे संख्यात हजार सागर Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oglear स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १८९परिमाणे कालेऽवशिष्ट प्रथमसभ्यत्ययोग्यो भरतीति काललब्धिः । आदिशब्दातू, ध्यं वजवृषभनाराच लक्षणम् , क्षेत्र पञ्चदशकर्मभूमिलक्षणमू, भवः मनुष्यादिलक्षणः, भावः विशुद्धिपरिणामः, लब्धयः क्षायोपशमनविशुद्धिवेशनाप्रायोग्याध:करणापूर्वकरणानिवृत्तकरणलक्षणाः, ताभिर्युतः जीवः मोक्षं संसारविभुक्तिलक्षण कर्मणां मोचन मोक्षस्तं कर्मक्षय च करोति विदधाति ।। १८८॥ जीवो यि हवाई भुत्ता कम्म-फलं सो वि भुंजदे जम्हा । कम्म-विवाय वियिहं सो विय भुजेदि संसारे ॥ १८९ ।। [छाया-जीवः अपि भवति भोक्ता कर्मफल सः भपि भुले यस्मात् । कर्मविक विविधं सः अपि च भुनक्ति संसारे ॥] जीवः भोजता भवति व्यवहारमयेन शुभाशुभकर्मजनितसुखदुःखादीनां भोक्ता, अस्मात् सोऽपि जीवः कर्मफल -..- ..-.--- प्रमाण स्थितिका घात करता है और घातियाँ कर्मोका लता और दारु रूप तथा अघातिया कोका भीम और कांजीर रूप अनुभाग शेष रहता है। इस कार्यको करनेकी योग्यताकी प्राप्तिको प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। इन चारों लब्धियोंके होनपर भव्य जीव अधःकारण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको करता है। इन तीनों करणोंके होनेका नाम करण लब्धि है । प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्त है । किसी जीवको अध:करण प्रारम्भ किये थोड़ा समय हुआ हो और किसीको बहुत समय हुआ हो तो उनके परिणाम विशुद्धतामें समान भी होते हैं इसीसे इसका नाम अधःप्रवृत्त करण है। जिसमें प्रति समय जीवोंके परिणाम अपूर्व अपूर्व होते हैं उसे अपूर्व करण कहते हैं । जैसे किसी जीवको अपूर्वकरण आरम्भ किये पोड़ा समय हुआ और किसीको बहुत समय हुआ तो उनके परिणाम एकदम भिन्न होते हैं । और जिसमें प्रति समय एक ही परिणाम हो उसे अनिवृत्ति करण कहते हैं । पहले अधःकरण में गुणश्रेणि गुणसंक्रमण वगैरह कार्य नहीं होते, केवल प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है। अपूर्व करणमें प्रथम समयसे लगाकर जबतक मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमोहनीय और सम्पमिथ्यात्वरूप परिणमाता है तब तक गुणश्रेणि, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्टन और अनुभागखण्डन चार कार्य होते हैं । अनिवृत्तिकरणमें ये कार्य होते हैं। जब अनिवृत्तिकरणका बहुभाग वीतकर एक माग । शेष रह जाता है तो जीय दर्शन मोहका अन्तर करण करता है । विवक्षित निषेकोंके सब द्रव्योंका अन्य निषेकोंमें निक्षेपण करके उन निषेकोंका अभाव कर देनेको अन्तर करण कहते हैं। अनिवृत्ति करणके समाप्त होते ही दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उपशम होनेसे जीव औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । उसके बाद योग्य समय आनेपर कर्मोको नष्ट करके मुक्त होजाता है ॥१८८ ॥ अर्थ-यतः जीव कर्मफलको भोगता है इसलिए वही भोक्ता भी है । संसारमें यह अनेक प्रकारके कर्मके विपाकको भोगता है ।। भावार्थ-व्यवहारनयसे जीव शुभ और अशुभ कर्मके उदयसे होनेवाले सुख दु:ख आदिका भोक्ता है। क्योंकि वह ज्ञानावरण आदि पद्गल ककि फलको भोगता है । तथा वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे पांच प्रकारके संसारमें अशुभ कमोंके निम्ब, कांजीर, विष और हालाहल रूप अनुभागको तथा शुभकामोंके गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतरूप अनुभागको भोगता है। यह आत्मा संसार अवस्था में अपने चैतन्य स्वभावको न छोड़ते हुए ही अनादि पोलिय। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१० ] १०. लोकानुप्रेक्षा ૧૦ भुडे ज्ञानावरणादिपुलकर्मफलं साता सातजं सुखदुःखरूपं भुनक्ति । सोऽपि संसारे द्रव्यादिपचप्रकारे भने भुजति भुनक्ति । कि तत्। विविधं नानाप्रकारम् अनेक प्रकारं कर्मविपाकं कर्मोदयम् अशुभं निम्बकाजीरविषहालाहलरूपं शुभ गुण्डशर्करामृत्तरूपं स भुंके । अपिशब्दात् निश्चयनयेन रागादिविकल्पोपाधिरहितो जीवः स्वात्मोत्थमुखामृतभोका भवति ॥ १८९ ॥ जीयो वि हवे' पावं अइ तिब्व- कसाय परिणदो णिचं | जीवो वि हवई पुर्ण उवसम-भावेण संजुत्तो ॥ १९० ॥ [ छाया - जीवः अपि भवेत् पापम् अतितीयकषायपरिणतः नित्यम् । जीनः अपि भवति पुण्यम् उपशमभावेन संयुक्तः ॥ ] जीवः आत्मा पापं भवति पापस्वरूपः स्यात् । अपिशब्दात् पापपुण्याभ्यां मिश्रो भवति । कीदृक् सन् कालसे कर्मबंधन से बद्ध होनेके कारण सदा मोह राग और द्वेषरूप अशुद्ध भावसे परिणमता रहता है। अतः इन भाषका निमित्त पाकर पुगल अपनी ही उपादान शक्तिसे आठ प्रकार कर्मरूप हो जाये हैं। और जैसे तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम या मन्द मन्दतर और मन्दतम परिणाम होते हैं उसीके अनुसार कर्मों में अनुभाग शक्ति पड़जाती है । अनुभाग शक्तिके तरतमांशकी उपमा चार विकल्पोंके द्वारा दी गई है। घातिया कर्मों में तो लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप अनुभाग शक्ति होती है। अघातिया कमोंके दो भेद हैं-शुभ और अशुभ । शुभ कर्मों की अनुभाग शक्तिकी उपमा गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतसे दी जाती है और अशुभ कर्मोकी अनुभाग शक्तिकी उपमा नीम, कंजीर, विष और हलाहल विषसे दी जाती है। जैसी अनुभाग शक्ति पड़ती है उसीके अनुरूप कर्म अपना फल देता है। हां तो, जीव और पुद्गल कर्म परस्परमें एक क्षेत्रावगाहरूप होकर आपस में बंध जाते हैं। कर्मका उदय काल आनेपर जब वे कर्म अपना फल देकर अलग होने लगते हैं तब निश्चयनयसे तो कर्म आमके सुखदुःख रूप परिणामों में और व्यवहारसे इष्ट अनिष्ट पदार्थोंकी प्राप्तिमें निमित्त होते हैं तथा जीव निश्चयसे तो कर्मके निमित्तसे होने वाले अपने सुखदुःखरूप परिणामों को भोगता है और व्यवहारसे दृष्ट अनिष्ट पदार्थोंको भोगता है, अतः जीव भोका भी है। उसमें भोगनेका गुण है ।। १८९ ॥ अर्थ- जब यह जीव अति तीव्र कषायरूप परिणमन करता है तब यही जीव पापरूप होता है और जब उपशमभावरूप परिणमन करता है तब यही जीव पुण्यरूप होता है | भावार्थ- सदा अतितीव अनन्तानुबन्धी कोध, मान, माया और लोभ कषाय तथा मिथ्यात्व आदि रूप परिणामोंसे युक्त हुआ जीव पापी है, और औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र तथा क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र रूप परिणामोंसे युक्त यही जीव पुण्यात्मा है । 'अपि' शब्दसे यही जीव जब अईन्त अथवा सिद्ध परमेष्ठी हो जाता है तो यह पुण्य और पाप दोनोंसे रहित होजाता है। गोम्मटसारमें पापी जीव पुण्यात्मा जीव, पाप और पुण्यका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है । 'जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावो त्ति शेदि पुण्णं तु । सुह पयडीणं दव्यं पावं असुहाण दत्रं तु ॥ ६४३ ॥' अर्थात् जीव पदार्थका वर्णन करते हुए सामान्यसे गुणस्थानोंमेंसे मिध्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीव तो पापी है। मिश्रगुणस्थानवाले जीव पुण्यपापरूप है; क्योंकि उनके एकसाथ सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणाम होते हैं । तथा असंयत सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व सहित होनेसे, देशसंयत सम्यक्स्व और १ म स ग २ ससस जीवो वेद । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १९१ पापखरूपो जीवः नित्यं सश अतितीव्रकषायपरिणतः, अतितीवाः अनन्तानुबन्धिकोधमानमायालोभकषायादयः मिथ्यात्वादयश्च तैः परिणतः तस्परिणामयुक्तः इत्यर्थः । अपि पुनः जीवो भवति । किं तत् । पुण्यं पुण्यरूपः स्यात् । कीदृक् । संयुक्तः सहितः । केन । उपशमभावेन, उपशमसम्यत्तत्रोपसयचारित्रपरिणामरूपेण सहितः । उपलक्षणमेतत् । तेनायिकसम्य विक्षायिक चारित्र । दिरूपेण परिणतः जीवः पुण्यरूपो भवति अपिशब्दाद्वा पुण्यपापरहितो जीवो भवति । कोऽसौ । अईन् सिद्धपरमेष्ठी मीषः । तथा गोम्मटसारे पापजीवाः पुण्यजीवाः पुण्यं पापं चेति यदुक्तं तदुच्यते । "जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावो ति होदि पुष्णं तु । सुहपयडीणं दबे पावं असुहाग दव्वं तु ॥" जीवपदार्थप्रतिपादने सामान्येन गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्व पापजीवाः । मिश्राः पुण्यपापमिश्रजीवाः सम्यक्तत्र मिध्यात्व मिश्रपरिणामपरिणतत्वात् । असंयताः सम्यत्तत्वेन, देशसंयताः सम्यकचेन देशत्रसेन च युक्तत्वात् पुण्यजीषा एक्ट युक्ताः । अनन्तरम् अजीवपदार्थ प्रकारको शुभप्रकृतीनां सदेवशुभा युर्नामगोत्राणां दध्यं पुण्यं भवति । अशुभनामसदेयादिव प्रशस्त प्रकृतीनां द्रव्यं तु पुनः पापं भवति ॥ १९० ॥ तथा जीवस्तीर्थभूतो भवति तदाह रयणत्तय संजुत्तो जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तर जदो रयणत्तय-दिव्य णावाएं ॥ १९१ ॥ [छाया - रात्रयसंयुक्तः जीवः अपि भवति सत्तमं तीर्थम् । संसार तरति यतः रत्नत्रयदिव्यनावा ॥ ] पि पुनः जीवो भवति । किं तत्। उसमें सर्वोत्कृष्टं तीर्थ, सर्वेषा तीर्थानां मध्ये सर्वोत्कृष्टः अनुपमः तीर्थभूतो जीवो व्रतसे सहित होनेसे और प्रमत्त संयत आदि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व और महावत से सहित होनेसे पुण्यात्मा जीव हैं । अजीव पदार्थका वर्णन करते हुए चूंकि कार्मणस्वन्ध पुण्यरूपभी होता है और पापरूपभी होता है अतः अजीवके भी दो भेद हैं । उनमें से सातावेदनीय, नरकायुके सिया शेष तीन आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र इन शुभ प्रकृतियोंका द्रव्य पुण्यरूप है । और घातिया कर्मोकी सब प्रकृतियां, असातावेदनीय, नरकायु, अशुमनाम, नीचगोत्र इन अशुभ प्रकृतियोंका द्रव्य पापरूप है । विशेषार्थ इस प्रकार है । क्रोध मान माया और टोभकषायकी तीव्रता से तो पापरूप परिणाम होते हैं, और इनकी मन्दताले पुण्यरूप परिणाम होते हैं। जिस जीवके पुण्यरूप परिणाम होते हैं वह पुण्यात्मा है, और जिस जीवके पापरूप परिणाम होते हैं वह पापी है। इस तरह एक ही जीव कालभेद से दोनों तरहके परिणाम होने के कारण पुण्यात्मा और पापात्मा कहा जाता है ! क्योंकि जब जीव सम्यक्त्व सहित होता है तो उसके तीव्र कषायोंकी जड़ कट जाती है अतः वह पुण्यात्मा कहा जाता है । और जब वही जीव मिध्यास्थ में था तो उसके कषायोंकी जड़ अड़ी गहरी थी अतः तब वही पापी कहलाता था । आजकल लोग जिसको धनी और ऐश्वर्यसम्पन्न देखते हैं भलेही वह पाप करता हो उसे पुण्यात्मा कहने लगते हैं, और जो निर्धन गरीब होता है भलेही वह धर्मात्मा हो उसे पापी समझ बैठते हैं। यह लोगों की समझकी गरती है । पुण्य और पापका फल भोगनेवाला पुण्यात्मा और पापी नहीं है, जो पुण्यकर्म शुभभावपूर्वक करता है वही पुण्यात्मा है और जो अशुभ कर्म करता है वही पापी है हैं ॥ १९० ॥ आगे कहते हैं कि वही जीव तीर्थरूप होता है उत्तम तीर्थ है; क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नावसे संसारको पार करता है || भावार्थ - जिसके । पापपुण्यका सम्बन्ध जीवके भावोंसे । अर्थ - रत्नत्रय से सहित यही जीव १ नागाम । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १०. लोकानुभेक्षा भदिस्यर्थः (वीर्यते संसारोऽनैनेति तीर्थम् ) कीहक् सन् जीवः । रसत्रयसयुक्तः, व्यवहारनिश्चयसम्पग्दर्शनशानचालकरूपरमत्रयेण सहितः आत्मा तीर्थ स्यात् । यतः यस्मात्कारणात् तरति । कम् । तं संसारै भवसमुदम् । संसारसमुद्रस पार गच्छतीत्यर्थः । कया । रसत्रयदिव्यनावा रजत्रयसर्वोत्कृष्टतरण्या सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्रस्पनौकया आत्मा भवसमुद्र तरतीस्यर्थः ॥ १९१॥ अथालोऽन्येऽपि जीवप्रकारा मण्यन्ते जीया हवंति तिविहाँ बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥ १९२॥ [छाया-जीवाः भवन्ति त्रिविधाः बहिरात्मा तया च अन्तरात्मा । परमात्मानः अपि च द्विधा भईन्तः तथा व सिद्धाः ॥] जीवाः भारमान: त्रिविधाः त्रिप्रकारा भवन्ति । एके केचन बहिरात्मानःबहिव्यविषये हामीमामलबालिसेतनातन पे मामा येषां तु नहिरात्मानः अन्तः अभ्यन्तरे शरीरावैभित्रप्रतिभासमानः आरमा द्वारा संसारको तिरा जाये उसे तीर्थ कहते हैं । सो व्यवहार और निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रनत्रयसे सहित यह आत्मा ही सब तीर्योसे उत्कृष्ट तीर्थ है; क्योंकि यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्रमय खत्रयरूप नौकामें बैठकर संसार रूपी समुद्रको पार कर जाता है। आशय यह है कि जिसके द्वारा तिरा जाये यह तीर्थ कहा जाता है, सो यह जीव स्वयको अपनाकर संसार समुद्रको तिर जाता है अतः रसत्रय तीर्थ कहलाया। किन्तु स्नत्रय तो आमाका ही धर्म है, आत्मासे अलग तो रक्षत्रय नामकी कोई वस्तु है नहीं । अतः आत्मा ही तीर्थ कहलाया । वह आत्मा संसारसमुद्रको स्खयही नहीं तिरता किन्तु दूसरोंके भी तिरनेमें निमित्त होता है अतः वह सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है ॥ १९१ ।। अब दूसरी तरहसे जीके मेद कहते हैं । अर्थ-जीव तीन प्रकारके है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । परमात्माके भी दो भेद हैं-अरहंत और सिद्ध । भावार्थ-आस्मा तीन प्रकारके होते हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्य द्रव्य शरीर, पुत्र, सी वगैरहमें ही जिनकी आत्मा है अर्थात् जो उन्हें ही आत्मा समझते हैं वे बहिरारमा हैं। जो शरीरसे मिन्न आत्माको जानते हैं के अन्तरात्मा है। अर्थात् जो परम समाधिमें स्थित होकर शरीरसे भिन्न ज्ञानमय आत्माको जानते हैं वे अन्तरात्मा हैं । कहा भी है-जो परम समाधिमें स्थित होकर देहसे भिम ज्ञानमय परम आत्माको निहारता है वही पंडित कहा जाता है ॥ १ ॥ 'पर' अर्थात् सबसे उत्कृष्ट, 'मा' अर्थात् अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी और समवसरण आदिरूप बाह्य लक्ष्मीसे विशिष्ट आत्माको परमात्मा कहते हैं। वे परमात्मा दो प्रकारके होते हैं-एक तो छियालीस गुण सहित परम देवाधिदेव अईन्त तीर्थंकर और एक सम्यक्त्व आदि आठ गुण सहित अथवा अनन्त गुणोंसे युक्त और खात्मोपलब्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी, जो लोकके अग्रभागमें विराजमान हैं ॥ १९२ ॥ अब बहिरात्माका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयरूप परिणत हो, तीन कषायसे अच्छी तरह आविष्ट हो और जीव तथा देहको एक मानता हो, वह बहिरात्मा है । भावार्थ-जिसकी आत्मा मिथ्यात्वरूप परिणत हो, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि तीन कषायसे जकली हुई हो और शरीर ही आत्मा है ऐसा जो अनुभव करता है वह मृद जीव बहिरात्मा है। गुण १म जीयो। २ अतिवा। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० १९३येषां ते अन्तरात्मानःपरमसमाधिस्थिताः सन्तः देइविभिन्न शानमयं परमात्मानं ये जानन्ति ते मन्तरात्मानो भवन्तीत्यर्थः) तथा चोक्तम् । “देहविभिण्णउ णाणमत जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहिपरिट्टिय पंडिउ सो जि हवे।।' अपि च केचन परमात्मानः, (परा सर्वोत्कृष्टा मा अन्तरावहिरङ्गालक्षणा अनन्तचतुष्यादिसमवसरणाविरूपा लक्ष्मीर्येषो ते परमाः सेचते मात्मानः परमात्मानः) ते द्विविधा अइन्तः षट्चत्वारिंशगुणोपेतातीर्थंकरपरमदेवादयः । तथा चसद्धिः खारमोपलब्धिर्येषां ते सिद्धाःसम्यक्त्वाद्यष्टगुणोपेता यानन्तान्तगुणविराजमानाः लोकप्रिनिवासिनव ॥ १९२॥ कीहक्षो पहिरास्मा इत्युक्ते चेतुच्यते - मिच्छत-परिणदप्पा तिव्व कसाएण सुई आविड़ो। जीवं देहं एक मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३ ॥ छाया-मिथ्यात्वपरिणतात्मा तीनकषायेण सुक्षु आविष्टः । जीवं देहम् एकं मन्यमानः भवति बहिरात्मा ॥J होवि भवति । कः । यहिरात्मा । कीडक । मिथ्यात्वेन परिणतः आत्मा यस्यासौ मिथ्यात्वपरिणतात्मा। पुनःकिमतः । तीयकवायेणानन्तानुबन्धिलक्षणेन क्रोधादिना सुष्व अतिशयेन आविष्टः गृहीतः। पुनरपि कीदृक्षः । बहिरात्मा जी देहर एक मन्यमानः, देहः शरीरमेव जीव आत्मा श्यनयोरेकवं मन्यमानः अनुभवन् मूहात्मा भवतीखः । पुणस्थानमाश्रियोत्कृष्टादिबहिरात्मानः । तत्कथ मिति चेतदुच्यते । उत्कृष्टा बहिरात्मानो गुणस्थानादिमे स्थिताः, द्वितीये मध्यमाः, मित्रे गुणस्थाने जघन्यका इति । १९३ ॥ अन्तरात्मनः खरूपं गाथात्रिकेन दर्शयति जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं । णिज्जिय-दु-मया अंतरप्पा य ते तिविहा ॥ १९४ ॥ [छाया-ये जिनवचने कुशलाः भेदं जानन्ति जीवदेहयोः । निर्जितदुष्टाष्टमदाः अन्तरात्मानः च ते त्रिविधाः।। ते प्रसिद्धा अन्तरात्मानः कम्यन्ते । ते के। ये जिनपचन्ने कुशलाः, जिनामा वीर्यकरगणघरदेवादीना क्यने IGRIH स्थानकी अपेक्षासे बहिरात्माके उत्कृष्ट आदि भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार है-प्रथम गुणस्थानमें स्थित जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा हैं, दूसरे गुणस्थानवाले मध्यम बहिरात्मा हैं और तीसरे मिश्र गुणस्थान वाले जघन्य बहिरात्मा हैं । विशेष अर्थ इस प्रकार है । जो जीव शरीर आदि परद्रव्यमें आत्मबुद्धि करता है वह बहिरात्मा है। और इस प्रकारकी बुद्धिका कारण मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायका उदय है । मिप्यात्य और अनन्तानुबन्धीका उदय होनेसे शरीर आदि परद्रव्योंमें उसका अहंकार और ममत्वभाव रहता है। शरीरके जन्मको अपना जन्म और शरीरके नाशको अपना नाश मानता है। ऐसा जीव बहिरात्मा है । उसके भी तीन भेद है-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । प्रथम मिथ्यात्व गुण स्थानवी जीव उत्कृष्ट बहिरान्मा है; क्योंकि उसके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायका उदय रहता है। दूसरे सासादन गुणस्थानवी जीव मध्यम बहिरात्मा है; क्योंकि यह अनन्तानुबन्धी कषायका उदय हो शानेके कारण सम्यक्त्वसे गिरकर दूसरे गुणस्थानमें आता है उसके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। तीसरे मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य बहिरात्मा है; क्योंकि उसके परिणाम सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए होते हैं तथा उसके न तो मिथ्यात्वका उदय होता है और न अनन्तानुबन्धीका उदय होता है ॥ १९३ ॥ अब तीन गाथाओंसे अन्तरात्माका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-जो जीव जिनयचनमें कुशल है, जीन और देहके भेदको जानते हैं तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदोको जीत लिया है वे अन्तरात्मा है । वे तीन प्रकारके है॥ भावार्थ-अन्तरात्माओंका कथन १ग विभा। २ बम हु, ल कसापड, स सापसु सुद्ध, ग कसापमुष्टियाविट्टो । १ स मेद (१)1 ४ [अंतर भम्पा । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२९५ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १३१ पन्ना दक्षा निपुणाः, जिनाशाप्रतिपालका वा जीवदेहयोरात्मशरीरयोर्भेदं जानन्ति, जीवाच्छरीरं भिनं पमिति बागन्ति विदन्ति । पुनः कीदृक्षास्ते । निर्जितदुष्टाष्टमदाः । मदाः के 'ज्ञानं पूजा कुलं जातिर्बलमृद्धि पो वपुः इष्टो मा गर्दा अभिमानरूपाः, अष्ठी गदय अष्टमदःः ः म्याद निता दुष्टाष्टमदा रेस्ले तयोताः । ते त्रिविधाः त्रिप्रकारा अन्तरात्मानो भवन्ति जघन्य मध्यमोत्कृष्टमेात ॥१९४॥ अन्तरात्मनः सथि मेदान दर्शयति - पंच- महब्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठियां णिश्वं । णिजिय-सयल - पमाया उकिडा अंतरा होंति ॥ १९५ ॥ I [ बाबा-पण्डमहामतयुताः धर्मे शुक्रे अपि संस्थिताः नित्यम् । निर्जितसकल प्रनादाः उत्कृष्टाः अन्तराः भवन्ति ॥ ] होति भवन्ति । के उत्कृष्टा भन्तरात्मानः । कीदृक्षास्ते परमायुक्ताः हिंयामृत स्तेयाममचर्यपरिमनिवृत्तिलक्षणैः माहिताः । पुनः कथंभूतास्ते । नित्यं निरन्तर धर्मे शुक्रेऽपि संस्थिता, धर्मध्याने आज्ञापत्यविपाकसंस्थान I करते हैं। जो तीर्थरके द्वारा प्रतिपादित और गणधर देवके द्वारा गूंथे गये द्वादशाङ्ग रूप जिनवाणीमें दक्ष हैं, उसको जानते हैं अथवा जिन भगवानकी आज्ञा मानकर उसका आदर और आचरण करते हैं, और जीवसे शरीरको भिन्न जानते हैं। तथा जिन्होंने सम्यक्त्वमें दोष पैदा करनेवाले भाठ दुष्ट मदोंको जीत लिया है। वे आठ मद इस प्रकार हैं-ज्ञानका मद, आदर सत्कारका मद, कुलका मद, जातिका मद, ताकतका मद, ऐश्वर्यका मद, तपका मद और शरीरका मद । इन मदोंको जीतने वाले जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं। उनके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन भेद हैं ॥ १९४ ॥ अब उत्कृष्ट अन्तरात्माका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो जीव पांच महाव्रतोंसे युक्त होते हैं, धर्म्यध्यान और शुध्यान में सदा स्थित होते हैं, तथा जो समस्त प्रमादोंको जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । भावार्थ-जो हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापोंकी निवृत्तिरूप पांच महानतोंसे सहित होते हैं, आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विश्वय रूप दस प्रकारके धर्मध्यान और पृथवस्व वितर्क वीचार तथा एकत्व वितर्क वीचाररूप दो प्रकारके शुरूभ्यानमें सदा लीन रहते हैं । तथा जिन्होंने प्रमाद के १५ मेदोंको अथवा ८० भेदोंको या सैंतीस हजार पांच सौ मेदोंको जीत लिया है, ऐसे श्रप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतकके मुनि उत्कृष्ट अन्तरात्मा होते हैं। विशेष अर्थ इस प्रकार है । प्रमादवश अपने या दूसरोंके प्राणोंका घात करना हिंसा है। जिससे दूसरोंको कष्ट पहुंचे, ऐसे वचनका बोलना झूठ है । मिना दिये पराये तृणमात्रको भी लेना अपना उठाकर दूसरों को देना चोरी है । कामके वशीभूत होकर कामसेबम आदि करना मैथुन है। शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदि वस्तुओंमें ममत्व रखना परिग्रह है। ये पांच पाप हैं। इसका एकदेशसे त्याग करना अणुक्त है और पूरी तरहसे याग करना महाव्रत है । ध्यानका वर्णन आगे किया जायेगा। अच्छे कामोंमें आलस्य करनेका नाम प्रमाद है। प्रमाद १५ हैं४ विकथा अर्थात् खोटी कथा खीकथा- स्त्रियोंकी चर्चा वार्ता करते भोजनकथा - खानेपीनेकी चर्चा करते रहना, राष्ट्रकथा - देशकी चर्चावार्ता करते रहना और राजकथा- राजाकी चर्चा वार्ता रहना, १कस संठिया । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९६विचयरूपे दशविधधर्मध्याने वा शुक्लथ्यानेऽपि । अपिशब्दः चार्थे ।पृथक्त्ववितर्कवीचारकत्ववितर्कवीचारलक्षणे द्विके शुमध्याने च स्थिताः निश्चलं गताः स्थिरीभूता इत्यर्थः । पुनः कीदृक्षाः। निर्षिताः नाशं नीताः सकलाः पञ्चदश प्रमादाः १५, अशीतिः प्रमादा बा ८०, सार्धसष्ठनिशरसहनप्रमितप्रमादा था ३७५००, गैस्ते तपोकाः। अप्रमताविक्षीणकवायगुणस्थानवतिनो मुनम उत्कृष्टान्तरात्मानो भवन्तीवि तात्पर्यम् ॥ १९५॥ के ते मध्यमा अन्तरात्मानः सावय-गुणेहिँ जुत्ता पमत्त-विरदा य मज्झिमा होति । जिण-वयणे अणुरता उवसम-सीला महासत्ता ॥ १९६ ॥ [छाया-भावकगुणैः युधाः प्रम विरताः च मध्यमाः भवन्ति । जिनवचने अनुरक्ताः उपशमधीलाः महासश्वाः ॥ होति भवन्ति । के ते । मध्यमा अन्तरात्मानः । कोरक्षास्ते । भाषकगुणैर्युक्ताः, द्वादशवतकादशप्रतिमात्रि. पञ्चाशक्रियाभिः सहिताः पञ्चमगुणस्थानवर्तिनो विरताविरताः । च पुनः। प्रमत्तविरताः अप्रमतगुणस्थानतिनो सुनयः पुनस्ते देशवतिनो मुनयश्च कीरशाः । जिनक्चने अनुरक्ताः, सर्वज्ञप्रणीतषट्वस्यपश्चास्तिकायसाततत्त्वनवपदार्थादिरूपे अत्यन्तमासका निश्चलत्वं प्राप्ताः । पुनः कीदृक्षाः । उपशमशीलाः क्रोधायुपशमनखभाषाः। मिथ्यात्वसम्यग मिथ्यालसभ्यत्वानन्तानुषाध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाण यथासंभवमुपशमादिं प्राप्ता इत्यर्थः । पुनः कीरक्षाः। महासरवाः सपसर्गपरीषदादिमिरखण्डितव्रताः ॥ १९६ ॥ अव जघन्यान्तरात्मानं निगदति अविरयं-सम्मादिट्ठी होति जहण्णा जिर्णिद-पय-भत्ता । अप्पाणं णिदेता गुण-गणे मुंह अणुरसा ॥ १९७ ॥ [छाया-अविरतसम्यग्दध्यः भवति जधन्याः जिनपदभताः : पारमानं निन्दन्तः गुणपणे सुष्टु अनुरकाः॥] होति भवन्ति जघन्या अघन्थान्तरात्मानः। केते । अविरतसम्यग्दृष्टयः, चतुर्थाविरतगुणस्थानतिनः उपशमसम्यक्त्वाः वेदकसम्यग्दृष्टयः क्षामिछसम्यग्दृष्टयो वा । कीहक्षास्ते। जिनेन्द्रपदभकाः जिनेवरचरणकमलासक्ताः । करते रहना, ४ कषाय-क्रोध, मान, माया लोभ, ५ पांचों इन्द्रियों के विषय, १ निदा और १ मोह ये पन्द्रह प्रमाद हैं । इन प्रमादोंको परस्परमें मिलानेसे ( xxxx५८०) प्रमादके अस्सी भेद होजाते हैं । तथा २५ विकथा, सोलह कषाय और नौ नोकषाय इसतरह पचीस कषाय, पाच इन्द्रिय और एक मन ये छः,स्त्यानगृद्धि निद्रानिद्रा प्रचला प्रचला निद्रा प्रचला ये पांच निद्रा, नेह और मोह ये दो, इनको परस्परमें गुणा करनेसे (२५४२५४६४५४२) प्रमादके सैतीस हजार पाँचसौ मेद होते हैं ।। १९५॥ अब मध्यम अन्तरात्माका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-श्रावकके व्रतोंको पालने वाले ग्रहस्थ और प्रमत्त गुण स्थानवर्ती मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं । ये जिनवचनमें अनुरक्त होते हैं, उपशम खभाववाले होते हैं और महा पराक्रमी होते है ।। भावार्थ-बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमा और तरेपन क्रियाओं को पालनेवाले, पश्नम गुणस्थान वर्ती देशवती श्रावक तथा प्रमत्त गुणस्थान वर्ती मुनि मध्यम अन्तरात्मा होते हैं। ये देशवती श्रावक और महाव्रती मुनि जिन भगवान के द्वारा कहे गये छद्रव्यों, पांच अस्तिकायों, सात तत्त्वों और नौ पदायोंमें अत्यन्त श्रद्धा रखते हैं-कोई मी उन्हें उससे विचलित नहीं कर सकता । तथा उनकी मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक् मिथ्याव मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ और प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ रूप कषाय यथासंभव शान्त रहती हैं और उपसर्ग तया परीषह वगैरह होनेपर भी वे अपने १स अविरद । २० सम्माडौ। ३व विपिणद, म जिणंद। ममुर। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९८] १०. लोकानुप्रेक्षा पुनः कीरक्षाः। गुणगहणे अणुनतमहावतादिगुणपाहणे, सुन्छु अतिशयेग अनुरका प्रेमपरिणताः त्रिमहा। 'गणित प्रमोदम्' इति वचनात् । तथा योसम् । “अपन्या अन्तरात्मानो गुणस्थाने चतुर्यके । सन्ति द्वादश्चमे सर्वोत्तमा: क्षीणकषामिणः"भन्तरास्माम आत्मज्ञाः गुणस्थानेषु भनेकधा मध्यमा पामेकादशान्तेषु गुणकरिगाः इति॥१९॥ अथ परमात्मानं सक्षयति सम्सरा अरहता कपल-णाण मुणिय-सयलस्था। णाण-सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम-सुक्ख-संपत्ता ॥ १९८ ॥ [छाया-सशरीराः भईन्तः केवलज्ञानेन साससकलार्थाः । शानशरीराः सिद्धाः सर्वोतमसौख्वसंप्रासाः ॥] महन्तः सर्वज्ञाः परमात्मानः कीरक्षाः । सशरीराः परनौदारिकशरीरसहिताः । रसासरमासमेदोऽस्सिमजावाति धातयः सप्त, तथा मलमूत्रादिसतोपघातयः, ताभिर्विवर्जितशरीराः चतुस्त्रिंशदतिशवाटप्रातिहानिन्वयनुष्य पहिताः । तथा गौतमखामिना उकं च।मोहाविसर्वदोषारिघातकेभ्यः सदा हतरजोभ्य विरहितरहस्कृतभ्यः पूजाभ्यो नमोऽईब्रः। अन्तिो जिनेन्द्राः त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानवर्तिनः मुण्डकेवल्यादयक्ष परमात्मानो भवन्तीलः। करवाने । बरूशानेन भुनित सातसकलार्याः फेवलज्ञानदर्शनाभ्यां शासदृष्टयुगपदतीतानागतवर्तमानमीवादिपदार्थाः । सिदाः विपरव्रतोंसे विचलित नहीं होते ॥ १९६ ॥ अब जघन्य अन्तरात्मा का खरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा है। वे जिन भगवानके चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं और गुणोंको ग्रहण करनेमें बड़े अनुरागी होते हैं | भावार्य-अविरत सम्पग्दृष्टि अर्थात् चौथे अविरत गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यक दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा होते हैं। वे जिन भगवानके चरणकमलोंके भक होते हैं, वणुक्त महावत आदि गुणोंको ग्रहण करनेमें असन्त अनुरक्त होते हैं अथवा गुणों के अनुरागी होने के कारण गुणीजनोंके बड़े प्रेमी होते हैं, क्योंकि गुणीजनोंको देखकर प्रमुदित होना चाहिये ऐसा वचन है। कहा भी है-“चौथे गुण स्थानवी जीव जघन्य अन्तरात्मा है। और बारहवें गुणवान वर्ती क्षीणकषाय जीव सबसे उत्कृष्ट अन्तरात्मा है तथा मध्यम अन्तरात्मा पांचवे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक गुणोंमें बढ़ते हुए अनेक प्रकारके होते हैं । विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है। चौथे गुणस्थान वाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीत्र जघन्य अन्तरात्मा होते हैं। ये जिनेन्द्रदेव, जिनवाणी और निर्मन्य गुरुओंकी भक्ति करने में सदा तत्पर रहते हैं। अपनी सदा निदा करते रहते हैं। क्यों कि चारित्र मोहनीय का उदय होने से उनसे व्रत तो धारण किये नहीं जाते। किन्तु भावना सदा यही रहती है कि हम कब प्रत धारण करें अतः अपने परिणामोंकी सदा निन्दा किया करते हैं और जिनमें सम्यग्दर्शन आदि गुण देखते हैं उनसे अत्यन्त अनुराग रखते हैं । इस तरह अन्तरारमाके तीन भेद कहे। सो चौथे गुणस्थान वाला तो जघन्य अन्तरात्मा है, पांचवे गुणसान वाला मध्यम अन्तरात्मा है और सातवें गुणस्थानसे लगाकर बारहवें गुणस्थान तक उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। इनमें मी सबसे उत्कृष्ट अन्तरात्मा बारहवें गुणस्थान वर्ती हैं अतः उसकी अपेक्षासे पांचवेसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकके जीवोंको मी मध्यम अन्तरात्मा कह सकते हैं ॥ १९७ ॥ वन परमात्माका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-केवल ज्ञानके द्वारा सब पदायाँको जान लेनेवाले, शरीर सहित १ग सौक्त। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९९मेष्ठिनः दिखीमपरमात्मानः । ज्ञानं केवलज्ञान तत्साहचर्यात् फेवलदर्शनं च तदेव शरीरं येषां ते शामशरीराः । पुनः किंभूताः । सर्वोत्तमसौख्यसंप्राप्ताः, सर्वोत्कृष्ठानन्तसातं तत्साहचर्यात् अनन्तवीर्य च प्राप्ताः। तथा सम्यक्त्वायटगुणान् अनन्तगुण्वन् या प्राप्ताः सिद्धाः। “अविदम्ममुके अगुणदुसरे बरे। अट्ठमपुढविनिधिढे णिद्वियक य वदिमो जिपं ।" इखादिगुणगणाधिश परमात्मानो भवन्ति ।। १९८ ॥ श्रथ परशब्दं व्याख्याति णीसेस-कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती। कम्मज-भाष-खए वि य सा वि य पत्ती' परा होदि ॥ १९९ ॥ [छाया-निःशेषकर्मनाशे यात्मखभावेन या समुत्पत्तिः। कर्मजभावक्षये अपि च सा अपि च प्राप्तिः परा भवति । अपि च पुनः,सा पत्ती जीवानां प्राप्तिः परा उत्कृष्श भवति । सा का। या आत्मखभावेन आत्मस्वरूपेण शुनपुरकपरमानन्दस्वखरूपेण समुत्पत्तिः सम्यम् निष्पतिक सति । निःशेषकर्मनाशे सति, समस्तज्ञानावरणादिकर्मणां अरहन्त और सर्वोत्तम सुखको प्राप्त कर लेनेवाले तथा ज्ञानमय शरीरवाले सिद्ध परमात्मा हैं । भावार्थ-स, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र ये सात धातुएं हैं और मल मूत्र वगैरह सात उपधातुएँ हैं । इन धातु उपधातुओंसे रहित परम औदारिक शरीर वाले, तथा चौंतीस अतिशय, आठ प्रतिहार्य और अनन्तचतुष्टयसे सहित अर्हन्तदेव होते हैं । गौतम स्वामीने भी कहा है-"मोह आदि समस्त दोषरूपी शत्रुओंके घातक, सर्वदा के लिये ज्ञानावरण और दर्शनावरण रूपी रजको नष्ट कर डालनेवाले तथा अन्तराय कर्मसे रहित, अत एव पूजाके योग्य अईन्त भगवानको नमस्कार हो।" ये तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जिनेन्द्र देव तथा मूक केवली वगैरह, जिन्होंने कि केवलज्ञान और केवल दर्शनके द्वारा भूत, वर्तमान और भावी जीव आदि सब पदार्थोकी पर्यायोंको एक साथ देखा और जाना है, वे परमात्मा हैं। दूसरे परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी है, जिनका केवल ज्ञान और केवल दर्शन ही शरीर है तथा जो सबसे उत्कृष्ट मुख, और उसके सायी अनन्तवीर्यसे युक्त हैं, और सम्यक्त्व यादि बाठ गुणोंसे अथवा अनन्तगुणोंसे सहित हैं। कहा मी है-"जो आठों काँसे मुक हो चुके हैं, आठ गुणों से विशिष्ट हैं और आठवी पृथिवीके ऊपर स्थित सिद्धालयमें विराजमान है सपा जिन्होनें आप सब कर्तव्य पूरा कर लिया है उन सिद्धोंकी सदा बन्दना करता हूँ।" सारांश यह है कि अर्हन्त देव सकल (शरीर सहित ) परमात्मा हैं और सिद्ध विकल (शरीर रहित) परमारमा है ।। १९८ ॥ अब 'परा' शब्दका व्याख्यान करते हैं । अर्थ-समस्त कमीका नाश होनेपर अपने खभावसे जो उत्पन्न होता है उसे परा कहते हैं। और कोसे उत्पन्न होने वाले भावोंके क्षयसे जो उत्पा होता है उसे मी पर कहते हैं ॥ भावार्थ-समस्त ज्ञानावरण आदि कोका क्षय होनेपर जीवको जो प्राप्ति होती है वह पस अर्थात् उत्कृष्ट है । तथा कर्म जन्य औदयिक क्षायोपशमिक और औपशमिक जो राग द्वेष मोह आदि भाव हैं, उनका पूरी तरइसे नाश हो जानेपर मी जो प्राप्ति होती है यह भी परा अर्थात् उत्कृष्ट है। वह 'परा' अर्थात् उत्कृष्ट, 'मा' अर्थात् बाम और अन्यन्तर रूप लक्ष्मी जिनके होती है वे परमात्मा होते हैं । विशेष अर्थ इस प्रकार है । 'परा' अर्थात् उत्कृष्ट, भा' अर्थात् लक्ष्मी जिसके हो उस आत्माको परमात्मा कहते हैं। यह परमात्मा मलग किस्सेस। २म मुत्ती। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०१] १०. लोकानुप्रेक्षा १३५ नाझे हये सति । अपि पुनः कर्मज भाषक्षये, कर्मजा भाषाः श्रदयिकक्षायोपशमिकोपशमिकाः रागद्वेषमोहादनो. मा तेषां क्षये निःशेषनाशे सति । सा परा उत्कृष्टध मा लक्ष्मीर्वाद्याभ्यन्तररूपा येषां ते परमात्मानो भवन्ति ॥ १९९ ॥ are यदि सर्वे जीवाः शुद्धखभावाः तेषां तपश्चरणविधानं निष्फलं भवतीति पूर्वपक्षं गाथाद्वयेन करोति जर पुर्ण सुद्ध-सहावा सव्वे जीवा अणाइ-काले वि तो' तव चरण-विहाणं सव्वेसिं णिष्फलं होदि ॥ २०० ॥ [ छाया-यदि पुनः शुद्धखभावाः सर्वे जीवाः अनादिकाळे अपि तत् तपश्चरणविधानं सर्वेषां निष्फलं भवति ॥ यदि चेत, पुनः सर्वे जीवाः अनादिकालेऽपि मनाद्यनन्तकालेऽपि शुद्धखभावाः कर्ममलकलङ्कराहित्येन शुद्धखमानाः बुटकी केवलज्ञानदर्शनस्वभावाः । तो तर्हि सर्वेषां जीवानां तपश्चरणं ध्यानाध्यवन दानादिकं परीषशेोपसर्गसहनं च तस्य विधानं निष्पादनं कर्तव्य निष्फलं न कार्यकारि भवति ॥ २०० ॥ किं चेति दूवणान्तरे ता कहें गिहदि देहं णाणा-कम्माणि ता कहं कुणदि । सुहिदा वियदुहिदा वि य णाणा-रुत्री कहं होंति ॥ २०९ ॥ [छाया-तत् कथं गृह्णाति देहं नानाकर्माणि तत् कथं करोति । सुखिताः अपि च दुःखिताः अपि च नानारूपाः कथं भवन्ति ॥ ] पुनः यदि सर्वे जीवाः सदा शुद्धख भाषाः, हा तर्हि, बेहम् औदारिकादिशरीरे सप्तधातुमूत्रादिम कथं हन्ति । जीवानां शुद्धखभावेन शरीरग्रहणायोगात् । यदि पुनः सर्वे जीवाः सदा कमककरूडरहिताः सा सहि नानाकर्माणि गमनागमनशयनभोजन स्थानादीनि अमिषिकृषिवाणिज्यादिकार्याणि ज्ञानावरणादीनि कर्माणि च कर्म शब्दका अर्थ है। सो घातिया कर्मोंको नष्ट करके अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मीको और समयसरण आदि रूप बाह्य लक्ष्मीको प्राप्त करनेवाले अरहन्त परमेष्ठी परमात्मा हैं । वे ही समस्त कर्मोको तथा कर्मसे उत्पन्न होनेवाले औदायिक आदि भावोंको नष्ट करके आत्म स्वभावरूप लक्ष्मीको पाकर सिद्ध परमात्मा हो जाते है ॥ १९९ ॥ कोई कोई मतावलम्बी आत्माको सर्वधा शुद्ध ही मानते हैं । दो गाथाओंसे उनका निराकरण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि सब जीव शुद्धखभाव हैं तो उनका तपश्चरण आदि करना व्यर्थ है । अर्थ-यदि अनादिकालसे सब जीव शुद्धखभाव है तो सबका तपश्चरण करना निष्फल होता है । भावार्थ - यदि सब जीव सदा शुद्धस्वभाव हैं तो सब जीवोंका ध्यान, अध्ययन आदि करना, दान देना और परीषद उपसर्ग वगैरह सहना तथा उसका विधान करना कुछमी कार्यकारी नहीं होगा ॥ २०० ॥ और मी दूषण देते हैं । अर्थ-यदि जीव सर्वथा शुद्ध है तो वह शरीरको कैसे ग्रहण करता है ! अनेक प्रकारके कमों को कैसे करता है ? तथा कोई सुखी है, कोई दुःखी है इस तरह नाना रूप कैसे होता है ? || भावार्थ - यदि सब जीव सदा शुद्धस्वभाव ही हैं तो सप्तधातु और मलमूत्र आदिसे भरे औदारिक आदि शरीरको वे क्यों प्रहण करते हैं ! क्योंकि सब जीवोंके शुद्धस्वभाव होनेके कारण शरीरग्रहण करनेका योग नहीं है। तथा यदि सब जीव सदा कर्ममलरूपी कलङ्कसे रहित हैं तो जाना, आना, सोना, खाना, बैठना आदि, तथा तलवार चलाना, लेखन खेती व्यापार आदि कार्योंको और ज्ञानावरण आदि कर्मों को कैसे करते हैं तथा यदि सब जीव शुद्ध बुद्ध स्वभाववाले हैं तो कोई दुखी कोई सुखी, कोई जीवित कोई मृत, कोई अश्वारोही कोई घोड़े के आगे आगे चलने वाला, कोई बालक कोई वृद्ध, कोई पुरुष कोई भी, १ पुणु । २ से ३ व किंच ४ ल म सग हि । * व सुहिदा वि दुश्दा ६ वा रूवं (३) । ७ इंति, मग होति । ८ व सदो एवं भवति । सब्बे इदि । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकाकियानुप्रेक्षा [गा०२०२करोति केन प्रकारेण कुर्वन्ति । अपि पुनः, सर्वे जीवाः शुद्धबुदखभावाः, ता तर्हि फेचन सुखिताः क्षेचन दुःखिताः । नानारूपाः केचन मरणयुकाः केरन अश्वारोहा: केचनावाने गामिनः केचन बालाः केचन वृद्धाः केचन नराः केचन स्त्रीनपुंसकरूपाः केपन रोगपीखिताः केचन निरामया इत्यादयः कथं भवन्ति ॥ २०१॥ तदो एवं भवति, तत एवं वक्ष्यमाणगाथासूत्रोक्तं भवति सब्वे कम्म-णिबद्धा संसरमाणा अणाइ-कालम्हि । पच्छा तोडिय बंधं सिद्धा सुद्धा धुंवं होति ॥ २०२॥ [छाया-सर्वे कर्मनियताः संसरमाणाः अनादिकाले। पश्चात् त्रोटयित्वा बन्ध सिद्धाः शुद्धाः ध्रुव भवन्ति ॥] अनादिकाले सबै संसारिणो जीवाः संसरमाणा चतुर्विषसंसारे पञ्चप्रकारसंसार था परिभ्रमन्तः च सुमणं कुर्वन्तः कर्मनिमदाः ज्ञानावरणादिवर्मनिवन्धनैः शृंखलाभिः बद्धाः बन्धन प्राप्ताः । पश्चात् कन्धं कर्मबन्ध प्रकृतिस्थित्यभागप्रदेशबन्ध तोडिय पोटयित्वा विनाश्य मिका स्ति कपनाला हिला हिला का शुद्धबुद्धैकखरूपाः । पुनः कीदृक्षाः । धुवाः नित्याः पावताः जन्मजरामरणविवर्जिताः अनन्तानन्तकालस्थायिनः ॥२०३ ॥ अथ येन बन्धन जीवा ईदृक्षा भवन्ति स को बन्ष इति चेदुच्यते - जो अण्णोण्ण-पवेसो जीव-पएसाण कम्म-खंधाणं । सव्व-बंधाण विलओ सो बंधो होदि जीवस्स ॥ २०३ ।। कोई नपुंसक, कोई रोगी कोई नीरोग इस तरहसे नानारूप क्यों हैं ? ऐसा होनेसेही आगेकी गाथामें कही हुई बात घटित होती है । २०१।। आगे कहते हैं कि यह सब तमी हो सकता है जब ऐसा माना जाये । अर्थ-सभी जीय अनादिकालसे काँसे बंधे हुए हैं इसीसे संसारमें भ्रमण करते हैं। पीछे कर्मबन्धनको तोड़कर जब निश्चल सिद्ध पद पाते हैं तब शुद्ध होते हैं । भावार्थ-अनादिकालसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चाररूप अथवा चारों गतियोंकी अपेक्षा चार रूप और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा पांचरूप संसार में भटकनेवाले सभी संसारी जीव ज्ञानावरण आदि कोंकी सांकलोंसे बंधे हुए हैं । पीछे प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी अपेक्षासे चार प्रकार के कर्म बन्धनको तोड़कर कर्ममलरूपी कलङ्कसे रहित सिद्ध हो जाते हैं । तब वे शुद बुद्ध स्वरूपवाले, और जन्म, बुढापा और मृत्युसे रहित होते हैं । तथा अनन्तानन्त काल तक वहीं बने रहते हैं। अर्थात् फिर वे कभी भी लौटकर संसारमें नहीं आते ॥ २०२॥ आगे जिसबन्धसे जीव बंधता है उस बंधका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जीवके प्रदेशोंका और कर्मके स्कन्धोंका परस्परमें प्रवेश होनाही जीवका बन्ध है। इस बन्धमें सब बन्धोंका बिलय हो जाता है । भावार्थ-जीवके लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशोंका और सिद्धराशिके अनन्तवें भाग अथवा अभव्यराशिसे अनन्तगुणी कार्मणवर्गणाओंका परस्परमें मिलना सो बन्ध है । अर्थात् एक आत्माके प्रदेशोंमें अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धोंके प्रवेशका नाम प्रदेश बन्ध है। इसीमें प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका लय होता है। कहा भी है.-"जीव राशि अनन्त है और एक एक जीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं। तथा एक एक आत्मप्रदेशपर अनन्त कर्मप्रदेश होते हैं। आत्मा और कर्मके प्रदेशोंका ग तदा। २ग पुस्तकयोरेपा गाथा नास्ति संस्कृतम्याश्या तु पर्वते। म मुबा सिया। पूर्व (१),म धुआ,सना। ५वको बंधी ।। जो अण्णोपण इत्यादि। ६मबलिद्ध। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०४ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १३७ छाया - म: अन्योन्यप्रवेशः जीवप्रदेशान) कर्मस्कन्धानाम् । सर्वबन्धानाम् अपि लयः स बन्धः भवत्ति जीवस्य ॥ ] जीवस्य संसारिप्राणिनः स प्रसिद्धः बन्धो भवति कर्मणां बन्धः स्यात् । स कः । यः जीव प्रवेशानां लोकमात्राणाम् असंख्यातप्रमिलानां कर्मस्कन्धानां कार्मणवर्गेणानां सिद्धानन्तेक भागानाम् अभव्यसिद्धादनन्तगुणानाम् अन्योन्ये प्रवेशः परस्परं प्रवेश एकसिषात्मप्रदेशे अनन्तानां पुलकन्वान प्रवेशः स प्रदेशअन्धो भवति । अपि पुनः, सर्वबन्धानां प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धानां लभो कयः लीनश्च । उक्तं च । "जीच परसेकेके कम्मपएसा हु अंतपरिहीणा । होति घणा णिविडभुवो संबंधी होइ णायब्बो ॥" मीवर शिरनन्तः प्रत्येकमेकैकस्य जीवस्यासंख्याताः प्रदेशा आत्मनः एकैकस्मिन् प्रदेशे कर्मप्रदेशा, हु स्फुटम्, अंतरिक्षीणा इति अनन्ता भवन्ति । एतेषाम् आत्मकर्मप्रदेशानां सम्यम्मन्भो भवति । स बन्धः किंलक्षणो ज्ञातव्यः । घनः निविडभूतः पनवस, लोहमुद्गरषत् निबिडभूतः दृढतर इत्यर्थः । इति तथा सोयाविताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः इति बन्धः ॥२०३॥ अथ सर्वेषु द्रव्येषु जीवस्य परमतत्त्वं निगदति उम-गुणाण धामं सब-दवाणं उत्तमं दक्षं । ताण परम-तचं जीवं जाणेहे णिच्छयदो ॥ २०४ ॥ , [ छाया-वत्तमगुणानां बाम सर्वद्रव्याणाम् उत्तमं द्रव्यम् तत्त्वानां परमतत्त्वं जीवं जानीत निश्वयतः ॥ ] निश्चयतो निश्चयनयमाश्रित्य जानीहि । कम् । उत्तमगुणानां धाम जीवम केवलज्ञानदर्शनानन्तसुखवीर्यादिगुणानां सम्यक्स्वाथष्टगुणानां चतुरशीति लक्ष गुणानाम् अनन्तगुणानां वा धाम स्थानं गृहमाधारभूतम् आत्मानं बुध्यख स्वम् । सर्वेषां द्रव्याणां मध्ये उत्तमं द्रव्यम उत्कृष्टं वस्तु जीवं जानीहि । जीवधर्माधर्माकाशकालानां जड़त्वमचेतनत्वं च लोहे के मुरकी तरह मजबूत जो सम्बन्ध होता है वही बन्ध है । तत्त्वार्थ सूत्रमें प्रदेशबन्धका स्वरूप | इस प्रकार बतलाया है - प्रदेशबन्धका कारण सब कर्म प्रकृतियां ही हैं, उन्हीं की वजहसे कर्मबन्ध होता है। तथा वह योगके द्वारा होता है और सब भयोंमें होता है। जो कर्मस्कन्ध कर्मरूप होते हैं I सूक्ष्म होते हैं, आत्माके साथ उनका एक क्षेत्रावगाह होता है । बन्धनेपर वे आत्मामें आकर ठहर जाते हैं और आत्मा सब प्रदेशों में हिलमिल जाते हैं तथा अनन्तानन्त प्रदेशी होते हैं। जो आत्मा कर्मो से बेधा हुआ है उसीके प्रतिसमय अनन्तानन्त प्रदेशी कर्मस्कन्धोंका बन्ध हुआ करता है । बन्धके चार भेद हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । प्रकृति नाम स्वभावका है । कालकी मर्यादाको स्थिति कहते हैं। फल देनेकी शक्तिका नाम अनुभाग है और प्रदेशोंकी संख्याका परिमाण प्रदेशबन्ध है । ये चारों बन्ध एक साथ होते हैं। जैसे ही अनन्तानन्त प्रदेशी कर्मस्कन्धका आत्माके प्रदेशोंके साथ सम्बन्ध होता है तत्कालही उनमें ज्ञानको घातने आदिका स्वभाव पड़ जाता है, वे कबतक आत्माके साथ बंधे रहेंगे इसकी मर्यादा बन्धजाती है और फलदेनेकी शक्ति पड़ जाती है | अतः प्रदेशबन्ध के साथही शेष तीनों बन्ध हो जाते हैं। इसीसे यह कहा है कि प्रदेशबन्ध में ही सब बन्धोंका लय है ॥२०३॥ आगे कहते हैं कि सब द्रव्योंमें जीव ही परम तत्त्व है । अर्थ-जीव ही उत्तमगुणों का धाम है, सब द्रव्योंमें उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वोंमें परमतत्त्व है, यह निश्वयसे जानो । भावार्थ - निश्चयनयसे अपनी आत्मा को जानो। यह आत्मा केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख, अनन्तवीर्य आदि गुणोंका, अथवा सम्यश्च, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघु, अवगाहना, सूक्ष्मत्व, वीर्य, अव्याबाध इन आठ गुणोंका, अथवा चौरासी लाख गुणों अथवा अनन्त गुणोंका आधार है । सब द्रव्योंमें यही उत्तम द्रव्य है क्योंकि अजीव द्रव्य - धर्म, अधर्म, काल, आकाश और पुद्गल तो जड़ हैं १ [ सव्वद्दव्वाण ] । २ ब जाणेहि (१) । कार्तिके० १८ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २०५ वर्तते। जीवद्रव्यस्य तु चेतनत्वं सर्ववस्तुप्रकाशकरषम् उपयोगलक्षणत्वं च वर्त्तते । अत एव जीवद्रव्यमुत्तमं जानीहि । तत्वानां सर्वतवानांमध्ये परमतत्वं जीवं जानीहि । ॥ २०४ ॥ जीवस्यैवोत्तमद्रव्यत्वपरमत्वं कथमिति चेदाह - अंतर-तचं जीवो बाहिर - तचं हवंति सेसाणि । णाण-विहीणं दव्वं हियाहियं' णेये जाणेदि ॥ २०५ ॥ [छाया - अन्तस्तवं जीवः बाह्यतत्त्वं भवन्ति शेषाणि । शानविहीनं भ्यं हिताहितं नैष जानाति ॥ ] जीव आत्मा अंतरतां अन्ततश्वम् आभ्यन्तरतत्त्वम् । शेषाणि तत्त्वानि भजीरावबन्धादीनि पुत्रमित्रकलत्रशरीर गृहादिखेतनाचेतनादीनि च बाहिर बाह्यतत्त्वं भवति । जीव एवं अन्तस्तस्वम् । कुतः । यतः शेषद्रव्याणामचेतनत्यम् । ज्ञानेन विहीनं द्रव्यं पुद्रलधर्माधर्माकाशकालरूपं इव्यं हिताहितं देयोपादेयं पुण्यं पापं सुखदुःखादिकं नैव जानाति । शेषाणां तु अज्ञस्वभावात्, जीवस्य ज्ञस्वमाचात् सर्वोत्तमत्त्वम् । परमात्मप्रकाशे प्रोतं च । “अं णियदम्ब मिष्णु जहु तं परदम्बु त्रियाणि । पोरल धम्मम्म गहु काल वि पंचमु जाणि ॥” इति ॥ २०५ ॥ जीवणिरून जीवद्रव्यस्य निरूपणं समाप्तम् ॥ अथ पुगलद्रव्य स्वरूप गाथाषट्रेन विवृणोति सव्वो लोयायासो पुग्गल - दव्वेहिं सव्वदो भरिदो । सुमेहिं नायरेहि य णाणा - विह सत्ति - जुत्तेहिं ॥ २०६ ॥ [ छाया - सर्वः लोकाकाशः पुजलदम्यैः सर्वतः मृतः । सूक्ष्मेः बादरैः च नाना विषशक्तियुक्तैः ॥ ] सर्वैः जगच्छ्रेणिधनप्रमाणः लोकाकाशः पुद्रलद्रव्यैः सर्वतः मृतः । कीदृक्षैः । पुङ्गलद्रव्यैः सूक्ष्मैः बादरैः स्थूलैः । पुनः कीदृक्षैः । अचेतन हैं किन्तु जीवद्रव्य चेतन है, वह वस्तुओंका प्रकाशक अर्थात् जानने देखनेवाला है; क्योंकि उसका लक्षण उपयोग है । इसीसे जीवद्रव्य ही सर्वोत्तम है। तथा जीव ही सब तत्त्वोंमें परमतत्त्व है ॥ २०४ ॥ आगे कहते हैं कि जीव ही उत्तम और परमतत्व क्यों हैं ! अर्थ-जीब ही अन्तस्तव है, बाकी सब बाह्य तत्त्व हैं । वे बाह्यतस्य ज्ञानसे रहित हैं अतः वे हित अहितको नहीं जानते ।। भावार्थआत्मा अभ्यन्तर तत्त्व है बाकीके अजीव, आस्रव, बन्ध वगैरह पुत्र, मित्र, स्त्री, शरीर, मकान आदि चेतन और अचेतन द्रव्य बाह्य तत्त्व हैं। एक जीव ही ज्ञानवान् है बाकी सब द्रव्य अचेतन होने के कारण ज्ञानसे शून्य हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और कालद्रव्य हित अहित, हेय, उपादेय, पुण्य पाप, सुख दुःख वगैरह को नहीं जानते। अतः शेष सब द्रव्योंके अज्ञस्वभाव होनेसे और जीवके ज्ञानस्वभाव होनेसे जीव ही उत्तम है। परमात्मप्रकाशमें कहा भी है- 'जो आत्म पदार्थसे जुदा जड पदार्थ है, उसे परद्रव्य जानो । और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और पाँचवाँ कालद्रव्य ये सब परद्रव्य जानो । जीवद्रव्यका निरूपण समाप्त हुआ || २०५ || अब छः गाथाओंके द्वारा पुद्गल द्रव्यका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-अनेक प्रकारकी शक्ति से सहित सूक्ष्म और बादर पुद्गल द्रव्योंसे समस्त लोकाकाश पूरी तरह भरा हुआ है । भावार्थ - यह लोकाकाश जगतश्रेणिके, घनरूप अर्थात् ३४३ राजु प्रमाण है । सो यह पूराका पूरा लोकाकाश शरीर आदि अनेक कार्य करनेकी शक्ति से युक्त तेईस प्रकारकी वर्गणा रूप पुङ्गलद्रव्योंसे, जो सूक्ष्म भी हैं और स्थूल भी हैं, भरा हुआ है । उन पुतलोंके सूक्ष्म और बादर भेद इस प्रकार कहे हैं- "जिनवर देवने पुद्गल द्रव्यके छः भेद बतलाये हैं- पृथ्वी, जल, छाया, चक्षुके सिवा शेष चार इन्द्रियोंका विषय, कर्म और परमाणु । इनमेंसे पृथ्वीरूप पुद्गल द्रव्य बादर बादर है; क्योंकि जो छेदा भेदा जा सके तथा एक जगहसे दूसरी जगह ले जाया जा सके १ क स ग हेमा २ व शेव । ३ व जीवणिरुवणं । सो इत्यादि । ४ ब भरिओ । 1 · Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०६] १०. लोकायुप्रेक्षा मालाविपक्षफियुक्तः त्रयोविंशतिवर्गणाभिरनेकशरीरादिकार्यकरणशक्तियुक्तः । तेषां पुत्रलाना मत्व पादरवं च व्यमिति चेत् । "धुब्वी जलं च छाया च दियविसयकम्मपरमाणू । छम्बिहमेयं भणियं पोग्गलव जिणवरेहि ॥" · पृथ्वी १ २ छाया ३ चक्षुर्वर्जितशेषचतुरिन्द्रियविषयः ४ कम ५ परमाणुश्च ६ इति पुरलद्रव्य षोडा जिनघरैमणि तम् । "पावरवादर १ भावर १ बादरमहुम ३ च सूहुमथूल ४ च । सुहुम च ५ सुहुमसृहुमं ६ घरादियं होदि छामेवं ।।" पृथ्वीकपद्रलय बादरवादरम्, छेतु भेत्तुमन्यत्र नेतुं शक्म तदादरवादरमित्यर्थः १। जलै बादरम्, यच्छतुं अनुमशक्यमन्मत्र नेतुं शक्य तद्वादरमित्यर्थः २। छाया पावरसूक्ष्मम् , यच्छतु मेस्तुम् अन्यत्र नेतुम् अशक्य तद्वादरसूक्ष्म मित्यर्थः । यश्चक्षुर्वर्जितचतुरिन्द्रिय विषयो माह्यावसूक्ष्मस्थूलम् ४ । कर्म सूक्ष्म, यष्य देशावधि उसे बादर बादर कहते हैं । जल बादर है; क्योंकि जो छेदा भेदा तो न जासके किन्तु एक जगहसे दूसरी जगर के जाया जा सके यो मार कहते हैं। छाया बादर सूक्ष्म हैं; क्यों कि जो न छेदा भेदा जासके और न एक जगह से दूसरी जगह लेजाया जा सके, उसे बादर सूक्ष्म कहते हैं । चक्षुके सिवा शेष इन्द्रियोंका विषय जो बाह्म द्रव्य है जैसे, गन्त्र, रस, स्पर्श और शब्द ये सूक्ष्मबादर हैं । कर्म सूक्ष्म हैं; क्योंकि जो द्रव्य देशावधि और परमावधिका विषय होता है वह सूक्ष्म है । और परमाणु सूक्ष्म सूक्ष्म है; क्यों कि वह सर्वावधि ज्ञानका विषय है ।" और मी कहा है-"जो सब तरहसे पूर्ण होता है उस पुद्गलको स्कन्ध कहते हैं । स्कन्धके आधे भागको देश कहते है और उस आधेके भी आधे भरगको प्रदेश कहते हैं। तथा जिसका दूसरा भाग न होसके उसे परमाणु कहते हैं । अर्थात् जो आदि और अन्त विभागसे रहित हो, यानी निरंश हो, स्कन्धका उपादान कारणहो यानी जिसके मेलसे स्वन्ध बनता हो और जो इन्द्रिय गोचर न हो उस अखण्ड अविभागी द्रव्यको परमाणु कहते हैं । आचार्य नेमिचन्द्र वगैरहने पुद्गल द्रन्यकी विभाव व्यंजनपर्याप अर्थात् विकार इस प्रकार कहे हैं-"शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, मेद, तम, छाया, मातप और उद्योत ये पुद्गलद्रव्यकी पर्याये है।" इन पर्यायोंका विस्तृत वर्णन करते हैं। शब्दके दो मेद हे-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्दके भी दो मेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। संसात भाषा, प्राकृतभाषा, अपभ्रंश भाषा, पैशाचिक भाषा आदिके मैदसे अक्षरात्मक शब्द अनेक प्रकारका है, जो आर्य और म्लेच्छ मनुष्योंके व्यवहारमें सहायक होता है। दो इन्द्रिय आदि तिर्यश्च जीवोंमें तथा सर्वज्ञकी दिव्यध्वनिमें अनक्षरात्मक भाषाका व्यवहार होता है । अभाषामक शब्द भी मायोगिक और वैनसिकके मेदसे दो प्रकारका है । जो शब्द पुरुषके प्रयन करनेपर उत्पन्न होता है उसे प्रायोगिक कहते हैं। उसके चार भेद हैं-तत, वितत, घन और सुषिर । वीणा वगैरहके शब्दको तत कहते हैं । ढोल वगैरहके शब्दको वितत कहते हैं । कसिके बाजेके शब्दको घन कहते हैं। और बांसुरी वगैरहके शब्दको सुषिर कहते हैं । जो शब्द खभावसे ही होता है उसे वैनसिक कहते हैं । जिग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे जो बिजली, मेघ, इन्द्रधनुष आदि बन जाते हैं, उनके शब्दको वैवसिक कहते हैं जो अनेक प्रकारका होता है । इस प्रकार शब्द पुद्गलका ही विकार है । अब बन्धको कहते हैं । मिट्टीके पिण्ड' आदि रूपसे जो अनेक प्रकारका बन्ध होता है वह केवल पुद्गल पुगलका बन्ध है । कर्म और नोकर्मरूपसे जो जीव और पुद्गलका संयोगरूप बन्ध होता है वह ब्रम्पबन्ध है और रागद्वेष आदि रूपसे भावबन्ध होता है । बेर वगैरहकी अपेक्षा बेल वगैरह Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२०६परमावधिविषयं तत्सूक्ष्ममित्यर्थः ५। परमाणुः सूक्ष्मसूक्ष्मम् , यस्सर्वावधिविषयं तत्सूक्ष्म सूक्ष्ममित्यर्थः । "खंछ सयलसमत्थं तस्स य म भगति देखो ति1 अदद्धं च पदेसो अविमागी चेव परमाणू ॥" स्कन्धं सर्वाशसंपूर्ण भणन्ति तदर्थ च देशम् , अर्धस्या प्रदेशम् , हा विभागीभूतं परमाणुरिति । “आश्चन्तरहितं द्रव्य विश्लेषरहितांशकम् । स्कन्धोपादानमत्यक्ष परमाणु प्रचक्षते ॥' तथा पुद्गलद्रव्यस्य विभावव्यानपर्यायान् विकारान् नेमिचन्द्रायाः प्रतिपादयन्ति । "सद्दो चंधो मुहुमो धूलो संठाणमेदतमछाया । उजोदादवसहिश पुम्गलद वस्स पज्जाया" शब्दवन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदसमश्छायानपोद्योतसहिताः पुद्रलद्रव्यस्य पर्याक्षः विकारा भवन्ति । अथ विस्तारः । भाषात्मकोऽभाषात्मकः द्विधा शब्दः । तत्राक्षरानक्षरात्मकभेदेन भाषात्मको द्विधा भवति । तत्राप्यक्षरात्मकः संस्कृतप्राकृतापभ्रंशपेशाधिकादिभाषामेदेनार्यम्लेच्छमनुष्यादिस्यवहारहेतुबहुधा । अनक्षरारमकस्तु द्वीन्द्रियादितिर्यजीवेषु सर्वज्ञदिव्यध्वनी । अभापात्मकोऽपि प्रायोगिकवैधसिकमेदेन द्विविधः । “ततं वीणादिक झेयं विततं पटहादिकम् । धन तु कसतालादि सृषिरं वैशादिकं विदुः ॥" इति श्लोककथितक्रमेण पुरुषप्रयोगे भवः प्रायोगिकः चतुर्धा। विभ्रसा स्वभावेन भवो श्रसिकः । निम्बरूक्षस्नमुणानिमित्तो विधुदुरुकामेघामिहरेन्द्रधनुरादिप्रभवो बहुधा । इति पुगतस्य विकार एव शम्दः बन्धः कश्यते। भृत्पिण्डादिरूपेण योऽसौ बहुधा पन्धः स केवलः पुद्गलबन्धः, यस्तु कर्मनोकर्मरूपः जीवपुद्गलसंयोगबन्धः, असो द्रष्यबन्धः । रागद्वेषादिरूपो भावबन्धः २। बिस्वायपेक्षया बदरादीनां सूक्ष्मत्वं परमाणोः साक्षादिति ३ । बदराद्यपेक्षया बिल्वादीनां स्थूलत्वं जगव्यापिनि महास्कन्धे सर्वोत्कमिति ४ । जीवानां समचतुरखन्यग्रोधवाल्मीककुब्जकवामनहुण्डकमेवेन षट् प्रकार संस्थानम् पुदलसंस्थानम् । वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणमेघपटलादिश्यकाव्यक्तरूव बहुधा संस्थानं तदपिपुद्गल एव । मेदाः षोढा, उत्करचूर्णखण्डचूर्णिकाप्रतराणुचटनविकरूपात । तत्रोत्करः काठादीनां करपत्रादिभिरुत्करः, चूर्गो यगोधूमावीन ससुकणिकादि:२, सण्डो घटादीनां कपालशर्करादि ३, चूर्णिया भाषमुद्रादीनाम् , ४, प्रतरोऽश्रपटलावीनाम् ५, अणुचरनं संतप्तायसपिण्डादिषु अयोधनादिभिहन्यमानेषु प्रस्फुलिङ्ग निर्गमः ६, दृष्टिप्रतिबन्धकोऽधकारस्तम इति भण्यते ७। पक्षाद्याश्रयरूपा मनुध्यादिप्रतिविम्बरूपा वर्णादिविकारपरिणता च छाया । उद्योतः चन्द्रविमाने खद्योतादितिर्यम्जीवेषु च भवति । आतपः आदित्यविमानेऽन्यत्रापि सूर्यकान्तमणिविशेषादी पृथ्वीकाये ज्ञातव्यः १० । इति ॥२६॥ सूक्ष्म होते हैं और सबसे सूक्ष्म परमाणु होता है। बेर बगैरहकी अपेक्षा वेल वगैरह स्थूल होते हैं और सबसे स्थूल जगतव्यापी महास्कन्ध होता है । जीवोंके समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध परि मण्डल संस्थान, स्वातिसंस्थान, कुटजक संस्थान, वामनसंस्थान और हुण्डकसंस्थानके भेदसे जो छः प्रकारका संस्थान होता है वह पौद्गलिक है। इसके सिवा तिकोर चौकोर आदिभेदसे मेघपटल वगैरहमें बननेवाले अनेक प्रकार के व्यक्त और अव्यक्त आकार भी पुगलके ही संस्थान हैं । भेदके छ: प्रकार हैं-उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, अतर और अणुचटन । लकड़ीको आरेसे चीरनेपर जो बुरादा पड़ता है वह उत्कर है । जौ, गेहूं वगैरहके आटे और सत्तु वगैरहको चूर्ण कहते हैं । घड़के ठीकरोंको खण्ड कहते हैं । उड़द मूंग वगैरहके छिलकोंको चूर्णिका कहते हैं। मेघपटलको प्रतर कहते हैं । तपाये हुए लोहेको हथोड़ेसे पीटनेपर जो फुलिंग निकलते हैं उन्हें अणुचटन कहते हैं । दृष्टिको रोकनेवाले अन्धकारको तम कहते हैं । वृक्ष बगैरहका आश्रय पाकर प्रकाशका आवरण होनेसे जो प्रतिकृति पड़ती है उसे छाया कहते हैं । वह छाया दो प्रकारकी होती है । एक तो मनुष्य वगैरहका प्रतिबिम्बरूप और एक जैसा मनुष्यका रूप रंग वगैरह हो हूबहू वैसी ही | चन्द्रमाके विमानमें और जुगुनु आदि तिर्यञ्चजीवोंमें उद्योत पाया जाता है अर्थात् चन्द्रमाका और जुगुनु वगैरहका जो प्रकाश होता है उसे उद्योत कहते हैं । सूर्यके विमानमें तथा सूर्यकान्तमणि वगैरह पृथ्वीकायमें आतप पाया जाता है । अर्थात् इनका जो प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं ॥ २०६ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०७] १०. लोकानुप्रेक्षा १४१ जं इंदिएहिँ गिज्झं रूवं-रस-गंध-फास-परिणामं । तं चिये पुग्गल-दब्वं अणंत-गुणं जीव-रासीदो ॥ २०७॥ [छाया-यत् इन्द्रियः प्राय रूपरसगन्धस्पर्शपरिणामम् । तत् एव पुद्रलद्रव्यम् अनन्तगुर्ण जीवराशितः॥] अप पुदलदब्यस्य प्रादित्वमस्तित्वं च कथमिति चेदाह । तदेव पुलद्रम्य जानीहीरयष्याहार्थम् । तत् किम् । यदिन्द्रियः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राक्षेप्रयिं विषयभाव नीतम् । यतः रूपरसगन्यस्पर्शपरिणामम् । अत्र हेस्वर्थे प्रथमा । हेती सर्वाः प्रायः । इति जैनेन्द्रव्याकरणे प्रोतत्वात् । यथा 'गुरको राजमाषो न भक्षणीयाः' इति यथा तथा चार्य पुद्रलद्रव्यम् इन्द्रियमाई रूपरसगन्धस्पर्शपरिणामस्वात् पुद्रलपर्यायत्वात् । यथा शीतोष्णमिवलक्षदकर्कशगुरुलघुसंशाः आष्टी स्पाः, स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृश्यन्ते इति स्पशोः स्पर्शनेन्द्रियेण प्राधा इत्यर्थः । तिजकककवायाम्लमधुरसंशाः पञ्च रसाः, रसनेलियेण रस्यन्ते रसाः रसनेन्द्रियेण प्रायाः इत्यर्थः २ । सुगन्धदुर्गन्धसंज्ञो दो गन्धी, गन्येते तो गन्यौ घ्राणेन्द्रियस्य विषयौ । श्वेतपीतनीलारुणकृष्णसंज्ञाः पक्ष वर्णाः, चक्षुरिन्द्रियेण वष्यन्ते इति चक्षुरिदियेण गोचराः ४ । शन्यते इति शान्दः, कणेन्दियविषयः ५। व्यतिरेकेग जीववत् । तत्कियन्मात्र जीवराशितः । सर्वजीवराशेरनन्तानन्तसंख्यातयुक्तात्यात् १६ अनन्तगुणं पुद्गलद्रव्यं १६ ख ॥ २०७॥ अथ पुलस्य जीवोएकारकारित्वं गायावयेन वशंसांव अर्थ-जो रूप, रस, गन्ध, और स्पर्शपरिणाम वाला होनेके कारण इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है वह सब पुद्गलद्रव्य है । उनकी संख्या जीवराशिसे अनन्तगुणी है ॥ भावार्थ-अब अन्धकार पुद्गलद्रव्यका अस्तित्व और ग्रहण होनेकी योग्यता बतलाते है-'इसीतरह पुद्गलद्रव्यको जानो' यह वाक्य ऊपरसे ले लेना चाहिये । पुद्गलद्रव्य स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जानेके योग्य होता है; क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाया जाता है । इस गाया 'रूवरसगंधफासपरिणाम' यह प्रथमा विभक्ति हेतुके अर्थमें है । क्योंकि जैनेन्द्र व्याकरणमें हेतुके अर्थमें प्रथमा विभक्ति होनेका कथन है। जैसे किसीने कहा-'गुरवो राजमाषा न भक्षणीयाः ।' अर्थात् गरिष्ठ उड़द नहीं खाना चाहिये । इसका आशय यह है कि उड़द नहीं खाना चाहिये क्योंकि वे गरिष्ठ होते हैं-कठिनतासे हजम होते हैं । इस वाक्यमें 'गुरवः' प्रथमा विभक्तिका रूप है किन्तु वह हेतुके अर्थमें है । इसी तरह यहाँ मी जानना चाहिये कि पुद्गलद्रव्य इन्द्रियप्राय है; क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण पाये जाते हैं । जैसे, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कठोर, भारी, हल्का ये आठ स्पर्श हैं । जो स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पष्ट किये जाते हैं अर्थात् स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जानेके योग्य होते हैं उन्हें स्पर्श कहते हैं । तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल, मधुर ये पांच रस है, जो रसनेन्द्रियके द्वारा अनुभूत किये जाते हैं । सुगन्ध और दुर्गन्ध नामके दो गन्ध गुण हैं । बे गन्ध गुण प्राण इन्द्रियके विषय हैं । सफेद, पीला, मोला, लाल और काला, ये पांच वर्ण अर्थात् सूप हैं । जो चक्षु इन्द्रियके द्वारा देखे जाते हैं अर्थात् चक्षु इन्द्रियके विषय होते हैं, उन्हें वर्ण या रूप कहते हैं । जो सुना जाता है उसे शब्द कहते है । शब्द कर्ण इन्द्रियका विषय होता है । इस तरह पुनलं द्रव्यमें रूप स्पर्श आदिके होनेसे वह इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। अब यह बतलाते हैं कि पुद्रलद्रव्य कितने हैं ! समस्त जीवराशी की संख्या अनन्तानन्त है । उससे भी प राजा माषा । १७स स्वरस । २ ब यिव, म स बिय । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ खामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० २०८जीवस्स बहु-पयारं उपयारं कुणदि पुग्गल दव्य ।। देहं च इंदियाणि य वाणी उस्सास-णिस्सासं। २०८ ॥ [छाया-जीवस्य बहुप्रकारम् उपकारं करोति पुद्गल द्रव्यम् । अहं च इन्द्रियाणि च वाणी उच्चासनिःश्वासम् ॥] पुद्गलद्रव्यम् उपकार करोति । कस्य जीवस्यात्मनः । कीरशम् उपकारम् । बहुप्रकारम् अनेकमेदभिन्न सुखदुःखजीवितमरणादिरूपम् । देहम् औदारिकादिशरीरनियादनम्, च पुनः, इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणयक्षुःश्रोत्राणीति निष्पादन च। वाणी शब्दः समपिरा अनमुक्ति दिEAifnावा । उच्चासनिःश्वास प्राणापानोदानव्यानरूपमुपकारे जीवस्य चिदधाति ॥ २०८॥ अण्णं पि एवमाई उलयारं कुणदि जावं संसार। - मोह-अणाण-मर्य' पि य परिणामं कुणदि जीवस्स ॥ २०९ ।। [छाया-अन्यमपि एवमादि उपकार करोति यावत् संसारम्। मोहातानमयम् अपि च परिणाम करोति जीवस्य । पुवतः एवमादिकमन्यमपि उपकार शरीरमाधनःप्राणाधानाः पुनलाना सुखदुःहजीवितमरणोपनहाच इत्याधुपकारे जीवानां करोति । तथाहि। पुतला देहाहीना कर्मनोकर्मवाचनइच्छासनिःश्वासानां निर्वर्तनकारणभूताः नियमेन भवन्ति। ननु कर्मापौगालिकमा नाकारत्वात् , या भाकारयतामौदारिकादीनामेव तथात्वं युक्तमिति । तम। कर्माधि पौलिकमेव लगडकण्टकादिमूर्तदन्यसंबन्धेन पच्यमानस्वात् उदकादिमूर्तसंबन्धेन प्रौयादिवत् । वारद्वेषा व्यभावमेदात् तत्र भाववाग् वीर्यान्तरायमतिश्रुतावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभनिमितत्वात् पौगालिका । तदमाये तस्यभावात् । तरसामोपेतत्वेन क्रियावतास्मना प्रेमाणाः पुद्रलाः घायस्वेन परिणमन्तीति सध्यवागपि पोनालिकैप श्रोनेन्द्रियविषयत्वात् । मनोऽपि तथा द्वेधा। तत्र भाक्मनः लब्ध्युपयोगलक्षणे पुद्गलालम्बनात् पौगलिकम् । द्रष्यमनोऽपि शानापरणवीर्मान्तरायक्षयोपशमायोषारनामकमलाभप्रत्ययगुणदोषविचारस्मरणादिसावधामाभिमुखत्यास्मनोऽनुप्राइकपुदलानां तथात्वेन परिणमनात् पौइलिकम् । वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाजोपालनामोदयापेक्षेणात्मनोदस्यमान ------... अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं । यहाँ सोलह १६ का अंक अनन्तानन्त संख्याका सूचक है और 'ख' अनन्तका सूचक है । अतः जबकि जीवराशिका प्रमाण १६ है तब पुद्गल राशिका प्रमाण १६ ख है ॥२०७॥ अब दो गाथाओंसे पुद्गलका जीवके प्रति उपकार बतलाते हैं । अर्थ-पुद्गल द्रव्य जीवकर बहुत तरहसे उपकार करता है-शरीर बनाता है, इन्द्रियां बनाता है, बचन बनाता है और श्वासोच्छास बनाता है ॥ भावार्थ-पुद्गलद्रव्य जीवका अनेक प्रकारसे उपकार करता है । उसे मुख देता है, दुःख देता है, जिलाता है, मारता है, औदारिक आदि शरीरोंको रचता है, स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियों को बनाता है, तत वितत धन और सौषिररूप शब्दोंको, अथवा सात खररूप शब्दोंको अथवा बावन अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक वाणीको रचता है। और श्वास निश्वास या प्राण अपान वायुको रचता है इस तरह पुद्गल अनेक उपकार करता है ॥२०८ ।। अर्थ-जब तक जीव संसारमें रहता है तब तक पुद्गल द्रव्य इस प्रकारके और मी अनेक उपकार करता है। मोह परिणामको करता है तथा अज्ञानमय परिणामको भी करता है ।। भावार्थ-पुद्गल द्रव्य जीवके अन्य भी अनेक उपकार करता है, क्योंकि तत्वार्य सूत्रमें पुद्गलका उपकार बतलाते हुए लिखा है-'शरीरवाजानःप्राणापानाः पुद्गलानाम्' | 'सुख-दुःखजीवितमरणोपमहाश्च ।' जिसका आशय यह है कि पुद्गल द्रव्य नियमसे मग बहुप्पयारं । २मणीसास। जाम। ४ सग ससारे। ५. मोदं नाम (1) म अण्णाण- मोर, ग मोरो अण्णाणमियं पिय, [ मोदण्याण-मयं] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०९ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १४३ कम्प्रवायुरुच्यासलक्षणः स प्राणः तेनैव वायुनात्मनो बाह्यवायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपानः तो चारनोऽनुग्राहिणी जीवित हेतुत्वात् । ते च मनःप्राणापानाः मूर्तिमन्तः मनसः प्रतिभयहेत्वशनिपातादिभिः प्राणापानयोश्च श्रादिपूतगन्धप्रतिभयेन हस्ततलपुटादिभिर्मुखमरणेन ष्णा मा प्रतिघातदर्शनात् । अमूर्तस्य मूर्तिमद्भिः तदभवाच । तथा सदसद्वेयोदयान्तर हेतौ सवि बाह्यदस्यादिपरिपाकनिमित्त वशेनोत्पद्यमानत्री विपरिताप रूपपरिणामो सुखदुःखे । आयुधक्ष्येन मवस्थितिं विभ्रतो जीवस्य प्राणापान कियाविशेषम्युच्छेदो मरणम् । तानि सुखदुः प्राणापानअविसमरणान्यपि पौगलिकानि मूर्तिमद्धे संनिधाने सति तदुत्पत्तिसंभवात् । न केवलं शरीराणीनामेव निर्वृत्तकारणभूताः घुइकानामपि, कांस्यादीनां भस्मादिभिर्जवादीनां कृतकाशिमिर्लोद्दाधीनां ज्वलनादिभिश्वोपकारदर्शनात् । एवमौदारिकवै निधिका हारकनामकर्मोदयादा हारवर्गणया श्रीणि शरीराण्युच्छ्वास निःश्वासौ च तैजसनाम कर्मोदयाद तेजोवर्गणया तेजसशरीरम् कार्मणनामकर्मोदयात् कार्मणवर्गणया कार्मणशरीरम्, खरनामकर्मोदयाद्भाषावर्गणया वचनम्, म जोइन्द्रियादरणक्षयोपशमोपेतसंशिनोऽङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयात् मनोवर्गणया द्रव्यमनश्च भवतीत्यर्थः । उक्तं च । “आदारवग्गणा दो तिम्णि सरीराणि होति वखासो । मिस्सासो वि य तेजोवग्गणखंधादु तेजंगं ॥" औदारिकवैकिमिकाहारकनामानि श्रषि शरीर, कर्म, नोकर्म, वचन, मन उच्च्छास निश्वास वगैरहने कारण होता है। शङ्का - कर्म पौगलिक नहीं हैं; क्योंकि वे निराकार होते हैं। जो आकारवाले औदारिक आदि शरीर हैं उन्हींको पौगलिक मानना उचित है ? समाधान - ऐसा कहना उचित नहीं है, कर्म मी पौगलिक ही है; क्योंकि उसका विपाक लाठी, काण्टा वगैरह मूर्तिमान द्रव्यके सम्बन्धसे ही होता है। जैसे धान वगैरह जल, वायु, धूप आदि मूर्तिक पदार्थोक सम्बन्धसे पकते हैं अतः वे मूर्तिक हैं वैसे ही पैरमें काण्टा लग जानेसे असाता वेदनीय कर्मका विपाक होता है और गुड़ वगैरह मिष्टानका भोजन मिलनेघर साता वेदनीय कर्मका विपाक होता है । अतः कर्म मी पौगलिक है । वचनो कोष भवन और द्रव्यवचन | भाववचन अर्थात् बोलनेकी सामर्थ्य मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके लाभके निमित्तसे होती है अतः वह पौगलिक है; क्योंकि यदि उक्त कर्मोंका क्षयोपशम और अंगोपांग नाम कर्मका उदय न हो तो भाववचन नहीं हो सकता । और भाववाकू रूप शक्तिसे युक्त क्रियावान् आत्माके द्वारा प्रेरित पुद्गलही वचनरूप परिणमन करते हैं अर्थात् बोलनेकी शक्तिसे युक्त आत्मा जब बोलनेका प्रयत्न करता है तो उसके ताल आदिके संयोगसे पुद्गलस्कन्ध बचनरूप हो जाते हैं उसीको द्रव्यवाक् कहते हैं । अतः द्रव्यवाक् भी पौगलिक ही है क्योंकि वह श्रोत्र इन्द्रियका विषय है । मन भी दो प्रकारका होता है - द्रव्यमन और भावमन । भावमनका लक्षण लब्धि और उपयोग है । ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेषका नाम लब्धि है और उसके निमित्त से जो आत्माका जानने रूप भाव होता है वह उपयोग है । अतः भावमन लब्धि और उपयोगरूप है। वह पुद्गलका अवलम्बन पाकर ही होता है अतः पौनलिक है । ज्ञानावरण और वीर्यन्तराय कर्मके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्मके उदयसे जो पुद्गल मन रूप होकर गुण दोषका विचार तथा स्मरण आदि व्यापारके अभिमुख हुए आत्माका उपकार करते हैं उन्हे द्रव्यमन कहते हैं । अतः द्रव्य मन पौगलिक है । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयके निमित्तसे जीव जो अन्दरकी वायु बाहर निकालता है उसे उच्छास अथवा प्राण कहते हैं । और वही जीव जो बाहरकी वायु अन्दर लेजाता है उसे निश्वास अथवा अपान कहते हैं । ये दोनों उच्छास और निश्वास आत्मा के उपकारी हैं; क्योंकि उसके J Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकाठियाउप्रेक्षा [गा० २१०शरीराणि उस्मासनिःश्वासो चाहारवर्गणाया भवन्ति । तेजोपगंगास्कन्धेजःशरीर भवति । "भासमणषरगणादो कमेण भासामर्ण च कम्मादो । अविहम्मदम्ब होरि ति जिणेहि णिहिट ।।" भाषावर्गणास्कन्धेचतुर्विधभाषा भवन्ति । मनोवणास्कन्धैर्द्रव्यमनः । कार्माणवर्गणास्कन्धेरवविध कर्मेति जिमैनिर्दिष्टम् इति । जान संसार यावत्कालं संसार मर्यापीकृत्य जीवानां पुद्रला उपकार कुर्वन्ति । संसारमुकानां न। अपि पुनः, जीवस्य मोह ममत्वलक्षण परिणाम परिणति पुद्गलः शरीरसुवर्णहप्यगृहवस्त्राभरणादिरूपः करोति । च पुनः, अज्ञानमयं महाननित मूह पहिरास्मानं करोति ॥ २०५॥ जीवमीवानामुपकार प्रकटीकरोति जीवा वि दु जीवाणं उपयारं कुणदि सम्व-पञ्चपखं । तस्थ वि पहाण-हेऊ पुण्णं पावं च णियमेणं' ॥ २१॥ जीवित रहने में कारण होते हैं ! तथा ये मन, प्राग और अमान भूलिक है; क्योंकि भयको उत्पन्न करने वाले बज्रपात आदिके होनेसे मनका प्रतिघात होता है। और भयंकर दुर्गन्धके भयसे जब हम हथेलीसे अपना मुँह और नाक बन्द करलेते हैं अथवा जुखाम होजाता है तो प्राण अपान रुक जाते हैं यानी हम श्वास नहीले सकते । अतः ये मूर्तिक हैं, क्योंकि मूर्तिमानके द्वारा अमूर्तिकका प्रतिघात होमा असंभव हैं तथा अन्तरंग कारण साताव्दनीय और असातावेदनीय कर्मका उदय होनेपर और बाम कारण द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदिके परिपाकके निमित्तसे जो प्रीतिरूप और सैतापरूप परिणाम होते हैं उन्हें सुख और दुःख कहते हैं। आयुकर्मके उदयसे किसी एक भवमें स्थित जीवकी चासोच्छास क्रियाका जारी रहना जीवन है और उसका नष्ट होजाना मरण है। ये सुख दुःख जीवन और मरण भी पौद्गलिक हैं; क्योंकि मूर्तिमानके होनेपर ही होते हैं। ये पुद्गल केवल शरीर वगैरहकी उत्पत्ति कारण होकर जीवका ही उपकार नहीं करते, किन्तु पुल पुद्गलका मी उपकार करते हैं-जैसे राखसे कांसेके बर्तम साफ होजाते हैं, निर्मली डालनेसे गदला पानी साफ हो जाता है और आगमें गर्म करनेसे लोहा शुद्ध हो जाता है। इसी तरह औदारिक नामकर्म, वैक्रियिक मामकर्म और आहारक नामकर्मके उदपसे आहार वर्गणाके द्वारा तीनों शरीर और श्वासोच्छ्रास बनते है । तैजस नामकर्मके उदयसे तेजोवर्गणाके द्वारा तैजस शरीर बनता है, कार्मण नामकर्मके उदयसे कार्मण वर्गणाके द्वारा कार्मणशरीर बनता है। खरनाम कर्मके उदपसे भाषावर्गणाके द्वारा वचन बनता है। और मन इन्द्रियावरण कर्मक क्षयोपशमसे युक्त संजीजीवके अंगोपांग नामकर्मके उदयसे मनोवर्गणाके द्वारा द्रव्यमन बनता है । गोम्मटसारमें भी कहा है-"आहार वर्गणामे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा श्वास उच्छ्रास बनते हैं। तेजोवर्गणासे तैजसशरीर बनना है । भाषा वर्गणासे भाषा बनती है, मनोवर्गणासे द्रव्यमन बनता है और कॉर्पण वर्गणासे आठों द्रव्यकर्म बनते है ऐसा जिन भगवान ने कहा है।" इस तरह जब तक जीव संसारमें रहते हैं तब तक पुद्गल जीवोंका उपकार करते रहते हैं। किन्तु जब जीव संसारसे मुक्त होजाते हैं तब पुद्गल उनका कुछ भी उपकार नहीं करते। तथा जीवमें जो ममास्वरूप परिणाम होता है वह मी शरीर, सोना, चांदी, मकान, वस, अलकार आदि पुद्गलोंके निमित्तसे ही होता है। पुद्गल ही अज्ञानमयी भावोंसे बहिरात्माको मूद बनाता है ॥ २०९ ॥ जीवका जीवके प्रति उपकार बतलाते हैं । अर्थ-जीन मी जीवोंका उपकार १.कगड, स हेऊ, म हे । २ ग नियमेण । . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२११] १०. लोकानुप्रेक्षा छाया-जीवाः अपि तु जीवानाम् उपकार कुर्वन्ति सर्वप्रत्यक्षम् । तत्र अपि प्रधानहेतुः पुण्यं पापं च नियमेन।] अपि तु जीचा जन्सषः जीवानां जन्सूनाम् उपकार कुर्वन्ति । सर्वेषां प्रत्यक्षं यया भवति तथा जीवाः जीवानामुपपई कुर्वन्ति । तथा च सूत्रे 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् अन्योन्यम् उपकारेण जीवानां जीवा वर्तन्ते । यथा खामी मृत्यं वित. त्यायादिना उपकारं करोति, मृत्यस्तै खामिनं हितप्रतिपादनाहित प्रतिषेधादिना, आचार्यः शिष्य स्योभयलोकफलप्रदोपदेशक्रियानुष्ठानाभ्याम् , शिष्यस्त्रमानुकूल्यवृत्युपकाराधिकारैः पादमार्दनादिना च । एवं पितृपुत्रयोः श्रीभोंः मित्रमित्रयोः परस्परमुपकारसद्भावः । अपिशन्दात् अनुपकारानुभयाभ्यां वर्तन्ते । तत्थ वि तत्रापि परस्परमुपकारकरणे नियमेनावश्यं पुण्यं शुभ कर्म पापम् अधर्म कर्म प्रधानहेतु मुख्यकारणम् ॥ २१० ।। अथ पुद्गलस्थास्य महती शक्ति निरूपयति का वि अउवा दीसदि पुग्गल-दध्वस्स एरिसी' सत्ती। केवल-णाण-सहायो' विणासिदो जाइ जीवस्स ॥ २११ ॥ [छाया का अपि अपूर्वा दृश्यते पुद्गलाव्यस्य ईदृशी शक्तिः । केवलज्ञानसमावः विनाशितः यया जीवस्य ॥] पुद्गलद्रव्यस्य सुवर्णरत्रमाणिक्यरूप्यधनधान्यगृहहहादिशरीरकलत्रपुत्रमित्रादिचेतनाचेतनमिश्रपदार्थस्य पतिः कार्षि काचिदलक्ष्या अद्वितीया अपूर्वा । पुगलमूख्य बिहाय नान्यत्र लभ्यते । अपूर्वा शक्तिः समर्थता ईदृशी दृश्यते । कस्य । करते हैं यह सबके प्रत्यक्ष ही है । किन्तु उसमेंमी नियमसे पुण्य और पापकर्म कारण है || भावार्थयह सब कोई जानते हैं कि जीव मी जीवका उपकार करते हैं । तखार्य सूत्रमें भी कहा है-'परस्परोपग्रहो जीयानाम् ।' अर्थात् जीव भी परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं। जैसे खामी धन वगैरह देकर सेवकका उपकार करता है । और सेवक हितकी बात कहकर तथा अहितसे रोककर स्वागीका उपकार करता है । गुरु इस लोक और परलोकमें फल देनेवाला उपदेश देकर तथा उनके अनुसार आचरण कराकर शिष्यका उपकार करते हैं । और शिष्य गुरुकी आज्ञा पालन करके तथा उनकी सेवा शुश्रूषा करके गुरुका उपकार करते हैं। इसी तरह पिता पुत्र, पति पनि, और मित्र मित्र परस्परमें उपकार करते हैं । 'अपि' शब्दसे जीव जीवका अनुपकार भी करते हैं, और न उपकार करते हैं और न अनुपकार करते हैं। इस उपकार वगैरह करने में भी मुख्य कारण शुभ और अशुभ कर्म हैं । अर्यात् यदि जीवके शुभ कर्मका उदय होता है तो दूसरे जीव उसका उपकार करते हैं या वह स्वयं दूसरे जीवोंका उपकार करता है और यदि पाप कर्मका उदय होता है तो दूसरे जीव उसका उपकार नहीं करते हैं अथवा वह दूसरोंका उपकार नहीं करता है ।। २१० ।। आगे इस पुद्गलकी महती शक्तिको बतलाते हैं । अर्थ-युगल द्रव्यकी कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है जिससे जीत्रका जो केवलज्ञान स्वभाव है, यह मी विनष्ट हो जाता है ।। भावार्थ-सोना, चांदी, मणि, मुक्ता, धन, धान्य, हाट,हवेली, शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि अचेतन, चेतन और चेतन अचेतन रूप पदार्थामें कोई ऐसी अपूर्व अदृश्य शक्ति है जिस पौद्गलिक शक्तिके द्वारा जीवका केवलज्ञान रूप स्वभाव विनष्ट हो जाता है । आशय यह है कि जीत्रका खभाव अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है । किन्तु अनादिकालसे यह जीव जन्म-मरणके चक्रमें पड़ा हुआ है। इसे जो वस्तु अच्छी लगती है उससे यह राग करता है और जो वस्तु इसे बुरी लगती है उससे द्वेष करता है । इन रागरूप और द्वेषरूप परिणामोंसे नये पुलनिरूपणं ॥ धम्म त्यादि। १६ एरसी।मसबानो, सदा 1३ग विणासदो। कार्तिके Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सामिकार्मिकथानुमेशा [गा० २९२पुद्गलद्रव्यस्य । हसी कीडश्री शकिः । यया पुनरूद्रप्यस्य सत्या जीवस्यात्मनः केवलज्ञानस्वभावी विनाधितो याति आयते वा । जीवस्य. खरूपम् अनन्त चतुश्यं बिनाशयतीत्यर्थः । मोहाहानोत्पादस्वभावात् पुद्गलानाम् । उक्तं च । fort दिपणानिलगाया नेमामानी ! पाहिशमला जीव अप्पाहि पाहि ताई।" इति पुद्रलव्यनिरूपमाधिकारः॥११॥ अथ धमाधर्मयोः कुसमुपकारं निरूपयति धम्ममधम्मं दव्यं गमण-द्वाणाण कारणं कमसो । जीवाण पुग्गलाणं विण्णि वि लोगे-प्पमाणाणि ॥ २१२ ॥ [छाया-धर्मम् अधर्म द्रव्ये गमनस्थानयोः कारण छमशः । नीवानी पुदालानां द्वे अपि लोकप्रमाणे ॥] जीवानां पुदलानां च गममस्थानयोर्धर्मवष्यमधर्मद्रम्यं च कमेण कारणं मवति । गतिपरिणताना जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्य गमनसहकारिकारणं भवति । सधान्तमाह। यथा मत्स्थानी जलं गमनसहकारिकारणं तथा घमोखिकायः । खयं तान् जीवपुबलान् तिष्ठतः नेव नमति । तथाहि, यथा सियो भगवान् श्रमूर्तो नि:कियस्तावेषाप्रेरकोऽपि सिद्धबदनन्तनानादिगुणखरूपोऽहमित्यादिव्यवहारेण सविकपसियमतियकानां निश्चयेन निर्विकल्पसमाधिरूपखकीयोपादान कोका बन्ध होता है। ये कर्म पौगलिक होते हैं। इन कर्मोका निमित्त पाकर जीवको नया जन्म लेना पड़ता है। नया जन्म लेनेसे नया शरीर मिलता है । शरीरमें इन्द्रियां होती है । इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको प्रहण करता है| विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विघयोंसे देष होता है। इस तरह राग-द्वेषसे कर्मबन्ध और कर्मबन्धसे राग-द्वेषकी परम्परा चलती है। इसके कारण जीवके खाभाविक गुण विकृत होजाते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानादिक गुण कोसे आकृत हो जाते हैं। कोसे नानादिक गुणोंके आकृत होजानेके कारण एक साथ समस्त द्रव्य पर्यायोंको जाननेकी शक्ति रखनेवाला जीव अल्पज्ञानी होजाता है। एक समयमें वह एक द्रव्यको एक ही स्थूल पर्यायको मामूली तौरसे जान पाता है। इसीसे ग्रन्थकारका कहना है कि उस पुद्गलकी शक्ति तो देखो जो जीषकी शक्तिको भी कुण्ठित कर देता है। पौलिक कर्मोकी शक्ति बतलाते हुए परमात्मप्रकाशमें मी कहा है-'कर्म बहुत बलवान हैं, उनको नष्ट करना बड़ा कठिन है, वे मेरुके समान अचल होते हैं और ज्ञानादि गुणसे युक्त जीवको खोटे मार्गमें डाल देते हैं' ॥ २११ ॥ आगे धर्मदव्य और अधर्मद्रव्यके उपकारको बतलाते हैं । अर्थ-धर्मद्रव्य और अधर्मव्य जीव और पुद्गलोंके क्रमसे गमनमें तथा स्थितिमें कारण होते हैं । तथा दोनों ही लोकाकाशके बराबर परिमाणवाले हैं ॥ भावार्थ-जैसे मछलियोंके गमनमें जल सहकारी कारण होता है वैसे ही गमन करते हुए जीवों और पुद्गलोंके गमनमें धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है। किन्तु वह ठहरे हुए जीय-मुगलोंको जबरदस्ती नही चलाता है । इसका खुलासा यह है कि जैसे सिद्ध परमेष्ठी अमूर्त, निष्क्रिय और अप्रेरक होते हैं, फिर भी सिद्धकी तरह मैं अनन्त ज्ञानादि गुणखरूप हूँ इत्यादि व्यवहार रूपसे जो सिद्धोंकी सविकल्प भक्ति करते हैं, अथवा निश्चयसे निर्विकल्प समाधिरूप जो अपनी उपादान शक्ति है, उस रूप जो परिणमन करते हैं उनकी सिद्ध पद प्राप्तिमें वह सहकारी कारण होते हैं, वैसे ही अपनी उपादान शक्ति से गमन करते हुए जीव और पुगलोंकी गसिका सहकारी कारण धर्मद्रव्य है । अर्थात् गमन करनेकी शक्ति तो जीव और पुद्गल द्रव्यमें खभावसे ही है । धर्मद्रव्य उनमें वह शक्ति पैदा १रोष। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१३] १०. लोकानुप्रेक्षा कारणपरिणताना भन्यानां सिद्धगतेः सहकारिकारणं भवति. तथा निःकियोऽमृतॊऽप्रेरकोऽपि धर्मास्तिकायः खकीयोपादानकारणेन गच्छता जीवपुगलानां गतः सहकारिकारणं भवति । लोकप्रसिद्धदृष्टान्तेन तु मत्स्यावीनां जलादियदित्यभिप्रायः । अपि पुनः, स्थितिवता जीवानां पुद्गलानां च स्थितः अधर्मदव्यं सहकारिकारणं भवति । दृष्टान्तः । छाया पथिकानाम् । खयं गच्छतः जीवपुद्गलान् सो अधमास्विकामः नेच धरति । तद्यथा । खसंविसिसमुत्पासुखामृतरूप परमस्वास्थ्य यद्यपि निश्चयेन स्वरूपे स्थितिकारणं भवति । तथा "सिद्धो है सुखोई अणंतणाणादिगुणसमिद्धो है। देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुसो य" इति गाथाकथितसिद्धमतिरूपेणेह पूर्वसयिकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भध्यानां बहिरजसइकारिकारण भवति, तथैव खकीयोपादानकारणेन खयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानाम् अधर्मद्रव्य स्थितः सहकारिकारणम् । लोकव्यवहारेण तु छायावदा पृथिवीवद्वेति सत्रार्थः । बिणि विद्वे अपि धर्माधर्मे द्रव्ये लोकप्रमाणे लोकाशप्रदेशप्रमाणे स्तः। धर्मद्रव्यमसंख्येयप्रदेशप्रमितम् । अधर्मद्रव्यम् असंख्यातप्रदेशप्रमाणं च भवति ।। २१२॥ अयाकाशस्वरूप निरूपयति सयलाणं दव्वाणं जं दादं सकदे हि अवगासं । तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भेएणं ॥ २१३ ॥ [छाया-सकलानां द्रव्याणां यत् दातुं शक्नोति हि अवकाशम् । तत् आकाशं द्विविध लोकालोकयोः भेदेन । ] तरप्रसिद्ध लोकाकाशं जानीहि। हि इति स्फुटम् । यत् लोकाकाशं सकलानां समस्तानां द्रव्यागा जोधपुद्गलधर्मादिद्रव्याणा षण्णाम् अवकाशम् अवकाशदानम् अवगाहन दातुं शक्नोति । यथा सतिः सतः स्थितिदानं ददाति। तदपि आका विविघं द्विप्रकारं लोकालोकयो देन । धर्माधर्मका ला: पुदलजीवाश्च सन्ति यावस्याकाशेस लोकाकाशः,लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक अवकाशते इति आकाश लोकाकाश इत्यर्थः । ननु सर्वेषां द्रव्याणाम् अवगाहनशक्तिरस्ति नहीं कर देता । अतः गमनके उपादान कारण तो वे दोनों स्वयं ही है, किन्तु सहकारी कारण मात्र धर्मव्य है । अर्थात् जब वे स्वयं चलनेको होते हैं तो वह उनके चलनेमें निमित्त होजाता है । इसी तरह गमन करते हुए जीव और पुद्गल जब स्वयं ठहरनेको होते हैं तो उनके ठहरनेमें सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है। जैसे पथिकोंके टहरनेमें वृक्षकी छाया सहकारी कारण होती है। किन्तु जैसे वृक्षकी छायाको देखकर भी यदि कोई पथिक ठहरना न चाहे तो छाया उसे बलपूर्वक नहीं ठहराती, वैसे ही अधर्म द्रव्य चलते हुए जीवों और पुद्गलोंको बलपूर्वक नहीं ठहराता है | आशय यह है कि जैसे निश्चयनयसे स्वसंवेदनसे उत्पन्न सुखामृतरूपी परमखास्थ्य ही जीवाको स्वरूपमें स्थितिका उपादान कारण होता है । किन्तु 'मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्तज्ञान आदि गुणोंसे समृद्ध हूँ, शरीरके बराबर हूँ, निस्य हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ, अमूर्तिक हूँ' इस सरिकल्प अवस्थामें स्थित भव्यजीवोंकी स्वरूपस्थितिमें सिद्ध परमेष्ठी भी सहकारी कारण हैं, वैसे ही अपनी अपनी उपादान शफिसे स्वयं ही ठहरे हुए जीवों और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है। धर्म और अधर्म नामके दोनोंही द्रव्य लोकाकाशके बराबर हैं । अर्थात् जैसे लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी होता है वैसे ही धर्मद्रव्य मी असंख्यात प्रदेशी है और अधर्मद्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी है ॥ २१३ ॥ आगे आकाश द्रव्यका स्वरूप बतलाते हैं। अर्थ-जो समस्त द्रव्योंको अवकाश देने में समर्थ है वह आकाश द्रव्य है । यह आकाश लोक और अलोकके मेदसे दो प्रकारका है || मावार्थ-जैसे मकान उसमें रहनेवाले प्राणियोंको स्थान देता है वैसे ही जीव पुद्गल आदि समी द्रव्योंको जो स्थान देनेमें समर्थ है उसे १सय दुविहा । २म मेलिग मेदेण। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा - मास्तिया। नास्ति चेत्, कि केनायकाशः क्रियते यथा पाषाणादिभात् पाषाणादिपिणास प्रवेशो न। बष्णो द्रव्यानाम् आकाशस्याषणाहनाशफिरति चेत्, तर्हि तदुत्पत्तिदर्शनीया । तथा अन्येन तटस्थेन पुंसा पृच्छयते । भो, भगवन केवलज्ञानस्सानन्तभागप्रमिताकाशदश्यम्, तथाप्यनन्तभामे सर्वमध्यमप्रदेशो लोकविहति सोऽसंख्यात प्रवेशः, तत्रासैन्यातप्रदेशलोकेऽन्तानन्तजीवा: १६, तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुरलाः १६ स, लोकाकाशप्रमितासंख्येवकालगुणद्रव्यात, प्रत्येक मोकाशश्माणं भर्माधर्मद्वयम् इत्युकलक्षणाः पदार्थाः कथमवकाश लभन्ते इति ॥ ११३ ॥ मगवान् खामी गाथाद्वयन प्रत्युत्तरमाह सवाणं दब्याणं अवगाहण-सत्ति' अत्थि परमस्थं । जह भसम-पाणियाणं जीव-पएसाण बहुयाणं ॥ २१४ ॥ [छाया-माण गमागान बगान मा भस्मपानीययोः जीवप्रदेशाला अनीहि बहुकानाम् ॥] परमार्थतः निश्चयतः सर्वेषां द्रव्याणां जीरपुद्रसपापर्माकाशकाकानां पूर्वोकप्रमितसक्योपेवानाम् अवगाइनशक्तिरखि, अवकाशदानसमर्थता विद्यते। यथा भस्मपानीययोः यथा भसमध्ये पानीपस्याबगाहोऽखि तथा गहुकाना जीवप्रदेशानाम् बाकाझे अवकाशक जानीहि। तथाहि, यथा पटाकाशख मधेसमत मल माति तवन्मानखल माति तायन्माशा शर्करा माति सावन्मात्रा निर्माति, तथा सर्षम्याणि लोकाका परस्पर सबकाशन्ते संमान्ति । तथा, एकप्रदीपप्रकाशे नानाप्रदीपप्रकाशवत्, एकबरसनागगवानके पासवर्णवत्, पारवविधा दायवत्, इत्यादिष्टान्तेन विशिधावगाहनशफियशादसंख्यातप्रदेशेऽपि लोके हर्षदायमस्मानमववाहो न विरुध्यते इति ॥ २१४॥ आकाश द्रव्य कहते हैं। लोक और अलोकके मेदसे एक ही आकाश द्रव्यके दो माग होगये हैं। जितने आकाशमें धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकरकाश कहते है। क्योंकि जहाँ जीवादि द्रश्य पापे जावें वह लोक है ऐसी लोक शब्दकी न्युपधि है। और जाई जीवादि द्रव्य न पाये जायें, केवल आकाश द्रव्य ही पाया जाये उसे अलोकरकाश कहते हैं ।। २१३ ।। यहाँ शकाकार शका करता है कि सब द्रव्योंमें अवगाहन शक्ति है या नहीं ! यदि नहीं है तो कौन किसको अवकाश देता है ! और यदि है तो उसकी उत्पत्ति बतलानी चाहिये । दूसरी शङ्का यह है कि आकाश द्रव्यको केवलबानके अविभागी प्रतिच्छेदोकें अनन्तवें भाग बतलाया है । और उसके मी अनन्तवें भाग लोकाकाश है । यह संस्थात प्रदेशी है । उस असंख्यात प्रदेशी लोकमै अनन्तानन्त जीव, जीवोंसे भी अनन्तगुने पुनल, लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर असंख्यात कालाश, लोकाकाशके है बराबर धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ! अन्धकार खामी कार्तिकेय दो गापाओं के द्वारा इन शकाओंका समाधान करते हैं। अर्थ-वास्तवमें सभी इयोंमें परस्पर अवकाश देनेकी शक्ति है । जैसे भस्ममें और जलमें अवगाहन शक्ति है वैसे ही जीवके असंख्यात प्रदेशोंमें जानों ॥ मावार्थजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, समी द्रव्योंमें निश्चयसे अवगाहन शक्ति है। जैसे पानीसे भरे हुए धड़ेमें राख समा जाती है वैसे ही लोकाकाशमें सब द्रष्य परस्परमें एक दूसरेको अवकाश देते हैं। तथा जैसे एक दीपकके प्रकाशमें अनेक प्रदीपोंका प्रकाश समा जाता है, या एक प्रकारके रसमें बहुतसा सोना समाया रहता है अथवा पारदगुटिकामे दग्ध होकर अनेक वस्तुएँ समाविष्ट रहती है, वैसे ही विशिष्ट अवगाहन शक्तिके होनेसे असंख्यात प्रदेशी भी लोकमें सब इम्पोंके रहनेमें कोई पसी, समबरणदासति परमवं, ग सति परमानं । मस पमझाग बाम पाण, गपशाम बाम एमा। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१५] १०. शोकानुप्रेक्षा जदि ण हदि सा सती सहाव-भूदा हि सव्व-दब्याण । 'एकेकास-पएसे कह सा सव्वाणि वदंति ॥ २१५ ॥ [छाया-अदि न भवति मा शक्तिः खमारभूता हि सर्वदग्याणाम् । एकस्मिन् माकाशप्रदेशे में तत् पाणि बर्तन्ते। यदि नन्वझे सर्वदम्याणा, हीसि स्फुट नियमतोवा, सा अवगाहनशकिःबरकाशदामसमर्षता समावभूता खामाविकी चेत् तो ताई सर्वाणि इख्याणि एकस्मिन् एकस्मिन् आकाशप्रदेशे वर्ष वसन्ते सन्ति । पुनरपि यथा जलपूर्णे पडे लवणं माति, अन्य लोहाच्यादिकं मासि, तथा एकसिनाकाशप्रदेशे सर्वश्यकता मादि । सव क्रियान्मात्रः प्रवेशः इस्युके, भागमे प्रोकं च । "जेसी वि खेतनि अणुणा रुदेर बगदम्ब चाचपस मणिय बराबरकारण जस्सा वम परमाणेः परापरकारणं मगनद्रव्यं यावत् क्षेत्रमा परमाणुना ध्यान स्कर्ट र प्रदेयो ममिस इति ॥२१५॥ मरकामदयं मायति सवाणं दव्याणं परिणाम जो करेदि सो कालो। एकास-पएसे सो वहदि एकको पेष ॥ २१६ ।। [छाया-सर्वेषां स्याणा परिणाम मः करोति कालः । एकैकाकाप्रवेशे स व एकः ए] स बगरमविदः कालः नियकायते । स कः । यः गोपीवालाना परिणाम पर्याय नालीवादिलक्षणम् उत्पादम्पयधौम्पलक्षणं च । जीवानां खभावपर्याय विभावपर्याय क्रोधमानमायामरागद्वेषादिक नरनार पतिर्यग्देवादिरूसंच, पुद्रकाना खभावपयोवं रूपरसगन्याविपर्याय विभावपर्याय पणुकश्यणुकाविस्कन्धपर्यन्तपर्यायं करेतिकारमति बहादसतीयः । स प निषयकालः । एकेकाकाशप्रवेझे एकस्मिन् एकस्मिनाकर प्रदेशे कालाणुः बससे एक सविरोध नहीं पाता ।। २१९ ।। अर्थ-यदि सब द्रव्योंमें स्वभावभूत अवगाहन शक्ति न होती तो एक आकाशके प्रदेशमें सब द्रव्य कैसे रहते ।। भावार्थ-सब द्रोंमें अवगाहनशक्ति खमावसे ही पाई नाती है। यदि अवगाइनशक्ति न होती तो आकाशके प्रत्येक प्रदेशमें सब द्रव्य नहीं पाये जाते । किन्तु जैसे जलसे भरे हुए घमें नमक समा जाता है, सूईयां समा जाती है, वैसे ही श्राकाशके एक प्रदेशमें सब द्रव्य रहते हैं । आकाशके जितने भागको पुद्गलका एक परमाणु रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं। उस प्रदेशमें धर्म,अधर्म, काल, आदि सभी द्रव्य पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि समी द्रव्योंमें खाभाविकी अवगाहन शकि है । शका-यदि सभी द्रव्योंमें खाभाविक अवगाहन शक्ति है तो अवकाश देना आकाशका असाधारण गुण नहीं हुआ; क्यों कि असाधारण गुण उसे करते हैं जो दूसरोंमें न पाया जाये ! समाधान-यह भापति उचित नहीं है। सब पदार्थोंको अवकाश देना बाकाशका असाधारण लक्षण है, क्योंकि अन्यद्रव्य सब पदाथोंको अवकास देनेमें असमर्थ हैं। शहा-अलोकाकाश तो किसी मी द्रम्पको अवकाश नहीं देता अतः इसमें अवकाशदानकी शक्ति नहीं माननी चाहिये । समाधान अलोकाकाशमै आकाशके सिवाय अन्य कोई द्रश्य नहीं पाया जाता । किन्तु इससे पह अपने खभाषको नहीं छोड़ देता ॥ २१५ । अब काल द्रव्यका लक्षण कहते हैं । अर्थजो सब द्रव्यों के परिणामका कर्ता है यह कालद्रव्य है । वह कालद्रव्य एक एक वाकाशके प्रदेशपर एक एक ही रहता है । मारार्थ-जीव पुद्गल आदि सब प्रन्यो नयापन और पुरानापनरूप अश्या उत्पाद व्यय और प्रौव्यरूप परिणाम यानी पर्याय प्रतिसमय हुआ करती है। वह पर्याय दो प्रकारकी १मोबास गरबास मालि। मसमपतिको। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २१७ राशिवत् भिन्नभिन एवं । तथाहि षद्रव्याणां वर्तनाकारणं वर्तयिता प्रवर्तन लक्षणमुख्य कालः । वर्तनागुणो द्रष्यनिचये एव । तथा सति काला रेणेव सर्वद्रव्याणि वर्तन्ते स्वस्वपर्यांयैः परिणमन्ति । ननु कालस्यैव परिणामक्रिया परत्यापरत्वोपकारो जीवपुद्गल्योः दृश्यते । धर्मायमूर्तश्च्येषु कथमिति चेदुक्तं च । " घम्साघम्मावगं अगुरुलहूगं तु हिं विनीहि । हाणीहिं विवद्युतो हायंतो वट्टदे जम्हा ॥" यतः धर्माधर्मादीना मगुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेदाः स्वद्रव्यत्वस्य निमित्तभूतशक्तिविशेषाः षड्वृद्धिभिर्वर्धमामाः षड्द्दानिभिव हीयमानाः परिणमन्ति । ततः कारणात् तत्रापि का इति । तथा च "लोगागासपदेसे एक्के जे ढिया हु एकेका । रयणाणं रासी इव ते काला मुणेयव्वा ! " एकैक लोकाकाशप्रदेशे ये एकैके भूत्वा रत्नानां राशिरिव भिमभिव्यत्तया तिष्ठन्ति वे कालावो मन्तव्या । धर्माधर्माकाशा एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् । कालाणयो लोकप्रदेशमात्रा इति ॥ २१६ ॥ यथा कालानां परिणमनशतिरस्ति तथा सर्वेषां द्रव्याणां स्वभावभूता परिणामश तिरस्ती त्यावेदयति णिय-जिय- परिणामाणं नियणिय-दब्वं पि कारणं होदि । अणं बाहिर-दन्वं णिमित मित्तं वियाणेहे ॥ २१७ ॥ [छाया-निजनिजपरिणामानां निजनिजद्रव्यम् अपि कारणं भवति । अन्यत् बाह्यद्रव्यं निमित्तमात्रं विजानीत ॥ ] निज निजपरिणामानां स्वकीयस्वकीय पर्यायाणां जीवानां क्रोधमानमाया लोभरागद्वेषादिपर्यायाणां नरनारका दिपर्यायाणां च पुगलानाम् मदारिकादिशरीरादीनां अणुकच्यणुकादिस्कन्धपर्यन्तानां परिणामानां पर्यायाणां च । निजनिजद्रव्यमपि न केवलं कालद्रव्यम् इत्यपिशब्दार्थः कारणं हेतुर्भवति, उपादानकारणं स्यात् । उक्तं च । "णय परिणमदि होती है एक स्वभाव पर्याय और एक विभावपर्याय। बिना पर निमित्तके जो स्वतः पर्याय होती है उसे भावपर्याय कहते हैं । जैसे जीवकी स्वभावपर्याय अनन्तचतुष्टय वगैरह और पुद्गलकी स्वभावपर्याय रूप, रस गन्ध वगैरह । स्वभावपर्याय समी द्रव्योंमें होती है । किन्तु विभाव पर्याय जीव और पुद्गल द्रव्यमें ही होती है क्योंकि निमित्त मिलनेपर इन दोनों द्रव्यों में विभावरूप परिणमन होता है । क्रोध, मान, माया और लोभ वगैरह तथा नर, नारक, तिर्यश्व, और देव वगैरह जीवकी विभात्रपर्याय हैं और द्वषणुक त्र्यणुक आदि स्कन्धरूप पुगलकी विभात्रपर्याय है । इन पर्यायोंके होने में जो सहकारी कारण है वह निश्चयकाल है । आशय यह है कि सब द्रव्योंमें वर्तना नामक गुण पाया जाता है किन्तु काल द्रव्यका आधार पाकर ही सब द्रव्य अपनी अपनी पर्यायरूप परिणमन करते हैं । शंका-काल द्रव्यके परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि उपकार जीव और पुद्रलमें ही देखे जाते हैं । धर्म आदि अमूर्त द्रव्योंमें ये उपकार कैसे होते हैं ? समाधान-धर्म आदि अमूर्त द्रव्योंमें अगुरुलघु नामक जो गुण पाये जाते हैं इन गुणोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंमें छः प्रकार की हानि और छ प्रकार की वृद्धि होती रहती है। उसमें भी निश्चयकाल ही कारण है । अतः सब द्रव्योंमें होनेवाले परिणमन में जो सहायक है वही निश्चयकाल है । वह निश्चयकाल अणुरूप है और उसकी संख्या असंख्यात है; क्योंकि लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक एक कालाणु रत्नोंकी राशिकी तरह अलग अलग स्थित है । सारांश यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य तो एक एक ही है, किन्तु कालद्रव्य लोकाकाशके प्रदेशोंकी संख्याके बराबर असंख्यात है ॥ २१६ ॥ आगे कहते हैं कि सभी द्रव्योंमें स्वभावसे ही परिणमन करनेकी शक्ति है । अर्थ- अपने अपने परिणामोंका उपादान कारण अपना द्रव्य ही होता है । अन्य जो बाह्य द्रव्य है वह तो निमित्त मात्र है | भावार्थ - कारण दो प्रकारका होता है एक उपशदान १म मिमि मत्तं (१) । २ न बियाणेहि (१) । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१८] १०. लोकानुप्रेक्षा सय सोण य परिणामेइ यामण्णेहिं । विविहपरिणामिमाण हपदि हु कालो सयं हेतु ॥" स कालः संक्रमविधानेन खगुणैर्नान्यद्रव्ये परिणमति, न च परद्रव्यगुणान् स्वस्मिन् परिणामयति, नापि हेतुकतृत्वेनान्यद्रव्यमन्यगुणः सह परिणामयति । कि तर्हि विविधपरिणामिका व्याण परिणमनस्य स्वयमुदासीन निमितं भवति । यथा कालद्रव्यं तथा सर्व मावि इति हिरवं गिरितलि बियाणेह, अन्यदपि वाघम्यं बहिरद्रव्यं निमित्तमात्र निमित्तहेतुकं जानीहि त्वम्, हे महानुभाव इति । यथा एकमृत्तिकाद्रव्यं घटघटीशरावोदबनादीनां पर्यायानामुपादानकारण कुम्भकारचक्रचीवरदण्डदोरकजलादिबहिरङ्गनिमित्तकारण च भवति । अथवा इन्धनानिसहकारिकारणोत्पमस्यौदनपर्यायस्य तण्डलोपादानं कारणं यथा । अथवा नरनारकादिजीवपर्यायस्य जीवोपादानकारणवत् । तथा द्रव्यमपि खखपर्यायाणामुत्पादने उपादानकारणम्, अन्याव्यक्षेत्रकासादिक निमितकारणं च ज्ञातव्यम् । यथा च लोहपातरः सुवर्णशजियुताः सन्तो रसोपविद्धाः सन्तः सुवर्णतां यान्ति । तथा सर्वाण्यपि द्रव्याणि स्वकीयपरिणामयुक्तान्यपि कालादिसहकारिद्रय्यप्रेरितानि नखपर्यायान् जनयन्ति उत्पादयन्तीत्यर्थः ॥ २१७॥ अथ सर्वेषां द्रव्याणां परस्परमुपकारः, सोऽपि सहकारिभावन कारणभावं लभते इसाबेदयति सवाणं दवाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोणं । सो चिय कारण-भावो हवदि हु सहयारि-भावेण ॥ २१८ ।। [छाया-सर्वेषां द्रव्याणां यः उपकारः भवति अन्योन्यम् । स एव कारणभायः भवति खलु सहकारिभावेन ॥] सर्वेषां द्रव्याणां जीवपुद्गलादीनाम् अन्योन्यं परस्परं यः उपकारो भवति । हुइति स्फुटम् । सो चिय स एव उपकार: सहकारिकारणभावेन निमित्तकारणभावेन कारणभावो भवति कारणं जायते इत्यर्थः । यथा गुरुः शिष्यादीनां विद्यादिपाठनेनोपकार करोति, शिष्यस्तु गुरोः पादमदनादिकमुपकार करोति स उपकारः शिम्यादीनां शाखाद्यभ्ययनशक्ति. युकानां गुरुकृतविद्याथध्यापनायुपकरणं सहकारिकारणतां लभते । यथा कुम्भकारचक्रस्माघस्तनशिला सहकारिकारणत्वन कारण और एक निमित्तकारण । जो कारण स्वयं ही कार्यरूप परिणमन करता है वह उपादान कारण होता है जैसे संसारी जीव स्वयं ही क्रोध, मान, माया, लोभ या राग द्वेष आदि रूप परिणमन करता है अतः वह उपादान कारण है । और जो उसमें सहायक होता है वह निमित्तकारण होता है । सब इयोंमें परिणमन करनेकी खाभाविक शक्ति है । अतः अपनी अपनी पर्यायके उपादान कारण तो स्वयं द्रव्यही हैं । किन्तु काल द्रव्य उसमें सहायक होनेसे निमित्त मात्र होता है । जैसे कुम्हारके चाकमें घूमनेकी शक्ति खयं होती है, किन्तु चाक कीलका आश्रय पाकर ही घूमता है । इसीसे गोमटसार जीवकाण्डमें काल द्रव्यका वर्णन करते हुए कहा है-'वह काल द्रव्य स्वयं अन्य द्रव्यरूप एरिणमन नहीं करता और न अन्य द्रव्योंको अपने रूप परिणमाता है। किन्तु जो द्रव्य स्वयं परिणमन करते हैं उनके परिणमनमें वह उदासीन निमित्त होता है ॥ २१७ ॥ आगे कहते हैं कि समी द्रव्य परस्परमें जो उपकार करते हैं वह भी सहकारी कारणके रूपही करते हैं। अर्थ-समी द्रव्य परस्परमें जो उपकार करते हैं वह सहकारी कारणके रूपमें ही करते हैं ।। भावार्थ-ऊपर बतलाया है कि समी द्रव्य परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं । सो यह उपकारभी वे निमित्त कारणके रूपमें ही करते हैं । जैसे गुरु शिष्योंको विपाध्ययन कराता है । यहाँ विद्याध्ययनकी शक्ति तो शिष्योंमें है। गुरु उसमें केवल निमित्त होता है । इसी तरह शीतकाल में विद्याध्ययन करनेमें अग्नि सहायक होती है, कुम्हारके चाकको घूमनेमें कील सहायक होती है । पुगल, शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छास, सुख, दुःख, जीवन, मरण, पुत्र, मित्र, जी, मकान, हवेली आदिके रूपमें जीवका उपकार करता है, ममन करते हुए जीव और पुगलों Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २१९कारणभाव सपकारो भवति । वा यथा शीतकाले पठता पुंसाम् अध्ययने ममिः सहकारिकारणत्वेन उपकारः। तथा प जीवानां पहला शरीरवचनमनःश्वासोच्छासमुखदुःखजीवितमरणपुत्रमित्र कलादिगृहहहाविकसहकारिकारणरूपेण सपकार करोति । जीवानां पुद्गलानां च गमनघतो गतेः निमित्तप्तहकारिकारणत्वेन उपकारः। स्थितिवता जीवपुद्गलानां स्थिः पानिमित्तसहवारिकारणभावेन उपकारः । अवकाशदाने आकापस्य सर्वेषां द्रव्याणां सहकारिकारणत्वेन उपकारः। जीवपुराना नवजीर्णतोत्सादने सहकारिकारणस्वेन कालस्योपकारः । यथाकाशद्रव्यम् अशेषड्व्याणामाधारः खस्थापि, तथा कालद्रयं परेषां द्रव्याणां परिणतिपर्यायत्वेन सहकारिकारण खस्यापि यथा इन्धनानिसहकारिकारणोत्पलस्यौवनपर्यायस तम्बुलोपादानकारणम्, कुम्भकारचकनीवरादिवाकारणोत्पन्नस्य मृत्पिडपटपर्यायस्य मृत्पिण्डोपादानकारणवत् ॥ २१८॥ अथ द्रव्याणां स्वभावभूती नानाशफि कोऽपि निषेद्ध न शकोतीस्यावेदयति कालाइ-लाद्धे-जुत्ता णाणा-सत्तीहि संजुदा अस्था । परिणममाणा हि सयं ण सकदे को वि वारेदु ॥२१९ ॥ [छाया-काला दिलब्धियुक्ताः नानाशक्तिभिः संयुता अर्थाः । परिणममानाः हि वयं न शोति कः अपि वारयितुम् ॥] अर्थाः जीवादिपदार्थाः, हीति स्फुटम् , खयमेव परिणममाणा परिणमन्तः पर्यायान्तरं गच्छन्तः सन्तः करपि इन्द्रधरणेन्द्रन्यक्रवादिभिः वारयितुं न शक्यन्ते। कीपक्षास्तेाःकालादिलब्धियुक्ताः कालव्यक्षेत्रभवभावादिसामग्रीमाप्ताः । पुनरपि कीरक्षास्ते अर्थाः। नानाशक्तिभिः, अनेकसमर्थताभिः नानापकारखभावयुक्ताभिः संयकाः। यथा जीवाः भव्यत्वादिशक्तियुक्ताः रक्षप्रयादिकाललब्धि प्राप्य निर्वान्ति, यथा तण्डुलाः मोदनशक्तियुकाः इन्धनाप्रिस्थालीजलादिसामग्री प्राप्य भकपरिणाम लभन्ते । तत्र मतपर्यायं तण्डुलानामभयकारणे सति कोऽपि निषेद्रं न शकोतीति भावः ॥ २१६ ॥ अथ व्यवहारकालं निरूपयति जीवाण पुग्गलाणं जे सुहमा बादरों य पज्जाया। , तीदाणागद-भूदा सो वयहारो हवे कालो ॥ २२० ॥ की गतिमें सहायक धर्म द्रव्य होता है, और ठहरनेमें सहायक अधर्म द्रव्य होता है। सब द्रव्योंको अवकाशदान देनेमें सहायक आकाश द्रव्य होता है, परिणमनमें सहायक काल द्रव्य होता है । ये सब द्रव्य अपना अपना उपकार सहकारि कारणके रूपमें ही करते हैं । तथा जैसे आकाशद्रव्य सब द्रव्योंका आधार है और अपना भी आधार है वैसेही काल द्रव्य अन्य द्रव्योंके परिणमनमें भी सहकारी कारण है और अपने परिणमनमें मी सहकारी कारण है । तथा जैसे अग्निकी सहायतासे उत्पन्न हुई भात पर्यायका उपादान कारण चावल है और कुम्हारकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाली घट पर्यायका उपादान कारण मिट्टी है वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी पर्यायका उपादान कारण होता है ।। २१८ ॥ आगे कहते हैं कि द्रव्योंकी खभावभूत जो नाना शक्तियाँ हैं उनका निषेध कौन कर सकता है ? अर्थ-काल आदि लैब्धियोंसे युक्त तथा नाना शक्तियोंवाले पदार्थोको स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है?|| भावार्थ-सभी पदार्थोंमें नाना शक्तियाँ हैं । वे पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भवरूप सामपीके प्राप्त होनेपर स्वयं परिणमन करते है उन्हें उससे कोई नहीं रोक सकता । जैसे, भल्पख आदि शक्तिसे युक्त जीव काललब्धिके प्राप्त होनेपर मुक्त हो जाते हैं । भातरूप होनेकी शक्लिसे युक्त चावल, ईधन, आग, बटलोही, जल आदि सामग्रीके मिलनेपर भातरूप होजाते हैं । ऐसी स्थितिमें जीवको मुक्त होनेसे और चावलोंको भातरूप होनेसे कौन रोक सकता है ।। २१९ ।। आगे व्यवहार रग सवीर संपदा। म स्या। ३१ वाया। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. कोकानुमेशा १५३ [छांना जीवा पुलानां ये सूक्ष्माः मादराः च पर्यायाः । भतीताभागत भूताः स व्यवहारः भवेत् काकः ॥ ] स व्यवहार कालो भवेत् । व्ययोग्य व्यवहारः विकल्पः मेदः पर्याय इत्येकार्थः । व्यवहारकालखरूपं गोम्मटहारे चकमस्ति तदुच्यते । 'आइलि असमयः सावधि समूहमुस्सासो । सत्तुस्वासो धोको सत्तत्थोवो लभो भजियो ॥' जबन्मयुक्तासंख्यातक्षम गराधिः आबलिः स्यात् । स समयः किंरूपः । 'अवरा यज्जायठिमी खणमेत होदितं सम ति दोण्हणूनम दिक्क मालपाणं हवं सो दु । प्रध्यार्णा अन्ना पर्यायस्थितिः क्षणमात्रं भवति, सा च समय इस्युच्यते । स च समयः द्वयोर्गमन परिणत परमयोः परस्परातिक्रमकाप्रमाणं स्यात् । तथा च 'णभएमएसत्यो परमाणु मंदावतो । वीग्रमणसरखेतं आवदियं जादि से समयकाल ॥ श्राकाशस्यैकप्रदेशस्थित परमाणुः मन्दगतिपरिणतः सन् द्वितीयमनन्तरक्षेत्रं यावद्याति स समयालयः कालो भवति । स च प्रदेशः कियान् । 'जेतीथि त मजा रुद्धं सुगमण च तं च पदेस भणियं अवरावरकारण बस्स ।' इति समय लक्षणं कथितम्। संख्याता किसमूह 2- उङ्गासः । स च किरूपः । 'अनुस अलस्त्र य जिरुवहयस्थ य हवेज जीवस्स स्साखाणिस्यायो एगो पाणोति माहीयो ।' सुचिनः अननसस्य निस्पहतस्य जीवस्पोच्छ्वासनिःश्वासः स एवैकः प्राणः उक्तो भवेत् । खप्तोष्वासाः स्तोकः सप्तलोकाः कमः । 'मवृत्तीसहलवा गाली येणालिया मुहुर्त तु एकसमएण होणं भिष्णमूहुर्त तवों से ॥ शिव नाली घटिका द्वे नाल्यौ मुहूर्तः । स च एकसमयेन होनो भिममुहूर्तः, उत्कृष्टान्तर्मुहूर्त इत्यर्थः । ततोsये द्विसमयोनाथा भावस्य संख्याक भागान्ताः सर्वेऽन्तर्मुहूर्ताः । अत्रोपयोगिगावासूत्रम् । समयमावति अवर समजणमुत्तर्यतु उसे । माधवणं दिवाण अंतोमुडुत्तमिर्ण ' सुभ्रमयाधिकारनिर्जघन्यान्तमुहूर्तः समयोन मुहूर्तः कृष्टान्तर्मुहूर्तः मध्यमाः संक्यातमिकल्पाः मध्यमान्तर्मुहूर्ताः इति जानीहि ॥ "दिवसो एक्सो मासो उह भयण मस्समेचमावी हु । संवेखासंखेज्जाणताओ होदि वमहारो ॥' दिवसः पक्षो मासः ऋतुः अयनं वर्षे युर्ग पस्योपमसागरोपमकल्पादयः स्फुटम् भावस्यादिमेदतः संख्याता संख्यातानन्तपर्यन्तं क्रमशः श्रुतावधिकेवलज्ञानविषयविकल्पाः सर्वे व्यवहारका भवति । स व्यवहारकालः कथ्यते । स कः १ जीवपुमान ये terest पुत्रका सूक्ष्मा भावराय पर्यायाः, तत्र जीवानां सूक्ष्मपर्यायाः केवलज्ञानदर्शनादिरूपाः, बादरपर्यायाः मतिश्रुतावचिमनः पर्यायक्रोष्ठमानमायाको माज्ञानादिरूपाः नरनारकादिपर्याया वा । पुत्रलानां सूक्ष्माः पर्यायाः, - - पणुकयणुकादयः सूक्ष्म निगोदादिशरीररूपाथ, बादरपर्यायाः पृथ्थ्यप्तेजोवायुवनस्पतिवारीरादयः घटपटमुकुटशकरपुद्दावासपर्यंतमेरुविमानादिमास्कन्धवर्गणापर्यन्ताः । पुनः कीदृशास्ते । भसीतानागतभूताः । अतीतकाल भविष्यत्कालमसम्मानकामरूपाः ये केचन अतीतका पर्यायाः जाताः भषिध्यत्का भविष्यन्तः पर्यायाः, वर्तमानकाळे भ्रमतिरूपणः विरु 20 कालका निरूपण करते हैं। अर्थ-जीव और पुद्गल द्रव्यकी जो सूक्ष्म और बादर पर्याय अतीत बना• गत और वर्तमानरूप हैं वही व्यवहार काल है ॥ भावार्थ - गोम्मटसार जीवकाण्डमें द्रव्योंका वर्णन करते हुए लिखा है कि एक द्रव्यकी जितनी अतीत, अनागत और वर्तमान अर्थ पर्याय तथा व्यंजन पर्याय होती हैं उतनी ही द्रव्यकी स्थिति होती है। आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय परिणमन होता है । वह परिणमन ही पर्याय है । एक पर्याय एक क्षण अथवा एक समय तक रहती है। एक समय के पश्चात् वह पर्याय अतीत हो जाती है और उसका स्थान दूसरी पर्याय ले लेती है। इस तरह पर्यायका क्रम अनादिकाल से लेकर अनन्तकाल तक चलता रहता है। अतः प्रत्येक द्रव्य अनादि अनन्त होता है । पर्याय दो प्रकारकी होती हैं । एक अर्थ पर्याय और एक व्यञ्जन पर्याय । गुण विकारको पर्याय कहते हैं । सो प्रदेशवत्व गुणके विकारका नाम व्यंजन पर्याय है और अन्य गुण विकारका नाम अर्थ पर्याय है। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, और कालमें केवल अर्थ पर्याय ही होती है और जीव तथा पुद्गलमें दोनों प्रकारकी पर्यायें होती हैं। तथा व्यच्चन पर्याय स्थूल होती है और अर्थ पर्याय सूक्ष्म होती है। एक अर्थ पर्याय एक समयतक ही रहती है। आकाराके एक प्रदेकार्तिक २० 1 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २१पर्यायात एव कालखरूप इति भावः । तयोर्क । 'अव्यावहार्ण सरिखं तियकालचस्वपजाये। विजण्पनाये वा मिलिदे ताण ठिदित्तादोषछद्रव्याणाम् अवस्थान सदृशमेव भवति । त्रिकालमवेषु सूक्ष्मायाग्गोचराचिरस्थाय्यर्थ र्यायेषु तद्विपरीतस्थूलवारगोचरचिरस्थाय्यर्थव्य जनपर्यायेषु वा मिलितेषु तेषां स्थितत्वात् । इदमेव समर्थयति 'एयदबियम्मि जे अत्यपजया बंजणपजया चावि। तीदाणागदभूदा ताबदिय ते हवदि दवं ॥ एकस्मिन् व्ये वे अर्थपोया म्यानपर्यायावातीतानागताः अपिशन्दाद्वर्तमानाश्च सन्ति ताबद्रव्यं भवति । तयोः खरूपमाह । 'मूतों व्यसनपर्यायो वाम्गम्यो नश्वरः स्थिरः। सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायवार्थसशकः 'धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः । व्यजनार्थस्य विलेयो द्वावन्यौ जीवपुलौ ॥ ॥ २२ ॥ अथ अतीतानागतवर्तमानपर्यायाणी संख्या व्यवहरति-- तेसु अतीदा तो अणत-गुणिदा य भावि पजाया। एको' वि वट्टमाणो एसिय-मेत्तो' वि सो कालों ॥२२१॥ [छाया-तेषु अतीताः अनन्ताः अनन्तगुणिताः च भाविपर्यायाः। एकः मपि वर्तमानः एतावन्मात्रः अपि स कालः ॥] वेषु जीवपुद्गलादीनाम् अतीतानागतवर्तमानपर्यायेषु मध्ये अतीताः पर्यायाः अनन्ताः, संख्यातापलिगुणितसिद्धराशिप्रमाण: ३।२१। तु पुनः, भाविपर्यायाः अनन्तगुणिताः अधीतपर्यायाद समन्तानन्तगुणाः ३१२१२। वर्तमानः पर्यायः एकोऽपि एकसमयमात्रः । तत्कालपर्यायानान्तबस्तुभावोऽभिधीयते इति पचनातू । अपि पुनः, स कालः स वर्तमानकालः एतावन्मात्रः समयमान इत्यर्थः । अतीतानागतवर्तमानकालरूपः कथितः । तथा गोम्मटसारोकं सदस्यते 'ववहारो पुण कालो माणुसखेसम्हि जाणिग्यो दु। जोइसियाणं चारे वहारो समाणो ति ॥ म्यवहार शमें स्थित परमाणु मन्दगतिसे चलकर उस प्रदेशसे लगे हुए दूसरे प्रदेशपर जितनी देरमें पहुँचता है उतने कालका नाम समय है । व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब शब्द एकार्थक हैं अतः व्यवहार या पर्यायके ठहरनेको व्यवहार काल कहते हैं । समय, आवली, उच्छास, स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, ये सब व्यवहारकाल हैं । असंख्यात समयकी एक श्रावली होती है । संख्यात आवलीके समूहको उच्छास कहते हैं। सात उच्छासका एक स्तोक होता है और सात स्तोकका एक लव होता है । साड़े अडतीस लवकी एक नाली होती है । दो नाली अथवा पडीका एक मुहूर्त होता है | और एक समय कम मुहूर्तको भिन्न मुहूर्त कहते हैं । यही उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तीस मुहूर्तका एक दिनरात होता है। पन्द्रह दिनरातका एक पक्ष होता है । दो पक्षका एक भास होता है और दो मासकी एक ऋतु होती है । तीन ऋतुका एक अयन होता है । दो अयनका एक वर्ष होता है । यह सब व्यवहारकाल है । यह व्यवहारकाल प्रकटरूपसे मनुष्यलोकमें ही व्यक्त होता है क्योंकि मनुष्यलोकमें ज्योतिषी देवोंके चलनेके कारण दिन रात आदिका व्यवहार पाया जाता है ॥ २२० ।। आगे, अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायोंकी संख्या कहते हैं । अर्थ-द्रव्योंकी उन पर्यायोंमें से अतीत पर्याय अनन्त हैं, अनागत पर्याय उनसे अनन्तगुनी हैं और वर्तमान पर्याय एक ही है। सो जितनी पर्याय हैं उतना ही व्यवहारकाल है॥ भावार्थ-द्रव्योंकी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायोंकी संख्या इस प्रकार है--अतीत पर्याय अनन्त हैं | अर्थात् सिद्धराशिको संख्यात आवलिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है उतनी ही एक द्रव्यकी अतीत पर्याय होती हैं। भावि पर्याय अतीत पर्यायोंसे मी अनन्तगुनी होती हैं और वर्तमान पर्याय एक ही होती है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें व्यवहार कालके तीन भेद बतलाये हैं-अतीत, अनागत और वर्तमान। प.अवीदाश्ता ! २ म गएको। ३ग मितो। ४ - म्यचतुष्कनिरूपणं। पुम्न प्रत्यादि । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३] १०. लोकरक्षा १५५ कालः पुनः मनुष्यकत्रे स्फुटं शासभ्यः । कुतः । ज्योतिष्काण बारे स समान इति कारणात्। 'ववारी पुण तिथि सीदो वगो भविस्य तु । धीयो संखेनाम लिदसिद्धाणं पमाणो दु ॥ व्यवहारकालः पुननिधिः । अवीदानागतवर्क्स. मानवेति । तु पुनः, तत्राधीतः संख्याताय विगुणितसिद्धराशि र्भवति ३ ॥ २१ ॥ कृतः । अष्टोत्तरषट्शत जीवानां मुक्तिगमन समयाधिकषण्मासाः तदा सर्वजीवराश्यनन्तैकमागमुकजीवानां कियानिति त्रैराशिकागतस्य तत्प्रमाणत्वात् । ६०८ फ माइ ३ ३२ 'मयो हु बट्टमाणो जीवाशे सव्वमोग्गलादो वि । भावी भ्रणतगुनिदो इदि दवारो वे कालो ॥ वर्तमानकाल: ख एकसमयः, भाविकालः सर्वजीवराशितः १६ धर्मपुद्रलराधितो १६ ऽप्यनन्तगुणः १६ सय इतिहारका विविध व्यचतुष्टयनिरूपण समासम् ।। २२१ ॥ अथ प्रव्याणां कार्यकारणपरिणामभावं निरूपयति पु- परिणाम- जु कारण-भावेण वठ्ठदे दव्वं । उत्तर - परिणाम- जुदं तं चिय कर्ज हवे णियमा ॥ २२२ ॥ [मा-पूर्व परिणामबुके कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् | उमरपरिणामयुकं तत् एवं कार्म भवेत् नियमात् ॥ ] द्रव्यं जीवादिवस्तु पूर्वपरिणामयुतं पूर्वपर्यायायितुं कारणभावेन उपादानकारणत्वेन देठे । तदेव हव्यं जीवादिनस्तु उत्तरपरिणामवुकम् उत्तरपर्यायानिष्टं तदेव अभ्यं पूर्वपर्यायाविष्टं कारणभूतं मणिमन्त्रादिना अप्रविद्धसामध्ये कारणारावैकल्येम उत्तरक्षणे कार्य निष्पादन्यस्येव । यथा आवानवितानात्मकास्तन्तवः अप्रतिबद्धसामर्थ्याः कारणान्तरावैकल्या अन्यश्चर्ण प्राप्ताः पटस्य कारणम्, उत्तरक्षणे पटस्तु कार्यम् । तथा चोकमष्ठ सहस्याम् । 'कार्योत्पादः खो देतोर्नियमाद् क्षणात पृथक इति ॥ २२२ ॥ अथ त्रिष्वपि कालेषु वस्तुनः कार्यकारणभाव निश्चिनोति कारण-कण-विसेसातीसु वि कालेसु हुति' वत्थूर्ण | एकेकम्मि य समए पुग्वुत्तर-भावमासिज्य || २२३ ॥ संख्यात आवलीसे सिद्धराशिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आये वही अतीतकालका प्रमाण है । इसकी उपपत्ति इस प्रकार है-यदि ६०८ जीवोंके मुक्तिगमन का काल छः माह और आठ समय होता है तो समस्त जीवराशिके अनन्त भाग प्रमाण मुक्त जीवोंके मुक्तिगमनका काल कितना है ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर जो प्रमाण आता है वही अतीतकालका प्रमाण है। वर्तमानकालका प्रमाण एक समय है | और समस्त जीन राशि और समस्त पुजल राशिसे अनन्तगुना भाविकाल है । इस प्रकार व्यवहार कालका प्रमाण जानना चाहिये । इस तरह धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यका वर्णन समाप्त हुआ || २२१ || अब द्रव्योंके कार्यकारण भावका निरूपण करते हैं । अर्थ- पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियमसे कार्यरूप है । भावार्थप्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय परिणमन होता रहता है, यह पहले कहा है । उसमेंसे पूर्वक्षणवर्ती द्रव्य कारण होता है और उत्तरक्षणवर्ती द्रव्य कार्य होता है। जैसे लकड़ी जलनेपर कोयला हो जाती और कोयला जलकर राख हो जाता है। यहाँ लकड़ी कारण है और कोयला कार्य है। तथा कोक्ला कारण और राख कार्य है क्योंकि आप्तमीमांसा में भगवान समन्तभद्रने कहा है कि कारणका विनाश ही कार्यका उत्पाद है । अतः पहली पर्याय नष्ट होते ही दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। इसलिये पूर्वपर्याय उत्तर पर्यायका कारण है और उत्तर पर्याय पूर्व पर्यायका कार्य है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यमें कार्य कारण भावकी परम्परा समझ लेनी चाहिये ॥ २२२ ॥ आगे तीनों कालोंमें वस्तुके कार्य कारण १क्रम सविर, गतस्तु २ ख स वोंषि (१) । म मासेा । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकास्कियानुभेक्षा [गा० २४[छायाकारणकार्यविशेषाः त्रिभु आप का भवन्ति वस्तूनाम् । एकस्मिन् समय पूर्वसरमाबमाताधा] वस्तूना जीवादिद्रव्याणी, निष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानलक्षगेषु कालेषु, एकैकस्मिन् एकस्मिन् एकस्मिन् समये समये क्षणे क्षणे कारणकार्यविशेषाः हेतुफतभावाः इम्पपर्यायरूपा भवन्ति । खा। पूर्वोत्तरभाषमाधिस्य, पूर्व पर्यायम् उत्तरपर्याय च भात्रिय चित्वा, एककस्मिन् समये वस्त्पादध्ययधौम्यात्मकं भवति । 'उत्पादन्थयौव्ययुक सत्' । इति उमाखातिवचनात् । यथा एकस्मिम् समये मृस्पिण्डस्य विनाश एक घटस्योरपादः मध्येण धौम्यम् इत्येकस्मि- लेक समये पूर्वोत्तरभावन कारणकार्यरूपेण उत्पापविनाशो स्तः ॥ २२३ । बयानन्तधर्मात्मक वस्तु निर्णयति संति अर्णताणता तीसु वि कालेसु सच-दधाणि । सर्व पि अणेयंतं तत्तो भणिदं जिणेदेहि ॥ २२४ ॥ [अया-सन्ति अनन्तामन्ताः त्रिषु अपि कायेषु सर्वदल्याणि । सर्वम् अपि मनेकान्त ततः भणितं जिनेन्द्रः॥] तत्तो ततः तस्मारकारणात् जिनेन्द्रः सर्वहः सर्वमपि वस्तु मत्वेकम् बनेकान्तम् भनेकान्तात्मकं निस्यनित्यायनेकारतरूप, यवः सर्वध्याणि सर्वाणि जीवपुरलारीनि वस्तुनि, विष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानकालेषु, अनन्तानम्ताः सन्ति भनम्तानन्तपर्यायारमकानि भवन्ति अनन्तानन्तसदसचिस्यानित्यायनेकधर्मविशियानि भवन्ति । अतः सर्व जीवपद्रमविकं इम्यं जिनेन्द्रः सप्तभन्या कृत्वा अनेकान्तं मणितम् । तात्कथमिति वेबुच्यते। 'एकस्मिनविरोधेन प्रमाणनवायतः। सदादिम्पनाच सप्तमजीति सा मता ॥' स्यादस्ति । स्यात्कयचित् विवक्षितप्रकारेण खाण्यखक्षेत्रखाकामाखमावरमावका निश्चय करते हैं। अर्थ-वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामको लेकर तीनोंही कार्लोमें प्रत्येक समयमै कारणकार्यभार होता है। मावार्थ-वस्तु प्रति समय उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक होती है। तत्त्वार्यसूत्रमें उसे ही सत् कहा है जिसमें प्रतिसमय उत्पाद व्यय और प्रौय्य होता है । जैसे, मिडीका पिण्ड नष्ट होकर घट बनता है। यहाँ मिट्टीके पिण्डका विनाश और घटका उत्पाद एक ही समयमें होता है तथा उसी समय पिण्डका विनाश और घटका उत्पाद होनेपर मी मिट्टी मौजूद रहती हैं। इसी तरह एकही समयमै पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय होता है । अतः तीनों कालोंमें प्रत्येक द्रव्यमें कारण कार्यकी परम्परा चाल रहती है। जो पर्याय अपनी पूर्व पर्यायका कार्य होती है वही पर्याय अपनी उत्तर पर्यायका कारण होती है । इस तरह प्रत्येक द्रव्य खयं ही अपना कारण और स्वयं ही अपना कार्य होता है ।। २२३ ॥ बामे यह निश्चित करते हैं कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। अर्थ-सब द्रव्य तीनोंही कालोंमें अनन्तानन्त है। अत: जिनेन्द्रदेवने समीको अनेकान्तात्मक कहा है॥ भावार्थ-तीनोंही कार्लोमें प्रत्येक द्रव्य अनन्तानन्त है; क्योंकि प्रति समय प्रत्येक द्रव्यमें नवीन नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय नष्ट होजाती है फिर मी द्रव्यकी परम्परा सदा चालू रहती है। अतः पर्यायोंके अनन्तानन्त होनेके कारण द्रव्य मी अनन्तानन्त है। न पर्यायोंका ही अन्त आता है और न द्रव्यका ही अन्त आता है। इसीसे जैनधर्ममें प्रत्येक वस्तुको अनेक धर्मवाली कहा है। इसका खुलासा इस प्रकार है। जैनधर्ममें सत् ही द्रव्यका लक्षण है, असत् या अभाव नामका कोई खतंत्र तत्त्व जैन धर्ममें नहीं माना । किन्तु जो सत् है यही दृष्टि बदलनेसे असत् हो जाता है। न कोई वस्तु केवल सत् ही है और न कोई वस्तु केवल असत् ही है | यदि प्रत्येक वस्तुको केवल सत् ही माना जायेगा तो सब वस्तुओंके सर्वधा सत् होनेसे उनके बीच जो मेद देखा जाता है उसका लोप हो जायगा । और उसके लोप होनेसे सब बस्तुएँ परस्परमें १यचिए 'जगालाम' इति पाठः। २0ग जिमवेहि। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२४ ] १०. लोकानुप्रेक्षा ष्टयापेक्षमा द्रव्यमस्तीत्यर्यः ॥ १ ॥ स्यान्नास्ति । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण परहृष्यपरक्षेत्र पर कानपरमानचतुष्टयापेक्षा जनाः ॥ २ ॥ स्यास्ति । स्मात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेण क्रमेण स्ववनपव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्तिनास्तीत्यर्थः ॥ ३ ॥ स्यादवभ्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण युगपद्वशुमशक्यत्वात्, कमनतिनी भारतीति वचनात् युगपत्वद्रव्यपरवस्या दिचतुष्टयापेक्षया श्रम्बमयतव्यमित्यर्थः ॥ ४ ॥ स्यावस्त्यवतव्यम् । स्वात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण खय्यादिचतुरयापेक्षया [ युगपस्खद्रव्यपरवम्यादिचतुष्टयापेक्षया च स्यावस्त्यवतव्यम् इत्यर्थः ॥ ५ ॥ स्यान्नास्त्यवक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्वा व्यपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च] द्रयं नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ॥ ६ ॥ स्यादस्ति नास्त्य वक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् क्विझितप्रकारेण *मेण खपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्स्वपरव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यमस्ति नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ॥ ७ ॥ ता एकस्मिन् समये एकमपि द्रव्यं स्वव्यचतुष्टयापेक्षया कथंचित्सत् परद्रव्यचतुष्टयापेक्षया कथंचित् असत् राम्यापेक्षया एकमेक हो जायेंगी । उदाहरण के लिये, घट और पट ये दोनों वस्तु हैं । किन्तु जब हम किसीसे घट लानेको कहते हैं तो वह घट ही लाता है । और जब हम पट लानेको कहते हैं तो वह पर ही लाता है । इससे सिद्ध है कि घट घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही है घट नहीं है। अतः दोनोंका अस्तित्व अपनी २ मर्यादा में ही सीमित है, उसके बाहर नहीं है। यदि वस्तुएं इस मर्यादाका उल्लंघन कर जायें तो सभी वस्तुएँ सबरूप हो जायेंगी । अतः प्रत्येक वस्तु खरूपकी अपेक्षासे ही सत् है और पररूपकी अपेक्षा असत् है । जब हम किसी वस्तुको सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि वह वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा से ही सत् कही जाती है, अपनेसे अन्य वस्तुओंके स्वरूपकी अपेक्षा संसारको प्रत्येक वस्तु असत् है । देवदत्तका पुत्र संसार भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भरके पुत्रका पिता है। इससे क्या यह नतीजा नहीं निकलता कि देवदत्तका पुत्र पुत्र है और नहीं भी है। इसी तरह देवदत्त पिता है और नहीं भी है। अतः संसारमें जो कुछ सत् है वह किसी अपेक्षासे असत् भी है। सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नहीं है। अतः एक ही समय में प्रत्येक द्रव्य सत् मी हैं और असत् भी है। स्वरूपकी अपेक्षा सत् है और परद्रव्यकी अपेक्षा असत् है । इसी तरह एक ही समयमें प्रत्येक वस्तु नित्य भी है और अनिस्य भी है। द्रव्यकी अपेक्षा निम्न है, क्योंकि इव्यका विनाश नहीं होता, और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है; क्योंकि पर्याय नष्ट होती है । तथा एक ही समय प्रत्येक वस्तु एक भी है और अनेक भी है। पर्यायकी अपेक्षा अनेक है क्योंकि एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं और द्रव्यकी अपेक्षा एक है। तथा एकही समयमें प्रत्येक वस्तु मिन मी है और अमिन भी है। गुणी होनेसे अभेदरूप है और गुणोंकी अपेक्षा मेदरूप है; क्योंकि एक वस्तु अनेक गुण होते हैं । इस तरह वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उस अनन्त धर्मात्मक वस्तुको जानना उतना कठिन नहीं है जितना शब्दके द्वारा उसका कहना कठिन है; क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मोंको एक साथ जान सकता है किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्मको कह सकता है । इसपर भी शब्दकी प्रवृत्ति बक्ताके अधीन है। वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचनव्यवहार करता है । जैसे देवदत्तको एक ही समय में उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता है। पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' कहकर पुकारता है । किन्तु देवदन्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है। किन्तु पिता भी है और पुत्र भी हैं। इस लिये पिताकी दृष्टि से देवदत्तका पुत्रत्वधर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं r Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुपेक्षा [गा० २२५ नित्यत्वं पर्यायापेक्षयानित्यवम्, अध्यापेक्षया एकस्वं पर्यायापेक्षयानेकत्वम्, गुणगुषिभावेन भिनत्वं तयोरष्यतिरेकेण कंचित् अभिनत्यम् इत्यायनेकधर्मात्मक वस्तु अनन्तानन्तपर्यायात्मक व्यं कथ्यते ॥ २२४ ॥ अथ वस्तुनः कार्यकारिस्पमिति निगदति जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कर्ज करेदि णियमेण । बहु-धम्म-जुदं अत्थं कज-करं दीसदे' लोए ॥ २२५ ॥ और पुत्रकी दृष्टिसे देवदत्तका पितृत्वधर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं। क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुके जिस धर्मकी विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता है और शेष धर्म गौण । अतः वस्तुके अनेक धर्मात्मक होने और शब्दमें पूरे धर्मोको एक साथ एक समयमें कह सकनेकी सामर्थ्य न होनेके कारण, समस्त वाक्योंके साथ 'स्यात्' शब्दका व्यवहार आवश्यक समझा गया, जिससे सुनने वालोंको कोई धोखा न हो । यह 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्ममें इतर धर्मोका द्योतक या सूचक होता है । 'स्यात्' का अर्थ है 'कथंचित् या किसी अपेक्षासे'। यह बतलाता है कि जो सत् है वह किसी अपेक्षासे ही सत् है । अतः प्रत्येक वस्तु 'स्यात् सत्' और 'स्यात् असत्' है। इसीका नाम स्याद्वाद है। वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर अविरोध पूर्वक विधिप्रतिषेधका कथन सात भङ्गों के द्वारा किया ' जाता है । उसे सप्तभंगी कहते हैं । जैसे वस्तुके अस्तित्व धर्मको लेकर यदि कथन किया जाये तो वह इस प्रकार होगा-'स्यात् सत्' अर्थात् वस्तु खरूपकी अपेक्षा है १ । 'स्यात् असत्'-यस्तु पररूपकी अपेक्षा नहीं है २ । 'स्यात् सत् स्यात् असत्-वस्तु खरूपकी अपेक्षा है और पररूपकी अपेक्षा नहीं है । इन तीनों वाक्योंमेंसे पहला वाक्य वस्तु का अस्तित्व बतलाता है, दूसरा वाक्य नास्तित्व बतलाता है, और तीसरा वाक्य अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धौंको क्रमसे बतलाता है। इन दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता, क्योंकि एक शब्द एक समयमें विधि और निषेधसे एकका ही कयन कर सकता है। अतः ऐसी अवस्थामें वस्तु अवक्तव्य ठहरती है, अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता । अतः 'स्यात् अवक्तव्य' यह चौथा भा है । सप्तभंगीके मूल ये चार ही भंग हैं। इन्हींको मिलानेसे सात भंग होते हैं । अर्थात् चतुर्थ भंग 'स्यात् अवक्तव्य' के साथ क्रमसे पहले, दूसरे और तीसरे भंगको मिलानेसे पांचवां, छठा और सातवा भंग बनता है। यथा, स्यात् सदयतन्य ५, स्वादसदवक्तव्य ६, और स्यात् सदसदवक्तव्य ७ । यानी वस्तु कथंचित् सत् और अवक्तव्य है ५, कपंचित् असत् भऔर अवक्तव्य है ६, तथा कथंचित् सत्, कथंचित् असत् और अवक्तव्य है । इन सात भंगोमैसे वस्तुके अस्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेसे प्रथम भंग है, नास्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेसे दूसरा भंग है । क्रम से 'अस्ति' 'नास्ति' दोनों धाँकी विषक्षा होनेसे तीसरा भंग है । एक साथ दोनों धर्माकी विवक्षा होनेसे चौथा भंग है। अस्तित्व धर्मके साथ युगपत् दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे पांचवा भंग है । नास्तित्व धर्मके साथ युगपत् दोनों धर्मों की विवक्षा होनेसे छठा भंग है । और क्रमसे तथा युगपत् दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे सातवां भंग है । इसी तरह एक अनेक, नित्य अनित्य आदि धर्मों में भी एककी विधि और दूसरेके निषेधके द्वारा सप्तभंगी लगा लेनी चाहिये ॥ २२४ ॥ आगे बतलाते हैं कि अनेकान्तात्मक वस्तु ही अर्थ १म करे (१)। २०मसग दीसए । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१६] १०. लोकानुप्रेक्षा १५९ [ छाया-यत् वस्तु अनेकान्तं तत् एष कार्य करोति नियमेन । बहुधर्मयुतः अर्थः कार्यकरः दृश्यते लोके ॥ ] तदेव वस्तु जीवादिपदार्थ नियमेन अवश्यंभावेन कार्यं करोति । मद्वस्तु अनेकान्तम् अनेकखरूपम् अनन्तधर्मात्मकम् अनन्तानन्तगुणपर्यायात्मकम् । तथा चोकं जैनेन्द्रे श्री पूज्यपादेन । 'सिद्धिरनेकान्तात् । लोके जगति, अर्थः जीवादिपदार्थः, बहुधर्मयुक्तः सदसन्नित्यानित्य भिन्नाभिन्नास्तिनास्त्याद्यनेकस्वभावयुक्तः, कार्यकरः अर्थक्रियाकारी, दृश्यते अवलोक्यते । [ एकमपि द्रव्यं कथं सप्तमात्मकं भवति । प्रश्नपरिहारमाह । ] यथा एकोऽपि देवदत्तः पुमान् गौणमुख्यविवक्षाशेन बहुप्रकाशे भवति । पुत्रापेक्षया पिता भण्यते। सोऽपि खकीयपित्रपेक्षया पुत्रो भव्यते। मातुलापेक्षया भागिनेयो भव्यते । स एव भागिनेयापेक्षया मातुलो भण्यते । भार्यापेक्षा भर्ता भव्यते । भगिन्यपेक्षया भ्राता भयते । विपक्षापेक्षानुर्भुज्यते । इष्टापेक्षया मित्रं मन्यते इत्यादि । तथैकमपि श्रव्यम् अनेकात्मकम् इत्याधने क घर्माविष्टः पुरुषः अनेककार्यं कुर्वन् दृष्टः । एवं सर्व वस्तु अनेकान्तात्मकं सत्त्वात् इत्ययं हेतुः सर्वस्य वस्तुनः अनेकधर्मत्वं साधयत्येव ।। २१५ ॥ अथ सर्वथैकान्तवस्तुनः कार्यकारित्वं प्रतिरुणद्धि एतं पुणु द क ण करेदि लेस- मेचं पि । जं पुणेण तहत कर्ज तं बुधाति केरि क्रियाकारी है । अर्थ- जो वस्तु अनेकान्तरूप हैं वही नियमसे कार्यकारी है; क्योंकि लोकमें बहुत धर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है || भावार्थ - अनेक धर्मात्मक वस्तु ही कोई कार्य कर 1 दवं ।। २२६ ॥ सकती है । इसीसे पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणका प्रथम सूत्र जो बतलाता है किसी भी कार्यकी सिद्धि अनेकान्तसे ही हो सकती है। वस्तुको नित्य अथवा क्षणिक ही मानते हैं उनके मतमें अर्थक्रिया नहीं बनती। ही प्रकार हैं एक क्रमसे और एक एकसाथ । निव्यवस्तु क्रमसे काम नहीं कर सकती; क्योंकि सब कायको एक साथ उत्पन्न करनेकी उसमें सामर्थ्य है। यदि कहा जाये कि सहायकोंके मिलने पर निक्ष्य पदार्थ कार्य करता है और सहायकों के अभाव में कार्य नहीं करता । तो इसका यह मतलब हुआ कि पहले वह नित्यपदार्थ कार्य करनेमें असमर्थ था, पीछे सहकारियोंके मिलनेपर समर्थ हुआ । तो असमर्थ स्वभावको छोड़कर समर्थ स्वभावको ग्रहण करनेके कारण वह सर्वथा नित्य नहीं रहा । सर्वथा निक्ष्य तो वही हो सकता है जिसमें कुछ भी परिवर्तन न हो। यदि वह नित्य पदार्थ एक साथ सब काम कर लेता है तो प्रथम समयमें ही सबकाम करलेनेसे दूसरे समयमें उसके करनेको कुछ भी काम शेष न रहेगा । और ऐसी अवस्था में वह असत् हो जायेगा; क्यों कि सत् वही हैं जो सदा कुछ न कुछ किया करता है । अतः क्रमसे और एक साथ काम न कर सकनेसे नित्यवस्तुमें अर्थक्रिया नहीं बनती । इसी तरह जो वस्तुको पर्यायकी तरह सर्वथा क्षणिक मानते हैं उनके मतमें मी अर्थक्रिया नहीं बनती। क्योंकि क्षणिक वस्तु क्रमसे तो कार्य कर नहीं सकती; क्योंकि क्षणिक तो एक क्षणवर्ती होता है, अतः वहाँ कम न ही कैसे सकता है? क्रमसे तो वही कार्य कर सकता है जो कुछ क्षणों तक ठहर सके | और यदि वह कुछ क्षणों तक ठहरता है तो वह क्षणिक नहीं रहता । इसी तरह क्षणिक वस्तु एक साथ भी काम नहीं कर सकती क्योंकि वैसा होनेसे कारणके रहते हुए ही कार्यकी उत्पत्ति हो जायेगी, तथा उस कार्यके कार्यकी मी उत्पत्ति उसी क्षणमें हो जायेगी। इस तरह सब गड़बड़ हो जायेगी । अतः वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य मानना ही उचित है । तभी वस्तु अर्थक्रियाकारी बन सकती है || २२५ ॥ आगे कहते है कि सर्वथा एकान्त रूप १ म स पुण । २ मित्तं (१) । ३ म पुण 1 सिद्धिरने कान्तात्' रखा है । उदाहरणके लिये जो वादी कार्य करनेके दो Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २२६[छाया-एकान्तं पुनः ब्रम कार्य न करोति लेशमात्रम् अपि । यत् पुनः न करोति कार्य तत, उच्यते कीदर्श द्रव्यमा पुनः एका ग्यं जीवादिवस्त सर्वघा नित्य सर्वथा सत सर्वथा भिवं सर्वथक सर्वथानित्यमित्यादिधर्मविशिष्टं वस्तु लेशमात्रमपि [एकमपि] कार्य न करोति, तुच्छमपि प्रयोजन न विदधाति । कुतः । सदरनित्यानित्यायेकान्तेषु क्रमयोगपधाभावात् कार्यकारित्वाभावः । यत्पुनः द्रय कार्य न करोति तरकीदृशं द्रव्यमुच्यते । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यद्वस्तु क्रमेण युगपञ्च अर्थक्रिया करोति तदेव बस्तु उच्यते । यदश्चक्रियां न करोति स्वरविषाणवत्, बस्स्वेव न स्यादिति । तथा चोक्तं च । 'दुर्नयैकान्तमारूढा भाषा न स्वार्थिका हि ते । वार्षिकाच विपर्यस्ताः सकलका नया यतः । तस्कयम् । तथाहि । सर्चया एकान्तेन सद्रूपस्य न नियसार्थव्यवस्था संकरादिवोषत्वात् । तथाऽसद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात् , नित्यस्यैकरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारि. स्वाभावे म्यस्याप्यभावः । भनित्यपक्षेऽपि निरन्धयत्वात् , अर्थक्रियाकारिस्वाभावः। अर्थक्रियाकारित्वाभावे व्यस्थापक भावः । एकखरूपस्यैकान्सेन विशेषाभावः सथैकरूपत्वात् । विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः । "निर्विशेष हि सामान्य भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाप विशेषस्तद देव हि ॥' इति झेयः । अनेकपक्षेऽपि तथा व्याभावो निराधारत्वात आधाराधेयाभावाच । भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारस्वात् अर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारिवाभावे द्रव्यस्थाप्यभावः। भेदपझेऽपि सर्वेषामेकत्वम् । सर्वेषामेकत्वे अर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वामाबे वस्तु कार्यकारी नहीं है। अर्थ-एकान्त स्वरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता। और जो कार्य नहीं करता उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है ।। भावार्थ-यदि जीवादि वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वधा सत् या सर्वथा मिन, अथवा सर्वथा एक या सर्वथा अनिल्ल आदि एकान्त रूप हो तो वह कुछ भी कार्य नहीं कर सकती । और जो कुछ भी कार्यकारी नहीं उसे वस्तु या द्रव्य कैसे कहा जा सकता है; क्योंकि जो कुछ न कुछ कार्यकारी है वही वास्तवमें सत् है । सत् का लक्षण ही अर्थक्रिया है । अतः जो कुछ भी काम नहीं करता यह गधेके सींगकी तरह अवस्तु ही है। कहा भी है'दुर्नयके विषयभूत एकान्त रूप पदार्थ वास्तविक नहीं है। क्योंकि दुर्नय केवल खार्थिक हैं, वे अन्य नयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपनी पुष्टि करते हैं, और जो स्वार्थिक अत एव विपरीत होते हैं वे नय सदोष होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है। यदि वस्तुको सर्वथा एकान्तसे सद्रूप माना जायेगा तो सेकर आदि दोषोंके आनेसे नियत अर्थकी व्यवस्था नहीं बनेगी । अर्थात् जब प्रत्येक वस्तु सर्वथा सत् स्वरूप मानी जायेगी तो वह सब रूप होगी । और ऐसी स्थितिमै जीच, पुद्गल आदिके भी परस्परमें एक रूप होनेसे जीव पुद्गलका भेद ही समाप्त हो जायेगा। इसी तरह जीव जीव और पुद्गल पुगलका भेद भी समाप्त हो जायेगा । तथा वस्तुको सर्वथा असदूप माननेसे समस्त संसार शून्य रूप हो जायेगा। इसी तरह वस्तुको सर्वथा नित्य मानने से वह सदा एकरूप रहेगी । और सदा एक रूप रहनेसे वह अर्थक्रिया नहीं कर सकेगी तथा अर्थक्रिया न करनेसे वस्तुका ही अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेसे दूसरे क्षणमें ही वस्तुका सर्वथा विनाश हो जानेसे वह कोई कार्य कैसे कर सकेगी। और कुछ भी कार्य न कर सकनेसे वस्तुका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। इसी तरह वस्तुको सर्वथा एक रूप माननेपर उसमें विशेष धर्मका अभाव हो जायेगा क्योंकि वह सर्वथा एकरूप है । और विशेष धर्मका अभाव होनेसे सामान्य धर्मका भी अभाव हो जायेगा क्योंकि बिना विशेषका सामान्य गफेके सींगकी तरह असत् है और बिना सामान्यका विशेष भी गधेके सींगकी तरह असत् है । अर्थात् न लिना सामान्यके Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२७ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १६१ द्रव्यस्याप्यभावः । सर्वथा नित्यः अनित्यः एकः अनेकः भेदः अभेदः कथम् । तथा सर्वघात्मनः अनैतन्यपक्षेऽपि सकलचैतन्योच्छेदः स्यात् । (मूर्तस्यैकान्वेन आत्मनो न मोक्षस्यावाप्तिः स्यात् । सर्वथा अमूर्तस्यापि तवात्मनः संचारविलोपः स्यात् ) एकप्रदेशस्यैकान्तेन (खण्डपरिपूर्णस्यात्मनो अनेककार्यकारित्वमेव हानिः स्यात् सवैथानेक प्रवेशत्वेऽपि तथा तस्यानर्थ कार्यकारित्वं स्वस्वभावशून्यता प्रसंगात् । शुद्धस्यैकान्तेन आत्मनो न कर्म मल कलङ्कावलेपः । सर्वथा निरञ्जन - स्वात् । इति सर्वथैकान्ते नास्तीति ॥ २२६ ॥ अथ नित्येकान्तेऽर्थक्रियाकारित्वं निरुणद्धि परिणामेण विहीणं णिचं दवं विणस्सदे छोत्रं । जो उप्पज्जेदि सयों एवं कज्जं कहं कुणदि ॥ २२७ ॥ [ छाया-परिणामेन विद्दीनं नित्यं द्रव्यं विनश्यति नैव न उत्पद्यते सदा एवं कार्य कथं कुरुते ॥ ] नियं द्रस्यं धौर्य, जीवादिवस्तु सर्वथा अविनश्वरं वस्तु, परिणामेन उत्पादव्ययादिपर्यायेण विहीनं रहितं विमुक्त वस्तु सत् नैव विनश्यति न विनाशं गच्छति । पूर्वपर्यायरूपेण विनश्यति चेत् तर्हि नित्यत्वं न स्यात् सदा नोत्पयते । उत्तरपर्यायरूपेण नित्यं वस्तु नोत्यते । उत्पयते चेत् तर्हि नित्यत्वं न स्यात् । यदि नित्यं वस्तु अर्थक्रियां न करोति तदा वस्तुत्वं न विशेष रह सकता है और बिना विशेषके सामान्य रह सकता है । अतः दोनोंका ही अभाव हो जायेगा । तथा वस्तुको सर्वथा अनेकरूप माननेपर द्रव्यका अभाव हो जायेगा; क्योंकि उस अनेक रूपोंका कोई एक आधार आप नहीं मानते। तथा आधार और आधेयका ही अभाव हो जायेगा । क्योंकि सामान्यके अभाव में विशेष और विशेष के अभाव में सामान्य नहीं रह सकता । सामान्य और विशेष में सर्वथा भेद मानने पर निराधार होनेसे विशेष कुछ भी क्रिया नहीं कर सकेंगे, और कुछ मी क्रिया न करनेपर द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा । सर्वथा अभेद माननेपर सब एक हो जायेंगे, और सबके एक होजाने पर अर्थ किया नहीं बन सकती । अर्थक्रियाके अभाव द्रव्यका मी अभाव हो जायेगा । इस तरह सर्वथा नित्य, सर्वथा अनिष्य, सर्वथा एक सर्वथा अनेक, सर्वधा भेद, सर्वथा अभेदरूप एकान्तोंके स्वीकार करनेपर वस्तुमें अर्थक्रिया नहीं बन सकती । तथा आत्माको सर्वथा अचेतन माननेसे चैतन्यका ही अभाव हो जायेगा । सर्वथा मूर्त माननेसे कभी उसे मोक्ष नहीं हो सकेगा । सर्वथा अमूर्त माननेसे संसारका ही लोप हो जायेगा । सर्वथा अनेक प्रदेशी माननेसे आत्मामें अर्थक्रियाकारित्व नहीं बनेगा; क्योंकि उस अवस्थामें घट पटकी तरह आत्माके प्रदेशभी पृथक् पृथक हो सकेंगे और इस तरह आत्मा स्वभाव शून्य हो जायेगी । तथा आत्माको सर्वथा शुद्ध माननेसे कभी वह कर्ममलसे लिप्त नहीं हो सकेगा क्योंकि वह सर्वथा निर्मल हैं। इन कारणोंसे सर्वथा एकान्त ठीक नहीं है । २२६ ।। अत्र सर्वथा नित्यमें अर्थक्रियाका अभाव सिद्ध करते हैं । अर्थ- परिणामसे रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है और न कभी उत्पन्न हो सकता है। ऐसी अवस्थामें वह कार्य कैसे कर सकता है । भावार्थयदि वस्तुको सर्वथा ध्रुव माना जायेगा तो उसमें उत्पाद और व्ययरूप पर्याय नहीं हो सकेंगी । और उत्पाद तथा व्ययके न होनेसे वह वस्तु कभी नष्ट नहीं होगी । यदि उसकी पूर्व पर्यायका विनाश माना जायेगा तो वह सर्वया नित्य नहीं रहेगी। इसी तरह उस वस्तुमें कभी भी नवीन पर्याय उत्पन्न नहीं होगी । यदि होगी तो वह नित्य नहीं ठहरेगी। और पूर्व पर्यायका विनाश तथा १ क म स ग य २ गट उपज्जेदि सया, क स ग णो उप्पकादि सया, म जो उपजेदि सवा । कार्तिके० २१ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २२८व्यवतिष्ठते, खरविषाणवत्, बन्ध्यासुतषत् , गगनकुसुमवत् । एनम् अर्थक्रियाकारित्वाभावे नित्यम् आत्माविवस्तु कर्थ कार्य करोति चेत् , यस्कार्य न करोति तदेव वस्तु न स्यात् ॥ २२७ ॥ पाय-मित्तं तच्चं विणस्सरं खणखणे वि अण्णणं । अण्णइ-दध-विहीणं ण य कजं किं पि साहेदि ॥ २२८ ॥ [छाया-पर्यायमात्रं तवं विनश्वर क्षणे क्षणे अपि अन्यत् अन्यत् । अन्वयिद्रव्यविहीन न च कार्य किम् अपि साधयति ॥] यदि तत्वं जीचा दिवस्तु, पर्यायमात्र मतिज्ञानादिपर्यायरूपं, जीवद्रम्यविहीनं मृद्रव्यविहीनं च, शिवकस्थासकोशकसूलघटकपालाविरूप, क्षणे क्षणेऽपि समये समयेऽपि, अन्योन्यै परस्परम् अन्वयिद्रव्यविहीनम् , अन्वयाः शिवकस्थासकोशकुसूलादयः ते विद्यन्ते यस्य तत् अन्वयि तच्च तद्न्य च, तेन विहीने जीवादिद्रव्यविहीन विनश्वर प्रतिसमय चिनाशि अझीकियते चेत्, तर्हि तन्यं किमपि कार्य न साधयति । तदुक्तमध्यमस्याम्। 'संतानः समुदायश्च साधये च निराशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वन स्यादेकत्वनिये ॥ इति ॥ २२८ ॥ अथ नियैकान्वे क्षणिककाम्ते च कार्याभावं निमालेकासे परमावशी .... णवणव-कज-विसेसा तीसु वि कालेसु होति वत्थूणं । एकेकम्मि य समये पुखुसर-भावमासिज ॥ २२९॥ [छाया-नवनवकार्यविशेषाः त्रिषु अपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम् । एकैकस्मिन् समये पूर्वोत्तरभावमासाद्य ॥ ] पस्तूला जीमादिद्रव्याणां पदार्थानां त्रिवपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानसमयेषु नवनवकार्यविशेषाः उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति न होनेसे वह वस्तु कुछ भी कार्य न कर सकेगी; क्योंकि कुछभी कार्य करनेसे यस्तुमें परिणमन अवश्य होगा और परिणमनके होनेसे घस्तु सर्वथा निस्य नहीं रहेगी। अतः नित्य वस्तुमें अर्थक्रिया सम्भव नहीं है ।। २२७ ॥ आगे सर्वथा क्षणिक वस्तुमें अर्यक्रियाका अभाव बतलाते हैं ॥ अर्थ-क्षण क्षणमें अन्य अन्य होने बाला पर्यायमात्र विनश्चर तत्त्व, अन्वयी द्रव्यके बिना कुछभी कार्य नहीं कर सकता ॥ भावार्थ-यदि नाना पर्यायोंमें अनुस्यूत एक द्रव्यको न मानकर केवल पर्यायमात्रको ही माना जायेगा अर्थात् मति ज्ञानादि पर्यायोंको ही माना जाये और जीव द्रव्यको न माना जाये, या मिट्टीको न माना जाये और स्थास, कोश, कुसूल, घट, कपाल आदि पर्यायोंको ही माना जाये तो बिना जीव द्रव्यके मत्यादि पर्याय और बिना मिट्टी स्थास आदि पर्याय हो कैसे सकती हैं ! इसीसे आतमीमांसामें कहा है कि नाना पर्यायोंमें अनुस्यूत एकत्व को न माननेपर सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, पुनर्जन्म वगैरह कुछ भी नहीं बन सकता । इसका खुलासा इस प्रकार है-एक वस्तुकी कमसे होने वाली पर्यायोंकी परम्पराका नाम सन्तान है । जब एकत्वको नहीं माना जायेगा तो एक सन्तान कैसे बन सकेगी ! जैसे एकत्व परिणामको न माननेपर एक स्कन्धके अवयवोंका समुदाय नहीं बन सकता वैसेही सदृश परिणामोंमें एकत्वको न माननेपर उनमें साधर्म्य भी नहीं बन सकता । इसी तरह इस जन्म और परजन्ममें रहने वाली एक आत्माको न माननेपर पुनर्जन्म नहीं बनता तया देन लेनका व्यवहारभी एकल्बके अभावमें नहीं बन सकता; क्योंकि जिसने दिया और जिसने लिया वे दोनों तो उसी क्षण नष्ट हो गये, तब न कोई देनेवाला रहा और न कोई लेनेवाला रहा । अतः नित्यैकान्तकी तरह क्षणिकैकान्तमें भी अर्थक्रिया नहीं बनती ।। २२८॥ भागे अनेकान्तमें कार्यकारणभावको बतलाते हैं। अर्थ-वस्तुओंमें तीनों ही कालोंमें प्रति समय पूर्व १ग अणा- २ ब-पुस्तके गायेयं नास्ति। ३गनीस्म । ४ म भावमासन । ..-- .. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.- -२३१] १०. लोकानुभेक्षा १६३ नूतननूतनपोयलक्षणकार्यविशेषा भवन्ति । किं करवा । एकैकन्मिन् समये एकस्मिन् क्षणे क्षणे पूर्वोत्तरभावम् आश्रिय , पूर्वोत्तरभावं श्रित्या कारणकार्यभा समाश्रित्य ॥ २२९ ॥ अथ पूर्वोत्तरपरिणामयोः कारणकार्यभावं द्रढयति पुष-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वदे दव्वं । उत्तर-परिणाम-जुदं तं धिय कजं हवे णियमा ॥ २३०॥ [छाया-पूर्वपरिणामयुतं कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् । उत्तरपरिणामयुतं तत् एष कार्य भवेत् नियमात् ॥ द्वन्य जीवपुद्गला दिवस्तु, पूर्वपरिणामयुक्तं पूर्वपर्यायाविष्ट, कारणभावेन उत्तरभावकार्यस्य कारणभावेन उपादानकारणत्वेन वर्तते । यया माम्यस्य मृत्पिण्डपयोगः । उत्तरषटपर्मायस्योपादानकारणं तदेव द्रव्यम् उत्तरपरिणामयुतम् अत्तरपर्यायसहित नियमान कार्य भवेत, साध्यं स्यात् । यया मृदयस्य मृत्पिण्डः उपादानकारणभूतः घटलक्षण कार्य जनयति ॥ २३० ॥ मय जीवस्यानादिनिधनत्व सामग्री विशेषात् कार्यकारित्वं द्रढयति जीवो आणाई-णिहणो परिणममाणो हुँ णव-णवं भावं। सामग्गीसु पयदि कजाणि समासदे पच्छा ॥ २३१॥ [छाया-जीवः अनादिनिधनः परिणममानः सङ्घ नवनवं भावम् । सामग्रीषु प्रवर्तते कार्याणि समाश्रयते पश्चात् ॥] जीव: भात्मा, हु इति स्फुटम्, अनादिनिधनः भायन्तरहितः, सामग्रीषु व्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणासु प्रवर्तते। बीवः कीद खन् । नवं नर्व भाव नूतनं नूतनं नरनारकादिपर्यायरूपं परिणममानः सन् परिणति पर्याय गच्छन् सन् वर्तते । पश्चात् कार्याणि उत्तरोत्तरपर्यायाम् समस्तान प्राप्नोति करोतीत्यर्थः । यथा कश्चिजीवः नवं न देवादिपर्याय और उत्तर परिणामकी अपेक्षा नये नये कार्यविशेष होते हैं ।। भावार्थ-वस्तुको सर्वथा क्षणिक अथवा सर्वथा नित्य न मानकर परिणामी नित्य माननेस कार्यकारणभाव अथवा अाँक्रया बनती है, क्योंकि वस्तुस्वरूपसे ध्रुव होते हुए भी वस्तुमें प्रतिसमय एक पर्याय नष्ट होती और एक पर्याय पैदा होती है । इस तरह पूर्व पर्यायका नाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद प्रति समय होते रहनेसे नये नये कार्य (पर्याय ) होते रहते हैं ॥ २२९ ॥ आगे पूर्व परिणाम और उत्तर परिणामसे युक्तद्रव्यमें कार्यकारणभाषको हद करते हैं । अर्थ-पूर्व परिणामसे युक्त द्रव्य नियमसे कारण रूप होता है । और वही द्रव्य जब उत्तर परिणामसे युक्त होता है तब नियमसे कार्यरूप होता है। भावार्थअनेकान्तरूए एक ही द्रव्यमें कार्यकारणभाव नियमसे बनता है । पूर्व परिणामसे युक्त वही द्रव्य कारण होता है। जैसे मिट्टीकी पिण्डपर्याय कारणरूप होती है । और वही द्रव्य जब उत्तर पर्यायसे युक्त होता है तो कार्यरूप होता है । जैसे घटपर्यायसे युक्त नही मिट्टी पूर्व पर्यायका कार्य होनेसे कार्यरूप है क्योंकि मृत्पिण्ड घटकार्यका उपादान कारण होता है । इस तरह अनेकान्तरूप परिणामी नित्य द्रव्यमें कार्यकारणभाव नियमसे बन जाता है ॥ २३० ॥ आगे अनादिनिधन जीवमें कार्यकारणभावको ४८ करते हैं ॥ अर्थ-जीव द्रव्य अनादि निधन है। किन्तु वह नवीन नवीन पर्यायरूप परिणमन करता हुआ प्रथम तो अपनी सामग्रीसे युक्त होता है, पीछे कार्योको करता है ॥ भावार्थ-जीव द्रव्य अनादि और अनन्त है अर्थात् न उसकी आदि है और न अन्त है । परन्तु अनादि अनन्त होते हुए भी वह सर्वथा नित्य नहीं है, किन्तु उसमें प्रति समय नई नई पर्याय उत्पन्न होती रहती हैं। नई नई पर्यायोंको उत्पन करनेके लिये प्रथम वह जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव आदि रूप सामग्री से युक्त होता है फिर नई नई १ अणाय-।२वि । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २१२परिणमिण्यमाणः (१) सन सामग्रीधु जिनाचारसतधारणसामायिकधर्मध्यानादिलक्षणास प्रवर्तमानः पश्चात् देवादि. पर्यायान् समाश्यति, तथा कविजीवः नरनारकतिर्मवपर्याय परिणमिष्यमाणः सन् पुण्यपापादिखातम्यसनबहारम्भपरिप्रहादिमायाकूटकपटच्छलच्छयादिसामग्रीषु प्रवर्तमानः पात् नरनारकतिर्थक्पर्यायान् प्रागोतीत्यर्थः ॥ २१॥ अथ जीवः स्वदच्यखझेत्रस्वकालखमावेषु स्थितः एव कार्य विदधाति इत्यावेदयति स-सख्यस्थी जीवो कर्ज साहेदि वट्टमाणं पि । खेते एक्कम्मि ठिदो णिय-दचे संठिदो घेव ॥ २३२ ॥ छाया-खखरूपस्थः जीवः कार्य साधयति वर्तमानम् अपि । क्षेत्रे एकस्मिन् स्थितः निजद्रव्ये संस्थितः ।। जीवः इन्द्रियादिन्यप्राणः सुखसत्ताचैतन्यबोधभावप्राणेश्वाजिनीवत् जीवति जीविष्यतीति जीवः कार्य नूतनभूतमनरमारकादिपर्याय वर्तमानम् , अपिशब्दादतीतानागतंच, कार्य साधयति निर्मिनोति निर्मापयति निष्पादयतीत्यर्थः । कथंभूती जीवः । निजे द्रव्ये संस्थित्तः वेतनाविष्टस्वारमध्ये स्थिति प्राप्तः सन् नात्मान्तरद्रव्ये संस्थित एवकारार्थः । एकस्मिक पर्यायोंको उत्पन्न करता है । जैसे, कोई जीव देव पर्यायरूप परिणमन करनेके लिये पहले समीचीन व्रतोंका धारण, सामायिक, धर्मध्यान आदि सामग्रीको अपनाता है पीछे वर्तमान पर्यायको छोड़कर देवपर्याय धारण करता है । कोई जीव नारकी अथवा तिर्यञ्च पर्यायरूप परिणमन करनेके लिये पहले सात व्यसन, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह, मायाचार कपट छल छम वगैरह सामग्रीको अपनाता है पीछे नारकी अथवा तिर्यश्च पर्याय धारण करता है । इस तरह अनादि निधन जीवमें भी कार्यकारणभाव बन जाता है ।। २३१ ।। आगे कहते हैं कि जीव खद्रव्य, खक्षेत्र, खकाल और खभावमें स्थित रहकर ही कार्यको करता है । अर्थ-स्वरूप में, स्वक्षेत्रमें, खद्रव्यमें और खकालमें स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्यको करता है ।। भावार्थ-जो इन्द्रिय आदि द्रव्यप्राणोंसे या सुख सत्ता चैतन्य और ज्ञानरूप भाव प्राणोंसे जीता है, जिया था अथवा जियेगा उसे जीव कहते हैं । वह जीव नवीन नवीन नर नारक आदि रूप वर्तमान पर्यायका और 'अपि' शब्दसे अतीत और अनागत पर्यायोंका कर्ता है । अर्थात् वह खयं ही अपनी पर्यायोंको उत्पन्न करता है। किन्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें स्थित होकर ही जीव अपनी पर्यायको उत्पन्न करता है । अर्थात् अपने चैतन्य स्वरूप आत्मद्रव्यमें स्थित जीव ही अपने कार्यको करता है, आत्मान्तरमें स्थित दुआ जीव स्वकार्यको नहीं करता । अपनी आत्मासे अवष्टब्ध क्षेत्रमें स्थित जीवही खकार्यको करता है, अन्य क्षेत्रमें स्थित जीव खकार्यको नहीं करता । अपने ज्ञान, दर्शन, मुख, सत्ता आदि खरूपमें स्थित जीवही अपनी पर्यायको करता है, पुद्गल आदि खभावान्तरमें स्थित जीव अपनी पर्यायको नहीं करता । तथा स्वकालमें वर्तमान जीव ही अपनी पर्यायको करता है, परकालमें वर्तमान जीव स्वकार्यको नहीं करता। आशय यह है कि प्रत्येक वस्तुका वस्तुपना दो बातोपर निर्भर हैएक बह स्वरूपको अपनाये, दूसरे वह पररूपको न. अपनाये। इन दोनोंके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता । जैसे, खरूपकी तरह यदि पररूपसे भी वस्तुको सत् माना जायेगा तो चेतन अचेतन हो जायेगा। तथा पररूपकी तरह यदि खरूपसे भी वस्तुको असर मामा जायेगा तो वस्तु सर्वथा शून्य हो जायेगी । खद्रव्यकी तरह परद्रव्यसे भी यदि वस्तुको सत् माना छम सग बिते। २लसग पम्मि । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : -२३३] १०. लोकातुप्रेक्षा १६५ क्षेत्रे खात्मावन्धक्षेत्र शरीरे नान्यक्षेत्रान्तरे । पुनः कथंभूतः । खखरूपस्थः स्वस्वरूपे शानदर्शन सुखसत्य दिवस्वरूपे स्थित एव न परखरूपे स्थितः, न पुहलादिखभावान्तरे स्थितः । अपिशब्दात् स्वकाळे वर्तमान एव न तु परकाळे । अत एव खद्रव्यखक्षेत्रखकाला भावेषु स्थित एवात्मा स्वस्वर्यायादिलक्षणानि कार्याणि करोतीति तात्पर्यम् ॥ २३२ ॥ ननु यथा स्वस्वरूपस्थ जीवः कार्याणि कुर्यात् तथा परस्वरूपस्थोऽपि किं न कुर्यादिति परोति धूपयति- स-सरूवरथो जीयो अण्ण-सरूवम्मि' गच्छदे जदि हि । अortor- मेलणादो एक-सरूवं हवे सवं ॥ २३३ ॥ 1 [ छाया - स्वस्वरूपस्थः जीवः अन्यस्वरूपे गच्छेत् यदि हि । अन्योन्यमेलनात् एकस्वरूपं भवेत् सर्वम् ॥ ] हीवि स्फुटम्। जीवः आत्मा स्वस्वरूपस्थः चेतनादिलक्षणे खखरूपे स्थितः सन् अन्यस्वरूपे पुद्रलादीनामचेतनस्वभावे गच्छेत् जायेगा तो द्रव्योंकी निश्चित संख्या नहीं रहेगी । तथा परद्रव्यकी तरह स्वद्रव्यकी अपेक्षाभी यदि वस्तुको असत् माना जायेगा तो सब द्रव्य निराश्रय हो जायेंगे। तथा स्वक्षेत्रकी तरह परक्षेत्रसे भी यदि वस्तुको सत् माना जायेगा तो किसी वस्तुका प्रतिनियत क्षेत्र नहीं रहेगा। और पर क्षेत्रकी तरह स्वक्षेत्रसे भी यदि वस्तुको असत् माना जायेगा तो वस्तु निःक्षेत्र हो जायेगी । तथा स्वकालकी तरह परकालसे भी यदि वस्तुको सत् माना जायेगा तो वस्तुका कोई प्रतिनियत काल नहीं रहेगा । और परकालकी तरह स्वकालसे भी यदि वस्तुको असत् माना जायेगा तो वस्तु किसी भी कालमें नहीं रहेगी । अतः प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वफाल और स्वभावमें स्थित रहकर ही कार्यकारी होती है । सारांश यह है कि प्रत्येक वस्तु चार भागों में विभाजित है। ये चार भाग है व्य, द्रव्यांश, गुण और गुणांश । [ इन चारोंकी विशेष चर्चा के लिये पश्चाध्यायी पढ़ना चाहिये । अनु० ] अनन्त गुणोंके अखण्ड पिण्डको तो द्रव्य कहते हैं । उस अखण्ड पिण्डरूप द्रव्यकी प्रदेशोंकी अपेक्षा जो अंश कल्पना की जाती है उसे द्रव्यांश कहते हैं । द्रव्यमें रहनेवाले गुणोंको गुण कहते हैं। और उन गुणोंके अंशोंको गुणांश कहते हैं । प्रत्येक वस्तुमें ये ही चार बातें होती हैं। इनको छोड़कर वस्तु और कुछ भी नहीं है। इन्हीं चारोंकी अपेक्षा एक वस्तु दूसरी वस्तुसे जुदी मानी जाती है। इन्हें ही खचतुष्टय कहते हैं । स्वचतुष्टयसे खष्य, म्वक्षेत्र, काल और स्वभाव लिये जाते हैं। अनन्त गुणोंका अखण्ड पिण्डरूप जो द्रव्य है वही खद्रव्य है । यह द्रव्य अपने जिन प्रदेशोंमें स्थित है वही उसका खक्षेत्र है । उसमें रहनेशले गुणही उसका स्वभाव है । और उन गुणोंकी पर्याय ही स्वकाल है । अर्थात् द्रव्य, द्रव्यांश, गुण और गुणांश ही वस्तुके स्वदव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव है । वस्तुका द्रव्य उसके अनन्तगुण रूप अखण्ड पिण्डके सिवा दूसरा नहीं है। वस्तुका क्षेत्र उसके प्रदेशही हैं, न कि जहाँ वह रहती है। उस वस्तुके गुण ही उसका स्वभाव हैं और उन गुणोंकी कालक्रमसे होनेवाली पर्याय ही उसका स्वकाल हैं । प्रत्येक वस्तुका यह स्वचतुष्टय जुदा जुदा है। इस स्नचतुष्टयमें स्थित द्रव्य ही अपनी अपनी पर्यायों को करता है || २३२ || जैसे खरूपमें स्थित जीब कार्यको करता है वैसे पररूपमें स्थित जीव कार्य को क्यों नहीं करता ! इस शङ्काका समाधान करते हैं । अर्थ - यदि खरूपमें स्थित जीव परखरूपमें चला जावे तो परस्पर में मिलजानेसे सब द्रव्य एक १४ सवहि। २ बस एक म एक (१) । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३४प्राप्नुयात् परद्रव्यक्षेत्रकालभावचतुष्टयखरूप प्राप्नुयादिति यदि चेतहि सर्व द्रव्यम् अन्योन्यर्स वेषात् एकखरूपं भवेत् । यदि चेतनद्रव्यम अचेतनरूपेण परिणमति, अचेतनद्रव्य चेतनद्रव्येण परिणमति, तदा सर्व द्रव्यम् एकात्मकम् एकखरूप स्यात् । तथा चोक्तम् । 'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते । नोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति' ।। २३३ ॥ अय ब्रह्माद्वैतवादिनं दुपयति अहवा बभ-सरूव एक सधं पि मण्णदे जदि हि । चंडाल-बंभणाणं तो ण विसेसो हवे को वि' ॥२३४ ॥ [छाया-अथवा ब्रह्मस्वरूपम् एकं सर्वम् अपि मन्यते यदि हि। नाण्डालबाह्मणानां ततः न विशेषः भवेत् ॥1 अथवा सर्वमपि जगत ब्रह्मखरूपम एक मन्यते. एकमेव ब्रह्ममयं विश्व स्वीकुरुते । 'एकमेवाद्वितीय प्रम। 'नेह मानास्ति किंचन। 'श्राराम तस्य पश्यति न तं पश्यति कश्चन ।' इति धुतेः । इति सर्व ब्रह्ममयं च यदि चेत् मन्यते तो तर्हि तेषां ब्रह्माद्वैतत्रादिनां कोऽपि चाण्डालब्राह्मणानां विशेषो न भवेत् । यदि चाण्डालोऽपि ब्रह्ममयः ब्राह्मणोऽपि चाण्डालमयः तर्हि तयोर्भेदः कथमपि न स्यात् 1 अथ अविद्यापरिकल्पितोऽयं भेद इति चेश, साविद्या ब्रह्मणः सकाशात् भिन्नाभिनाबा, एकानेका, सदूपासपा था, इत्यादिखरूपेण विचार्यमाणा ने व्यवतिष्ठते ॥ २३४ ॥ अथातो व्यापक थ्यं मा भवतु, अणुमानं तत्त्वं भविष्यतीति वादिनं निराकरोति ।। अणु-परिमाणं तच्च अंस-विहीणं च मपणदे जदि हि । तो संबंध-अभावो तत्तो वि ण कम-संसिद्धी ॥ २३५ ॥ खरूप होजायेंगे ॥ भावार्थ-यदि अपने चैतन्य खरूपमें स्थित जीत्र चैतन्य स्वरूपको छोड़कर पुद्गल आदि द्रव्योंके अचेतन स्वरूप हो जाये अर्थात् परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और पर मावको अपनाले त सबका कोई निश्चित स्वरूप न होनेसे सब एकरूप होजायेंगे । चेतन द्रव्य अचेतन रूप होजायेगा और अचेतन द्रव्य चेतन रूप होजायेगा और ऐसा होनेसे जब सब वस्तु सब रूप होजायेंगी और किसी वस्तुका कोई विशेष धर्म नहीं रहेगा तो किसी मनुष्यसे यह कहनेपर कि 'दही खाओ' यह ऊँटको भी खानेके लिये दौड़ पड़ेगा । क्यों कि उस अवस्थामें दही और ऊँटमें कोई भेद नहीं रहेगा । अतः खरूपमें स्थित वस्तु ही कार्यकारी है || २३३ !॥ आगे ब्रह्माद्वैतवादमें दूषण देते हैं । अर्थ -अथवा यदि सभी वस्तुओंको एक ब्रह्म स्वरूप माना जायेगा तो चाण्डाल और ब्राह्मणमें कोई मेद नहीं रहेगा। भावार्थ- ब्रह्माद्वैतवादी समस्त जगतको एक ब्रह्मस्वरूप मानते हैं । 'अतिमें लिखा है-'इस जगतमें एक ब्रह्म ही है, नानात्र बिल्कुल नहीं है। सब उस ब्रह्मकी पर्यायोंको ही देखते हैं । किन्तु उसे कोई नहीं देखता' । इस प्रकार यदि समस्त जगत एक ब्रह्ममय है तो चाण्डाल और ब्राह्मण में कोई मेद नहीं रहेगा क्योंकि ब्राह्मण भी ब्रह्ममय है और चाण्डाल भी ब्रह्ममय है। शायद कहा जाये कि यह भेद अविद्याके द्वारा कल्पित है, वास्तविक नहीं है । तो वह अविधा ब्राझसे भिन्न है अथवा अभिन्न है, एक है अथया अनेक है, सद्रूप है अथवा असद्रूप है इत्यादि अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं। यदि अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है तो अद्वैतवाद नहीं रहता और यदि अविद्या ब्रह्मसे अभिन्न है तो ब्रह्म भी अविद्याकी तरह काल्पनिकही ठहरेगा। तथा अद्वैतवादमें कर्ता कर्म पुण्य पाप, इहलोक परलोक, बध मोक्ष, विद्या अविद्या आदि भेद नहीं बन सकते । अतः जगत्को सर्वथा एक रूप मानना उचित नहीं है ॥ २३४ ॥ कोई कहता है कि एक व्यापक द्रव्य न १ मणिदे, स म । २ ल ग को। ३लम सम संबंधाभावो । ४ ल स ग संसिद्धि । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३६ ] १०. लोकानुप्रेक्षा १६७ [ छाया-अणुपरिमाणं तस्वम् अंशविहीनं च मन्यते यदि हि । तत् संबन्धाभावः ततः अपि न कार्य सिद्धिः ॥ ] हीति स्फुटम् । यदि तत्त्वं जीवादिवस्तु । किंभूतम् । अणुपरिमाणं परमाणुमात्रम् । पुनः किंभूर्त जीवतस्त्वम् । अंशविहीनं, निरेश रहितं मन्यते अभीक्रियते भवद्भिः, तो तर्हि संबन्धाभावः आत्मनः सर्वाङ्गेण सह संबन्धो न स्यात्, अथ संवन्धमा भवतु, तां सर्वाने जायमानं सुखं दुःखं वेदनास्पर्शनादिर्ज ज्ञानं कथमनुभवत्यात्मा, तत्तो ततः संबन्धाभावात् कार्यसंसिद्धिरपि कार्याणां सुखदुःखपुण्यपापेद्दलोक परलोकादिलक्षणानां संसिद्धिः प्राप्तिः निष्पत्तिशतिर्वा न भवेत् । आत्मनः शरीरात् सर्वथा भिन्नत्वात् । शरीरेण क्रियमाणानां यजनयाजनाध्ययनाध्यापनादानतपवरणादीन अत्यन्त भिनत्वात् । ततः क्रियमाणफलं आत्मनः लभते इति सर्वे सुस्थम् ॥ २३५ ॥ अथ द्रव्यस्य एकस्वमनेकरवं निश्चिनोति सवाणं दघाणं दध-सरूवेण होदि एयत्तं । णिय-णिय-गुण-भेएण हि स्वाणि वि होंति भिष्णाणि ॥ २३६ ॥ [ छाया - सर्वेषां द्रव्याणां द्रव्यस्वरूपेण भवति एकत्वम् । निजनिजगुणमेदेन हि सर्वाणि अपि भवन्ति भिन्नानि ॥] निज निज प्रदेश समूहैरखण्डवृत्त्या खभावविभाव पर्यायान् द्रवन्ति द्रोष्यन्ति अदुदुवन्निति प्रम्याणि । सर्वेषां दव्याणां जीवपुलधर्माधर्माकाशकालानां पदार्थानां वस्तूनां द्रव्यस्वरूपेण द्रव्यत्वेन गुणपर्यायेण सह एकत्वं भवति, कथंचित् अभिन्नत्वं स्यात् । यथा मृद्रव्यस्य घटादिपर्यायः रूपादिगुणः तो द्वी घटात पृचकर्तुं न शक्यते । तेषां मृष्यघटरूपाश्रीनां स्यादेकत्वम् । तथा जीवद्रव्यादीनां ज्ञातव्यम् । सर्वाण्यपि द्रव्याणि सत्तापेक्षया द्रव्यत्वसामान्यापेक्षया च एकानि अपि पुनः सर्वाण्यपि द्रव्याणि निजनिजगुणभेदेन कथंचिद्विलानि पृथग्भूतानि भवन्ति । अथवा सर्वाण्यपि द्रव्याणि चेतनाचेतनादिभिर्गुणैः कथंचित्परस्परं भिन्नानि भवन्ति । यथा गृहम्यं भिवम् घटपर्यायो भिन्नः, रूपादिगुणो भिन्नः । अन्यथा इदं द्रव्यम् अयं घटः, अयं रूपादिगुणः इति वक्तुं न पार्यते । इति तेषां स्याद्भितरवम् । तथा च सहभुषो 1 मानकर यदि तत्वको अणुरूप माना जाये तो क्या हानि है ? उसका निराकरण करते हैं । अर्थयदि अणुपरिमाण निरंश तत्त्व माना जायेगा तो सम्बन्धका अभाव होनेसे उससे भी कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती ॥ भावार्थ-- यदि आत्माको निरंश और एक परमाणुके बराबर माना जायेगा तो अणु बराबर आत्माका समस्त शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकेगा । और समस्त शरीरके साथ सम्बन्ध नं होनेसे सर्वान में होनेवाले सुख दुःख आदि का ज्ञान आत्माको नहीं हो सकेगा । तथा उसके न होनेसे सुख, दुःख, पुण्य, पाप, इहलोक परलोक आदि नहीं बनेंगे। क्योंकि आत्मा शरीरसे किये जाने वाले पूजन पाठ, पठन पाठन, तपश्वरण वगैरहका अनुभव नहीं कर सकता । अतः उनका फल भी उसे नहीं मिल सकता ॥ २३५ ॥ आगे द्रव्यको एक और अनेक सिद्ध करते हैं । अर्थइव्यरूपकी अपेक्षा सभी द्रव्य एक हैं । और अपने अपने गुणोंके भेदसे सभी द्रव्य अनेक हैं | भावार्थ - जो अपने गुण पर्यायोंको प्राप्त करता है, प्राप्त करेगा और प्राप्त करता था उसे द्रव्य कहते हैं । वे द्रव्य छः हैं- जीव, पुङ्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल | सभी द्रव्य द्रव्यरूपसे एक एक हैं, जैसे घटादि पर्याय और रूपादि गुणोंका समुदाय रूप गृहव्य मिट्टीरूपसे एक है। इसी तरह जीवादि सब द्रव्योंको द्रव्यरूपसे एक जानना चाहिये । तथा सभी द्रव्य अपने २ गुण पर्यायोंके भेदसे नाना हैं क्योंकि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक गुण और पर्याय होती हैं। जैसे मृद्रव्य घटादि पर्यायों और रूपादि गुणोंके भेदसे अनेक रूप हैं। यदि द्रव्य गुण और पर्यायमें भेद न होता तो यह मिट्टी है, यह घट है और ये रूपादि गुण हैं' ऐसा भेदव्यवहार नहीं हो सकता था । अतः Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३७गुणाः । गुण्यते पृथकूफियते इन्य द्रश्यात् यैस्ते गुणाः । जीवस्य चतन्यज्ञानादिगुणः, पुद्गलस्य रूपरसगन्धस्पशादिगुणः, धर्मस्य गतिलक्षणो गुणः, अधर्मस्य स्थितिलक्षणो गुणः, आकाशस्य अवकाशदानगुणः, कालस्य नवजीर्णतादिगुणः । खखगुणभेदेन पृथस्चेन षड्व्याणि पृथग्भूतानि भवन्तीत्यर्थः ॥ २१६ ।। अथ द्रव्यस्य गुणपोयखभावस्वं दर्शयति जो अत्थो पडिसमयं उप्पाद-बय-धुवत्त-सम्भावो। गुण-पजय-परिणामो' सो संतो' भण्णदे समए ॥ २३७ ॥ [छाया-यः अर्थः प्रतिसमयम् उत्पादव्ययध्रुवत्वखभावः । गुणपर्यायपरिणामः स सत् भण्यते समये ॥] यः अर्थः जीवपुद्रलादिपदार्थः वस्तु द्रव्य, प्रतिसमय समय समय प्रति, उत्पादध्ययधीध्यैः सद्भावः अस्तित्वं स अर्थः पदार्थः वस्तु इश्य समय सिद्धान्ते गुणपर्यायपरिणामः गुणपर्यायात्मकः सन्तो सत् सपः भव्यते कथ्यते। सद्रव्यलक्षणं सीदति खकीयान् गुणपर्यायान् च्यानोति इति सत् । 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' । तथा सूत्रोक्तं च । चेतनद्रव्यस्य अचेतनद्रव्यस्य धा निजी जातिम् अमुग्यतः कारणवशात् भवान्तरप्राप्तिः उत्पादनम् उत्पादः। यथा मृत्पिण्डविघटने घटपर्याय उत्पद्यते। पूर्वभावस्य ध्ययन विगमनं विनशनै व्ययः उच्यते। यथा घटपर्यायोत्पत्तौ सत्या मृविण्डाकारस्य व्ययो भवति । अनाधिपारिणामिकखभावेन निश्वयनयेन वस्तु न म्येति न चोवेति किंतु धुवति स्थिरीसंपद्यते यः सभ्रवः, तस्य भावः कर्म या ध्रौव्यमुच्यते । यथा मृत्पिण्डस्य स्ययेऽपि षटपर्यायोस्पत्तावपि मृत्तिका मृत्तिकान्वयं न मुञ्चति, एवं पर्यायस्योत्सादे ध्यये च जातेऽपि सति वस्तु घुवत्वं न मुश्चति। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त गुणपर्यायात्मकं गुणाः ज्ञानादयः पर्यायाः पूर्वभावं मुरुवा उत्तर भावं प्राप्ताः तत्स्वरूप वष्य कथ्यते। तथा च शुद्धजीवः खयमेव ध्यं ध्यभावकर्मनोकर्मरहितः केवलशानदर्शन शुद्धगुणः लोकप्रमाणोऽखण्डदेवाशुद्धपर्याध, उत्पादः अमुस्लधुणस्य षडणवृषा, व्ययः तस्य षड्गुणहान्या व धुवः स्वभावेन शाश्वतः, भशुद्धजीवः संसारी कर्मादियुक्तः खयमेव व्रव्यं मतिज्ञानादिगुणः कुमल्लादिअशुद्धगुणः नरनारकादिपर्यायः पूर्वशरीरं मुल्या उत्तरशरीरं गृङ्गाति उत्पादः, त्यतमनुष्यादिशरीरः व्ययः, द्रव्यत्वे ध्रौव्यं च । सिद्धः निष्कलो द्रष्य, सम्यक्त्वाधाएगुणः किंचिडूनचरमशरीरप्रमाणपर्यायः, उत्पादः अगुरुलघुगुणस्य असणवृङ्ख्या, व्ययः तस्य पाहणहान्या, धौव्यं व्यस्खभावेन शाश्वतः । शुद्धपुनलद्रव्यम् पविभागी परमाणुः, स्पर्शरसगन्धवर्णलक्षणो गुणः, द्रव्यमें और 'गुण पर्यायमें कथंचित् मेद और कथंचित् अमेद होता है । इस लिये द्रव्यसे अभिन्न होनेके कारण गुण पर्यायभी एकरूप होते हैं । और गुण पर्यायोंसे अभिन्न होनेके करण द्रव्य अनेक होता है ।। २३६ ॥ आगे द्रव्यको गुणपर्याय खभाववाला बतलाते हैं । अर्थ-जो वस्तु प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभावी है उसे ही आगममें गुणपर्याय वाली और सत् कहा है ॥ भावार्थतत्वार्थ सूत्र में द्रव्यका लक्षण सत् कहा है। जो सत् है यही द्रव्य है । तथा सत् का लक्षण उत्पाद ध्यय और ध्रौव्य बतलाया है यानी जो प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होता है वही सत् है । अपनी जातिको न छोड़ते हुए चेतन अपवा अचेतन द्रव्यमें कारणोंकी वजहसे जो नई पर्याय उत्पन्न होती है उसे उत्पाद कहते हैं । जैसे मिट्टीका पिण्ड अपनी जाति मिट्टीपनेको न छोड़ते हुए दण्ड, चक्र और कुम्हारका संयोग मिलनेपर पिण्ड पर्यायको छोड़कर घट पर्यायको अपनाता है। पूर्व पर्यायके नष्ट होनेको व्यय कहते हैं । जैसे मृत्पिण्डमें घट पर्यायके उत्पन्न होनेपर पिण्ड पर्याय नष्ट हो जाती है । और मूल तत्वके स्थिर रहनेको ध्रुव कहते हैं और ध्रुवके भावका नाम ध्रौव्य है । जैसे मिट्टीपना पिण्ड अवस्थाकी तरह घट अवस्थामें भी कायम रहता है। ये उत्पाद, व्यय और धौव्य प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय होते हैं। तथा द्रव्यका दूसरा लक्षण गुण पर्याय वाला है । जो गुण और पर्याय वाला होता है वही द्रव्य है । ये सय परिणामो संतो भण्णते। र म सप्तो। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३८] १०. लोकानुभेक्षा पशुकादिस्कन्धः पर्यायः । यस्परमाणूनामेकत्र मिलनं स उत्पादः, यत्परमाणूनां पृथग्भवनं स व्ययः । स्कन्धोत्पत्तिविनाशा उत्पादव्ययों इत्यर्थः । पृथक्परमाणुस्वरूपेण ध्रौव्यम् । धर्मः द्रव्य, खयमेव गतिलहायलक्षणो गुणः, लोकप्रमाणपर्यायः, पुदलजीवयोः गत्या उत्पादः, तयोः स्थित्या व्ययः, दव्यत्वेन धोव्यम् , अथवा अगुरुलघुमुगस्य पक्षणहान्या पक्षा च उत्पादव्ययाविति । अधर्मः द्रव्यम् , स्थितिराहायलक्षण गुणः, लोकप्रमाणपर्यायः, पुद्गलजीवयोः स्थित्या उत्पादः, तयोजीवपुद्गलयोः गत्या व्ययः, व्यत्वेन ध्रुवत्वम् , अथवा अगुरुल घुगुणस्य षद्गुणहान्या या च उत्पादब्ययो । आकास द्रव्यम्, खयम् अवकाशदानलक्षणो गुणः लोकेऽलोकच व्याप्तित्वपयायः, घटायाकाशम्य उत्पादः, तदा पटायाकाशस्य ध्ययः, दव्यत्वेन ध्रौव्यम् अथवा अगुरुलघुगुणस्य पदणहानिया उत्पादव्ययौ । कालान्य कालाणुरूपः, नवजीर्णताकरणलक्षणो गुणः, समयमुहर्तदिनपक्षमासवर्षादिरूपः पर्यायः, एकसमयोत्पत्ती उत्पादः, उत्पादपूर्वसमये गवे व्ययः, इब्यावेन श्रीव्यम्, अथवा अगुरुलघुगुणस्य पडणहान्या वृल्या उत्पादव्यन्या इति ।। २३७॥ अथ जीवादिद्रव्यस्य रूपयोत्पादों को इत्युक्ते प्राह पडिसमयं परिणामो पुनो णस्सेदि जायदे अण्णो । वत्थु-विणासो पढमो उववादो भण्णदे बिदिओ' ॥ २३८ ॥ [प्रया-प्रविसमयं परिणामः पूर्वः नश्यति जागते अन्यः । वस्तुविनाशः प्रथमः उपपादः भण्यते द्वितीयः ॥] प्रतिसमय समय समय प्रति, परिणामः पूर्वः पूर्वपरिणामः प्रथमपर्यायः, यथा मृरभ्यस्य घटलक्षणः नश्यति विनश्यति अन्यः द्वितीयः परिणामः पर्यायः कपालमालादिलक्षणः जायते उत्पद्यते, तत्र तयोर्मध्ये प्रथमः पाद्यो वस्तुविनाशः ध्वय इत्यर्थः । ननु वस्तुनो विनाशः तर्हि सौगतमतप्रसंग: स्यात् इति चेल । बसशब्देन वसुपर्याय स्यैव प्रहणात्, पर्यायपोषिणोरभेदोपचारात् सत्पत्तिलक्षणः द्वितीयः उत्पादो भण्यते। पूर्वभावस्य व्ययनं विगमन विनशन व्ययः, द्रव्यस्य निजी जातिमजहतः निमित्तवशात् भावान्तरप्राप्तिः उत्पादनम् उत्पादः इति द्वयोनिरुक्तिः ॥२३८॥ अथ द्रव्यस्य भुवत्वं निश्चिनोति दोनों लक्षण वास्तवमें दो नहीं हैं किन्तु दो तरहले एकही बातको कहते हैं । गुण और पर्यायोंके समुदायका नाम द्रव्य है । यदि प्रत्येक न्यसे उसके गुण और पर्यायोंको किसी रीतिसे अलग किया जा सके तो कुछ भी शेष न रहेगा । अतः गुण और पर्यायोंके अखण्ड पिण्डका नाम ही द्रव्य है । उसमें गुण व होते हैं और पर्याय एक जाती और एक आती है । जैसे सोनेके कड़े मंगूठी और हार बगैरह जेवर बनानेपर भी उसका पीतता गुण कायम रहता है और कड़ा पर्याय नष्ट होकर अंगूठी पर्याय उत्पन्न होती है तथा अंगूठी पर्यायको नष्ट करके हार आदि पर्याय उत्पन्न होती है । अतः द्रव्य गुणवाला होता है या द्रव्य नुव होता है ऐसा कहने में कोई अन्तर नहीं है | इसी तरह द्रव्य पर्यायवाला होता है अथवा उत्पादळ्यययुक्त द्रव्य होता है इस कयनोंमें भी कोई अन्तर नहीं है। इसीसे ग्रन्थकारने यह कहा है कि जो द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव है वही गुणपर्याय खभाव है ।। २३७ ।। आगे द्रव्योंमें उत्पाद व्ययको बतलाते हैं । अर्थ-प्रति समय वस्तुमें पूर्व पर्यायका नाश होता है और अन्य पर्यायकी उत्पत्ति होती है। इनमेंसे पूर्व परिणामरूप वस्तुका नाश तो व्यय है और अन्य परिणामरूप वस्तुका उत्पन्न होना उत्पाद है । भावार्थ-वस्तु तो न उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। किन्तु वस्तुकी पर्याय नष्ट होती और उत्पन्न होती है। तथा पर्याय वस्तुसे अभिन्न है इसलिये पर्यायके नाश और उत्पादको वस्तुका नाश और उत्पाद कहा १ ब-पुस्तके णउ उप्पजदि इत्यादि गाभा प्रथमं तदनन्तरं पनिसमयं इत्यादि। ६. व भण्णर विदिउ । कार्तिक २१ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३९जो उप्पज्जदि जीवो दव-सरूवेण णेवं णस्सेदि । तं घेव दव-मित्तं णिच्चत्तं जाण जीवस्स ॥ २३९ ॥ [छाया-न उत्पद्यते जीवः सगस्वरूपेण नैव मयति । तत न दव्यमा नित्यत्वं जानीहि जीवस्य ॥] जाण जानीहि, जीवस्य आत्मनः तं च तदेव द्रव्यमानं सत्तास्वरूपं नित्यत्व ध्रुवत्वं विद्धि त्वम् । जीवः द्रव्यखरूपेण सत्ताखरूपेण भुवस्वेन जीवस्वेन पारिणामिकभावेन वा न उत्पयते न च नश्यति । उत्पादचयो जीवस्य भयेते चेत् ताई नूतनतत्त्वोत्पत्तिः स्वाहीकृततत्वविनाशच जायते इति तात्पर्यम् । अनादिपारिणामिकभावेन निश्चयनयेन वस्तु न व्येति न चोदेति किंतु धुवति स्थिरीसंपद्यते यः स धुवः तस्य भावः कर्म वा प्रीव्यम् इति ॥ २३९ ॥ अथ द्रव्यपर्याययोः खरूपं व्यनक्ति अण्णइ-रुवं दचं विसेस-रूवो हवेइ पज्जावों। दर्ष पि विसेसेण हि उप्पज्जदि णस्सदे सददं ॥ २४०॥ [छाया-अन्वयिरूपं द्रव्य विशेषरूपः भवति पर्यायः । द्रव्यम् अपि विशेषेण हि उत्पयते नश्यति सत्ततम् ॥] द्रव्य जीवादिवस्तु अन्वयिरूपम् अन्वयाः नरनारकादिपर्याया: विद्यन्ते यस्य तत् अन्वमि तदेव स्पं स्वरूप यस्य तत् । तथोक्तम् । इति द्रोष्यति भन्नुवत् स्वगुणपर्यायान इति द्रव्यम् । खभावविभावपर्यायरूपतया परि समन्तात् माति परि.. गच्छति परिप्रायोति परिणमतीति यः स पर्यायः स्वभावविभावायरुपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः । अथवा पर्येति समये जाता है ।। २३८ ॥ आगे द्रव्योंमें ध्रुवत्वको बतलाते हैं । अर्थ-द्रव्य रूपसे जीत्र न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है अत: द्रव्यरूपसे जीवको निल्य जानो ।। भावार्थ-जीव द्रव्य अथवा कोई मी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । यदि द्रव्यका नाश और द्रव्यका ही उत्पाद माना जाये तो माने गये छ: द्रव्योंका नाश हो जायेगा और अनेक नये नये द्रव्य उत्पन्न हो जायेंगे। अतः अपने अनादि पारिणामिक खभावसे न तो कोई द्रव्य नष्ट होता है और न कोई नया द्रव्य उत्पन्न होता है | किन्तु सब द्रव्य स्थिर रहते हैं । इसीका नाम प्रौव्य है ! जैसे मृत्पिण्डका नाश और घट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर भी मिट्टी ध्रुव रहती है। इसी तरह एक पर्यायका उत्पाद और पूर्व पर्यायका नाश होनेपर भी वस्तु भुव रहती है । यह उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ही द्रव्यका खरूप है ॥ २३९ ॥ आगे द्रव्य और पर्यायका खरूप बतलाते हैं । अर्थ-वस्तु के अन्वयीरूपको द्रव्य कहते हैं और विशेषरूपको पर्याय कहते हैं । विशेष रूपकी अपेक्षा द्रव्य भी निरन्तर उत्पन्न होता और विनष्ट होता है ॥ भावार्थ-यस्तुकी प्रत्येक दशामें जो रूप बराबर अनुस्यूत रहता है यही अन्वयी रूप है, और जो रूप बदलता रहता है वह विशेष रूप है । जैसे जीवकी नर नारक आदि पर्याय तो आती जाती रहती हैं और जीत्रत्व उन सबमें बराबर अनुस्यूत रहता है। अत: जीवत्व जीवका अन्वयी रूप है और नर नारक आदि विशेषरूप हैं । जब किसी बालकका जन्म हुआ कहा जाता है तो वह वास्तव में मनुष्य पर्यायका जन्म होता है, किन्तु वह जन्म जीव ही लेता है इस लिये उसे जीवका , जन्म कहा जाता है। वास्तवमें जीव तो अजन्मा है । इसी तरह जब कोई भरता है तो वास्तवमें उसकी वह पर्याय छूट जाती है । इसीका नाम मृत्यु है। किन्तु जीव तो सदा अमर है । अतः पर्यायकी अपेक्षा द्रव्य सदा उत्पन्न होता और विनष्ट होता है किन्तु द्रव्यत्वकी १ण । २७ म सगणेय । बजाणि। ४ ल म स ग पजाओ (उ)। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४१] १०. लोकानुप्रेक्षा समये उत्पाद विनाश च गच्छतीति पर्यायः वा क्रमवी पर्यायः पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । पर्यायः विशेषरूपो भवेत् । विशेष्य द्रव्य विशेषः पर्यायः । हीति यस्मात् , सततं निरन्तरं द्रव्यमपि विशेषेण पर्यायरूपेण उत्पद्यते विनश्यति च ॥ २४ ॥ अ५ गुणखरूम निरूपयति सरिसो जो परिणामो' अणाइ-णिहणो हवे गुणो सो हि। सो सामण्ण-सरूवो उप्पजदि णरसदे णेय ॥ २४१॥ [छाया-सदृशः यः परिणामः अनादिनिधनः भवेत् गुणः स हि । स सामान्यखरूपः उत्पद्यते नश्यति नैव ॥] दीति निश्चितम् । स गुणो भवेत यः पदिशासः परिगलनस्वरूपमिति यावत : सदृशः सर्वत्र पायेषु सादृश्यं गतः । कीरक्षो गुणः अनादिनिधनः आद्यन्तरहितः, सोऽपि च मुशः सामान्यस्वरूपः परापरविर्तव्यापी सपः इष्यत्वरूपः जीवस्वादिरूपश्च स गुणः न उत्पद्यते नेव विनश्यति । यथा जीवे ज्ञानादयः गुणाः 'सहभाविनो गुणाः' इति वचनात, तथा च जीवादिद्रव्याणां सामान्यविशेषगुणाः कथ्यन्ते ॥ अस्तित्व १ वस्तुत्वं २ व्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुकलपुत्वं ५चेतनवं ६ प्रवेशत्वम् ७ अमूर्तस्वमू 4 एते अष्टो जीवस्य सामान्यगुणाः । अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि ४ अमूर्सत्वं ५ चेतनत्यम् ६ एतेषद जीवस्य विशेषभुणाः । धर्माधर्माकाशकास्यानां प्रत्येकम् अस्तित्व १ वस्तुस्वं २ द्रव्यरवं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलघुत्वं ५ प्रदेशस्वम् ६ अचेतनत्वम् ७ अमूवम् ८ एते अष्टी सामान्यगुणाः। अदलानाम् मस्तित्व १ वस्तुत्वं २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलावुत्व ५ प्रदेशत्वम् ६ अचेतनत्वं ७ मूतत्यम् ८ एते अष्टौ सामान्यगुणाः । अपेक्षा नहीं । [ यहाँ इतना विशेष वक्तव्य है कि टीकाकारने जो अन्वयका अर्थ नरनारकादि पर्याय किया है वह ठीक नहीं है। अनु-अयः अन्वय का अर्थ होता है वस्तुके पीछे पीछे उसकी हर हालतमें साथ रहना | यह बात नारकादि पर्यायमें नहीं है किन्तु गुणोंमें पाई जाती है । इसीसे सिद्धान्तमें गुणोंको अन्वयी और पर्यावोंको व्यतिरेकी कहा है ] ॥ २४० ॥ आगे गुणका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-द्रव्यका जो अनादि निधन सदृश परिणाम होता है वही गुण है। यह सामान्यरूप न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । भावार्थ-द्रव्य परिणमनशील है, परिणमन करना उसका खभाव है। किन्तु द्रव्यमें होनेवाला परिणाम दो प्रकारका है-एक सदृश परिणाम, दूसरा विसदृश परिणाम । सदृश परिणामका नाम गुण है और विसदृश परिणामका नाम पर्याय है । जैसे जीव द्रव्यका चैतम्यगुण सब पर्यायोंमें पाया जाता है। मनुष्य मरकर देव हो अथवा तिर्यच हो, चैतन्य परिणाम उसमें अवश्य रहता है। चैतन्य परिणामकी अपेक्षा मनुष्य, पशु वगैरह समान हैं क्योंकि चैतन्य गुण सबमें है । यह चैतन्य परिणाम अनादि निधन है, न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । अर्थात् किसी जीवका चैतन्य परिणाम नष्ट होकर वह अजीव नहीं हो जाता और न किसी पुद्गलमें चैतन्य परिणाम उत्पन्न होनेसे वह चेतन होजाता है | इस तरह सामान्य रूपसे वह अनादि निधन है । किन्तु विशेषरूपसे चैतन्यक भी नाश और उत्पाद होता है; क्योंकि गुणोंमें मी परिणमन होता है । यहाँ प्रकरणवश जीवादि द्रव्योंके सामान्य और विशेष गुण कहते हैं-अस्तित्व, वस्तुस्व, द्रव्यत्व, प्रमेयन, अगुरुलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, प्रदेशत्व, मूर्तत्व और अमर्तत्व, ये द्रव्योंके दस सामान्य गुण हैं । इनमेंसे प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ सामान्य गुण होते हैं। क्योंकि जीव द्रव्यमें अचेतनत्य और भूतत्व ये दो गुण नहीं होते, और पुद्गल द्रव्यमें चेतनत्व और अमूर्तत्व ये दो गुण नहीं होते । तथा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रच्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें चेतनव १ व सरिसडऽजोप'. स सो परिणामों जो । २७ वि । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | गा० २४२ स्पर्शरसगन्धवर्णाः ४ अचेतनत्वं ५ मूर्तत्वं ६ पुद्रलसर विशेषगुणाः । गतिहेतुत्वम् १ व्यचेतन २ अमूर्तत्वं धर्मस्व विशेषगुणाः । स्थितिहेतुत्वम् १ अचेतनत्वम् २ अमूर्तत्वम् ३ एते अधर्मस्य विशेषगुणाः । अवगाहनत्वम् १ अचेतनत्वम् २ अमूर्तत्वम् ३ इत्याकाशस्य विशेषगुणाः । वर्तनाहेतुत्वम् १ अचेतनत्वम् २ अमूर्तत्वम् ३ इति कालस्य विशेषगुणतः ॥ २४१ ॥ अच पर्यायखरूपं द्रव्यगुणयमाणामेकत्वमेव द्रव्यं व्याचष्टे सो वि विणस्सदि जायदि विसेस-रूवेण सब-दबेसु । देव-गुण-पज्जयाणं एयत्तं वत्युं परमत्थं ॥ २४२ ॥ [ छाया - सः अपि विनश्यति जायतं विशेषरूपेण सर्वद्रव्येषु । पर्येयाणाम् एकत्वं वस्तु परमार्थम् ॥ ] सर्वद्रव्येषु वेतनाचेतन वस्तुषु सोऽपि सामान्यस्वरूपः द्रव्यत्वसामान्यादिः विशेषरूपेण पर्यायस्वभावेन विनश्यति और मूर्तत्व गुण नहीं होते। इस तरह दस सामान्य गुणोंमेंसे दो दो गुण न होनेसे प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ गुण होते हैं । तथा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस गन्ध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तस्व, अमूर्तत्व ये द्रव्योंके सोलह विशेष गुण हैं । इनमेंसे अन्तके चार गुणोंकी गणना सामान्य गुणोंमें भी की जाती है और विशेष गुणोंमें भी की जाती है। उसका कारण यह है कि ये चारों गुण स्वजातिकी अपेक्षासे सामान्य गुण हैं और विजातिकी अपेक्षासे विशेष गुण हैं । इन सोलह विशेष गुणों से जीव द्रव्यमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनाव और अमूर्तत्व ये छः गुण होते हैं । पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ष, सूर्तत्व, अचेतनत्व ये छः गुण होते हैं। धर्म द्रव्यमें गतिहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये तीन विशेष गुण होते हैं । अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुस्त्र, अमूर्तत्व, अचेतनस्य ये तीन विशेष गुण होते हैं। आकाश द्रव्यमें अवगाहनहेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व ये तीन विशेष गुण होते हैं । और काल द्रव्यमें वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तस्व अचेतनत्व ये तीन विशेष गुण होते हैं। जो गुण सन द्रव्यों में पाया जाता है उसे सामान्य गुण कहते हैं और जो गुण सब द्रव्योंमें न पाया जाये उसे विशेष गुण कहते हैं। सामान्यगुणोंमें ६ गुणका स्वरूप इस प्रकार है-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका कमी नाश नहीं होता उसे अस्तित्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमित्तले द्रव्यमें अर्थक्रिया हो उसे वस्तुस्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य सर्वदा एकसा न रहे और उसकी पर्यायें बदलती रहें उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। जिस शक्ति के निमित्तसे द्रव्य किसी न किसीके ज्ञानका विषय हो उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमिरासे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमन न करे और एक गुण दूसरे गुणरूप परिणमन न करे तथा एक द्रव्यके अनेक गुण बिखरकर जुदे जुदे न हो जायें उसे अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका कुछ न कुछ आकार अवश्य हो उसे प्रदेशवस्त्र गुण कहते हैं। ये गुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं ॥ २४१ ॥ आगे कहते हैं कि गुण पर्यायोंका एकपनाही द्रव्य | अर्थ समस्त द्रव्योंके गुण मी विशेष रूपसे उत्पन्न तथा विनष्ट होते हैं। इस प्रकार द्रव्य गुण और पर्यायोंका एकत्वही परमार्थसे वस्तु है | भावार्थ - उ - ऊपर बतलाया था कि सामान्य रूपसे गुण न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं । यहाँ कहते हैं कि विशेष रूपसे गुणभी उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं । अर्थात् गुणोंमें भी १ मवस्युं । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , -२४२] १०. लोकानुप्रेक्षा १७३ विनाशं गच्छति, जायते उत्पयते च । अत एव द्रव्यगुणपर्यायाणां द्रव्यम् उत्पादन्नमभौव्ययुक्त जीवादिकम् गुणाः द्रव्यस्वादमः सहभाविनः, गुणविकाराः पर्यायाः कमभाविनः परिणामाः । द्रव्याणि च गुणाय पर्यायाच द्रव्यगुणपर्यायाः येषा द्रव्वगुणपर्यायाणाम् एकरणं समुदायः परमार्थसत्त्वभूतं निश्चयेन वस्तु, वसन्ति द्रव्यगुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु, द्रव्यम् अर्थः पदार्थः कथ्यते । तथा च पञ्चद्रव्येषु पर्यायाः कथ्यन्ते । गुणविकाराः पर्यायाः । ते द्वेघा । स्वभाव १ विभाव २ पर्यायभेदात् । अगुरुलधुविकाराः स्वभाव पर्यायाः, वे द्वादशधा । षड्वृद्धिहानिरूपाः । अनन्तभागवृद्धिः १ व्यष्ट्यातभागवृद्धिः २ संख्यातभागवृद्धिः १ संख्यातगुणवृद्धिः ४ श्रसंख्यातगुणवृद्धिः ५ अनन्तगुणदृद्धिः ६ इति षड्‌वृद्धिः । तथा बनन्तभागहानिः १ असंख्यात भागहानिः २ संख्यातभागहानिः ३ संख्यातगुणहानिः ४ संख्यातगुणद्दा निः ५ अनन्तगुणानिः ६ एवं षट् वृद्धिहानिरूपाः स्वभावपर्यायाः ज्ञेयाः । विभावपर्यायाश्चतुर्विधा नरनारका दिपर्यायाः, अथवा खतुरशीतिलक्षाथ विभावद्रव्यव्यवनपर्यायाः । नरनारकादिकाः विभावगुणष्यञ्जनपर्यायाः मतिज्ञानादयः खभावम्यव्यञ्जनपर्यायाः, वरमशरीराकारात् किचिष्टयून सिद्धयः खभावश्व्यव्यञ्जनपर्यायः स्वभावगुणन्य जन पर्यायाः अनन्तचतुष्टयरूपाः जीवस्य । पुद्रस्य तु पणुकादयो विभावव्यव्यञ्जनपुर्यायाः रसरसान्तरगन्धगन्धान्तरादिविभावगुणष्यज्ञनपर्यायाः । व्यविभागी पुलपरमाणुः सभागद्रव्यभ्यजन पर्यायः वर्णगन्धरसैकैकाः अविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभाव गुणव्यञ्जनपर्यायाः। "अनाद्यनिधने इव्ये वपर्यासः प्रतिक्षणम् । उम्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल व गुण इदि दव्यविहरणं म्यविमात्थ पज्जयो भणिदो । तेहि अजूनं दव्वं अजुदपसिद्धं हरदि शिवं ॥ स्वभावविभावययरूपतया याति परिणमतीति पर्यायः पर्यायस व्युत्पत्तिः । भवर्तिनः पर्यायाः । सहभुवो गुष्णाः । गुम्से पृथक्रियते वयं हन्यात् यैसे गुणाइति ॥ २४२ ॥ ननु पर्याया विद्यमाना जायन्ते अविद्यमाना वा इत्याह निराकुर्वन् गाधाद्वयमाद उत्पाद व्यय होता है। आशय यह है कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन जुदे हुदे नहीं हैं । अर्थात् जैसे सोंठ, मिर्च और पीपलको कूट छानकर गोली बनाली जाती है, वैसे द्रव्य, गुण और पर्यायको मिलाकर वस्तु नहीं बनी है। वस्तु तो एक अनादि अखण्ड पिण्ड है । उसमें गुणोंके सिवा अन्य कुछभी नहीं है । और वे गुप्ण भी कमी अलग नहीं किये जा सकते, हां, उनका अनुभव मात्र अलग अलग किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में जब वस्तु परिणामी है तो गुण अपरिणामी कैसे हो सकते हैं! क्योंकि गुणोंके अखण्ड पिण्डका नाम ही तो वस्तु है । अतः गुणोंमें भी परिणमन होता है । किन्तु परिणमन होनेपर भी ज्ञान गुण ज्ञानरूप ही रहता है, दर्शन या सुखरूप नहीं दो जाता। इसीसे लामान्य रूपसे गुणोंको अपरिणामी और विशेष रूपसे परिणामी कहा है। गुणोंके विकारका नाम ही पर्याय है। पर्यायके दो भेद हैं-खभाव पर्याय और विभावपर्याय। यहाँ छ छव्योंकी पर्याय कहते हैं । अगुरुलघु गुणके विकारको स्वभाव पर्याय कहते हैं । उसके बारह भेद हैंछः वृद्धिरूप और छः हानिरूप । अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात्तभागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणबुद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छः बृद्धिरूप स्वभावपर्याय है । और अनन्त भागानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि, अनन्त गुणहानि ये छः हानिरूप स्वभावपर्याय है। नर नारक आदि पर्याय अथवा धौरासी लाख योनियाँ विभाव द्रव्यव्यंजनपर्याय हैं । मति आदि ज्ञान विभाव गुणव्यञ्जनपर्याय है । अन्तके शरीर से कुछ न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह स्वभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है । जीवका अनन्त चतुष्टयखरूप स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याय हैं। ये सब जीवकी पर्याय हैं । पुद्गलकी विभावाद्रव्यव्यंजनपर्याय पणुक आदि स्कन्ध हैं । रससे रसान्तर और गन्धसे गन्धान्तर विभावगुणम्यंजन पर्याय हैं। पुङ्गलका अविभागी परमाणु खभावद्रव्यव्यंजन पर्याय है । और उस परमाणुमें जो एक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२४३जदि दवे पजाया वि विजमाणो तिरोहिदा संति। ता उप्पत्ती विहला पडिपिहिदे देवदत्ते ॥ २४३॥ [छाश-यदि दन्ये पर्यायाः अपि विद्यमानाः तिरोहिताः सन्ति । तत् उत्पत्तिः विफला प्रतिपिहिने देवदत इव ॥ अथ सांख्यादयः एवं वदन्ति । द्रव्ये जीवादिपदार्थे सर्वे पर्यायाः तिरोहिताः बादिताः विद्यमानाः सन्ति, त एव जायन्ते उत्पश्चन्ते, सर्व सर्वत्र विद्यते, इति सन्मतं समुत्पाद्य दूषयति । अन्ये जीवपद्लादिवस्तुनि पर्याया नरनारकादिमुद्यादयः स्कन्धादयः परिणामाः विद्यमानाः सदूपाः अस्तिरूपाः तिरोहिताः अन्तलीनाः अप्राहुमताः सन्ति विद्यन्ते यदि घेत तर्हि पर्यायाणामुत्पत्ति उत्पादः निष्पत्तिः विफला निष्फला निरर्थका भवति । पटपिहिते देवदते इव, यथा वनाच्छादिते देवदते तस्य देवदत्तस्य वन उत्पत्तिन घटते प्रथा तथा सर्वे नरनारायुयादयः पदार्थाः प्रकृती लीना: तर्हि अवस्य हस्तिशतयूयं कर्थ न जामवे इति दूषणसद्धावान् अविद्यमानाः पर्यायाः जायन्ते ॥ २४३॥ सैघाण पाया अस्मिानाजायण हीदि उपत्ती। कालाई-लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दधम्मि ॥ २४४ ॥ [छाया-सर्वेषां पर्यायाणाम् अविद्यमानार्ना भवति उत्पत्तिः । कालादिलबभ्या अनादिनिधने म्ये ॥] सर्वेषा पर्यायाणां नरनारकादिपुद्गलादीना द्रव्ये जीवादिवस्तुनि। किंभूते। अनादिनिधने अनिनश्वरे पदार्थ कालादिलन्ध्या इध्यक्षेत्रकालभषभावलाभेन उत्पत्तिर्भवति उत्पादः स्यात् । किंभूतानाम्। 'भविद्यमानानाम् असतो द्रव्ये पर्यायाणासत्पतिः स्यात् । गथा विद्यमाने मृडप्ये घटोत्पत्स्यश्चितकाले कुम्भकारादौ सत्येष घटावयः पर्याया जायन्ते तथा ॥१४॥ भाष द्रव्यपर्यायाणां कथंचिनेद कचिदमेदं दर्शयति वर्ण, एक गन्ध, एक रस, और दो स्पर्श गुण रहते हैं पुद्गलकी स्वभावगुणव्यंजनपर्याय है। इस तरह जैसे जलमें लहरे उठा करती हैं वैसे ही अनादि और अनन्त द्रव्यमें प्रति समय पर्याय उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं ॥ २४२ ॥ यहाँ यह शङ्का होती है कि द्रव्यमें विद्यमान पर्याय उत्पन्न होती है अथवा अविद्यमान पर्याय उत्पन्न होती है ! इसका निराकरण दो गाथाओंके द्वारा करते हैं । अर्थ-यदि द्रव्यमें पर्याय विद्यमान होते हुएभी ढकी हुई हैं तो बससे ढके हुए देवदत्तकी तरह उसकी उत्पत्ति निष्फल है ।। भावार्थ-सांख्यमतावलम्बीका कहना है कि जीवादि पदार्थों में सब पर्यायें विद्यमान रहती हैं । किन्तु वे छिपी हुई हैं, इस लिये दिखाई नहीं देतीं । सांख्यके इस मतमें दूषण देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे देवदत्त पर्देके पीछे बैठा हुआ है । पर्देके हटाते ही देवदत्त प्रकट होगया । उसको यदि कोई यह कहे कि देवदत्त उत्पन्न होगया तो ऐसा कहना व्यर्थ है, क्योंकि देवदत्त तो वहाँ पहलेसे ही विद्यमान था । इसी तरह यदि द्रव्यमें पर्याय पहलेसे ही विद्यमान हैं और पीछे प्रकट हो जाती है तो उसकी उत्पत्ति कहना गलत है। उत्पत्ति तो अविधमानकी ही होती है ॥ २४३ ॥ अर्थ-अतः अनादि निधन द्रव्यमें काललब्धि आदिके मिलनेपर अविद्यमान पर्यायोंकी ही उत्पत्ति होती है ॥ भावार्थ-द्रव्य तो अविनश्वर होनेके कारण अनादि निघन है। उस अनादि निधन द्रव्यमें अपने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके मिलनेपर जो पर्याय विधमान नहीं होती उसीकी उत्पत्ति होजाती है । जैसे विद्यमान मिट्टीमें घटके उत्पन्न होनेका उचितकाल आनेपर तया कुम्हार आदिके सद्भावमें घट आदि पर्याय उत्पन्न होती है ॥ २४४ ।। १लग विक्जमाणा। २म स ग देवदसिब्ब। ३स सब्याग दवाणं पजावाणं भविजमाणाणं उपची। काला दयन्दि। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुभेक्षा दवाण पजयाणं धम्म-विवक्खाएँ कीरएं भेओ'। वत्थु-सरूवेण पुणो ण हि भेदो सकदे काउं ॥ २४५ ॥ [छाया-द्रव्याणां पर्ययाणां धर्मयिवक्षया क्रियते भेदः । वस्तुखरूपेण पुनः न हि भेदः शक्यते कर्तुम् ॥] कारणकार्ययोः सर्वथा भेदः इति नैयायिकानां मतम्, तमिरासार्थमाह । व्याणां मृदुल्यादीनां कारणभूतना पर्यायाणी घटादिपरिणताना कार्यभूताना भेदः क्रियते ।कया। धर्मविषक्षया एव खभावं बतुमिच्छया एव 1 इदं ग्राम्यादि कारणम् , इवं पठादिपर्यायः कार्यमिति धर्मधर्मिणो देन भेदः । न तु सर्वघा भेदः । होति स्फुटम् । पुनः धर्मधर्मिणोर्मेंदः कत न शक्यते । वस्तस्वरूपेण इण्यार्थिकनयप्राधान्येन कार्यकारणयोरेक्य, तथा च गुणगुणिनोः पर्यायपर्याविणोः स्वभावस्वभाविनोः कारणकारणिनोः भेदः । इम्ये द्रव्योपचारः गुणे गुणोपचारः पर्याय पर्यायोपचारः इव्ये गुणोपचारः व्ये पर्यायोपचारः गुणे द्रव्योपचारः गुणे पर्यायोपचारः पर्याये न्योपचारः पर्याये गुणोपचारः इति मभेदः ॥ २४५ ॥ भय वस्तुतः मोरपि व्याययोः सया भवपारिन पूया जदि वत्थुदो विभेदों पजय-दवाण माणसे' मूह ।। तो जिरवेक्खा सिद्धी दोण्ह पि य पावदे णियमा ॥ २४६ ॥ [यदि वस्तुतः विभेदः पर्ययद्रव्याणां मन्यसे मूह । ततः निरपेक्षा सिदिः द्वयोः अपि च प्रानति नियमात ॥] रे मूह हे अशानिन हे नैयायिकपतो, यदि चेत्पर्यायवध्ययोर्षस्तुतः परमार्थतः वस्तुसामान्येन पा मेदः भिवं मन्यसे त्वम् अत्रीक्रियसे तो तईि दोहं पियोरपि कार्यकारणयोरपि गुणगुणिनोः पर्यायपर्यापिनोथ मेदः निवमात् निरपेक्षा परस्परापेक्षारहिता सिद्धिः निष्पतिः प्राप्नोति । यथा हि पर्यायिणोद्रव्यादेः घटादिपर्यायाः सर्वषा भिवास्तईि मृहव्याविना विमा घटादिपर्यायाः क न लभेरन् ॥ २४६ ॥ अथ शानाद्वैतवादिर्न गापात्रयेण दूषयतिआगे द्रव्य और पर्यायमें कपंचित् भेद और कथंचित् अभेद बतलाते हैं । अर्थ-धर्म और धर्मीकी विवक्षासे द्रव्य और पर्याय में भेद किया जाता है । किन्तु वस्तु खरूपसे उनमें भेद नहीं है || भावार्थ-नैयायिक मतावलम्बी कारण और कार्यमें सर्वथा मेद मानता है । उसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि कारणरूप मिट्टी आदि द्रव्यमें और कार्यरूप घटादि पर्यायमें धर्म और धर्मी भेदकी विवक्षा होनेसे ही भेद है, अर्थात् जब यह कहना होता है कि यह मिट्टी धर्मी है और यह घटादि पर्याय धर्म है, तभी मेदकी प्रतीति होती है, किन्तु वस्तु खरूपसे धर्म और धर्मीमें भेद नहीं किया जा सकता । अर्थात् द्रव्याधिक नयसे कार्य और कारणमें अमेद है। इसी तरह गुण गुणी, पर्याय पर्यायी, खभाव स्वभाववान् आदिमें भी कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद समझना चाहिये ॥ २४५ ॥ आगे द्रव्य और पर्यायमें सर्वया मेद माननेवाले वादीको दूषण देते हैं । अर्थ-हे मूढ़, यदि र द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मी भेद मानता है तो द्रव्य और पर्याय दोनोंकी नियमसे निरपेक्ष सिद्धि प्राप्त होती है । भावार्थ-यदि द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मी मेद माना जायेगा तो द्रव्य पर्यायसे सर्वथा भिन एक जुदी वस्तु ठहरेगा और पर्याय द्रव्यसे सर्वथा भिन्न एक जुदी वस्तु ठहरेगी । ऐसी स्थितिमें बिना पर्यायके भी द्रव्य और निना व्यके पर्याय दुआ करेगी। जैसे यदि मिष्टीरूप द्रव्यसे घटादि पर्याय सर्वथा भिन्न हैं तो मिडीके मिना मी घट पाया जायगा । सम विवाक्खाय, स ववक्खाए। २कीरइ। ३९भेउ, म स भेओ (१) ४ व विमेओ। ५ म मणस मूढो, स मणवे, ग माणसे। ६ब दुण्इं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ खामिकाकियानुप्रेक्षा [पा.२०' जदि सषमेव णाणं जाणा-रूपेहि संठिदं एक । तो ण वि किं पि विणेयं णेयेण विणा कह णाणं ॥ २४७ ॥ [छाया-यदि सर्वमेव ज्ञानं नानारूपैः संस्थितम् एकम् । तत् न अपि किम् अपि विझयं झेयेन विना कयं ज्ञानम् ॥] अथ सर्वमेव ज्ञानमेकं ज्ञानाईत ज्ञेयमन्तरेण नानारूपेण घटपटादिपदार्थमन्तरेण घटपटाविज्ञानरूपेण संस्थितं यदि क्षेत् तो तहि किमपि झेयं ज्ञेयपदार्थचन्द घटपटादिलक्षणं नैव नारत्येव । भवतु नाम लेयेन पदार्थेन किं भवेदिति चेत् सेयेन विना ज्ञातुं योग्येन गृहगिरिभूमिजलाग्निवाप्तादिना बिना तेषां गृहाचटावीना ज्ञानं कर्थ सिद्धयति । तदो पेयं परमस्य । ततःझेयमन्तरेण ज्ञानानुत्पत्तेः परमार्थभूतं ज्ञेयं अजीकर्तव्यम् ।। २४७ ॥ अथ तदेव क्षेयं समर्थयति घड-पड-जड-दवाणि हि णेय-सरूवाणि सुप्पसिद्धाणि । माणं जाणेदि जदो अप्पादो भिष्णरुवाणि ॥ २४८॥ या-घटपटमरदव्याणि विशेषखस्माणि सुप्रसिद्धानि । हान जानाति यतः आत्मनः भिमरूपाणि ।] हि यस्मात् कारणात्, बेयस्वरूपाणि ज्ञातुं योग्यं यं तदेव स्वरूप खभावं येषां तानि यसरूपाणि हात योग्यखभावानि । कानि । घटपटजलद्रम्माणि गृहातडागवापीयनत्रिभुवमगतवस्तूनि । विभूतानि । सुप्रसिद्धानि लोके प्रतिद्धानि लोके प्रविधि गतानि । शानं जानाति यतः यस्मात् मात्मनः सकाशात् शानखरूपावा भिवरूपाणि पृथम्भूतानि नियन्ते । अत एव क्षेयं परमार्थतः सिद्धम् ॥ २४८ ॥ अथ पुनः ज्ञानावैसवादिनं दूषयति जं सब-लोयसि देह-महादि-बहिरे अस्थ । जो तं पिणार्ण मण्यादि ण मुणदि सो णाण-णामं पि ॥ २४९ ॥' [छाया-यः सर्वलोकसिद्धः देहगेहादिवास्यः अर्थः । यः तम् अपि ज्ञानं मन्यते न आनाति स मानवामा अपि ॥] यः सानाद्वैतषाची यत् सर्वलोके प्रसिद्ध भावालगोपालजनप्रसिद्ध वैह शरीरं गेहादिवास्य गृहखटपटलकुटमकटक्षकनअतः द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मेद नहीं मानना चाहिये ।। २४६ ॥ आगे तीन गायावोंके द्वारा झानाद्वैतवादीके मतमें दूषण देते हैं। अर्थ-यदि सब वस्तु ज्ञानरूप ही हैं और एक ज्ञान ही नाना पदार्थोंके रूपमें स्थित है तो ज्ञेय कुछ मी नहीं रहा । ऐसी स्थितिमें बिना ज्ञेयके छान कैसे रह सकता है। भावार्थ-ज्ञानाद्वैतवादी बाह्य घट पट आदि पदार्थोंको असत् मानता है और एक ज्ञानको ही सत् मानता है । उसका कहना है कि अनादिवासनाके कारण हमें बाहरमें ये पदार्थ दिखाई देते हैं । किन्तु वे वैसे ही असल्स हैं जैसे खप्नमें दिखाई देनेवाली बातें असल होती हैं । इसपर बाचार्यका कहना है कि यदि सब ज्ञानरूप ही है तो ज्ञेय तो कुछ भी नहीं रहा । और जब ज्ञेय ही नहीं है तो बिना झेयके ज्ञान कैसे रह सकता है, क्यों कि जो जानता है उसे ज्ञान कहते हैं और जो जाना जाता है उसे क्षेय कहते हैं । जब जाननेके लिये कोई है ही नहीं, तो शान कैसे हो सकता है।॥ २४७ ।। आगे शेयका समर्थन करते हैं । अर्थ-घट पट आदि जड द्रव्य यरूपसे सुप्रसिद्ध हैं । उनको ज्ञान जानता है । अतः ज्ञानसे वे भिन्नरूप हैं ॥ २४८॥ आगे पुनः बानाद्वैतवादीको दूषण देते हैं । अर्थ-जो शरीर मकान वगैरह बाह्य पदार्थ समस्त लोकमें प्रसिद्ध हैं उनको भी जो ज्ञानरूप मानता है वह ज्ञानका नाम भी नहीं जानता ।। भावार्थ आचार्यका कहना है कि जिनका स्वरूप जानने योग्य होता है उन्हें हेयखरूप कहते हैं । अतः ज्ञानसे बाहर जितनेभी पदार्थ हैं वे सब शेयरूप हैं __ १ स किंपिवणेयं, [ किंनि विषय । न स स ग बदो, म अदा । ३ स दहे, म देशगेहादि । ४४ स गाणं, ग पिपणाण। ५ अणच । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. लोकानुप्रेक्षा हादिवानार्थः पदार्थः द्रव्यं वस्तु विद्यते । तदपि देहगेहादि बाब यस्तु ज्ञानं बोधः मन्यते सर्व सानमेवेत्यीकऐति सज्ञानातवाची ज्ञाननामापि ज्ञानस्याभिधानमपि न जानाति न देतीत्यर्थः ॥ २४९ ॥ अन्यच । अथ-नास्तिकवादिनं दूषणान्तरेण गाथात्रयेग दूषयति अच्छीहि पिच्छमाणो जीवाजीवादि बहु-विहं अत्थं । जो भणदि' णत्थि किंचि वि सो झुट्ठार्य महाझुट्ठों ॥ २५० ॥ [छाया-अक्षिभ्यां प्रेक्षमाणः जीवाजीवादि बहुविधम् अर्थम् । यः भणति नास्ति किंचित् अपि स धूर्ताना महाधूर्तः ॥] यः कश्चिन्नास्तिको यादी किंचिदपि वस्तु मातऋतुर गोमहिषमनुष्यगृहट्टचेतमवस्तु नास्तीति भणति । किं कुर्वन् सन् । अच्छीहिं अक्षिभ्यां चक्षुयों बहुविधम् अनेकप्रकार जीवामीवादिकम् अर्थ चेतनाचेतनमियादिकं वस्तु पदार्थ प्रेक्षमाणः पश्यन् सन् स नास्तिकवादी जुष्टानां मध्ये महाजष्टः । असत्यवादिना मध्ये महासत्यवादी अध महाष्टः महानिर्लजः ॥ २५ ॥ जं सर्व पि य संत' ता सो वि असंतओ' कहं होदि । त्थि सि किंचि तत्तो अहवा सुपणं कहं मुणदि ॥ २५१ ॥ [छाया-या सर्वम् अपि च सत् तत् सः अपि असत्कः कथं भवति । नास्ति इति किंचित् ततः अथवा शून्यं कथं जानाति ।। अधिक क्षणान्तरे, सात सद, दिनान गामिविधा जलानि, निद्यमानमस्ति । *तासो वितस्यापि असत्वम् अविद्यमानत्वं कथं भवति । अथवा तन्नो ततः तस्मात् किंचिन्नास्तीति । इति शून्यं कथं मनुते आनाति स्वयं विद्यमानः सर्व नास्तीति कर देनीति खयं विद्यमानस्यात् सर्वशून्यभावः ।। ३५१॥ पाठान्तरेणेये गाथा। तस्य व्याख्यानमाह । ज्ञानरूप नहीं है । जो उनको ज्ञानरूप कहता है वह ज्ञानके स्वरूपको नहीं जानता, इतना ही नहीं, बल्कि उसने ज्ञानका नाम भी नहीं सुना, ऐसा लगता है, क्यों कि यदि वह ज्ञानसे परिचित होता तो बाह्य पदायोंका लोप म करता ॥ २४९ ॥ अब तीन गाथाओंसे शून्यबादमें दूषण देते हैं । अर्थ-जो शून्यवादी जीव अजीव आदि अनेक प्रकारके पदार्योको आंखोंसे देखते हुए मी यह कहता है कि कुछमी नहीं है, वह झूठोंका सिरताज है ॥ अर्थ-तथा जब सब वस्तु साखरूप हैं अर्थात् विद्यमान है तब यह असत् रूप यानी अविद्यमान कैसे हो सकती हैं ? अथवा जब कुछ है ही नहीं और सब शून्य है तो इस शून्य तत्वको कैसे जानता है ? || इस गाथाका पाठान्तर मी है उसका अर्थ इसप्रकार हैयदि सब वस्तु असत् रूप हैं तो वह शून्यत्रादी मी असत् रूप हुआ तब वह 'कुछ भी नहीं है' ऐसा कैसे कहता है अथवा वह शून्यको जानता कैसे है। भावार्थ-शून्यवादी बौद्धका मत है कि जिस एक या अनेकरूपसे पदाथोंका कथन किया जाता है वास्तवमें वह रूप है ही नहीं, इस लिये वस्तुमात्र असत् है और जगत् शून्यके सिवा और कुछ मी नहीं है । शून्यवादीके इस मतका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि भाई, संसारमें तरह तरकी वस्तुएँ आंखोंसे साफ दिखाई देती हैं । जो उनको देखते हुए मी कहता है कि जगत् शून्य रूप है वह महाझूठा है। तथा जब जगत् शून्यरूप है और उसमें कुछ मी सत् नहीं है तो ज्ञान और शब्द मी असत् हुए । और जब बान और शब्द मी असत् हुए तो वह शून्यवादी कैसे तो स्वयं यह जानता है कि सब कुछ शून्य है और कैसे दूसरोंको यह कहता है कि सब शून्य है क्योंकि ज्ञान और शब्दके अभावमें न बअण्वाहि ग अच्छादि । २'जीवाद भणद, ग भागवि (१): ४ ग शुठाणं माठो, समूहाण महीमहो [अवार्ण महाबो]। ५५-पुस्तके गायांशः पत्रान्त लिखितः। ६ म.स असतवं (-3), म असंतक । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गाय २५१*जैदि' सम्बं पि असतं वा सो वि य संतओ' कहं भणदि । णत्थि ति किं पि' तथं आहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ २५१* ॥ [छाया-यदि सर्वम् अपि मसत् तत् सः अपि च सरकः कथं मणति । नास्ति इति किम् अपि सत्वम् अथवा शून्यं कथं जानाति ] अपि पुनः, यदि चेत् सर्व चेतनादिलक्षणं तस्यम् असत् नास्विरूपं, तो ताई सोऽपि नास्तिकवादी विद्यमान तत्व भणति । यदि पूर्व घटपसादिक जगति मोपलब्धं ताई नास्ति इति तेन कथं भव्यते। प्रतिषेधस्य विधिपूर्वकस्वाद अथवा प्रकारान्तरेण दूषयति किचितवं नास्तीति चेत् तर्हि सर्वशून्यं कथं जानाति ॥२५॥ किं बहुणा उत्तेण य जेत्तिये मेत्ताणि' संति णामाणि । तेत्तिय-मेसा अत्था संति य णियमेण परमत्था ॥ २५२ ॥ [छाया-कि पहना उन न यायमात्राणि सन्ति नामानि । तावमात्र अर्थाः सन्ति च नियमेन परमार्थाः॥] मो नास्तिकवादिन, बहुना उक्तन कि बहुप्रलापेन किं भवति । पूर्यतां पूर्यता बहालपेन । यावन्मात्राणि नामानि यावरप्रमाणानि अभिषानानि वखवस्त्रप्रस्लरमहीदवशीफलजलकालघटपटलकटशकटमुरासरनर नारीतिर्थद्वारकपशुगोऽअगजमहिषमृगपक्षिमत्स्यचेतनाचेतनवस्तूनि सन्ति विद्यन्ते तावन्मात्राः अर्थोः पदार्याः नियमतः परमार्थभूताः सन्ति च । ननु च यावन्ति नामानि तावन्तः पदार्थाः चेत्तहि खरविषाणवत शशागगनकुसुमवन्ध्यासुतादयः पदार्थाः कथं न भवेयुः । भवताम् इति चेन खरादीनां च शुकादीनां बहुलमुपलम्भात् । एमेव तवं सम्मत्त । एवं तवं समाप्तम् एवं पूर्वोकप्रकारेण तत्वव्याख्यानं समाप्तम् ॥ २५२ ॥ अथ ज्ञानास्तित्व प्रतिजानीते णाणा-धम्मेहि जुदं अप्पाणं तह परं पि णिच्छयदो। जं जाणेदि सजोग' तं गाणं भण्णदे" समएँ ॥ २५३ ॥ कुछ जाना जा सकता है और न कुछ कहा जा सकता है । इसके सिवाय जब सब जगत् शून्यरूप है तो शून्यवादी मी शून्यरूप हुआ । और जब वह खयं शून्य है तो वह शून्यको कैसे जानता है और कैसे शून्यवादका कथन करता है ॥ २५०-२५१* ॥ अर्थ-अधिक कहनेसे क्या ! जितने नाम हैं उतनेही नियमसे परमार्थ रूप पदार्थ हैं ।। भावार्थ-शब्द और अर्थका खाभाविक सम्बन्ध है | क्यों कि अर्थको देखते ही उसके वाचक शब्दका स्मरण हो आता है और शब्दके सुनते ही उसके वाच्य अर्थका स्मरण होता है । अतः संसारमें जितने शब्द हैं उतने ही वास्तविक पदार्थ हैं। शायद कहा जाये कि गधेके सींग, वन्ध्यापुत्र, आकाशफल आदि शब्दोंके होते हुए भी न गधेके सींग होते है, न बांसको लड़का होता है और न आकाशका फूल होता है । अतः यह कहना कि जितनेही शब्द हैं उतनेही वास्तविक पदार्थ हैं, ठीक नहीं हैं । किन्तु यह आपत्ति उचित नहीं है, क्यों कि 'गधेके सींग' आदि शब्द एक शब्द नहीं हैं किन्तु दो शब्दोंके जोड़रूप हैं । दो शब्दोंको मिलानेसे तो बहुतसे ऐसे शब्द तैयार किये जा सकते हैं जिनका वाच्य अर्थ बस्तुभूत नहीं है। उक्त कथन समासरहित शब्दके विषयमें है। वैसे संसारमें गधा, सींग, बांझ, पुत्र, आकाश, फूल इत्यादि सभी शब्दोंके वाच्य अर्थ वास्तविक रूपमें पाये जाते हैं। अतः शून्यवाद ठीक नहीं हैं ॥ २५२ ॥ पदार्थों का अस्तिस्व १-पुस्तके गाथांशः पत्रान्ते लिखितः । २२ग यदि । बस संत (5), मग संतज । ४ ल किंचि, ग कंपि । ५.गम बित्तिय,सोसीय । ६ ममित्ताणि ७ मित्ता। ८ एमेव तचं समत्वं ।। पाणा इलादि। स्योग । १०मसग भण्णए । ९ल समयास समये। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा २७९ [छाया-नानाभमः युतम् आत्मा परम् गायः । सामादि बायका मण्यते समवे॥] निषयतः परमार्थतः, यत् खयोग्य संबन्ध धर्तमान अभिमुखम् आत्मानम् जीवादिदम्य स्खलाप ना तथा परमपि परबम्ब मपि शेतमाचेतमादिक बस्तु यज्जानाति देति पश्यति समये बिनसिद्धाम्से तत् ज्ञान भण्यते । जानातीति शामम्, खार्थव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणमिति मार्तण्डे प्रोक्त्वात् । कीदक्ष वस्तु । नानाधम विविधखभावः सहित कवंचित अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकवनित्यत्वानियत्वभिन्नत्वाभिन्नत्वप्रमुखराविधम् ॥ २५३॥ अथ सामान्येन शानसद्वाद विभाग्य केवल ज्ञानास्तित्व विशदयति जं सर्व पि पयासदि दवं-पज्जाय-संजुदं लोयं । तह य अलोयं सव्वं तं गाणं सक्ष-पश्चक्ख ॥ २५४ ॥ [छाया यत् सर्वम् अपि प्रकाशयवि द्रव्य पर्यायसंयुतं लोकम् । तथा च अलोकं सर्व सद शानं सर्वप्रत्यक्षम् ॥] तत् ज्ञानं सर्वप्रत्यक्षं सर्च लोकालोक प्रत्यक्षेण पश्यतीत्यर्थः। तत् किम् । यत्सर्वमपि लोकं त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशतरजु प्रमाण जगत् त्रैलोक्यम् । तथा च सर्वम् अलोकम् , अनन्तानन्तप्रमितम् अलोक्राकाशं प्रकाशयति जानाति पश्यतीत्यर्थः। कथंभूतं लोकम् । द्रव्यपर्यायसंयुक्तम् । लोकाकाशे जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालव्याणि, तेर्षा मरनारकादिगणुकादिबतलाकर ग्रन्थकार ज्ञानका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो नाना धर्मोसे युक्त अपनेको तथा नाना धोंसे युक्त अपने योग्य पर पदार्थोको जानता है उसे निश्चयसे ज्ञान कहते हैं । भावार्थ-जो जानता है उसे झान कहते हैं । अब प्रश्न होता है कि वह किसे जानता है। तो जो स्वयं अपनेको और अन्य पदायाँको जानता है वह ज्ञान है । इसीसे परीक्षामुखमें कहा है कि स्वयं अपने और पर पदार्थोके निश्चय करने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । परीक्षामुख सूत्रकी विस्तृत टीका प्रमेयकमलमार्तण्डमें इसका व्याख्यान खून विस्तारसे किया है । वस्तुमें रहनेवाले धौंके ज्ञानपूर्वक ही वस्तुका ज्ञान होता है, ऐसा नहीं है कि वस्तुके किसी एक भी धर्मका ज्ञान न हो और वस्तुका ज्ञान हो जाये । इसीसे कहा है कि नाना धर्मोसे युक्त वस्तुको जो जानता है वह ज्ञान है । फिरभी संसारमें जाननेके लिये अनन्त पदार्थ हैं और हम सबको न जानकर जो पदार्थ सामने उपस्थित होता है उसोको जानते हैं। उसमें भी कोई उसे साधारण रीतिसे जान पाता है और कोई विशेष रूपसे जानता है । अर्थात् सब संसारी जीवोंका ज्ञान एकसा नहीं जानता । इसीसे कहा है कि अपने योग्य पदार्थोको जो जानता है वह ज्ञान है ॥ २५३ ॥ इस प्रकार सामान्यसे शानका सद्भाव बतलाकर अन्धकार अब केवलज्ञानका अस्तित्व बतलाते हैं । अर्थ-जो ज्ञान द्रव्यपर्यायसहित समस्त लोकको और समस्त अलोकको प्रकाशित करता है वह सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है ॥ भावार्थ-आकाशदव्य सर्वव्यापी है और सब तरफ उसका अन्त नहीं है अर्थात् वह अनन्त है। उस अनन्त आकाशके मध्यमें ३४३ राजु प्रमाण लोक है । उस लोकमें जीव, मुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छहों द्रव्य रहते हैं। तथा उन द्रव्योंकी नर, नारक वगैरह और स्यणुक स्कन्ध वगैरह अनन्त पर्यायें होती हैं । लोकके बाहर सर्वत्र जो आकाश है वह अलोक कहा जाता है । वहाँ केवल एक आकाशद्रव्य ही है । उसमें भी अगुरुलभु गुणकृत हानि वृद्धि होनेसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप पर्याय होती हैं। इन द्रव्यपर्यायसहित लोक और अलोकको जो प्रत्यक्ष जानता है वही केवलज्ञान है। तवार्यसूत्रमें भी सब द्रव्यों और ॥ वेदयति। २मस गदन्नवदनं )पजाय । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¦ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २५५ स्कन्धादिपर्यायाः । अलोकाकाशे अलोकाकाशं द्रव्यं तस्य पर्याया अगुरुलध्यादयः उत्पादव्यमनौव्यावमध्य तैः संयुक्त अश्नाति पश्यति च । 'सर्वद्रव्यपययेषु केवलस्य' इति वचनात् तथा चोकं व 'क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकल सुखधाम सततं वन्देऽई केवलज्ञानम् ॥' इति ॥ २५४ ॥ अथ ज्ञानस्य सर्वगतत्वं प्रकाशयतिसव्यं आदि जम्हा सव्व-गयं तं पि वुश्चदे' तम्हा | णय पुण विसरदि गाणं जीवं चऊण अण्णत्थ ॥ २५५ ॥ [ छाया - सर्व जानाति यस्मात् सर्वगतं तत् अपि उच्यते तस्मात् । न च पुनः विसरति ज्ञानं जीवं त्या अन्यत्र ॥ ] तस्मात्कारणात् तदपि केवलज्ञानं सर्वगतं सर्वलोकालोकव्यापकम् उच्यते । कुतः । भस्मात् सर्वद्रव्यगुणपर्याययुक्त लोकालोकं जानाति बेति । अथ च ज्ञानं संयोगसंयुक्तसमवायसंयुक्तसमवेतसमवायसमवायसमवेतसमवायसंनिकर्षैः ज्ञेयप्रदेशं गत्वा प्रत्यक्षं जानाति इवि नैयायिकाः । वेsपि न नैयायिकाः । कृतः जीवम् आत्मानं गुणिनं यत्वा अन्यत्र यप्रदेशं ज्ञानं न च पुनः विसरति प्रसरति न यातीत्यर्थः ॥ २५५ ॥ अय ज्ञानज्ञेययोः स्वप्रदेशस्थितित्वेऽपि प्रकाशकत्वमिति युक्तिं नियुंके गाणं ण जादि णेयं णेयं पि ण आदि णाण - देसम्मि' | णिय - णिय- देस-ठियाणं ववहारो णाणणेयाणं ॥ २५६ ॥ [ छाया-ज्ञानं न याति ज्ञेयं ज्ञेयम् अपि न याति ज्ञानदेशे । निजनिज देशस्थितानां व्यवहारः शानहेययोः ॥ ] ज्ञानं बोधः प्रमाणं ज्ञेयं प्रमेयं ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं वस्तु चेतनाचेतनादि प्रति न याति न गच्छति । अपि पुनः हे प्रमेवं सब द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको केवल ज्ञानका विषय बतलाया है। एक दूसरे ग्रन्थमें केवलज्ञानको नमस्कार करते हुए कहा है कि केवलज्ञान क्षायिक है; क्योंकि समस्त ज्ञानावरण कर्मका क्षय होनेपर ही केवलज्ञान प्रकट होता है । इसीसे वह अकेला ही रहता है। उसके साथ अन्य मति श्रुत आदि ज्ञान नहीं रहते, क्योंकि ये ज्ञान क्षायोपशमिक होते हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्मके रहते हुए ही होते हैं, और केवलज्ञान उसके चले जानेपर होता है। अतः केवलज्ञान सूर्यकी तरह अकेला ही त्रिकालवर्ती सब पदार्थोंको एक साथ प्रकाशित करता है। क्षायिक होनेसे ही उसका कभी अन्त नहीं होता । अर्थात् एक बार प्रकट होनेपर वह सदा बना रहता है; क्यों कि उसको ढांकनेवाला ज्ञानावरण कर्म नष्ट हो चुका है। अतः वह समस्त सुखका भण्डार है ॥ २५४ ॥ आगे ज्ञानको सर्वंगत कहते हैं। • अर्थ-यतः ज्ञान समस्त लोकालोकको जानता है अतः ज्ञानको सर्वेगत भी कहते हैं। किन्तु ज्ञान जीवको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता ॥ भावार्थ - सर्वगतका मतलब होता है सब जगह जानेवाला । अतः ज्ञानको सर्वगत कहनेसे यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि ज्ञान आत्माको छोडकर पदार्थके पास चला जाता है किन्तु आत्मामें रहते हुए ही वह समस्त लोकालोकको जानता है इसीलिये उसे सर्वगत कहते हैं । प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुन्दने इस पर अच्छा प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है कि आत्मा ज्ञानके बराबर है और ज्ञान. ज्ञेयके बराबर है। तथा ज्ञेय लोकालोक है । अतः ज्ञान सर्वगत है ॥ २५५ ॥ आगे कहते हैं कि ज्ञान अपने देशमें रहता है और ज्ञेय अपने देशमें रहता है, फिल्मी ज्ञान ज्ञेयको जानता है । अर्थ-ज्ञान ज्ञेयके पास नहीं जाता और न ज्ञेय ज्ञानके पास आता है । फिरभी अपने अपने देशमें स्थित ज्ञान और शेयमें शेयज्ञायकव्यवहार होता है || 1 १ म । २ ब जाए। ३ म स ग बेसन्हि । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा चटपटादिचेतनाचेतनादिवस्तु पदार्थः ज्ञानप्रवेशेन याति न गच्छति । तर्हि किम् । अस्ति निजानिजप्रदेशस्थिताना शानझेयाना प्रमाणप्रमेयानो शानदेयव्यवहारः । यथा दर्पणः स्वप्रदेशस्थित एव खप्रदेशस्थ वस्तु प्रामपति तथा शानं झेयं च । 'सालोकानां त्रिलोकाना बदिया दर्पणायवे। इति वचनात् ॥ २५६ ॥ भष मनःपर्ययज्ञानादीनो देशप्रत्यक्षं परोक्षं च विशदवति मण-पज्जय-विष्णाणं ओही-णाणं च देस-पाचक्खं । मदि-सुदिणाणं कमसो विसद-परोक्खं परोक्खं च ॥ २५७ ॥ [छाया-मनापर्ययविशागम् भवधिज्ञान व देशप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतिक्षाने कमशः विशवपरोक्षं परोक्षं च ॥ ? मनःपर्ययज्ञानं मनसा परमनसि स्थित पदार्थ पर्येति जानाति इति मनःपर्वयं तब तज्ज्ञान व मनःपर्ययज्ञानं का परकीयमनसि स्वितोऽर्थः साहवर्यान्मनः इत्युच्यते तस्य मनमः पर्ययण परिंगमनं परिज्ञान मनःपर्यवज्ञान सामोपशमिकम् ऋजुमतिविपुलमातिभेदमिन च । पुनः भवधिज्ञानम् अपधीयते भ्यक्षेत्रकालभावेन मोरीकियते, बागवान भवधिः अपवादहुतरविषयप्रहणात् अवधिः देशावधिपरमावधिसविधिज्ञानं च । देशप्रत्यक्षम् एकदेशविशदम् । मनःभावार्थ-आचार्य समन्तभद्रने रत्नकरंड श्रावकाचारके भारम्भमें भगवान महावीरको नमस्कार करते दुए उनके ज्ञानको अलोक सहित तीनों लोकोंके लिये दर्पणकी तरह बतलाया है । अर्थात् जैसे दर्पण अपने स्थानपर रहते हुए ही अपने स्थानपर रखे हुए पदायाको प्रकाशित करता है, वैसे ही शान भी अपने स्थानपर रहते बुए ही अपने अपने स्थानपर स्थित पदार्थोंको जान लेता है। प्रवचनसारमें भी कहा है कि आला ज्ञानखभाव है और पदार्थ शेयखरूप हैं । अर्थात् जानना आत्माका समाव है और ज्ञानके द्वारा विषय किया जाना पदाथोका खभाव है । अतः जैसे चक्षु रूपी पदार्थोके पास न जाकर ही उनके स्वरूपको ग्रहण करनेमें समर्थ है, और रूपी पदार्थ भी नेत्रोंके पास न जाकर ही अपना खरूप नेत्रोंको जनानेमें समर्थ है, वैसे ही आत्मा भी न तो उन पदार्थोके पास जाता है और न वे पदार्थ आत्माके पास आते हैं । फिरभी दोनोंमें डेयज्ञायक सम्बन्ध होनेसे आत्मा सबको जानता है और पदार्थ अपने खरूपको जनाते हैं। जैसे दूधके बीचमें रखा हुआ नीलम अपनी प्रमासे उस दूधको अपनासा नीला कर लेता है । उसी प्रकार ज्ञान पदार्थोंमें रहता है। अर्थात् दूधमें रहते हुए भी नीलम अपनेमें ही है और दूध अपने रूप है तभी तो नीलमके निकालते ही दूध खाभाविक खन्छ रूपमें हो जाता है । ठीक यही दशा ज्ञान और ज्ञेयकी है ॥२५६ ॥ आगे शेष झानोंको देश अध्यक्ष और परोक्ष बतलाते हैं । अर्थ मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं । मतिज्ञान प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी है । और श्रुतज्ञान परोक्ष ही है || भावार्थ-जो आत्माके द्वारा दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्यको प्रत्यक्ष जानता है, उसे मनः पर्यय बान कहते हैं । अथवा दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको मनमें रहनेके कारण मन कहते हैं । अर्थात् 'मनःपर्यय' में 'मन' शब्दसे मनमें स्थित रूपी पदार्थ लेना चाहिये । उस मनको जो जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है । यह मनःपर्ययान मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होता है, अतः क्षायोपशमिक है। उसके दो भेद हैअजुमति और विपुलमति । तया द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लिये हुए रूपी पदापोंको प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं। अवधिका अर्थ मर्यादा है। अथवा अवाय यानी १५म मात्र । विसय ()। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F स्वामिकार्त्तिकेयातुप्रेक्षा [ गा० १९८ पर्ययावधिज्ञानानाम् एकदेशविशदत्वात् देशप्रत्यक्षं च पुनः मतिश्रुतज्ञानम् इन्द्रियैर्मनसा स यथायथम् अर्थान् मन्मठे मतिः मनुतेऽनया वा मतिः मननं वा मतिः । श्रुला चिया खूब शव नृपोति ree श्रुतम्, श्रवणं वा श्रुतं तच तद् ज्ञानम् । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च श्रमशः क्रमेण विशदपरोक्षं परोक्षं च । मत् इन्द्रियानिन्द्रियजं मतिज्ञानं तत् विशदम् एकदेशतः विशदं स्पष्टम् । उकं च परीक्षामुखे । इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सोव्यवहारिकमिति सांध्यवहारिकप्रत्यक्षं मतिज्ञानं कथ्यते । यत् श्रुतज्ञानं तत्परोक्षम् अविशदम् अस्पष्टमित्यर्थः । मनः पर्यायज्ञानम् अवविज्ञानं च देशप्रत्यक्षं स्यात् । मतिज्ञानम् एकदेशपरोक्षं श्रुतज्ञानं परोक्षज्ञानं स्यात् ॥ २५७ ॥ अथेन्द्रियज्ञानस्य योग्यं विषयं विशदयति इंद्रियजं मदि गाणं जग्गं' जाणेदि पुग्गलं दव्वं । माणस - गाणं च पुणो य-विसयं अक्ल-विसयं च ॥ २५८ ॥ 1 1 पुद्गल, उनको जो जाने वह अवधि है । अथवा अपने क्षेत्रसे नीचे की ओर इस ज्ञानका विषय अधिक होता है इसलिये भी इसे अवधि ज्ञान कहते हैं । अवधि ज्ञानके तीन भेद हैं- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । मन:पर्ययज्ञान और अवधिज्ञान एक देशसे प्रत्यक्ष होनेके कारण देशप्रत्यक्ष है । जो ज्ञानपरकी सहायता के बिना स्वयं ही पदार्थोंको स्पष्ट जानता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। ये दोनोंही ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना अपने २ विषयको स्पष्ट जानते हैं इसलिये प्रत्यक्ष तो हैं, किन्तु एक तो केवल रूपी पदार्थों को ही जानते हैं दूसरे उनकी भी सब पर्यायोंको नहीं जानते, अपने २ योग्य रूपी द्रव्यकी कतिपय पर्यायों को ही स्पष्ट जानते हैं । इसलिये ये देशप्रत्यक्ष हैं । इन्द्रिय और मनकी सहायता से यथायोग्य पदार्थको जाननेवाले ज्ञानको मतिज्ञान कहते हैं। तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थको विशेष रूप से जाननेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं श्रुत शब्द यद्यपि ' ' धातुसे बना है और '' का अर्थ 'सुनना' होता है । किन्तु रूदिवश ज्ञान विशेषका नाम श्रुतज्ञान है । ये दोनों ज्ञान इन्द्रियों और मनकी यथायोग्य सहायता से होते हैं इसलिये परोक्ष हैं। क्यों कि 'पर' अर्थात् इन्द्रियाँ, मन, प्रकाश, उपदेश वगैरह बाह्य निमित्तकी अपेक्षासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहा जाता है । अतः यद्यपि ये दोनों ही ज्ञान परोक्ष हैं किन्तु इनमेंसे मतिज्ञान प्रत्यक्ष मी है और परोक्ष भी है । मतिज्ञानको प्रत्यक्ष कहनेका एक विशेष कारण है। भट्टाकलंक देवसे पहले यह ज्ञान परोक्ष ही माना जाता था । किन्तु इससे अन्य मतावलम्बियोंके साथ शालार्थ करते हुए एक कठिनाई उपस्थित होती थी। जैनोंके सिवा अन्य सब मतावलम्बी इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । एक जैन धर्म ही उसे परोक्ष मानता था, तथा लोकमें भी इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा जाता है । अतः मट्टाकलंक देवने मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया । जो यह I बतलाता है कि मतिज्ञान लोकव्यवहारकी दृष्टिसे प्रत्यक्ष है, किन्तु वास्तव में प्रत्यक्ष नहीं है । इसीसे परीक्षामुखमें प्रत्यक्षके दो मेद किये हैं- एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और एक मुख्य प्रत्यक्ष । तथा इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले एकदेश स्पष्ट ज्ञानको सव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है ॥ २५७॥ आगे इन्द्रिय ज्ञानके योग्य विषयको कहते हैं । अर्थ- इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान अपने योग्य पुद्गल को जानता है । और मानसचान श्रुतज्ञानके विषयको भी जानता है तथा इन्द्रियोंके १६ समजु । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुरक्षा याया-इन्द्रियज मतिज्ञाने योग्य जानाति पुद्गले वष्यम् । मानसशानं त्र पुनः श्रुतविषयम् मक्षविषय च ॥] पतु इनिगजा, इलिये यः साना साना गाडगेभ्यः मनसा च जातम् उत्पन्नम् इन्द्रियानिन्द्रियजम् अवाहेहावायधारणामेदमिन्नं पत्रिंशदधिकत्रिशतमेदं मतिज्ञानं योग्यं पुद्रलद्रव्यम्, 'बहबहुविधक्षिषानिःसतानुकधुवा सेतराणाम् । इति द्वादशमेदभिक्षं पुदलद्रव्यं स्पर्शरसवर्णसंस्थानाविक पदार्थ जानाति पश्यतीत्यर्थः । पुनः भूतं मतिज्ञानम् । माणसणाण मनसोत्पन्नं ज्ञानम् अनिन्द्रियजातज्ञानम् । च पुनः किंभूतम् । श्रुतविषयम् अस्फुटशानविषय 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' । अभिधानात् श्रुतज्ञानगृष्ठीतार्थप्राइकम् । च पुनः कीदृक्षम् । अक्षविषयम् इन्द्रियगृहीताप्राहम् ।। २५८ ॥ अथ पवेन्द्रियज्ञानानां क्रमेणोपयोगः न युगपदिति बमणीतिविषयोंको भी जानता है ॥ भावार्थ भतिज्ञान पांचों इन्द्रियोंसे तथा मनसे उत्पन्न होता है । जो मतिज्ञान पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है वह तो अपने योग्य पुद्गल व्यको ही जानता है क्योंकि पुगलमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप ये चार गुण होते हैं। और इनमेंसे स्पर्शन इन्द्रियका विषय केवल स्पर्श है, रसना इन्द्रियका विषय रस ही है, घ्राण इन्द्रियका विषय गन्ध ही है और चक्षु इन्द्रियका विषय केवल रूप है । तथा श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है, वह भी पौद्गलिक है । इस तरह इन्द्रियजन्य मतिज्ञान तो अपने अपने योग्य पुद्गल द्रव्यको ही जानता है। किन्तु मनसे मतिज्ञान भी उत्पन्न होता है, और श्रुतज्ञान भी उत्पन्न होता है। अतः मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान इन्द्रियों के विषयोंको भी जानता है और श्रुतज्ञानके विषयको भी जानता है। मतिज्ञान के कुल मेद तीनसौ तीस होते हैं जो इस प्रकार हैमतिज्ञानके मूलभेद चार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। दर्शनके अनन्तर ही जो पदार्थका ग्रहण होता है वह अपग्रह है। जैसे, चक्षुसे सफेद रूपका जानना अवग्रह ज्ञान है । अवग्रह से जाने हुए पदार्थको विशेष रूपसे जाननेकी इच्छाका होना ईहा है, जैसे यह सफेद रूपवाली वस्तु क्या है ! यह तो बगुलोंकी पंक्ति मालूम होती है, यह ईहा है। विशेष चिह्नोंके द्वारा यथार्थ वस्तुका निर्णय कर लेना अवाय है। जैसे, पंखोंके हिलनेसे तथा ऊपर नीचे होनेसे यह निर्णय करना कि यह बगुलोंकी पंक्ति ही है, यह अबाय है। अवायसे निर्णीत वस्तुको कालान्तरमें नहीं भूलना धारणा है । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्त, निःसृतः, उक्त, अभुव, इन बारह प्रकारके पदार्थोंने अनप्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं । बहुत वस्तुओंके जाननेको बहुज्ञान कहते हैं । बहुत तरहकी वस्तुओंके जाननेको बवविधज्ञान कहते हैं । जैसे, सेना या वनको एक समूह रूपमें जानना बहुज्ञान है और हाथी घोडे आदि या आम मछुआ आदि भेदोंको जानना बहुविध ज्ञान है । वस्तु के एक भागको देखकर पूरी वस्तुको जान लेना अनिःसृत ज्ञान है । जैसे जलमें डूबे हुए हाथीकी सूंडको देखकर हाथीको जान लेना। शीघ्रतासे जाती हुई वस्तुको जानना क्षिप्रज्ञान है । जैसे तेज चलती हुई रेलगाडीको या उसमें बैठकर बाहरकी वस्तुओंको जानना । बिना कहे अभिप्रायसे ही जान लेना अनुक्त ज्ञान है । बहुत काल तक जैसाका तैसा निश्चल झान होना ध्रुव ज्ञान है | अल्प अथवा एक वस्तुको जानना अल्पज्ञान है। एक प्रकारकी वस्तुओंको जानना एकविध ज्ञान है । धीरे धीरे चलती हुई वस्तुको जानना अक्षिप्रज्ञान है। सामने पूरी विद्यमान वस्तुको जानना निःसृत ज्ञान है । कहने पर जानना उक्त ज्ञान है । चंचल विजली वगैरहको जानना अचव ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकारका अवग्रह, बारह प्रकारका ईहा, बारह Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा पंचिदिये - णाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुतं । माणे उवजुतो इंदिय गाणं जाणेदि ॥ २५९ ॥ [ गा० २५९ [ छाया-प्रवेन्द्रियज्ञानानां मध्ये एक च भवति उपयुक्तम् । मनोशाने उपयुक्तः इन्द्रियज्ञानं न जानाति ॥ ] पखेन्द्रियज्ञानानां स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्रज्ञानानां मध्ये एकस्मिन् काले एकं ज्ञानम् उपयुक्तम् उपयोगयुक्तं विषयप्रणव्यापारयुक्तं भवति । मनोज्ञाने उपयुक्त नोइन्द्रियज्ञाने उपयुक्त विषयग्रहण व्यापारोपयुक्ते सति इन्द्रियज्ञानं पचेन्द्रियाणां ज्ञानं न जायते न उत्पद्यते । अथवा मनसो ज्ञानेन उपयुक्तः मनोज्ञानव्यापारसहितो जीवः इन्द्रियज्ञानं न जानाति । यदा जीवः मनसा एकाप्रचेतसा आर्तरौद्रधर्मादिष्यानं धरति तदा इन्द्रियाणां ज्ञानं न स्फुरतीत्यर्थः वा इन्द्रियज्ञानं एकैकं जानाति । चक्षुर्ज्ञान प्राणे न जानाति इत्यादि ॥ २५९ ॥ ननु यद्भवद्भिरुक्तम् एकस्मिन् काले एकस्यैवेन्द्रिय ज्ञान स्योपयोगस्तदप्ययुक्तम् । केनचित्सा करगृहीत शष्कुल्यां भक्ष्यमाणायां सत्य सगन्धग्रहणं प्राणस्य तचर्वणशब्दग्रहणं श्रोत्रस्य तद्वर्णमहणं चक्षुषोः तत्स्पर्शग्रहणं करस्य तसग्रहणं जिह्वामाथ जायते । इति पञ्चेन्द्रियाणां ज्ञानस्य [ उपयोगः ] युगपदुत्पद्यते इति वावदूकं वादिनं प्रतिवदति एक्के' काले एक गाणं जीवस्स होदि उवजुतं । गाणा - णाणाणि पुणो लद्धि-सहावेण तुच्छंति ॥ २६० ॥ I 1 प्रकारका अवाय और बारह प्रकारका धारणा ज्ञान होता है। ये सब मिलकर ४८ भेद होते हैं। तथा इनसे प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रियों और मनसे होता है अतः ४८४६ = २८८ भेद मतिज्ञानके होते हैं | तथा अस्पष्ट शब्द वगैरहका केवल अवग्रह ही होता है, ईहा आदि नहीं होते । उसे व्यञ्जनावग्रह कहते हैं । और व्यंजनावमह चक्षु और मनको छोडकर शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है। अतः बहु आदि विषयोंकी अपेक्षा व्यंजनावग्रह ४८ भेद होते हैं । २८८ भेदोंमें इन ४८ भेदोंको मिलानेले मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं ॥ २५८ ॥ आगे कहते हैं कि पांचों इन्द्रियज्ञानोंका उपयोग क्रमसे होता है, एक साथ नहीं होता । अर्थ- पांचों इन्द्रियज्ञानोंमेंसे एक समय में एक ही ज्ञानका उपयोग होता है । तथा मनोज्ञानका उपयोग होने पर इन्द्रियज्ञान नहीं होता ॥ भावार्थ- स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानोमेंसे एक समय में एक ज्ञान ही अपने विषयको ग्रहण करता है। इसी तरह जिस समय मनसे उत्पन्न हुआा ज्ञान अपने विषयको जानता है उस समय इन्द्रिय ज्ञान नहीं होता । सारांश यह है कि इन्द्रिय ज्ञानका उपयोग क्रमसे ही होता है । एक समयमें एक्से अधिक ज्ञान अपने २ विषयको ग्रहण नहीं कर सकते, अर्थात्, उपयोग रूप ज्ञान एक समयमें एक ही होता है ॥ २५९ ॥ शङ्का - आपने जो यह कहा है कि एक समयमें एक ही इन्द्रिय ज्ञानका उपयोग होता है यह ठीक नहीं है, क्योंकि हाथकी कचौरी खानेपर घ्राण इन्द्रिय उसकी गन्धको सूंघती है, श्रोत्रेन्द्रिय कचौरीके चबानेके शब्दको ग्रहण करती है, चक्षु कचौरीको देखती है, हायको उसका स्पर्श ज्ञान होता है और जिल्हा उसका स्वाद लेती है, इस तरह पांचों इन्द्रिय ज्ञान एक साथ होते हैं । इस शङ्काका समाधान करते हैं । अर्थ- जीवके एक समयमें एक ही ज्ञानका उपयोग होता. हैं । किन्तु लब्धि रूपसे एक समयमें अनेक ज्ञान कहे हैं । भावार्थ- प्रत्येक क्षायोपशमिक ज्ञानकी दो अवस्थाएँ होती हैं--एक लब्धिरूप और एक उपयोगरूप । अर्थको ग्रहण करनेकी शक्तिका नाम लब्धि १ ब पंचिदिय, ल म स में पंचेंद्रिय र ब जाणार ? मिस जाएदि, ग जाएहि । ३ मग एके । ४ म सग एगं , Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १०. लोकानुप्रेक्षा १८५ [ छाया-एकस्मिन् काले एकं ज्ञानं जीवस्य भवति उपयुक्तम् । नानाज्ञानानि पुनः लब्धिखभावेन उच्यन्ते ॥] जीवस्थात्मनः एकस्मिन् काले एकस्मिनेव समये एकं शानम् एकस्यैवेन्द्रियस्य ज्ञानं स्पर्शनादिवम् उपयुक्त विषयग्रहणभ्यापारयुक्तम् अर्थग्रहणे उद्यमनं व्यापारणम् उपयोगि भवति । यदा स्पर्शनेन्द्रियज्ञानेन स्पार्शो विषयो गृह्यते तदा रसनादीन्द्रियज्ञानेन रसादिविषयो न गृश्यत इत्यर्थः । एवं रसनादिषु योज्यम् । तईि अपरेन्द्रियाणां ज्ञानानि तत्र दृश्यन्ते तत्कथमिति चेदुच्यते । पुनः नानाज्ञानानि अनेकप्रकारज्ञानानि स्पर्शनायकेन्द्रियज्ञानानि लब्धिस्वभावेन, अर्थमहणशक्तिर्लब्धिर्लाभः प्राप्तिः तत्स्वभावेन सत्वरूपेण, उच्यन्ते कथ्यन्ते ॥ २६० ॥ अथ वस्तुनः अनेकान्तात्मकमेकान्तात्मकं च दर्शयति जं वत्थु अणेयं तं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं । सु-गाणेण गएहि य णिरवेक्खं दीसदे' णेव ॥ २६१ ॥ [ छाया-यत् वस्तु अनेकान्तम् एकान्तं तत् अपि भवति सव्यपेक्षम् । श्रुतज्ञानेन नयैः च निरपेक्षं दृश्यते जैव ॥ ] यवस्तु जीवादिद्रव्यम् एकान्तम् अस्तित्वाद्येकधर्म विशिष्टम् जीवोऽस्तीति तदपि जीवादिवस्तु सम्यपेक्ष सापेक्षम् आकाङ्गासहितम् खाध्यचतुष्टयापेक्षया अस्ति एकान्तविशिष्टं परद्रव्यचतुष्टयापेक्षया नास्तिधर्मविशिष्टम् इति अनेकान्तात्मकं वस्तु । श्रुतज्ञानंन जिनोकशास्त्रबोधेन नेगमादिनयैव नैगमसंप्रहव्यवहार ऋजुसूत्र शब्दभ्रमभिरूढैवंभूताख्यैः च अनेकान्तारमकं च वस्तु भवति । तथा चोकं च । 'नानास्वभावसंयुकं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः । तच सापेक्षसियर्थं स्यानयमिश्रितं कुरु ॥ स्वद्रव्यादिप्राइकेण अस्तिस्वभावः । परद्रव्यादिग्राहकेण नास्तिखभावः । उत्पादव्यय गौणत्वेन सत्ताग्राहकेण नित्यखभावः । केनचित्पर्यायार्थिकेन अनिव्यस्वभावः । भेदकल्पनानिरपेक्षेनेकस्वभावः । अन्वयव्यार्थिकेनैकस्याप्यनेकमभ्यस्वभावत्वम् । सद्भूतव्यवहारेण गुणगुष्यादिभिर्भेदस्वभावः । भेदविकल्पनानिरपेक्षेण ( गुण ) गुण्यादिभिरमेदखभावः । परमभावग्राहकेण भव्या भव्यपरिणामिकस्वभावः । शुद्धाशुद्धपरमभावप्राण है । और अर्थको ग्रहण करनेका नाम उपयोग है। लब्धि रूपमें एक साथ अनेक ज्ञान रह सकते हैं। किन्तु उपयोग रूपमें एक समयमें एक ही ज्ञान होता है। जैसे पांचों इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा मनोजन्य ज्ञान लब्धि रूपमें हमारेमें सदा रहते हैं । किन्तु हमारा उपयोग जिस समय जिस वस्तुकी ओर होता है उस समय केवल उसीका ज्ञान हमें होता है। कचौरी खाते समय भी जिस क्षणमें हमें उसकी गन्धका ज्ञान होता है उसी क्षण रसका ज्ञान नहीं होता । जिस क्षण रसका ज्ञान होता है उसी क्षण स्पर्शका ज्ञान नहीं होता । किन्तु उपयोगकी चंचलताके कारण कचौरीके गन्ध, रस वगैरहका ज्ञान इतनी द्रुत गति से होता है कि हमें क्षणमेदका भान नहीं होता और हम यह समझ लेते हैं कि पाँचों ज्ञान एक साथ हो रहे हैं । किन्तु यथार्थमें पांचों ज्ञान कमसे ही होते हैं, अतः उपयोगरूप ज्ञान एक समयमें एक ही होता है ॥ २६० ॥ आगे वस्तुको अनेकान्तात्मक और एकान्तात्मक दिखलाते हैं । अर्थ - जो वस्तु अनेकान्तरूप है वही सापेक्ष दृष्टिसे एकान्तरूप भी है। श्रुतज्ञानकी अपेक्षा अनेकान्तरूप है और नयोंकी अपेक्षा एकान्तरूप है । विना अपेक्षा के वस्तुका रूप नहीं देखा जासकता || भावार्थ- पहले वस्तुको अनेकान्तरूप सिद्ध कर आये हैं, क्योंकि प्रमाणके द्वारा वस्तुमें अनेक धर्मो की प्रतीति होती है। प्रमाण के दो भेद हैं- स्वार्थ और परार्थ । श्रुतज्ञानके सिवा बाकी के मति आदि चारों ज्ञान स्वार्थ प्रमाण ही हैं । किन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ भी होता है और परार्थ भी होता है । ज्ञानरूप श्रुतज्ञान स्वार्थ है और बच्चनरूप श्रुतज्ञान परार्थ है । श्रुतज्ञानके भेद नय हैं। प्रमाणसे जानी हुई वस्तु में १ रूम म गये व निरधिक्खं दीसष्ट २ अत्र व पुस्तके 'जो सादेदि बिसेस' इत्यादि गाया कार्तिके० २४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ == स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २६१ I चेतनस्वभावो जीवस्य । असद्भूतव्यवहारेण कर्मनो कर्मणोरपि चेतनस्वभावः । परमभावप्राहण कर्मनो कर्मणोः अचेतनस्वभावः । जीवस्याप्य सद्भूतव्यवहारेण अचेतनखभाषः । परमभावग्राह केण कर्मनो कर्मणोर्मूर्तस्वभावः । जीवस्याप्य सद्भूतव्यवहारेण मूर्तस्वभावः । परमभावग्राहण पुद्गलं विहाय इतरेषां द्रव्याणाम् अमूर्तस्वभावः । पुलस्य तूपचारादर्पि नास्त्वमृर्तरम् । परमभावग्राहण कालपुद्रलाणूनाम् एक प्रदेशस्वभावस्वम् । मेदकल्पना निरपेक्षेण चतुर्णामपि नाना प्रदेशस्वभावत्वम् । पुद्गलाणोरुपचारत: ( नानाप्रदेशत्वं न च कालाणोः ब्रिग्धरूक्षत्वाभावात् । अरूक्षत्वा वाणोरमूर्त - ) पुद्गलस्यैकविंशतितमो भावो न स्यात् । परोक्षप्रमाणापेक्षा असद्भूनव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वम् ॥ पुद्रलस्य अपेक्षा भेदसे एक धर्मको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं। जैसे प्रमाणसे वस्तुको अनेक धर्मात्मक जानकर ऐसा जानना कि वस्तु खचतुष्टयकी अपेक्षा सत्स्वरूप ही है अथवा पर द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा असत्स्वरूप ही है, यह नय है। इसीसे प्रमाणको सकलग्राही और नयको विकलग्राही कहा है । किन्तु एक नय दूसरे नयकी अपेक्षा रखकर वस्तुको जाने, तभी वस्तुधर्मकी ठीक प्रतीति होती जैसे, यदि कोई यह कहे कि यस्तु सत्स्वरूप ही है असत्स्वरूप नहीं है तो यह नय सुनय न होकर दुर्नय कहा जायेगा । अतः इतर का निषेध न करके एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुको जाननेसे ही वस्तुकी ठीक प्रतीति होती है । इसीसे आलापपद्धतिमें कहा है- 'प्रमाणसे नाना धर्मयुक्त द्रव्यको जानकर सापेक्ष सिद्धिके लिये उसमें नयकी योजना करो' । यथा वदन्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य अस्तिस्वभाव है १ । परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा नास्तिस्वभाव है २ । उत्पाद और व्ययको गौण करके धौव्यकी मुख्यतासे ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य नित्य है ३ । किसी पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य अनित्यस्वभाव है ४ । भेदकल्पना निरपेक्ष नयकी अपेक्षा द्रव्य एकखभाव अन्वयग्राही द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा एक होते हुए मी द्रव्य अनेकस्वभाव है ६ | सद्भूत व्यवहार नयसे गुण गुणी आदिकी अपेक्षा द्रव्य भेदभाव है ७ ! भेद कल्पना निरपेक्ष नयकी अपेक्षा गुण गुणी आदि रूपसे अभेद स्वभाव है ८ | परमभावके ग्राहक नयकी अपेक्षा जीवद्रव्य भव्य या अभव्यरूप पारिणामिक स्वभाव है ९ । शुद्ध या अशुद्ध परमभात्र ग्राहक नयकी अपेक्षा जीवद्रव्य चेतनस्वभाव है १० । असद्भूत व्यवहार नयसे कर्म और नोकर्म भी चेतन खभाव हैं ११ । किन्तु परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा कर्म और नोकर्म अचेतन स्वभाव हैं १२ । असद्भूत व्यवहार नयसे जीव भी अचेतन स्वभाव है १३ । परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा कर्म और नोकर्म मूर्त स्वभाव हैं १४ । असद्भूत व्यवहार नयसे जीव भी मूर्त स्वभाव है १५ । परमभावग्राही नयकी अपेक्षा पुगलको छोडकर शेष सब द्रव्य अमूर्त स्वभाव हैं तथा पुल उपचारसे भी अमूर्तिक नहीं है । परमभावग्राही नयकी अपेक्षा कालाणु तथा पुद्गलका एक परमाणु एक प्रदेशी हैं। भेद कल्पनाकी अपेक्षा न करने पर शेष धर्म, अधर्म, आकाश और जीवद्रव्य भी अखण्ड होनेसे एकप्रदेशी हैं । किन्तु भेद कल्पनाकी अपेक्षासे चारों द्रव्य अनेकप्रदेशी हैं । पुद्गलका परमाणु उपचारसे अनेक प्रदेशी है क्योंकि वह अन्य परमाणुओंके साथ बन्धनेपर बहुप्रदेशी स्कन्धरूप होजाता है। किन्तु कालाणुर्मे बन्धके कारण fare रूक्ष गुण नहीं है, इसलिये कालाणु उपचारसे भी अनेकप्रदेशी नहीं है। इसीसे अमूर्त काल में बहुप्रदेशत्वके बिना शेष १५ स्वभाव ही कहे हैं। शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे पुद्गल विभाव१ आदर्शे तु "रुपचारतः अणोरमूर्तत्वात् भावे पुल" इति पाठः । ५। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२६२] १०. लोकानुप्रेक्षा शक्षाशुद्भव्याधिकेन विभावसभावत्वम् । शुद्धद्रव्याधिकेन शुद्धखभावः । अशुद्धच्याधिकेन अस्वभावः । असन्तव्यवहारेण उपचरितखभावः। श्लोकः । "व्याणां तु यथारूप तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथाज्ञानेन संज्ञानं नयोऽपि हि तथाविधः ॥ इति नययोजनिका । सकलवस्तुप्राइके प्रमाण, प्रमीयते परिच्छियते वस्तुतत्त्वं येन शानेन तत्प्रमाणम् । (तरेषा सविकल्पेतरभेदात् । सविकली गानसम्, महानिध: । गाविभाकिन पर्यापार । निर्विकल्प मनोरहितं. केवलज्ञानमिति प्रमाणस्य व्युत्पत्तिः) प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थकांशो नयः, श्रुतविकरूपो वा, ज्ञातुरभित्रायो वा नयः। नामाखभावेभ्यो व्याघस्य एकस्मिन् स्वभावे बस्तु नयति प्राप्रोति इति वा नयः । इति श्रुतज्ञानेन नयश्च वस्तु अनेकान्तं भवति । यदस्तु निरपेक्ष प्रतिपक्षधर्मानपेक्षम् एकान्तरूपं तस्तु न दृश्यते, नव लोक्यत एव । एकान्ता. त्मकस्य वस्तुनः जगत्मभावात् । 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत' इति वचनात् । तथा चोकम् । 'य एव नित्यक्षणिकादयो नश मिथोनपेक्षाः खपरप्रणाशिनः । त एष तस्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥' इति ॥ २६१ ॥ अथ श्रुतज्ञानस परोक्षगानेकान्तप्रकाशत्वं दर्शयति सव्वं पि अणेयंतं परोक्ख-रुषेण जं पयासेदि । तं सुय-णाणं' भण्णदि संसय-यहुदीहि परिचत्तं ॥ २६२॥ [छाया-सर्वम् अपि अनेकान्त परोक्षरूपेण यत् प्रकाशयति । तत् श्रुटज्ञान भव्यते संशवप्रमृतिमिः परित्यतम् ॥] यत्परोक्षरूपेण सर्चमपि जीवादिवस्तु अनेकधर्मविशिष्ट प्रकाशयति तत् श्रुतज्ञानं भण्यदे, जिनोश्रुतशाने कथ्यते । तत्कीदृशम् । संशवप्रभृतिभिः परित्यर्फ संशयविपर्यासानध्यवसायादिमी रहितम् । स्थाणुर्वा पुरुष वा इति खभाव है । शुद्ध द्रव्यार्षिक नयसे शुद्ध खभाव है और अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अशुद्ध खभाव है। तया असद्भूत व्यवहार नयसे उपचरित स्वभाव है। सारांश यह है कि द्रव्योंका जैसा स्वरूप है वैसा ही ज्ञानसे जाना गया है, तथा वैसा ही लोकमें माना जाता है । नयमी उसे वैसा ही जानते हैं । अन्तर केवल इतना है कि प्रमाणसे वस्तुके सब धर्मोको ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने अभिप्रायके अनुसार उसमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुका कथच करता है | यही नय है । इसीसे ज्ञाताके अभिप्रायको भी नय कहा है। तथा जो नाना स्वभावोंको छोड कर वस्तुके एक खभावको कथन करता है यह नय है । नयके भी सुनय और दुर्नय दो भेद हैं । जो वस्तुको प्रतिपक्षी धर्मसे निरपेक्ष एकान्तरूप जानता या कहता है वह दुर्नय है । दुर्नयसे घस्तु स्वरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि यह बतला आये हैं कि वस्तु सर्वथा एकरूप ही नहीं है । अतः जो प्रतिपक्षी धोकी अपेक्षा रखते हुए वस्तुके एक धर्मको कहता या जानता है वही सुनय है । इसीले निरपेक्ष नयोंको मिष्या बतलाया है और सापेक्ष नोंको वस्तुसाधक बतलाया है । खामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोनमें विमलनाथ भगवानकी स्तुति करते हुए कहा है-वस्तु नित्यही है' अथवा 'वस्तु क्षणिकही है जो ये निरपेक्ष नय ख और पर के घातक हैं, हे विमलनाथ भगवन् ! वे ही नय परस्पर सापेक्ष होकर आपके मतमें तत्त्वमूत हैं, और स्त्र और पर के उपकारक हैं ॥ २६१ ॥ आगे कहते हैं कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे अनेकान्तका प्रकाशन करता है । अर्थ-जो परोक्ष रूपसे सब वस्तुओंको अनेकान्त रूप दर्शाता है, संशय आदिसे रहित उस ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं ।। भावार्थ-तीन मिथ्याज्ञान होते हैं-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । यह ढूंठ है अथवा आदमी है ? इस प्रकारके चलित ज्ञानको संशय कहते हैं । सीपको १म सुअणाणं, म सुयनाणं भन्नादि । २सग परिचित । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२६९चलिता प्रतिपत्तिः इति संशयः संदेहः । शुक्तिकायर्या रजतज्ञानमिति विपर्यासः विपरीतः विभ्रमः । गच्छतः पुंसः तुणस्पर्शस्य सो वा शंखला पा इति ज्ञानमनध्यवसायः मोहः । इत्यादिभिर्विवर्जितं श्रुतज्ञानम् । तथा चोक्त श्रीसमन्तभद्रैः । 'स्थाद्वादकैवलज्ञाने सर्ववस्तुप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच वस्त्वन्यतम भवेत् ।।' इति ॥ २२ ॥ अथ लोकव्यवहारस्य नयात्मक दर्शयति लोयाणं ववहारं धम्म-विवक्षाई जो पसाहेदि। सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णो लिंग-संभूदो ॥ २६३ ॥ [छाया-लोकाना व्यवहार धर्मविवक्षया यः प्रसाधयति। श्रुतज्ञानस्य विकल्पः सः अपि नयः लिासंभूतः ।।] यः नाडी प्रतिवादी वा धर्मविवक्षया अस्तिनास्सिनित्यानित्यमेदामेदैकाने कायनेकखमा वकुमिच्छया लोकानां जनानो चांदी जानना विपर्यय ज्ञान है । मार्गमें चलते हुए किसी वस्तुका पैरमें स्पर्श होने पर कुछ होगा' इस प्रकारके ज्ञानको अनध्यबसाय कहते हैं । इन तीनों मिथ्याज्ञानोंसे रहित जो ज्ञान अनेकान्त रूप वस्तुको परोक्ष जानता है वही श्रुतज्ञान है। पहले श्रुतज्ञानको परोक्ष बतलाया है, क्यों कि वह मनसे होता है तथा मतिपूर्वकही होता है । श्रुतज्ञानके दो मूल भेद है-एक अनक्षरात्मक और एक अक्षरात्मक | स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु इन चार इन्दियोंसे होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है वह अनक्षत्मक श्रुतज्ञान है । तथा शब्दजन्य मतिज्ञानर्थक होनेवाले श्रुतज्ञानको अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । शास्त्रसे तथा उपदेश वगैरहसे जो विशेष ज्ञान होता है वह सब श्रुतज्ञान है । शाओंमें समी वस्तुओंके अनेकान्तस्वरूपका वर्णन होता है। अतः श्रुतज्ञान सभी वस्तुओंको शाम वगैरहके द्वार जानता है, किन्तु शासके बिना अथवा जिनके वचनोंका सार शास्त्रमें हैं उन प्रत्यक्षदर्शी केवलीके बिना सब वस्तुओंका झान नहीं हो सकता । इसीसे समन्तभद्र खामीने आतमीमांसामें श्रुतज्ञानका महत्व बतलाते हुए कहा है-'श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, दोनों ही समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूपसे जानता है । जो श्रुतज्ञान और केवलज्ञानका विषय नहीं है वह अवस्तु है । अर्थात् ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो इन दोनों शानोंके द्वारा न जानी जासके ।। २६२ ।। श्रुतज्ञानका स्वरूप बतलाकर श्रुतज्ञानके भेद नयका स्वरूप बतलाते हैं । अर्थ-जो वस्तुके एक धर्मको विवक्षासे लोकव्यवहार को साधता है वह मय है । नय श्रुतज्ञानका मेद है तथा लिंगसे उत्पन्न होता है । भावार्थ-लोकव्यवहार नयके द्वारा ही चलता है; क्यों कि दुनियाके लोग किसी एक धर्मकी अपेक्षासे ही वस्तुका व्यवहार करते हैं । जैसे, एक राजाके पास सोनेका धडा या । उसकी लडकीको वह बहुत प्यारा था । वह उससे खेला करती थी। किन्तु राजपुत्र उस घडेको तुडवाकर मुकुट बनवानेकी जिद किया करता था । उसे घडा अच्छा नहीं लगता था । एक दिन राजाने घडेको तोड कर मुकुट बनवा दिया। घडेके टूटनेसे लडकी बहुत रोई, और मुकुटके बन जानेसे राजपुत्र बहुत प्रसन्न हुआ । किन्तु राजाको न शोक हुआ और न हर्ष हुआ । इस लौकिक दृष्टान्तमें लडकीकी दृष्टि केवल घोके नाश पर है, राजपुत्रकी दृष्टि केवल मुकुटकी उत्पत्ति पर है और राजाकी दृष्टि सोने पर है । इसी तरहसे दुनियाके १५ धिपार । २४ पवासेहि। म ग गाणिस्त । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा व्यवहारे, मेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहार, प्रहणगमनयाचनषितरणादि वस्तु नित्यानित्यादिकं प्रसाधयति निर्मिनोति निष्पादयति, सोऽपि श्रुतज्ञानस्य स्याहादरूपस्य विकल्पः भेदः नयः कथ्यते । कयंभूतो नयः । लिसंभूतः लिोन हेतुरूपेण भूयते स लिगभूतः परार्थानुमानरूपः नूतनविहोवा। अथवा लिसंभूतो नयः कय्यते ॥ २६४॥ मथ नानाखभावयुकस्य यस्तुनः एकखभावग्रहण नयापेक्षया कथ्यते इत्याह णाणा-धम्म-जुदं पि' य एयं धर्म पि बुच्चदे अत्थं । तस्सेयं-विवक्खादो णस्थि विवक्खा हुँ सेसाणं ॥ २६४ ॥ छाया-नानाधर्मयुतः अपि च एकः धर्मः अपि उच्यते अर्थः । तस्य एकविवक्षात: नाम्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥] मानाधर्मयुक्तोऽपि अर्थ: अनेकप्रकारवभावसहितोऽपि जीवादिपदार्थः स्वदल्या दिग्राहकेण अस्तिस्वभावः, परद्रव्यादिग्राहकेय नास्तिखभावः, उत्पाहव्ययगौणत्वेन सत्तामाहफेण नित्यस्वभावः, केनचित्पर्यायाधिकेन अनित्यखभाषः। एवमेकानेकमेदामेदचेतनाचेतनामूर्तादिस्वभावयुक्तोऽपि जीवादिपदार्थः। तस्य अर्थस्य एको धर्मः,जीवो नित्य एव, जीवोऽस्त्येव इत्याद्यस्वभावविशिष्टः उन्यते कथ्यते । कुतः एकधर्मविवक्षातः एकखभाववतुमिच्छातः, न तु अनेकधर्माणामभावात् । हुस्फुटम् । शेषाणाम् अनित्यत्वनास्तित्वायनेक्रधर्माणां तत्र वस्तुनि विवक्षा नास्ति ॥ २६४ ॥ अथ धर्मवाचकशब्दतज्ज्ञानानो नयत्वं दर्शयति सो चिय एको धम्मो वाचय-सद्दो वि तस्स धम्मस्स । जं जाणदि तं नाणं ते तिणि वि णय-विसेसा य ॥ २६५ ॥ पर्यायधुद्धि लोग पर्यायकी अपेक्षा वस्तुको नष्ट हुआ अथवा उत्पन्न हुआ देखते हैं और द्रव्यदृष्टि लोग उसे नुत्र मानकर वैसा व्यवहार करते हैं, अतः लोकव्यवहार नयाधीन है । किन्तु सच्चा नय वस्तुके जिस एक धर्मको ग्रहण करता है उसे युक्तिपूर्वक ग्रहण करता है । जैसे वस्तुको यदि सत् रूपसे ग्रहण करता है तो उसमें हेतु देता है कि अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तु सत्रूप है। इस तरह नय हेसुजन्य है। इसीसे अष्टसहस्रीमें श्रुतज्ञानको अहेतुशद और नयको हेतुवाद कहा है। जो बिना हेतुके वस्तुके किसीभी एक धर्मको स्वेच्छासे ग्रहण करता है वह नय नहीं है ॥ २६३ ॥ आगे, नाना स्वभाववाली वस्तुके एक स्वभावका ग्रहण नयकी अपेक्षासे कैसे किया जाता है, यह बतलाते हैं । अर्थ-नाना धसे युक्तमी पदार्थके एक धर्मको ही नय कहता है; क्योंकि उस समय उसी धर्मको विवक्षा है, शेष धर्मोकी विवक्षा नहीं है ।। भावार्थ-पद्यपि जीवादि पदार्थ अनेक प्रकारके धमीसे युक्त होते हैं खद्रव्य आदिकी अपेक्षा स्वभाव हैं, पर द्रव्य आदिकी अपेक्षा असस्वभाव है, उत्पाद व्ययको गौण करके भुवनकी अपेक्षा नित्य हैं, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य हैं । इस तरह एकत्व, अनेकन्व, भेद, अभेद, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तस्त्र आदि अनेक धर्मयुक्त है। किन्तु उन अनेक धर्मो से नय एकही धर्मको ग्रहण करता है। जैसे, जीय नित्य ही है या सस्वभाव ही है, क्योंकि उस समय वक्ताकी इच्छा उसी एक धर्मको ग्रहण करनेकी अथवा कहनेकी है | किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वस्तुमें अनेक धर्म नहीं है इसलिये वह एक धर्मको ग्रहण करता है, बल्कि शेष धर्मोंके होते हुए भी उनकी विवक्षा नहीं है इसीसे वह विवक्षित धर्मको ही ग्रहण करता है ।। २६४ ॥ आगे, वस्तुके धर्म, उसके वाचक शब्द तथा उसके ज्ञानको नय कहते हैं । अर्थ . छग धम्म पि, सम्म पि । २स ग तस्सेव म तम्सेयं । ३सम विवक्रतो । ४ स हि । ५म चिय । ६समस गमें। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २६६ छाया - स एव एकः धर्मः वाचकशब्दः अपि तस्य धर्मस्य । यत् जानाति तत् ज्ञानं ते त्रयोऽपि नयविशेषाः ॥] च पुनः, ते त्रयो नयविशेषाः ज्ञातव्याः ते के स एव एको धर्मः नित्योऽनिलो ना, अस्तिरूपः नास्तिरूपो बा, एकरूपः अनेकरूपो वा, इत्यायेकस्वभावः जयः । नमप्रातात्वात् इत्येकनयः । १ । तस्य धर्मस्य नित्यत्वाद्येकस्वभावस्य वाचकशब्दोऽपि तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नयः कथ्यते । ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात् इति द्वितीयो वनयः । २ । तं नित्याधेकधर्म जानाति सत् ज्ञानं तृतीयो नयः । ३ । सकलवस्तुप्राहकं ज्ञानं प्रमाणम्, तदेकदेशग्राहको नमः । इति वचनात् ॥ २६५ ॥ ननु नमानाभेकधर्ममाह करवे मिध्यात्वं स्यात् इत्युक्ति निरस्यति - ते सावेक्खां सुणया णिरवेक्खा ते चि दुण्णया होंति । सयल-वहार-सिद्धी सु-मयादो होदि पियमेणं ॥ २६६ ॥ [छाया से रापेक्षाः दिपेक्षः दुयाः मन्ति। सकलव्यवहारसिद्धिः सुभयतः भवति नियमेन ॥ ] ते त्रयो नयाः धर्मशब्दज्ञानरूपाः सापेक्षाः स्वचिपक्षापेक्षा सहिताः । यथा अस्त्यनित्य भेदादिग्राहका नयाः नास्ति नित्यभेदादिसापेक्षाः सन्तः सुनया शोभननयाः सत्यरूपाः नया भवन्ति । अपि पुनः, ते त्रयो नया धर्मशब्दज्ञानरूपाः निरपेक्षाः खविपक्षापेक्षारहिताः । यथा नास्तिनिरपेक्षः सर्वथा अस्तिस्वभावः, अनित्यत्वनिरपेक्षः सर्वथा नित्यस्वभाषः, अभेदत्वनिरपेक्षः सर्वथा भेदस्वभावः । इत्यादिनिरपेक्षा नया दुर्णया भवन्ति । तथा चोक्तम् । 'दुर्णयैकान्तमारुडा १९० 3 वस्तुका एक धर्म, उस धर्मका वाचक शब्द और उस धर्मको जाननेवाला ज्ञान, ये तीनों ही नयके भेद हैं | भावार्थ- नयके तीन रूप हैं - अर्थरूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप । वस्तुका एक धर्म अर्थरूप नय है, उस धर्मका वाचक शब्द शब्दरूप नय है, और उस धर्मका ग्राहक ज्ञान ज्ञानरूप नय है । वस्तुका एक धर्म नयके द्वारा ग्राह्य है इसलिये उसे नय कहा जाता है। और उसका वाचक शब्द तथा ग्राहक ज्ञान एक धर्मको ही कहता अथवा जानता है इस लिये वह तो नय है ही || २६५ ॥ यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि जब एकान्तवाद मिथ्या है तो एक धर्मका ग्राहक होनेसे नय मिष्या क्यों नहीं है ! इसीका आगे समाधान करते हैं। अर्थ-ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं। सुनयसे ही नियमपूर्वक समस्त व्यवहारोंकी सिद्धि होती है । भावार्थये तीनोंही नय यदि सापेक्ष होते हैं, अर्थात् अपने विपक्षीकी अपेक्षा करते हैं तो सुनय होते हैं। जैसे सत्, अनित्य और अभेदको ग्रहण करनेवाले नय असत् अनित्य और भेदकी अपेक्षा करनेसे सुनय यानी सच्चे नय होते हैं | और यदि ये नय निरपेक्ष होते हैं अर्थात् यदि अपने विपक्षीकी अपेक्षा नहीं करते, जैसे वस्तु असत् से निरपेक्ष सर्वथा सत्खरूप है, अनित्यत्वसे निरपेक्ष सर्वथा नित्यखरूप है या अभेद निरपेक्ष सर्वथा भेदरूप है ऐसा यदि मानते जानते अथवा कहते हैं तो वे दुर्नय हैं। कहा भी है- 'दुर्नयके विषयभूत एकान्त रूप पदार्थ बास्तविक नहीं हैं क्योंकि दुर्नय केवल स्वार्थिक है, दूसरे नयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपनी पुष्टि करते हैं। और जो खार्थिक अत एव विपरीतग्राही होते हैं वे नय सदोष होते हैं।' इसका खुलासा इस प्रकार है- वस्तुको सर्वथा एकान्तरूपसे सत् मानने पर वस्तु नियतरूपकी व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि जैसे वह खरूपसे सत् है वैसेही पर रूपसे भी सत् है। अतः घट पट चेतन अचेतन कोई मेद नहीं रहेगा और इस तरह संकर आदि दोष उपस्थित होंगे। तथा वस्तुको एकान्तरूपसे सर्वथा असत् मानने पर सब संसार शून्यरूप हो जायेगा । सर्वथा निक्ष्यरूप १ क मस साविक्या... निरविक्ा । २ ग विवहार व णेयमेण । 1 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. लोकानुप्रेक्षा भावानां खार्थिका हि ते । स्वार्थिकाच विपर्यस्ताः सकलङ्का नया यतः। तत्कथम् । तथाहि । सर्वथा एकान्तेन सद्रूपस्य म नियतार्थव्यवस्थासंकरादिदोषत्वात् , तथा सद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात, नित्यस्यैकरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारिताभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । भनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वात् अर्थक्रियाकारिस्वाभावः । अयक्रिया गरिस्वाभाचे द्रष्यस्थाप्यभावः । एकस्वरूपस्सैकान्तेन विशेषाभावः, सर्वथकरूपत्वात विशेषामावे सामान्यस्याप्यभावः । 'निर्विशेष हि सामान्य भवेत्सरविषाणवतू । सामान्यरहितत्वाच विशेषसद्धयेव हि ॥ इत्यादिनिरपेक्षा नया दुर्णया: असत्यरूपा अनर्थकारिणः सन्ति । नियमेन अवश्यं मुणयादो सुनयेभ्यः सत्यरूपनयेभ्यः सकलव्यवहारसिद्धिः, सकलब्यवहाराणां भेदोपचारेण सकलवस्तुव्यवहारक्रियमाणाना ग्रहणदानगमनागमनयजनयाजनस्थापनादिम्यवहाराणा सिद्धिः निष्पत्तिर्भवति ।। २६६ ॥ अथ परीक्षज्ञानामनुमानं निर्दिशति जं जाणिज्जइ जीवो इंदिय-बाबार-काय-चिट्ठाहिं । तं अणुमार्ण भण्णादि तं पि णयं बहु-विह जाण ॥ २६७ ।। [छाया-यन् जानाति जीवः इन्द्रियव्यापारकायचेष्टाभिः । तत् अनुमान भण्यते तम् अपि नम बहुमिषं जानीहि ॥] इन्द्रियव्यापारकायचेटाभिः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु धोत्रैः मनसा च व्यापारैः गमनागमनादिलक्षण: कायचेष्टाभिः शरीराकारविशेषः जीपः आत्मा यत् मानाति तमपि अनुमाननयं ज्ञानं भगति कथयति । अथवा इखियाणा स्पर्शनादीनां व्यापाराः विषयाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दरूपाः तः जीवः यत् जानाति तद् अनुमानज्ञानं कथयति । साधनात् सभ्यविज्ञानमनुमानम्, इष्टमबाधितमसिद्ध साध्या साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः । बधा वस्तुको मानने पर उसमें अर्थक्रिया नहीं बनेगी और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुका ही अभाव हो जायेगा। सर्वथा अनित्य माननेपर वस्तुका निरन्वय बिनाश होजानेसे उसमें भी अक्रिया नहीं बनेगी । और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुका भी अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा एकरूप माननेपर उसमें विशेष धोका अभाव हो जायेगा, और विशेषके अभाव में सामान्यका भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि रिना विशेषका सामान्य गधेके सींगकी तरह असंभव है और बिना सामान्यके विशेष भी गधेके सींगकी तरह संभव नहीं है । अर्थात् सामान्य विशेषके बिना नहीं रहता और विशेष सामान्यके बिना नहीं रहता। अतः निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं । इस लिये सापेक्ष सुनयसे ही लोकव्यवहारकी सिद्धि होती है ॥२६॥ आगे परोधज्ञान अनुमानका खरूप कहते हैं । अर्थ-इन्द्रियोंके व्यापार और कायकी चेष्टाओंसे जो जीवको जानता है वह अनुमान ज्ञान है। यह भी नय है। इसके अनेक भेद हैं। भावार्थ-जीवद्रव्य इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं देता । किन्तु जिस शरीरमें जीव रहता है यह शरीर हमें दिखाई देता है । उस शरीरमें आंख, नाक, कान वगैरह इन्द्रियां होती हैं । उनके द्वारा वह खाता पीता है, संधता है, जानता है, हाथ पैर हिलाता है, चलता फिरता है, बातचीत करता है, बुलानेसे आजाता है । इन सब चेष्टाओंको देखकर हम यह जान लेते हैं कि इस शरीरमें जीव है । यही अनुमान ज्ञान है । साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । तया जो सिद्ध करनेके लिये इष्ट होता है, जिसमें कोई बाधा नहीं होती तथा जो असिद्ध होता है उसे साध्य कहते हैं । और जो साध्यके होने पर ही होता है उसके अभावमें नहीं होता उसे साधन कहते हैं । जैसे, इस पर्षतपर आग है, क्योंकि धुआं उठ रहा है जैसे रसोईघर । यह अनुमान ज्ञान है । इसमें आग साध्य है और धुआं साधन है; क्योंकि आगके होने पर ही धुआं होता है और आगके अभाव नहीं होता । अतः धुआंको देखकर आगको जान लेना अनुमान ज्ञान है । इस अनुमानके अनेक भेद परीक्षामुख वगैरहमें बतलाये हैं । अथवा परोक्ष ज्ञानके Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २६८ पर्वतोऽयमभिमान् धूमवत्वात् महानसवत, इत्यादि अनुमानं ज्ञानम्, तदपि नयम् । परोक्षज्ञानं बहुविधमनेक प्रकार स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागममेदं जानीहि ॥ २६७ ॥ अथ नयमेदान् निर्दिशति सो संग्रहेण एक्को' दु-विहो वि य दव परहिंतो । तेसिं च विसेसादो पणइगम पहुदी हवे णाणं ॥ २६८ ॥ [ छाया-स संग्रहेन एकः द्विविधः अपि च द्रव्यपर्ययाभ्याम् । तयोः च विशेषात नैगमप्रभृति भवेत् ज्ञानम् ॥ ] स नः एकम् एकप्रकारे सेग्रहेण संभनयेन द्रव्यपर्याययोर्भेदमकृत्वा सामान्येन नयः एको भवति । अपि पुनः स नयः द्विविषः । काभ्याम् । द्रव्यपर्यायाभ्याम् एको द्रव्यार्थिकनयः द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः द्रव्यग्रहणप्रयोजनत्याच द्वितीयः पर्यायार्थिकः पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिको नयः, पर्यायग्रहणप्रयोजनत्वाच । देसि च तयोः द्रव्यपर्यायोक्ष द्वयोर्विशेषात् विशेषलक्षणात् ज्ञानं नयलक्षणप्रमाणं ज्ञानैकदेश वा नैगमप्रभृतिकं भवेत् । नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रण ब्दसमभिरुचैनं भूतप्रमुखज्ञानं नयरूपो बोधः स्यात् । नेगम संग्रहष्यनद्वारनमास्त्रयो द्रष्यार्थिकाः । ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढैर्वभूता नयाश्वत्वारः पर्यायार्थिकाच इति ॥ २६८ ॥ जो साहदि सामण्णं अविणा-भूदं विसेस रूदेहिं । जाणा - जुत्ति बलादो दवत्थो सो णओ होदि ॥ २६९ ॥ [ छाया-यः कययति सामान्यम् अविनाभूतं विशेषस्यैः । नानायुकिबलात् द्रव्यार्थः स नयः भवति ॥ ] यः नयः साधयति विषयीकरोति गृहातीत्यर्थः । किं तद् । सामान्यं निर्विशेष सत्वं द्रव्यत्वात्मत्यादिरूपम् । तत् कीदृ सामान्यम् । विशेषरूपैः अविनाभूर्त जीवास्विवपुद्गलासित्वधर्मास्तित्वादिस्वभावेः अविनाभूतम् एकैकमन्तरेण न स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये अनेक भेद बतलाये हैं । यहाँ प्रन्थकारने अनुमान ज्ञानको जो नय बतलाया है वह एक नईसी बात प्रतीत होती है। क्योंकि अकलंक देव वगैरहने अनुमान ज्ञानको परोक्ष प्रमाणके मेदोंमें ही गिनाया है। और अन्य किसी भी आचार्यने उसे नय नहीं बतलाया । किन्तु जब नय हेतुवाद है तो अनुमान भी नयरूप ही बैठता है । इसके लिये अष्टसहस्रीकी कारिका १०६ देखना चाहिये ॥ २६७ ॥ आगे नयके भेद कहते हैं। अर्थ- संग्रह अर्थात् सामान्यसे नय एक है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेदसे दो प्रकारका है। उन्हीं दोनोंके भेद नैगम आदि ज्ञान है || भावार्थ- द्रव्य और पर्यायका भेद न करके सामान्यसे नय एक है । और द्रव्य तथा पर्याय के भेदसे नयके भी दो भेद हैं--एक द्रव्यार्थिक नय, एक पर्यायार्थिक नय । जिस नयका विषय केवल द्रव्य ही है वह द्रव्यार्थिक नय है । और जो नय केवल पर्यायको ही ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है। इन दोनों नयोंके नैगम आदि अनेक भेद हैं। नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं। और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ये चार पर्यायार्थिक नय है ॥ २६८ ॥ आगे द्रव्यार्थिक नयका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो नय बस्तुके विशेष रूपोंसे अविनाभूत सामान्यरूपको नाना युक्तियोंके बलसे साधता है वह द्रव्यार्थिक नय है | भावार्थ - जो नय वस्तु के सामान्य रूपको युक्तिपूर्वक ग्रहण करता है वह द्रव्यार्थिक नय है । किन्तु यह सामान्य विशेष I से निरपेक्ष नहीं होना चाहिये। बल्कि विशेषोंका अविनाभावी, उनके विना न रहनेवाला और उनके सद्भाव में ही रहनेवाला होना चाहिये । अन्यथा वह नय सुनय न होकर दुर्नय होजायेगा । आलाप १ स एको (१) । २ सवि । ३ स यगम । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७०] १०. लोकानुप्रेक्षा १९३ भूयते स इत्यधिनाभूतं सहभूतमित्यर्थः । कुतः । नानायुक्कियलात् अनेकतर्कशानादिखलात् सध्यार्थिकःनयो सातव्यो भवति । तथाहि । काँपाधिनिरपेक्षशजव्यार्थिकः, यथा संसारी जीयः सिद्धसहक शुद्धात्मा। १। उत्पादच्ययगीणस्वेन सत्ताप्राइकशुद्धदम्मार्थिकः, यथा द्रव्यं नित्यम् । २ । भेदकल्पनानिरपेक्षशुद्धाव्यार्थिकः, यथा निजगुणपर्यायखभावात् द्रव्यमभिन्नम्। ३ । कर्मोपाधिसापेक्ष-अशुद्धद्रन्याधिकः, यथा क्रोधादिकमंजमावः आत्मा।४। उत्पादश्ययसापेक्ष-अशुद्धदव्यार्थिः, यथा एकस्मिन् समये द्रव्यम् उत्पादव्ययप्रौव्यात्मकम् । ५ । मेदकल्पनासापेक्ष -अशुद्धन्यायिकः, यथा आत्मनः दर्शनशानादयो गुणाः । ६ । अन्वयद्रव्यायिकः, यथा गुणपर्यायखभाष द्रव्यम् । ७ । स्वदन्यादिप्रादकद्रव्यार्थिः, यया खाव्याविचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति । ८। परद्रग्यादिप्राहकदच्यार्थिकः, यथा पाद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति ।९। परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकः, यथा ज्ञानस्वरूपात्मा अत्र अनेकखभावाना मध्ये ज्ञानाख्यपरमखभावो गृहीतः।१०। इति द्रव्यार्थिकस्य दश मेदाः ॥ २६९॥ अथ पर्यायार्थिकमयं साधयति जो साहेदि विसेसे बहु-विह-सामण्ण-संजुदे सके । साहण-लिंग-वसादो पज्जय-विसओ ओ होदि ॥ २७ ॥ [छाया-यः कथयति विशेषान् बहुविधसामान्यसंयुतान् सर्वान । साधनलिङ्गवशात् पर्यय विषयः नयः भवति ॥ ] यः पर्यायार्थिको नयः साधयति साध्यसिदि कारयति । कान् । सर्वान् विशेषान् पर्यायान् उत्पादब्ययाव्यलक्षणान् । कीदृशान् । बहुविधसामान्यसंयुक्तान , बहुविधसामान्यः संयुक्कान् । अस्तित्व नित्यत्वकत्वभिमत्वादिसामान्यर नाभूतान् । कुतः साधयति । साधनलिसवशात पतानिवनाग्निसाधनधूमहेतुवशात्, पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्वात् , मिदम भिमत् धूमस्वात् । सर्व वस्तु परिणामि सदान्यथानुपपत्तेः इत्यादिहेतुषशात् । स पर्यायाथिको नयः पर्यायविशेषविषयो भवति । पद्धति में द्रव्यार्थिकके दस भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार है-कर्मोकी उपाधिसे निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यका विषय करनेवाला नय शुद्ध द्रव्यार्थिक है । जैसे संसारी जीव सिद्धके समान शुद्ध है १ । उत्पाद व्ययको गौण करके सत्ता मात्रको ग्रहण करनेवाला शुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे द्रव्य नित्य है २ । भेद कल्पनासे निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे अपने गुणपर्याय स्वभावसे द्रव्य अभिन्न है ३ | कोंकी उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यको विषय करनेवाला नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, जैसे आत्मा कर्मजन्य क्रोधादि भाववाला है ४ । उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे एक समयमें द्रव्य उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक है ५। भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे आत्माके दर्शन, ज्ञान आदि गुण हैं ६ । अन्वय दयार्थिक, जैसे द्रव्य गुणपर्यायस्वभाव है ७। खद्रव्य, स्वक्षेत्र आदिका ग्राहक द्रव्यार्थिक, जैसे खद्रव्य आदि चतुष्टय (चार) की अपेक्षा द्रव्य है ८ । परद्रव्य, परक्षेत्र आदिका ग्राहक द्रव्यार्थिक, जैसे परद्रव्य आदि चारकी अपेक्षा द्रव्य नहीं है ९ । परमभावका ग्राहक द्रव्यार्थिक, जैसे आत्मा ज्ञान खरूप है । यद्यपि आत्मा अनेक स्वभावयाला है किन्तु यहाँ अनेक खभावोंमेंसे ज्ञान नामक परमस्वभावको ग्रहण किया है १० । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयके दस भेद हैं ॥ २६९॥ आगे पर्यायार्थिक नयका स्वरूप कहते है । अर्थ-जो नय अनेक प्रकारके समान्य सहित सब विशेषोंको साधक लिंगके बलसे साधता है वह पर्यायार्थिक नय है || भावार्थ-जो नय युफिके बलसे पर्यायोंको ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है । किन्तु वे पर्याय अथवा विशेष सामान्यनिरपेक्ष नहीं होने चाहिये; अन्यथा वह दुर्नय होजायेगा । अतः अस्तित्व, नित्यत्व, एकत्व, भिन्नत्व आदि सामान्योंसे अविनाभूत उत्पाद, १-पुस्तके गाथेयं विषारमत्राभ्यत्र च लिखिता पाठभेदैः । पालान्तराणि च एवंविधानि-बिसेस संजुदे तो, नकोदोदि । २ग विसेसो । ३ग विमयो गयो। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २७१ तथाहि । अनादिनित्य पर्यायार्थिकः यथा पुत्रलपर्यायो नित्यः मेर्वादिः । १ । सादिनित्यपर्यायार्थिकः यथा सिद्धजीवपर्यायो हि सादिनित्यः । २ । सत्तागौणत्वेन उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव नित्य शुद्धपर्यायार्थिकः । यथा समयं समयं प्रति पर्यायाः विनाशिनः । २ । सत्ताखापेक्षख भाव नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकः, यथा एकस्मिन् समये प्रयात्मकः पर्यायः । ४ कर्मोपाधिनिरपेक्ष स्वभाव निमशुद्ध पर्यायार्थिकः, यथा सिद्धपर्यायसदृशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः । ५ कर्मोपाधिसापेक्ष ख भा• वानित्य अशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा संसारिणाम् उत्पत्तिमरणे स्तः । ६ । इति पर्यायार्थिकस्य षड्मेदाः ॥ २७० ॥ अथेदानीं नयानां विशेषलक्षणं कार्त्तिकेयखाभी कथयन् सभेदे नैगमनयं व्याचष्टे जो साहेदि अदीदं वियप्ण-रूवं भविस्समङ्कं च । संप कालावसो हु 'णओ 'गमो णेओ ॥ २७१ ॥ [ छाया-यः कथयति अतीतं विकल्परूपं भविष्यमर्थ च । संप्रति कालाविष्टं स खलु नयः नैगमः ज्ञेयः ॥] स्फुटं नैगमो जयः ज्ञेयः ज्ञातव्यः । नैकं गच्छतीति निगमो विकल्पः बहुभेदः । निगमे भवो नैगमः यः नैगमनयः । अवी भूतम् अतीतार्थं विकरूपरूपं वर्तमानारोपणम् अर्थ पदार्थ वस्तु साधयति स भूतनैगमः । यथाथ वीपोत्सवदिने वर्धमानखामी मोक्षं गतः । १ । च पुनः भविध्यन्तम् अर्थम् अतीतवत् कथनं भाविनि भूतवत्कथनं भाविनैगमः, यथा भईन् सिद्ध एव । २ । संप्रतिकाला विष्टं वस्तु इदानीं वर्तमानकालाविष्टं पदार्थ साधयति स वर्तमाननैगमः । अथवा कर्तुभारब्धम् ईषसिध्वजम् अनिष्पक्षं वा वस्तु निष्पन्नषत् कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमः, यथा ओदनं पच्यते । इति व्यय और धौम्य लक्षणरूप पयोंको जो हेतुपूर्वक ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है अर्थात् पर्यायको विषय करनेवाला नय हैं । इस नयके छः भेद है - अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय, जैसे मेरु वगैरह पुलकी नित्य पर्याय है । अर्थात् मेरु पुगलकी पर्याय होते हुए भी अनादि कालसे अनन्तकाल रहता है १ । सादिनित्य पर्यायार्थिक नय, जैसे सिद्ध पर्याय सादि होते हुए मी नित्य है २ । सत्ताको गौण करके उत्पाद व्ययको ग्रहण करनेवाला निस्यशुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे पर्याय प्रतिसमय विनाशीक है ३ । सत्ता सापेक्ष नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे पर्याय एक समय में उत्पाद व्यय प्रौव्यारमक है ४ । कर्मकी उपाधि से निरपेक्ष नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे संसारी जीवोंकी पर्याय सिद्ध पर्यायके समान शुद्ध है ५ । कर्मोंपाधि सापेक्ष अनिल अशुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे संसारी जीवोंका जन्म मरण होता है ६ ॥ २७० ॥ आगे नयके भेदोंका लक्षण कहते हुए कार्त्तिकेय स्वामी नैगमनयको कहते हैं । अर्थ-जो नय अतीत, भविष्यत् और वर्तमानको विकल्परूपसे साधता है वह नैगमनय है । भावार्थ- 'निगम' का अर्थ हैसंकल्प विकल्प । उससे होनेवाला नैगमनय है। यह नैगमनय द्रव्यार्थिक नयका भेद है। अतः इसका विषय द्रव्य है । और द्रव्य तीनों कालोंकी पर्यायोंमें अनुस्यूत रहता है । अतः जो नय द्रव्यकी अतीत कालकी पर्यायमें भी वर्तमानकी तरह संकल्प करता है, आगामी पर्याय में मी वर्तमानकी तरह संकल्प करता है और वर्तमानको अनिष्पन्न अथवा किंचित् निष्पन्न पर्याय में भी निष्पन्न रूप संकल्प करता है, उस ज्ञानको और वचनको नैगम नय कहते हैं। जो अतीत पर्याय में वर्तमानका संकल्प करता है वह भूत नैगम नय हैं। जैसे आज दीपावलीके दिन महावीर स्वामी मोक्ष गये। जो भावि पर्याय में भूतका संकल्प करता है वह भावि नैगमनय है, जैसे अर्हन्त भगवान् सिद्ध ही हैं । जो वस्तु बनाने का संकल्प किया है वह कुछ बनी हो अथवा नहीं बनी हो, उसको बनी हुईकी तरह कहना अथवा १ क मस यो गमो यो । २ व गमो (१) । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RUR] १०. लोकानुप्रेक्षा १९५ I वर्तमाननैगमः | ३ | तथाहि कञ्चित्पुमान् करकृत कुठारो वनं गच्छति, तं निरीक्ष्य कोऽपि पृच्छति, त्वं किमर्थ वज । स प्रोवाच । अहं प्रस्थमानेतुं गच्छामि इत्युक्ते तस्मिन् काळे प्रस्थ पर्यायः समीपे न वर्तते, प्रस्थो पटयित्वा भृतो न वर्तते किं तर्हि तदभिनिवृत्तये प्रस्थ निष्पत्तये संकल्प मात्रे काष्ठानयने प्रस्थव्यवहारो भवति । एवम् इन्धनजलानलायानयने कश्वित्पुमान् व्याप्रियमाणो वर्तते । स केनचित्पृष्टः, किं करोषि स्वमिति, तेनोच्यते । अमोदनं पचामि । न च तस्मिन् प्रस्ताबे ओदनपर्यायः, अनिष्पन्नोऽसि । किं तर्हि ओश्नपचनार्थ व्यापारोऽपि ओदनपवनमुच्यते । एवंविधो लोकव्यवहारः अनिष्पनार्थः । संकल्प मात्र विषयो वर्तमाननैगमस्य गोचरो भवतीत्यर्थः ॥ २७९ ॥ अथ विशेषसामान्य संग्रहनयं व्यनति जो संगहृदि सबं देर्स वा विविह-दब-पज्जाय 1 अणुगम-लिंग-विसिद्धं सो वि 'णओ संगहो होदि ॥ २७२ ॥ [ छाया यः संगृह्णाति सर्व देशं वा विविधद्रव्यपर्यायम् । अनुगमलिङ्गविशिष्टं सः अपि नयः संग्रहः भवति ॥ ] यः संधहनयः सर्वं सन्धं त्रैलोक्यस्कन्धं चतुर्दशरजुप्रमाणं संगृह्णाति सम्यक्प्रकारेण स्वविषयीकरोति । कथंभूतं सर्व स्कन्धम् । विविधद्रव्यपर्यायं विविधा अनेकप्रकारा द्रव्यपर्याया यस्मिन् स तथोक्तस्तं नानाप्रकारषद्रव्यपर्यायसंयुक्तं सर्व गृह्णाति । वा अथवा देशं तदर्थं स्कन्धं प्रदेशं वा तदर्थार्थ स्कन्धम् । कीदृक्षम् एतत्सर्वम् । विविधद्रव्यपर्यायसहितं गृह्णाति । उक्तं च । 'खंध सयलसमस्ये तस्य य अद्धं भणति देसो ति । अद्धद्धं च पदेसो भविभागी चैव परमाणू ॥' इति वचनात् स्कन्धं सर्वाशसंपूर्ण, तदर्भ देशम्, अर्धस्यार्धं प्रदेशम् अविभागीभूतं परमाणु ज्ञातव्यम् । पुनः कीदृक्षम् । सर्व देशं वा । अनुगमलिङ्गविशिष्टं साध्यसाधकाविना भूत हेतु विशिष्टम् । यथा पर्वते अभिमत्त्वं साध्यते धूमवत्वादिहेतुना । तथा चोक्तम् । 'भेदेनैवमुपानीय जातेर विशेषतः समस्तं संग्रहं यस्मात् स नयः संग्रहो मतः ॥' खजाखविरोधेन एकत्रोपानीय पर्यायान् आकान्तभेदान् विशेषम् अकृत्वा सकले ग्रहणं संग्रहः उच्यते । यथा सदिति प्रोफे गाविज्ञानप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानां विश्वेषां पदार्थानां विशेषमकृत्वा सत्संग्रहः । एवं वन्यमित्युके द्रनति जानना वर्तमान नैगम नय है । जैसे कोई पुरुष कुठार लेकर बनको जाता है । उसे देखकर कोई पूछता है कि तुम किस लिये जाते हो ? वह उत्तर देता है कि मैं प्रस्थ ( अन्न मापनेका एक भाण्ड ) लेने जाता हूँ । किन्तु उस समय वहाँ प्रस्थ नहीं है । अभी तो वह प्रस्थ बनानेके लिये जंगलसे लकड़ी लेने जाता है । उस लकड़ी में प्रस्थका संकल्प होनेसे वह प्रस्थका व्यवहार करता है। इसी तरह एक आदमी पानी, लकड़ी वगैरह रख रहा है। उससे कोई पूछता है कि तुम क्या करते हो? तो वह उत्तर देता है कि मैं भात पकाता हूँ । किन्तु अभी वहाँ भात कहाँ है ? परन्तु भात पकानेके लिये वह जो प्रबन्ध कर रहा है उसीको वह भात पकाना कहता है। इस प्रकारके संकल्प मात्रको विषय करनेवाला लोकव्यवहार वर्तमान नैगम नयका विषय है | २७१ ॥ आगे संग्रह नयका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो नय समस्त वस्तुका अथवा उसके एक देश (भेद ) का अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वय लिंगविशिष्ट संग्रह करता है उसे संग्रह नय कहते हैं | भावार्थ - अपनी जातिके अविरुद्ध समस्त मेदका संग्रह करनेवाले नयको संग्रह नय कहते हैं । जैसे, 'सत्' कहने पर सत्ता के आधार भूत उन सब पदार्थोंका, जिनमें सत् व्यवहार होता है, संग्रह हो जाता है। इसी तरह 'द्रव्य' कहने पर जीवद्रव्य, अजीवद्रव्य तथा उनके भेद-प्रभेदोंका संग्रह हो जाता है। इसी तरह 'घट' कहने पर जिन पदार्थों में वट व्यवहार होता है उन सबका संग्रह हो जाता है । इस तरह अमेदरूपसे वस्तु १ ग गयो । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २७३गच्छति तान् पर्यायान् इति द्रव्यम् । जीवाजीवतद्भेदप्रभेदामा संग्रहो भवति । एवं घर इत्युके पटवुमिधानानुगमलिहानुमिततकलार्थसंप्रदो भवति। अभेदरूपतया वस्तुसमूह जातं संगृहातीति संग्रहः सामान्यसंग्रहः । यथा सर्वाधि द्रष्याणि परस्परम् अपिरोधीनि विशेषसंग्रहः, यथा सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः॥२७॥अथ व्यवहारमय निरूपयति 'जं संगहेण गहिद' विसेस-रहिदं पि भेददे सददं। परमाणू-पजते ववहार-णओ हवे सो हु ॥ २७३ ॥ [छाया-यत् संप्रहेण गृहीतं विशेषरहितम् अपि भेदयति सततम् । परमाणुपर्यन्तं व्यवहारनयः भवेत् स खलु॥ अपि पुनः स व्यवहारनयो भवति । स कः। यत्संग्रहनयेन गृहीतं वस्तु । किंभूतम् । विशेषसहितम् अपि निर्विशेष निरपेक्ष सामान्य महास्करगणात् परमायुपर्यन्तं परमाणुवर्गणापयन्तमयसानं सततं निरन्तर भेददेभेवयति भिनं भि गृहाती त्यर्थः । तथाहि संग्रहेण गृहीतस्यार्थस्य भेदतया वस्तु व्यवहियतेऽनेन व्यवहारः क्रियते व्यवहरणं षा व्यवहारः। संग्रहनयविषयीकृतामा संग्रहनयगृहीतानो पदार्थानां वस्तूनां विधिपूर्वकम् अवहरणं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः। कोऽसी विधिः। संग्रह नयेन गृहीतोऽर्थः स विधिः कथ्यते । संग्रहपूर्वेणैव व्यवहारः प्रवर्तते । तथाहि । सर्वसंप्रहेण यद्वस्तु गृहीतं तहसु विशेष नापेक्षते, तेन कारणेन तद्वस्तु व्यवहाराय समर्थ न भवति । इति कारणात् व्यवहारनयः समाश्रीयते । यत् सत् वर्तते तरिक द्रष्यं गुणो बा, गहन्यं तज्जीवोऽजीयो का इति संव्यवहारो न कर्तुं शक्यः । जीवद्रष्यमित्युके मजीवद्रव्यमिति चोक्के व्यवहारे आश्रिते ते अपि द्वे द्रव्ये संग्रहगृहीते संव्यवहाराय म समर्थ भक्तः। तदर्थ देवनारका दिव्यवहार आश्रीयते । घटादिश्च व्यवहारेण आश्रीयते । एवं व्यवद्दारनयः तावत्पर्यन्त प्रवर्सते यावत्पुनर्विभागो न भवति । तथाहि । सामान्यसंप्रहभेदग्यवहारः, यथा द्रव्याणि जीवाजीवाः ।। विशेषसंप्रभेदकम्यवहार, यथा जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च । २ । इति व्यवहारो देधा ॥ २५ ॥ अथ सूत्रनय सूचयति मात्रका संग्रह कहनेवाला नय संग्रहनय है । किन्तु वह संग्रह विरोध रहित होना चाहिये-यानी घट कहनेसे पटका संग्रह नहीं कर लेना चाहिये, किन्तु घटके ही भेद प्रभेदोंका संग्रह होना चाहिये । संग्रहके दो भेद हैं, एक सामान्य संग्रह, जैसे सत् अथवा द्रव्य | और एक विशेष संग्रह, जैसे जीव या अजीव ॥ २७२ ।। अब व्यवहार नयका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-जो नय संग्रहनयके द्वारा अमेदरूपसे गृहीत वस्तुओंका परमाणुपर्यन्त भेद करता है वह व्यवहारनय है ।। भावार्थ-संग्रहनपके द्वारा संग्रहीत वस्तुओंका विधिपूर्वक भेद करके कथन करनेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं । व्यवहार का मतलब ही व्यवहरण-यानी मेद करना है । किन्तु वह भेद विधिपूर्वक होना चाहिये । अर्थात् जिस क्रमसे संग्रह किया गया हो उसी क्रमसे भेद करना चाहिये । आशय यह है कि केवल संग्रह नयसे लोकका व्यवहार नहीं चल सकता । जैसे 'सत्' कहनेसे विवक्षित किसी एक वस्तुका ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि सत् द्रव्य भी है और गुण भी है। इसी तरह केवल द्रव्य कहनेसे भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि द्रव्य जीव भी है और अजीव भी है । जीव द्रव्य अथवा अजीव द्रव्य कहनेसे भी व्यवहार नहीं चलता । अतः व्यबहारके लिये जीवद्रव्यके नर नारकादि भेदोंका और अजीवद्रव्यके घट पट आदि भेदोंका आश्रय लेना पड़ता है । इस तरह यह व्यवहारनय तब तक भेद करता चला जाता है जब तक भेद करनेको स्थान रहता है | संग्रह नयकी तरह व्यवहार नयके मी दो भेद हैंएक सामान्य संग्रहका भेदक व्यवहारनय, जैसे द्रव्यके दो भेद हैं जीव और अजीव । और एक १५जो (1)। गहिदो (१)। ३ ल समग भने सो वि। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ -२७४] १०. लोकानुप्रेक्षा जो वट्टमाण-काले 'अस्थ-पज्जाय-परिणदं अस्थं । संतं साहदि सवं तं पि णय 'उजुयं जाण ॥ २७४ ॥ [छाया-यः वर्तमानकाले अर्थपर्यायपरिणतम् अर्थम् । सन्त कथयति सर्व तम् अपि नयम् ऋजुक जानीहि ।। तमपि नयम् ऋजुसूत्रनयं जानीहि । ऋजु सरलम् अर्थपर्यायं सत्रयति साधयति तन्त्रप्रति निश्चय करोवीति अजुसूत्रः पचासौ नयः तम् जसवनयं त्वं जानीहि विदिशतकम् । यः ऋजसत्रनयः वर्तमानकाळे प्रवर्तमानसमये एकस्मिन् समयलक्षणे सन्त वर्वमानं विद्यमानं वा अर्थ बीवाविपदार्थ वस्तु साधयति सूत्रयति निक्षयीकरोति गृण्डातीति यावत् । कीरक्षम् अर्थपर्यायपरिणतम् । अर्थपर्यायः सूक्ष्मप्रतिक्षणसी उत्पादध्ययलक्षणः । 'सूक्ष्मप्रतिक्षणध्वंसी पर्यायवार्य: संशका इति वचनात् । तत्र परिणतः तस्पोयं प्राप्तः, तम् अर्थपर्यायपरिगतं सूक्ष्मप्रतिक्षणपर्यायपरिणतम् म साधयति । सूक्ष्मऋजुसूत्रनमः, यथा एकसमयापस्थायी पर्यायः । स्थूलसूत्रः, यथा मनुष्यादिपर्यायास्तदावाप्रमाणकाल तितीति जुसूत्रोऽपि देथा। तपाहि । अतीतस्य विनष्टत्वे अनागतस्यासेजातले व्यवहारस्याभावात् समानसमयमात्रविषयपर्यायमानप्राही ऋजुसूत्रनयः । नन्वेचे सति संव्यवहारलोप: स्यात् सत्यम् । अस्प अजुसूत्रस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शन विधीयते । लोकसंव्यवहारस्तु सर्वनयसमूहचाध्यो भवति । तेन ऋजुसूत्राश्रयेण संन्यबहारलोपो न भवति । यथा कश्चिम्मृतः, तं दृष्ट्रा संसारोऽयं अनित्य इति कविपीति, न च सर्वसंसारोऽनित्यो वर्तते इति । एते नेगमपहव्यवहारबाजुसूचनयाचस्वारः अर्थनयाः, अन्ये वक्ष्यमाणाखायो नयाः शन्दनया इति ॥ २४॥ मय सन्दन समीकसे विशेष संग्रहका भेदक व्यवहारनय जैसे जीवके दो भेद है-संसारी और मुक्त ॥ २७३ ॥ अब ऋजुसूत्र नयका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-वर्तमान कालमें अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्यको जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्र नय है । भावार्थ-ऋजुसूत्र नय वर्तमान समयवर्ती पर्यायको ही ग्रहण करता है । इसका कहना है कि वस्तुकी अतीत पर्याय तो नष्ट हो चुकी और अनागत पर्याय अमी है ही नहीं । इसलिये न अतीत पर्यायसे काम चलता है और न भावि पर्यायसे काम चलता है । काम तो वर्तमान पर्यायसे ही चलता है । अतः यह नय वर्तमान पर्याय मात्रको ही ग्रहण करता है । शायद कोई कहे कि इस तरहसे तो सब व्यवहारका लोप होजायेगा; क्योंकि जिसे हमने कर्ज दिया था वह तो अतीत हो चुका । अब हम रुपया किससे लेंगे। किन्तु बात ऐसी नहीं है । लोक व्यवहार सब नयोंसे चलता है एक ही नयको पकड़कर बैठ जानेसे लोक व्यवहार नहीं चल सकता । जैसे कोई मरा, उसे देखकर किसीने कहा कि संसार अनित्य है । तो इसका यह मतलब नहीं है कि सारा संसार कुछ दिनोंमें समाप्त हो जायेगा, इसी तरह यहाँ मी समझना चाहिये । अस्तु, वस्तु प्रतिसमय परिणमन करती है । सो एकसमयवर्ती वर्तमान पर्यायको अर्पपर्याय कहते हैं क्योंकि शाखमें प्रतिसमय नष्ट होनेवाली सूक्ष्म पर्यायको अर्थपर्याय कहा है । उस सूक्ष्म क्षणवर्ती वर्तमान अर्थपर्यायसहित वस्तु सूक्ष्मऋजुसूत्र नयका विषय है। ऋजुसूत्र नयके भी दो भेद हैं-सूक्ष्मऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र । ग्रन्थकारने उक्त गाथामें सूक्ष्मऋजुसूत्र नयका ही स्वरूप बतलाया है | जो स्थूल पर्यायको विषय करता है वह स्थूल ऋजुसूत्र नय है | जैसे मोटे तौरसे मनुष्य आदि पर्याय आयुपर्यन्त रहती हैं । अतः उसको ग्रहण करनेवाला नय स्थूल ऋजुसूत्र है । ये नैगम, संग्रह, व्यवहार और जुसूत्र नय अर्थनय हैं, और आगे कहे जानेवाले शेष तीन नय शन्दनय हैं, क्यों कि वे शब्दकी प्रधानतासे १ [अत्यं पञ्चाय] 1 २ ल ग त वि णय रुजणय । ३ म रुजुणयं, सरिजुणयं (१)। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० २७५सधेसि क्त्यूण संखा-लिंगादि-बहु-पयारेहिं । । जो साहदि णाणसं सह-णयं तं 'बियाणेह ॥ २७ ॥ [छाया-सर्वेषां धस्तूनां संस्यालिङ्गादियहुप्रकारैः । यः कथयति नानात्वं शब्दनय तं विमानीहि ।। यः शन्दनयः संख्यालिझांदिबहुप्रकारैः एकद्विबहुवचनपुंस्त्रीनपुंसकलिसाशनेकविधेः कृत्वा सर्वेषां पस्सूना सालाना पदार्थानां जीवपुद्गलादीनां गाणसं ज्ञानत्वं ज्ञातृवं नानास्वम् भनेकप्रकारत्वं वा साधयति साध्य करोति तं शब्दनयनामानं नयं जानीहि त्वं विद्धि । तयथा । शब्दात व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धशब्दः शब्दनयः, लिसंख्यासाधनाकीना व्यभिचारस्य निषेधपरः, लिजादीनां व्यभिचारे दोषो नास्तीस्यभिप्रायपरः शब्दनयः उच्यते। लिहव्यभिचारो, यथा पुष्यः नक्षत्रं तारका चेति । संख्याव्यभिचारी, यथा मापा तोय वोः श्रतः दाराः कलत्रम् आम्रा वनं वारणा नगरम् । साधनध्यभिचारः कारफध्यभिचारो, यथा सेना पर्वतमधिक्सति पर्वते तिष्ठतीत्यर्थः । उत्तमादिपुरुषव्यभिचारः, यथा एहि मन्ये रथेन यास्यसि न यास्यसि यातस्ते पिता इति । अस्यायमर्थः । एहि त्वमागच्छ, त्वमेवं मन्यसे अई रथेन यास्यामि । एतावता वं रथेन न यास्यसि । ते तब पिता अमे रथेन यातः, म यात इत्यर्थः । अत्र मध्यमपुरुषस्थाने उत्तमपुरुषः उत्तमपुरुषस्थाने मध्यमपुरुषः। तदर्थ सूत्रमिदम् । 'प्रहासे मम्योपपदे मन्यतेरुतमैकवचनं च। उत्तमे मध्यमस्य । काल. व्यभिचारों, यथा विश्वश्वा अस्य पुत्रो अनिता भविष्यत्कार्यमासीदिति । अत्र भविष्यस्का अतीतकालविभक्तिः। अर्थको विषय करते हैं ॥ २७४ ॥ आगे शब्दनयका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो नय सब वस्तुओंको संख्या लिंग आदि भेदोंकी अपेक्षासे मेदरूप ग्रहण करता है वह शब्दनय है ।। भावार्थ-संख्यासे एकवचन, द्विवचन और बहुवचन लेना चाहिये । लिंगसे स्त्री, पुरुष और नपुंसकलिंग लेना चाहिये । और आदि शब्दसे काल, कारक, पुरुष, उपसर्ग वगैरह लेना चाहिये । इनके भेदसे जो सब वस्तुओंको भेद रूप ग्रहण करता है वह शब्दनय है । वैयाकरणोंके मतके अनुसार एकवचनके स्थानमें बहुवचनका, स्त्रीलिंग शब्दके बदलेमें पुल्लिंग शब्दका, एक कारकके स्थान दूसरे कारकका, उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका और मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुषका तया भविष्यकालमें अतीत कालका प्रयोग किया जाता है । ये महाशय शब्दों में लिंग वचन आदिका मेद होनेपरमी उनके वाध्य अर्थोंमें कोई भेद नहीं मानते । इसलिये वैयाकरणोंका यह मत व्यभिचार कहलाता है । जैसे, एक ही तारेको पुष्य, नक्षत्र और तारका इन तीन लिंगवाले तीन शब्दोंसे कहना लिंगव्यभिचार है। एक ही वस्तुको भिन्न वचनवाले शब्दोंसे कहना संख्याव्यभिचार है। जैसे पानीको आपः (बहुवचन) कहना और जल (एकवचन) कहना । 'सेना पर्वतपर रहती है' के स्थानमें सेना पर्वतको रहती हैं कहना कारकम्यभिचार है (संस्कृत व्याकरणके अनुसार यहाँ सप्तमीके स्थान में द्वितीया विभक्ति होती है)। संस्कृत व्याकरणके अनुसार हंसी मजाक उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका और मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुषका प्रयोग होता है यह पुरुषव्यभिचार है । 'उसके ऐसा पुत्र पैदा होगा जो विश्वको देख चुका है यह काल व्यभिचार है क्यों कि भविष्यत् कालमें अतीतकालकी विभक्तिका प्रयोग है । इसी तरह संस्कृत व्याकरणके अनुसार धातुके पहले उपसर्ग लगनेसे उसका पद बदल जाता है । जैसे ठहरनेके अर्थमें 'स्था' धातु परस्मैपद है किन्तु उसके पहले उपसर्ग लगनेसे वह आत्मनेपद हो जाती है। यह उपग्रहव्यभिचार है । शन्दनय इस १५ बियाणेहि () Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७७] १०. लोकानुप्रेक्षा उपप्रहव्यभिचारो, यथा धा गतिनिवृत्ती परस्मैपदोपग्रहः तंत्र संतिष्ठते अवतिष्ठते प्रतिष्ठते । एवंविधं व्यवहारनयं व्यभिचारलक्षणं न्यायरहित कश्चित्पुमान, मन्यते । कस्मादन्यार्थ मन्यते । अन्यार्थस्य अन्यार्थेन वर्तनेन संबन्धाभाषात् । तत्र शब्दनयापेक्षया दोषो नास्ति, ताई लोकसमये विरोधो भविष्यति, भवतु नाम विरोधः, तत्व परीक्षते, किं तेन विरोधेन भविष्यति । किमाषधं रोगीच्छानुवर्ति वर्तते इति ॥ २५५॥ अथ समभिरूदनयं प्रकाशयति जो एगेगं अत्थं परिणदि-भेदेण साहदेणाण । मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णर्य जाण ॥ २७६ ।। [छाया-यः एकैकम् अर्थ परिणविमेदेन कथयति ज्ञानम् । मुख्यार्थ या भाषते अभिष्टं तं नये आनीहि ॥] सं जगत्प्रसिद्धम् अभिरूढं नयं समभिरुनाख्यं नवं जानीहि विति । परस्परेण अभिरूढः यः समभिरूढः शब्दनयमेदः । अर्थ पदार्थ वस्तु एकै परिणतिभेदेन परिणमनगमनोवेशनजयादिपर्यायमेदेन प्रकारेण साधयति प्रकाशयति गृहाति वा, अथवा मुख्या प्रधानार्थ ज्ञान बोधं भाषते वति, यथा गच्छतीति गौः, गमनखभावः पुषादिकेष्वप्यस्ति तथापि समभिरूढनयमलेन धेनौ प्रसिद्धः । तथाहि । एकमप्यर्थ शब्दभेदेन भिर जानाति यः समभिरूडो नयः । यथा एकोऽपि पुलोमजाप्राणवल्लभः परमैश्रीयुक्तः इन्द्रः सत्यते सः अन्यः शकतात, शकः सोऽप्यन्यः, पुरदारणात् पुरंदरः सोऽप्यन्य इस्यादिशब्दमेदादेकस्याप्यर्थस्य सरकत्वं मन्यते तत् समभिरूटस्य लक्षणम् ॥ २७६ ॥ अथ एवंभूतनये प्ररूपयति जेण सहारेण जदा परिणद-रूवम्मि तम्मयत्तादो। तं परिणाम साहदि जो वि गओ सो हु परमस्थो ॥ २७७ ॥ प्रकारके व्यभिचारको 'अन्याय्य' मानता है । क्यों कि वैयाकरण लोग शब्दमें परिवर्तनके साथ अर्थमें परिवर्तन नहीं मानते। यदि वाचक में परिवर्तन के साथ उसके वाच्य अर्थमेंमी परिवर्तन मान लिया जाता है तो व्यभिचारका प्रसंग नहीं रहता अतः शब्दनय शब्दमें लिंगकारक आदिका भेद होनेसे उसके वाच्य अर्थमेभी भेद खोकार करता है । शायद कहा जाये कि शब्द नय प्रचलित व्याकरणके नियमोंका विरोधी है इसलिये विरोध उपस्थित होगा। इसका उत्तर यह है कि विरोध उपस्थित होता है तो होओ। तत्त्वकी परीक्षा करते समय इस बातका विचार नहीं किया जाता । क्या चिकित्सक बीमारकी रुचिके अनुसार औषधि देता है ? ॥ २७५ ॥ आगे समभिरूद नयका स्वरूप बतलाते हैअर्थ-जो नय प्रत्येक अर्थको परिणामके भेदसे भेदरूप ग्रहण करता है, अथवा एक शब्दके नाना अोंमेंसे मुख्य अर्थको ही कहता है वह सममिरूद नय है ॥ भावार्थ-शब्दनय शब्दभेदसे वस्तुको भेदरूप ग्रहण नहीं करता । किन्तु समभिरूद्ध नय शब्दमेदसे वस्तुको भेदरूप ग्रहण करता है । जैसे खर्ग लोकके खामीको इन्द्र, शक, पुरन्दर कहते हैं । अतः यह नय खर्गके खामीको तीन भेदरूप भानता है । अर्थात् वह आनन्द करता है इस लिये इन्द्र है । शक्तिशाली होनेसे शक है और नगरोंको उजाड़नेवाला होनेसे पुरन्दर है । इस तरह यह नय शब्दमेदसे अर्थको मेदरूप ग्रहण करता है, अथवा एक शब्दके नाना अर्थोंमेंसे. जो रूढ अर्थको प्रहण करता है वह समभिरूद्ध नय है । जैसे गौ शब्दके बद्भुतसे अर्थ हैं । किन्तु यह नय उसका रूढ अर्थ गाय ही लेता है, अन्य नहीं ॥ २७६ ॥ अब एवंभूत नयका खरूप कहते हैं । अर्थ-वस्तु जिस समय जिस स्वभावरूप परिणत होती है उस समय वह उसी खभावमय होती है । अतः उसी परिणामरूप वस्तुको ग्रहण करनेवाला नय एवंभूत - - - गपरिणद.२लमग मेण (सनेयेग) साप। हातनयं तम्परिणाम,मत प्परिणाम लग परिणदि। ५ सग Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० खामिकालियानुप्रेक्षा [गा० २०८[छाया-येन खभावेन यदा परिणतरूपे तन्मयत्वात् । तं परिणाम कथयति यः अपि नयः स खलु परमा।।1 सोऽपि नयः एवंभूतः परमार्थतः सत्यरूपो शेयः, यः परमार्थः एवंभूतनयः यदा यस्मिन् क्षणे परिणतरूपे वस्तुनि पदा परिणतरति पर्यायसंयुक्त अर्थे येन खभावेन शकनपुरदारणेन्दनादिस्वभावेन तत्परिणाम शकपुरंदरेन्द्रादिपर्यायम् एकस्मिनेष क्षणे साधयति प्रकाशयति । कुतः लग्मयत्वात्, सत् शकपुरंदरेन्द्रादिपर्यायमयत्वात् । अथवा तन्मात्रत्वात् पाळ, पाकशासनस्य जम्बूद्वीपादिपरिवर्तनसामोदिपुरदारणपरमैश्वर्यादिपर्यायमानत्वात् । तदुकं नयचके शब्दमेदे अर्थभेदोऽप्यस्ति । यथा शकः पुरंदरः इन्द्रः इति । तथाहि । यस्मिन्मेककाळे शक्नोति जम्बूद्वीपपरावर्तने समर्थो भवतीति शकः । अन्यदा यस्मिभेव काळे ऐश्वर्थ प्राप्नोति तदेवेन्द्र उच्यते, न चाभिषेककाले न पूजनकाले इन्द उच्यते। यस्मिन्नेव काले गममपरिणतो भवति तदेव गौरुध्यते न स्थितिकाले म शयनकाले । अथवा इन्द्रज्ञानपरिणतः आत्मा इन्द्र उच्यते। अभिज्ञानपरिणतः आस्मा अनिश्चेति, एवंभूतनयलक्षणम् ॥ २७ ॥ अथ नयानाम् उपसंहार ध्यनक्ति एवं विविह-णएहिं जो वत्थु क्वहरेदि लोयम्मि। दसण-णाण-चरितं सो साहदि सग्ग-भोक्खं च ॥ २७८ ॥ [छाया-एवं विविधनयः यः वस्तु व्यवहरति लोके । दर्शनशानचरित्रं स साधपति वर्गमोक्ष च॥] एवं पूर्वासाप्रकारेण लोफे जगति यः पुमान वस्तु जीपपुलधर्मादिपदार्थ व्यवहरति व्यवहारविषयीकरोति । मेदोपचारतया वस्तु व्यवलियते भेदेन व्यवहरणं करोति । कैः। विविध नयैः नानाप्रकारनयैः, नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरुवर्षभूतनयः द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यो निश्चयव्यवहारनयाभ्याम् उपनयेच जीवादिवस्तु व्यबहरति यः स पुशन् दर्शनशानचारि दर्शनं सम्यग्दर्शनं सभ्यतवं शान सभ्यरज्ञानं बोधः चारित्रं प्रयोदशधा, सामायिकच्छेदोपस्थापनादिरूप पञ्चधा वा, समाहारद्वन्समासः व्यवहारनिश्चय सम्यग्दर्शनझामचारित्रं रत्नत्रयं साधयति स्वविषयीकरोति यः, च पुनः सर्गमोक्षा स्वर्गः सौधर्मादिकरुपः मोक्ष: असकर्मविप्रमुक्तः सिद्धपर्यायः सौदोस साधयति प्रानोति ॥२७॥ अथ सत्त्वधवगमनमभावनाधारणादिकर्तारः नरा: दुर्लभा इत्यावेदयति है। यह एवंभूत नय परमार्यरूप है । भावार्थ-जो वस्तु जिस समय जिस पर्याय रूप परिणत हो उस समय उसी रूपसे उसे ग्रहण करनेवाला नय एवंभूत है । जैसे स्वर्गका स्वामी जिस समय भानन्द करता हो उसी समय इन्द्र है, जिस समय यह सामर्थ्यशाली है उसी समय शक है और जिस समय वह नगरोंको उजाड़ रहा है उसी समय पुरन्दर है, यदि वह भगवानका अभिषेक या पूजन कर रहा है तो उसे इन्द्र वगैरह नहीं कह सकते । इसी तरह 'गौ' का अर्थ है जो चलनेवाली हो। तो जब गाय चलती हो तमी वह गौ है, बैठी हुई हो या सोती हो तो उसे गौ नहीं कहना चाहिये । अथवा जिस समय जो आत्मा जिस ज्ञान रूप परिणत है उस समय उसे उसी रूपसे ग्रहण करना एवंभूत नय है । जैसे, इन्द्रको जाननेवाला आत्मा इन्द्र है और अग्निको जाननेवाला आत्मा अग्नि है। इसीसे इस नयको परमार्थ नय कहा है; क्यों कि यह यथार्थ वस्तु खरूपका ग्राहक है ॥ २७७ ॥ अब नोंका उपसंहार करते हैं । अर्थ-इस प्रकार जो पुरुष नयोंके द्वारा लोकमें वस्तुका व्यवहार करता है वह पुरुष सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको और स्वर्ग मोक्षको साधता है। भावार्थ उक्त प्रकारसे द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक और उनके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद, एवंभूत नयोंसे तथा निश्चयनय और व्यवहार नयसे वस्तुतत्वको जानकर जो वस्तुका व्यवहार करता है, उसे ठीक रूपसे जानता तथा कहता है वहीं रखत्रयको तथा वर्ग मोक्षको प्राप्त करता है १ स ग लोयमि। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.र -२८०] १०. लोकानुप्रेक्षा विरला णिसुणहि तच्च विरला जाणति तच्चदो तथं । विरला भावहि तचं विरलाणं धारणा होदि ॥ २७९ ॥ छाया-विरला: निभृण्वन्ति तत्त्वं विराः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वम् । विरलाः भावयन्ति ताच विरलाना धारण भवति ॥] बिरताः खल्पा केषन तस्ववेतारः सावधानाः सन्तःपुरुक्षः तरपे कोषावितरपखरूपम् बातेशयेन शृष्यन्ति समाकर्णयन्ति । पुनः तत्त्वतः परमार्थतः परमार्यमुध्या कर्मक्षयबुध्द्या वा बिरलाः खल्पसराः सम्पग्बोषमयान्तःकरणाः केचन नराः तत्त्वं जीवादिपदार्थखरूपं जानन्ति विदन्ति । पूर्व तत्वखरूप श्रुरवा पवात् तज्जानन्तीत्यर्थः । पुनः बिरलाः खल्पतराणा मध्ये खल्पतरा: तुच्छा पत्रमा सम्यग्दृपया तस्वं जीवादिखरूप भावरन्ति भावनाविषयीकर्षन्ति संतत्यपरतवं श्रुत्वा ज्ञात्वा च पुद्गलादिक त्यत्तदा खस्वरूप शुद्धस्वरूप खतत्त्वम् मईदादिपरतव का ध्यायन्ति चिन्तयन्तीत्यर्थः । उतंत्र। श्लोक ॥ विद्यन्ते कति नास्मयोधविमुखाः संवेहिनो देहिनः, प्राप्यन्ते कतिचित् कदाचन पुजिज्ञासमानाः कचित् । श्रात्ममाः परमप्रमोदसुखिनः प्रोन्मीलदन्तर्दशो, द्वित्राः स्युहको यदि त्रिचतुराले पञ्चषा दुर्लमाः ।। इति रिलानां सम्यग्भावितचित्तानो केषांचित्पुसा धारणा जीवादितत्वधारणा कालान्तरेगाविस्मरण भवति ॥ १७ ॥ अथ तस्वानां कयनेन ग्रहणादिना च तत्त्वज्ञातृत्व शापयति तञ्च कहिज्जमाणं णिच्चल-भावेण गिण्हदे जो हि। तं चिय भावेदि' सया सो वि य तचं वियाणेई ।। २८०॥ ॥ २७८ ॥ आगे कहते हैं कि तत्वोंको सुनने, जानने, अवधारण करने और मनन करनेवाले मनुष्य दुर्लभ हैं । अर्थ-जगतमै विरले मनुष्य ही तत्त्वको सुनते हैं । सुननेवालोंमेंसे मी विरले मनुष्य ही तत्त्वको ठीक ठीक जानते हैं । जाननेवालोंमेसे मी विरले मनुष्य ही तत्वकी भावना सतत अम्यास करते हैं। और सतत अभ्यास करनेवालोंमेंसे मी तस्वकी धारणा विरले मनुष्यों को ही होती है | भावार्थ-संसारमें राग रंग और काम भोगकी बातें सुननेवाले बहुत हैं, किन्तु तस्वकी बात सुननेवाले बहुत कम है। राग रंगकी बातें सुननेके लिये मनुष्य पैसा खर्च करता है किन्तु तत्त्वकी बात मुफ्त मी सुनना पसन्द नहीं करता । यदि कुछ लोग भूले भटके या पुराने संस्कारवश तत्वचर्चा सुनने या भी जाते हैं तो उनमेंसे अधिकांशको नींद आने लगती है, कुछ समझते नहीं है। अतः सुननेनालों से भी कुछ ही लोग तत्वको समझ पाते हैं । जो समझते हैं वे भी अपनी गृहस्थीके मोहजालके कारण दिनभर दुनियादारीमें फंसे रहते हैं । अतः उनमेंसे भी कुछ ही लोग तत्वचर्चासे उठकर उसका चिन्तन-मनन करते हैं । चिन्तन मनन करनेवालोंमेंसे भी तत्वको धारणा कुछको ही होती है । अतः तखको सुननेवाले, सुनकर समझनेवाले, समझकर अभ्यास करनेवाले और अभ्यास करके भी उसे समरण रखनेवाले मनुष्य उत्तरोत्तर दुर्लभ होते हैं। कहा भी है-'आत्म हानसे विमुख और सन्देहमें पड़े हुए प्राणी बहुत हैं । जिनको आत्माके विषयमें जिज्ञासा है ऐसे प्राणी कचित् कदाचित् ही मिलते हैं, किन्तु जोआस्मिक प्रमोदसे सुखी हैं तथा जिनकी अन्तर्दृष्टि स्कुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किन्तु पाँचका होना दुर्लभ है। ॥ २७९ ! आगे कहते हैं कि तत्त्वको कौन जानता है । अर्थ-जो पुरुष गुरुओंके द्वारा लग गिसणदि। रस धारण। कार्तिके.२६ गत से भाचेह। ४ बियाणेह (= दि)। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २८१-. [छाया-तवं कथ्यमानं निश्चलभावेन शाति यः हि। तत् एव भावयति सदा सः अपि च तत्त्वं विजानाति ॥] हि यस्मात् कारणात् स्फुटदा । यो मध्यजीवः निश्चलभावेग दृहपरिणामेन कथ्यमान गुर्षादिना प्रकाश्यमानं तस्वं जीवाविवस्तुस्वरूपं गृह्णाति श्रद्धाविषयीकरोति तदेव तत्त्वं सदा सर्वकाले भावयति अनुभवविषयीकरोति खतरवं शुद्धबोधकसरूम परमानन्दैकरूपम् भाईदादिखरूपं वा अनुभवति चिन्तयति ध्यायतीत्यर्थः। अपि च, विशेषतः प्राहकः भावुकश्च पुमान् तत्व जीवादिखरूपं जानाति सम्याज्ञान विषयीकरोति ॥ २८॥ अथ युक्त्यादीनां कः को बनो नास्त्रीत्यावेवयति कोण वसो इस्थि-जणे करस'ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिपहिं ण जिओ को ण कसाएहि संतत्तो ॥ २८१ ॥ [छाया-कः न वशः स्त्रीजने कस्य न मदनेन खण्डिता मानः । कः इन्द्रियैः न जितः कः न कषायैः संतप्तः॥] कः संसारी जीवः कीजने वशो न स्त्रीजनस्य वशवती न जायते इति न। 'कान्ताकनकचक्रेण भ्रामितं भुवनत्रयम्' इति पचनात् । तथा च ! 'संसारम्मि हि विहिणा महिलासवेण मंद्रियं पास । जति जाणमाणा भयाणमाका विवजति ॥' इति वचनात् सर्वजनः स्त्रीणां वशवती भवतीत्यर्थः । कस्यापि संसारिणः जीवस्य मानः मदनेन कन्दर्पण न खण्डितःन दलितः न चूर्णीकृतः, अपि तु खण्डित एव । उक्तं च । 'मतेमकुम्भदलने मुवि सन्ति शूराः, केचित्प्रभृगराजवधेऽपि दक्षाः । किंतु प्रवीमि बलिना पुरतः प्रसा, कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥' कः पुनः संसारी जीवः इन्द्रियैः स्पर्शरसनघ्राणचक्षुःथोत्रैः न जितः न पराभूतः अपितु जित एव, मातझमीनमधुकरपताकर झादयः स्पर्शनरसनध्राणचतु:श्रोत्रेण एकेकेन्द्रियेण पराभूताः दुःखीकृताः । तथा । 'कुरामातापतजमजमीना हताः पश्चमिरेव पच।' इति । कः पुनः संसारी जीवः कषायैः क्रोधमानमायालोभैः न मैतप्तः नरकादिषुःखतापं न नीतः, अपि । संतत एव । कहे हुए तत्त्वको निश्चल भावसे ग्रहण करता है और सदा उसीको भाता है, वही तत्वको जानता है | भावार्थ-गुरु वगैरहने जीवादि वस्तुका जो वरूप कहा है, जो भव्य जीव उसपर वृद्ध श्रद्धा रखकर सदा उसीका चिन्तन मनन करता रहता है वही अपने शुद्ध, युद्ध, परमानन्दखरूपको जानता है । बिना दृढ़ श्रद्धा और सतत भावनाके सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ २८० ।। आगे प्रश्न करते हैं कि स्त्री के वशमें कौन नहीं है ? अर्थ-इस लोकमें स्त्रीजनके वशमें कौन नहीं है! कामने किसका मान खण्डित नहीं किया ! इन्द्रियोंने किसे नहीं जीता और कषायोंसे कौन संतप्त नहीं हुआ?॥ भावार्थ-संसारमें सर्वत्र कामिनी और कंचनका साम्राज्य है । इसीसे एक कविने कहा है कि कान्ता और कंचनके चक्रने तीनों लोकोंको घुमा डाला है । अच्छे अच्छे ऋषियों और तपखियोंका मान मदन महाराजने चूर्ण कर डाला । तभी तो भर्तृहरिने कहा है संसारमें मदोन्मरा हाथियोंका गण्डस्थल विदीर्ण करनेवाले शूरवीर पाये जाते हैं। कुछ भयंकर सिंहको मारनेमें भी दक्ष हैं । किन्तु मैं बलवानोंके सामने जोर देकर कहता हूँ कि कामदेवका दर्प चूर्ण करनेवाले मनुष्य विरले हैं' । बेचारा हिरन एक कर्णेन्द्रियके वश होकर मारा जाता है, हाथी एक स्पर्शन इन्द्रियके कारण पकड़ा जाता है । पतङ्ग एक चक्षु इन्द्रियके कारण दीपक पर जल मरता है । भौंरा कमलकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर उसीमें बन्द हो जाता है । और मछली खादके लोभले मंसीमें फँस जाती है | ये बेचारे एक एक इन्द्रियके पश होकर अपनी जान खोते हैं। तब पांचों इन्द्रियोंके चारमें पड़े हुए मनुष्यकी दुर्दशाका तो कहना ही क्या है ! फिर इन्द्रियोंके साथ साथ कषायोंकी प्रबलता भी न! २ग से। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२८३] १०. लोकानुप्रेक्षा २०३ क्रोधेन द्वीपायनवसिष्ठादयः, मानेन कौरवादयः, मायया मस्करी पूर्णादयः, लोमैन को भदन्त श्रेष्छ्यादयश्व दुःखीकृताः ॥ २८१ ॥ अषाभ्यन्तरबाह्य परिप्रहस्य परित्यागमाहात्म्यं विशदयति सो वसो इस्थि-जणे' सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण' । जो ण य गिण्हदि गंथं अब्भंतर - बाहिरं सवं ॥ २८२ ॥ [ छाया - स न वशः स्त्रीजने स न जितः इन्द्रियैः मोहेन । यः न च गृह्णाति प्रन्थम् आभ्यन्तरबाह्यं सर्वम् ॥ ] यः ज्ञानी निःस्पृही पुमान् मन्यं, प्रश्नाति नाति कर्म वा संसारमिति ग्रन्थः तं ग्रन्थं, परिप्र सर्व चतुर्विंशतिभेदभिन्नम्, आभ्यन्तरः, 'मिथ्यात्व वेदहास्यादिषटू पाय चतुष्टयम् । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तर चतुर्दश ॥' बाल्यः दशधा 'क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । यानं शय्यासनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्दश ॥ तं सर्वं संग प्रत्यं परिग्रहं न गृह्णाति नाशीकरोति न स्वीकरोति स योगी ब्रीजने स्त्रीजनस्य वश्यो वशवर्ती न स्यात् । च पुनः, इन्द्रियैः स्पर्शनारीन्द्रियैः तद्विषयेव न जितः न पराभूतः न दुःखीकृतः । च पुनः मोहन मोहनीय कर्मणा मिथ्यात्वादिकषायाद्यष्टाविंशतिभेदमिनेन शरीरादौ ममत्वभावेन च न जितः न पराभूतः ॥ २८२ ॥ अथ लोकानुप्रेक्षामाहात्म्यमुद्ध व्यति एवं लोय-सहावं जो झायदि उवसमेकं सम्भावो । सो खविय कम्म-पुंजं तिलोर्य सिहामणी होदि ॥ २८३ ॥ * [ छाया एवं लोकखभावं यः ध्यायति उपशमेकखद्भावः । स क्षपयित्वा कर्मपुत्रं त्रिलोकशिखामणिः भवति ॥ ] एवं स्वामिकार्तिकेय द्वादशानुप्रेक्षा मध्ये एवं पूर्वोक्तप्रकारेण यः भव्यवरपुण्डरीकः पुमान् लोकखभावे लोकानुप्रेक्षां ध्यायति चिन्तयति, स भव्यपुमान् उपशमैकस्वभावः उपशमैक परिणामपरिणतः सन् शाम्यस्वस्वरूपपरमानन्दशुद्धबुकरूपपरिणतः एकत्वं गतः सन् स पुमान् क्षतिकर्मपुत्रं द्रव्यकमै भावकर्मनो कर्मसमूहं यथा भवति तथा मूलोतरोतर - कोटमें खाजका काम करती है। क्रोधसे द्वीपायन मुनिकी, मानसे कौरवोंकी, मायासे मक्खलिकी और लोभसे लोभी की जो दुर्दशा हुई वह पुराणोंमें वर्णित है । इस तरह सभी मनुष्य विषय -- कषायोंमें सिर से पैर दूबे हुए हैं । अतः ग्रन्थकार यह प्रश्न करते हैं कि आखिर इसका कारण क्या है ? क्यों चानीसे ज्ञान और बलीसे बली मनुष्य भी इस फन्देमें पड़े हैं ? क्या कोई ऐसा भी है जो इस नागपाशसे बचा है ! || २८१ ॥ आगे अन्धकार उक्त प्रश्नका समाधान करते हैं। अर्थ- जो मनुष्य बाह्य और अभ्यन्तर, समस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता, वह मनुष्य न तो खीजनके में होता है और न मोह तथा इन्द्रियोंके द्वारा जीता जा सकता है ॥ भावार्थ- परिग्रहको ग्रन्थ कहते हैं क्योंकि वह प्राणीको संसारसे बांधती है। उसके दो भेद हैं-- अन्तरंग और बाह्य । अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद हैं - मिध्यात्म, वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, बार कषाय, राग और द्वेष । तथा बाह्य परिग्रहके दस भेद हैं- खेत, मकान, पशु, धन, धान्य, सोना, चांदी, दास, दासी, वस्त्र, वरतन वगैरह । जो मनुष्य इन परिग्रहों के चक्कर में नहीं पडा, अर्थात जो अन्दर और बाहर से निर्मन्थ है यह स्त्री, मोह, और इन्द्रियों में नहीं होता || २८२ ॥ आगे लोकानुप्रेक्षाका माहात्म्य बतलाते हैं। अर्थ-जो पुरुष उपशम परिणामरूप परिणत होकर इस प्रकार लोकके खरूपका ध्यान करता है वह कर्मपुंजको नष्ट करके उसी लोकका शिखामणि होता है ॥ भावार्थ- स्वामिकार्तिकेय मुनिके द्वारा कही गई यारह बसमेक, १ ब न २ एत्थ-जणे, स पछि जणे, ग एत्थ जग ३ व मोदेहि । ४ग गिगदि ग्रंथं अभितर म उपसमिक ६ ल म स ग तस्सेव । ७ ब इति लोकानुप्रेक्षा समाप्तः ॥ १० ॥ जीवो इलादि । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२८४कर्मराशि क्षपित्वा तस्यै लोकस्य शिखामणिः शिरोरल चूडामणिः सिद्धपर्यायो भवति । अन्बेक्यशिखरे तनुवासोऽस्ति तन्मध्ये सम्यक्त्वायष्टगुणविराजमानः सिद्धखरूपो भवतीत्यर्थः ॥ २८३ ॥ ख्यातः श्रीसकलादिकीर्तिमुनिपः श्रीमूलसंवेऽप्रणीः, तत्सडे भुवनादिकीर्तिगुणमृत् श्रीशानभूषस्ततः । तत्प? विजयादिकीर्तिरभवत् श्रीमच्छुभेन्दुस्ततः, तेनाकारि परामहात् सुमतिमत्कीर्तेः मुटीकेया॥१॥ कार्शिकेप्रमुखाजाताऽनुप्रेक्षा क्षिप्तकिस्विषा । सल्लोकभावनाटीका तत्र जीयाश्चिरे शुभा ॥२॥ सुशुभचन्द्रकता समभिग्रहात/सुमतिकीर्तियतेवरयोगिनः । जयतु वै घरवृत्तिरिय सदा त्रिभुवनस्य सुभावनमाविता ॥३॥ इति पढापाकविचक्रवर्तित्रषिञ्चविधेश्वरमहारकबीचमचन्द्रदेवधिचि. . तापां लोकानुप्रेक्षाटीकायां लोकानुमेशाप्रतिपादको दशमोऽधिकारः समासः ॥ १०॥ ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा बोधेन दुर्लभत्वं यो व्यनकि विशदो जनान् । तं सुबोध सदा नौमि जिन निर्जितकिल्बिषम् ।। मथ बोधिदुर्लभ खामिश्रीकार्तिकेयः वक्तुकामः जीवानामनन्तकालं निगोदवासित्वमाचष्टे जीवो अर्णत-कालं वसइ णिगोएसु आइ-परिहीणो। तसो णिस्सरिदूणं पुढवी-कायादिओ' होदि ॥ २८४ ॥ [छाया-जीवः अनन्तकाल वसति निगोंदेषु आदिपरिहीनः । ततः निःसृत्य पृथ्वीकायादिकः भवति । वसति तत् तत् निगोदपर्यायेण तिष्ठति। कः । जीवः संसारी आत्मा का निगोदेषु नि नियतां गामनन्तसंख्याविच्छिमाना जीवाना गोत्रं वदातीति निमोदम् । निगोद शरीरं येषां ते निगोदाः । निकोता वा साधारणजीवाः । उर्फ च । “साहारणमाहारो - साहारणमाणपाणगणं च । साहारणजीवाणं सादारणलक्षणं एवं ॥१॥गूढतिरसंधिपर्व समर्भगमहील्ह च छिनरहे। साहारण सरीरं तबिवरीयं च पत्तेय ॥२॥ कंदै सूले सीपबालसालदलकुसुमफलबीए । समभेगे तदर्णता विसमे सवि होति • अनुप्रेक्षाओंमेंसे लोकानुप्रेक्षाका कथन करते हुए जो लोकका खभाव बतलाया है, जो पुरुष साम्य भाव रखकर उसका चिन्तन करता रहता है, वह मनुष्य क्रमशः सब कोको. मष्ट करके लोकके शिखरपर स्थित सिद्धस्थानमें जाकर विराजमान हो जाता है, यानी उसे सिद्धपर्याय प्राप्त हो जाती है ॥ २८३ ॥ इति लोकानुप्रेक्षा ।। १० ॥ अब खामी कार्तिकेय बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाफो कहते हुए, जीवोंका अनन्त कालतक निगोदमें वास बतलाते हैं। अर्थ-यह जीव अनादिकालसे लेकर अनन्तकालतक तो निगोदमें रहता है। वहाँस निकलकर पृथिवीकाय आदिमें जन्म लेता है । भावार्थ-अंगुलके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें जो अनन्तजीवोंको स्थान देता है उसे निगोद कहते हैं । निगोदिया जीवोंको साधारण जीव मी कहते हैं, क्यों कि एक निगोदिया शरीरमें वसनेवाले अनन्त जीवोंका आहार, श्वासोच्छास वगैरह साधारण होता है । अर्थात् उन सब जीवोंका एक शरीर होता है, एक साथ सब आहार ग्रहण करते हैं, एक साथ सब श्वास लेते हैं । और एक साथही मरते और जन्म लेते हैं। निगोदके दो भेद हैं-नित्यनिगोद १ प-प्रती आ इति कोमलालापे अतिशयेन वा इति पत्रान्ते लिखितम् । २ ल म स ग णी सरिऊणं पुढवी कायापियो। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा २०५ पतेया ॥ ३॥" इति । वेषु निगोवेषु साधारणजीवेषु अनन्तकायिकेषु जीवो असति । कियत्कालम् । अनन्तकालम् । नित्यनिगोदापेक्षयानन्तानन्ताप्तीतकालपर्यन्तं चतुर्गसिनिगोदापेक्षया अर्धतृतीयपुदलपरिवर्तनकालपर्यन्तम् । ननु निगोदेषु एताबत्कालपयन्तं स्थितिमान् जीयः एतावत्कालपारमाणायुः किं वा अन्यदायुः इत्युसे पाह। 'भाउपरिहीणों' इति आयुःपरिहीनः उरलासाष्टादशैकभागलक्षणान्तमुहूर्सः खल्पायुर्विशिष्टः प्राणी । अथवा आदिपरिहीण इति पाठे आदिपरिहीनः सदैव नित्यनिगोदनासिवादादिरहितः । तथा चोकम् । “अस्थि अणता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंकसुपटरा णिगोदवासं णमुचंति" इति । ततः निगोवेभ्यः निःमूल्य निर्गय पृथ्वीकारिको जीवो भवति । आदिशब्दात अपकायिकतेजस्कामिक्वनस्पतिकायिका गृह्यन्ते ॥ २८४ ॥ अथ तत्र पृथ्ठयादिषु स्थितिकाल सत्वं च दुर्लभमित्यावेदयति तत्थ वि असंख-कालं बायर-सुहमेसु कुणई परियसं । चिंतामणि ख दुलहं तसत्तणं लहदि कट्टेण ॥ २८५ ॥ [छाया-तत्र अपि असंख्यकाल बादरसूक्ष्मेषु करोति परिवर्तम् । चिन्तामणिवत् दुर्लभ प्रसत्वं लभते कष्टेन ॥] तत्रापि पृथिवीकायिकापकाधिकतेजस्कायिकबायुकायिकवनस्पतिकायिकेषु । कथंभूतेषु यादरेयु स्थूलेषु सूक्ष्मेषु पृथ्वीकायादिना स्खलनादिरहितेलु च । असंख्यकालम् असंख्यातकालं परिवर्तनं परिभ्रमणं जीवः करोति । तथा चोक्तम् । काप्टेन अतिबहुतरकालेन ततः पृथ्वीकायादिपञ्चस्थावरेभ्यः निर्गय मल द्वित्रिचतु-पक्षेन्द्रियलक्षणं लभते प्राप्नोति । कीदृशं तत् । दुर्लभ दुःप्राप्य त्रसत्वं भावकोटिमिन प्राप्यते त्रसत्वमित्यर्थः । कामेव । चिन्तामणिवत् यथा चिन्तामणिरत्नं दुःप्राप्य तया त्रसत्व जीवस्य दुर्लभं भवति ॥ २८५ ॥ अथ नसेषु स्थितिकालं पछेन्द्रियल दुर्लभस्त्यिावेदयति वियलिदिएसु जायदि तत्थ वि अच्छेदि पुन्ध-कोडीओ। तसो णिस्सरिदण' कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥ २८६ ॥ और चतुर्गतिनिगोद । जो जीव अनादिकाल से निगोदमें पड़े हुए है वे नित्यनिगोदिया कहे जाते हैं। और जो त्रस पीय प्राप्त करके निगोदमें जाते हैं उन्हें चतुर्गति निगोदिया कहते हैं। नित्यनिगोदमें तो जीव अनादिकालसे अनन्तकालतक रहता है । गोम्मटसारमें कहा है-'ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की । उनके भावकर्म बहुत निबिड होते हैं इसलिये वे निगोदको नहीं छोड़ते। नित्य निगोदसे निकलनेके विषय में दो मत पाये जाते हैं। एक मतके अनुसार तो निस निगोदिया जीव सदा निमोदमें ही रहता है और वहाँसे नहीं निकलता । दूसरे मतके अनुसार जबतक उसके भावक निबिड रहते हैं तबतक नहीं निकलता । भारकर्मके कुछ शिथिल होते ही निकल आता है। खामीकारिकयका मतभी यही जान पडता है । अत: वे कहते हैं कि प्रथम तो जीवका अनन्तकाल निगोदमें बीतता है । वहाँसे निकलकर वह पृथिवीकाय वगैरहमें जन्म लेता है। अतः अज्ञानीका अज्ञानीही बना रहता है ॥ २८४ || आगे त्रस पर्यायकी दुर्लभता बतलाते हैं । अर्थ-वहाँ मी असंख्य कालतक बादर और सूक्ष्म कायमें परिभ्रमण करता है । फिर चिन्तामणि रनकी तरह दुर्लभ त्रस पर्यायको बड़ी कठिनतासे प्राप्त करता है ॥ भावार्थ-निगोदसे पृथिवी काय वगैरहमें जन्म लेनेपरमी त्रस पर्याय आसानीसे नहीं मिलती । असंख्यात कालतक बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें ही भटकता है । फिर कहीं बड़ी कठिनाईसे त्रस पर्याय मिलती है ।। २८५ ॥ आगे कहते हैं कि त्रस 'पर्याय पाकर भी पश्चेन्द्रिय होना दुर्लभ है । अर्थ--एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलकर विकलेन्द्रियोंमें जन्म १० कुणय (कुणिय।)। २ व लहा। जिसम तगणीसरिऊ। ४ कहामिति । ५. पंचि दियो, लम पंचेंदिओ,ग पंचदशी। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २०७[छाश-विमोहिनायतेरि दोषणः निःहा थमपि पश्चेन्द्रियः भवति ।। ] विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिखियेषु जायते उत्पद्यते तत्रापि द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु पूर्वकोटयः जीवः आस्ते तिष्ठतीत्यर्थः । तथा चोरू च ततो तेभ्यः विकलत्रयेभ्यः निःसृत्य निर्गत्य कथमपि महता कष्टेन पञ्चेन्द्रियो जीवो भवति ॥ २८६ ।। अथामनस्कसमनस्क्रपठेन्द्रियत्वं दुर्लभं दर्शयति सो वि मणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि' जाणेदि । अह मण-सहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो' हवे रुदो ॥ २८७ ॥ [छाया-सः अपि मनसा विहीनः न च आत्मानं परम् अपि जानाति । अथ मनःसहितः भवति खलु तथापि तिर्यक् भवेत् रुद्रः । सोऽपि पचेन्द्रियो जीवः मनसा विहीनः द्रव्यभावमनसा चितेन विहीनः रहितः शिक्षालापादिग्रहणरहितः पसंझी जीवः सन् आत्माने शुद्धबोधमय अपिशब्दात् परमपि अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुप्रवचनदशसाक्षणिकवादिकवचनं न जानाति न देतीत्यर्थः । अह अथवा, हु इति वितर्के, कदानित महता कष्टेन मनासहितः मनसा चेतसा युक्तः संज्ञी पञ्चेन्द्रियो जीवो भवति । तथापि संशिपञ्चेन्द्रिये सत्यपि तियेर रुद्रः करः माजोरमूषकमकरध्रसर्पनकुलव्याघ्रसिंहमत्स्यादिरूपो भवेत् ॥ २८७ ॥ अथ तस्य नरकपातादिकं दर्शयति सो तिब्ब-असुहलेसो णरये णिवडेई दुक्खदे भीमे । तस्थ वि दुक्खं भुजदि सारीरं माणसं पउरं ॥ २८८॥ [छाया-स तीव अशुभलेश्यः नरके निपतति दुःखदे भीमे। तत्रापि दुःखं भने शारीर मानसे प्रचुरम् ॥] सो स वियर क्रूरबीयः नरकं रमप्रभादिकं प्रति निपतति तनावतरतीत्यर्थः । कीटक सन् । तीबाशुभलेश्यः, कषायपरिणता लेता है। वहाँभी अनेक पूर्वकोटि काल तक रहता है । वहाँसे निकलकर जिस किसी तरह पश्चेन्द्रिय होता है ।। भावार्थ-एकेन्द्रिपसे दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय होकर पश्चेन्द्रिय होना दुर्लभ है। यदि विकलेन्द्रियसे पुनः एकेन्द्रिय पर्यायमें चला गया तो फिर बहुत काल तक वहाँसे निकलना कठिन है। अतः त्रस होकरभी पवेन्द्रिय होना दुर्लभ है ।। २८६ ।। आगे कहते हैं कि पश्चेन्द्रियो भी सैनी पञ्चेन्द्रिय आदि होना दुर्लभ है। अर्थ-विकलत्रयसे निकलकर पञ्चेन्द्रिय भी होता है तो मनरहित असैनी होता है । अतः आपको और परको नहीं जानता । और जो कदाचित् मनसहित सैनी भी होता है तो रौद्ध परिणामी तिर्यश्च होता है ।। भावार्थ-यदि पञ्चेन्द्रिय पर्याय भी प्राप्त कर लेता है तो वसंधी होनेके कारण बातचीत, उपदेश वगैरह नहीं समझ सकता । अतः न तो स्वयं अपनेको जानता है और न अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, आगम, धर्म वगैरहको ही जानता है। कदाचित् जिस किसी तरह संझी पश्चेन्द्रिय भी होता है तो बिलाव, चूहा, मेडिया, गृद्ध, सर्प, नेवला, ध्यान, सिंह, भगर, मच्छ आदि क्रूर तिर्यश्च हो जाता है । अतः सदा पापरूप परिणाम रहते हैं ॥२८॥ आगे कहते हैं कि वह नरकमें चला जाता है । अर्थ-सो तीव्र अशुभ लेश्यासे मरकर वह क्रूर तिर्यन दुःखदायी भयानक नरकमें चला जाता है । वहाँ प्रचुर शारीरिक तथा मानसिक दुःख मोगता है। भावार्थ-कषायके उदयसे रंगी हुई मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । तया क्रोध, मान, माया और लोभको कषाय कहते हैं । प्रत्येक कषाय चार प्रकारकी होती है। उसमें से पत्थरकी सवि। ११ सहिदो (१), मग सहिओ। ३० मग तिरक्खो। ४. मग पर, स भरने (1), [णरयम्मि पडेइ ३ ५म णिवढेदि । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २९० ] ११. बोधिदुर्लभातुप्रेक्षा २०७ योगप्रवृत्तिश्या सीमाः पाषाणभेदस्तम्भवेणुमूललाक्षारजोपमादिभागाविष्टाः अशुभाः कृष्णनील पोतलक्षणः लेयाः । कषायपरिणतयोगपरिणामा यस्य स तथोक्तः । तत्थ वि तत्रापि रत्नप्रभादिनरके भुनक्ति भुते । किं तत् । दुःखम् ॥ कीदृशम् । शारीरं शरीरोद्भवं शीतोष्णक्षुत्तृषापमको व्यष्टषष्टिलक्षन वन वतिसहस्रपञ्चशतचतुरशीतिव्याध्यादिजं, मानसं मनसो दुष्टकषायकटषीकृत चित्तपरिणामजातम् । च पुनः प्रचुर छेदनमेशन ककचन विदारणपीलनकुम्भीपाकपचनशूलारोपणखङ्गधाराचिसदृशभूमिस्पर्श वैतरणीनाम परस्परकृत्तघातासुरोदीरितादिदुःखम् । कथंभूते नरके । दुःखदे दुःखदायिनि । पुनः कीदृशे । भीमे रौद्रे घोरतरे दुःखदे नरके ॥ २८८ ॥ अथ ततो निस्सरणं तिर्यग्गतिप्राप्ति च विशृणोति ततो जिस्सरिणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पावो' । तत्थ यि दुक्खमतं विसहृदि जीवो अणेयविहं ॥ २८९ ॥ [ छाया - ततः निःसृत्य पुनरपि तिर्यक्षु जायते पापः । तत्र अपि दुःखमनन्तं विषहते जीवः अनेकविधम् ॥ ] ततः रत्नप्रभादिनरकात् निःसृत्य पुनरपि नरकगतेः पूर्वं तिर्यङ् ततो निर्गतोऽपि तिर्यक्षु जायते मृगपशुपक्षिजलचरादिषु उत्पयते । पापम् अधर्म यथा भवति तथा । तत्थ वि तत्रापि तिर्यग्गतावपि विवहते विदोषेण सहते क्षमते । कः । जीवः संसारी प्राणी तिर्यक् । किं तत् । दुःखं अशर्म । कियन्मात्रम् । अनन्तं क्षुधातृषाभारारोपणदोहन्नशीतोष्णायन्तA रहितम् । पुनः कियत्प्रकारम् । अनेकविधं छेदनमेवनताडनसापनमरणादिपरस्परगलनाद्यनेकप्रकारम् ॥ २८९ ॥ अथ मनुष्यत्वं दुर्लभं दृष्टान्तं दर्शयति रयणं चप्प पिव मणुयत्तं सुड्डु दुलहं लहिय । मिच्छो हवेइ जीवो तत्थ वि पावं समज्जेदि ॥ २९० ॥ I लकीर के समान क्रोध, स्तम्भकी तरह कभी न नमनेवाला मान, चांसकी जड़की तरह माया और लाखके रंगकी तरह कभी न मिटनेवाला लोभ अति अशुभ होता है । अतः ऐसी कपायके उदय में कृष्ण, नील और कापोत नामकी तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं। इन अशुभ लेश्याओंसे मरकर वह क्रूर तिर्यश्व रत्नप्रभा आदि नरकोंमें जन्म लेता है । वहाँ भूख, प्यास, शील, उष्णके कष्ट के साथही साथ, छेदना, भेदना, चीरना, फाडने आदिका कष्ट भोगता है; क्योंकि नारकी जीव परस्परमें एक दूसरेको अनेक प्रकारसे कष्ट देते हैं। कोल्हूमें पेलना, भाडमें भूजना, पकाना, शूलोंपर फेंक देना, तलवारके धारके समान नुकीले पत्तेवाले वृक्षोंके नीचे डाल देना, सुईकी नोकके समान नुकीली घासवाली जमीनपर डालकर खींचना, वैतरणी नदीमें डालना तथा अपनी विक्रियासे निर्मित अखरात्रोंसे परस्परमें मारना आदिके द्वारा बडा कष्ट पाते हैं। इसके सिवा तीसरे नरक तक असुर कुमार जातिकेदेव भी कष्ट पहुँचाते हैं। इस तरह नरकमें जाकर वह जीव बडा कष्ट भोगता है || २८८ ॥ आगे कहते हैं कि नरकसे निकलकर पुनः तिर्यच होता है । अर्थ- नरकसे निकलकर फिरभी तिर्यश्च गति में जन्म लेता है और पापपूर्वक वहाँ भी अनेक प्रकारका अत्यन्त दुःख सहता है ॥ भावार्थ-रमप्रभा आदि भूमिसे निकलकर यह जीव फिर भी तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेता है । अर्थात् तिर्यगति से ही नरकमें गया था और नरकसे निकलकर भी तिर्यञ्चही होता है । तिर्यञ्च गति में भी भूख, प्यास, शीत, उष्ण, भारवहन, छेदन, भेदन, ताडन, मारण आदिका महा दुःख सहना पडता है || २८९ || आगे मनुष्यपर्यायकी दुर्लभता दृष्टान्तपूर्वक बतलाते हैं । अर्थ- जैसे चौराहेपर 1 गिरे हुए रसका हाथ आना १ म सग पीसरिक २ ब पावो (१), सपा म पा उप्परे । ४हिवि । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २९१[छाया-रत्र चतुष्पथे इद मनुजर्व मुष्प दुर्लभ लब्धा । म्लेच्छः भवति जीवः तत्र अपि पापं समर्जयति ॥] जीवः आत्मा मिथ्यादृष्टिम्लेच्छः म्लेच्छखण्डोद्यः पञ्चाशदधिकाष्टशतम्लेच्छखण्डोद्भवः अनार्यदेशोस्पनो वा भवेत् । किं कृत्वा । पूर्व लहिय लब्ध्वा प्राप्य । किं तत् । मनुष्यत्व नरस्त्रम् । कीदृशम् । सुन्छु अतिशयेन दुर्लभं दुःप्राप्यं पुलकपाशकादि दशदृष्टान्तेन दुरवापम् । * किमिव । चतुःपये रत्नामिन यथा चतुष्पथे रने दुर्लभ दुःप्राप्यं तथा मनुध्यत्वं दुलेमम् । तत्रापि म्लेच्छजन्मनि समर्जयति समुपार्जयति । किं तत् । पाप दुरितं व्यसनादिकेन पापाचरणं चरति ॥ १९॥ अथार्यस्खण्डादिषु उत्तरोत्तरदुर्लभवं गाथाषट्रेनाइ अह लहदि अजवत तह ण वि पावेइ उत्तम गोतं । उत्तम-कुले वि पत्ते धण-हीणो जायदे जीवो ॥ २९१॥ [छाया-अथ लभते आर्यावर्त तथा न अपि प्राप्नोति उतम गोत्रम् । उसमकुले अपि प्राप्ते धनहीनः जायते जीवः॥] अथ अथवा लभते प्राप्नोति । किं तत् । आर्यखण्वम् , अर्यसे गम्यते सेव्यते गुणैर्गुणबद्रिासो आयः उत्तमपुरुषस्तीर्थकरपक्रवादिलक्षणः तद्वत् क्षेत्रम् आर्यखण्डमित्यर्थः । तत्रार्यखण्डे नापि प्राप्नोति न लभते । किं तत् । उमम गोत्रं महाबतप्राप्तियोग्य मोक्षसाधनयोग्यं च क्षत्रियादिकुलम् । तथा कदाचित् उत्तमकुले प्रशस्तकुले ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यकुले प्राप्ते संपन्ने जायते उत्पद्यते । कः । जीवः । कीदक्षः। धनहीनः धनधान्यसुवर्णयहरममुकाफलगजाश्रमोमहिपीवस्त्राभरणादिरहितः दरिद्रो जीवः ॥ २९१ ॥ अह धण-सहिदो' होदि हु इंदिय-परिपुण्णदा तदो दुलहा । अह इंदिय-संपुण्णो तह वि सरोओ हवे देहो ॥ २९२ ॥ [छाया-अथ धनसहितः भवति खलु इन्द्रियपरिपूर्णता ततः दुर्लभा । अथ इन्द्रियसंपूर्णः तथापि सरोगः भवेत् देवः ॥ अथ अथवा, हु इति स्पुट, कदाचित् धनसहितः धनाढ्यो महर्द्विको भवति । ततः धभयुक्तत्वेऽपि इन्द्रियपत्रिदुर्लभ है वैसे ही मनुष्यभव भी अत्यन्त दुर्लभ है । तिर्यश्च पर्यायसे निकलकर और अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यभवको पाकर भी यह जीव मिथ्यादृष्टि म्लेच्छ होकर पापका उपार्जन करता है ।। भावार्थ-मनुष्यभव पाकरभी यदि मिथ्यादृष्टि हुआ और म्लेच्छ खण्डोंमें जन्म लिया तो पापही करता है ।। २९० ॥ आगे आर्य खण्ड वगैरहकी उत्तरोत्तर दुर्लभता बतलाते हैं । अर्थ-यदि कदाचित् आर्यखण्डमें जन्म लेता है तो उत्तम कुल पाना दुर्लभ है । कदाचित् उत्तम कुल भी मिला तो धनहीन दरिद्री होता है ।। भावार्थ-जो गुणोंसे अथवा गुणवानोंसे सेवित होते है अर्थात् जो स्वयं गुणी होते हैं तथा गुणवानोंकी संगतिमें रहते हैं उन्हें आर्य कहते हैं । आर्य अर्थात् तीर्थकर चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुष जिस भूमिमें जन्म लेते हैं वह भूमि आर्यखण्ड कही जाती है । यदि मनुष्यभव पाकर वह जीव आर्यखण्डका मनुष्य हुआ और महाव्रतकी प्राप्तिके योग्य अथवा मोक्ष साधनके योग्य उत्तम क्षत्रिय आदिका कुल नहीं पाया तोभी मनुष्यभव पाना व्यर्थ हुआ । तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यका प्रशस्त कुल पाकर भी यदि धनधान्यसे रहित दरिदी हुआ तो भी जीवन कष्टमेंही बीतता है ।।२९१ ॥ अर्थ अथवा धनसम्पन भी हुआ तो इन्द्रियोंकी पूर्णताका पाना दुर्लभ है। कदाचित् इन्द्रियाँ भी पूर्ण हुई और शरीर रोगी हुआ तो भी सब व्यर्थ है ॥ भावार्थ-कदाचित् धनाढ्य भी हुआ तो हाथ पैरसे ठीक होना, अर्थात् अपंग, अन्धा वगैरह न होना कठिन है । कदाचित् शरीर अधिकल हुआ और आंख नाक कान वगैरह १०मग लहर, स लहई। २१ अज्जव, मग अचवतं, स अजवंतं, [अनमत्तं]। म आर्यो। ४कम सहियो, ग सहिउ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२९६] ११. योधिदुर्लभानुप्रेक्षा २०९ पूर्णता चक्षुर्माणश्रोत्रहस्तपादादिना हीनाङ्गतारहितता इन्द्रियाणां पर दुर्लभा दुःप्राप्या । अथ अथवा इन्द्रियसंपूर्णः वयवसंपूर्णः 1 तह वि तथापि इन्दियपरत्वे सति देहः शरीरं सरोग: ज्वरभगन्धरकुठोदरैकुक्षिशिरोरोगकुष्टसंनिपातारीहपाठादिच्याधिसंयुक्तो भवेत् ॥ २९२ ॥ अह जीरोओ होदितह विण पावधि जीवियं सुइ । अह चिर-कालं जीवदि तो सील" णेव पावेदि' ॥ २९३ ॥ [छाया-अथ नीरोगः भवति खलु तथापिन प्राप्नोति जीवितं मुचिरम् । अथ चिरकाल जीवति तत् शीलं नैव प्रामोति॥ अथ अथवा, हु इति कदाचित् , अव्ययानामनेकार्थत्यातू, नीरोगों जातः रोगरहितो भवति । तथापि सुचिरं जीवितन्यमायुन प्राप्नोति । अथ अथवा चेत् चिरकाल कोरिपूर्वादिपर्यन्त जीवति प्राणधारण विदधाति तो तर्हि सील ब्रह्मचर्यलक्षण व्रतप्रतिपालनस्वभावं च नैव प्राप्नोति ॥ २९३ ॥ अह होदि सील-जुत्तों तो चि ण पावेइ साहु-संसगं । अह तं पि कह वि पावदि सम्म तह वि अइदुलहं ।। २९४ ॥ [छाया-अथ भवति शीलयुक्तः ततः अपि न प्राप्नोति साधुसंसर्गम् । अथ तम् अपि कथमपि प्राप्नोति सम्यक्त्वं तथापि अतिदुर्लभम् ॥] अथ अथवा कथमपि यदि शीलयुक्तः ब्रह्मचर्थविशिष्टो च! उत्तमस्वभावसंयुक्तो वा गुणवत्तत्रयशिक्षाबत. चतुष्पशीलसप्तकसंयुक्तो भवति । तथापि तद्यपि साधुसंसर्म साधूना रत्नत्रयसाधकामा योगिनों संसर्गः संयोगः गोष्टिः तेन प्राप्रोति न लभते । उपथ यदि तमपि साधुसंसर्ग कथमपि प्राप्नोति तथापि सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानलक्षण व्यवहारसम्यक्त्व निश्चयसम्यक्त्वं च अतिदुर्लभ दुःप्राप्य भवति ॥ २५४ । सम्मत्ते वि य लद्धे चारित्तं णेव गिण्हदें जीवो। अह कह वि तं पि गिदि तो पालेदुं ण सक्केदि ।। २९५॥ [छाया-सम्यक्त्वे अपि व लब्धे चारित्रं नय गृह्णाति जीवः । अथ कथमपि तन अपि गृह्णाति तत. पालयितुं न शक्रोति ॥ अपि च विशेषे । कदाचिदवतः इति पदं सर्वत्र प्रोज्यम् । सम्यक्त्रेलले सम्यग्दर्शने प्राक्षे सति जीवः आत्मा चारित्रं त्रयोदशप्रकार सर्वसावविरतिलक्षणं सामायिकादिपकप्रकारं वा निश्चयव्यवहारात्मकं च नैव गृह्णाति । अध यदि कथमपि महता कष्टेन तदपि चारित्रं कदाचिदेवयोगतः गृह्णाति. तो तसत चारित्रं पालयित रक्षितुं न शक्रोति न समर्थो भवति । खवरनादिमुनिषत् ॥ १९५॥ यणतये वि लद्धे तिव्य-कसायं करेदि जइ जीवो । तो दुग्गईसु गच्छदि पणड-रयणप्तओ होउ" ॥२९६ ॥ भी ठीक हुए तो नीरोग शरीर मिलनां दुर्लभ है क्योंकि मनुष्यशरीर ज्वर, भगंदर, कुष्ट, जलोदर, प्लीहा, सनिपात, आदि व्याधियोंका घर है ।। २९२ ॥ अर्थ-अथवा कदाचित् नीरोग भी हुआ तो लम्बी आयु नहीं पाता, अर्थात् जल्दी ही मर जाता है । अथवा कदाचित् लम्बी आयु भी पाई तो उत्तम खभावरूप शीलको नहीं पाता ।। २९३ ॥ अर्थ-कदाचित् उत्तम स्वभावरूप शीलको पाता भी है तो रजत्रयके साधक साधुजनोंकी संगति नहीं मिलती । यदि किसी प्रकार साधु संगतिका लाभ भी हो जाता है तो तस्यार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्वका पाना अति दुर्लभ है ॥ २९४ ।। अर्थ-दैववश कदाचित् सम्यक्त्यको प्राप्त भी करले तो चारित्रको ग्रहण नहीं करता । और कदाचित् दैवयोगसे चारित्र ग्रहण भी करले तो उसे पालनेमें असमर्थ होता है ।। २९५।। अर्थ-कदाचित सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और एकुळंदर। ल स ग पावे। समथर । ४ ब ग झी। ५ सग पावेइ । ६ गशील्युत्तो। क मसतह वि। ८.मिन्ददे, गिम्हादि। ५मजीभो। १० प रयागतए। ११ ब दोउ (!)| कार्तिके-२५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २९७ [छाया-रमत्रये अपि लब्धे वीचकषायं करोति यदि जीवः । तर्हि दुर्गतिषु गच्छति प्रणष्टरत्रयः भूत्वा ॥ ] यदि कथमपि दैवयोगात् रत्नत्रये लब्धेऽपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मके प्राप्तेऽपि जीवः आत्मा तीनकषायं करोति अनन्तानुबन्धिलक्षणक्रोधमानमायालोभादिकं रागद्वेषादिकं चिदधाति, तो तर्हि दुर्गतिषु गच्छति नरकतिर्यग दुर्मनुष्य भवनव्यन्तरज्योतिकेषु गतिषु याति । कीदृग्भूत्वा गरयो भूतानला अर्थ ॥ २९६ ॥ अथ मनुष्यत्वस्य दुर्लभ व्यनक्ति २१० स्य जलहि-पडियं मणुयत्तं तं पि' होदि' अइदुलहं । एवं सुणिच्छइसों मिच्छ कसाए य वजे ॥ २९७ ॥ [ छाया-मित्र जलधिपतितं मनुजत्वं तत् अपि भवति अतिदुर्लभम् । एवं सुनिथित्य मिध्यात्वकषायान् च वर्जयत ॥ ] एवं पूर्वोक्तप्रकारेण मनुष्मत्वस्य दुर्लभत्वं दुःप्रापत्वं पुण्यैर्विना सुमनुष्यत्वं न प्राप्यते इत्यर्थः । सुनिश्वित्य निश्वर्यं कृत्वा वजह यूयं प्रयुर्जयत यूयं त्यजत कान मिध्यात्वरुपायान् । मिथ्यात्वान्यैकान्तादीनि पच । तत्कथम् ।" एयंत बुद्धदरमी विवरीओ बंभ ताचसो चिगओ | इंदो बिय संसइदो महडिओ चेव अष्णाणी ॥" तथा व्यक्षेत्रकालभावाचतुर्विधं मिध्यात्वम् । कषायाः अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानमव्याख्यान संज्वलमको धमान मायालोमाख्या हास्यादयश्च तान् यूर्य त्यजत। एवं किम् । यन्मनुष्यत्वं नरजन्मत्वं तदपि अतिदुर्लभम् अतिदुःप्रापम् अत्यन्त दुःखेन महता कष्टेन प्राप्यम् । किमिव । जलधिपतितरत्नमिव यथा समुद्रे पतितं रत्नम् अतिदुःखेन प्राप्यते तथा मनुष्यत्वं नरजन्मसंसारसमुद्दे श्रमता प्राणिना अतिदुःखेन प्राप्यते, बहुलपुभ्यं विना न ॥ २९७ ॥ अथ देवत्वे यत् दुर्लभं तनिगदति- अहवा देवो होदि ह तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं । हु तो तव चरणं ण लहृदि देख-जमं सील-लेसं पि ॥ २९८ ॥ [ छाया-अथवा देवः भवति खलु तत्र अपि प्राप्नोति कथमिव सम्यक्त्वम् । ततः तपश्चरणं न लभते देशयनं शीललेशम् अपि ॥ ] अथवा, हु इति कदाचिद्देवयोगतः, "सराग ( - संयम - ) संयमा संयमाकामनिर्जरा बालतपांसि देवस्य । " सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयको प्राप्त करके भी यदि यह जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ रूप तीव्र कषायको करता है तो रत्नत्रयको नष्ट करके दुर्गतियों में गमन करता है अर्थात् मरकर या तो नरक में चला जाता है, या तिर्यश्च योनिमें जन्म लेता है, या दीन दुखी दरिद्री मनुष्य होता है, अथवा देव भी होता है तो भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिष्क जातिका देव होता है ।। २९६ ॥ आगे मनुष्य पर्यायी दुर्लभता बतलाते हैं । अर्थ - अतः जैसे समुद्रमें गिरा हुआ रत्न पाना अत्यन्त दुर्लभ है, वैसे ही संसारसमुद्रमें भटकते हुए मनुष्यजन्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा निश्चय करके तुम मिथ्यात्व और कषायों को छोड़ दो ॥ २९७ ॥ आगे, देवपर्यायमें चारित्रकी दुर्लभता बतलाते हैं । अर्थ-यदि कदाचित यह जीव मर कर देव भी होता है और वहाँ किसी तरह सम्यक्त्वको भी प्राप्त कर लेता है तो तप और चारित्रको नहीं पाल सकता। और तो क्या, देशसंयम और शीलका लेश भी नहीं होता || भावार्थ - कदाचित् मनुष्य पर्यायमें इस जीवने रागसहित संयमका अथवा देशसंयमका पालन किया, अथवा अकाम निर्जरा और खोटा तप किया और मरकर पुण्ययोगले देव हुआ | तथा देव होकर क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालन्धि, मायोग्यलब्धि, और करण - दधिके मिल जाने सम्यग्दर्शन भी प्राप्त कर लिया किन्तु बारह प्रकारका तप और पाँच प्रकारका १ [ रयणं व ] । २ व तो मणुयत्तं पिब होद । ४ व सुणिच्छयंतो । ५ ब सञ्यय ( १ ) स ग वजह ६ म देसवर्थ । ! C Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - ३०० ] २११ इति पुण्ययोगात् देवः अमरो भवति । तत्रापि देव कथमपि सोही रेस पाउग्गकरणलद्वीए' इति पञ्चसन्ध्या सम्यत सुदर्शनं लभते प्राप्नोति । तो तर्हि सम्यक्त्वे लब्धेऽपि न लभते न प्राप्नोति । किं तत्। तपश्चरणं सपोऽनशनावमोदर्यादि द्वादशधा । चरणं सामायिकच्छेशेपस्थापना परिहारविशुद्धिसूक्ष्मपरायात्मकं पशभेदम् अपि पुनः देशसंयमं देशवारि श्रावकवतं पुनः शीलले ब्रह्मचर्याणुमात्रम् अथवा सीलसप्तकं न प्राप्यति ० ॥ २९८ ॥ अप मनुष्यगताक्व तपश्चरणादिकं इदयति मणुव-गई वि तओ मणवु-गईऍ महवदं' सयलं । मणुव-गदी झाणं मणुव-गदीए वि जिवाणं ॥ २५९ ॥ [ छाया--मनुजगत अपि तपः मनुजगती महात्रते सकलम्। मनुजगतो ध्यानं मनुजगत अपि निर्वाणम् ॥] मनुष्यगतावेव, अपिशब्द एवकाराधे, तपः 'अनशनात्रमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानर परित्यागविविकशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः' पोका । प्रायधिस विनयवैयावृत्यखाध्यायभ्युत्सर्गध्यानाम्यभ्यन्तरं च षोठा, इति द्वादशधा । इच्छानिरोधस्तपो वा ! एकावली द्विकावली रत्नावली सर्वतोभद्रप्रमुखं वा भवति । पुनः मनुष्यगतावेव उत्तमक्षत्रियादिवंशे सर्वसावयनिवृष्टिलक्षणं महानतं सकल संपूर्ण महावतं हिंसा नृतस्तेया ब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणं भवति । मनुष्ययामेव सकलं संपूर्णम् उत्कृ ष्टता प्राप्तं धर्मध्यानं शुक्रभ्यानं च स्यात् [ काकाक्षिगोलकन्यायेन सकलशब्द उभयत्र व्रतध्यानयोयोज्यम् । मनुष्यगतावेव निर्वाणः सकलकर्मविप्रमुक्तिलक्षणः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणोपेतः मोक्षो भवति ॥ २९९ ॥ अथ मनुष्यत्वे प्राप्ते सति विषयविवर्जनम् अकुर्वतः सदृष्टान्तं दोषं विणोति दुलहं मनुयर्स लहिऊणं जे रमंति विसएसु । हि दिव-रणं भूई - णिमित्तं पजाति ॥ ३०० ॥ वे [ छाया - इति दुर्लभं मनुजस्वं लब्ध्वा ये रमन्ते विषयेषु । ते लब्ध्वा दिव्यरमं भूतिनिमिनं प्रज्वालयन्ति ॥ ] रमन्ते क्रीडन्ति ये नराः । क । विषयेषु पचेन्द्रियाणां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्द भोगव्यापारलक्षणेषु किं कृत्वा 1 लब्ध्वा प्राप्य किं तत् । मनुष्यत्वं नरजन्मत्वम् । इति पूर्वोकप्रकारेण लब्ध्यपर्याप्तनिगोदतः प्रारभ्य मनुष्यजन्मपर्यन्तं दुई दुःप्रापम् । ते पुरुषा दृष्टान्तद्वारेण किं कुर्वते इति कथयति । ते पुरुषा दिव्यरत्नम् अनर्घ्यरनं प्राप्य प्रज्वालयन्ति भस्मीकुर्वन्ति । किमर्थम् । मूतिनिमित्तं भूतिर्भस्म तदर्थम् ॥ ३०० ॥ इति सर्वेषां दुर्लभत्वं प्रकाश्य रमत्रये आदरं निगदति चारित्र तो वहाँ किसी भी तरह प्राप्त नहीं हो सकता। और तो क्या, श्रावकके व्रत तथा शीलका लेश भी पाल सकना वहाँ शक्य नहीं है। क्योंकि देवगतिमें संयम संभव नहीं है ॥ २९८ ॥ आगे कहते हैं कि मनुष्यगति में ही तपश्चरण आदि होता है। अर्थ मनुष्यगतिर्मे ही तप होता है। मनुष्यगतिमें ही समस्त महाव्रत होते हैं। मनुष्यगतिमें ही ध्यान होता है और मनुष्यगतिमें ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥ भावार्थ - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, और कायकेश ये छः बाह्य तप और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ये छः अभ्यन्तर तप मनुष्यगतिमें ही होते हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, अग्रहा और परिग्रह इन समस्त पापोंका पूर्ण स्यागरूप महावत मनुष्य ही धारण कर सकते हैं। मनुष्यगतिमें ही उत्कृष्ट धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। तथा समस्त कर्मबन्धनसे मुक्ति भी मनुष्यगतिमें ही मिलती है ॥ २९९ ॥ आगे, जो मनुष्यभव प्राप्त होनेपर विषयोंमें फंस जाते हैं उनकी निन्दा करते हैं । अर्थ- पूर्वोक्त प्रकारसे दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त १ गवए । २ म गदीए । ३ व महत्वयं । ४ ब गदीये । ५झाणं ६ दुलई ७ सल भूम ९स पजावि । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा इय सब-दुलह- दुलहं दंसण-गाणं तहा धरिसं च । मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिन्हं पि ॥ ३०१ ॥ [ ० ३०१ [ छाया - इति सर्वदुर्लभदुर्लभं दर्शनज्ञानं तथा चारित्रं च । ज्ञात्वा च संसारे महादरं कुरुत त्रयाणाम् अपि ॥ ] इति पूर्वोक्तप्रकारेण भल्या ज्ञात्वा । किं तत् । सर्व पूर्वोक्तम् एकेन्द्रियप्रभृति रात्रयप्राप्तिपर्यन्तं दुलहलह दुर्लभात् दुःप्रापात् दुर्लभं दुःप्राप्यं तथा तेनैव दुर्लभप्रकारेण दर्शनज्ञानचारित्रं च दर्शनम् अष्टाङ्गसम्यक्त्वं स्वात्मश्रद्धानरूपं निश्वयसम्यक्त्वं च ज्ञानं द्वादशाङ्गपरिज्ञानं स्वात्मम्यरूपवेदनं निश्चयज्ञानं च, तथा चारित्रं सर्वसावयनिवृत्तिलक्षणं सामायिकादिपथमेदं पुनः स्वात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयचारित्रं च । एतत् अयं दुर्लभात् दुर्लभ शाखा । क । संसारे द्रव्यक्षेत्रकालभवभावा । कुछ कुरुष्व त्वं विधेहि । किं तत् । महादरं महोद्यमम् । केषाम् । त्रयाणां दर्शनज्ञानचारित्राणाम्, अपिशब्दात् तपोभ्यानादीनां च महादरं भो भव्यवर पुण्डरीक त्वं कुरुष्व इत्यर्थः ॥ ३०१ ॥ योऽनुप्रेक्षां क्षिती ख्याता समाख्याय सुखं बभौ । तट्टीको विदधद्विद्वान् शुभचन्द्रो जयत्यलम् ॥ इति भाषाविचक्रवर्तित्रैविद्यविद्येश्वरभट्टारक श्री शुभचश्वदेवविरचितायां स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षाठीकायां बोधिदुर्लभानुप्रेक्षाप्रतिपादकः एकादशोऽधिकारः ॥ ११ ॥ १२. धर्मानुपेक्षा धर्म सद्धर्मदातारे सकलं गुणभेदकम् । नत्वा सुमतिकीर्तेश्व स्वाग्रह्राद्वच्मि तं पुनः ॥ अथ धर्मानुप्रेक्षां व्याचक्षाणः श्रीस्वामिकार्त्तिकेयः धर्ममूलं सर्वेक्षं देवं प्रकाशयति जो जादि पञ्चकखं तियाल - गुण - पज्जएहिं संजुतं । लोयालोयं सयले सो सब हवे देवो ॥ ३०२ ॥ करके जो पाचों इन्द्रियोंके विषयोंमें रमते हैं वे मूढ दिव्य रत्नको पाकर उसे भस्मके लिये जलाकर राख कर डालते हैं ॥ ३०० ॥ आगे दुर्लभ रत्नत्रयको पाकर उसका आदर करनेका उपदेश देते हैं। अर्थ - इस तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको संसारकी सब दुर्लभ वस्तुओंमें भी दुर्लभ जानकर इन तीनोंका अध्यन्त आदर करो || ३०१ ॥ इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा ॥ ११ ॥ अब धर्मानुप्रेक्षाका कथन करते हुए स्वामी कार्त्तिकेय धर्मके मूल सर्वज्ञ देवका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो त्रिकालवर्ती गुणपर्यायों से संयुक्त समस्त लोक और अलोकको प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ देव है || भावार्थ- सर्वज्ञका अर्थ है सबको जाननेवाला । और सबसे मतलब हैभूत, भावी और वर्तमान कालीन गुण और पर्याय सहित समस्त लोक और अलोक । अतः जो समस्त लोक और अलोक में वर्तमान सब द्रव्योंको और उनकी सब पर्यायोंको जानता है वही सर्वज्ञ है । और वही वास्तव में देव है क्योंकि वह अनन्त चतुष्टय स्वरूप परमानन्दमें कौडा करता है । कहा भी है- जो अनेक प्रकार के समस्त चराचर द्रव्योंको तथा उनके सब गुणोंको और उनकी भूत, ए ब म तिन्हं । २ ब दुष्टानुषोदि अनुप्रेक्षा ॥ ११ ॥ ३ म सम्बड गड् । t I ï 1 1 . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३०३] १५. धर्मानुप्रेक्षा [छाया-यः जानाति प्रत्यक्ष त्रिकालगुणपर्ययैः संयुक्तम् । लोकालोक सकलं स सर्वशः भवेत् देवः ॥] स जग। तासिद्धः सर्वज्ञः सर्व लोकालोके जानातीति वेत्तौति सर्वज्ञः । उक्त च। 'य: सर्वाणि चराचराणि विविघटण्याणि तेषां गुणान, पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सर्वथा । जानीते युमपत्प्रतिक्षामतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः ॥ इति सर्वज्ञः । देव: दीव्यति क्रीडति परमानन्दपने अनन्तचतुष्टयात्मके परमात्मनि वा देव इति सर्वज्ञदेवो भवेत् । अन्यो ब्रह्मा विष्णुमहेशादिको न । स को देवः । यो जानानि बेनि पदयति । कि तन् । लोकालोकं लोक त्रिभुवनम् अलोकः ततो वहिलाकः तत् लोकालोके सकलं संपूर्णम् , प्रत्यक्षं यथा भवति तथा प्रत्यक्षीभूत व्यक्तरूपं करतलगतमणिबत् जानाति पश्यति । पुनः कीदृक्षम् । त्रिकालगुणपर्यायः संयुक्त, गुणाः केवलज्ञानादयः, पर्यायाः अगुरलवादयः, गुणाच पर्यायाश्च गुणपर्यायाः, ते निघालगुणपर्यायः सहित लोकालोके जानाति । ननु लोकालोक शानिनां सर्वशत्वं चेत् तर्हि श्रुतज्ञानिनामपि सर्वशत्वं भविष्यति स्पद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने इत्याशङ्कामपनुदन् प्रत्यक्ष विशेषणं समर्थयति । श्रुतज्ञानिनः सर्व परोक्ष पश्यन्ति श्रुतेन, कंवलज्ञानिनः सर्व लोकालोक वितिमिरं सगुणपर्याय प्रत्यक्ष जानन्ति पश्यन्ति इस्पर्थः ।। ३०२॥ अथ सर्वज्ञाभाववादिनः भप्रभाकरचार्वाकादीन् प्रतिक्षिपनाह जदि ण हदि सम्बहता को जाणदि अदिदियं अस्थं । इंदिय-णाणं ण मुणदि थूलं पि' असेस-पज्जायं ॥ ३०३ ॥ [छाया-यदि न भवति सर्वज्ञः ततः कः जानाति अतीन्द्रियम् अर्थम् । इन्द्रियज्ञानं न जानाति स्थूलम् अपि अशेषपर्यायम् ॥ ननु नास्ति सर्वशोऽनुपलब्धेः इति चापाकाः, नास्ति सर्वज्ञः प्रमाणपत्रकाविषयत्वात् इति मीमांसकाश्च वदन्ति, तान् प्रत्याह । सर्वशो न भवति यदि चेत् तो* तर्हि अतीन्द्रियम् अर्थम् इन्द्रियाणामगम्य वस्तु सूक्ष्मान्तरितरार्थ को वेति । सूक्ष्मार्था हि परमाम्वादयः, अन्तरितार्थाः स्वभावान्तरिताः जीवपुण्यपापादयः, कालान्तरिता भावी और वर्तमान सब पर्यायोंको एक साथ प्रतिसमय पूरी तरहसे जानता है उसे सर्पज्ञ कहते हैं । उस सर्वज्ञ जिनेश्वर महावीरको नमस्कार हो । किन्तु इस तरहसे तो श्रुतज्ञानीको भी सर्वज्ञ कहा जा सकेगा; क्योंकि वह भी आगमके द्वारा सब पदार्थोंको जानता है । इसीसे श्रुतज्ञानीको केवलज्ञानीके तुल्य बतलाया है । इस आपत्तिको दूर करनेके लिये ही जाननेके पहले प्रत्यक्ष विशेषण रखा गया है । श्रुतवानी सबको परोक्षरूपसे जानता है इसलिये उसे सर्वज्ञ नहीं कहा जा सकता । जो समस्त लोकालोकको हथेलीपर रखी हुई मणिकी तरह प्रत्यक्ष जानते हैं वही सर्वज्ञ भगवान हैं ॥ ३०२ ।। आगे सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसकोंका खण्डन करते है। अर्थ-यदि सर्वज्ञ न होता तो असीन्द्रिय पदार्थको कौन जानता ? इन्द्रियज्ञान तो सब स्थूल पर्यायोंको भी नहीं जानता | भावार्थचार्वाक और मीमांसक सर्वज्ञको नहीं मानते। चार्वाक तो एक इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानता है। जो इन्द्रियोंका विषय नहीं है वह कोई वस्तु ही नहीं, ऐसा उसका मत है । सर्वज्ञ भी किसी इन्द्रियसे गोचर नहीं होता अतः वह नहीं है, यह चार्वाकका कहना है । मीमांसक छ प्रमाण मानता है-प्रत्यक्ष, अनुमाम, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अभाव । इनमेंसे शुरुके पांच प्रमाण वस्तुके सद्भावको विषय करते हैं । जो इन पाँच प्रमाणोंका विषय नहीं है वह कोई वस्तु नहीं है । सर्वज्ञ भी पांचों प्रमाणोंका विषय नहीं है अतः सर्वज्ञ नहीं है ऐसा मीमांसकका मत है । आचार्य कहते हैं कि जगतमें ऐसे बहुतसे पदार्थ हैं जो इन्द्रियगम्य नहीं हैं । जैसे सूक्ष्म पदार्थ परमाणु, अन्तरित पदार्य पूर्वकालमें होगये राम रावण वगैरह और दूरवर्ती पदार्थ सुमेह वगैरह । ये पदार्थ इन्द्रियोंके द्वारा नहीं देखे जा सकते । यदि कोई सर्वज्ञ न होता तो इन अतीन्द्रिय पदार्थीका अस्तित्व हमें कैसे ज्ञात होता इसीसे १ गनई दिय । १ स बि । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३०४रामरावणादयः, दूरार्थाः मन्दरनरकवर्यादयः तान् पदार्थान् सर्वशाभावे को वेत्ति को जागाति । अपितुन सर्वज्ञ एवं जानाति । अस्ति कथितेषां प्रत्यक्ष देता तदावेदकमनुमान, सूक्ष्मान्तरितवूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुमेयत्वादम्यादिवविति। अथ इन्द्रियप्रत्यक्ष तदविदकं भविष्यतीति चेन्न । इन्द्रियज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियप्रत्यक्षशान न जानाति । के तम्। स्यूलमपि केवलम् । अपिशब्दान् सूक्ष्मं स्थूलसूक्ष्ममपि पदार्थम् । कीददं तम् । अशेषपर्याय अशेषाः समाः असीतानागतवर्तमानकालविषयाः पर्यायाः परिणामाः विद्यन्ते यस्य स तथोक्तः । स्थूलमर्य समप्रपर्यायसहितं पदार्थम् इन्द्रियशानं न जानाति ।।३०३॥ अथ सबैज्ञास्तित्वे सिद्धे तदुपदिष्टो धर्म एवानीकर्तव्य इत्यावेदयति तेणुवइट्ठो' धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारह-भेओ दह-मेओ' भासिओ बिदिओ ।। ३०४॥ [छाया-तेन उपदिष्टः धर्मः संगासक्तानां तथा असंगानाम् । प्रथमः द्वादशभेदः दशमेदः भाषितः द्वितीयः ॥] तेन सर्वक्षेन सर्वदर्शिना वीतरागदेवन धर्मः वृषः उपदिष्टः कथितः । आत्मानमिष्टे नरेन्द्रसुरेन्द्रमुनीन्दवन्ये मुधिस्थाने धत्त इति धर्मः । अथवा संसारस्थान् प्राणिनो धरति धास्यतीति वा धर्मः । वा संसारे पतन्त जीवमुत्य नागेन्द्रनरेनदेवेन्द्रादिवन्येऽव्यावाधानन्तमुखाधनन्तगुणलक्षणे मोक्षपदे धरतीति धर्मः । तस्य भेदी द्वौ । को इति चेत् । यो संगासकानां संगेषु परिग्रहेषु आसक्ता ये संगासक्तास्तेषां परिग्रहरताना श्रावकाणां धर्मः। तह तथा असंगाना न विद्यन्ते संगाः बाह्याभ्यन्तरपरिप्रहाः येषां ते असंगास्तेषाम् असंगानां बायाभ्यन्तरपरिप्रहपरित्यकाना निम्रन्थानां मुनीनां धर्मः। तयोर्धर्मयोमध्ये प्रथमः धारकगोचरो धर्मः द्वादशमेदः सम्यादर्शनशुद्धाविवादशप्रकारोभाषितः, द्वितीयः मुनीश्वरगोबरोधर्म- दशमेदा उत्तमक्षमादिदशप्रकारो वृषो भाषितः प्रकाशितः ॥३.४ ॥ अथ तान्प्रथमोदिष्टान् द्वादशभेदान् गायादयेन प्ररूपयति सम्मइंसण-सुद्धो रहिओ मज्जाइ-थूल-दोसेहिं । वय-धारी सामाइउ' पध्व-वई पासुयाहारी" ॥ ३०५॥ समन्तभद्र, खामीने आप्तमीमांसा सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए कहा है-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवती पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं क्योंकि उन्हें हम अनुमानसे जान सकते हैं । जो वस्तु अनुमानसे जानी जा सकती है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होती है जैसे आग । शायद कोई कहे कि इन पदार्योका ज्ञान तो इन्द्रियसे हो सकता है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्यों कि इन्द्रियाँ तो सम्बद्ध वर्तमान और स्थूल पदार्थोंको ही जाननेमें समर्थ हैं । अत: वें स्थूल पदार्थोकी भी भूत भविष्यत सब पर्यायोंको नहीं जानती है । तब अतीन्द्रिय पदार्थोंको कैसे जान सकती हैं? ॥३०३ ॥ सर्वका अस्तिस्व सिद्ध करके आचार्य सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट धर्मका वर्णन करते हैं । अर्थ-सर्वनके द्वारा कहा हुआ धर्म दो प्रकारका है-एक तो संगासक्त अर्थात् गृहस्थका धर्म और एक असंग अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिका धर्म । प्रयमके बारह भेद कहे हैं और दूसरेके दस भेद कहे है ।। भावार्थ-जो आत्माको नरेन्द्र, मरेन्द्र और मुनीन्द्रसे वन्दनीय मुक्तिस्थानमें धरता है उसे धर्म कहते हैं । अथवा जो संसारी प्राणियोंको धरता है यानी उनका उद्धार करता है वह धर्म है । अथवा जो संसार समुद्रमें गिरते हुए जीवोंको उठाकर नरेंद्र, देवेंद्र वगैरहसे पूजित अनन्त सुख आदि अनन्तगुणोंसे युक्त मोक्षपदमें धरता है उसे धर्म कहते हैं । सर्वज्ञ भगवानने उस धर्मके दो भेद किये हैं-एक परिग्रहसे घिरे हुए गृहस्थोंके लिये और एक परिग्रह रहित मुनियोंके लिये । श्रावक धर्म बारह प्रकारका कहा है और मुनि धर्म दस प्रकारका कहा है ॥ ३०४ ॥ आगे दो गाथाओंके द्वारा श्रावक धर्मके बारह भेदौको कहते हैं १ गतेणबाटो। २ ल म स ग दसमेओ। १मस बमधारी सामहलो, ग बयधरी सामाईओ (सामाईस)। ग पासुआहारी, में फासुआहारी। ४ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३०७] १२. धर्मानुप्रेक्षा राई- भोयण - विरओ मेहुण सारंभ-संग- चप्तो य । जाणुमय-विरओ उद्दिद्वाहार - विरदो य ।। ३०६ ॥ २१५ [ छाया - सम्यग्दर्शनशुद्धः रहितः मयादिस्थूलदोषैः । प्रतधारी सामायिकः पर्वत्रती प्रासुकाहारी ॥ रात्रिभोजनविरतः मैथुनसारम्भसंगत्यतः च । कार्यानुमोदविरतः उद्दिष्टाहारविरतः च ॥ ] प्रथमः सम्यग्दर्शनशुद्धः सम्यग्दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धः निर्मकः पचविंशतिभलरहितः सम्यग्दर्शनशुद्धः । 'मूतत्रयं मदावाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयचैते दृश्दोषाः पचविंशतिः ॥' इति पञ्चविंशतिमकरहितो ऽविरतसम्यग्दृष्टिः । १ । द्वितीयः मयादिस्थूलदोषै रहितः मद्यादयः मद्यमांसमधूनि पचोदुम्बरादिसजंतुफलानि । 'धूर्त मांसं सुरा देश्या पापर्द्धिः परदारता । स्तेयेन सह सप्तेति व्यसनानि बिदूरयेत् ॥' कन्दमूलमन्त्रशा काशनचर्मपात्रगत घृततैलजम्वादीनि च तै रहिनः । २ । तृतीयः व्रतधारी पचाणुव्रतगुणव्रतत्रयचतुःशिक्षात्रतानीति द्वादशवतधारी । ३ । चतुर्थः सामायिकवतोपेतः । ४ । पञ्चमः चतुःपर्वप्रोपघोपवासी । ५ । षष्ठः' प्रासुकाहारी जलफलधान्यादिसचित्तविरतत्रतधारी । ६ । सप्तमः रात्रिभोजनविरतः दिवामैथुनरहितश्व । ७ । अष्टमो मैथुनल्लकः चतुर्विधस्त्रीविरक्तो ब्रह्मचारी । ८ । आरम्मेण सह वर्तमानः सारम्भः स चासौ संग सारंभसंगः तेन त्यकः नवमः सारम्भत्यक्तः, कृषिवाणिज्यादिगृहस्थयोग्यव्यापारवर्जितः । ९ । दशमः संगत्यधः गृहस्थयोग्य क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिदशविधपरिग्रहपरिवर्जितः । १० एकादशः कार्यानुमोदविरतः कार्येषु गमनागमनगृहादिनिष्पादनविवाहद्रव्योपार्जन व्यापारेषु व्याद्दारादिप्रारम्भेषु अनुमोदः अनुमतम् अनुमतिः तेन रहितः अनुमतिविनिवृतः । ११ । द्वादशः उद्दिष्टाचारविरतः स्वनिमित्तनिर्मिताहारश्रद्दणरहितः स्त्रोद्दिष्टपिण्डोपधिशयन व रासनादेर्विरतः उद्दिष्टविनिवृत्तः । १२ ॥ ३०५ -३०६ ।। अथ सम्यक्त्वोत्पत्तियोभ्यतां गमयति --भोसणी सुविसुद्धो जग्गमाण-पज्जतो' । संसार - तडे णिडो' णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥ ३०७ ॥ अर्थ- शुद्ध सम्यग्दृष्टि, मद्य आदि स्थूल दोषोंसे रहित सम्यग्दृष्टि, व्रतधारी, सामायिकत्रती, पर्वत्रती, प्रासुकाहारी, रात्रिभोजनत्यागी, मैथुनत्यागी, आरम्भल्यागी, परिग्रहत्यागी, कार्यानुमोदविरत और उद्दिष्ट आहारविरत, ये श्रावक धर्मके बारह भेद हैं । भावार्थ सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष बतलाये हैं-तीन मूढता, आठ मद, छः अनायतन और आठ शंका आदि दोष । इन पचीस मलोंसे रहित अविरत सम्यग्दृष्टि प्रथम मेद है । मद्य, मांस, मधु, पाँच उदुम्बर फल, और जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, परस्त्री और चोरी इन सात व्यसनोंका त्यागी शुद्ध सम्यग्दृष्टि दूसरा मेद है। पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षात्रतोंका पालक श्रावक तीसरा भेद है। सामायिक व्रतका पालक चौथा भेद है । चारों पर्वो प्रोषधोपवास व्रत करनेवाला पांचवा मेद है। सचित्त जल, फल, धान्य वगैरहका त्यागी छठा भेद है। रात्रिभोजन त्याग सातवाँ भेद है। कोई आचार्य इसके स्थानमें दिवा मैथुन त्याग कहते हैं। चार प्रकारकी स्त्रीका लागी अर्थात् ब्रह्मचारी आठवीं भेद हैं। गृहस्थ योग्य खेती व्यापार आदि आरम्भका त्याग नौवां भेद है। खेत, मकान, धन, धान्य आदि दस प्रकारके परिग्रहका स्याग दसवाँ भेद है। आना, जाना, घर वगैरह बनवाना, विवाह करना, धन कमाना आदि, आरम्भोंमें अनुमति न देना, ग्याहरवां भेद है। अपने उद्देशसे बनाये गये आहार आदिका त्याग, बारहवाँ मेद है । ये श्रावक धर्मके बारह भेद हैं ।। ३०५-३०६ ॥ प्रयमही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यता बतलाते हैं । अर्थ-चारों गतिका भव्य, संज्ञी, विशुद्ध परिणामी जागता हुआ, 1 १ अ वगर, मंग चदि । २ । ३ ब ग नियो । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आnsize 2-157 . L स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | गा० ३०८ [ छाया - चतुर्गतिभन्यः संशी सुविशुद्धः जात्पर्याप्तः । संसारतटे निकटः ज्ञानी प्राप्नोति सम्यक्त्वम् ॥ ] प्राप्नोति लभते । किं तत् । सम्यक्त्रं सम्यग्दर्शनम् । कोऽसौ । ज्ञानी भेदज्ञानविशिष्टः । कीदृम्योग्यताविशिष्टः सन् सम्यक्त्वं लभते । चतुर्गतिभय्यः नरकतिर्यम्मनुष्यदेवगतिषु भम्यः जीवः चातुर्गतिको भव्यजीवों न लभव्यः । पुनः कीदृक्षः । संज्ञी पसेन्द्रियः त्यसंज्ञी | पुनरपि कीट्शः । विशुद्ध आकारेण मेदग्रहणेन सहितो वा अनन्तगुणविशुष्या वर्धमानः, विशुद्धिपञ्चलब्धिपरिणतः, भावपीतपद्मशुकतर लेश्यो वा । जमामाण जाग्रत् निद्रानिशप्रचलाप्रचला स्त्यानग्रडि निद्वात्रयरहितः । पर्याप्तः पर्याप्सिसंपूर्णतां प्राप्तः । पुनः कीराः । संसारतंटे निकटः सम्यक्त्वोत्पतितः उत्कृटेन अर्धमुपरिवर्तन कालपर्यन्तं संसारस्थायीवः ॥ ३०७ ॥ अथशेषणमसम्यनवक्षायिकसम्यक्त्वलक्षणं लक्षयति सत्त' पडणं उवसमदो होदि उवसमं सम्भं । यदो' य होदि खइयं केवलि-मूले मणूसस्स ॥ ३०८ ॥ [ छाया सप्तानां प्रकृतीनाम् उपशमतः भवति उपशमं सम्यक्त्वम् । क्षयतः च भवतेि क्षाधिकं केवलिमूले मनुष्यस्य ॥ ] सप्तानां प्रकृतीनां मिथ्यात्वमिश्रसम्य स्वानन्तानुबन्धिकोधमानमायालयेभानाम् उपशमान कतकफल्योगात् जलकमो शमवद उपशमं सम्यक्त्वं भवति । च पुनः तासां सप्तप्रकृतीनां क्षयात निरवशेषनाशात् क्षायिक सम्यतवं भवति । . तत्क्षायिकं जायते । केवलज्ञानिनः पादमूले चरणाये । कस्य मनुष्यस्य कर्मभूमिजपर्याप्तभस्यनरस्य । तथाहि । अतत्त्वश्रद्धानकारणं मिथ्यात्वम् । शास्र सम्पतित्वाद्वानरूपं सम्यग्दर्शनम् । ३ । चलमलिनमगावं करोति यत्सा सभ्यत्तत्र प्रकृतिः चलम् आप्तागमपदाश्रश्रद्धानविकल्पेषु नानारूपेण चलतीति चलम् । यथा स्वकारितेचैयादी देवोऽयं मेऽन्यकारिते अन्यस्यान्यमिति तथा सम्यस्वप्रकृतेरुदयाव चलम् । 'मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् । 'स्थान एव स्थितं कंसमातमिति कीर्त्यते । हृष्टिरिवाकस्थान करतले स्थिता ॥ यथा सर्वेषाम् अर्हत्परमेष्ठिनाम् अनमाराकित्वे समाने स्थित अस्मे शान्तिकर्मणे शान्तिनाथः अस्मै विप्रविनाशानाथ पार्श्वनाथः इत्यास्थागाढम् । तथा दुदयात् सर्वज्ञवीतरागप्रणीतसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणोपलक्षितमोक्षसन्मार्गपराकुखः सन् आत्मा तत्वार्थं श्रद्धाननिरुत्सुकः तत्त्वार्थश्रद्धानपरामुखः अशुद्धतत्त्वपरिणामः सन् दर्शनमोहनीयमिध्यात्वोदयात् हिताहितविवेकविकस्यः जडादिरूपतयाऽवतिष्ठते तन्मिथ्यात्वं नाम । १ । मिथ्यात्वमेव सामिशुद्धम्बर राम् ईषभिराकृतफलदानसामर्थ्य सम्यनिध्यात्वम् उभयात्मकं मिश्रम् । २ । प्रशमसंवेगादिशुभपरिणामनिराकृतफलदानसामध्ये मिध्यात्वमेोदश मत्वेन स्थितम् आत्मनः श्रद्धानं नैव निरुपदि । मिथ्यात्वं च वेदयमानमात्मस्वरूपं लोकमध्ये आत्मानं सम्यग्दृष्टिं ख्यापयन् सम्यक्त्तवाभिवेय मिथ्यात्वम् । ३ । अनन्तभवभ्रमणहेतुत्वात् अनन्तं मिध्यात्वं अनुवभ्रान्ति संबन्धयन्ति इत्येवंशीलाः ये श्रधमानमायालो भारते अनन्तानुबन्धिनः सम्यक्त्वघातकाः । अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालेोभाः । यथाक्रमं शिलाभेदशिलास्तम्भवेणुमूलकृमिराग के बलसदृशास्तीव्रतम शक्तयः नारकगत्युत्पादनदेवो भवन्ति । अनन्नानुबन्धिकोधमान पर्याप्त, ज्ञानी जीव संसारतट के निकट आनेपर सम्यवको प्राप्त करता है । भावार्थ-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति चारों गतियोंके जीवोंको सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो सकती है, किन्तु प्रथम तो वह जीत्र भव्य होना चाहिये क्यों कि अभव्यके सम्यक्त्व नहीं होता। दूसरे, वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होना चाहिये, क्यों कि अतंज्ञी जीवके सम्यक्त्व नहीं होता । तीसरे, प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिचाला होना चाहिये और पीत, पद्म तथा शुक्र लेश्याओं में से कोई एक लेश्या होनी चाहिये । चौथे जागता हुआ हो, अर्थात् निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन निद्राओंसे रहित हो । पाँचबे, उसकी छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो चुकी हो, क्यों कि अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व नहीं होता । छठे, ज्ञानी हो अर्थात् साकार उपयोग से युक्त हो क्योंकि निराकार दर्शनोपयोग में सम्यक्त उत्पन्न नहीं होता। सातवें, उसके संसार भ्रमणका अधिक से अधिक अपुल परावर्तनकाल १ व सतपणं । २ ग खबर होर खये (समर्थ)। ३ग मणुसरस, म स मणुस्सरत । ४ प टिप्पणी 'अर्थशुद्धात्मरसम् ।' Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ scio - ३०८ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा मायालो भमिध्यात्वसम्यद्मिथ्यात्वराम्यत्वप्रकृतीनाम् उपशमात् अनुदवरूपात् प्रथमसम्यत्वमुत्पद्यते । अनादिकालमिध्यादृष्टिभव्यजीवस्य कर्मोदयात्पादितकलुषतायां सत्यां कस्मादुपशमो भवतीति चेत्, कालव्यादिकारणादिति ब्रूमः । कासी काललन्धिः कर्मष्टितो भव्यजीवः अर्धपुलपरिवर्तनकाले उहरिते सति औपशमिकसम्यक्त्वग्रहणयोग्यो भवति । अर्धपुद्रपरिवर्तनादधिके काले सति प्रथमसम्यस्वस्वीकारयोग्यो न स्यादित्यर्थः । एका कालविषरियमुच्यते । द्वितीया कालब्धिः यदा कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिरात्मनि भवति, जघन्या वा कर्मणां स्थितिरात्मनि भवति तदा औपशमिकसम्यक्त्तव नोत्पद्यते । तर्हि औपशमिक कहा उत्पद्यते । यदा अन्तःकोटाकोटिलागरोपमस्थितिकानि कर्माणि बन्धं प्राप्नुवन्ति भवन्ति निर्मलपरिणामकारणात् सत्कर्माणि तेभ्यः कर्मभ्यः संख्येयसागरोपमसहस्रहीनाने अन्तः कोटाकोटिसागरोपमस्थितिकानि भवन्ति । तदा औपशमिकसम्म सवग्रहणयोग्य आत्मा भवति । इयं द्वितीयका ललब्धिः । अधःकरणम् अपूर्वकरण व विधाय अनिवृतिकरणस्य चरमसमये भव्यश्वातुर्गतिको मिथ्यादृष्टिः संक्षिपवेन्द्रियपर्याप्तो गर्भजो विशुद्धिवर्धमानः शुभलेश्यो २१७ अवशेष रहा हो। ऐसे जीवको ही सभ्यत्तवकी प्राप्ति होती है ॥ ३०७ ॥ आगे सम्यक्बके तीन भेदोंसे उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्रका लक्षण कहते हैं। अर्ध-सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशम सम्यक्त्व होता है। और इन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है । किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व केवली अथवा श्रुतकेबलीके निकट कर्मभूमिया मनुष्यके ही होता है ॥ भावार्थ - मिथ्यास्त्र, सम्यग् मिथ्याल और सम्यक्त्र तथा अनन्तानुबन्धी कोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे जैसे निर्मलीके डालने से पानीकी गाद नीचे बैठ जाती है, उस तरह उपशम सम्यक्त्व होता है । जिसका उदय होनेपर, तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं होता अथवा मिथ्यातस्त्रोंका श्रद्धान होता है उसे मोहन कहते हैं। उद होनेपर आत्मा सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा कहे हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्र रूप मोक्ष मार्गसे बिमुख और तत्वार्थ श्रद्धानसे रहित तथा हित अहितके विवेकसे शून्य मिध्यादृष्टि होता है । जब शुभ परिणामके द्वारा उस मियावी शक्तिको घटा दिया जाता है और वह आत्मा के श्रद्धानको रोकने में असमर्थ हो जाता है तो उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं । और जब उसी मिध्यात्वकी शक्ति आधी शुद्ध हो पाती है तो उसे सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं, उसके उदयसे तत्त्वोंके श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिले हुए भाव होते हैं । मिथ्यात्वका उदय रहते हुए संसार भ्रमणका अन्त नहीं होता इस लिये मित्रको अनन्त कहा है। जो क्रोध मान माया लोभ अनन्त ( मिथ्यात्व ) से सम्बद्ध होते हैं उन्हें अनन्तानुबन्ध कहते हैं । इनकी शक्ति बडी तीव्र होती है। इसीसे ये नरकगतिमें उत्पन्न कराने में कारण हैं । इन अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्स्वमोहनीय उपशमसे (उदय न होनेसे ) प्रथमोपशम सम्यक्त्र उत्पन्न होता है। अब प्रश्न यह होता है कि जो भव्य जीव अनादिकालसे मिध्यात्व में पड़ा हुआ है और कमोंके उदयसे जिसकी आारमा कलुषित है उसके इन सात प्रकृतियोंका उपशम कैसे होता है ? इसका उत्तर यह है कि काललब्धि आदि निमित्त कारणों के उपस्थित होनेपर सम्पक्त्वकी प्राप्ति होती है। कालन्धि आदिका स्वरूप इस प्रकार है- कमसे त्रिरे हुए भव्य जीवके संसार भ्रमणका काल अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन प्रमाण बाकी रहनेपर वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेका पात्र होता है । यदि उसके परिभ्रमणका काल अर्ध पुत्र परावर्तन से अधिक शेष होता है तो प्रथम सभ्यत्रको ग्रहण करनेके कार्तिके० २८ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३०८ जामवस्थितः ज्ञानोपयोगवान् जीवः अनन्तानुकोमा म मायालो भार मियात्त्रसम्यग्मिध्यात्वसम्यप्रकृती श्रोशमध्य प्रथमोपशम सम्य गृणातीत्यर्थः । तथा चोक्तम् "दंसणमोहुबसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थसणं । उदसमसम्मत्तमिर्ण सणमलपंक्तोयसमं ॥” अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहययस्य च उद्याभावलक्षणप्रशस्त पशमेन प्रसन्नमालाडतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्वं नाम । तस्य स्थितिकालः जघन्योत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त कालः । अथ मिथ्यात्वोदो अन्योऽन्तर्मुहूर्तमुयात् पुद्रलपरिवर्तार्थस्तिष्ठति । विविधपरिणामः उत्कृष्टतः अर्धपुलावर्तकाल संसारे स्थित्वा पश्चात् मुीित्यर्थः । तथा च "पढमे पटमं णियमा पढमं विदियं च सव्वकालन्हि जे पुण खाइयसम्म जहि जिणा तन्हि कालम्हि ॥” इति । तथा अनन्तानुचन्धिकोध मानमायाकोमसम्यक्त्यमिध्यात्वसम्यग्मिथ्यात्व सप्तप्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकम् । गाथाश्रयेण तदुक्तं वखीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुम्मिलं होइ । तं खाइयसम्म णिखं कम्मक्खवणहेदू ॥ १ ॥ मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्प्रकृतित्रयेऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयेन करणलब्धिपरिणाम सामर्थ्यात् क्षीणे सति यच्छ्रद्धानं सुनिर्मलं भवति तत्क्षा विकसम्यक्त्वम् । निवात् प्रतिभा पुनः प्रतिगुणश्रेणि योग्य नहीं होता । एक काललब्धि तो यह है । दूसरी कालब्धि यह है कि जब जीवके कर्मों की उत्कृष्ट अथवा जघन्य स्थिति होती है तब औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता । किन्तु जब कर्म अन्तः कोटाकोटी सागरकी स्थिति के साथ बंधते हैं, और फिर निर्मल परिणामोंके द्वारा उनकी स्थिति घटकर संख्यात हजार सागर हीन अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण शेष रहती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है। वह दूसरी कालब्धि है । इन काललब्धियोंके होनेपर जीवके करणलब्धि होती है । उसमें पहले अधःकरण फिर अपूर्वकरण और फिर अनिवृत्तिकरणको करता है । इन कणोंका मतलब एक विशेष प्रकारके परिणामोंसे है जिनके होनेपर सम्यक्त्वकी प्राप्ति नियमसे होती है । अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में चारों गतियोंमें से किसी भी गतिका संज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीव उक्त सात प्रकृतियोंका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । कहा भी है-अनन्तानुबन्ध चतुष्क और दर्शममोहनीयकी तीन प्रकृतियोंके उदयाभाव रूप प्रशस्त उपशमसे, जिसके नीचे मल बैठा हुआ है, उस निर्मल जलकी तरह जो पदार्थोंका दान होता है उसे उपशम सम्यक्व कहते हैं । उपशम सम्यक्त्वकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है । उसके बाद यदि मिध्यात्वका उदय आजाता है तो अधिक से अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक संसारमें रहकर पीछे वह जीव मुक्त हो जाता है। यह तो उपशम सम्यक्त्वका कथन हुआ । उक्त सात प्रकृतियोंके, अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यकमिध्यास्वके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। कहा भी है-दर्शनमोहनीय कर्मके क्षीण हो जानेपर जो निर्मल सम्यग्दर्शन होता है वह क्षायिक सम्यक्य है । यह सम्यक्त्र सदा कमोंके विनाशका कारण है। अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मोके नष्ट हो जानेसे आत्माका सम्यक्त्र गुण प्रकट हो जाता है, और उसके प्रकट होनेसे प्रतिसमय गुणश्रेणिनिर्जरा होती है | दर्शन मोहनीयका क्षय होनेपर जीव या तो उसी भबमें मुक्त हो जाता है या तीसरे भाव में मुक्त हो जाता है। यदि तीसरेमें भी मुक्त न हुआ तो चौथेमें तो अवश्य ही मुक्त हो जाता है । क्षायिक सम्यक्त्व अन्य सम्यक्त्वोंकी तरह उत्पन्न होकर छूटता नहीं है । अतः यह सादिअनन्त होता है अर्थात् इसकी आदि तो हैं किन्तु अन्त नहीं है, मुक्तावस्था में भी रहता है | तथा दर्शनमोहके क्षयका आरम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवलि भगवान् के पादमूलमें करता C Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३०९] १२. धर्मानुप्रेक्षा २१९ निर्जराकारणं भवति । दिसणा-येते त्वविदेसिए । गारिकयदि हरियण विणस्सदि सेससम्मं व ॥२॥ दर्शन मोहे क्षपिते सति तस्मिन्नेव भवे वा तृतीयभवे वा चतुर्थभचे कर्मक्षयं करोति, चतुर्थभयं नातिक्रामति । शेषसम्यत्तत्यवन विनश्यति । तेन नित्यं साद्यक्षयानन्तमित्यर्थः "दंसण मोहक्खवणापवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूलेषणो होदि सम्बत्स्थ ॥ ३ ॥ दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भकः कर्मभूमिज एव सोऽपि मनुष्य एव तथापि केवलिपादभूले एव भवति । निष्ठापकस्तु सर्वत्र चतुर्गतिषु भवति इति ॥ ३०८ ॥ अथ वेदकसम्वतवं निरूपयति उदयादो छहं सजाइ-रूषेण उदयमाणाणं । सम्मत - कम्म-उदये' खैयउवसमियं हवे सम्मं ॥ ३०९ ॥ [ छाया-अनुदयात् षण्णां खजातिरूपेण उदयमानानाम् । सम्यक्त्वकर्म उदये क्षायोपशमिकं भवेत् सम्यत्तत्वम् ॥ ] भवेत् । किं तत् । क्षायोपशमिकं सम्यतः सर्वधातिश्पर्धकानामुदयाभावलक्षणः क्षयः तेर्षा सदवस्थालक्षणः उपशमः देशघातिस्पर्धकानाम् उदयन अनुक्तोऽपि गृह्यते, क्षयधासामुपशमथ क्षयोपशमः, तत्र भवं क्षायोपशमिकम् । वेदकसम्य परं नाम स्यात् । च सति । छन्दं षण्णाम् अनन्तानुबन्धिको मानमायालो भमिथ्यात्वसम्यम्मिध्यास्वप्रकृतीनाम् धनुदयात् जदयाभावात् सपोपशमात अप्रशस्तरूपेण विषहालाहलादिरूपेण अथ दारुबहुभागशिलास्थिरूपेणोदयाभावात् । कीदृक्षाणां प्रकृतीनाम् । स्वजातिरूपेण उदद्यमानानाम् अनन्तानुबन्धीनां विसंयोजनेन अप्रत्याख्यनादिरूपविधानेन मिप्यात्वस्य च सम्यक्त्वरूपेण च उदयमानानाम् उवीयमानानाम् उदयं प्राप्तानाम् । क्क सति । सम्यस्वकर्मोदये सम्यत्तत्वप्रकृतेहै । यदि कदाचित् पूर्ण क्षय होनेसे पहले ही मरण हो जाता है तो उसकी समाप्ति चारों गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें हो सकती है | इन दोनों सम्यक्त्वोंके विषय में इतना विशेष ज्ञातव्य है कि निर्मलता की अपेक्षा उपशम सम्यक्त्र और क्षायिक सम्यक्वमें कोई अन्तर नहीं है; क्यों कि प्रतिपक्षी कर्मों का उदय दोनों हमें नहीं है । किन्तु फिरभी विशेषता यह है कि क्षायिक सम्यक्त्वमें प्रतिपक्षी कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जाता है और उपशम सम्यक्त्वमें प्रतिपक्षी कर्मों की सत्ता रहती है। जैसे निर्मली आदि डालने से गदला जल ऊपरसे निर्मल हो जाता है किन्तु उसके नीचे कीचड़ जमी रहती है। और किसी जलके नीचे कीचड़ रहती ही नहीं । ये दोनों जल निर्मलताकी अपेक्षा समान हैं । किन्तु एकके नीचे कीचड़ हैं इससे वह पुनः गदला हो सकता है, किन्तु दूसरेके पुनः गदला होने की कोई संभावना नहीं है ॥ ३०८ || अब वेदक सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंमेंसे छः प्रकृतियोंका उदय न होने तथा समानजातीय प्रकृतियोंके रूपमें उदय होनेपर और सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें क्षायोपशमिक सम्यक्स्व होता है ॥ भावार्थ- सर्वधाति स्पर्द्धकों का उदयाभावरूप क्षप और उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा देशघाति स्पर्द्धकोंका उदय होनेपर क्षायोपशमिक भाव होता है । क्षय और उपशमको क्षयोपशम कहते हैं और क्षयोपशमसे जो हो वह क्षायोपशमिक हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको ही वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व इन छः प्रकृतियोंके उदयका अभाव होनेसे तथा सदवस्थारूप अप्रशस्त उपशम होनेसे और सम्यक्त्य प्रकृतिका उदय होनेपर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। इसमें अनन्तानुबधी कषायका विर्सयोजन होता है अर्थात् उसके निषेकोंको सजातीय अप्रत्याख्यानात्वरण आदि कषायरूप कर दिया जाता है । अतः अनन्तानुबन्धी कषाय अपने रूपसे उदयमें न आकर सजातीय अप्रत्याख्यातावरण आदि रूपसे उदयमें आती हैं। इसी तरह मिथ्यात्व कर्म सम्यक्त्व १ म अणु० । २ बं सम्मत पनि उदये। ३ बाय | Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३१० रुदये सति चक्रमलिन्द्रमगाढं वेदकसम्यस्त्वं भवति । उकं च तथा । "दंसणमोहृदयादो उपज में पयत्यसणं । चलमलिमगार्ड तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ||" अनन्तानुबन्धिचतुष्कमिध्यात्वसम्यभिमन्यात्वानां षण्णाम् उदयक्षयात् सद्रूपोपशमात् दर्शनमोहस्य सम्यक्वस्य देशघातिनः उदद्यात् यत् तस्वार्थश्रद्धानं च मलिनमगाढं चोत्पद्यते तद्वेदकसम्यत्वमिति आनीहि । तस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिः कियतीति चेत्, उकं च अन्तर्मुहकाले जघन्यतस्तत्प्रायोग्यगुणयुक्तः षट्षष्टिसागरोपमकालं चोत्कर्षतो विधिना । उक्तं च । “लोकप्पे तेरस अबुदकप्पे य होंति बावीसा । उवरिम एकतीसं एवं सव्वाणि छासठ्ठी ॥" सम्यक्त्चत्रयवन्तः संसारे कियत्काल स्थित्वा मुक्ति यान्ति ते तदुच्यते । “पुलपरिवर्तार्थ परतो व्यालीढवेदको पशमी । वसतः संसाराब्धी क्षायिकदृष्टिर्भवचतुष्कः ॥” इति ॥ ३०५ ॥ अथोपशमवेदकसम्यक्चानन्तानुबन्धिविसंयोजनदेशत्रतप्राप्तिमुत्कृष्टेन निगदति गिदि मुंचदि' जीवो वे सम्म से असंख-वाराओ । पदम कसाय - विणा संदेस ययं कुणदि उकस्सं ॥ ३१० ॥ प्रकृतिके रूप से उदयमें श्राता है। सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती है अतः वह सम्यक्त्वा घात नहीं करती किन्तु उसके उदयसे सम्यक्त्वमें चल, मलिन और अगाढ दोष होते हैं । जैसे एक ही जल अनेक तरंगरूप हो जाता है वैसेही जो सम्यग्दर्शन सम्पूर्ण तीर्थङ्करोंमें समान अनन्त शक्ति होनेपर मी 'शान्तिके लिये शान्तिनाथ समर्थ हैं और विघ्न नष्ट करनेमें पार्श्वनाथ समर्थ हैं इस तरह भेद करता है उसको चल सम्यग्दर्शन कहते हैं। जैसे शुद्ध स्वर्ण मलके संसर्गसे मलिन होजाता है वैसेही सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे जिसमें पूर्ण निर्मलता नहीं होती उसे मलिन सम्यग्दर्शन कहते हैं । और जैसे वृद्ध पुरुषके हाथमें स्थित लाठी कांपती है वैसेही जिस सम्यग्दर्शन के होते हुए भी अपने बनवाये हुए मन्दिर वगैरह में 'यह मेरा मन्दिर है' और दूसरेके बनवाये हुए मन्दिर बगैरह में 'यह दूसरेका है' ऐसा भाव होता है वह अगाढ सम्यग्दर्शन है। इस तरह सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ होता है । इसीसे इसका नाम वेदक सम्यक्त्व भी है; क्योंकि उसमें सम्यक्त्व प्रकृतिका वेदन- ( अनुभवन ) होता रहता है। कहा भी है- "दर्शनमोहनीयके उदयसे अर्थात् सर्वघाति अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके आगामी निषेकका सदवस्थारूप उपशम और वर्तमान निषेकोंकी बिना फल दिये ही निर्जरा होनेपर तथा सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होनेपर वेदक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ होते हुए भी नित्य ही कर्मोकी निर्जराका कारण है ।" क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागर है । सो लान्त स्वर्ग में तेरह सागर, अच्युतकल्पमें बाईस सागर और उपरिम ग्रैवेयक में इकतीस सागरकी आयुको मिलानेसे छियासठ सागरकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । तीनों सम्यग्दृष्टि जीव संसार में कितने दिन तक रहकर मुक्त होते हैं इस प्रश्नका उत्तर पहले दिया है। अर्थात् जो जीव वेदक सम्यक्त्वी अथवा उपशम सयक्ती होकर पुनः मिथ्यादृष्टि होजाता है वह नियमसे अर्ध पुल परावर्तन कालके समाप्त होनेपर संसारमें नहीं रहता, किन्तु मुक्त हो जाता है । तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि अधिक से अधिक चार भव तक संसारमें रहता है ॥ ३०९ ॥ आगे औपशमिक सम्यक्त्र, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अमन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशव्रतको प्राप्त I १] मुबदि । ' : , Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१५] १२. धर्मानुप्रेक्षा २२१ [छाया-गृकाति मुमति जीवः द्वे सम्यक्त्वे असंख्यवारान् । प्रथमकषायविनाश देशवतं करोति उत्कृष्टम् ।। जीवः भव्यारमा उत्कृष्टम् उत्कृष्टेन असंख्यातबारान् पल्यासंख्यातेकभागवारमात्रान् सम्यक्त्वे प्रथमोपशमसम्यक्त्वं बेदकसम्यत व ते दे. गृह्णाति अङ्गीकरोति मुञ्चति च मिथ्यात्वाघुदयात् विनाशयति । च पुनः, प्रथमकषायविनाशम् भगन्तानुबग्धिकोषमानमायालोभकषायविनाशनं विसंयोजन परप्रकृयोपादान प्रत्याख्यानादिकषायसदृशविधानम् उत्कृष्टेन असंपवारान् पल्यासंख्यातेकभागमात्रधारान् करोति विदधाति । देशव्रतं संयमासंयमम् असंग्ल्यातधारान् पल्यासरख्यातेकभागमात्रबारान् ५ उत्कृष्टेन गृहाति मुभति । पश्चापरि नियमेन सिध्यत्येवेति तात्पर्यार्थः । तदुकं च । “सम्मत्तं देसजम अणसंजोजणविहिं च उकस्स । पालासंखेजदिम वारं पविजदे जीवो।" प्रथमोपशमसम्यक्त्व वेदकसम्यसव देशसयममनन्तानुबन्धिविसयोजनविधि च उरकृटेन पल्यासंख्यातकमागवारान् ५ प्रतिपद्यते जीवः उपरि नियमेन सिध्यत्येव ।। ३१० ॥ अथ सम्यम्दष्टेः तत्त्वश्रद्धानं गाधानयकेन ब्याचष्टे जो तश्चमणेयंत णियमा सहदि सत्तभंगेहिं । लोयाण पह-वसदो ववहार-पवत्तणटुं च ।। ३११॥ [छाया-यः तस्वमनेकान्तं नियमात् श्रद्दधाति सप्तमः । लोकानां प्रश्नवशात, व्यवहारप्रवर्तनाथ च॥ यः भध्यवरपुण्डरीकः सहदि श्रद्धाति निश्चयीकरोति रुचि विश्वास धत्ते। कि तत। तत्त्वानि जीवाजीवास्रवचन्धसंबरनिर्जरामोक्षा इति सप्ततस्व वस्तुपदार्थम् , नियमात निश्चयतः । कीरक्षं तत् तत्त्वम् । अनेकान्तम् अस्तिनास्तिनित्यानित्यमेदामेदा. बनेकधर्मविशिष्टम् । कैरनेकान्तं तत्त्वं श्रदधाति । सप्तमः कृत्वा । स्यादस्ति, स्यात् कथंचित विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादि करने और छोडनेकी संख्या बतलाते हैं । अर्थ-उत्कृष्टसे यह जीव औपशमिक सम्यक्त्र, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशवत, इनको असंख्यात बार ग्रहण करता और छोड़ता है।। भावार्थ-मव्यजीव उक्त चारोंको अधिक से अधिक पत्यके असंख्यात भाग वार ग्रहण करता और छोड़ता है। अर्थात् पत्यके असंख्यातवें भाग धार उपशम सम्यक्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । पल्यके असंख्यातवें भाग वार अनन्तानुबन्धी कषायको अग्रत्याख्यानावरण आदि रूप करता है और अधिकसे अधिक पस्यके असंख्यातवें भाग वार देशव्रत धारण करता है । इसके बाद मुक्त हो जाता है ॥३१०॥ आगे सम्यग्दृष्टिके तत्त्व श्रद्धानका निरूपण नौ गाथाओंसे करते हैं। अर्थ-जो लोगोंके प्रश्नोंके वशसे तथा व्यवहारको चलानेके लिये सप्तभंगीके द्वारा नियमसे अनेकान्त तत्त्वका श्रद्धान करता है तथा जीव अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोंको श्रुतज्ञान और श्रुतज्ञानके भेद नयों के द्वारा आदर पूर्वक मानता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ।। भावार्थ--जो भव्य श्रेष्ठ, कयंचित् अस्ति, कथंचित् नास्ति, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित मेदरूप, कथंचित् अमेदरूप इत्यादि अनेक घोसे विशिष्ट जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका सात भंगोके द्वारा निश्चयपूर्वक श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है। अर्थात् स्यात् अस्ति-खद्रव्य, खक्षेत्र, खकाल और स्वभावकी अपेक्षा तल सरस्वरूप है १ । स्यात् नास्ति-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा तत्त्व असत् खरूप है २ । स्यात् अस्ति नास्ति-खद्रव्य आदि चतुष्टयको अपेक्षा तत्त्व सत् है और परद्रव्य आदि चतुष्टय की अपेक्षा असत् है, इस प्रकार क्रमसे दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेपर तीसरा भङ्ग होता है ३ । स्यात् अवक्तव्य--एक साथ दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेपर तत्व कथंचित् अवक्तव्य है; क्योंकि वचन व्यवहार क्रमसे ही होता है अतः दोनों धर्मोको एक साथ कहना अशक्य है ४ । स्यात् अस्ति १सग वसादो। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३१२यतुष्टयापेक्षया द्रष्य तस्वमस्तीत्यर्थः । १। स्यानास्ति, स्यात् कत्येचित् विषक्षितप्रकारेणापरव्यादिचतुष्टयापेक्षया वृष्य नास्तीत्यर्थः । २1 स्मादस्तिनास्ति, स्थात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण कमेण खपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति नास्तीत्यर्थः ।। स्यादवक्तव्यम् , स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण युगपदक्तुमशक्यत्वात् 'क्रमप्रवर्तिमी भारती इति वचनात् युगपत् वपरद्रष्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमवक्तव्यमित्यर्थः । ४ । स्यादस्त्यवकन्यम्, स्याद थपिद विवक्षितप्रकारेण खद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्सपरदव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यम् अस्त्यवक्तव्यमित्यर्थः 1५। स्यानास्त्यवतन्यम्, स्यात् कथंचित विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिवतुष्टयापेक्षया युगपत् स्वपरद्रव्याविचतुष्टयापेक्षया च द्रव्य नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः । ६ । स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यम्, स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण क्रमेण खपरदव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्खपरद्रव्यादिवतुष्टयापेक्षया च द्रव्यमस्तिनास्यवतव्यमित्यर्थः । ७ । “एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाणनयवाक्यतः । सदादिकल्पना या च सप्तभङ्गीति सा मता ॥ इति सप्तभः । सप्टेन भताः प्रकारसः नाधिका न न्यूनाः । सव कुतः । लोकानां व्यावहारिकजनानां पारमार्थिकजनानां च प्रश्नवशात् । जीवो अस्ति । गुन्तः । खद्रव्य चतुष्टयापेक्षातः । जीवो नास्ति । कुतः । परद्रव्यचतुष्टयापेक्षातः । एवं शेषभन्ने योज्यम् च पुनः । किमर्थम् । व्यवहारप्रवर्तनार्थ, प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिलक्षणो व्यवहारः, तस्य प्रवर्तनार्थम् । लोकव्यवहारस्तु अस्तिनास्त्यादिरूपः तत्प्रवृत्त्यर्थम् ॥ ३११॥ । जो आयरेण मण्णादि' जीवाजीवादि' गाव-विई अत्थं । सुदै-णाणेण गएहि य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥ ३१२ ॥ [छाया-यः आदरेण मन्यते जीवाजीवादि नवविध अर्थम् । श्रुतज्ञानेन नयैः च स सदृष्टिः भवेत् शुद्धः ॥] स पुमान् भन्यः शुद्धः पञ्चविंशविसम्यक्त्वमलरहितः सदधिः, सती समीचीना दृष्टिः दर्शनं यस्य स सहुष्टिः, सम्यग्दृष्टिः सम्यतयाम् भवेत् स्यात् । स कः । यः पुमान् आदरेण निश्चयेन उद्यमेन च मन्यते निश्चिनोति निश्चयं करोति । के तम् । अर्थ पदार्थम् । कतिमेदम् । जीवाजीवादिनवविध, जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यापरूपं नवप्रकारम् । केन श्रदधाति । श्रुतज्ञानेन प्रमाणेन तांगमशारेण द्रव्यश्रुतभावश्रुतशानघलाधानात, च पुनः । कः । नयैः नैगमसंम्हन्यवहारकजुसूत्रपाब्वसममिरुढेवभूतनयः द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयैश्च ।। ३१२ ॥ सम्यम्दष्टेर्लक्षणं लक्षयति-- - अवक्तव्य-लद्रव्य आदि चतुष्टयकी अपेक्षा सत् तथा एक साथ दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे अवक्तव्य रूप तस्त्र है ५ । स्यात् नास्ति अवक्तव्य-परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा असत् तथा एक साथ दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे अवक्तव्यरूप तत्त्व है ६ । स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य-स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा सत्, पर द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा असत्, तथा एक साथ दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे अवक्तव्य रूप तत्त्व है ७ । इस तरह सातही भङ्ग होते हैं, न अधिक होते हैं और न सातसे कम होते हैं, क्योंकि व्यावहारिक जनोंके प्रश्न सातही प्रकारके होते हैं। तथा सात प्रकारके ही प्रश्न इस लिये होते हैं कि जिज्ञासा (जाननेकी इच्छा ) सातही प्रकारकी होती है । और सातही प्रकारकी जिज्ञासा होनेका कारण यह है कि सात प्रकारके ही संशय होते हैं । और सात प्रकारके संशय होनेका कारण यह है कि वस्तुधर्म सात प्रकारका है | अत: प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यवहारके चलानेके लिये सप्तभंगीके द्वारा अनेकान्त रूप तत्वका श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है। • तथा जो श्रुतज्ञान और च्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा जीव, अजीव, आस्रय, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ तत्वोंको आदरके साथ मानता है बह भव्य पञ्चीस दोष रहित शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ।। ३११-३१२ ॥ सम्यग्दृष्टिका और मी लक्षण कहते हैं । अर्थ-वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थोंमें गर्व नहीं करता, उपशमभावको भाता है और ममुणदि, ग मन्त्राद। २'जीवाद। ३ बम सुभ। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१४] १२. धर्मानुप्रेक्षा जो ण य कुछदि गवं पुस- कलत्ताइ सब अत्थेसु । सम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिण मे ॥ ३१३ ॥ २२३ [छाया यः न च कुरुते गवं पुत्रकलत्रादिषु । उपशमभावे भावयति आत्मानं जानाति तृणमात्रम् ॥ ] यो भव्यः गर्वम् भहंकारे ज्ञानकुल जातिब लगा द्धिपूजातपोवपुरात्मक मष्टप्रकारं न करोति न विधाति । क ग न करोति । पुत्रकस्त्रादिसर्वार्येषु पुत्रः सुतः कलत्रं युवतिः आदिशब्दात् धनधान्यगृहहद्विपद मनुष्पदकुलजातिरूपादिपदार्थेषु । यः उपशमभावान् उपशमपरिणामान् शत्रु मित्रस्वर्गतृणादिषु समानपरिणामान् साम्यरूपान रमत्रयषोडशभावनादिभावान्, उपलक्षणात क्षायिकपरिणामांश्च भावयति अनुभवति, आत्मानं तृप्पमात्रं मन्यते मनुते मानयति जानाति । अहं भकिंचनोऽस्मि इति भावयतीत्यर्थः ॥ ३१३ ॥ विसयासत्तो वि सया समारंभेसु वह्नमाणो वि । मोह-विलासो एसो इदि स मण्णदे हेयं ॥ ३१४ ॥ [छाया-विषयासक्तोऽपि सदा सर्वारम्भेषु वर्तमानः अपि । मोविलासः एष इति सर्व मन्यते हेयम् ॥ ] इत्यमुना प्रकारेण सर्व विषयादिकं हेयं त्याज्यं मन्यते जानाति इति, एकः प्रत्यक्षीभूतो मोहविलासः मोहनीय कर्म बिलास विलसनं वेष्टा । कीदृक् सन् सर्व हे पुत्रान्यादिगृहमन्यते जानाति मनुते । सदा निरन्तर विषयासकोऽपि, इन्द्रियाणां विषयेषु आसकिं प्रीतिं गतोऽपि अपिशब्दात् विरक्तः सन् सर्व हेयं परवस्तु या मनुते । पुनः सर्वारम्भेषु असिमधिकृषिवाणिज्यपशुपालनादिव्यापारेषु वर्तमानोऽपि सर्वव्यापारान् कुर्वपि सर्व हेयं भरतचक्रीवत् मन्यते । अपिशब्दात् सर्वारम्मेषु विरक्तः सर्व हेयं मन्यते । उक्तं च । “धात्री माला सती नाथ, पद्मिनी जलविन्दुवत् । दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ॥” इति ॥ ३१४ ॥ अली अपनेको तृण समान मानता है । भावार्थ-शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी होकर भी ज्ञानका मद नहीं करता, उच्च कुल और उच्च जाति पाकर भी कुल और जातिका मद नहीं करता, बलवान होकर भी अपनी शक्तिके नशेमें चूर नहीं होता, पुत्र श्री धन धान्य हाट हवेली नौकर चाकर आदि विभूति पाकर भी मदान्ध नहीं होता, जगत में आदर सत्कार होते हुए भी अपनी प्रतिष्ठापर गर्व नहीं करता, न सुन्दर सुरूप शरीरका ही अभिमान करता है। और यदि तपखी हो जाता है तो तपका अभिमान नहीं करता | शत्रु मित्र और कंचन काचको समान समझता है । रत्नत्रय और सोलह कारण भावनाओंको ही सदा भाता है । तथा अपनेको सबसे तुच्छ मानता है ॥ ३१३ ॥ अर्थविषयोंमें आसक्त होता हुआ भी तथा समस्त आरम्भों को करता हुआ भी यह मोहका विलास है ऐसा मानकर सबको हेय समझता है | भाषार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि यद्यपि इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहता है और त्रस स्थावर जीवों का जिसमें घात होता है ऐसे आरम्भोंको भी करता है फिर भी वह यह जानता है कि यह सब मोहकर्मका विलास है, मेरा स्वभाव नहीं है, एक उपाधि है, व्यागने योग्य है। किन्तु यह जानते हुए भी कर्मके उदयसे बलात् प्रेरित होकर उसे विषयभोगमें लगना पड़ता है । उसकी दशा उस चोरके समान है जो कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाकर फांसी के तख्ते पर लटकाया जाने वाला है। पकड़े जानेपर चोरको कोतवाल जो जो कष्ट देता है उसे वह चुपचाप सहता है और अपनी निन्दा करता है। इसी तरह कर्मोंके वश हुआ सम्यग्दृष्टि जीव भी असमर्थ होकर विषय सेवन १ म ऋणमित्तं । 2-21 वेश Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा उत्तम-गुण- गहण - रओ उत्तम साहूण विषय-संजुत्तो' । साहम्मियं अणुराई सो सहिट्टी हवे परमो || ३१५ ॥ [ गा० ३१५ 1 [ छाया-उत्तम गुणप्रहृणरतः उत्तमसाधून विनयसंयुक्तः साधर्मिकानुरागी स सदृष्टिः भवेत् परमः ॥ ] स सदृष्टिः सम्यग्दृष्टिकृष्टो भवेत् । स कीदृक्। उत्तमगुणग्रहणरतः, उत्तमानां सम्यग्दृष्टीनां मुनीनां श्रावकाणां च गुणाः सम्यत्त्वज्ञानचारित्रतपोनतादिगुणाः मूलोत्तरगुणा वा तेषां ग्रहणे मनसा रुचिरूपे जिह्वया ग्रहणरूपे च रतः रक्तः । पुनः कीदृक्षः । उत्तमसाधूनाम् आचार्योपाध्याय सर्वसाधूनां विनयसंयुक्तः वैयावृत्यनमस्कार तदागमने उद्धी भवनासननिवेशन पादप्रक्षालनादिविनयपरिपतः दर्शनशानचारित्राणां तद्वतां विनयो वा । पुनः कीदृक् । साँधर्मिकानुरागी साधर्मिके जैनधर्माराधके जने अनुरागः प्रीतिरकृत्रिमस्त्रेहः विद्यते यस्य स तथोकः ॥ ३१५ ।। देह-मिलिये वि जीव शिय-गाम-गुणेण मुणदि जो भिष्णं । जीव- मिलिये पि देहं कंचुर्व सरिसं वियाणेइ ॥ ३१६ ॥ [ छाया - देहमिलितम् अपि जीवं निजज्ञानगुणेन जानाति यः भिन्नम् । जीवमिलितम् अपि देहूं कटुकदर्श विजानाति ॥ ] यो भन्मः मनुते आनाति । कमू । जीव स्वात्मानं देहमिलितमपि औदारिकादिशरीर संयुक्तमात्मानमपि निजज्ञानगुणेन स्वकीयज्ञानदर्शनमुणेन भेदज्ञानेन स्वपर विवेचनज्ञानगुणेन भिनं पृथपूर्व जानाति । अपि पुनः सम्यग्दृष्टिः देवं शरीरं जीवमिलितमपि आत्मना सहितमपि ककसदृशं विजानासि । यथा शरीराश्रितं श्वेतपीतहरितारुण कृष्णवर्णकभुक व भि पृथक् तथा जीवाश्रितम् औदारिकादिनामकर्मोत्पादित श्वेतपीतादिवर्णोपेतशरीरं भिन्नं पृथपूर्ण जानातीत्यर्थः ॥ ३१६ ॥ णिज्जिय-दोसं देवं सेव- जिवाणं दयावरं धम्मं । वजिय-गंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ॥ ३१७ ॥ [ छाया-निर्जितदोषं देवं सर्वजीवानां व्यापरं धर्मम् । वर्जितग्रन्थं च गुरुं सः मन्यते स खलु सदृष्टिः ॥ ] हु इति स्फुटं निश्वयो वा । स शास्त्र प्रसिद्धः सदृष्टिः सम्यग्दृष्टिः भवेदित्यध्याहार्यम् । स कः । यो भव्यः देवं परमाराध्यं भगवन्तं करता है और पश्चात्ताप करता है | ३१४ ॥ अर्थ -जो उत्तम गुणोंको ग्रहण करनेमें तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनोंसे अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है ॥ भावार्थ- - उत्तम सम्यग्दृष्टियों, श्रावकों और मुनियोंक्रे जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यञ्चारित्र तप, व्रत आदि उत्तमोत्तम गुण हैं उनको अपनानेमें उसकी मानसिक रूचि होती है, वह उत्तम साधुओंकी वृत्य करता है, उन्हें नमस्कार करता है, उनके पधारने पर खड़ा हो जाता है, उन्हें उश्वासनपर बैठाता है, उनके पैर धोता है। साधर्मी भाइयोंसे स्वाभाविक स्नेह करता है। जिसमें ऊपर कही हुई सब बातें होती हैं वह जीव शुद्रसम्यग्दृष्टि है || ३१५ ॥ अर्थ - वह देहमें रमे हुए भी जीवको अपने ज्ञान गुणसे भिन्न जानता है। तथा जीवसे मिले हुए भी शरीरको वस्त्रकी तरह भिन्न जानता है । भावार्थ - जीव और शरीर परस्परमें ऐसे मिले हुए हैं जैसे दूधमें घी । इसीसे मूढ़ पुरुष शरीरको ही जीव समझते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि जानता है कि जीव ज्ञानगुणवाला है और शरीर पौगलिक है । अतः वह शरीरको जीवसे वैसा ही भिन्न मानता है जैसा ऊपरसे पहना हुआ वस्त्र शरीरसे जुदा है ॥ ३१६ ॥ अर्थ- जो वीतराग अर्हन्तको देव मानता है, सत्र जीवों पर दयाको उत्कृष्ट धर्म मानता है और परिग्रहके त्यागीको गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है || भावार्थ- सम्यग्दृष्टि जीव भूख, प्यास, १ व सुंजुसो र साहिनिय । ३ म स ग कंन्तु । ४ म सच्चे । ५ ब म ( १ ) स ग जीवाण । ६ म दयावई । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१८ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २२५ । सर्वशं वीतरागमर्हन्तं मनुते मानयति जानाति श्रद्धाति निश्चयीकरोति । कथंभूतं देवम् । निर्जित्तदोषं निर्जिताः स्फेटिताः दूरीकृताः दोषाः क्षुषादयोऽएादया येन स निर्जितदोषस्तं निर्जितदोषम् । के दोषा इति चेदुच्यते । 'धा १ तृषा २ भयं ३ द्वेषी ४ रागो ५ मोहव ६ चिन्तने ७ जरा ८ रुजा ९ च मृत्युश्च १० स्वेदः ११ खेदो १२ मी १३ रतिः १४ ॥ विस्मयो १५ जननं १६ निद्रा १७ विषादो १८ दश ध्रुवाः । एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः ।।” इत्यष्टादशदोषविवर्जितम् आप्तं श्रद्दधाति मनुते । च पुनः , धर्म वृषं श्रेयः मन्यते श्रधाति । कथंभूतं धर्मम् । सर्वजीवानां दयापर सर्वेषां जीवानां प्राणिनां पृथिव्यतेजोवायुवनस्यतित्र सकायिकानां शरीरिणा मनोवचन कायकृतकारितानुमतप्रकारेण दयापर पोत्कृष्ट धर्म श्रद्दधाति यः । तथा च । “अम्मो वत्सहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो स्थपतयं च धम्मो जीवाणं रक्खर्ण धम्म” इति धर्ममनुते । च पुनः यो गुरुं मनुते । कीदृशं गुरुम् । वर्जितप्रन्थं परित्यकबाह्याभ्यन्तर चतुर्विंशतिसंख्योपेतपरिग्रहम् । के ते मामाभ्यन्तरमन्था इति चेदुच्यते । "क्षेत्र १ वास्तु २ धनं ३ धान्यं ४ द्विपदं ५ च चतुष्पदम् ६ । यानं ७ शय्यासनं ८ तस्मादि षट् ६ कषायचतुष्टयम् ४ । रागद्वेषौ २ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ इति ॥ ३१७ ॥ कोऽसी मिध्यादृष्टिरिति चेदाह - दोस-सहियं पि देवं जीव-हिंसाई -संजुदं धम्मं । गंधाससं च गुरुं जो मण्णदि' सो हु कुद्दिट्ठी ॥ ३१८ ॥ [ छाया-दोषसहितम् अपि देवं जीवहिंसादिसंयुतं धर्मम् । प्रन्यासकं च गुरुं यः मन्यते स खलु कुदृष्टिः ॥ ] हु इति निश्वयेन । स प्रसिद्धः कुदृष्टिः कुत्सिता दृष्टिदेर्शनं यस्यासी युष्टिः मिथ्यादृष्टिर्भवेत् । स कः । यः दोषसहितमपि देव... सभ्यते, दोषैः क्षुधातृषारागद्वेष भयमोहादिलक्षणैः सहितं संयुक्तं देवं केवलिनां क्षुधादिकं शंखचक्रगदालक्ष्म्या संयुक्तं हरि I भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और विषाद, इन अठारह दोषोंसे रहित भगवान् अर्हन्त देवको ही अपना परम आराध्य मानता है तथा स्थावर और त्रसजीवोंकी मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से हिंसा न करनेको परम धर्म मानता है । कहा भी है- "वस्तुके स्वभावको धर्म कहते हैं, उत्तम क्षमा आदिको धर्म कहते हैं, रत्नत्रयको धर्म कहते हैं और जीवोंकी रक्षा करनेको धर्म कहते हैं। तथा १४ प्रकारके अंतरंग परिग्रह और दस प्रकारके बहिरंग परिग्रह के व्यागीको सच्चा गुरु मानता है ।। ३१७ ॥ आगे मिध्यादृष्टिका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो दोषसहित देवको, जीवहिंसा आदिसे युक्त धर्मको और परिग्रहमैं फँसे हुए गुरुको मानता है वह मिथ्यादृष्टि है । भावार्थ - जिसकी दृष्टि कुत्सित होती है उसे कुदृष्टि अथवा मिध्यादृष्टि कहते हैं। वह कुदृष्टि राग, द्वेष, मोह वगैरह से युक्त पुरुषोंको देव मानता है। अर्थात् शंख, चक्र, गदा, लक्ष्मी वगैरहसे संयुक्त विष्णुको, त्रिशूल पार्वती आदिले संयुक्त शिवको और सावित्री गायत्री आदि से मण्डित ब्रह्माको देव मानता है, उन्हें अपना उद्धारक समझकर पूजता है । अजामेध, अश्वमेध, आदिमें होनेवाली याज्ञिकी हिंसाको धर्म मानता है, देवी देवता और पितरोंके लिये जीवोंके घात करनेको धर्म मानता है। इस तरह जिस धर्ममें जीवहिंसा, झूठ, चोरी ब्रह्मचर्य का खण्डन और परिग्रहका पोषण बतलाया गया है उसे धर्म मानता है । जैसा कि मनुस्मृति कहा है कि 'न मांस भक्षण में कोई दोष है, न शराब पीनेमें कोई दोष है और न मैथुन सेवनमें कोई दोष है ये तो प्राणियों की प्रवृत्ति है ।' तथा जो अपनेको साधु कहते हैं किन्तु जिनके पास हाथी, १ ल ग हिंसादि [ जीवं-दिखाइ ] । २ व मण्णश् । कार्तिके• २९ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० ३१९ त्रिशल्यदिपार्वतीगङ्गादिमण्डितं हर सावित्रीगायत्यादिमण्डितं ब्रह्माणम् इत्यादिकं देवं यः मनुते धधाति से मिथ्यादृष्टिः स्यात् । च पुनः, यः जीवहिसादिसंयुतं धर्म मन्यते मनुते । अजागोगजतुरगमेधादियाशिकीहिंसाधर्म देवदेवीपितरार्थ चेतनाचेतनाना जीवानां विराधनाधर्म देवगुरुधर्माद्यर्थ सैन्यादिचूरग धर्मम् इति जीवहिंसानृतस्तेयब्रह्मचर्यखण्डनपरिप्रहादिमेलनादिसहितं धर्म मन्यते श्रदधाति स मिथ्यादृष्टिः । च धुमः, प्रन्यासकं गुरु क्षेत्रवास्तुधनधान्यद्विपदलीप्रमुखपरिमसहित गुरु दिगम्बरगुरुं बिना अन्यगुरुं मन्यते अलीकरोति यः स मिथ्यावृष्टिर्भवेत् ॥३१॥ अथ केऽप्येवं बदन्ति हरिहरादयो देवा लक्ष्मी ददति उपकार च कर्यते तदायसत् इति निगढति ण य को वि देदिलच्छी को वि' जीवस्स कुणदि उक्यारे । ज्ययार अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१९ ॥ [छाया-न च का अपि ददाति लक्ष्मी न कः अपि जीवस्य करोति उपकारम् । उपकारम् अपकार कर्म अपि शुभाशुभ करोति ॥] कोऽपि देनः हरिहरहिरण्यगर्भगजतुण्डमूषकवाहनसिद्धिपुद्धिकलनलक्षलाभपुत्रादिमण्डितगणपत्यादिलक्षणो देवा, म्यन्तर चण्डिक्राशक्तिकालीयक्षीयक्षक्षेत्रपालादिको वा, ज्योतिष्कसूर्यचन्द्रग्रहादिको वा, लक्ष्मी खर्णरनधनधान्यपुत्रकलत्रमित्रगजतुरंगरयादिसंपदा ददाति प्रयच्छति वितरति । च पुनः, कोऽपि हरिहरहिरण्यगर्भगणेशकपिलसौगतव्यन्तरचण्डिकादेवदेवीलक्षणः जीवस्यात्मनः उचगारे सुखदुःस हिताहितेष्टानिष्टारोग्यरोगप्राप्तिपरिहाररूपमुपग्रह करोति । नन्वहो सुखदुःखादिकं लक्ष्मीप्राप्तिकरण कोऽपि देवो न करोति तह कः कुरुते । परिहारमाह । शुभाशुभकर्मापि पूर्वोपार्जितप्रशस्वाप्रशस्त फर्म पुण्यकर्म पापकर्म जीवस्य उपकार लक्ष्मीसंपदादिकं सुखहितवाञ्छितवस्तुप्रदानम् अपकारम् अशुभमसमीचीन दुःखदारियरोगाहितलक्षण च कुरुते विदधाति । शुभाशुभकर्म जीवस्य सुखदुःखादिक करोतीत्यर्थः ॥ ३१९ ॥ अथ व्यन्तरदेवादयो लक्ष्म्यादिकं वितरन्ति, सहि धर्मकरणं व्यर्थमिति सष्टयति भत्तीऍ पुज्जमाणो वितर-देवो वि देदि जदि' लच्छी। तो किं धम्में कीरदि' एवं बितेइ सहिडी ॥ ३२० ॥ घोडे, जमीन, जायदाद और नौकर चाकर वगैरह विभूतिका ठाट राजा महाराजाओंसे कम नहीं होता, ऐसे परिग्रही महन्तोंको धर्मगुरु मानता है, वह नियमसे मिच्यादृष्टि है ॥ ३१८ ॥ किन्हींका कहना है कि रिहर आदि देवता लक्ष्मी देते हैं, उपकार करते हैं किन्तु ऐसा कहना मी ठीक नहीं है । अर्थ-न तो कोई जीवको लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीवका उपकार और अपकार करते हैं । भावार्थ-शिव, विष्णु, मझा, गणपति, चण्डी, काली, यक्षी, यक्ष, क्षेत्रपाल वगैरह अथवा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह वगैरह सोना, रन, स्त्री, पुत्र, हाथी, घोडे आदि सम्पदा देनेमें असमर्थ हैं । इसी तरह ये सब देवता सुख, दुःख, रोग, नीरोगता आदि देकर या हरकर जीवका अच्छा या बुरा भी नहीं कर सकते हैं। जीव जो अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका उदय ही जीवको सुख, दुःख, आरोग्य अथवा रोग आदि करता है । इसीसे आचार्य अमितगतिने सामायिक पाठमें कहा है-'इस आत्माने पूर्व जन्ममें जो कर्म किये हैं उनका शुभाशुभ फल उसे इस जन्ममें मिलता है। यदि कोई देवी देवता शुभाशुभ कर सकता तो स्वयं किये हुए कर्म निरर्थक होजाते हैं । अतः अपने किये हुए कोंके सिवा प्राणीको कोई भी कुछ नहीं देता, ऐसा विचारकर कोई देवी देवता कुछ देता है इस बुद्धिको छोड़ दो ॥ ३१९ ॥ आगे कहते हैं कि यदि व्यन्तर देवी देवता वगैरह १५। २सग कोइ, बणय को वि। देश जइ। ४कम स ग धम्म । ५ व कीरह । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२२] १२. धर्मानुप्रेक्षा छाया-भक्त्या पुज्यमानः व्यन्तरदेवः अपि ददाति यदि लक्ष्मीम्।तत् किं धर्मेण कियते एवं चिन्तयति सदृष्टिः ।] व्यन्तरदेवोऽपि क्षेत्रपालकालीचण्डिकायक्षादिलक्षणः भरुया बिनयोत्सवादिना पूज्यमानः आर्षतः सन् लक्ष्मी संपदा ददाति यदि चेत्, तो तहि धर्मः कयं कियते विधीयते । तथा चोक्तम् । “तावश्चन्द्रबलं ततो प्रहबल ताराबलं भूषलं, तावसिध्यति वाञ्छितार्थमखिल तावजन: सजनः । मुद्रामण्डलमत्रतत्रमहिमा तावत्कृत पौरुष, यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये क्षीयते ।।" तथा 'धर्मः सर्यसुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिम्बतें' इत्यादिकम् एवं पूर्वोकप्रकारे च सम्यम्हाष्टिः चिन्तयति ध्यायति ॥ ३२ ॥ अथ सम्यरष्टिः एवं वक्ष्यमाणलक्षणं विचारयतीति गाथात्रयेणाह जं जस्स जम्मि' देसे जेण विहाणेण जम्भि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ॥ ३२१ ॥ [छाया-यत् यस्य यस्मिन् देशे येन विधानेन यस्मिन् काले । ज्ञात जिनेन नियतं जन्म वा अथवा मरणं वा॥] यस्य पुंसः जीवस्य यस्मिन् देशे अनवभकलितमरुमालवमलयाटगुर्जरसौराष्ट्रविषये पुरनगरकवटखेटमामवनादिके वा येन विधानेन शत्रण विधेग बैश्वानरेग जलेन सीतेन श्वासोच्छ्वासरुधनेनानादिविकारेण कुष्टमगंधरकुरैपिचण्डपीडाप्रमुखरोगेण हा यस्मिन् काले समयमुहर्तप्रहरपुतिमध्याहापरासंध्या दिवसपक्षमासवर्षादिके निग्रतं निश्चितं यत् जन्म अवतरणम् उत्पत्तिा अथवा मरणं वा शब्दः समुच्चयार्थः मुख दुःख लाभालाभामिष्टानिष्टादिकं गृह्यते । तत् सर्व कीदक्षम् । देशविधानकालादिकं जिनेन ज्ञाप्तं केवलज्ञानिनावगतम् ॥ ३२१ ॥ तं तस्स तम्मैि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सेकदि वारेइंदो या तेह जिर्णिदो वा ॥ ३२२ ॥ लक्ष्मी आदिक देते हैं तो फिर धर्माचरण करना व्यर्थ है। अर्थ-सम्यादृष्टि वचारता है कि यदि भक्तिपूर्वक पूजा करमेये ज्यन्तर देवी देवता भी लक्ष्मी दे सकते हैं तो फिर धर्म करनेकी क्या आवश्यकता है ? मात्रार्थ-लोग अर्थाकांक्षी हैं । चाहते हैं कि किसी भी तरह उन्हें धनकी प्राप्ति हो । इसके लिये वे उचित अनुचित, न्याय और अन्यायका विचार नहीं करते । और चाहते हैं, कि उनके इस अन्यायमें देवता भी मदद करें। बस वे देवताकी पूजा करते हैं बोल कबूल चढ़ाते हैं । उनके धर्मका अंग केवल किसी न किसी देवताका पूजना है । जैसे लोकमें वे धनके लिये सरकारी कर्मचारियोंको घुस देते हैं वैसे ही वे देवी देवताओंको भी पूजाके बहाने एक प्रकारकी धूस देकर उनसे अपना काम बनाना चाहते हैं। किन्तु सम्याद्दष्टि जानता है कि कोई देवता न कुछ दे सकता है और न कुछ ले सकता है, तथा धन सम्पत्तिकी क्षणभंगुरता भी वह जानता है । वह जानता है कि लक्ष्मी चंचल है, आज है तो कल नहीं है । तथा जब मनुष्य मरता है तो उसकी लक्ष्मी यहीं पड़ी रह जाती है । अतः वह लक्ष्मीके लालच में पड़कर देवी देवताओंके चक्करमें नहीं पड़ता । और केवल आत्महितकी भावनासे प्रेरित होकर वीतराग देवका ही आश्रय लेता है और उन्हें ही अपना आदर्श मानकर उनके बतलाये हुए मार्गपर चलता है । यही उनकी सच्ची पूजा है अतः किसीने ठीक कहा है-सभी तक चन्द्रमाका बल है, तभी तक ग्रहोंका, तारोंका और भूमिका बल है, तभी तक समस्त वांछित अर्थ सिद्ध होते हैं, तभी तक जन सज्जन हैं, तभी तक मुद्रा, और मंत्र तंत्रकी महिमा है और तभी तक पौरुष भी काम देता है जबतक यह पुण्य है। पुण्यका क्षय होने पर सब बल क्षीण हो जाते हैं ।। ३२०।। सम्यग्दृष्टि और मी विचारता है। अर्थ-जिस जीवके जिस देशमै, जिस कालमें, जिस विधानसे जो जन्म १स जहि । २१ कुढंदर। ३ग तम्हि । ४ स कालम्हि। ५लग सका चालेदु। ६ ग मह निर्णदो। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३२३ [ छाया-तत् तस्य तस्मिन् देशे तेन विधानेन तस्मिन् काले का शक्नोति वारयितुम् इन्द्रः वा तथा जिनेन्द्रः वा ॥ ] तस्य पुंसः जीवस्य तस्मिन् देशे अश्वङ्गकलि अगुर्जरादिके नगरप्रासवनादिके तेन विधानेन शस्त्रविषादियोगेन तस्मिन् काले समयपलघटिका प्रहर दिनपक्षादिके सत् जन्ममरणसुखदुःखादिकं कः इन्द्रः शक्रः अथवा जिनेन्द्र: सर्वशः, वाशब्दोऽत्र समुचयार्थः, राजा गुरुर्वा पितृमात्रादिव चालयितुं निवारयितुं शक्नोति समर्थों भवति कोऽपि, अपि तु न ॥ ३२२ ॥ अथ सम्यम्टष्टिलक्षणं लक्षयति एवं जो णिच्छ्यदो जाणदि दाणि सब-पजाए । सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥ ३२३ ॥ अथवा मरण जिन देवने नियत रूपसे जाना है, उस जीवके उसी देशमें, उसी कालमें, उसी विधान से वह अवश्य होता है, उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालसकने में समर्थ है ? || भावार्थ- सम्यग्दृष्टि यह जानता है कि प्रर्वारका द्रम्य, क्षेत्र, काल और भवित है। जिस समय जिस क्षेत्रमें जिस वस्तुकी जो पर्याय होने वाली है वही होती है उसे कोई नहीं टाल सकता । सर्वज्ञ देव सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अवस्थाओंको जानते हैं । किन्तु उनके जानलेनेसे प्रत्येक पर्यायका द्रव्य क्षेत्र काल और भाव नियत नहीं हुआ बल्कि नियत होनेसे ही उन्होंने उन्हें उस रूपमें जाना है। जैसे, सर्वज्ञ देवने हमें बतलाया है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय पूर्व पर्याय नष्ट होती है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है । अतः पूर्वं पर्याय उत्तर पर्यायका उपादान कारण है और उत्तर पर्याय पूर्व पर्यायका कार्य है । इसलिये पूर्व पर्यायसे जो चाहे उत्तर पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु नियत उत्तर पर्याय ही उत्पन्न होती है। यदि ऐसा न माना जायेगा तो मिट्टीके पिण्डमें स्थास कोस पर्यायके बिना भी घट पर्याय बन जायेगी । अतः यह मानना पड़ता है कि प्रत्येक पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत है । कुछ लोग इसे नियतिवाद समझकर उसके मयसे प्रत्येक पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र और भाव तो नियत मानते हैं किन्तु कालको नियत नहीं मानते। उनका कहना है कि पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र और भाव तो नियत है किन्तु काल नियत नहीं है; कालको नियत माननेसे पौरुष व्यर्थ होजायेगा । किन्तु उनका उक्त कथन सिद्धान्तविरुद्ध है; क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र और भाव नियत होते हुए काल अनियत नहीं हो सकता । यदि कालको अनियत माना जायेगा तो काललब्धि कोई चीजही नहीं रहेगी। फिर तो संसार परिभ्रमणका काल अर्धपुङ्गल परावर्तनसे अधिक शेष रहते मी सम्यक्त्व प्राप्त हो जायेगा और बिना उस कालको पूरा किये ही मुक्ति होजायेगी । किन्तु यह सब बातें आगम विरुद्ध हैं । अतः कालको भी मानना ही पड़ता है । रही पौरुपकी व्यर्थता की आशङ्का, सो समयसे पहले किसी कामको पूरा कर लेनेसे ही पौरुषकी सार्थकता नहीं होती । किन्तु समयपर कामका होजाना ही पौरुषकी सार्थकताका सूचक है। उदाहरण के लिये, किसान योग्य समयपर गेहूं बोता है और खूब श्रमपूर्वक खेती करता है। तभी समयपर पककर गेहूं तैयार होता है। तो क्या किसानका पौरुष व्यर्थ कहलायेगा ? यदि वह पौरुष न करता तो समयपर उसकी खेती पककर तैयार न होती, अतः कालकी नियततामें पौरुषके व्यर्थ होनेकी आशंका निर्मूल हैं। अतः जिस समय जिस द्रव्यकी जो पर्याय होनी है वह अवश्य होगी। ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि सम्पत्तिमें हर्ष और विपत्तिमें विषाद नहीं करता, और न सम्पत्तिकी प्राप्ति तथा विपत्तिको दूर करनेके लिये देवी देवताओंके आगे गिडगिड़ाता फिरता है || ३२१-३२२ ॥ आगे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिका भेद बतलाते हैं । अर्थ - इस י Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२५] १२. धर्मानुप्रेक्षा २२९ [ छाया एवं यः निश्वयतः जानाति श्रव्याणि सर्व पर्यायान् । स सदृष्टिः शुद्धः यः शङ्कते स स्क्लु कुदृष्टिः ॥ ] स भन्यात्मा सम्यग्दृष्टिः शुद्धः निर्मल मूत्रवादिपञ्चविंशतिमलरहितः । स कः । य एवं पूर्वोक्तप्रकारेण निश्वयतः परमार्थतः द्रव्याणि जीवपुलधर्माधर्माकाशकालाख्यानि, सर्वपर्यायांश्च अर्थ पर्यायान् व्यजन पर्यायाव, जानाति वेति श्रघाति स्पृशति निश्चिनोति स सम्मम्टष्टिर्भवति । उक्तं च तथा शक्रेण । त्रैकाल्य व्यङ्कं नवपदसहितं जीवषद्ायलेश्याः पश्चान्ये वास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेवाः । इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोतमर्हद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रघाति स्वशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥” इति । हु इति स्फुटं स पुमान् कुदृष्टिः मिध्यादृष्टिः । स कः । शङ्कते यः जिनवचने देवगुरी धर्मे तत्वादिके शङ्कां संशयं संदेह करोति स मिथ्यादृष्टिर्भवेत् ॥ ३२३ ॥ जो ण विजानदि' त सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जं जिणयरेहि' भणियं तं सक्षमहं समिच्छामि ॥ ३२४ ॥ [ छाया-य: न विजानाति सत्त्वं स जिनवचने करोति श्रद्धानम् । यत् जिनवरैः भणितं तत् सर्वमई समिच्छामि ॥ ] यः पुमान तत्त्वं जिनोदितं जीवादिवस्तु ज्ञानावर गादिकर्मप्रबलोदयात् न विजानाति न च वेत्ति स पुमान् जिनवचने सर्वशप्रतिपादित। गमे इति अग्रे वक्ष्यमाणं तत्त्वं श्रद्धानं निश्वयं रुचि विश्वालं करोति विदधाति इति । किं तत् । सर्व जीवाजीवादित वस्तु अहं समिच्छामि वाच्छामि चेतसि निश्चयं करोमि श्रद्दवामीत्यर्थः । तत् किम् । यद् भणितं कथितं प्रतिपादितम् कैः । जिनवरतीर्थंकरपरमदेवैः कथितं तत्त्वं वाञ्छामि । उक्तं च । “सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते | आज्ञासिद्धं तु तद्ब्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥” इति ॥ ३२४ ॥ अथ सम्यक्त्वमाहात्म्य गाधात्रयेणारयणाण महारयणं संबं- जोयाण उत्तर्म जोयं । रिद्धी महा-रिद्धी सम्मत्तं सा - सिद्धियरं ॥ ३२५ ॥ प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्योंको और सब पर्यायोंको जानता है यह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्वमें शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है | भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकारसे जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्पको तथा उनकी सब पर्यायोंको परमार्थ रूपमें जानता तथा श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। कहा भी है "तीन काल, छः द्रव्य, नौ पदार्थ, छः काय के जीव, छः लेश्या, पाँच अस्तिकाय, व्रत, समिति, गति, ज्ञान और चारित्रके मेद, इन सबको तीनों लोकों से पूजित अर्हन्व भगवानने मोक्षका मूल कहा है, जो बुद्धिमान ऐसा जानता है, श्रद्धान करता है और अनुभव करता है वह निश्चयसे सम्यग्दृष्टि है" 1 और जो सच्चे देत्र, सच्चे गुरु, सच्चे धर्म और जिनवचनमें सन्देह करता है वह मिध्यादृष्टि है ॥ ३२३ ॥ अर्थ - जो तस्त्रोंको नहीं जानता किन्तु जिनवचनमें श्रद्धान करता है कि जिनवर भगवानने जो कुछ कहा है उस सबको मैं पसन्द करता हूँ। वह मी श्रद्धावान है । भावार्थ - जो जीव ज्ञानावरणकर्मका प्रबल उदय होनेसे जिनभगवानके द्वारा कहे हुए जीवादि तत्त्वोंको जानता तो नहीं है किन्तु उनपर श्रद्धान करता है कि जिन भगवानके द्वारा कहा हुआ तत्र बहुत सूक्ष्म है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता । अतः जिनभगवानकी आज्ञारूप होनेसे वह ग्रहण करने योग्य है क्यों कि बीतरागी जिन भगवान अन्यथा नहीं कहते, ऐसा मनुष्य मी आज्ञासम्यक्त्वी होता है ॥ ३२४ ॥ आगे तीन गाथाओंके द्वारा सम्यतत्वका माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ- सम्यक्त्व सब रत्नोंमें महारत्न हैं, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में १ क म सग विजाणव २ म जीवार नव पयत्थे जो पण विद्याशेष करेदिसणं । २ व जिंगवरेण । सग सम्म म सबै । ५ ख रिद्धि । ४ सब्द (१) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३२६ छाया - रत्नानां महारत्रं सर्वयोगानाम् उत्तमः योगः । ऋद्धीनां महर्द्धिः सम्यक्त्वं सर्वसिद्धिकरम् ॥ ] सम्यस सम्यग्दर्शन भवतीत्यध्याहार्यम् । कीदृशम् । रत्नानां मणीनां पुष्परागषैडूर्यककेतनादिमणीनां मध्ये महद्रनं मद्दामणिः अनर्घ्यत्वेन, महेन्द्राहमिन्द्रसिद्धपददायकत्वात् अनये रत्नं सम्यत्वं सम्यग्दर्शनं भक्तीत्यध्याहार्यम् । कीदृशं च पुनः । सर्वयोगानां मध्ये धर्मादिध्यानानां मध्ये उत्तमं ध्यानं परमप्रकर्षप्राप्तं योग्यं ध्यानम् । अथवा सर्वयोगानां सर्वरसान कनकादिनिष्पादनरसानां मध्ये उत्तमरसं सम्यक्तत्रम् ऋद्धीनाम् अणिमाम हिमालपिमा गरिमाप्राप्तिप्राकाम्येशित्ववधित्वङ्खनामष्टानां मध्ये, बुद्धितपोविक्रियाक्षीणरसबलोषधीनां सप्ताना मध्ये, अष्टचत्वारिंशत् ऋद्धीनां मध्ये चतुःषष्टेः ऋद्धीन मध्ये वा महर्द्धिः, महती वासी ऋद्धिश्व महर्द्धिः । कुतः । यत् सम्यक्त्वं सर्वसिद्धिः प्राप्तिः तां करोति इति सर्वसिद्धिकरम् ॥ ३२५ ॥ २३० 1 सम्मत-गुण- पहाणी देविंद गरिंद-वंदिओ होदि । यस वओ' वि य पावदि सग्ग-सुहं उत्तमं विविहं ॥ ३२६ ॥ [ छाया-सम्यस्वगुणप्रधानः देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दितः भवति । व्यक्तवतः अपि च प्राप्नोति स्वर्गसुखम् उत्तमं विविधम् ॥ ] सम्यक्त्वगुणप्रधानः, सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं तदेव गुणः अथवा सम्यस्त्वस्य गुणाः मूल्लनेत्तरगुणाः त्रिषष्टिसंख्योपेताः ६३ । ते । मदाश्राष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टो शङ्कादयचेति दोषाः पंचविंशतिः ॥17 एतहोषनिराकरणाः सन्तो गुण भवन्ति । पर्याय ग्रहणस्रानं संक्रांती दविणव्ययः । संध्या सेवाभिसत्कारो देहगेहार्चनाविधिः ॥ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तम्मूत्रस्य निषेवणम् । रत्नवाहनभूवृक्षशस्त्रशेला दिसेवनम् ॥ आपगासागरस्नानमुच्चयः सिक्तात्मनाम् । गिरिपातोऽनिपातश्च लोक निगद्यते ।' इति लोकमूढस्य परित्यागः सम्यक्त्वगुणः । रागद्वेष मलीमसदेवानां सेवा [देवमूढम् । ] देवमूलस्य परित्यागः सम्यक्त्वगुणः । बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवत्ता पाषण्डिनां कुगुरूर्णा नमस्कारादिकरणं [ पाषण्डिमूढम् । ] महाऋद्धि है, अधिक क्या, सम्यक्स्त्र सब सिद्धियोंका करनेवाला है । भावार्थ- पुष्पराग, वैडूर्य, आदि रत्नों में सम्यक्दर्शन महारत है, क्योंकि वह इन्द्र, अहमिन्द्र और सिद्धिपदका दाता है । इसलिये सम्यग्दर्शन एक अमूल्य रत्न है । तथा धर्मध्यान आदि सब ध्यानोंमें उत्तम ध्यान है। और अणिमा महिमा आदि ऋद्धियोंमें अथवा बुद्धि तप विक्रिया आदि ऋद्धियोंमें सर्वोत्कृष्ट ऋद्धि है, क्योंकि बिना सम्यक्त्वके न उत्तम ध्यान होता है और उत्तम ऋद्धियोंकी प्राप्ति ही होती है ॥ ३२५ ॥ अर्थसम्यक्वगुणसे विशिष्ट अथवा सम्यक्त्वके गुणोंसे विशिष्ट जीव देवोंके इन्द्रोंसे तथा मनुष्यों के स्वामी चक्रवर्ती आदि वन्दनीय होता है । और बतरहित होते हुए भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुखको पाता है । भावार्थ- सम्यक्त्वके पच्चीस गुण बतलाये हैं। तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन, और आठ शङ्का आदि इन पच्चीस दोषोंको टालनेसे सम्यक्त्वके पच्चीस गुण होते हैं। सूर्यको अर्ध्य देना, चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण में गंगास्नान करना, मकरसंक्रान्ति वगैरह के समय दान देना, सन्ध्या करना, अग्निको पूजना, शरीरकी पूजा करना, मकान की पूजा करना, गौके पृष्ठभाग में देवताओंका निवास मानकर उसके पृष्ठभागको नमस्कार करना, गोमूत्र सेवन करना, रत्न सवारी पृथ्वी वृक्ष शस्त्र पहाड़ आदिको पूजना, धर्म समझकर नदियोंमें और समुद्र (सेतुबन्ध रामेश्वर वगैरह ) में स्नान करना, बालू और पत्थरका ढेर लगाकर पूजना, पहाड़से गिरकर मरना, आग में जलकर मरना, ये सब लोकमूढ़ता है । लोकमें प्रचलित इन मूर्खताओंका त्याग करना सम्यक्त्वका प्रथम गुण है रागी द्वेषी देवोंकी सेवा करना देवमूढता है । इस देवविषयक मूर्खताको छोड़ना दूसरा गुण है । I १. कम समयो । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २३१ पाषण्डिमूढस्य परित्यागः सम्यत्तवस्य गुणः सम्यस्वगुणः । 'ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥' ज्ञानादीनां मदपरित्यागे गर्वाहंकारपरिवर्जने अष्टौ सम्यत्तत्वस्य गुणाः भवन्ति । 'कुदेवखस्य भक्त कुशानं तस्य पाठकः । कुलिङ्गी लेवकस्तस्य लोकेऽनायतनानि षट् ॥' कुदेवयुशा नकुलिङ्गिनां त्रयाणां तद्भूकान च परित्यागे वर्जने सम्यक्त्वस्य षड्गुगाः ६ भवन्ति ॥ अर्हदुपदिष्टवादशाङ्गप्रवचनगहने एकाक्षरं पदं वा किमिदं स्यादुवाच वेति शङ्कानिरासः जिनवचनं जैनदर्शनं च सत्यमिति सम्यक्त्वस्य निःशङ्कितत्वनामा गुणः । १। ऐहलौकिकपारलौकिकेन्द्रियविषयभोगोपभोगाकाङ्गानिवृत्तिः कुदृष्ट्या चाराकांक्षा निरासो वा निःकांक्षितत्वनामा सम्यत्तत्वस्य गुणः । २ । शरीरायशुचिस्वभावमवगम्य शुभीति मिध्यासंकटपनिरासः, अथवा अर्द्धत्प्रवचने इदं मलधारणमयुक्तं घोरं कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नम् इत्यशुभभावनानिरासः, सम्यत्तस्य निर्विचिकित्सतानामा तृतीयो गुणः । ३ । बहुविधेषु दुर्णयमार्गेषु तत्त्वददाभासमानेषु युक्त्यभावमाश्रित्य परीक्षाचक्षुषा विरहितमोहत्वं मिध्यातत्त्वेषु मोहरहितत्त्वं सम्यक्त्वस्यामूढदृष्टितागुणः । ४ । उत्तमक्षमादिभावनया आत्मनः चतुर्विवसंघस्य च धर्मपरिवृद्धिकरणं चतुर्विधसंघस्य दोषपनं सम्यक्वस्य उपबृंहणम् उपगूहननाम गुणः । ५ । कोधमानमायाकोभादिषु धर्मविध्वंसकारणेषु विद्यमानेष्वपि धर्मादप्रच्यवनं स्वपरयोर्धर्मप्रच्यवन परिपालन सम्पत्यस्य स्थितिकरण गुणः ६ । जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता जिनशासने सदानुरागित्वम्, अथवा सथः प्रसूता यथा गौवत् नियति तथा चातुर्वण्र्ये संधै अत्रिमहकरणं सम्यक्त्वस्य वात्सल्यनामा गुणः ७ । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोभिः आत्मप्रकाशनं सुतपसा स्वसमयप्रकटनं महापूजा महादानादिभिर्धर्मं प्रकाशनं च जिनशासनोमोतकरणं सम्यस्य प्रभावनागुणः । ८ । इति पचविंशतिगुणाः २५ ॥ 'संवेगो १ निर्वेदो २ निन्दा ३ ग ४ तथेोपशमो ५ भक्तिः ६ । अनुकम्या ७ दात्सल्ये ८ गुणास्तु सम्यक्त्वयुक्तस्य ॥' धर्मे धर्मफले च परमा प्रीतिः संवेगः १ संसारशरीरभोगेषु विरकता निर्वेदः २ | आत्मसाक्षिका निन्दा ३ | गुरुसाक्षिका गर्दा ४ उपशमः क्षमापरिणामः ५ । सम्यग्दर्शनशानचारित्रेषु तद्वत्सु च भक्तिः ६ । सर्वप्राणिषु दया अनुकम्पा ७ । साधर्मिषु वात्सल्यम् ८ । इति सम्यतत्वस्याष्टी गुणाः । ८ । शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टि प्रशंसा संस्तवाः सम्यादृष्टेरवीचाराः । शंकन शङ्का, यथा निर्मन्थानां मुक्तिरुका तथा सप्रन्यानामपि गृहस्थादीनां किं मुक्तिर्भवतीति शङ्का वा भयप्रकृतिः शङ्का इति शङ्का न कर्तव्या । सम्यत्तत्वस्य शङ्काविचारपरिहारः गुणः । १ । इहलोक परलोकभोगकाड्डा इति आकाङ्क्षाति वारपरित्यागः सम्यक्त्वस्य गुणः । २ । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से घिरे हुए कुगुरुओं को नमस्कार आदि करना गुरुमूढ़ता है । इस गुरुविषयक मूर्खताको छोड़ना तीसरा गुण है । आठों मदों को छोड़नेसे सम्यक्त्वके आठ गुण होते हैं । इस तरह ये ग्यारह गुण हैं। कुदेव, कुदेवोंके भक्त मनुष्य, कुज्ञान, कुज्ञानके धारी, कुलिि ( कुगुरु ) और उसकी सेवा करनेवाले ये छः अनायतन है । इन छः अनायतनोंको त्याग देनेसे सम्यक्त्वके छः गुण होते हैं। इस तरह सतरह गुण हुए । अर्हन्त देवके द्वारा उपदिष्ट द्वादशान वाणीमें से एकमी अक्षर अथवा पदके विषय में ऐसी शङ्का न होना कि यह ठीक है अथवा नहीं, और जिनवचन तथा जैनदर्शनको सत्य मानना निःशंकित नामका गुण है । इस लोक अथवा परलोकमें इन्द्रियसम्बन्धी विषय-भोगोंकी इच्छा न करना अथवा मिथ्या आचार की चाह न करना निःकक्षित नामका गुण है । शरीर वगैरहको स्वभाव से ही अपवित्र जानकर उसमें 'यह पवित्र है' इस प्रकारका मिथ्या संकल्प न करना अथवा 'जैन शास्त्रोंमें या जैन मार्गमें जो मुनियोंके लिये ज्ञान न करना वगैरह बतलाया है वह ठीक नहीं है, इससे घोर कष्ट होता है, यह न होता तो शेष सब ठीक है इस प्रकारकी दुर्भावनाका न होना तीसरा निर्विचिकित्सा गुण है । संसार में प्रचलित अनेक मिथ्या मागोंको, जो सचे से प्रतीत होते हैं, परीक्षारूपी चक्षुके द्वारा युक्तिशून्य जानकर उनके विषयमें मोह न करना अर्थात् मिथ्या तत्वोंके भ्रम न पड़ना अमूढदृष्टि नामक गुण है । उत्तम क्षमा आदि भावनाओंके द्वारा अपने और चतुर्विध संघके धर्मको बढ़ाना तथा चतुर्विध संधके दोषोंको Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३२६रत्नत्रयमण्डितशरीराणी जुगुप्सन मानायभाये दोषोदावन विचिकित्सा इति तस्या अकरण सम्यस्वस्य विचिकित्सातिचारवर्जनो गुणः । ३ । मिथ्यादृष्टीना मनसा ज्ञानाचारित्रोद्भावनं प्रशंसा तदकरणे प्रशंसातिचारपरित्यागः सम्यक्त्वगुणः।४। विद्यमानानाम् अषिद्यमानाना मिथ्याटिगुणानां वचनेन प्रकटन संस्तवः तस्म निरासः संस्तवातिचारपरित्यागः सम्यक्त्वस्य गुणः । ५। इति । इहपरलोयत्तागं अगुत्ति मरणक्यणाकस्सा। सत्तविह भयमेदं णिरि जिबरदहिं । इहलोकमयपरियायः १, परसेकमयवर्जनम् २, पुरुषाबरक्षणात्राणभयत्यागः ३, आत्मरक्षोपायदुर्गाधभावागुप्तिभयत्यागः ४, मरणभयपरिपर बेपनामा ६, वि. कावरियाम: मायाशस्वं माया परवचनै तत्परिहारः सम्यतरस्य गुणः १, मिध्यादर्शनशल्यं तस्वार्थश्रद्धानाभावः तत्यामः सम्यक्त्वस्य गुणः २, निदानशल्य विषयसुखाभिलाषः तस्य परित्यागः सम्यक्त्वस्य गुणः ३, एवं एकत्रीकृताः अष्टचत्वारिंशन्सूरमाणाः जघन्यपात्रप सम्यग्दृष्टेः भवन्ति । सम्यन्यस्य दूर करना उपबृंहण अथवा उपग्रहन नामका गुण है। धर्मके विध्वंस करनेवाले क्रोध, मान, माया, लोभ वगैरह कारणोंके होते हुए भी धर्मसे व्युत न होना और दूसरें यदि धर्मसे ध्युत होते हों तो उनको धर्ममें स्थिर करना स्थितिकरण गुण है। जिन भगवानके द्वारा उपदिष्ट धर्मरूपी अमृतमें नित्य अनुराग रखना, जिनशासनका सदा अनुरागी होना, अथवा जैसे तुरन्तकी स्याही हुई गाय अपने बच्चेसे स्नेह करती है वैसे ही चतुर्विध संघमें अकृत्रिम स्नेह करना वात्सल्य गुण है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा आत्माका प्रकाश करना और महापूजा महादान वगैरह के द्वारा जैन धर्मका प्रकाश करना अर्थात् ऐसे कार्य करना जिनसे जिनशासनका लोकमें उपोत हो, आठवाँ प्रभावना गुण है। ये सम्यक्त्वके पच्चीस गुण है । टीकाकारने अपनी संस्कृत टीकामें सम्यक्त्व ६३ गुण बतलाये हैं । और उसमेसे ४८ को मूलगुण और १५ को उत्तर गुण कहा है। सम्यक्स्वके गुणोंके मूल और उत्तर भेद हमारे देखनेमें अन्यत्र नहीं आये । तथा इन त्रेसठ गुणोंमें से कुछ गुण पुनरुक्त पर जाते हैं । फिरमी पाठकोंकी जानकारी लिये उन शेषगुणोंका परिचय टीकाकारके अनुसार कराया जाता है । सम्यक्त्वके आठ गुण और हैं-संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य । धर्म और धर्मफलमे अत्यन्त अनुराग होना संवेग है। संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होना निर्वेद है। निन्दा स्वयं की जाती है और गहरे गुरु वगैरहकी साक्षीपूर्वक होती है । क्षमाभावको उपशम कहते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्रकी तषा सम्याग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी, और चारित्रवानोंकी भक्ति करना भक्ति है । सब प्राणियोंपर दया करना अनुकम्पा है । साधर्मी जनोंमें वात्सल्य होता है । ये सम्यक्त्व के आठ गुण हैं। तथा शहा, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तव, ये सम्यादृष्टिके अतिचार हैं । जैसे निम्रन्योंकी मुक्ति कही है वैसेही समन्य गृहस्थोंकी मी मुक्ति होसकती है क्या ! ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये । यह सम्यक्त्वका शंका अतिचारसे बचने रूए प्रथम गुण है । इस लोक और पर लोकके भोगोंकी चाइको कांक्षा कहते हैं । इस कांक्षा अतिचारसे बचना सम्यक्त्वका दूसरा गुण है । सत्यसे मण्डित निमन्ध साघुओंके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि करना विचिकित्सा है, और उसका न करना सम्यक्त्वका तीसरा गुण है। मिष्याष्टियोंके ज्ञान और चारित्रकी मनसे तारीफ करना प्रशंसा है, और उसका न करना सम्यक्त्वका चौथा गुण है। मिष्याइष्टिमें गुण हों अथवा न हों, उनका वचनसे बखान करना संस्तव है, और उसका न करना सम्यक्त्वका पाँचवा गुण है। इस तरह पाँच अतिचारोंको Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश - ३२७ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा શ मूलगुणाः अष्टचत्वारिंशत्संख्योपेताः कथिताः तर्हि उत्तरगुणा के इति चेदुच्यते । 'मद्य १ मांस २ मधु ३ स्यागः पश्चोदुम्बरखर्जनम् ८ तथा 'धूर्त १ मांसं २ सुरा ३ वेश्या ४ पापः ५ परदारता ६ । स्वेयेन ७ सह सप्तेति व्यसनानि विदूरयेत ॥ इत्यष्टी मूलगुणाः सप्त व्यसनानि च इति पञ्चविंशतिसंख्योपेताः (?) जयन्यपानस्य सम्यग्दृष्टे रुत्तरगुगा भवन्ति १५ । एवं त्रिषष्टिः सम्यक्त्वस्य गुणाः ६३ । प्रधाना मुख्या यस्य रां सम्यक्तवगुणप्रधानः स पुमान् देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दिनो भवति, देवेन्द्राः सौन्द्रादयः नरेन्द्राः चक्रवर्त्यादयः तैः सम्यग्दृष्टिर्नरः वन्दितः नमस्करणीयः पूजनीयो भवति । त्यत्रतोऽपि व्रतरहितोऽपि द्वादशवतरहितोऽपि, अपिशब्दात् प्रेतसम्यक्त्वसहितोऽपि, सम्यत्तवान् स्वर्गसुखं सौधर्मादिदेवलोक शर्म प्राप्नोति मते । सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वेन कल्पवासिदेवानामायुर्मध्यते 'सम्यक्त्वं च' इति वचनात् । कीदृक्षं स्वर्गसुखम् । उत्तमं सर्वश्रेष्ठं प्रशस्यं सुखम् । पुनः कीदृक्षम् । विविधम् अनेकप्रकारं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तं विमानदेवाननाविक्रियाशुद्भवम् ॥ ३२६ ॥ सम्माहट्टी जीवो दुग्गदि हेतुं ण बंधदे कम्मं । बहु-भयेसुद्धं दुकन्मं तं पि णादि' ।। ३२७* ॥ [ छाया - सम्यन्दष्टि: जीवः दुर्गतिहेतु न बभाति कर्म यत् बहुभवेषु बद्धं दुष्कर्म तत् अपि नाशयति ॥ ] सम्यदृष्टिः जीवः कर्म अशुभायुर्नामनी वगोत्राधिकं न बध्नाति प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धैः बन्धनं न करोति । किंभूते करें । छोड़ने से सम्यक्त्वके पांच गुण होते हैं। तथा सात प्रकारके भयको त्यागनेसे सात गुण होते हैं, जो इस प्रकार हैं- इस लोकसम्बन्धी भयका त्याग, परलोकसम्बन्धी भयका स्याग, कोई पुरुष वगैरह मेरा रक्षक नहीं है इस प्रकारके अरक्षाभयका त्याग, आत्मरक्षा के उपाय दुर्ग आदिके अभाव में होनेवाले अगुप्ति भयका त्याग, मरण भयका त्याग, वेदना भयका त्याग और बिजली गिरने आदि रूप आकस्मिक भयका व्याग । तीन शल्योंके व्यागसे तीन गुण होते हैं । मायाशल्य अर्थात् दूसरों को ठगने आदिका त्याग, तत्त्वार्थ श्रद्धानके अभावरूप मिथ्यादर्शन शल्यका त्याग, विषयसुखकी अभिलाषारूप निदान शल्यका त्याग। इस तरह इन सबको मिलानेपर सम्यग्दृष्टिके ( २५+८+५ +७+३=४८ ) अड़तालीस मूल गुण होते हैं । तथा मध, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंका स्वाग और जुआ मांस मदिरा वेश्या शिकार परस्त्री और चोरी इन सात व्यसनोंका त्याग, इस तरह आठ मूल गुणों और सातों व्यसनोंके व्यागको मिलानेसे सम्यक्त्वके १५ उत्तर गुण होते हैं । सम्यक्त्वके इन ६३ गुणोंसे विशिष्ट व्यक्ति सबसे पूजित होता है। तथा व्रत न होनेपर मी वह देवलोकका सुख भोगता है क्योंकि सम्यक्त्वको कल्पवासी देवोंकी आयुके बन्धका कारण बतलाया है । अतः सम्यग्दृष्टि जीव मरकर सौधर्म आदि खर्गेौमें जन्म लेता है और वहाँ तरह तरहके सुख भोगता है || ३२६ ॥ अर्थ सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे कमौका बन्ध नहीं करता जो दुर्गतिके कारण हैं । बल्कि पहले अनेक में जो अशुभ कर्म बाँधे हैं उनका भी नाश कर देता है | भावार्थ- सम्यदृष्टिजीव दूसरे आदि नरक में लेजाने वाले अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं करता । आचार्यों का कहना है- 'नीचे के छः नरकोंमें, ज्योतिष्क, व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें तथा सब प्रकारकी जियोंमें सम्यग्दृष्टि जन्म नहीं लेता । तथा पाँच स्थावर कायोंमें, असंज्ञी पश्चेन्द्रियोंमें, निगोदियाजीवोंमें और कुभोगभूमियोंमें सम्यग्दृष्टि नियमसे उत्पन्न नहीं होता ।' रविचन्द्राचार्यने भी कहा है कि नीचेकी छः १ प त मस्तसहितोऽपि । २ ब हुनगइ ३ गतं पणासेति । ४ व अविरसम्माशट्टी बहुत इत्यादि । कार्तिके० ३० 1 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rea उपना स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३२८दुर्गतिहेतुर्दुर्गतिकारणं द्वितीया दिनरकगमनहेतुः ज्योतिष्कव्यन्तरभवनषा सिसर्वेत्रीद्वादशमिथ्यावादेषु उत्पत्तिकारणं कर्म न बनातीत्यर्थः । तदपि प्रसिद्धं दुःकर्म अशुभकर्म नाशयति स्फेटयति समयं समयं प्रति गुणश्रेणिमात्रनिर्जरणं करोति निर्जरामुखेन विनाशयतीत्यर्थः । तत् किम् । यत् बहुभवेषु नरनारकायनेकभवेषु बद्धं कर्मबन्धनविषयं नीतं सम्यग्दृष्टिदुर्गतिकारणं कर्म न बध्नाति । किं नाम दुर्गतिरिति चेत् आचार्या श्रुवन्ति । [ "सु हेट्टिमासु पुढची जोहसरणभवण सबइत्थीम्सु । भारसमिच्छावादे सम्माद्विस्स गन्ध उववादो वचसु थावरवियले असणिणिगोंदेसु मेच्छकुभूभोगे । सम्माइही जीवा णो ववजति णियमेण ॥श्रु तथा रविचन्द्राचार्येणोक्त च । "इट्स्वधः पृथ्वीषु ज्योतिर्वनभवनजेषु च स्त्रीषु । विकलैकेन्द्रियजातिषु सम्यग्दृष्टेने चोत्पत्तिः॥" समस्त च । “दर्शना नातिर्यङ्गपुंसकीत्वानि । दुःकुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यन्नतिकाः ।" "दुर्गतावायुषो अन्धे सम्पत्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यरूपतरा स्थितिः ॥" "न सम्युक्तत्वसमं किंचित्काल्यै त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्व मिध्यात्वसमं नान्यत् तनुभृताम् ॥" इत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्जघन्य पात्रस्य सागारिणः केवलसम्यक्त्वमेव धर्ममेदः प्रथमं निरूपितः ॥ ३२७॥ अथ द्वितीयदर्शनका लक्षणं लक्षयति गाथायेन २३४ बहु-तस - समणिदं जं मज्जं मंसादि णिदिदं दवं । जो ण य सैवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि ॥ ३२८ ॥ [छाया - बहुत्रसमन्वितं यत भयं मांसादि निन्दितं व्यम् । यः न च सेवते नियतं स दर्शनश्रावकः भवति ॥] स प्रसिद्धः दर्शन श्रावकः सम्यत्तवपूर्वक श्रावकः दर्शनिकप्रतिमा परिणतः श्राद्धो भवति । स कः । यः दर्शनिक श्रावकः यत् म सुराम् आसवं न सेवते न भक्षयति नाति न पिबति । च पुनः मांसादि निन्दितं द्रव्यं मांसं पलं पिशितं द्विधातुजम् आदि पृथिवियोंमें, ज्योतिष्क व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें, स्त्रियोंमें, विकलेन्द्रियों और एकेन्द्रियोंमें सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती समन्तभद्र स्वामीने मी कहा है- 'सभ्यग्दर्शन से शुद्ध व्रतरहित जीव भी मरकर नारकी, तिर्यय, नपुंसक, और स्त्री नहीं होते, तथा नीचकुलवाले, विकलाङ्ग, अल्पायु और दरिद्र नहीं होते ।' किन्तु यदि किसी जीवने पहले आयुबन्ध कर लिया हो और पीछे उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई हो तो गतिका छेद तो हो नहीं सकता, परन्तु आयु छिदकर बहुत थोड़ी रह जाती है। जैसे राजा श्रेणिकने सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था । पीछे उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो नरक गति में तो उनको अवश्य जाना पड़ा परन्तु सातवें नरककी आयु छिदकर प्रथम नरककी जघन्य आयु शेष रह गई । अर्थात् ३३ सागर से घटकर केवल चौरासी हजार वर्षकी आयु शेष रह गई । अतः सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गतिमें लेजानेवाले अशुभ कर्मका बन्ध नहीं करता | इतना ही नहीं बल्कि पहले अनेक में बांधे हुए अशुभ कर्मोंकी प्रतिसमय गुणश्रेणि निर्जरा करता है इसीसे सम्यक्त्वका माहात्म्य बतलाते हुए स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि 'तीनों लोकों और तीनों कालोंमें सम्यक्त्वके बराबर कल्याणकारी वस्तु नहीं है और मिथ्यात्वके समान अकल्याणकारी वस्तु नहीं है।' इस प्रकार गृहस्थ धर्मके बारह भेदोंमेंसे प्रथम भेद अविरत सम्यग्दृष्टिका निरूपण आगे दो गाथाओंसे दूसरे मेद दर्शनिकका लक्षण कहते हैं । अर्थ- बहुत सजीवसे युक्त मध, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओंका जो नियमसे सेवन नहीं करता यह दर्शनिक श्रावके है || भावार्थ - दर्शनिक श्रावक, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव जिसमें पाये जाते हैं ऐसा शराव और मांस तथा आदि शब्दसे चमड़े के पात्रमें रखे हुए हींग, तेल, घी और जल वगैरह, तथा मधु, मक्खन, रात्रिभोजन, पंच उदुम्बर फल, अचार, मुरब्बे, घुना हुआ अनाज नहीं खाता और न सात । समाप्त हुआ || ३२७ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२९] १२. धर्मानुप्रेक्षा २३५ शन्दात् चर्मगतहिकृतेलधृतजलादिमधुनवनीतं काजिक रात्रिभोजनं सजन्तुफलपश्च संधान द्विधान्यादिक प्रतादिसप्तव्यसन वन सेवते न भजते, नियमात निधयपूर्वकम् , माझाति न सेवते च । कीदृक्षम् । मद्यमांसमधुचर्मपात्रगतजमघृततेलमध्चादिक बहुत्रससमन्वितं द्वित्रिचतुःपञ्चन्द्रियजीवसहितम् ॥ ३२८॥ जो दिह-चित्तो कीरदि' एवं पि वयं णियाण-परिहीणो। धेरग्ग-भाविय-मणो सो वि य दसण-गुणो होदि ॥ ३२९॥ [छाया-या दृलचितः करोति एवम् अपि व्रतं निदानपरिहीनः । बैराग्यभावितमनाः सः अपि च दर्शनगुणः भवति ॥] च पुनः, सोऽपि न पूर्वः पूर्वोक्ता इत्यपिशब्दार्थः । दर्शनगुणः दार्शनिकः धावको भवति । स कः । यः एवं पूर्वोतं मद्यादिवर्जनलक्षणं प्रतं नियम प्रतिज्ञा प्रत्याख्यानं करोति बिद्धाति । कीदक्षः । दृढवितः निश्चलमनाः, मायाकमटपाषण्डरहित इत्यर्थः । पुनः किंलक्षणः । निदानपरिहीणः, निदानम् इहलोकपरलोकमुखामिलाषलक्षणं तेन रहित हेतः । पुनः कथंभूतः । बैराम्यभावितमनाः, वैराग्येण भवागभोगविरतिलक्षणेन भावितं मनः वि यस्य स व्यसनोंका ही सेवन करता है । ये समी वस्तुए निन्दनीय हैं। शराब पीनेसे मनुष्य बदहोश हो जाता है, उसे कार्य और अकार्यका ज्ञान नहीं रहता । मंस त्रस जीवोंका घात किये बिना बनता नहीं, तथा उसे खाकर भी मनुष्य निर्दयी और हिंसक बनजाता है। शहद तो मधुमक्खियोंके घातसे बनता है तथा उनका उगाल है | पीपल, बड़, गूलर वगैरहके फलोंमें त्रसजीव प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। चममें रखी हुई वस्तुओंके खानेसे मंस खानेका दोष लगता है । रात्रिभोजन तो अनेक रोगोंका घर है । अतः इन चीजोंका सेवन करना उचित नहीं है । तथा सप्त व्यसन मी विपत्तिके घर हैं । जुआ खेलनेसे पाण्डवोंने अपनी दौपदीतकको दावपर लगा दिया और फिर महाकष्ट भोगा | मांस खानेका व्यसनी होनेसे राजा बकको उसकी प्रजाने मार डाला। शराब पीनेके कारण यादववंश द्वीपायन मुनिके क्रोधसे नष्ट होगया । वेश्या सेवन करनेसे चारुदत्तकी बड़ी दुर्गति हुई । चोरी करनेसे शिवदत्तको कष्ट उठाना पड़ा | शिकार खेलनेसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरकर नरकमें गया । और परवीगामी होनेसे रावणकी दुर्गति हुई । अतः व्यसन भी बुराईयोंकी जड़ हैं। फिर सम्यग्दृष्टि तो धर्मकी मूर्ति है। वह भी यदि अभक्ष्य वस्तुओंको खाता है और अन्याय करता है तो अपनेको और अपने धर्मको मलिन करने और लजानेके सिवा और क्या करता है ! अतः इनका त्यागीही दर्शनप्रतिमाका धारी होता है ॥ ३२८॥ अर्थ-वैराग्यसे जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्रको दृढ़ करके तथा निदानको छोड़कर उक्त व्रतोंको पालता है वही दर्शनिक श्रावक है ॥ भावार्थ-जो श्रावक संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर तथा इस लोक और परलोकके विषय सुखकी अभिलाषाको छोड़कर निश्चल चित्तसे पूर्वोक्त व्रतोंका पालन करता है वही दर्शनिक श्रावक कहा जाता है । टीकाकारने गाया के 'वि' शब्दका भी' अर्थ करके यह अर्थ किया है कि केवल पूर्वोकही दर्शनिक श्रावक नहीं होता किन्तु इस गाथामें बतलाया हुआ भी दर्शनिक प्रावक है किन्तु यहाँ हमें वि' शब्दका अर्थ 'ही' ठीक प्रतीत होता है; क्यों कि पहली गाथामें जो दर्शनिक श्रावकका स्वरूप बतलाया है उसीके ये तीन विशेषण और हैं । प्रथम तो उसे अपने मनमें दृढ़ निश्चय करके ही बतोंको स्वीकार करना चाहिये; नहीं तो परीषह आदिसे कष्ट पानेपर व्रतकी प्रतिज्ञासे चिग सकता है। दूसरे, १ आदर्श तु तैलरामठादिकं' इति पाठः। २ छमस वरचितो जो कुम्मदि। १५सणप्रविमा पंचत्वादि । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३३०बैराग्यभावितमनाः, भवासभोगेषु घिरतवित इत्यर्थः । तथा वसुनन्दिसिद्धान्तिना गाथात्रयेण दर्शनिकस्य लक्षणमुक्त च। "पमुंवरसहिदाई सात वि वसणाइ जो विरज्जेइ 1 सम्मतांवेसुद्धमई सो समसावभाओ। अपडापनकायपरीयसंधाणतरूपसूणाई। णिच तससंसिद्धाई ताई परिवजिदचाई ॥ जूर्व मळ मंसं वेसा पारद्धि चोरपरदार 1 दुग्गामणस्सेदाणि हेदुभूदाणि पावाणि ॥” इति दर्शनिकभावकस्य द्वितीयो धर्मः प्ररूपितः ।। ३२९ ॥ अथ अतिकश्रावकं प्रकाशयति पंचाणुषय-धारी गुण-यय-सिक्खा -वएहिं संजुत्तो। दिढ-चिसो सम-जुसो णाणी वय-सावओ होदि ।। ३३० ॥ [छाया-पवाणुव्रतधारी गुणवतशिक्षाचतैः संयुक्तः । दृढचित्तः शमयुक्तः ज्ञानी व्रतश्रावकः भवति ॥] भवति अस्ति । कोऽसौ। व्रतश्रावकः । शृणोति जिनोदितं तत्त्वमिति श्रावकः, व्रतेन नियमेन अहिंसादिलक्षणेनोपलक्षितः श्रावक व्रतश्रावकः । कर्यभूतः । पमाणवतधारी, अणुषतानि स्थूलहिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरतिलक्षणानि पन च तानि अणुव्रतानि पश्चात्तानि धरतीत्येवंशील: पश्चाणुव्रतधारी, पश्चस्थूलअहिंसादिप्रतधारी । पुनः कीदृक् । गुणवतशिक्षाव्रतैः संयुक्तः, गुणवतः दिव्रत १ देशवत २ अनर्थदण्डविरतिव्रतैत्रिभिः, शिक्षाव्रतैः सामायिक १ प्रोषधोपवास २ भोगोपभोगवस्तुसंख्या ३ अतिथिसंविभाग ४ तैवतुर्मिश्च संयुक्तः सहितः । पुनः कथंभूतः । दृढचित्तः निवलमनाः उपसर्गपरीषहादिभिरखण्डितयतः । पुनः किंलक्षणः । शमयुक्तः उपशमसाम्यसंवेगादिपरिणामः । पुनः कीदा । शानी आत्मशरीरयोर्मेद. विज्ञानसंयुक्तः शुभाशुभपुण्यपापहेयोपादेयज्ञान विज्ञानवान् ॥ ३३॥ अथ प्रथमाणुव्रत गाथाद्वयेनाह जो वावरेई सदओ अप्पाण-समं परं पि मपणतो। जिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे ॥ ३३१ ॥ इस लोक और परलोकमें विषयमोगकी प्राप्तिकी भावनासे ब्रतोंका पालन नहीं करना चाहिये, क्यों कि जैन व्रताचरण भोगोंसे निवृत्ति के लिये है, भोगोंमें प्रवृत्ति के लिये नहीं । तीसरे, उसका मन संसार के भोगोंसे उदासीन होना चाहिये । मनमें वैराग्य न होते हुए भी जो लोग त्यागी बन जाते हैं वे त्यागी बनकर भी विषयकषायका पोषण करते हुए पाये जाते हैं। इसीसे शास्त्रोंमें शल्यरहितको ही व्रती कहा है । अतः इन तीन बातोंके साथ जो पूर्वोक्त व्रतोंको पालता है वही दर्शनिक पात्रक है । किन्तु जो मनमें राग होते हुए भी किसी लौकिक इच्छासे स्यागी बन जाता है वह व्रती नहीं है। आचार्य वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीने तीन गाथाओंके द्वारा दर्शनिकका लक्षण इस प्रकार कहा है जो सम्यग्दृष्टि जीव पाँच उदुम्बर फलोंका और सात व्यसनोंका सेवन नहीं करता बह दर्शनिक श्रावक है । १ लर, वड़, पीपल, पिलखन और पांकर ये पाँच उदुम्बर फल, अचार तया वृक्षोंके फूल इन सबमें दा बस जीवोंका वास रहता है, अतः इन्हें छोड़ना चाहिये । २ । जुआ, मध, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री ये सात पाप दुर्गतिमें गमनके कारण हैं, अत: इन्हें भी छोड़ना चाहिये । ३ | इस प्रकार द्वितीय दर्शनिक श्रावकका स्वरूप बतलाय ॥ ३२९ ।। अब व्रती श्रावकका खरूप बतलाते हैं । अर्थ-जो पाँच अणुव्रतोंका धारी हो, गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंसे युक्त हो, इदचित्त समभावी और ज्ञानी हो वह व्रती श्रावक है ।। भावार्थ-जो जिन भगवानके द्वारा कहे हुए तस्वोंको सुनता है उसे श्रावक कहते हैं, और जो श्रावक पाँच अणुनत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका धारी होता है उसे व्रती श्रावक कहते है [ वह उपसर्ग परीषह आदि आनेपर भी व्रतोंसे विचलित नहीं होता तथा साम्यभावी और हेय उपादेयका जानकार होता है] ।। ३३० ।। आगे दो गाथाओंसे प्रथम अगुव्रत १सबहिं । २ वावरत (वावारह1) म महारंभो। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३२ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २३७ [ छाया-य: व्यापारयति सदयः आत्मसमं परम् अपि मन्यमानः । निन्दनगर्हणयुक्तः परिहरमाणः महारम्भान् ॥ ] यः श्रावकः सदयः मनोवाक्कायकृतकारितानुमतप्रकारेण द्वीन्द्रियादित्रसर्जीवरक्षणपरः कृपापर: व्यापृणोति गृहहह । दिव्यापारं करोति । कीदृक् सन् । परं पि परमपि प्राणिनं जीवम् आत्मना समं स्वात्मना सदृशं परजीवं मन्यमानः श्रद्दधानः जानन् पश्यभषि । पुनः कीदृक् । निन्दन गर्दणयुक्तः आत्मना आत्मसाक्षिक स्वदोषप्रकाशनं निन्दनं गुरुसाक्षिकं दोषप्रकाशनं गर्हणं, निन्दनं स्वगर्हणं च निन्दनगर्हे ताभ्यां निन्दनगर्दाभ्यां युक्तः सहितः । पुनः कथंभूतः । महारम्भान् परिहरमाण: कृषिभूमि विदारणाभिदाहागालित जलसेकशकटनीवाहनादिवनस्पतिच्छेदनाद्यनेकप्रकारान् महारम्भान पापव्यापारान् परिहरमाणः स्वजन् परिहरन् निवृत्तिं कुर्वाणः इत्यर्थः ॥ ३३१ ॥ - घादं जो ण करदि मण-वय-काएहि णेव कारयदि' । कुतं पण इच्छदि पढभ त्रयं जायदे तस्स ॥ ३३२ ॥ [ छाया-सघातं यः न करोति मनोवचः कायैः नैव कार्यति । कुर्वन्तम् अपि न इच्छति प्रथमवतं जायते तस्य ॥ ] तस्य सम्यदः श्रवकस्य प्रथमत्रतं हिंसाविरतित्रतं जायते उत्पन्नते । तस्य कस्य । यः श्रावकः त्रसघातं न करोति नसान द्वित्रिचतुः पबेन्द्रियाणा सशुक्तिभूलता जलौकाकृमिकीट का दिकुन्देहिका मत्कु कीटिकाकाक्षिकादिपतत्र श्रमरदंशमशकमक्षिकादिपशुभृगमनुष्यादिजीवानां जङ्गमानां प्रातः तत्र संघातं त्रसहिरानं प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं न करोति न विदधाति । कैः कृत्वा । मनोवचः कायैः मनसा वचनेन शरीरेण च तैरेव कारयनि कुर्वन्तं नैव प्रेरयति । अपि पुनः कुर्वन्तं हिंसादिकर्म कुर्वाणं नैव इच्छति न अनुमते अनुमोदनां न करोति मनोवननकायैः । तथाहि । खयमात्मना मनमा कृत्वा इति । वर्धानां घातं हिंसनं प्रमत्तयोगात् प्राणश्यपरोपणं न करोति इत्येको भक्तः । १ । मनसा परपुरुषं संप्रेर्य सजीवघातं नैव कारयति । मनसि मध्ये एवं चिन्तयति । एनं पुरुषं कथयित्वा सजीवघातं कारयिष्यामि इति चिन्तन न विदधातील तं कुर्वन्तं पुरुषं नानुमोदयति त्रसघातं कुर्वन्तं नरं दृङ्का अनुमोदनां प्रमो न करोतीत्यर्थः । इति तृतीयो भङ्गः ३ ॥ स्वयं स्वकीयवचनेन कृत्वा कायिकजीववर्ध हिंसनं बार्धा प्रम मोगात् प्राणस्यपरोपण न करोति । मया हिंसा कृता हिंसां करोमि करिष्यामीति वचनं न वदति । इति चतुर्थो भङ्गः ॥ ४ ॥ वचनेन परजन प्रेरयित्वा त्रसकायिकानां हिंसा घातं बाधां प्राणव्यपरोपणं न कारयति । इति पञ्चमो मनः । ५ । वचनेन को कहते हैं । अर्थ- जो श्रावक दयापूर्वक व्यापार करता है, अपने ही सगान दूसरोंको भी मानता है, अपनी निन्दा और गर्दा करता हुआ महाआरम्भको नहीं करता || भावार्थ- जो श्रावक दूसरे जीवोंको भी अपनेही समान मानकर अपना सब काम दयाभावसे करता है जिससे किसीको किसीभी तरहका कष्ट न पहुँचे। यदि उससे कोई गल्ती होजाती है तो स्वयं अपनी निन्दा करता है और अपने गुरु वगैरह अपने दोषका निवेदन करते हुए नहीं सकुचाता । तथा जिनमें बस हिंसा अधिक होती है। ऐसे कामको नहीं करता । जैसे भट्टा लगाना, जंगल फुकवाना, तालाब सुखाना, जंगल काटना आदि और उतना ही व्यापार करता है जितना वह स्वयं कर सकता है | ३३१ ॥ अर्थ - तथा जो मन वचन और कायसे सजीवोंका घात न स्वयं करता है, न दूसरोंसे कराता है और कोई स्वयं करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस श्रावक के प्रथम अहिंसामुक्त होता है | भावार्थ- शंख, सीप, केंचुआ जक, कीडे, चींटी, खटमल, जूं, बिच्छु, पतिंगे, भौरा, डांस, मच्छर, मक्खी, पशु, मृग और मनुष्य वगैरह जंगम प्राणियोंकी मनसे, बचनसे, कायसे स्वयं हिंसा न करना, दूसरोंसे हिंसा न कराना और कोई करता हो तो उसको प्रोसाहित न करना अहिंसाणुव्रत है । मन बचन काय और कृत, कारित, अनु. मोदनाको मिलानेसे नौ भंग होते हैं जो इस प्रकार हैं - अपने मनमें त्रसजीत्रोंको मारनेका विचार नहीं करता १ । दूसरे पुरुषके द्वारा प्रसजीवोंका घात करनेका विचार मनमें नहीं लाता, अर्थात् ऐसा नहीं १ ग काय करपदि । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गाय३३२उसजीवान घातं नानुमोदयति । मया हिंसादिकर्मेदं समीचीन कृतं तथा करोमि करिष्यामीति पचनानुमोदनं वचनेन हर्षों वन न करोति । इति षष्टो मनः । ६ । स्वयं स्वात्मना कायेन कृत्वा प्रसकायिकानां जीवानां घातं प्राणव्यपरोपर्ण न करोति । मया हिंसा कृता हिंसा कसेमि करिष्यामीति कायेन इति न करोति । इति सप्तमो भगः ।। कायेन परजनं प्रेर्य त्रसकायिकानां प्राणिनां हिंसा पीडां बाधां प्राणन्यपरोपर्ण त्रसघातं न कारयति । इति अष्टमो मतः । ८ । खयं शरीरेण सघातं प्राणव्यपरोपणं नानुमोदयति । तत्कथम् । हिंसाकर्मणि शरीरे सोचमबलभवनं यष्टिमुष्टिपादप्रहारादिदशन, हिंसादिकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च ह प्राप्य मस्तकादिदोलनं, चौरादिकपीडाकासभक्षणभृगुपातमाशयुद्धप्रामादिषु सत्सु उत्साहपूर्वक लोचनाभ्यामवलोकन करें तद्वार्ताश्रवणेऽपि उत्साहः चेयादिककायादिचेष्टन शरीरानुमोदनादिक न कर्तव्यम् । इति नबमो भाः । । एद : तमा मनोनापयोगैः कृतकारितानुमतविक्रल्पैः प्रसजीवानां रक्षानुकम्पा दया कर्तव्या अनृतविरल्याणवतेषु ज्ञातव्याः । तथा गृहादिकार्य विना वनस्पत्यादिपञ्चस्थावरजीवबाधा न कर्तव्या । तथा अहिंसातस्य विचारता कि अमुक पुरुषसे कहकर उसजीवोंका पात कराऊँगा २ । किसीको त्रस घात करता हुआ देखकर मनमें ऐसा नहीं विचारता कि यह ठीक कर रहा है ३ । वचनसे स्वयं हिंसा नहीं करता अर्थात् कठोर अप्रिय वचन बोलकर किसीका दिल नहीं दुखाता, न कभी गुस्सेमें आकर यही कहता है कि तेरी जान लूंगा, तुझे काट डालेंगा आदि ४ । बचनसे दूसरोंको हिंसा करनेके लिये प्रेरित नहीं करता कि अमुकको मार डालो ५ । बचनसे त्रस घातकी अनुमोदना नहीं करता कि अमुक मनुष्यने अमुकको अच्छा मारा है ६ । स्वयं हाथ वगैरह से हिंसा नहीं करता ७ । हाथ धगैरहके संकेतसे दूसरोंको हिंसा करनेकी प्रेरणा नहीं करता ८ ।और न हाथ बगैरह के संकेतसे किसी हिंसकके कार्यकी सराहना ही करता है अर्थात् लकड़ी, मुष्टी और पैर वगैरहसे प्रहार करनेका संकेत नहीं करता और न हिंसाको देखकर अथवा सुनकर खुशीसे सिर हिलाता है, यदि कोई अपराधीकी भी जान लेता हो, या मल्लयुद्ध होता हो तो उसे उत्साह पूर्वक देखता नहीं रहता और न कानोंसे सुनकर ही प्रसन्न होता है ९। इसप्रकार नौ विकल्पों से स जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तथा विना आवश्यकताके जमीन खोदना, पानी बहाना, आग जलाना, हवा करना और वनस्पति काटना आदि कार्यमी नहीं करने चाहिये । अर्थात् बिना जरूरतके स्थावर जीवोंको भी पीड़ा नहीं देनी चाहिये । यह अहिंसाणुव्रत है । इसके पांच अतिचार ( दोष) भी छोड़ने चाहिये । वे अतिचार इस प्रकार है-बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध । प्राणीको रस्सी सांकल वगैरहसे ऐसा बाँध देना, जिससे यह यथेच्छ चल फिर म सके यह बन्ध नामका अतिचार है । पालतु जानवरोंको भी जहाँ तक संभव हो खुला ही रखना चाहिये और यदि बांधना आवश्यक हो तो निर्दयतापूर्वक नहीं बाँधना चाहिये। लकड़ी, दण्डे, बेत वगैरहसे निर्दयतापूर्वक पीटना वध नामक अतिचार है। कान, नाक, अंगुलि, लिंग, आंख वगैरह अवयवोंको छेदना भेदना छेदनामका अतिचार है। किसी अवयवके विषाक्त होजानेपर दयाबुद्धिसे डाक्टरका उसे काट डालना इसमें सम्मिलित नहीं है। लोभमें आकर घोड़े बगैरहपर उचित भारसे अधिक भार लादना या मनुष्योंसे उनकी शक्ति के बाहर काम लेना अतिभारारोपण नामका अतिचार है । गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, हाथी, मनुष्य,पक्षी वगैरह को भूख प्यास वगैरहकी पीड़ा देना अन्नपाननिरोध नामका अतिचार है। ये और इस प्रकारके अतिचार अहिंसाणुव्रतीको छोड़ने चाहिये । इस व्रतमें यमपाल नामका चाण्डाल प्रसिद्ध हुआ है। उसकी कथा इस प्रकार है-पोदनापुर नगरमें राजा महाबल राज्य करता था । राजाने अष्टाहिकाकी अष्टमीके दिनसे आए दिन तक जीववध न करनेकी घोषणा कर रखी थी। राजपुत्र बलकुमार Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३३४ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा पश्चातिचारा वर्जनीयाः । तत्कथमिति चेत् । 'धन्वधस्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः । निजेटदेशगमनप्रतिबन्धकरण रज्जुश्रृंखलादिभिः बन्धनं बन्धः । १ । यष्टितर्जनवेत्रदण्डादिभिः प्राणिनां ताडनं हननं वधः । २ । कर्णकंबलनासिकालिलिङ्गप्रजनचक्षुरादीनाम् अवयवानां विनाशनं छेदः । ३ । न्यायाङ्गारादधिकभारवाहन राजानादिलोभावतिभारारोपण बहुभारधारणम् । ४ । गोमहिंपीचलीवर्दवा जिग जमहिषमानवशकुन्तादीनां क्षुधातृषादिपीडोत्पादनम् अन्नपाननिरोधः । ५ । प्रथमाणुव्रतधारिणां पचाविचास वर्जनीयाः । अथ प्रथममते ममपालमा नवलकुमारयोः कथा ज्ञातव्या ॥ ३३२ ॥ अय द्वितीयवतं गाथायेन व्यनक्ति हिंसा-वयणं ण वयदि ककस वयणं पि जो ण भासेदि । रिचयणं पि तहाण भास गुज्झत्रयणं पि ।। ३३३ ।। हिद- मिद वयणं भासदि संतोस करं तु सब- जीवाणं । धम्म-पयासण-वय अणुवदी होदि' सो विदिओ ॥ ३३४ ॥ २३९ 1 अत्यन्त मांसप्रेमी था । उसने राजा उद्यानमें एकान्त देखकर राजाके मेदेको मार डाला और उसे खा गया । मेदेके मारनेका समाचार सुनकर राजा बड़ा कुछ हुआ और उसने उसके मारनेवालेकी खोज की । उद्यानके मालीने, जो वृक्ष था मेदे मारते हुए राजपुत्रको देख लिया था। रात्रि के समय उसने यह बात अपनी खीसे कही। राजाके गुप्तचरने सुनकर राजाको उसकी सूचना दे दी। सुबह होनेपर माली बुलाया गया । उसने सच सच कह दिया । 'मेरी आज्ञाको मेरा पुत्र ही तोड़ता है' यह जानकर राजा बड़ा रुष्ट हुआ और कोतवालको आज्ञा दी कि राजपुत्रके नौ टुकड़े कर डालो । कोतवाल कुमारको वधस्थान पर ले गया और चाण्डालको बुलानेके लिये आदमी गया | आदमीको आता हुआ देखकर चाण्डालने अपनी स्त्री से कहा- 'प्रिये, उससे कह देना कि चाण्डाल दूसरे गाँव गया है | और इतना कह कर घरके कोनेमें छिप गया। कोतवालके आदमीके आवाज देने पर चाण्डालनीने उससे कह दिया कि वह तो दूसरे गाँव गया है। यह सुनकर वह आदमी बोला- ' वह बड़ा अभागा है । आज राजपुत्रका वध होगा । उसके मारनेसे उसे बहुतसे वखाभूषण मिलते।' यह सुनकर धनके लोभसे चण्डालनीने हाथके संकेतसे चण्डालको बता दिया, किन्तु मुखसे यही कहती रही कि वह तो गांव गया है। आदमीने घरमें घुसकर चण्डालको पकड़ लिया और वधस्थानपर लेजाकर उससे कुमारको मारनेके लिये कहा । चाण्डालने उत्तर दिया- आज चतुर्दशीके दिन मैं जीवघात नहीं करता । तब कोतवाल उसे राजाके पास लेगया और राजासे कहा- 'देव, यह राजकुमारको नहीं मारता ! चाण्डाल बोला- 'स्वामिन्! मुझे एक बार सांपने डस लिया और मैं मर गया। लोगोंने मुझे स्मशानमें ले जाकर रख दिया । वहाँ सर्वोपधि ऋद्धिके धारी मुनिके शरीरसे लगकर बहनेवाली वायुसे में पुनः जीवित होगया । मैंने उनके पास चतुर्दशी के दिन जीवहिंसा न करने का व्रत ले लिया । अतः आज मैं राजकुमारको नहीं मारूंगा । देव जो उचित समझें करें । अस्पृश्य चाण्डालके व्रतकी बात सोचकर राजा बहुत रुष्ट हुआ । और उसने दोनोंको बन्धवाकर तालाब फिकवा दिया । प्राण जानेपर भी अहिंसा व्रतको न छोड़नेवाले चाण्डालपर प्रसन्न होकर जलदेवताने उसकी पूजा की । जब राजा महाबलने यह सुना तो देवताके मयसे उसने मी चाण्डालकी पूजा की और उसे अपने सिंहासन पर बैठाकर अस्पृश्यसे स्पृश्य बना दिया || ३३२ ॥ आगे दो १ म यदि, गहविदि, रु नदि । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३३४[छाया-हिंसावचनं न वदति कर्यामचनम् भपि यः न भाषते । निरवचनम् अपि तथा न भाषते गुणवचनम् अपि ॥ हितमितवचन भाषते संतोषकर तु सपामाथ् । बजार पावध, मतितीयः ॥] स द्वितीयः अणुव्रती, अणूनि अल्पानि ब्रतानि यस्य स आणुनती भपति स्यात् । स कः । यः द्वितीयाणुव्रतधारी न वदति न वक्ति न भाषते । किं सत् । हिंसावचन हिंसाकर जीवहिंसारतिपादक च वचनं वाक्यं न वकि । अपि पुनः यः छितीयागुवती कर्कशवचन न भाषते । मूर्खस्त्वं बलीवर्दस्वं न क्रिषिमानासीति कर्कशवचनं कर्णकटुकप्राय न वदति। परेषामुद्वेगजननी, कुजातिस्त्वम् , मर्म च कटुका मर्मचालिनी, त्वम् अनेकदोरैर्दुष्टः मद्यपायी अभक्ष्यभक्षकस्त्वम् । पत्रो भाषा न भाषते, तब मारयामि तव हस्तपादनासिकादिकं छेदयामि, परस्परविरोधकारिणी भाषेयादिवचनै निष्ठुरदाक्यं काठिन्य वाक्यं न माषते । अपि पुनः गुह्यवचनं न भाषते प्रच्छनवचन स्त्रीपुरुषकतं गुह्यं च गोप्य वाक्यं न वक्ति । तर्हि किं भाषते । हितमितवचन भाषते । हित हितकारिवचन खर्गमुक्तिसुखप्राप्तिकर पथ्यप्राय हितवाक्यं वदति, मितं स्वल्प मादावचनं भाषते । सर्वजीवानां सर्वेषां प्राणिना संतोषकरण प्रमोदोत्पादक भाषते। तु पुनः, धर्मप्रकाशवचनं धर्मस्प वस्तुस्वरूपस्य उत्तमक्षमादिदशाविषधर्मस्य श्रावकधर्मस्य यतिधर्मस्य वा प्रतिपादक वाक्यं धर्मोपदेशं वदति । तथा चोक्त च। 'लाभलोभभयघZलीक वचनं पुनः । सर्वथा तब वक्तव्य द्वितीय तदणुव्रतम् ॥" स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥अनृतवचनोपायचिन्तनमपि प्रमसयोगादनृतमुच्यते । ---......गाथाओंसे दूसरे अणुवतका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो हिंसाका वचन नहीं कहता, कठोर वचन वहीं कहता, निष्ठुर बचन नहीं कहता और न दूसरेकी गुप्त बातको प्रकट करता है । तया हित मित वचन बोलता है, सब जीवोंको सन्तोषकारक वचन बोलता है, और धर्मका प्रकाश करनेवाला वचन बोलता है, वह दूसरे सत्याणुव्रतका धारी है ।। भावार्थ-जिस वचनसे अन्य जीवोंका घात हो ऐसे वचन सत्याशुवती नहीं बोलता । जो वचन दूसरेको कडुआ लगे, जिसके सुनते ही क्रोध आजाये ऐसे कठोर वचन मी नहीं बोलता, जैसे, 'तू मूर्ख है, तू बैल है, कुछ मी नहीं समझता इस प्रकारके कर्णकटु शब्द नहीं बोलता । जिसको सुनकर दूसरेको उद्वेग हो, जैसे तू कुजात है, शराबी है, कामी है, तुझमें अनेक दोष हैं, मैं तुझे मार डालंगा, तेरे हाथ पैर काट डालूंगा' इस प्रकारके निठुर वचन नहीं बोलता | किन्तु हितकारी वचन बोलता है, और ज्यादा बक बक नहीं करता, ऐसे वचन बोलता है जिससे सब जीवोंको सन्तोष हो तथा धर्मका प्रकाश हो । कहा मी है-'लोभसे, डरसे, द्वेषसे असत्य वचन नहीं बोलना दूसरा अणुव्रत है।' स्वामी समन्तभद्रने रखकरंड श्रावकाचारमें सत्यायुवतका खरूप इस प्रकार बतलाया है जो स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है, तथा सत्य बोलनेसे यदि किसीके जीवनपर संकट आता हो तो ऐसे समय में सत्यवचन भी नहीं बोलता उसे सत्याणुवती कहते हैं । बात यह है कि मूल नत अहिंसा है, शेष चारों व्रत तो उसीकी रक्षाके लिये हैं। अतः यदि सत्य बोलनेसे अहिंसाका घात हो तो ऐसे समय अणुव्रती श्रावक सत्य नहीं बोलता। असत्य बोलनेके उपायोंका विचार करना भी असत्यमें ही सम्मिलित है । इस व्रतके भी पांच अतिचार होते हैं-मिथ्योपदेश, रहोआख्यान, कूट लेख क्रिया, न्यासापहार और साकार मंत्र भेद । मूर्ख लोगोंके सामने वर्ग और मोक्षकी कारणरूप क्रियाका वर्णन अन्यथा करना और उन्हें सुमार्गसे कुमार्गमें डाल देना मिथ्योपदेश नामका अतिचार है। दूसरोंकी गुप्त क्रियाको गुप्तरूपसे जानकर दूसरोंपर प्रकट कर देना रहोआल्यान नामका अतिचार है । किसी पुरुषने जो काम नहीं किया, न किसीको करते सुना, द्वेषवश उसे पीड़ा पहुँचानेके लिये ऐसा लिख देना कि इसने ऐसा किया है या कहा है, Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा सथा पचातिचारा पर्जनीयाः । 'मिथ्योपदेश रहो म्याख्यान कूटलेख कियाभ्यासापहारसाकारमन्त्र मेदाः । अभ्युदयनिःश्रेयसयोरिन्द्राहमिन्द्र तीर्थ करादिसुखस्य परमनिर्वाणपदस्य च निमित्तं या किया सत्यरूपा वर्तते तस्याः क्रियायाः मुग्धलोकस्य अन्यथाकथनम् अन्यथाप्रवर्तनं धनादिनिमित्तं परवश्चनं च मिथ्योपदेशः । १ स्त्रीपुरुषाभ्यां रहसि एकान्ते यः क्रियाविशेषोsनुष्ठितः कृतः उक्तो वा स क्रियाविशेषो गुप्तहत्या गृहीत्वा अन्येषा प्रकाश्यते तत्रहो भ्याख्यानम् । २ । केनचित्सा अकथितम् अत किंचित्कार्य द्वेषवशात्परपीडार्थम् एत्रमनेनोक्तमेवमनेन कृतम् इति परवचनार्थं यत् लिख्यते राजादौ दश्ते सा कूटखया पैशुन्यमित्यर्थः । ३ । केनचित्पुरुषेण निजमन्दिरे किं द्रव्यं न्यासीकृतं निशिमं तस्य द्रव्यस्य ग्रहणकाले संख्या विस्मृता विस्मरणात अल्प द्रव्यं गृहाति, न्यायवान् पुमान्, अनुज्ञावचनं ददाति । हे देवदत्त यावन्मात्रै स वर्तते तावन्मात्रं त्वं गृहाण, किमत्र प्रष्टव्यम् । जानन्नपि परिपूर्ण तस्य न ददाति न्यासापहारः । ४ । कार्यकरणम विकारं भ्रूक्षेपादिकं परेषां दृष्ट्वा पराशिप्रायमुपलभ्य ज्ञात्वा अस्यादिकारणेन तस्य पराभिप्रायम्य अन्येषां प्रकटनं यत् क्रियते स साकारममेदः । ५ । एते द्वितीयान्तस्य पञ्चातिचाराः वर्जनीयाः । असत्यवचने दृष्टान्तकथाः वसुनृपधनदेवजिनदेवसत्यघोषादीनां ज्ञातव्याः ॥ ३३३-३४ ॥ अथ तृतीयाचौर्यमनं गाथाद्वयेनाह ૨૪૨ जो बहु-मुलं वत्युं अध्यय-मुलेण णेव गिण्हेदि । बीसरियं पिण गिण्हदि लाहे थोषे वि तूसेदि ॥ ३३५ ॥ जो परदयं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण । दिढ चित्तो सुद्ध-मई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ [ छाया यः स्तुति t कूट लेख क्रिया नामका अतिचार है । किसी पुरुषने किसीके पास कुछ द्रव्य धरोहर रूपसे रखा । लेते समय वह उसकी संख्या भूल गया और जितना द्रव्य रख गया था उससे कम उससे मांगा तो जिसके पास धरोहर रख गया था वह उसे उतना द्रव्य दे देता है जितना वह मांगता है, और जानते हुए भी उससे यह नहीं कहता कि तेरी धरोहर अधिक है, तू कम क्यों मांगता है ? यह न्यासापहार नामका अतिचार है । मुखकी आकृति वगैरह से दूसरोंके मनका अभिप्राय जानकर उसको दूसरोंपर प्रकट कर देना, जिससे उनकी निन्दा हो, यह साकार मंत्रभेद नामका अतिचार है । इस प्रकार के जिन कामोंसे व्रतमें दूषण लगता हो उन्हें नहीं करना चाहिये । सव्याणुव्रत में धनदेवका नाम प्रसिद्ध है। उसकी कथा इस प्रकार है। पुण्डरीकिणी नगरीमें जिनदेव और धनदेव नामके दो गरीब व्यापारी रहते थें । धनदेव सत्यवादी था। दोनोंने बिना किसी तीसरे साक्षीके आपसमें यह तय किया कि व्यापारसे जो लाभ होगा उसमें दोनोंका आधा आधा भाग होगा । और वे व्यापारके लिये विदेश चले गये तथा बहुतसा द्रव्य कमाकर लौट आये। जिनदेवने धनदेवको लाभका आधा भाग न देकर कुछ भाग देना चाहा । इसपर दोनोंमें झगड़ा हुआ और दोनों न्यायालय में उपस्थित हुए । साक्षी कोई था नहीं, अतः जिनदेवने यही कहा कि मैंने धनदेवको उचित द्रव्य देने का वादा किया था, आधा भाग देने का वादा नहीं किया था ! धनदेवका कहना था कि आधा भाग देना तय हुआ था । राजाने धनदेवको सव द्रव्य देना चाहा, किन्तु वह बोला कि मैं तो आधेका हकदार हूँ, सबैका नहीं। इसपर से उसे सच्चा और जिन देवको झूठा जानकर राजाने सब द्रव्य धनदेवको ही दिला दिया, तथा उसकी प्रशंसा की ।। ३३३ - ३३४ ॥ आगे दो गाथाओंसे तीसरे अचौर्याणुत्रतका स्वरूप कहते हैं। + गृह्णाति लाभे स्तोके अपि तुष्यति ॥ यः १ मो। २ अप्पय इति पाठः पुस्तकान्तरे पृष्टः ल म सग अप्पमुलेण । ३ स ग. भूने। ४ स अणुध्व्वदी । कार्तिके ३१ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०३३६पररष्य न हरति मायालोमेन क्रोधमानेन । रचित्तः शुदमतिः अणुव्रती स भवेत् तृतीयः॥] स पुमान् तृतीयः भणुव्रती तृतीयाचौर्यवतधारी भवेत् स्यात् । स कः । यः पुमान् नैव गृह्णाति न च आदो । किं तत् । अल्पमूल्येन स्तोकद्रव्येण बहुमूल्यं बहुद्रव्यमूल्यं वस्तु अनय रत्नमणिमाणिक्यमुक्ताफलम्वर्णकर्पूरयरतरिकापट्टदुकूलसुवर्णरुप्यनाणकादिवस्तु वूटरजमाणिमाणिक्यमुक्ताफलपित्तललवणमपिस्थूलवस्त्रकूट सुवर्णरूप्यनाणकादिना नुच्छमूल्येन न गृहातीत्यर्थः । विस्मृतमपि वस्तु अपिशब्दान अविस्मृतं वस्तु केनापि विस्मृतम् अविस्मृतं वस्तु नादते न गृह्णाति । अपिशवदात् पतिप्तम् मखामिक भूम्यादो लब्धं वस्तु न च गृह्णाति । हि स्फुट निश्चयेन वा ! स्तोकेऽपि वरुणेऽपि लाभे व्यापारसमये तोकेन स्वस्पेन लाभेन तुष्यति संतोष प्रायोति । य: संतोषव्रतधारी परदन्यं परेषाम् अन्योरा इयं रासवर्णमाणिक्यपदुकूलादिवताम् अवः सत् न हरते म आदते न गृहाति न लाति । केन । मायालोमेन मायया कापव्येन धूर्तविद्यया पापण्डप्रपञ्चेन, लोमेन तृष्णया अत्याकांक्षया, कोषमानेन कोपं कृत्वा मदत वस्तु म गृहातीत्यर्थः, मानेन अहंकारेण भई सर्वमान्यः शृद्ध इति कृत्वा परद्रव्यमदतन गृहासीत्यर्थः। कीदक्षः । तृतीयाणवतधारी दृढवित्तः स्वते निश्चलमनाः । पुनः कीदक्षः। शुद्धमतिः खातिचारपसकनिवृत्त्या निर्मलमतिः । 'स्तेनप्रयोगतदातादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः' । कश्चित्पुमान् चोरी करोति, अन्यस्तु कश्चित् ते चोरपुरुषं चोरयन्त स्वयं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, अन्येन वा केनचित् पुंसा तं चोरपुरुषं चोरयन्तं वयं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, अन्येन वा केनप्निसा तं चोरयन्त प्रेयते मनसा वाचा कायेम, स्वयमन्येन वा प्रेर्यमाणं चोरी कुर्वन्तं अनुमन्यते मनसा वाचा कायेन । इति नवप्रकारेण खेनप्रयोगः। चोरेण अर्थ-जो बहुमूल्य वस्तुको अल्प मूल्यमें नहीं लेता, दूसरे की भूली हुई वस्तुको भी नहीं उठाता, थोडे लामसे ही सन्तुष्ट रहता है, तथा कपट, लोभ, माया या क्रोधसे पराये द्रव्यका हरण नहीं करता, यह शुद्धमति हदनिश्चयी श्रावक अचौर्याणुगती है ।। भावार्थ-सात व्यसनोंके सागसे चोरीके व्यसनका स्याग तो हो ही जाता है । अतः अचौर्याणुव्रती बहुमूल्य मणि मुक्ता स्वर्ण वगैरहको तुच्छ मूत्पमें नहीं खरीदता, यानी जिस वस्तुकी जो कीमत उचित होती है उसी उचित कीमतसे खरीदता है क्योंकि प्रायः चोरीका माल सस्ती कीमतमें बिकता है | अत: अचौर्याणुवती होनेसे वह चोरीका माल नहीं खरीद सकता, क्यों कि इससेमी व्रतमें दूषण लगता है । तथा भूली हुई, या गिरी हुई, या जमीनमें गढ़ी हुई पराई . वस्तुको भी नहीं लेता। व्यापारमें थोड़ा लाभ होनेसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, चोरबाजारी वगैरहके द्वारा अधिक द्रव्य कमानेकी भावना नहीं रखता । कपट धूर्तता वगैरहसे, धनकी तृष्णासे, क्रोधसे अथवा धमण्डमें आकर परद्रव्यको भटकनेका प्रयत्न भी नहीं करता । अपने व्रतमें दृढ़ रहता है और नतमें अतिचार नहीं लगाता । इस व्रतके भी पाँच अतिचार है-स्तेन प्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, होनाधिकमानोन्मान, प्रतिरूपक व्यवहार ! कोई पुरुष चोरी करता है, दूसरा कोई पुरुष उस चोरको मन वचन कायसे चोरी करनेकी प्रेरणा करता है, या दूसरेसे प्रेरणा कराता है, अथवा प्रेरणा करनेवालेकी अनुमोदना करता है। इस तरह नौ प्रकारसे चोरी करनेकी प्रेरणा करनेको स्तेनप्रयोग कहते हैं । चोरीका माल मोल लेना तदातादान नामका अतिचार है । राजनियमोंके विरुद्ध व्यापार आदि करना विरुद्ध राज्यातिक्रम नामक अतिचार है । तराजुको उन्मान कहते हैं, बाटोको मान कहते हैं। खरीदनेके बांट अधिक और बेचनेके बांट कम रखना होनाधिक मानोन्मान नामका अतिचार है । जाली सिकोंसे लेनदेन करना प्रतिरूपक व्यवहार नामका अतिचार है। ये और इस तरह के अतिचार अचौर्याणुव्रतीको छोड़ देने चाहिये । अचौर्याणुव्रतमें वारिषेणका नाम प्रसिद्ध है उसकी कया इस प्रकार है। मगधदेशके राजगृह नगरमें राजा श्रेणिक राज्य करता था। उसकी रानी चेलना थी। उन दोनोंके Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३८] १२. धर्मानुप्रेक्षा २४३ चोराभ्यो चोरवा यदस्तु चोरयित्वा आनीत तद्वस्तु यत् मूल्यादिना गृह्णाति तत् तदाहृतादानम् । २ । बहुमूल्यानि वस्तूनि अल्पमूल्येन नेव गृहीतध्यानि । अल्पमूल्यानि वस्तुनि बहुमूल्येन नेव.दातव्यानि । राज्ञः आशादिकरणं यदविरुद्ध कर्म तत् राज्यमुच्यते । उचितमूल्यात अनुचितदानम् अनुचितग्रहणं च अतिक्रमः । विद्वराज्ये अतिक्रमः यस्मात्कारणात् राशा घोषणा अन्यथा दापिता दानमादानं च अन्यथा करोति स बिरुवराज्यातिक्रमः । अथवा राजघोषणा विनापि मणिको व्यापार कुर्वन्ति । व्यापार ६दि राजा पिमन्यता राज्याभिः । ३ । प्रस्थः चतुःसेरमान तत्काडादिना घटितं मानमुच्यते । उन्मानं तुलामाने, मान चोन्मानं च मानोन्मानम्, एताभ्यां हीनाभ्यां ददाति अधिकाभ्यो गृहाति हीनाधिकमानोम्मानमुच्यते । ४ । ताम्रण घटिता रूप्येण च सुवर्णेन च घटितास्ताम्ररूप्याभ्यां च घटिता ये अम्माः तत् हिरण्यमुच्यते, तत्सहशा: केनचित् लोकवचनार्थ घटिता द्रम्माः प्रतिरूपकाः उच्यन्ते, तैः प्रतिरूपकः असत्यनाणके व्यवहारः क्रयविक्रयः प्रतिरूपकव्यवहारः । ५। एते पञ्चातिचारा अचौर्याणुनतधारिणा वर्जनीयाः । अत्र दृष्टान्साः शिवभूतिताफ्सवारिषेणादयो ज्ञातव्याः ॥ ३३५-३३६ ।। अथ ब्रह्मचर्गवतं व्याकरोति गाथाद्वयेन असुइ-मयं दुग्गंधं महिला-देहं विरच्चमाणो जो । रूपं लावणं पि य मण-मोहण कारणं मुणइ ॥ ३३७ ॥ जो मणादि पर-महिलं' जगाणी-बहिणी-सुआइ-सारिच्छे । मण-वयणे कारण वि वंभु-वई सो हवे थूलो ॥ ३३८ ॥ [छाया-अशुचिमयं दुर्गन्ध महिला देहं विराजमानः यः । रूपं लावण्यम् अपि च मनोमोहनकारणं जानाति ॥ यः मन्यते परमहिला जननीभगिनीसुतादिसदृशाम् । मनोवचनाभ्या कायेन अपि बलवती स भवेत् स्थूलः ।। ] स भव्यास्मा बारिण नामका पुत्र था । बारिषेण बड़ा धर्मात्मा तथा उत्तम श्रावक था । एक दिन चतुर्दशीकी रात्रिमें वह उपवासपूर्वक श्मशानमें कायोत्सर्गसे स्थित था । उसी दिन नगरकी वेश्या मगधसुन्दरी उचानोत्सवमें गई थी, वहां उसने सेठानीको एक हार पहने हुए देखा ! उसे देखकर उसने सोचा कि इस हारके बिना जीवन व्यर्थ है । ऐसा सोचकर वह शय्यापर जा पड़ी । रात्रिमें जब उसका प्रेमी एक चोर आया तो उसने उसे इस तरह से पड़ी हुई देखकर पूछा-'प्रिये, इस तरहसे क्यों पड़ी हो ! वेश्या बोली-'यदि सेठानीके गलेका हार लाकर मुझे दोगे तो मैं जीवित रहूँगी, अन्यथा मर जाऊँगी। यह सुनते ही चोर हार चुराने गया और अपने कौशलसे हार चुराकर निकला । हारकी चमक देखकर घररक्षकोंने तथा कोतवालने उसका पीछा किया ! चोरने पकड़े जानेके भयसे बह हार वारिषेण कुमारके आगे रख दिया और स्वयं छिप गया। कोतवालने वारिषेणके पास हार देखकर उसे ही चोर समझा और राजा श्रेणिकसे जाकर कहा । राजाने उसका मस्तक काट डालनेकी आज्ञा दे दी। चाण्डालने सिर काटनेके लिये जैसे ही तलवारका बार किया वह तलवार वारिषेणके गलेमें मलमाला बन गई। यह अतिशय सुनकर राजा श्रेणिकभी वहाँ पहुँचा और कुमारसे क्षमा मांगी । चोरने अभयदान मिलने पर अपना सब वृत्तान्त कहा ! सुनकर राजा वारिपेणसे घर चलनेका आग्रह करने लगा। किन्तु वारिषेणने घर न जाकर जिनदीक्षा ले ली ॥ ३३५-३३६ ॥ अब दो गाथाओंसे ब्रह्मचर्यत्रतका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो स्नीके शरीरको अशुचिमय और दुर्गन्धित जानकर उसके रूप लावण्यको भी मनमें मोहको पैदा करनेवाला मानता है, तथा मन वचन और कायसे पराई स्त्रीको माता, बहिन १ग मुर्थ। २१ परिमहिला...सारिच्छा। हमसग कामेण । ४ सग यूओ। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ खामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा०३३८स्थूलो प्रावती भक्त, स्थूलमानती चतुर्थब्राह्मचर्याणवतधारी स्यात् । स कः । यः मणवयणे कायेण वि मनसा चित्तेन वबनेन वचसा कायेन शरीरेणापि । अपिशब्दः चकारार्थे । परमहिला परेषां त्रियम् अन्येष। युवती सकलत्रं विहाय अन्या सां जानाति । कीदृशी परमहिलाम् । जननीभगिनीसुतादिसशीम् । जननी माता भगिनी खसा सुता पुत्री, मादि. शब्दात मातामही पितामही श्वश्रुः इत्यादिसमाना मन्यते । यः चतुर्शवतधारी मनोवचनश्चयैः कृतकारितानुमतविकल्पैः मवप्रकारः परश्रियं मातृम्बसूपुत्रीमातामहीपितामहीश्वश्वादिसदृशी समाना मन्यते जामाति चिन्तयति । यः चतुर्याणवतधारी महिलादेहं वनिताशरीरम् अशुचिमयं रुघिरमांसास्थिच ममलमूत्रादिनिधृत्तं निष्पन भृतम् अपवित्रम् अस्पृश्य पुनः मन्यते जानाति । पुन: दुर्गन्ध महापूतिगन्ध भलमूत्रप्रस्खेदनाद्युद्भवदुर्गन्धतायुक्तं देवं मन्यते । विरच्यमानः विचारयन्, सन् स्त्रीशरीरस्य विचार युर्वन् सन् , विरज्यमानो वा विरक्ति गच्छन् सन् पैराग्यं गतवान् । तथा चोकं च । "दुर्गन्थे चर्मगर्ने प्रणमुखशिखरे मूत्ररेतःप्रवाहे मांसासूकदमा कृमिकुलकलिते दुर्गमे दुनिरीक्षे । विष्ठाद्वारोपण्डे गुदविवरगलवायुधूमार्तधूपे कामान्धः कामिनीना कटितटनिकटे गर्दभत्युत्थमोहात् ॥" इति । तासां महिलानां रूप सौरूप्यं शोभनरूपं लावण्य -- ----- और पुत्रीके समान समझता है, वह श्रावक स्थूल ब्रह्मचर्यका धारी है । भावार्थ-चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रतका धारी श्रोधक मनसे, पचनसे और कायसे अपनी पत्नीके सिवाय शेष सब खियोंको, जो बड़ी हो उसे माताके समान, जो बराबरकी हो उसे बहिनके समान और जो छोटी हो उसे पुत्रीके समान जानता है, तथा रुधिर, मांस, हट्टी, चमड़ा, मल मूत्र वगैरहमे बने हुए स्त्रीशरीरको अस्पृश्य समझता है, और मल मूत्र पसीने वगैरहकी दुर्गन्धसे भरा हुआ विचारता है । इस तरह स्त्रीके शरीरका बिचार करके बह कामसे विरक्त होनेका प्रयत्न करता है । कहामी है-'स्त्रीका अवयव दुर्गन्धसे भरा हुआ है, उससे मून बहता है, मांस और लोहूरूपी कीचड़से सदा गीला बना रहता है, कृमियोंका घर है, देखने में धिनावना है, किन्तु कामान्ध मनुष्य उसे देखते ही मोहसे अन्धा बन जाता है। अतः ब्रह्मचर्याणुवती सियों के रूप, लावण्य, प्रियवचन, प्रिय गमन, कटाक्ष और स्तन आदिको देखकर यही सोचता है कि ये सब मनुष्योंको मूर्ख बनानेके साधन हैं । इस प्रकार ब्रह्मचर्याणुव्रती परस्त्रियोंसे तो सदा विरक्त रहता ही है, किन्तु अष्टमी और चतुर्दशीको अपनी स्त्रीके साथ भी कामभोग नहीं करता । कहा भी है-'जो पर्वके दिनोंमें श्रीसेवन नहीं करता तथा सदा अनंगक्रीडा नहीं करता उसे जिनेन्द्र भगवानने स्थूल मझचारी कहा है।' आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- 'जो पापके भयसे न तो परस्त्रीके साथ स्वयं रमण करता है और न दूसरोंसे रमण कराता है उसे परदारनिवृत्ति अथवा स्वदारसन्तोष नामक व्रत कहते हैं। इस व्रतकमी पाँच अतिचार हैं-अन्य विवाह करण, अनङ्गक्रीडा, विटत्व, विपुल तृषा, इस्वरिका गमन । अपने पुत्र पुत्रियोंके सिवाय दूसरोंके विवाह रचाना अन्य विवाहकरण नामक अतिचार है। कामसेवनके अंगोंको छोड़कर अन्य अंगोंमें क्रीडा करना अनंगक्रीडा नामक अतिचार है । अश्लील वचन बोलना विटत्व अतिचार है । कामसेवनकी अत्यन्त लालसा होना विपुल तृषा नामक अतिचार है। दुराचारिणी खी वेश्या वगैरहके अंगोंकी ओर ताकना, उनसे संभाषण वगैरह करना इत्वरिकागमन नामका अतिचार है । ये और इसप्रकारके अन्य अतिचार ब्रह्मचर्याणुव्रतीको छोड़ने चाहिये । इस व्रतमें नीली अत्यन्त प्रसिद्ध है। उसकी कथा इस प्रकार है-लाट देशके भृगुकच्छ नगरमें राजा वसुपाल राज्य करता था। वहीं जिनदत्त नामका एक सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम जिनदचा या । उन दोनोंके नीली नामकी एक अत्यन्त रूपवती पुत्री थी । उसी नगरमें समुद्रदत्त नामका एक दूसरा सेट रहता पा । उसकी पत्नीका नाम सागरदत्ता था । उन दोनोंके सागरदत्त नामका पुत्र था। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O 213 -३३८] १२. धर्मानुप्रेक्षा २४५ वणिमा शरीरस्य सौभाग्यं प्रियवचनं प्रियगमनं कटाक्षस्तनादिदर्शनं च मनोमोहनकारणं मनसः घेतसः मोहस्य म्यामोहस्थानानस्यास्य कारणं हेतुः कुपद करोति । मुणइ वा पाठे मनुते जानाति । स्त्रीणां रूपं लागं न्य पुरुषस्य मनोमोहनकारणं युरोति विदधातीर्थः । तथा चतुर्थव्रतधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च स्वस्नियः कामक्रीडा सदा सर्वकालं न त्यजति । तदुकं च । पदेसु इत्थिसेवा अनंगीडा सया विवतो धूलयउबम्हचारी जिणेहिं भणिदो पवयणहि ॥17 इति । तथा च । २ च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः खदार संतोषनामापि । इति । तथा च चतुर्थव्रतधारी पश्चाति चारान्द्र वर्जयति । "अन्यविवाहाकरणानङ्गक्रीडा विटत्वविपुलतृषाः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पथ “युतीचाराः ॥” स्वपुत्रपुत्र्यादीन् वर्जयित्वा अन्येषां गोत्रिणां मित्रस्वजनपरिजनानां विवाहकरणाविचारः । १ । अजं योनिलिङ्गं च ताभ्यां योनिलिङ्गाभ्यां विना करकुक्षकुचादिप्रदेशेषु क्रीडन अनत्रकीडातिचारः । २ । बिटत्वं भण्डवचनादिकम् अयोग्यवचनम् । ३ विषयां रक्षा | यस्मिन् काले लिया प्रवृत्तिरुका तस्मिन् का कामतीमा भिनिवेशः । चतयुक्तावालातिरश्रीप्रभृतीनां गमनं रागपरिणार्म विपुलतृषाः । ४ । इत्थरिकागमर्न पुवठीवेश्यादासीनां गमनं जघनस्तनवदनादिनिरीक्षण संभाषणहस्तभ्रू कटाक्षादिसंज्ञा विधानम् इत्येवमादिकं निखिल रामित्वेन दुबेष्टित गमनमित्युच्यते । ५ । एते पचातिचाराः चतुर्थत्रतधारिणा वर्जनीयाः । अत्र दृष्टान्ताः सुदर्शन श्रेष्ठिनीलीचन्दनादयः कोट्टपालक डार पिंगामृतमत्यादयश्च ॥ ३३७-३८ ॥ अथ परिप्रहविरविपवमाशुवतं गाथाद्वयेनाह एकबार वसन्त ऋतु में महापूजाके अवसर पर समस्त अलंकारसे भूषित नीलीको कायोत्सर्गसे स्थित देखकर सागरदत बोला- क्या यह कोई देवी है ! यह सुनकर उसके मित्र प्रियदवने कहा- यह जिनदत्त सेठकी पुत्री नीली है। सागरदत्त उसे देखते ही उसपर आसक्त होगया और उसकी प्राप्तिकी चिंतासे दिन दिन दुर्बल हो चला । जब यह बात समुद्रदत्तने सुनी तो वह मोला - 'पुत्र, जैनीके सिवाय दूसरेको जिनदत्त अपनी कन्या नहीं देगा । अतः बाप बेटे कपटी श्रावक बन गये और नीलीको विवाह लाये । उसके बाद पुनः बौद्ध होगये । बेचारी नीलीको अपने पिताके घर जानेकी मी मनाई होगई। नीली श्वसुर गृहमें रहकर जैनधर्मका पालन करती रही। यह देखकर उसके धरने सोचा कि संसर्गसे और उपदेशसे समय बीतनेपर यह बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेगी। अतः उसने एक दिन नीलीसे कहा - 'पुत्रि, हमारे कहनेसे एक दिन बौद्ध साधुओंको आहार दान दो ।" उसने उन्हें आमंत्रित किया और उनकी एक एक पादुकाका चूर्ण कराकर भोजनके साथ उन्हें खिला दिया । जब वे साधु भोजन करके जाने लगे तो उन्होंने पूछा- हमारी एक एक पादुका कहाँ गई ! नीली बोली- 'आप ज्ञानी हैं, क्या इतना भी नहीं जान सकते ? यदि नहीं जानते तो वमन करके देखें, आपके उदरसे ही आपकी पादुका निकलेगी।' घमन करते ही पादुकाके टुकने निकले, यह देख पक्ष बहुत रुष्ट हुआ । तब सागरदत्तकी बहनने गुस्सेमें आकर नीलीको पर पुरुषसे रमण करनेका झूठा दोष लगाया । इस झूठे अपवादके फैलनेपर नीलीने खानपान छोड़ दिया और प्रतिज्ञा ले ली कि यह अपवाद दूर होनेपर ही भोजन ग्रहण करूँगी । दूसरे दिन नगरके रक्षक देवताने नगरके द्वार कीलित कर दिये और राजाको खम दिया कि सतीके पैरके छूनेसे ही द्वार खुलेगा । प्रातः होने पर राजाने सुना कि नगरका द्वार नहीं खुलता। तब उसे रात्रिके खप्तका स्मरण हुआ । तुरन्त ही नगरकी स्त्रियोंको आज्ञा दी गई कि वे अपने चरणसे द्वारका स्पर्श करें । किन्तु अनेक स्त्रियोंके वैसा करनेपर भी द्वार नहीं खुला | तब अन्तमें नीलीको ले जाया गया। उसके चरणके स्पर्शसे ही नगरके सब द्वार खुल गये । सबने नीलीको निर्दोष समझकर उसकी पूजा की ।। ३३७-३३८ ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा जो लोहं णिणित्ता संतोस - रसायणेण संतुट्ठो । हिदि तिण्हा दुड्डा मण्णतो' विणस्सरं सर्व्वं ॥ ३३९ ॥ जो परिमाणं कुर्बादि धण-घण्ण-सुवण्ण- खित्तमाईणं । उवओगं जाणित्ता अनुपदं पंचमं तस्स || ३४० ॥ [ गा० ३३९ 1 [छाया-य: लोभ निहत्य संतोषरसायनेन संतुष्टः । निहन्ति तृष्णा दुष्टा मन्यमानः विनश्वरं सर्वम् ॥ यः परिमाणं कुर्वते धनधान्यसुवर्णक्षेत्रादीनाम् उपयोगं ज्ञात्वा अणुव्रतं पञ्चर्म तस्य ॥ ] यः परिग्रह निवृत्त्यत्रतधारी संतोषरसायनेन संतोषामृतरसेन संतुष्टिलोभनिवृत्तिः स चामृतरसेन संतुष्टः सन् संतोषवान् । किं कृत्वा । लोभ तृष्णा निहत्य मुल्वा इत्यर्थः । पुनः किं करोति । दुष्टाः तृष्णाः निहन्ति अनिष्टाः पापरूपाः दुष्टाः तृष्णाः परस्त्रीपर बना दिवालादिरूपाः हिनस्ति स्फेटयति । किं कुर्वन् सन् । मन्यमानः जानन, विचारयन् । किं तत् । सर्व देहगेहादिसमस्ते विनश्वरं भरं विनाशशीलम् ॥ तस्य पुंसः अणुवत पश्चमं परिग्रहपरिमाणलक्षणे भवति यः पथमाणुत्रतधारी धनधान्यसुवर्णक्षेत्रादीनां परिमाणम् आदिशब्दात् गृहहहाआगे दो गाथाओंसे पाँचवे परिग्रहविरति अणुव्रतका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो लोभ कषायको कम करके, सन्तोषरूप रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णाका घात करता है और अपनी आवश्यकताको जानकर धन धान्य सुवर्ण और क्षेत्र वगैरहका परिमाण करता है उसके चित्र अणुव्रत होता है || भावार्थ- परिग्रहत्याग अणुव्रतका धारी सबसे प्रथम तो लोभ कषायको घटाता है, लोभकषायको घटाये बिना परिग्रहको त्यागना केवल ढोंग है, क्यों कि परिग्रहका मूल लोभ है। लोभसे असन्तोष बढ़ता है, और असन्तोष बढ़कर तृष्णाका रूप ले लेता है। अतः पहले वह लोभको मारता है । छोभके कम होजानेसे सन्तोष पैदा होता है। बस, सन्तोष रूपी अमृतको पीकर वह यह समझने लगता है कि जितना भी परिग्रह है सब विनश्वर है, यह सदा ठहरने वाला नहीं है, और इस ज्ञानके होते ही परस्त्री तथा परधनकी वांछारूपी तृष्णा शान्त हो जाती है। तृष्णा शान्त होजानेपर वह यह विचार करता है कि उसे अपने और अपने कुटुम्बके लिये किस किस परिग्रहकी कितनी कितनी आवश्यकता है। यह विचारकर वह आवश्यक मकान, दुकान, जमीन, जायदाद, गाय, बैल, नोकर चाकर, सोना चांदी आदि परिग्रहकी एक मर्यादा बाँध लेता है । कहा भी है- 'धन धान्य आदि परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करना परिग्रह परिमाण व्रत है। इसका दूसरा नाम इच्छा परिमाण भी हैं। इस व्रतके भी पाँच अतिचार छोड़ देने चाहिये - क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम, हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम, धनधान्यप्रमाणातिक्रम, दासीदास - प्रमाणातिक्रम और कुप्यप्रमाणातिक्रम । जिसमें अनाज पैदा होता है उसे क्षेत्र (खेत ) कहते हैं । घर, हवेली वगैरहको वास्तु कहते हैं। चांदी ताम्बे वगैरह के बनाये हुए सिक्कोंको, जिनसे देवलेन होता है, हिरण्य कहते हैं । सुवर्ण (सोना) तो प्रसिद्ध ही है। गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, ऊँट वगैरहको धन कहते है । धान्य अनाजको कहते हैं । धान्य अट्ठारह प्रकारका होता है-गेहूं, धान, जौं, सरसों, उड़द, मूंग, श्यामाक, चावल, कंगनी, तिल, कोदो, मसूर, चना, कुल्या, अतसी, अरहर, समाई, राजमाष और नाल। दासी दाससे मतलव नौकर नौकरानीसे है। सूती तथा सिल्कके वस्त्र गिरिता मुगति विवरसुरं (१) । २ परमाणं । ४ म धारण ५ म सग अणुब्वयें । ६ ब रवि णुम्वाणि पंचादि ॥ जह इत्यादि • Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३४०]. १२. धर्मानुप्रेक्षा अपवरकादिवास्नुद्विपदचतुष्पदशयनासनवनभाण्डादीनां बादशगान परिमाणं भयादा संख्यां करोति विदधाति ।* कृत्वा । पूर्व तेषां संगानाम् उपयोम ज्ञात्वा कार्यकारित्व परिज्ञाय परिप्रहाणां संख्या करोति यः स पचमाणुव्रतधारी स्यात् ।' तथा चोकं च धनधान्याविप्रन्य दिनाम ततोऽस्मिता पनि स्थानमाणनामापित इति। तथा पञ्चातिचारान् वर्जयति पञ्चमाणुवतधारी । क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुम्यप्रमाणातिकमाः । क्षेत्र धान्योत्पतिस्थानम्, वास्तु गृहहट्टापवरादिकम् । 91 हिरण्यं रुप्यताम्रादिघटितद्रम्मव्यवहारप्रवर्तनम् , सुवर्ण कनकम् ।। धन मोमहिषीगजाजिवडवोष्ट्राजादिकम् , धान्य बोधादि अष्टादशभेदमुसम्यम् । उक्त च । “गोधूम , शालि १ यव ३ सय * माष ५ मुद्राः, श्यामाक ७ का ८ तिल ९ कोद्रय १० राजमाषाः ११। कीनाश १२ नाल १३ मथ वैणन १४ मारकी च १५, सिंबा १६ कुलत्थ १७ चणकादिसुत्रीजधान्यम् १८ ॥"३ । दासी चेटी दासः चेटः। ४ । फुप्य झोपकोशेयककासबन्दनादिकम् । ५. चत्वारि दे दे, मिलित्वा पञ्चमं केवल ज्ञातव्यम् । तेषां क्षेत्रादीनां पश्चाना प्रमाणानि, तेषा प्रमाणानाम् अतिक्रमाः अतिरेकाः अतीवलोभवशात् प्रमाणातेलचनानि । एते पनातिबाराः परिग्रहपरिमाणवतस्य वेदितव्याः । अन्यश्च तदुक्तं च । "अतिघाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिप्रहस्य च विक्षेपाः पर लक्ष्यन्ते ।।" इति। अत्र दृष्टान्तकथाः जयकुमारदमचनवनीतपिलाकश्रेष्ठ्यादीनां शातव्याः । तथा जोक्तं च "मातो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । नीली जयश्व संप्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ॥ धनश्रीसत्यघोषौ च तापसारक्षकावपि । उपाख्ये वगैरहको कुप्य कहते हैं । इनमेंसे शुरुके दो दो को लेकर चार तथा शेष एक लेनेसे पांच होते हैं । अत्यन्त लोभके आवेशमें आकर इनके प्रमाणको बढ़ा लेनेसे परिग्रह परिमाण वतके पाँच अतिचार होते हैं । आचार्य समन्तभद्ने रझकरंड श्रावकाचारमें परिग्रह परिमाण व्रतके पांच अतिचार दूसरे बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं-अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोभ और अतिभारवाहन | जितनी दूरतक बैल वगैरह सुखपूर्वक जा सकते हैं, लोभमें आकर उससे भी अधिक दूर तक उन्हें जोतना अतिवाहन है । यह अनाज बगैरह आगे जाकर बहुत लाभ देगा इस लोभमें आकर बहुत अधिक संग्रह करना अतिसंग्रह नामका अतिचार है । प्रभूतलाभके साथ माल्ट वेच देने पर भी यदि उसके खरीदारको और भी अधिक लाभ हो जाये तो खूब खेद करना अतिलोभ नामका अतिचार है। दूसरों की सम्पत्तिको देखकर आश्चर्य करना-आंखें फाड़ देना, विस्मय नामका अतिचार है । लोभमें आकर अधिक भार लाद देना अतिभार वाहन नामका अतिचार है । इस व्रतमें जयकुमार बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। उनकी कथा इस प्रकार है-हस्तिनागपुरमें राजा सोमप्रभ राज्य करता था। उसके पुत्रका नाम जयकुमार या। जयकुमार परिग्रह परिमाण व्रतका धारी था, और अपनी पत्नी सुलोचनामें ही अनुरक्त रहता था । एक बार जयकुमार और सुलोचना कैलास पर्वतपर भरतचक्रवर्तीक द्वारा स्थापित चौवीस जिनालयोंकी बन्दना करनेके लिये गये । उधर एक दिन खर्गमें सौधर्म इन्द्रने जयकुमारके परिग्रह परिमाण अतकी प्रशंसा की । उसे सुनकर रतिप्रभ नामका देव जयकुमारकी परीक्षा लेने आया । उसने स्त्रीका रूप बनाया और अन्य चार स्त्रियों के साथ जयकुमारके समीप जाकर कहा-सुलोचनाके स्वयम्वरके समय जिसने तुम्हारे साथ संग्राम किया था उस विद्याधरोंके स्वामी नमिकी रानी बहुत सुन्दर और नवयुवती है । वह तुम्हें चाहती है । यदि उसका राज्य और जीवन चाहते हो तो उसे स्वीकार करो । यह सुनकर जयकुमार बोला-'सुन्दरि, मैं परिग्रहपरिमाणका प्रती हूँ। परवस्तु मेरे लिये तुच्छ है । अतः मैं राज्य और स्त्री स्वीकार नहीं कर सकता' । इसके पश्चात् उस देवने अपनी वात स्वीकार करानेके लिये जयकुमार पर बहुत उपनर्ग किया। किन्तु यह अपने तसे विचलित Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · २४८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३४१ यास्तथा श्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ॥" ३३९-४० ॥ इति स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षाय पञ्चाणुत्रताधिकारः समाप्तः ॥ अथ पचाणुत्रतानि व्याख्याय गुगवतानि व्याचक्षासुः प्रथमगुणवतं गाथाद्वयेन प्रथयते जह सेह-पास संगमाणं हवेइ जीवस्त । सव्य-दिसाणे पमाणं तह लोहं णासए' णियमा ॥ ३४१ || जं परिमाणं कीरदि दिसाण सम्राण सुप्पसिद्धाणं । उवओगं जाणित्ता गुणधदं जाण तं पढमं ॥ ३४२ ॥ [ छाया-यथा लोभनाशनार्थ संगप्रमार्ग भवति जीवसर । सर्वदिशानां प्रमार्ग तथा लोभं नाशयति नियमात् ॥ यत् परिमाणं क्रियते दिशानां सर्वासां सुप्रसिद्धानाम् उपयोगं ज्ञात्वा गुणवतं जानीहि तत् प्रथमम् ॥ ] तत् प्रथमम् आद्यं दिग्वताख्यं गुणवतं व्रतानां गुणकारकं जानीहि त्वं विद्धि भो भव्य । तत् किम् । यत्क्रियते विधीयते । किं तत् । सुप्रसिद्धानां जगद्विख्या तानो दशदिशानाम् आशानां पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर दिशानां चतमृणाम् अभिनेऋत्यषायत्री शान विदिशानां चतसृणाम् ऊर्ध्वदिशः धोदिशति दशदिशां परिमाणं मर्यादा योजनाद्यैः संख्या, अतः परम् अहं न गच्छामि इति नियमेन मर्यादा क्रियते । अथवा दशसु दिक्षु हिमाचल विन्ध्यपर्वतादिकम् अभिज्ञानपूर्वक मर्यादां कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतित्रतमुच्यते । किं कृत्वा । उपयोग कार्यकारित्वं ज्ञात्वा परिज्ञाय । जह यथा येनैव प्रकारे जीवस्यात्मनः लोभनाशनार्थं तृष्णा विनाशाय नहीं हुआ । तब देवने अपनी मायाको समेटकर जयकुमारकी प्रशंसा की और आदर करके स्वर्गको वला गया । इन पांच अणुव्रतोंसे उल्टे पांच पापोंमें अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहमें क्रमसे धनश्री, सस्यघोष, तापस, कोतवाल और श्मश्रुनवनीत प्रसिद्ध हुए हैं । इस प्रकार पांच अणुव्रतों का व्याख्यान समाप्त हुआ ।। ३३९-३४० || पांच अणुव्रतोंका व्याख्यान करके आगे गुणव्रतों का व्याख्यान करते हैं । प्रथमही दो गाथाओंसे प्रथम गुणवतको कहते हैं । अर्थ-जैसे लोभका नाश करनेके लिये जीव परिग्रहका परिमाण करता है वैसे ही समस्त दिशाओं का परिमाण भी नियमसे लोभका नाश करता है | अतः अपनी आवश्यकताको समझकर सुप्रसिद्ध सब दिशाओंका जो परिमाण किया जाता है वह पहला गुणवत है ॥ भावार्थ- पूरब पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में तथा आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान नामक विदिशाओंमें और नीचे व ऊपर इन दस दिशाओं में हिमाचल, विन्ध्य आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानोंकी अथवा योजनोंकी मर्यादा बांधकर 'इनसे बाहर में नहीं जाऊंगा' ऐसा नियस लेने का नाम दिग्बिरति वत है । किन्तु दिशाओंकी मर्यादा करते समय यह देख लेना चाहिये कि मुझे कहाँ तक जाना बहुत आवश्यक है, तथा इतनेमें मेरा काम चल जावेगा । विना आवश्यकता इतनी लम्बी मर्यादा बांध लेना जो कभी उपयोग में न आये, अनुचित है। अतः उपयोगको जानकर ही मर्यादा करनी चाहिये । जैसे परिग्रहका परिमाण करनेसे लोभ घटता है वैसे ही दिशाओंकी मर्यादा करलेनेसे भी लोभ घटता है, क्योंकि मर्यादासे बाहर के क्षेत्रमें प्रभूत लाभ होनेपर भी मन उधर नहीं जाता। इसके सिवाय दिग्रितिवत लेनेसे, मर्यादासे बाहर रहनेवाले स्थावर और जंगम प्राणियों की सर्वथा हिंसा न करनेके कारण गृहस्थ महात्रतीके तुल्य होजाता है | आचार्य वसुनन्दिने भी कहा है- 'पूरव, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशामें योजना प्रमाण करके उससे बाहर जानेका स्याग करना प्रथम गुणत्रत है।' आचार्य समन्तभद्रने कहा है- “मृत्युपर्यन्त सूक्ष्मपापकी निवृत्तिके लिये दिशाओंकी मर्यादा करके 'इसके बाहिर मैं नहीं जाऊंगा' इस प्रकारका संकल्प करना दिग्नत है ।” १ म सग दिसि । २ वासये । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३४३ ] . १२. धर्मानुप्रेक्षा २४९ । छेदनार्थं संगप्रमाणं परिग्रहृप्रमाणं भवेत् जायेत, तह तथा नियमात निश्वयात् सर्वासु दिक्षु दशसु दिशास प्रमाणं मर्यादासंख्यां लोभं तृष्णां नाशयेत् । तेन च दिग्विरतिमतेन बहिः स्थितस्थावरजङ्गमप्राणिसर्वथाविराधनाभावात् गृहस्थस्यापि महाव्रतमायाति । तस्माद्बहिः क्षेत्रे उदिम्बाह्य प्रदेशे धनादिलामे सलपि मनोव्यापारनिषेधात् लोभनिषेधश्वागारिणो भवति । तथा वसुनन्दिना चोक्तम् "प्रन्बुतरदक्षिणपच्छिमासु काकण जोयणपमार्थं । परशे गमणियन्ती दिसि विदिति गुणन्वर्द पकर्म ॥" तथा समन्तभद्रेण "दिग्वलयं परिगणितं कृलातों बहिनं यास्यामि । इात संकल्प दिग्वतमा मृत्यजुसचिनिरृत्यै ॥ तथातिचाराः पश्त वर्जनीयाः । ते के इति चेदुच्यते । ऊर्जास्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रऋद्धि स्मृत्यन्तराधानानि । वृक्षपर्वतारोहणम् ऊर्ध्वव्यतिक्रमः ऊर्ध्वदिशः अतिलंघनम् अतिचारः । १ । वापीकूपभूमिगृहाद्यवतरणम् अधोम्यतिक्रमः अधोदिशः अतिलंघनम् अतिचारः । २ । सुरङ्गादिप्रवेशस्तिर्यग्व्यतिक्रमः तिर्यदिवाः अविलंघनम् अतिचारः । ३३ व्यासंगमोप्रमादादिवशेन लोभावेशात् योजनादिपरिच्छिदिवसंख्यामा अधिकांक्षण क्षेत्रवृद्धिरुच्यते । यथा मान्यालेटावस्थितेन केनचित् श्रावण क्षेत्रपरिमार्ण यत धारापुरीलंघनं मया न कर्तव्यम् इति पश्चात् उज्जयिन्याम् अनेन भाण्डेन मद्दान् लाभो भवतीति तत्र गमनाकांक्षा गमने च क्षेत्रवृद्धिः । दक्षिणापथागतस्य धाराया उज्जयिनी पंचविंशतिगव्यूतिभिः किंचिन्यूनाधिकाभिः परतो वर्तते । ४ । स्मृतेरन्तरं विच्छित्तिः विस्मरणं स्मृत्यन्तरं तस्य आधानं विधानं स्मृत्यन्तराधानम् अननुस्मरणं योजनादिककृता वधेत्रिंस्मरणमित्यर्थः । ५ । तथा समन्तभवैः प्रोतं च । ऊधस्तात तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरणं दिग्बिरसेरतिचाराः यस मन्यन्ते ॥ इति ॥ ३४१-३४२ ॥ अथ द्वितीयमनर्थविरतिगुण गाथापले नाह कजं किं पिण साहदि णिश्रं पात्रं करेदि जो अत्थो । सो खलु दि' अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो || ३४३ || [ छाया - कार्य किम् अपि न साधयति नित्यं पापं करोति यः अर्थः । स खलु भवति अनर्थः पञ्चप्रकारः अपि स विविधः ॥ ] अनर्थदण्डायं व्रतं व्याचक्षाणः अनर्थशब्दस्य अर्थ तद्भेदाक्ष निगते । खलु इति निधितम् । असो अर्थः इस तभी पांच अतिचार छोड़ने चाहिये। वे इस प्रकार है- ऊ अतिक्रम, अधोऽतिक्रम, तिर्यग्व्यतिकम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान | वृक्ष पर्वत वगैरह पर चढ़कर ऊर्ध्व दिशाकी मर्यादाका उल्लंघन करना ऊर्ध्वतिकम अतिचार है। बावड़ी, कुआ, तलघरा बगैरह में उतरकर अधो दिशाकी मर्यादाका उल्लंघन करना अधोऽतिक्रम अतिचार है। सुरंग वगैरह में प्रवेश करके तिर्यदिशाका उन करना तिर्यगतिक्रम अतिचार है। दिशाका यह उल्लंघन प्रमाद, अज्ञान अथवा अन्य तरफ ध्यान होनेसे होता है। यदि जान बूझकर उल्लंघन किया जायेगा तो व्रतभंग हो जायेगा । लोभमें आकर दिशाओंकी मर्यादाको बढ़ा लेने का भाव होना अथवा बढालेना क्षेत्रवृद्धि नामका अतिचार है । जैसे, मान्यखेट नगरके किसी श्रावकने क्षेत्रका परिमाण किया कि मैं धारानगरीसे आगे नहीं जाऊंगा। पीछे उसे मालूम हुआ कि उज्जयनीमें लेजाकर अमुक चीज बेचनेसे महान् लाभ होता है | अतः उज्जयनी जानेकी इच्छा होना और उज्जयनी चले जाना क्षेत्रवृद्धि नामका अतिचार है । क्योंकि मान्यखेट दक्षिणापथमें है, और दक्षिणापथसे आनेवालेके लिये धाराकी अपेक्षा उज्जयनी पचीस कोसके लगभग अधिक दूर है । अतः ऐसा करना सदोष है । की हुई मर्यादाको भूखजाना स्मृत्यन्तराधान नांमका अतिचार है । समन्तभदखामीने मी कहा है"ऊर्ध्वव्यतिपात, अधोव्यतिपात, तिर्यग्व्यतिपात, क्षेत्रवृद्धि और मर्यादाको भूल जाना, ये पांच दिबिरति व्रतके अतिचार हैं ॥ ३४१-३४२ ॥ आगे छः गाथाओंसे अनर्थदण्डविरति नामक १. लस गये। कार्तिके० ३२ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ग्यामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३४४अनर्थः निरर्थकः, न विद्यते अधः प्रयोजन यन्त्र स अनधः अनर्थकिथाकार यावद तथानक पर्यटनविषयो सेवनम् । अमर्पदण्डः स कः । यः अर्थः किमपि कार्यम् इटानिष्टधनधान्यान्वनाशादिक न साधयति न निर्मापशनि, पुनः यः अर्थः शनामिविषप्रमुखः नित्यं सदा पापं दुरितं करोति स अनर्थः पञ्चप्रकार: पक्षभेदः पञ्चविधः । अपि पुनः रा पत्रकारः विविधः विविधप्रकार अनेऋविधः, एकस्मिन्नेकस्मिानर्थदण्डे बहवः अनर्थाः सन्तीत्यभिप्रायः । अनर्थदण्डः पञ्चप्रकारः। अपथ्यान १ पापोपदेश २ प्रमादबरित ३ हिंसाप्रदान ४ दुःश्रुति ५ भदाम ॥ ३४३॥ तत्रापघ्यानलक्षणं कथ्यते पर-दोसाण वि गहण पर-लच्छीणं समीणं जं च । परइत्थी-अवलोओ' पर-कलहालोयणं पढमं ॥ ३४४ ॥ [छाया-परदोषाणाम् अपि प्रदणे परलक्ष्मीना समीद यत. च। परस्पतालोकः परकलहालोकन प्रथमम् ॥] पञ्चप्रकारेष्वन पैदण्ठेषु प्रथमम् अनर्थदाई प्रथयते । तं प्रश्वमम् अपप्यानाम्यम् अनदण्ड जानीहि । तं कम् । यञ्च परदोषाणां ग्रहण परेषाम् अन्येषां पुंस दोषाः अविनयादिलक्षणाः तेषां प्रणम् अङ्गीकारः खीकारः परजनानां दोपवीकारः, उपलक्षणत्वात् स्वकीयगुणप्रकाशनं च। च पुनः परलक्ष्मीना परेषां लक्ष्मीनां गजवाजिस्थस्वर्णरत्नमणिमाणिक्यवस्त्राभरणादीनां संपदानां समीइन वाष्ठा ईहाभिलाषः परधनापहरणेच्छा च, परस्त्रीणाम् आकः परगुवतीनां जघनस्तनवदनादिक राममुख्यावलोकन तद्वाछा च, परकलहालोकन परैः अन्यैः कृतः कलहः झाकटकः तस्यावलोकनं दर्शन च वाम्छा च, परप्राणिनां जयपराजयहननबन्धनकांद्यवयवच्छेदनादिकं कथं भवेदिति मनःपरिणामप्रवर्तनम अाध्यामं प्रथम भवति । १ ॥३४४ ॥ अथ पापोपदेशात्य द्वितीयानर्थदण्डं व्याचष्टे दूसरे गुणवतको कहते हैं । अर्थ-जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सघता नहीं, और केवल पाप ही बंधता है उसे अनर्थ कहते हैं। उसके पांच भेद हैं तथा अनेक भेदभी हैं ।। भावार्थ-अनर्थदण्ड विरति प्रतका स्वरूप बतलाते हुये ग्रंथकारने पहले अनर्थ शब्दका अर्थ और उसके भेद बतलाये हैं। जिससे कुछ अर्थ यानी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता यह अनर्थ है । अर्थात् जो इष्ट धनधान्यकी प्राप्ति या अनिष्ट शत्रु वगैरहका नाश आदि किसीभी कार्यको सिद्ध नहीं करता, बल्कि उल्टे पापका संचय करता है वह अनर्थ है । उसके पांच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और दुश्रुति । इस एक एक अनर्थ दण्डके भी अनेक भेद हैं, क्यों कि एक एक अनर्थमें बहुतसे अनर्थ गर्भित होते हैं ।। ३४३ ॥ आगे उनमेसे अपध्यानका लक्षण कहते हैं । अर्थ-परके दोषोंको ग्रहण 'करना, परकी लक्ष्मीको चाहना, पराई स्त्रीको ताकना तथा पराई कलहको देखना प्रथम अनर्थ दण्ड है ।। भावार्थ-पांच अनर्थदण्डोंमेंसे प्रथम अनर्थदण्डका स्वरूप बतलाते हैं। दूसरे मनुष्योंमें जो दुर्गुण हैं उन्हें अपनाना, दूसरेके धनको छीननेके उपाय सोचना, रागभावसे पराई युवतियों के जघन, स्तन, मुख वगैरहकी ओर घूरना और उनसे मिलनेके उपाय सोचना, कोई लड़ता हो या मेटों की, तीतरोंकी, बटेरोंकी लड़ाई होती हो तो उसमें आनन्द लेना, ये सब अपध्यान नामका अनर्थदण्ड है । अपध्यानका मतलब होता है-सोटा विचार करना । अतः अमुककी जय या पराजय कैसे हो, अमुकको किसी तरह फानी हो जाये, अगुकको जेन्टखाना होजाये, अमुकके हाथ पैर आदि काट डाले जाये, इस प्रकार मन में विचारन। अपथ्यान है । ऐसे व्यर्थक विचारोंसे एहमदोसाणं गाणं, (स गहापा, म माह)। रूम स ग जालोलो। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३४६] १२. धर्मानुप्रेक्षा २५१ जो उवएसो दिजदि किसि-पसु-पालण-वणिजा-पमुहेसु । पुरसित्थी'संजोए अणस्थ दंडो हवे रिदिओ ॥ ३४५ ॥ [छाया-यः उपदेशः हीरते ऋषिपशुपालनवाणिज्यप्रमुखेषु । पुरुषत्रीसंयोगे अनर्थदण्डः भवेत् द्वितीयः ॥] स द्वितीयः पोशालामानो दे । राम:। स्पोगनीपते । कृषिपशुशलनवाणिज्यप्रमुखेषु, कृषिः कर्षण भूमिखेटनं पामरादीनाम् अग्रे कथयति भूमिरेदं कृप्यने, उक्कमेवे निःकाश्यते, दनदाह एवं क्रियते, क्षुद्रपादफ्तृणादयः एवमुत्पाट्यन्ते इत्याद्यारम्भः अनेनोपायेन क्रियते इत्यादिवयनम् आरम्भोपदेशः पापोपदेशः । तथा पाना पालने रक्षण गोमहिषीनुरगगजोष्ट्राजसरादीनां रक्षण क्रियते, अनेनोपायेन वृद्धिर्जायते, इत्यादिकथनं पापोपदेशो भवति । वाणिज्ये व्यापारे क्रविक्रयकरणे उपदेशः, अस्मादेशात गोमहिपीचलीवष्टिगजतुरतादीन यदि अन्यत्र देशे विक्रीणीते तदा महान् धनलाभो भवतीति तिर्थगन पिण्यानामकः शपोपदेशो भवति । अस्मात् पूर्वादिदेशात् दासीदासान अल्पमूल्यमुसाभान गृहीला अन्यस्मिन् गुर्जरादिदेशे तद्विभयो यदि क्रियते तदा धनलाभो भवेदिति देशवाणिज्या कथ्यते । अथवा वाणिज्य धनधान्यादिलाक्षामधुशस्त्रसावुझकोटिकादिवस्तुव्यागारः । तानि प्रमुखाने नोंचालनाशकटादिखेटनादीनि तेषु उपदेशः । तथा शाकुनिकाः पक्षिमारकाः वागुरिका मृगवराहादिमारकाः धीवरा मत्स्यमारकाः इत्यादीनां पापकर्मोपजीविनाम् ईशी घातां कथयति । अस्मिन् प्रदेशे वनजलायुपलक्षिते गृगवराहवित्तिरमत्स्यादयो बद्दवः सन्ति इति कथन वधकोपदेशनामामर्थदण्डो भवति । पुगिस्लीम वोए सम्पर्श जरनारीणां संयोग विवाहगेलने मैथुनादिसंयोजने उपदेशः इत्यादिपाशेपदेशनामा अनर्थदण्डोऽने कवियो भवति ॥ ३४५ ।। अथ तृतीयं प्रमादच ख्यमनर्थदण्ट दर्शयति विहलो जो वावारो पुढची-तोयाण अगि-वाऊण'। तह वि वणप्फदि-छेदो' अणत्थ-दंडो हवे तिदिओ ।। १४६॥ [छाया-विफलः यः व्यापार: पृथ्वीतोपानाम् अग्मियायूनाम् । तथा अपि वनस्पतिच्छेदः अनर्थदण्डः भवेत् तृतीयः॥ स तृतीयः प्रमादचर्याख्यः अनर्थदण्डो भवेत् । स कः । यः पृथिवीतोयानां भूमिजलाना व्यापारः विफल: कार्य विना लाभ तो कुछ नहीं होता, उल्टे पापका बन्ध होता है ।।३४४॥ आगे, पापोपदेश नामके दूसरे अनर्थ दण्डको कहते हैं । अर्थ-कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरहका तथा स्त्रीपुरुषके समागमका जो उपदेश दिया जाता है यह दूसरा अनर्थदण्ड है || भावार्थ-खेतिहरोंके सामने भूमि ऐसी जोसी जाती है, पानी ऐसे निकला जाता है, जंगल इसतरह जलाया जाता है, छोटे छोटे वृक्ष छाल वगैरह ऐसे उखाड़े जाते हैं इस प्रकारके आरम्भका उपदेश देना पापोपदेश है । तया गाय, भैंस, हाथी, घोडा, ऊंट वगैरह ऐसे पाले जाते हैं, ऐसा करनेसे उनकी वृद्धि होती है, ऐसा कहना पापोपदेश है, अमुक देशसे गाय, भैंस, बैल, उंट, हाथी, घोड़ा वगैरहको लेजाकर यदि अमुक देशमें बेचा जाये तो बडा लाभ होता है इस प्रकारका उपदेश देना तियावाणिज्य नामका पापोपदेश है। अमुक देशमें दासी दास सस्ते हैं उन्हें वहाँसे लेजाकर यदि गुजरात आदिमें बेचा जाये तो बहुत लाभ होता है। यह भी पापोपदेश है । अथवा धन, धान्य, लाख, शहद, शस्त्र, आदि वस्तुओंके व्यापारका उपदेश देना तथा पक्षीमार, शिकारी, धीवर वगैरहसे कहना कि अमुक प्रदेशमें हिरन, सुअर, तीतर या मछलिया बहुत है यह वधकोपदेश नामका अन्र्थदण्ड है । स्त्री-पुरुषोंको मैथुन आदिका उपदेश देना मी पापोपदेश है । इस तरह पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड अनेक प्रकारका है ॥ ३४५ ॥ आगे तीसरे प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्डको कहते हैं । अर्थ-पृथ्वी, जल, अग्नि और पवनके व्यापारने नियोजन प्रवृत्ति परना, तथा निष्प्रयोजन वनस्पतिको काटना तीसरा अनर्थदण्ड है।। भावार्थ-बिना प्रयोजनके १स पुरसथी। २ ल म सग अग्गिपणाण। ३ल. सगळेज (भी)। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३४७ व्यापारः, प्रयोजनं विना पृथ्व्याः खनन भूमिकुट्टन पाषाणचूर्णनम् इष्टिकानिष्पादनम् जलानां व्यापार कार्य बिना जलनिःच जागी पसः परः। तथाभिपवनामाम् अमीनो व्यापारः अमीना विध्यापदवप्रदानम् अन्येषां रन्धनादिनिमित्तमभिपाद्यर्पणम्, वायूनां व्यापारः व्यञ्जनवस्त्रादिना निशेषणम् । अपि पुनः, वनस्पतीनां छेदनं तृणवृक्षवाडी पुष्पफल कन्दमूलारिखापत्रादीनां छेदः विनाशनं निःफलः । इति प्रमादचर्यानर्थदण्डः । ३ ॥ २४६ ॥ अथ चतुर्थ हिंसादानाख्यमनर्थदण्डं समाचष्टे मजार-पहुदि- धरणं आउई-लोहादि विकणं जं च । लक्खां -खलादि-गणं अणस्य दण्डो हवे तुरिओ ॥ २४७ ॥ 3 [ छाया मार्जारप्रभृतिधरणम् आयुधलोहादिविक्रयः यः च । लाक्षाखलादिग्रहणम् अनर्थदण्डः भवेत् तुरीयः ॥ ] स चतुर्थः हिंसादानाख्यः अनर्थदण्डो भवेत् । स कः । यत् मार्जारप्रभृतिधरणे, मार्जारः आबुभुक् प्रभृतिशब्दात् पर प्राणिपातहेतुनां मार्जारकुक्कुर कुकुटशुकपारापतश्येनस पव्याघ्रनकुलादीनां हिंसकजीवानां धरण रक्षणं पालन पोषणं च । च पुनः ब्रायुधस्त्रेहादिविक्रयः, आयुधानां खनकुन्तच्छुरिका धनुर्वाणमुद्ररदण्ड यष्टितोमर शक्तित्रिशूलपरशुप्रमुखान । शस्त्राणां, लोहानां कुठारदात्रखनित्रं खलाशाकखण्डन ककचलोहगोलकादीनां च विक्रयः क्रयविक्रयः व्यापारेण महणं दानं न । लाक्षाखलादिग्रहणं, लाक्षा जतुका स्तलः पिण्याकः कर्कोटिकोषा वा तयोर्लाक्षाखल्योः आदिशब्दात् महिफेनवत्सनागविधपाशजालकशाधानुकीपुष्पसौराष्ट्रिका मधुपुष्पवित्थु शाकमधुप्रमुखानां ग्रहणम् आदानम् अर्पण च हिंसादाननामानदण्डश्चतुर्थो भवति ॥ ३४७ ॥ अथ पञ्चमं दुःश्रुत्याख्यमनर्थदण्डं दीपयति जं सवर्ण सत्थाणं भंडण - खसियरण - काम - सत्थाणं । पर-दोसाणं च तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो' ॥ ३४८ ॥ I [ छाया यत् श्रवण शास्त्राणां भण्डणवशीकरणकाम शास्त्राणाम्। परदोषाणां च तथा अनर्थदण्डः भवेत् चरमः ॥ ] स वरमः पञ्चमः दुःश्रुत्याख्यः अनर्थदण्डो भवेत् । स कः । यत् शास्त्राणां कुनयप्रतिपादकानां भारतभागवत मार्कण्ड पृथ्वी खोदना, भूमि कूटना, पत्थर तोडना, ईंटे बनाना, पानी बिखराना, नल खुला छोड देना, भाग जलाना, जंगल जलाना, दूसरोंको आग देना, हवा करना, तृण वृक्ष लता फूल फल पते कन्दमूल टहनी वगैरहको व्यर्थ छेदना भेदना वगैरह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है। ऐसे कार्मोसे वस्तुओंका व्यर्थ दुरुपयोग होता है, और लाभ कुछ नहीं होता । जरूरत से ज्यादा खाकर बीमार होना, अनको खराब करना, झूठन छोडना आदि भी प्रमादाचरितमें ही संमिलित है ॥ २४६ ॥ आगे . चौथे हिंसादान नामक अनर्थदण्डको कहते है । अर्थ-बिलाव आदि हिंसक जन्तुओंको पालना, लोहे तथा अख शखका देना लेना और लाख विष वगैरहका देना लेना चौथा अनर्थदण्ड है । भावार्थबिल्ली, कुत्ता, मुर्गा, बाज, सांप, व्याघ्र नेवला आदि जो जन्तु दूसरोंके घातक हैं, उनका पालन पोषण करना, जिनसे दूसरोंका घात किया जा सकता है अथवा दूसरोंको बांधा जा सकता है ऐसे तलवार, भाला, छुरी, धनुषबाण, लाठी, त्रिसूल, फासा आदि अस्त्र शस्त्रोंका तथा फावड़ा, कुल्हाड़ी, सांकल, दराती, आरा आदि लोहे के उपकरणोंका देन लेन करना- दूसरों को देना और दूसरोंसे लेना, लाखका व्यापार करना, अफीम, गांजा, चरस, धतूरा, सांखिया, आदि जहरीली और नशीली वस्तुओंको लेना देना, यह हिंसा दान ( हिंसा के साधनोंका देन लेन करना) नामका अनर्थदण्ड है || ३४७ ॥ आगे पांचवे दुक्षुति नामक अनर्थदण्डको कहते हैं। अर्थ - जिन शास्त्रों या पुस्तकोंमें गन्दे, मजाख, १ क स ग मांख्य । २ लक्ख ३ चरमो | Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३४२] १२. धर्मानुप्रेक्षा विष्णुपुराणलि पुराणायणयजुःसामऋग्वेदस्मृतीनां श्रवणम् आवर्णनम् । च पुनः भण्डक्रियाप्रतिपादकसा मासा कुशलपशीकरणशानं नृपसचिवकोपालप्रमुञ्चनरनारीव्याघ्रगजादिवशीकरणशास्त्र मन्त्रयकोषभिमम्पादिप्रतिपादकमात्र स्तम्भनमोहनशास्त्र कामशास्त्र कामोत्पत्तिप्रतिपादकरागशाझं फुकोकमामादिशा र तेषां भण्डनवीकरणकामशाहाबा श्रवणं व्याख्यानं कथनं च। तथा परदोषाणो परेषा दोषाणाम् अपवादाना श्रवण कयनं च, राजनीबोनम्यादिपरविंशतिविधान श्रषणं प्रतिपादन च, तथा रणप्रतिपादकम् इन्द्रजाला दिशाने रायते इति अतिनामानयंदण्डः पञ्चमः।५ ॥३४८॥ अधानर्थदण्डब्याख्यामुपसंहरणाह एवं पंच-पयार अणत्थ-दण्डं दुहावई णिवं । जो परिहरेदि' णाणी गुणवदी' सो हवे विदिओ ॥ ३४९॥ [अया-एवं पश्चप्रकारम् अनर्थदण्दै दुःसावई नित्यम् । यः परिहरति ज्ञानी गुणवती स भवेत् वितीयः ॥ पुमान् द्वितीयः अनपदण्डपरित्यागी गुणप्रती, पचानामगावतानां गुणस्य कारकत्वादनुवर्धनत्वात् पुणतानि विद्यन्ते यह सगुणवती, भवेत् स्यात् । कथंभूतः सन् । शनी आत्मशरीरमेदशानवान् । सकः । यः परिहरति स्यजति । । अनर्थदण्डम् । कियत्प्रकारम् । एवं पूर्वोकप्रकारेण अपम्पानपापोपदेशप्रमादचर्याहिंसादानअतिपयप्रकार फरमे परिहरति । कीदृक्षम् । नित्यं सदा निरन्तर दुःखावहम् अनेकसेसारःखोत्पादकम् । तमानर्थदण्डस्य पिरसेः स्वातिचारान् वशीकरण, काम भोग वगैरहका वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषोंकी चर्चावार्ता सुनना पांचवा अनर्थदण्ड है। भावार्थ-दुश्रुतिका मतलब है बुरी बातोंको सुनना। अतः जिन शाडोंमें मिण्याबातोंकी चर्चा हो, अश्लीलता हो, कामभोगका वर्णन हो, श्री-पुरुषोंके नाचित्र हों, जिनके सुनने और देखनेसे मनमें विकार पैदा हो, कुरुचि उत्पन्न हो, विषयकषायकी पुष्टि होती हो, ऐसे तशाब, मंत्रशाख, स्तम्भन शाख, मोइनशाख, कामशाल आदिको सुनना, सुनाना, वांचना वगैरह, तथा राजकषा, सीकथा, चोरकथा, भोजनकया आदि खोटी कथाओंको सुनना, सुनाना, दुश्रुति नामक पाचवा बनर्थदण्ड है। आजकल अखबारों में तरह तरहकी दवाओंके, कोकशाओंके, सी पुरुषके नम्र चित्रों विज्ञापन निकलते हैं और अनजान युक्क उन्हें पढ़कर चरित्रभ्रष्ट होते हैं। सिनेमाओंमें गन्दे गन्दे चित्र दिखलाये जाते और गन्दे गाने सुनाये जाते हैं जिनसे बालक बालिकाएँ और युवक युवतियां पथभ्रष्ट होते जाते हैं । अतः आजीविकाके लिये ऐसे साधनोंको अपनाना भी गृहस्पके योग्य नहीं है। घनसंचयके लिये भी योग्य साधन ही ठीक है। समाजको भ्रष्टकरके पैसा कमाना वाक्कका कर्तम्ब नहीं है ।।३४८॥ आगे, अनर्थदण्डके कथनका उपसंहार करते हैं। अर्थ-इसप्रकार सदा दुःखदायी पांच प्रकारके अनर्थदण्डोंको जो ज्ञानी श्रावक छोड़ देता है यह दूसरे गुणवतका धारी होता है। भावार्थ-जिनके पालनसे पांचों अणुव्रतोंमें गुणोंकी वृद्धि हो उन्हें गुणवत कहते हैं। दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति आदि गुणवतोंके पालनसे अहिंसा आदि बत पुष्ट और निर्मल होते हैं, इसीसे इन्हें गुणात कहते हैं । ऊपर जो पांच अनर्यदण्ड बतलाये है वे सभी दुःखदायी हैं, व्यर्थ पापसंचयके कारण हैं, बुरी आदतें डालनेमें सहायक हैं । अतः जो शानी पुरुष उनका खाग कर देता है वह दूसरे गुणवतका पालन करता है । इस व्रतके भी पांच अतिचार छोड़ने चाहिये जो इस प्रकार हैकन्दर्प, कौत्कुष्य, मौखर्य, अतिप्रसाधन और असमीक्षिताधिकरण । रामको उत्कटताके कारण हास्य 10मसग परिहरे। २ग गुणवई, सगुगन्वदं च गुणस्पदं दोदि । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३५०वर्जयति । तानाहाकन्दप १ कौस्कुच्य २ मौखर्य ३ मतिप्रसाधनं ४ पञ्च । असमीक्षिताधिकरण ५ व्यतीतयोऽनर्थदण्डकटियरतेः ॥ ३४९ ।। अथ भोगोपभोगपरिमाणाख्यं तृतीय गुणमत विवृणोति जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंबोल-बत्थमादीर्ण । जं परिमाणं कीरदि भोजेवभोयं वयं तस्स ॥ ३५० ॥ [छाया-ज्ञात्वा संपतीः भोजनताम्बूलपलादीनाम् । यत् परिमाणे क्रियते भोमोपमोग व्रतं तस्य ॥ तस्य पंसः भोगोपभोगपरिमाणाख्यं तृतीयं प्रतं भवेत, यः संपत्तीः गोगजतुरंगमहिषीधनधान्यसुवर्णरूप्यादिसंपदाः लक्ष्मीः ज्ञात्वा परिशाय सवित्तानुसारेण स्वशक्त्यनुसारेण च यत् भोजनताम्बूलवत्रादीनां परिमाणं मर्यादा संख्या करोति विदधाति । भोजनम् अशनं खाद्य खाद्य लेहो पानम्, ताम्बूलं नागवाटीदलपूगलवाकपूरैलादिकम् , वसं पट्टकुलादिवत्रम् , आदिशब्दात् शयनभाजनवाहनगृहयुवतिधनधाभ्यगोमहिषीदासदासीप्रमुखानां परिमाणं मर्यादा संख्यां करोति विदधाति । तस्य भोगोपभोगपतं भवेत् 1 अशनपानचन्दनलेपपुष्पताम्बूलादिकं वस्तु सकृत् एकवारं भुज्यते इति भोगः परिगोगो वा, शत्र्यासनवम्हाभरणभाजनभायोदिक वस्तु उपभुज्यते पुनः पुनः वारंवार भुज्यते उपभोगः, तयोभौगोपभोगयोवस्तनोः अतं नियमः भोगोपभोगवत स्यात् ॥ ३५० ॥ अथ विद्यमान वस्तु त्वजम् स्तबनाई इति स्तीति जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुबदे सुरिंदो' वि। जो मण-लड्डु व भक्खदि तस्स वयं अप्प-सिद्धियरं' ॥ ३५१ ॥ [अया-यः परिहरति सन्तं तस्य व्रतं स्तौति सुरेन्द्रः अपि । यः मनोलछुकम् इव भक्षयति तस्य व्रतम् अल्पसिद्धिकरम् ॥ यः पुमान् परिहरति त्यजति । कम् । सन्तं विद्यमानम् अर्थ बस्तु धनधान्ययुवतीपुत्रादिकं तस्य पुंसः वर्त संयमः नियमः स्तूयते प्रशस्यते । कैः । सुरेन्द्र देवस्वामिभिः इन्द्रादिकः । तस्य पुंसः व्रतम् अल्पसिद्धिकर खल्पसंपदा. 4014112... सहित भण्डवचन बोलना कन्दर्प है । हास्य और भण्डवचनके साथ शरीरसे कुचेष्टा भी करना कौत्कुष्य है। धृष्टताको लिये हुए बहुत बकवाद करना मौखर्य है । आवश्यक उपभोग परिभोगसे अधिक इकट्ठा करलेना अति प्रसाधन है । बिना बिचारे काम करना असमीक्ष्याधिकरण नामका अतिचार है । इस प्रकार ये पांच अतिचार अनर्थदण्डमतीको छोड़ने चाहिये ॥३४९| आगे भोगोपभोगपरिमाण नामक तीसरे गुणव्रतका वर्णन करते हैं । अर्थ-जो अपनी सामर्थ्य जानकर भोजन, ताम्बूल, वस्त्र आदिका परिमाण करता है उसके भोगोपभोगपरिमाण नामका गुणवत होता है | भावार्थ जो वस्तु एक बार भोगनेमें पाती है उसे भोग कहते हैं। जैसे भोजन पेय, चन्दनका लेप, छल, पान वगैरह । और जो वस्तु बार बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं। जैसे शय्या, बैठनेका आसन, वस्त्र, आभरण, बरतन,स्त्री वगैरह । अपनी शारीरिक और आर्थिक शक्तिको देखकर भोग और उपभोगका जन्म पर्यन्त के लिये अथवा कुछ समयके लिये नियम कर लेना कि मैं अमुक अमुक वस्तु इतने परिमाणमें इतने समय तक भोगूंगा, यह भोगोपभोगपरिमाण नामका तीसरा गुणव्रत है ।। ३५०॥ आगे, भोगोपभोगपरिमाण वतीकी प्रशंसा करते है । अर्थ-जो पुरुष विद्यमान वस्तुओंको भी छोड़ देता है उसके व्रतकी सुरेन्द्र भी प्रशंसा करते हैं । और जो मनके लघु खाता है उसका व्रत अल्प सिद्धिकारक होता है ।। भावार्थ-जो घरमै भोगोपभोगकी विपुल सामग्री होते हुए भी उसका व्रत लेता है, उसका व्रत अत्यन्त प्रशंसनीय है । किन्तु कसम पत्थमाईणं। २मोउवभोई (1) तं तिदिओ (मतदिय): १ म स ग सुरिदेहि । ४० मणुल्नु,मस मणलडुव, ग मणल?। ५स सिद्धिकरं। ६ गुणदतनिरूपणं सामारयस्त इत्यादि। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा निष्पादकम् । यः पुमान् अविद्यमानं च बुभुक्षति खादति प्रतगति च तस्य खापसिमिकर व्रत स्यात् । किम् । ममोमोदकवत्, यथा मनोमोदकः मुमुक्षाक्षुधादिवारणं न करोति तथा अविद्यमानवस्तुनि त्यागे श्रेयो न भवति । अथवा मनोमोदकभक्षणप्रायम् अविद्यमानं वस्तु प्रतयति । तथा भोगोपभोगातिचारान् त्यजति । तान् कान । 'सचित १ संबन्ध २ सम्मिश्रा३ भिषन । दुःपकाहाराः ५। जलकगादिसचितवस्वाहारः १, सचित्तसंबहमारेण दूषित आहारः संबन्धाहारः २, सचित्तेन संमिलितः सचित्तद्रव्यसूक्ष्मप्राण्यतिमित्रोऽशक्यमेदकरणः आहारः सम्मिश्राहारः ३, अभिषषस्य रात्रिचतुःप्रहरैः किन ओदनो द्रवः इन्द्रियालवधनो माषादिविकारादिः वृष्यः द्राध्यस्याहारः अभिषनाहारः ४, अर्धपकः चीक्षणतया दुष्टः पक्कः दग्धपक्कः दुःपकः तस्य आहारः दुःपकाहार: ५। वृष्यदुःपक्कयोः सेवने सति इन्द्रियमदद्धिः। सचिसोपयोगः शतादिप्रपोदरपीडादिप्रतीकारे अभ्यादिप्रज्वालने महान् असंयमः स्यादिति तत्परिहार एव श्रेयान् ॥ ३१ ॥ इति स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाव्याख्याने गुणवतत्रयव्याख्यान समातम् ।। अथ शिक्षात्रतानि व्याचक्षाण: सामायिकसामनों प्रतिपादयति जो मनुष्य अपने पासमै आवेद्यमान वस्तुका व्रत लेता है, उसका व्रत मनके लाओंकी तरह है । अर्थात् जैसे मनमें लड्डुओंकी कल्पना करलेनेसे भूख नहीं बुझती, वैसेही अनहोती वस्तु के त्यागसे कल्याण नहीं होता । परन्तु अनहोती वस्तुका नियम मी प्रत तो है ही, इसलिये उसका थोडासा फल तो होता ही है। जैसे एक भीलने मुनिराजके कहनेसे कौएका मांस छोड़ दिया था। उसने तो यह जानकर छोड़ा था कि कौएके मांसको खानेका कोई प्रसंग ही नहीं आता। किन्तु एक बार वह बीमार हुआ और वैधने उसे कौएका मांस ही खानेको बतलाया । परन्तु व्रतका ध्यान करके उसने नहीं खाया और मर गया । इस दृढ़ताके कारण उसका जीवन सुधर गया । अतः अनहोती वस्तुका त्याग मी समय थानेपर अपना काम करता ही है, किन्तु विश्वमान वस्तुका माग ही प्रशंसनीय है । अस्तु, भोगोपभोग परिमाण व्रतकेभी पांच अतिचार छोड़ने योग्य हैं-सचित्त आहार, सचित्त सम्बन्धाहार, सचिस सम्मिन्नाझार, अभिषषाहार और दुष्पकाहार । अर्थात् सचित्त (सजीव ) वस्तुको खाना, सचित्तसे सम्बन्धित वस्तुको खाना, सचित्तसे मिली हुई, जिसे अलग कर सकना शक्य न हो, वस्तुको खाना, इन्द्रिय बलकारक पौष्टिक वस्तुओंको खाना, और जली हुई अथवा अधपकी वस्तुको खाना । इसप्रकारका आहार करनेसे इन्द्रियोंमें मदकी वृद्धि होती है, तथा वायुका प्रकोप, उदरमै पीडा आदि रोग हो सकते हैं। उनके होनेसे उनकी चिकित्सा करनेमें असंयम होना अनिवार्य है । अतः भोगोपमोग परिमाण प्रतीको ऐसे आहारसे बचना ही हितकर है। इस प्रकार गुणवतोंका वर्णन समाप्त हुआ । यहाँ एक बात विशेष वक्तव्य है । यहाँ भोगोपभोग परिमाण ब्रतको गुणवतोंमें और देशावकाशिक प्रतको शिक्षाव्रतोंमें गिनाया है, ऐसा ही आचार्य समन्तभद्रने रखकरंद श्रावकाचारमें कहा है । किन्तु तत्त्वार्यसूत्रमें देशात्रकाशिक व्रतको गुणवतोंमें गिनाया है और भोगोपभोग परिमाण व्रतको शिक्षातोंमें गिनाया है। यह आचार्योकी विवक्षाका वैचित्र्य है । इसीसे, गुणवत और शिक्षाबतोंके इस अन्तरको लेकर दो प्रकारकी परम्परायें प्रचलित हैं। एक परम्पराके पुरस्कर्ता तत्त्वार्थसूत्रकार हैं और दूसरीके समन्तभद्राचार्य । किन्तु दोनोंमें कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है, केवल दृष्टिभेद है । जिससे अणुव्रतोंका उपकार हो वह गुणवत है, और जिससे मुनिवतकी शिक्षा मिले वह शिक्षाप्रत है । इस प्रन्यों भोगोपभोग परिमाण ब्रतको अणुव्रतोंका उपकारी समझकर गुणवतोंमें गिनाया है । और तस्वार्मसूत्रमें उससे मुनिव्रतकी शिक्षा मिलती है, इसलिये शिक्षावतोंमें गिनाया है, क्योंकि भौगोपभोगपरिमाण ब्रतमें Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा. ३५२सामाइयस्स करणे खेतं कालं च आसणं विलओ'। मण-ययण-काय-सुद्धी णायबा इंति सत्तेव ॥ ३५२॥ [छाया-सामायिकस्य करणे क्षेनं कालं च आरान दिलयः । मनवननकायशुद्धिः सातव्या भवन्ति सप्तव ॥] समये आत्मनि भर्व सामायिकम् । अथवा सम्यक् एकरकेन अयन गमनं समयः, स्त्रविषयेभ्यो विनित्य कायवाचनःकर्मगामात्मना सह वर्तनान । इय्यार्थेन आत्मन एकत्वममनमित्यर्थः । रागये एवं सामायिक समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । अथवा संशब्दः एकत्वे एकीभावे वसते, अन्यनम् अयः सम् एकवेन एकीभावेन गमनं परिणमनं समयः । समय एवं सामायिक वा, समयः प्रयोजनमस्येति सामायिकम् । देववन्दनाया निःसंक्लेशं सर्वामिमनामिन्तन मामायिकमित्यर्थः । सामायिकस्य करणे कर्तव्ये सति सप्लेव रामप्यो ज्ञातव्या ज्ञेया भवन्ति । ताः काः । क्षेत्र प्रदेशलक्षणा १, काल पूर्वाहमध्याहापराहकाललक्षणा २, आसनं पद्मासनादिलक्षणा ३, बिलयः ध्यान तन्मयतालक्षणा ४, मनोवचनकाय शुञ्जया आर्तरौद्रध्यान रहिसा धर्मध्यानसहिता मनसः शुद्धिः निर्मलतालक्षणा ५, अन्तर्बाह्यजस्पनरहिता वचनस्य शुद्धिः निर्मलता ६, कायस्य शरीरस्य शुद्धिः निर्मलता ७ ॥ ३५२ ॥ अथ ता गाथापचकेन प्रतिपादयति जत्थ ण कलयल-सदो बहु-जण-संघट्टणं ण जत्थथि । जस्थ ण दंसादीया एस पसस्थो हवे देसो ॥ ३५३ ॥ [छाया-यन्न म कलकलशब्दः बहुजनसंघटन न यत्रास्ति । यत्र न देशादिकाः एष प्रशस्तः भवेत् देशः ॥] सामायिकस्य करणे सति एष प्रत्यक्षीभूतः देशः प्रदेशः स्थानकं क्षेत्रम् । एष कः । यत्र प्रदेशे कलकलशब्दः नास्ति, जनानां वाद्यामा पश्वाधीनां च कोलाहलादो न विद्यते। च पुनः, यत्र प्रदेशे थाहुजनसंघटन बहुजनानां संघटन संघातः परस्पर मिलने वा नास्ति, यत्र स्थाने दंशादिकाः देशमशकवृश्चिककीटकमत्कुणचञ्चपुटसर्पव्याघ्रविटपुरुषस्त्रीनपुंसकपशुमसिरक्तपूयचर्मास्थिमलमूत्रमृतककलेवरादयो न विद्यन्ते स एवं प्रदेशः सामायिककरणस्थान प्रशस्पम् ॥ ३५३ ।। अतिचार रूपसे सचित्त आदि भक्षणका त्याग करना होता है ॥ ३५१ ॥ आगे शिक्षातका व्याख्यान करते हुए सामायिक व्रतकी सामग्री बतलाते हैं । अर्थ-सामायिक करनेके लिये क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, ये सात बातें जानने योग्य हैं । भावार्थ-समय नाम आत्माका है । आत्मामें जो होती है उसे सामायिक कहते हैं । अथवा भलेप्रकार एक रूपसे गमन करनेको समय कहते हैं । अर्थात् काय वचन और भनके व्यापारसे निवृत्त होकर आत्माका एक रूपसे गमन करना समय है, और समयको ही यानी आत्माकी एक रूपताको सामायिक कहते है, अथवा आत्माको एक रूप करना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । अथवा देववन्दना करते समय संक्लेश रहित चिससे सब प्राणियोंमें समताभाव रखना सामायिक है । सामायिक करनेके लिये सात बातें जान लेना जरूरी हैं । एक तो जहाँ सामायिक की जाये वह स्थान कैसा होना चाहिये । दूसरे सामायिक किस किस समय करनी चाहिये । तीसरे कैसे बैठना चाहिये । चौथे सामायिकमें तन्मय कैसे हुआ जाता है, पाँचवे मनकी निर्मलता, वचनकी निर्मलता और शरीरकी निर्मलता को भी समान लेना जरूरी है ॥ ३५२ ।। आगे पाँच गाथाओंसे उक्त सामग्रीको बताते हुए प्रथम ही क्षेत्रको कहते है । अर्थ-जहां कलकल शन्द न हो, बहुत लोगोंकी भीड़भाड़ न हो और डांस मच्छर वगैरह न हों यह क्षेत्र सामायिक करनेके योग्य है ।। भावार्थ-जहाँ मनुष्योंका, बाजोंका और पशुओंका कोलाहल न हो, तथा शरीरको कष्ट देनेवाले डांस, मच्छर, बिच्छू, सांप, खटमल, शेर, आदि जन्तु न हो, सारांश यह कि चित्तको क्षोभ पैदा करनेके कारण जहाँ न हो वहाँ सामायिक करनी चाहिये ॥३५३|| १.विन। २म विनत। हमसग सई। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुमेक्षा २५७ पुषण्हे मझण्हे अबरण्हे तिहि वि. णालिया-छको । सामाहिरा कालो रानिया-णिस्सेस-णिहिट्टो ॥ ३५४ ।। छाया-पूर्वा मध्याहे अपराहे त्रिषु अपि नालिकापट्नम् । सामायिकस्य कालः सविनयनिःखेशनिर्दिष्टः ॥] सामायिकस्य से सम्मा आत्मनि अयति एकत्वम् एकीभावं गच्छति समय एवं सामायिकः तस्य सामायिकस्य कालः । कयंभूतः कालः । खेभ्यः धनेभ्यः निष्क्रान्ताः निःस्वाः निम्रन्थास्तेषामीशाः खामिन: गणधरदेवाइयः सविनयेन दर्शनभानचारित्रोपचारलक्षणेन सहिताः सविनयाः तेच ते निःस्खेशाच निर्दिष्टः कथितः विनयसंयक्तगणधरदेवादिभिः कथितः कालः 4 सकियन्मात्रः कालः पूर्वाशे पूर्वाहकाले सूर्योदयात् प्राक् रानः घटिकात्रयम् एवं रात्रिपाश्चात्यभटकात्रयं सुर्योदयादारभ्य च षटिकात्रय पूर्वाहिकस्य सामायिकस्य योग्यकालः षट्पटिकाप्रमाणम् इत्यर्थः । मध्याझे मध्यदिवसे दिवसस्य मध्ये द्वितीय प्रहरस्य पाश्चात्यनाहीत्रयं तृतीय प्रहरस्य चायनासीत्रयं मध्याहसमयस्य योग्यकालः षड्पटिकावधिः । अपरा संभ्यायो चतुर्थप्रहरस्य पाश्चात्यघटीत्रय रात्रिप्रथमप्रहरस्य घटीत्रयं चेति अपराक्षसामायिकस्य योग्यकामः टिकाषट्कम् । तिहि वि विविध प्रत्येकं षट् षट् घटिकाकाल:, अथवा त्रिच्चपि पूर्वाकमध्याहापराहकालेव्यपि नादिकापटे प्रत्येक घटिकाद्वयं स्यात् । कषित घटी चतुष्टयमित्याहुः । एवं प्रतिकमणादी कालः ज्ञातव्यः । तथा चोतं च । "योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तपिरोनतिः । विनयेन यथाजातः कृतिकर्मामलं भजेत् ॥ इति योग्यकाल: कथितः । तथा योध्यमासनम् उदासनं पर्यशासन चेति । अथवा दण्डकस्यादी अन्ले चोपवेशन योम्यासनम् । योम्यं स्थानं प्रदेशः औपशुनपुंसकरहितमेकान्तस्थानम् । चित्तस्याक्षेपस्यानुत्पादक बने वेश्म वा स्थान देवालयादिर्क वा योग्यस्थानम् । योम्या मना नमस्कारमुद्रा । योग्यावर्ता भर्ति भकि प्रति द्वादशावर्ता भवन्ति । योम्याः शिरोनतयश्चत्वारः भवन्तीति ॥ ३५४॥ चंधित्ता पजक अहवा उल्लेण उन्भओ ठिच्चा । काल-पमाण किया इंदिय-वाचार-चजिदो हो ॥ ३५५ ।। आगे सामायिकका काल बतलाते है। अर्थ-विनय संयुक्त गणधर देव आदिने पूर्वाड, मध्याह और अपराध इन तीन कालोंमें छछ: घड़ी सामायिकका काल कहा है ।। भावार्थ-सूर्योदय होनेसे पहले तीन घड़ी और सूर्योदयसे लेकर तीन बड़ी इसतरह छ घड़ी तक तो प्रभात समयमें सामायिक करनी चाहिये । मध्या अर्थात् दिनके मध्यमें दूसरे प्रहरकी अन्तिम तीन घड़ी और तीसरे प्रहरकी शुरूकी तीन की इस तरह छःधड़ी सामायिकका काल है । अपराह अर्थात् सन्ध्याके समय दिनके चतुर्थ प्रहरकी अन्तिम तीन घड़ी और रातके पहले प्रहरकी शुलकी तीन घड़ी इस तरह छ: घड़ी सामायिकका काल है । अर्थात् सामायिक प्रतिदिन तीनवार करनी चाहिये और प्रत्येक भार छछधड़ी करनी चाहिये। किन्तु यह उत्कृष्ट काल है इसलिये ऐसामी अर्थ किया जा सकता है कि तीनों कालोंमें छ: पहीतक सामायिकका काल है । अर्थात् प्रत्येक समय दो दो घड़ीतक सामायिक करनी चाहिये। किन्हीके मतसे चार पड़ी है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण वगैरहके लियेभी कालका जानना जरूरी है। कहा मी है- योग्य काल, योग्य आसन, योग्य स्थान, योग्य मुद्रा, योग्य आवर्त, योग्य नमस्कार आदिको जानकर विनयपूर्वक निर्दोष कृतिकर्म करना चाहिये । इसमेंसे योग्य स्थान और योग्य काल बतला दिया ॥ ३५४ ॥ आगे सामायिककी शेष सामग्रीको बतलाते हैं। अर्थ-पक आसनको बांधकर अथवा सीधा खड़ा होकर, कालका प्रमाण करके, इन्द्रियोंके व्यापारको छोड़नेके लिये जिनवचन में मनको एकाग्र करके, कायको संकोचकर, हाथकी अंजलि करके, अपने खरूपमें लीन दुमा 'अपवा पतिहि सम (१)। २ग उमर विचा, म उभा दिखा.स उदेण समयो। कहोउ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा जिण वययग्ग-मणो संबुडे-काओ य अंजलि किवा | स-सरूवे संलीणो वंदण-अत्थं विश्विर्ततो ॥ ३५६ ॥ किवा देस - पमाणं सघं सावज - वज्जिदो हो । जो कुदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव ॥ ३५७ ॥ [ ० ३५६ वन्दना पाठके अर्थका चिन्तन करता हुआ, क्षेत्रका प्रमाण करके और समस्त सावध योगको छोडकर जो श्रावक सामायिक करता है वह भुनिके समान है | भावार्थ - सामायिक करनेसे पहले प्रथम तो समस्त सावयका यानी पापपूर्ण व्यापारका त्याग करना चाहिये । फिर किसी एकान्त चैत्यालय में, बनमें पर्वतकी गुफामें, खाली मकान में अथवा स्मशान में जहाँ मनमें क्षोभ उत्पन्न करनेके कारण न हों, जाकर क्षेत्रकी मर्यादा करे कि मैं इतने क्षेत्रमें ठहरूंगा । इसके बाद या तो पर्यासन लगाये अर्थात् बाँए पैर पर दाहिना पैर रखकर बैठे या कायोत्सर्गसे खड़ा हो जाये, और कालकी मर्यादा करले कि मैं एक घड़ी, या एक मुहूर्त, या एक प्रहर अथवा एक दिन रात तक पर्यङ्कासन से बैठकर अथवा कायोत्सर्गसे खड़ा होकर सर्व साय योगका त्याग करता हूं । इसके बाद इन्द्रियव्यापारको रोक दे अर्थात् स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियाँ अपने अपने विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द में प्रवृत्ति न करें। और जिनदेवके द्वारा कहे हुए जीवादितत्वोंमेंसे किसी एक तत्व के खरूपका चिन्तन करते हुए मनको एकाग्र करे । अपने अनोपाङ्गको निश्चल रखे । फिर दोनों हाथोंको मिला मोती भरी सीपके आकारको तरह अंजुलि बनाकर अपने शुद्ध बुद्ध चिदानन्द स्वरूपमें लीन होकर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनप्रतिमा और जिनालयकी वन्दना करनेके लिये दो शिरोनति, बारह आवर्त, चार प्रणाम और त्रिशुद्धिको करे | अर्थात् सामायिक करनेसे पूर्व देववन्दना करते हुए चारों दिशाओंमें एक एक कायोरसर्ग करते समय तीन तीन आवर्त और एक एक बार प्रणाम किया जाता है, अतः चार प्रणाम और बारह आवर्त होते हैं । देववन्दना करते हुए प्रारम्भ और समाप्तिमें जमीनमें मस्तक टेककर प्रणाम किया जाता है अतः दो शिरोनति होती हैं। और मन वचन और काय समस्त सावध व्यापार से रहित शुद्ध होते हैं। इस प्रकार जो श्रावक शीत उष्ण आदिकी परीषदको सहता हुआ, विषय कषायसे मनको हटाकर मौनपूर्वक सामायिक करता है वह महाव्रतीके तुल्य होता है; क्यों कि उस समय उसका चित्त हिंसा आदि सब पापोंमें अनासक्त रहता है । यद्यपि उसके अन्तरंगमें संयमको घातनेवाले प्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयसे मन्द अविरति परिणाम रहते हैं फिरभी वह उपचारसे महाव्रती कहा जाता है । ऐसा होनेसे ही निर्मन्थलिंगका धारी और ग्यारह अंगका पाठी अभव्य भी महावतका पालन करनेसे अन्तरंग असंयम भावके होते हुए भी उपरिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है। इस "तरह जब निर्मन्थरूपका धारी अभव्य भी सामायिकके कारण अहमिन्द्र हो सकता है तब सम्यग्दृष्टि यदि सामायिक करे तो कहना ही क्या है। सामायिक व्रतके भी पाँच अतिचार हैं-योग दुआणिधान, १ व व्यणे मया । २ ब ग संपूड, [ संयुस १] जिओ शेक, ग यजिदो हो । इने साम ५ सिसा प्राण त्यादि । इसे साफ ४ इमे सामल, मल Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा २५९ [छाया वहा पर्यहम् अथवा ऊर्षेन अध्यतः स्थित्वा । कालप्रमाणे कृत्वा इन्द्रियव्यापारमार्जितः भूत्वा ॥ जिनवचनेकानमनाः संवृतकायः च भञ्जलिं कृत्वा । खखरूपे संलीनः बन्दनार्थ विचिन्तयन् ॥ कृत्वा देशप्रमाण सर्वसावावर्जितः भूत्वा । यः कुर्वते सामाथिकं स मुनिसहशः भवेत् तावत् ॥] यः सामायिक संपन्नः प्रतिपन्नः सावज श्रावका धाद्धः संयमोपपन्नमुनिसदृशो भवति । यः श्रावकः श्रायः सामायिक समताम् 'समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना। आर्तरोनपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ।।' वा अईदादिनवप्रकारदेववन्दनाम् इत्यादिलक्षणोपेतं सामासिकं करोति विदधाति । कि कृत्वा पूर्वम् । सर्वसावश्चर्जितो भूत्वा सर्वपापल्यापार परित्यज्य सर्वपापोपयोग मुक्त्वा । पुनः किं कृत्वा । देशप्रमाण कृत्वा निाक्षेपमेकान्तभवन वन चैत्यालयादिकं च देशं मोदीकृत्य, चैत्यालयगिरिगुहाशून्यदश्मशानामुम्बस्थाने एतावति क्षेत्रे स्थाने अई स्थास्यामीति प्रमाणं कृत्वा विधायेत्यर्थः । पुनः किं कृत्वा । पर्या पर्यासन वामपादमधः कृत्वा दक्षिणपादमुपरि कृत्वा उपवेशनं पद्मासनं पंघित्ता विषन्थ्य, अथवा ऊबैन अचीभूतेन उडू स्थित्ला उद्रीभूय, द्वात्रिंशहोषवर्जितः सन् , कायोत्सर्गेण स्थित्वा मकरमुखाद्यासनं कृत्वा वा । पुनः किं कृत्वा । कालप्रमाणे कृत्वा कालमवाधे कृत्वा, एतावत्काल पर्यहासनेन कायोत्सर्गेण च तिष्ठामि, तथा एतापत्काल सर्व सावद्ययोगं त्यजामि, इति एकसटकामुहर्ताहर• रात्रिदिवसादिकालपर्यन्त कालमर्यादां कृत्वा । पुनः किं कृत्वा 1 इन्द्रियव्यापारवर्जितो भूत्वा, इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणां व्यापाराः स्वस्वस्पर्श ८ रस ५ गन्ध २ वर्ण ५ शब्द ७ विषयेषु प्रसयः, तेर्जितः भूत्वा, अया व्यापाराः क्रयविक्रयलक्षणाः तैवर्जितः रहितो भूत्वा । केशबन्धं मुष्टिवन्ध वनबन्ध त्र कृत्वा इत्यासनं तृतीयम् ३ । कीहक् सन् श्रावक: सामायिक करोति जिनन चनैकाप्रमनाः, सर्वज्ञवचने एकानं चिन्तानिरोध. तत्र मनो यस्य स जिनपचनैकाग्रमनाः, सर्वज्ञवचनकगचित नारिताच हादरे गरायोचितः । च पुना, संपुटकायः संकुपितशरीरः निषलीकृताङ्गोपाङ्गः । पुनः किं कृत्वा । अञ्जलिं कृत्वा हस्तौ द्वौ मुक्लीकृत्य मुक्काशुक्तिकमुद्रावन्दनमदा कस्वा । पुनः फर्मभूतः सन् । खवरूपे शुद्धाद्वैकषिपेचिदानन्दे खपरमात्मनि संलीनः सम प्राप्तः । पुनः कीदृक् सन् । इन्दनार्थ बन्दनायाः मई सिदाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनदचनजिनप्रतिमाजिनालयलक्षणायाः अर्थः रहसं प्रति दण्डक द्वे नती द्वादशावर्तान् चतु:चिरसि त्रिशुचि चिन्तयन् ध्यायन, एवंभूतः श्रावकः शीतोष्णादिपरीषहविजयी उपसर्गसहिष्णुः मौनी हिंसादिभ्यो विषयकषायेभ्यश्च विनिवृत्त्य सामायिके वर्तमानो महानती भवति । हिंसादिषु सर्वेषु अनासकधित अभ्यन्तरप्रत्याख्यानसंयमघातिकर्मोदयजनितमन्दाविरतिपरिणामे सत्यपि महावत इत्युपचयेते । एवं च कृत्वा अमध्यस्थापि निन्थलिगधारिणः एकादशधारिणो महाव्रतपरिपालनादर्सयमभावस्यापि उपरिमप्रैवेयकविमानवासिता उपएमा भवति । एवमभन्योऽपि निग्रन्थरूपवारी सामायिकवशादहमिन्द्रस्थाने श्रीमान् भवति चेत् किं पुनः सम्यग्दर्शनपूतारमा सामाधिकमापनः । सामायिकातरम पवातिचारा भवन्ति, ते के इति चेदुच्यते । 'योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्यामानि ।। योगस्य कारवायना कर्मणः दुष्टानि प्रणिधानानि दुष्ट प्रवृत्तयः, योगस्य अन्यथा वा प्रमिधानानि प्रवृत्तयः, सामामिकायसरे कोषमानमायालोभसहिताः कायवाखानसो प्रवृत्तयः, क्रोधादिपरिणामवशाऽष्ट प्रणिधानं भवति । शरीरावयवाना हस्तपादादीनाम् अस्थिरत्वं चालनं कायस्पान्यथाप्रवृत्तिः कायदुष्टप्रणिधानम् । संस्काररहितार्यागमकवर्णपदप्रयोगो वाचान्यथाप्रवृत्तिः पर्णसंस्कारे भावार्थे च अगमकत्वं चपलादिवचनं च धातुःप्रणिधानम् २ । मनसोऽनर्पितल मनसः अनादर और स्मृत्यनुपस्थान । सामायिकके समय योग अर्थात् मन वचन और कायकी दुष्ट प्रवृत्ति करना, यानी परिणामोंमें कषायके आजानेले मनको दूषित करना,सामायिकमें नहीं लगाना मनोदुष्पणिधान है। हाथ पैर वगैरहको स्थिर नहीं रखना कायदुष्प्रणिधान है। मंत्रको जल्दी जल्दी बोलना, जिससे मंत्रका उच्चारण अस्पष्ट और अर्थशून्य प्रतीत हो वचनदुष्प्रणिधान है । इस तरह सामायिकके ये तीन अतिचार हैं । सामायिक करते हुए भी सामायिक, उत्साहित न होना अपवा अनादर का भाष रखना अनादर नामका चौथा अतिचार है । विस्मरण होना अर्थात् यह भूलजाना कि मैंने अमुक्तक पदा या नहीं ! यह स्मृत्यनुस्थापन नामका पाँचवा अतिचार है । रसकरंड श्रावकाचारमें मौ कहा है १'एकादशाङ्गभ्यायिनो' इत्यपि फारः । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३५८ अन्यथाप्रवृत्तिः मनोदुःप्रणिधानम् ३ । प्रयोऽतिचारा भवन्ति । चतुर्थोऽतिचारः अनादरः अनुत्साहः अनुद्यमः ४ । पचमोऽतिचारः स्मृनुपस्थापनं स्मृतेरनुपस्थापनं विस्मृतिः, न ज्ञायते मया पठितं किं वा न पठितम्, एकाग्रतारहितत्वमित्यर्थः ५ । तथा चोक्तं च।[" वाक्कायमानसानां दुःप्रणिधानान्यनादरास्मरणे । सामयिकस्यात्तिगमा व्यज्यन्ते पञ्च भावेन ॥” इति ॥ ३५५-५७ ॥ इति स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाव्याख्याने प्रथमं सामायिकशिक्षावतं व्याख्यातम् १ । अथ द्वितीय शिक्षाश्रतं प्रोषधोपनासाख्यं गायाद्वयेन व्याकरोति हाण-विलेवण- भूसण इत्थी संसग्ग-गंध-धूवादी' | जो परिहरेदेि' गाणी बेरग्गाभूस किया ।। ६५८ ॥ दोसु वि पधेसु सया उववाएं एय भत्तणिबियी । जो कुणदि एकमाई तस्स वयं पोसहं बिदियं ॥ ३५९ ॥ [ छाया-स्नान विलेपनभूषणस्त्रीसंसर्गगन्धधूपादीन् । यः परिहरति ज्ञानी वैराग्याभूषणं कृत्वा ॥ द्वयोः अपि पर्वणोः सदा उपत्रासम् एकभक्तनिर्विकृती । यः करोति एवमादीन् तस्य वतं प्रोषधं द्वितीयम् ॥ ] तस्य द्वितीयं शिक्षाव "वचनका दुष्प्रणिधान, कायका दुष्प्रणिधान, मनका दुष्प्रणिधान, अनादर और अस्मरण ये पांच सामा किके अतिचार हैं।" इस प्रकार सामायिक नामक प्रथम शिक्षावतका व्याख्यान समाप्त हुवा || ३५५ - ३५७ ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षावतको कहते हैं । अर्थ- जो ज्ञानी श्रावक सदा दोनों पर्वोंमें स्नान, विलेपन, भूषण, स्त्रीका संसर्ग, गंध, धूप, दीप आदिका त्याग करता है और वैराग्यरूपी आभरणसे भूषित होकर उपवास या एकबार भोजन अथवा निर्विकार भोजन आदि करता है उसके प्रोषधोपचास नामक दूसरा शिक्षावत होता है ॥ भावार्थ - प्रोषधोपवासव्रतका पालक श्रावक प्रत्येक पक्षके दो पर्वो अर्थात् प्रत्येक अष्टमी और प्रत्येक चतुर्दशी के दिन उपवास करता है अर्थात् खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय चारों प्रकारके आहारको नहीं करता। वैसे तो केवल पेटको भूला रखनेका ही नाम उपवास नहीं है, बल्कि पाँचों इन्द्रियाँ अपने स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इन पाँचों विषयोंमें निरुत्सुक होकर रहें, यानी अपने अपने विषयके प्रति उदासीन हों, उसका नाम उपवास है । उपवासका लक्षण इस प्रकार बतलाया है- 'जिसमें कषाय और विषयरूपी आहारका लाग किया जाता है वही उपवास है। बाकी तो लांघन है।' अर्थात् खाना पीना छोड़ देना तो लंघन है जो ज्वर वगैरह हो जानेपर किया जाता है। उपवास तो यही है जिसमें खानपानके साथ विषय और कषायको भी छोड़ा जाता है। किन्तु जो उपवास करनेमें असमर्थ हों वे एकबार भोजन कर सकते हैं। अथवा दूध आदि रसोंको छोड़कर शुद्ध महेके साथ किसी एक शुद्ध अन्नका निर्विकार भोजन कर सकते हैं उसे निर्विकृति कहते हैं । निर्विकृतिका स्वरूप इस प्रकार बतलाया हैं-" इन्द्रियरूपी शत्रुओंके दमन के लिये दूध आदि पांच रसोंसे रहित भोजन किया जाता है उसे निर्विकृति कहते हैं । " गाथाके आदि शब्दसे उसदिन आचाम्ल या कांजी आदिका भोजन भी किया जा सकता है। गर्म कांजीके साथ केवल भात खानेको आचाम्ल कहते हैं और चावल के माण्डसे जो माडिया बनाया जाता है उसे कांजी कहते है । अस्तु । उपवास दिन श्रावकको ज्ञान नहीं करना चाहिये, तैलमर्दन नहीं करना चाहिये, चन्दन कपूर केसर अगरु कस्तूरी आदिका लेपन नहीं १ ख स ग गंधभूवदीवादि, म धूवादि । २ परिहरेश । ३ म रा ( गचेगा, सभेणा ) भरणभूखणं किवा । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ans -३५९ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २६१ - औषधाख्यं भवेत् । तस्य कस्य । यः द्वयोः पवैणोः पर्वण्योः अष्टम्यां चतुर्दश्यां च सदा पक्ष पक्षं अति उपवास स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दलक्षणे पञ्चमु विषयेषु परिहृत्सुक्यानि पश्चापि इन्द्रियाणि उपेत्य भागत्य तस्मिन् उपवासे वसन्ति इस्युपवासः, अशनपानखाथ लेलक्षणश्चतुर्विधा द्वारपरिहार इत्यर्थः । उत च उपवासस्य लक्षणम् । "कवायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लगन विदुः ॥” इति तम् उपत्रासं क्षपणाम् अनशनं करोति विदुषाति तच्छक्त्यभावे एकभक्कम् एकवारभोजनं करोति । तथा निर्विकृर्ति शुद्धतः शुद्धकालभोजनं करोति वा दुग्धादिपरसादिरहितम् आहारं भुङ्क्ते । उ च । आहारो भुज्यते दुग्धादिकपञ्चरखातिगः । दमनायाक्षशत्रूणां यः सा निर्विकृतिमता इस एवमुक्तप्रकारेणादिशब्दात् आचामलकाजि श्रहारस्याहारं मनचिन्त्यप्रमुखं करोति । [ "समुष्णे कालिके शुद्धमालाभ्य भुज्यतेऽशनम् । जितेन्द्रियैस्तपोऽर्थं यदाचामल जय्यतेऽत्र सः ॥ शुद्धोदनं जलेन मह भोजन काजिकाहारम् । तस्य कस्य । यः प्रधावती परिहरति निषेधयति त्यजति । कान् । स्नानविलेपन भूषणञ्जी संसर्गगन्धधूपप्रवीपावरीन, ज्ञानं शीतोष्णजलेन मज्जनं तैलादिमर्दनं कर्कोटिकादिकेन स्फेटनम् विलेपनं चन्दनकर्पूरकुङ्कुमागरुकस्तूरिकादिभिर्विलेपनं शरीर विलेपनम् भूषणं हारमुकुटकुण्डल केयूरकटकमु विकाद्याभरणम्, स्त्रीसंसर्गः खीणां युवतीनां मैथुनस्पर्शनपादसंवाहननिरीक्षणशयनौपवेशनवार्तादिभिः संसर्गः संयोगः स्वर्शनम् गन्धः सुगन्धः पुष्पसुगन्धचूर्णागरुर सप्रमुखः, धूपः शरीरधूपनं केशवखादिधूपनं च दीपस्य ज्वलनं ज्वालनकरणं च द्वन्द्वसमासः त एवादिर्येषां ते तथोक्तास्तान् । श्रादिशब्दात् सन्चित्तजलकणलचणभूम्य मिवातकरणवनस्पतितत्फलपुष्पकुमा लच्छेदादिव्यापारान् परिहरति । कीदृक्षः । ज्ञानी मेदज्ञानी स्वपर विवेचन विज्ञानी । किं कृत्वा वैराग्याभरणभूषणं कृत्वा भवाशभोगविरक्तत्या भरणेनात्मानं भूषयित्वा निरारम्भः करना चाहिये, हार मुकुट कुण्डल, केयूर, कड़े, अगूंठी आदि आभूषण नहीं पहनने चाहिये, त्रियोंके साथ मैथुन नहीं करना चाहिये और न उनका आलिंगन करना चाहिये, न उनसे पैर गैरह दबाना चाहिये, न उन्हें ताकना चाहिये, न उनके साथ सोना या उठना बैठना चाहिये, सुगन्धित पुष्प चूर्ण वगैरहका सेवन नहीं करना चहिये, न शरीर वस्त्र वगैरहको सुवासित धूपसे सुवासित करना चाहिये और न दीपक वगैरह जलाना चाहिये । भूमि, जल, अग्ि वगैरह को खोदना, जलाना बुझाना आदि कार्य नहीं करने चाहिये और न वनस्पति वगैरहका छेदन भेदन आदि करना चाहिये । संसार शरीर और भोगसे विरक्तिको ही अपना आभूषण बनाकर साधुओंके निवासस्थानपर चैत्यालयमें अथवा अपने उपवासगृहमें जाकर धर्मकथाके सुनने सुनाने में मनको लगाना चाहिये । ऐसे श्रावकको प्रोषधोपवासक्ती कहते हैं । आचार्य समन्तभद्रने भी लिखा है--' चतुर्दशी और अष्टमीके दिन सदा स्वेच्छापूर्वक चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है । उपवासके दिन पाँचों पापोंका, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, जान, अंजन और नास लेनेका त्याग करना चाहिये । कानोंसे बड़ी चाहके साथ धर्मरूपी अमृतका स्वयं पान करना चाहिये और दूसरोंको पान कराना चाहिये । तथा आलस्य छोड़कर ज्ञान और ध्यान में तत्पर रहना चाहिये। चारों प्रकारके आहारके छोड़नेको उपवास कहते हैं, और एक बार भोजन करनेको प्रोषन कहते हैं । अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करके नौमी और पंद्रसको एक बार भोजन करना प्रोषधोपवास है । इस प्रोषधोपत्रास व्रत के पाँच अतिचार हैं-भूखसे पीड़ित होनेके कारण 'जन्तु है या नहीं' यह देख्ने मिना और मृदु उपकरणसे साफ किये बिना पूजा के उपकरण तथा अपने पहिरने के आदिको उठाना, बिना देखी बिना साफ की हुई जमीन में मलमूत्र करना, बिना देखी बिना साफ की हुई भूमिमें चटाई वगैरह बिछाना, भूखसे पीड़ित होनेके कारण आवश्यक छ कर्मो में अनादर ! Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६० भावकः शुद्धावकाशे साधुनिवाले चैत्यालये व प्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावणन्धिन्तमावहितान्तःकरणः सन् उपवसन् एकाग्रमनाः सन् उपवास कुर्यात् । स श्रावकः प्रोषवोपवासवती भवति । तथा समन्तभद्रस्वामिना प्रोकं च । [" पर्वष्टम्यां यशातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहाराणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥ पञ्चानां पापानामर्लक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । नानाजननस्यानामुपवासे परिहर्ति कुर्यात् ॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेाऽन्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसञ्चतन्द्रालुः ॥ चतुराहारविवर्जनमुपवासः श्रोषधः सकृतिः । स प्रोषघोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥ महणविसर्गास्तरणाम्यदृष्टुमृष्टान्यनादस्मरणे । यत्प्रोषधोपवासे व्यतिर्लयन फलकं तदिदम् ॥] इति द्वितीयशिक्षा प्रोषधोपवासाख्यं कथितम् २ ॥ ३५८-५९ ॥ अथ तृतीयं शिक्षावतमतिथिसंविभागाख्यं गाथापाकेनाहतिविहे पत्तम्हि' या सद्धाई-गुणेहि संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं णव दाण-विहीहि संजुतो ॥ ३६० ॥ सिक्खा वयं च तिदियं तस्स हवे सब - सिद्धि-सोक्खयरं ।" दाणं चउवि पि य सधे दाणाणे सारयरं ॥ ३६१ ॥ [ छाया-त्रिविधे पाने सदा श्रद्धाविगुणैः संयुतः ज्ञानी । दानं यः ददाति स्वयं नवदानविधिभिः संयुक्तः ॥ शिक्षावतं च तृतीयं तस्य भवेत् सर्वसिद्धिसौख्यकरम्। दानं चतुर्विधम् अपि च सर्वदानानां सारतरम् ॥ ] तस्य arrer शिक्षा दानम् अतिथिसंविभागाख्यं तृतीयं भवेत् स्यात् । कीदृशं तत् । दानं चतुर्विधमपि चतुःप्रकारम् । रखना तथा आवश्यक कर्तव्यको भी भूल जाना, ये पाँच अतिचार हैं। इन्हें छोड़ना चाहिये। आगे प्रोषध प्रतिमा में १६ प्रहरका उपवास करना बतलाया है । अर्थात् सप्तमी और तेरस के दिन दोपहरसे लेकर नौमी और पन्द्रसके दोपहर तक समस्त भोगोपभोगको छोड़ कर एकान्त स्थानमें जो धर्मध्यानपूर्वक रहता है उसके प्रोषधोपवास प्रतिमा होती है । परन्तु यहाँ सोलह प्रहरका नियम नहीं है इसीसे जिसमें उपवास करनेकी सामर्थ्य न हो उसके लिये एक बार भोजन करनाभी बतलाया है, क्यों कि यह बत शिक्षारूप है । इस तरह प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षोत्रतका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥ ३५८३५९ || आगे पाँच गाथाओंके द्वारा अतिथिसंविभाग नामक तीसरे शिक्षानतका स्वरूप कहते हैं । अर्थ - श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकारके पात्रको दानकी नौविभियोंके साथ स्वयं दान देता है उसके तीसरा शिक्षावत होता है। यह चार प्रकारका दान सब दानोंमें श्रेष्ठ है, और सब सुखोंका तथा सिद्धियोंका करनेवाला है | भाषार्थ -पात्र तीन प्रकारके होते हैंउत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । जो महात्रत और सम्यक्त्वसे सुशोभित हो वह उत्तम पात्र है, जो देशनल और समय से शोभित हो वह मध्यम पात्र है और जो केवल सम्यग्दृष्टि हो वह जघन्य पात्र है । पात्र बुद्धिसे दान देने योग्य ये तीनही प्रकार के पात्र होते हैं । इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देने बाला दाता भी श्रद्धाआदि सात गुणोंसे युक्त होना चाहिये। वे सात गुण हैं - श्रद्धा, भक्ति, अलब्धता, दया, शक्ति, क्षमा और ज्ञान । 'मैं बड़ा पुण्यत्रान् हूँ, आज मैंने दान देनेके लिये एक वीतराग पात्र पाया है', ऐसा जिसका भाव होता है वह दाता श्रद्धावान् है । पात्रके समीपमें बैठकर जो उनके पैर दबाता है, वह भक्तिवान् है । 'मुझे इससे काम है इसलिये में इसे दान देता हूँ ऐसा भाव जिसके १ म पनि २ व साई ३ क म स वश्यं गतये । ४ ब सम्वसोख सिद्धिगर । ५ वा सम्मे हांगाणि [ सम्बंधणाण । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३१] १२. धर्मानुप्रेक्षा २६३ बाहाराभयभैषज्यशास्त्रदानप्रकार दानम् । अतिथिसंविभागं पुनः कथंभूतम् । सर्वसिद्धिसौरुक्कर, सिद्धे मुके निर्वाणस्य सौख्यानि सर्वाणि च तानि सौख्यानि च तानि सर्वसौख्यानि करोतीति सर्वसिद्धिसौख्यकरम् । च पुनः, सर्षदानाना "गोहेम गजवाजिभूमिमहिलादासीतिलस्यन्दनं सनेहविषद्धमत्र दशधा वान शहः कीर्तितम् । तदाता कुगति मजेच पुरतो हिंसादिसंवर्धनात सभेतापि व तत्सदा त्यज बुधर्निन्य कलंकास्पदम् ॥” इति दशविधदानाना मध्ये सारतरं दानम् उत्कृष्टम् अतिशयेनोत्कृष्टम् तस्य कस्य । यः श्रावकः खयमात्मना खहस्तेन वा दानम् आहारोषधाभयशानप्रदानम् । तत्किम् । 'अनुग्रहार्थ खस्यातिसों दानम् । आत्मनः परस्य च उपकारः अनुग्रह उच्यते, सोऽर्थः प्रयोजन यस्मिन् दानकर्मणि तत् अनुग्रहार्य खोपकाराय विशिष्टपुण्यसंचयलक्षणाय परोपकाराय सम्यग्दर्शनशानचारित्रवृद्धये खस्य धनस्य अतिसर्गोऽतिसर्जनं दानमुच्यते । ददाति प्रयच्छति । क केभ्यो का विविध पात्रे त्रिविधेषु पात्रेषु महाबतसम्यस्वपिराजितमुत्तम पात्रम् , श्रावकवतसम्यक्त्वपवित्रं मध्यमपात्रम, सम्यसवैकेन निर्मलीकृत अवन्यपात्रम. इति त्रिविधपात्रेभ्यः दान ददाति । कौरक्षः। श्राद्धो दाता सदा नित्य निरन्तरं श्रद्धादिगुणैः संयुक्तः । श्रद्धा 1तुधि २ भफि ३ विज्ञानम् ४ अलुब्धता ५ क्षमा ६ शक्तिः । यत्रेते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति । तथा प्रकारान्तरेण । "श्रद्धा १ भक्ति २ रलोलवं दिया ४ शक्तिः ५ क्षमा परा | विज्ञानं ७ चेति सप्तैते गुणा दातुः प्रकीर्तिताः ॥" "चित्तरागो भवेद्यस्य पात्र लब्ध मयाधुना । पुण्यवानहमेवेति स श्रद्धावानिहोच्यते ॥१॥ आभुवरपात्रस्य संनिधौ व्यवतिष्ठते । तदगिसेवनं कुर्वन् सा भक्ति परिकीर्तिता ॥ १ ॥ अमुष्मादस्ति मे कार्यमस्म दान ददाम्यहम् । इरानो न यस्यास्ति स दाता नैव लोभवान् ॥३॥ कार्य प्रति प्रयातीति कीटावीनवलोकयन् । सहमध्ये प्रयोन स दाता स्याझ्यापरः॥४॥ सर्वमाहारमनाति प्राहको महुभोजकः । इत्येतनास्ति यश्चिते सा दशकिः परिकल्प्यते ॥ ५॥ पुत्रदारादिमिदोषे कृतेऽपि च न कुप्यति । या पुननिकालेऽसौ क्षमावानिति भण्यते ॥ ६ ॥ पात्रापाने समायाते गुणदोषविशेषवित् । शानवान् स भाता गुणैरेमिः समन्वितः॥ ७॥" इति सप्तगुणैः सहितो दाता भवति। पुनः कीटक । दाता शानी पात्रापात्रदेयायधर्माधर्मतत्वातरवादिविचारशः 1 पुनः कीडम्विधः । नवदामविधिमिः संयुकः, नवप्रकारपुण्योपासनविधिमिः सहितः । तद्यथा“पडिगह १ मुजवाणं २ पादोदर अवर्ण ४ च पण च ५। पा ६षयण " कायमडी । एसणमुद्री य र गावविह पुणं ।। १॥ पतं णियपरदारे दहणण्यत्य वा विमग्गित्ता । पडिगहण कायध्वं णमोत्थु ठाहुति भणिवूण ॥२॥ दूर्ण णियगेई गिरवआणुनहउठाणम्हि । ठविवूण सदो चलणाण धोवर्ण होदि काय ॥३॥ पादोदयं पवितं सि अपर्ण कुज्जा 1 गंधपतयकुसुमणिवेजादीवधूवेहि फलेहि ॥ ४ ॥ पुष्पंजलि खिविता पयपुरदो संदणं तदो कुखा । इण भट्टराई मणमृद्धी होदि कायव्वा ॥५॥ जिदुरकायसवयणाइवमर्ण सा वियाण अभिमुद्धी । सबक मनमें नहीं है वह दाता निलोंभ है। जो दाता घरमें चींटी वगैरह जन्तुओंको देख कर सावधानता पूर्वक सब काम करता है वह दयालु है । 'यह पात्र बहुत खाऊ है, सारा भोजन खाये जाता है ऐसा जिसके चित्तमें भाव नहीं है वह दाता शक्तिमान है। जो खी पुन वगैरह के अपराध करनेपर भी दानके समय उनपर क्रुद्ध नहीं होता वह दाता क्षमावान् है। जिसे पात्र और अपात्र की समझ है वह दाता ज्ञानी है। इन सात गुणोंसे सहित दाता श्रेष्ठ होता है। ऐसा जो दाता उक्त तीन प्रकारके पात्रोंको यथायोग्य नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान, अभय दान, औषध दान और शाम दान देता है वह अतिथिसंविभाग व्रतका धारी होता है । परिग्रह, उच्चस्थान, पादोदक, अर्चन, प्रणाम, मन:शुद्धि, बचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजन शुद्धि ये दानकी नौ विधियां हैं। प्रथम ही पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर अथवा अन्यत्रसे खोज लाकर 'नमोऽस्तु नमोऽस्तु' और 'तिष्ठ तिष्ठ' कह कर ग्रहण करना चाहिये । फिर अपने घर लेजाकर उसे ऊंचे आसनपर बैठाना चाहिये। फिर उसके पैर धोने चाहिये। फिर उस पैर धोयनके पवित्र जलको सिर पर लगाना चाहिये। फिर गन्ध, अक्षत, फल, नैवेद्य, दीप, धूप और फलसे उसकी पूजा करनी चाहिये । फिर चरणोंके समीप नम. १ भीतरागों लिपि पारः। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६२ संबुर्डगस्स होदि तह कायमुद्धी वि ॥ ६ ॥ चोइसमलपरिमुद्ध जं दाणं सोहिदूण जयणाए । संजदजणस्स विजदि सा या सणामुद्धी ॥ ७ ॥ इति सतदातृगुणैर्नवविधपुण्योपार्जनविधिभिश्च कृत्वा त्रिविधपाशेभ्यः अशनपान खायस्वायं चतुर्विधं दानं दातव्यमित्यर्थः ॥ ३६० - १ ।। अथाद्वारादिदानमाहात्म्यं गाथात्रयेण व्यनति भोयण दाणे' सोक्खं ओसह दाणेण सत्थ-दाणं च । जीवाण अभय दाणं सुदुलहं सब-दाणेसु' ।। ३६२ ॥ [ छाया-भोजनदानं सौख्यम् औषधदानेन शाखदानं च जीवानाम् अभयदानं सुदुर्लभं सर्वदानेषु ॥] भोजनदानेन अशनपान खाद्यखाद्यचतुर्विधाहारप्रदानेन सौख्यं भोगभूम्यादिजं सुखं भवति । कीदृशं तद्भोजनं न देयम् । उक्तं च । "विवर्ण विरसं विद्धमसात्म्यं प्रमृतं च यत् । मुनिभ्योऽनं न तद्देयं यत्र भुक्तं गदायहम् ॥ १ ॥ उच्छिष्टं नीचलोका भन्योद्दिष्टं विगर्हितम् । न देयं दुर्जन स्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् ॥ २ ॥ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानीतमुपायनम् । न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वायकम् ॥ ३ ॥” इति । औषधदानेन सह शास्त्रदानं ज्ञानदानं स्यात् । च पुनः सर्वजीवानाम् अभयदानं सर्वप्राणिनो रक्षणमभयदानम् । किंभूतम् । सर्वदानानां मध्ये सुदुर्लभं अतिदुःप्रापम् तस्याभयदानस्य शास्त्रीषधाहारमयस्वात् ॥ ३६२ ॥ अथाहारदानस्य माहात्म्यं गाथाद्वयेनाह भोयण-दाणे दिपणे तिणि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होति देहीणं ॥ ३६३ ॥ स्कार करना चाहिये तथा आर्त और रौद्र ध्यानको छोड़ कर मनको शुद्ध करे, निष्ठुर फर्कश आदि वचनोंको छोड़कर बचनकी शुद्धि करे और सब ओरसे अपनी कायाको संकोच कर कायशुद्धि करे । नख, जीवजन्तु, केश, हड्डी, दुर्गन्ध, मांस, रुधिर, चर्म, कन्द, फल, मूल, बीज आदि ater मलों से रहित तथा यज्ञ पूर्वक शोधा हुआ भोजन संयमी मुनिको देना एषणा शुद्धि है। इस तरह दाताको सात गुणों के साथ पुण्यका उपार्जन करनेवाली नौ विधिपूर्वक चार प्रकारका दान तीन प्रकारके पात्रोंको देना चाहिये || ३६० - ३६१ ॥ आगे तीन गाथाओंसे आहार दान आदि का माहात्म्य कहते हैं । अर्थ - भोजन दान से सुख होता है । औषध दानके साथ शास्त्रदान और जीवोंको अभयदान सब दानों में दुर्लभ है । भावार्थ - खाद्य ( दाल रोटी पूरी वगैरह ), खाद्य ( बर्फी लाइ वगैरह ) लेखा (रबड़ी गैरह) और पेय ( दूध पानी वगैरह ) के भेदसे चार प्रकारका आहारदान सत्पात्रको देनेसे दाताको भोगभूमि आदिका सुख मिलता है। किन्तु मुनिको ऐसा भोजन नहीं देना चाहिये जो विरूप और विरस होगया हो अर्थात् जिसका रूप और खाद बिगड़ गया हो, अथवा जो मुनिकी प्रकृतिके प्रतिकूल हो या जिसके खानेसे रोग उत्पन्न हो सकता हो, या जो किसीका जूठा हो, या नीच लोगों के योग्य हो, - या किसी अन्यके उद्देशसे बनाया हो, निन्दनीय हो, दुर्जनके द्वारा छू गया हो, देव यक्ष बगैरइके द्वारा कल्पित हो, दूसरे गांव लाया हुआ हो, मंत्रके द्वारा बुलाया गया हो, भेंटसे आया हो अथवा बाजार से खरीदा हुआ हो, ऋतुके अननुकूल तथा विरुद्ध हो । औषधदान शास्त्रदान और अभयदान में अभयदान सबसे श्रेष्ठ है, क्यों कि सब प्राणियों की रक्षा करनेका नाम अभयदान है अतः उसमें शास्त्रदान, औषधदान और आहारदान आ ही जाते हैं || ३६२ || आगे दो गाथाओंसे आहार दानका माहात्म्य कहते हैं । अर्थ- भोजनदान देने पर तीनों ही दान दिये १ दार्य [द] ], म स म दाणेण २ ब दाणेण सत्यवाणीणं, रू दाणेण सम्पदा च ल म सग दाणा । * दाणी (६) ति दिण्णाइ । ५ दिणिदिधिति नीकाणं । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३६४1 १२. धर्मानुशा भोय-बले साहू सत्थं 'सेवेदि रति-दिवसं पि । भोयण दाणे दिवणे पाणा वि य रक्खिया होंति' ॥ ३६४ ॥ २६५ [ छाया-भोजनदाने दत्ते त्रीणि अपि दानानि भवन्ति दत्तानि । बुभुक्षातृषाभ्यां व्याधयः दिने दिने भवन्ति देहिनाम् || भोजनबलेन साबुः साब्नं सेवते दात्रिदिवसमपि । भोजनदाने दत्ते प्राणाः अपि च रक्षिताः भवन्ति ॥ ] भोजनदानेन अशमपानादिचतुर्विधाहारदाने इत्ते सति त्रीण्याचे दानानि औषधज्ञानाभयवितरणानि दत्तानि भवन्ति । थाहारदाने दत्ते सति औषधदानं व कथं स्यादित्यत्र युक्ति नियुक्ते । देहिनां प्राणिनां दिने दिने दिवसे दिवसे क्षुधातृषाध्याय भवन्ति, नृद्रोगाः सन्ति तत् क्षुधातृषाध्याधिनिवारणार्थम् आहारदानं दत्तं सत् औषधदानं दतं भवेत् । " मरणसमं णत्थि भयं खुद्दासमा वेयणा णत्थि । इसमें णत्थि जरो दारिदसमों वइरिओ गत्थि ॥” इति वचनात् । ननु तहान शानदानं कथमिति चेदुच्यते । भोजनवलेन आहारस्य शक्तमा माहात्म्याच साधुः मुनिः रात्रौ दिवसेऽपि च शास्त्रं सेवते अभ्येति शिष्यान् अध्यापयति सदा निरन्तर ध्यानाध्ययनं करोति कुरुले कारयति च इति हेतोः आहारदानं ज्ञानदानं स्यात् । नतु तद्दानमभयदानं कथमिति चेदुच्यते । भोजनदाने दत्ते सति पात्रस्य प्राणाः [[" च वि इंदियपराणा मणवचिकायेण विणि पाणा । अगप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दह पाणा ॥” ] इति दशविधप्राणा रक्षिता भवन्ति । पात्राणां प्राणा जीवितव्यं रक्षिताः सन्तीति हेतोरभयदानं दत्तं भवति । तथा चोक्तं च ।" देहो पाणा स्वं विजा धर्म्म तवो सुई मोक्खं । सव्वं दिण्णं णिघमा हवे आहारदाणेणं ॥ १ ॥ भुक्खसमा ण हु दाही अण्णतमार्ग च ओसहं णत्थि । तम्हा ताणेण य आरोयतं हवे दिष्णं ॥ २ ॥ प्राहारमओ देहो आहारेण विणा पढेर नियमेण । तम्हा जैगाहारो दिष्णो देहो हवे तेण ॥ ३ ॥ ता देहो ता पाणा ता रूं ताम जाण विष्णाण जामाहारो पविसद् देहे जीवाण होते हैं। क्यों कि प्राणियों को भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है ! भोजनके बलसे ही साधु रात दिन शास्त्रका अभ्यास करता है और भोजन दान देने पर प्राणोंकी मी रक्षा होती है । भावार्थ - चार प्रकारका आहारदान देने पर औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान भी दिये हुए ही समनने चाहिये । अर्थात् आहारदानमें ये तीनों ही दान गर्भित हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है । आहार दान देने पर औषध दान दिया हुआ समझना चाहिये। इसमें युक्ति यह है कि प्राणियोंको प्रतिदिन भूख और प्यास रूपी रोग सताते हैं । अतः भूख और प्यास रूपी रोगको दूर करने के लिये जो आहार दान दिया जाता है वह एक तरहसे औषध दान ही है। कहा भी है-" मृत्युके समान कोई भय नहीं । भूखके समान कोई कष्ट नहीं । यछा समान उत्रर नहीं। और दारिद्र्यके समान कोई बैरी नहीं ।" अब प्रश्न यह है कि आहार दान ज्ञान दान कैसे है ? इसका उत्तर यह है कि भोजन खानेसे शरीरमें जो शक्ति आती है उसकी वजहसे ही मुनि दिन रात शास्त्रकी स्वाध्याय करता है, शिष्योंको पढ़ाता है तथा निरन्तर ध्यान वगैरह में लगा रहता है। अतः आहार दान ज्ञानदान भी है। अब प्रश्न होता है कि आहारदान अभयदान कैसे है ? इसका समाधान यह है कि भोजनदान देनेसे पात्रके प्राणों की रक्षा होती है इसलिये आहारदान अभयदान भी है। कहा भी है - " आहारदान देनेसे विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियमसे दिया हुआ समझना चाहिये । भूख के समान व्याधि नहीं और अन्नके समान औषधी नहीं । अतः अमदान से औषधदान ही दिया हुआ होता है । यह शरीर आहारमय है । आहार न मिलने से यह नियमसे टिक नहीं सकता । अतः जिसने आहार दिया उसने शरीर ही दे दिया ।' शरीर, प्राण, १ क म सग यदि रचिदिव (स सेबंदि १) १ २ ब ईसि । कार्त्तिके० ३४ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६५ सुक्खयरो ॥ ४ ॥ आहारसणे देहो देहेण नवो संवेग रडणं । रयमासे वरणाणं गाणे मोक्खो जिंगो भइ ॥ ५ ॥” ३६३-६४ ॥ अथ दानस्य माहात्म्य गाधाद्वयेन विशदयति इह-पर-लोय - गिरीही दाणं जो देदि परम-भतीए । रयणसए' सुविदो' संघो सयलो हवे तेण ॥ ३६५ ॥ उत्तम-पत्त-विसेसे उत्तम भत्तीऍ उत्तमं दाणं । एय-दिणे वि य दिण्ण" इंद-मुहं उत्तमं देदि ॥ ३६६ ॥ * [ छाया-इह परलोकनिरीहः दानं यः ददाति परमभक्त्या । रात्रचे सुस्थापितः संघः सकलः भवेत् तेन ॥ उत्तमपात्रविशेषे उत्तमभक्त्या उत्तमं दानम् । एकदिने अपि च दतम् इन्द्रसुखम् उत्तमं ददाति ॥ ] यः अतिभिसंविभाग शिक्षावती श्रावको दाता दानं ददाति आह रादिकं प्रयच्छति । क्या । परमभसया उत्कृष्टानुरागेण परमप्रीत्या परमश्रद्धया रुच्या भावेन स्वयमेवात्मना स्वहस्तेन पदातिए खाना सुतोत्पत्ती व कः सुधीः । अन्यत्र कार्यदेवाभ्यां प्रतिहस्तं समादिशेत् ॥ कीटकू वाता सन् । इहपरलोकनिरीहः य इहलोके यशः कीर्तिख्यातिमहिमाधन सुवर्णरत्न माणिक्यगोमहिषीबलीवर्दधान्यादिप्राप्तिः पुत्रकलत्रमित्रसुखाद्याप्तिः मन्त्र तन्त्र यन्त्र विद्याविभवादिप्राप्तिः परलोके स्वर्गाप्सरोराज्यरूपनिमान नरेन्द्रदेवेन्द्र धरणेन्द्रसंपदाधनधान्यादिप्राप्तिश्व तत्र तेषु निरीहः वाच्छारहितः कर्मक्षयार्थी तेन श्राद्धेन दात्रा सफलसंघः ऋषिमुनियलनगारः अथवा सत्यार्थिकाश्रावक श्राविका लक्षणः चतुर्विधसंघः स्थापितः स्थिरीकृतो भवति । केषु । रत्नत्रयेषु क्ष्ममहारनिश्रयसम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रेषु सर्वसंघः स्थिरीकृतः । कथं रत्नत्रयेषु स्थापितो भवति संघ इति चेत्, सरसाहारेण संघस्य वपुषि शक्तिर्भवति, आरोग्यादिकं च स्यात् तेन तु ज्ञानध्यानाभ्यासतंत्र्यचिन्तनश्रद्धारुचिपर्योपवासादितीर्थयात्राधर्मोपदेशश्रवणश्रावणादिकं सुखेन प्रवर्तते इति । उत्तम पात्रविशेषे ध्यानाध्ययनविशिष्टनिर्धन्यमुनये उत्तमदानं धात्र्यादिपद्धत्वारिंशदोषविरहितं चतुर्दशमलरहितं च दानं वितरण प्रदानं दत्तं सत् । एकस्मिन्नपि रूप, ज्ञान वगैरह तभी तक हैं जब तक शरीरमें सुख दायक आहार पहुँचता है । आहारसे शरीर रहता है । शरीर से तपश्चरण होता है। तपसे कर्मरूपी रजका नाश होता है । कर्मरूपी रजका नाश होने पर उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होती है और उत्तम ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ।" ॥ ३६३-३६४ ॥ आगे दो गाथाओंसे दानका माहात्म्य स्पष्ट करते हैं । अर्थ-जो पुरुष इस लोक और परलोक्के फलकी इच्छासे रहित होकर परम भक्तिपूर्वक दान देता है वह समस्त संघको रत्नत्रयमें स्थापित करता है । उत्तम पात्रविशेषको उत्तम भक्ति के द्वारा एक दिन भी दिया हुआ उत्तम दान इन्द्रपदके सुखको देता है ॥ भावार्थ - अतिथिसंविभागका पालक जो श्रावक इस लोकर्मे यश, ख्याति, पूजा, धन, सोना, रन, स्त्री, पुत्र, यंत्र, मंत्र, तंत्र आदिकी चाह न करके और परलोकमें देवांगना, राज्य, नरेन्द्र, देवेन्द्र और धरणेन्द्रकी सम्पत्ति तथा धनधान्यकी प्राप्तिकी चाह न करके अत्यन्त श्रद्धाके साथ स्वयं अपने हाथसे सत्पात्रको दान देता है, दूसरेसे नहीं दिलाता, क्यों कि कहा है- "यदि कोई बहुत जरूरी काम न हो या दैवही ऐसा न हो तो धर्मसेवा, स्वामीकी सेवा और संतान उत्पन्न करना, इन कामों को कौन बुद्धिमान पुरुष दूसरेके हाथ सौंप सकता है?" वह पुरुष ऋषि, यति, मुनि और नगर के मेदसे अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका के भेद से चार प्रकार के संघको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयमें स्थापित करता है । क्योंकि सरस आहार करनेसे २ ल स ग रमणत्तये । ३ सुविद्रो (१) । ४ म विसेसो ५ दिने । ६. व होदि । १७ ब दर १ ब देह पुरस्ादि । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३६६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २६७ 1 दिने दिवसे, अपिशब्दात् सर्वस्मिन् दिने दर्श दानं किं करोतीत्याह । उत्तमं सर्वोत्कृष्टम् इन्द्र कल्पवासिनां देवेन्द्राणां सौधर्मेन्द्रादीनां सुखं शर्मे ददाति वितरति । उक्तं च तथा "सम्मादिट्ठी पुरियो उत्तमपत्तस्स दिष्णदाणेण । उप्पा दिवलोए हवे स महडिओ देवो ॥ १ ॥ मिच्छादिद्धी पुरिसो दाणं जो देदि उत्तमे पत्ते । सो पावइ वर भोए फुड उत्तममोयभूमीसु ॥ २ ॥ ममते मज्झिमभोभूमी पावए भोए। परवड़ जहणभोए जणपतस्स दाणेण ॥ ३ ॥ उत्तम पर्य फलह जहा कोडिलक्ख गुण्णेहिं । दाणं उत्तमपणे फलइ तहा किमित्थ भणिएण ॥ ४ ॥" इति । तथा च सूत्रे 'विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात् तद्विशेषः' | सुपात्रप्रतिमा दिन प्रकार पुण्योपार्जन विधिय्यते । तस्य विधेः विशेषः आदरोऽनादरश्च । आदरेण विशिष्टं पुण्यं भवति । अनादरेण अविशिष्टं पुण्यमिति १ द्रव्यं मकारत्रयरहित तन्दुलगोधूमविकृतिष्टतादिकं शुद्धं त्रास्पृष्टं तस्य विशेषः ग्रहीतुर्मुनेस्तपःस्वाध्यायशुद्धपरिणामादिवृद्धिहेतुः विशिष्टपुण्यकारणम् अन्यथा अन्यादशकारंशम् । 'जो पुण हुंत कणभाई मुणिहिं कुभोयणु दे। जम्मि जम्मि दालिचव पुणि तहु मुंडे ॥ २ । दाता द्विजवृपवाणिज वर्णवर्णनीय स्वस्य विशेषः पात्रेऽनसूयः स्यागे विषादरहितः दातुमिच्छुः दाता ददद्भवत्प्रीतियोगः शुभपरिणामः दृष्टफलानपेक्षकः समगुणसमेतः दाता ३ । पात्रमुत्तममध्यम जघन्यभेदम्, तत्रोत्तर्म पात्रं महाव्रतविराजितं मध्यमपात्रं श्रावकवत पवित्र जघन्यपात्रं सम्यक्त्वैम निर्मलीकृतम्, तस्य विशेषः सम्यग्दर्शनादिशुद्धाशुद्धिः तद्विशेषः तस्य दानस्य फलविशेषस्तद्विशेषः । तथा अतिथिसंविभागस्य पश्चातिचारा वर्जनीयाः । वे के । 'सचिननिक्षेपापिधान परव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः । सचिते I संघके शरीर में शक्ति आती है। नीरोगता वगैरह रहती है और उनके होनेसे ज्ञान ध्यानका अभ्यास, तत्त्वचिन्तन, श्रद्धा, रुचि, पर्वमें उपवास, सीर्थयात्रा, धर्मका उपदेश सुनना सुनाना आदि कार्य सुखपूर्वक होते हैं। तथा ध्यानी ज्ञानी निर्ग्रन्थ मुनिको छियालिस दोषों और १४ मलोंसे रहित दान एक दिन मी देनेसे कल्पवासी देवोंके सौधर्मेन्द्र आदि पदोंका सुख प्राप्त होता है। कहा भी है- "जो समयदृष्टि पुरुष उत्तम पात्रको दान देता है वह उत्तम भोगभूमिमें जन्म लेता है । जो मध्यम पात्रको दान देता है वह मध्यम भोगभूमिमें जन्म लेता है । और जो जघन्य पात्रको दान देता है वह जधन्य भोग भूमिमें जन्म लेता है। जैसे उत्तम जमीन में बोया हुआ बीज लाख करोड़ गुना फलता है वैसे ही उत्तम पात्रको दिया हुआ दान मी फलता है ।" तत्त्वार्य सूत्र में भी कहा है- 'विधि विशेष, द्रव्य, विशेष, दाता विशेष और पात्र विशेषसे दान में विशेषता होती है।' आदरपूर्वक दान देना विधिको विशेषता है क्यों कि आदर पूर्वक दान देनेसे विशेष पुण्य होता है और अनादर पूर्वक दान देनेसे सामान्य पुण्य होता है। मुनिको जो द्रव्य दिया जाये उसमें मय मांस मधुका दोष न हो, चावल गेहूं घी वगैरह सब शुद्ध हो, चमड़े के पात्र में रक्खे हुए न हो । जो द्रव्य मुनिके तप, स्वाध्याय और शुद्ध परिणामों आदिकी दृद्धिमें कारण होता है वह द्रव्य विशेष है। ऐसे द्रव्यके देनेसे विशिष्ट पुण्य बन्ध होता है, और जो द्रव्यं आलस्म रोग आदि पैदा करता है उससे उल्टा पापबन्ध या साधारण पुण्यबन्ध होता है। कहा भी है- 'जो पुरुष घरमें धन होते हुए भी मुनिको कुभोजन देता अनेक जन्मोंमें मी दारिद्र्य उसका पीछा नहीं छोड़ता ।' दाता ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्णका होना चाहिये । पात्रकी निन्दा न करना, दान देते हुए खेदका न होना, जो दान देते हैं उनसे प्रेम करना, शुभ परिणामसे देना, किसी दृष्टफलकी इच्छासे न देना और सात गुण सहित होना, ये दाताकी विशेषता है। पान तीन प्रकारका बतलाया है- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य | सम्यग्दर्शन, व्रत वगैरह का निर्मल होना पात्रकी विशेषता है । इन सब विशेषताओंके होने से दानके फल्में भी विशेषता होती है । अतिथिसंविभाग व्रतके भी पांच अतिचार कहे हैं - सचित केले Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकासिंयानुप्रेक्षा Em ३० कदलीपञेोलुकपत्रपद्मपत्रादौ आधारस्य निक्षेपः मोचनम् १। सचितेन कदल्यादिपत्रादिना आहारस्य अपिधानम् आवरणम् आच्छादनम् २ । अपरदातुर्देयस्यार्पणं मम कार्यं घर्तते स्वं देहीति परण्यपदेशः, परस्य व्यपदेशः कथनं या, अत्र परे अन्ये दातारो वर्तन्ते नाहमत्र दायको बर्ते इति परव्यपदेशः ३ । यद्दानं ददत् पुमान् आदर्श न कुरुते अपरदातृगुणान् न क्षमते वा तन्मात्सर्यम् ४ । अकाले भोजनं अनगारामोम्यकाले दानं क्षुधितेऽनगारे विमर्दकरणं च कालातिक्रमः ५ । इत्यतिथिसंविभागाख्यं तृतीयशिक्षावतं समाप्तम् ॥ ३६५-६ ॥ अथ देशाषकाधिकशिक्षामतं गाथाद्वयेन व्याचष्टेyu- पमाण-कदा सव- दिसणं पुणो वि संवरणं । २६८ इंदिय-विसयाण तहा' पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥ ३६७ ॥ वासादि-कय-प्रमाण दिणे दिणे' लोह-काम-समणङ्कं । सावज्ज-वजण तस्स वउत्थं वयं होदि ॥ ३६८ ॥ [ छाया-पूर्वप्रमाणकृताना सर्वदिशाना पुनः अपि संदरणम् । इन्द्रियविषयाणां तथा पुनः अपि यः करोति संवरणम् ॥ वर्षादिकृतप्रमाणं दिने दिने लोभकामशमनार्थम् । सावयवर्जनार्थं तस्य चतुर्थ व्रतं भवति ॥ ] तस्य पुंसः चतुर्थ शिक्षात्रतं देशावकाशिकाख्यं भवति । तस्य कस्य । यः श्रावकः पुनरपि पूर्वप्रमाणकृताना पूर्व स्मन् दिग्गुणवत्ते प्रमाणविषयकृतानां सर्वदिशानां पूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणदिग्विदिगधोदिगिति दशदिशां दिशानां काष्ठानां संवरणं] संकोचनं करोति शालिप्रतोलिखातिक्रामार्गगृह नदीस से बरकूपमुद्रामयोजनवनोपवनादिपरिमाणं मर्यादां प्रतिदिनं करोतीत्यर्थः । तथा इन्द्रियविषयाणाम् इन्द्रियाणां सेव्या ये विषया गोचराः गम्बाः तेषाम् इन्द्रियविषयाणां स्पर्श ८ रस ५ गन्ध २ व ५ शब्दानां ७ पदार्थानां पुनरपि पूर्वं निषिद्धानामपि पुनः संवरणं संकोचनं निवृत्तिं प्रतिदिनं करोति । दिने दिने दिन I के पत्ते, कमलके पत्ते वगैरह में आहारका रखना १, केले के सचित्त पत्ते वगैरह से आहारको ainer २ दूसरे दाताने जो द्रव्य देनेको रखा है उसे स्वयं दे देना अथवा दूसरेपर दान देनेका भार सौंप देना कि मुझे काम हैं तुम दे देना, अथवा और बहुतसे देनेवाले हैं, अतः मैं देकर क्या करूंगा, इस प्रकार दूसरोंके बहानेसे स्वयं दान न देना, दान देनेवाले अन्य दातासे ईर्षा करना, मुनियोंके भोजनके समयको टालकर अकालमें भोजन करना, अतिथिसंविभाग व्रत के ये पांच अतिचार छोड़ने चाहिये । अतिथिसंविभाग नामके तीसरे शिक्षाव्रतका कथन समाप्त हुआ || ३६५ - ३६६ ॥ अब दो गाथाओंसे देशावकाशिक नामके शिक्षाव्रतको कहते हैं । अर्थ- जो श्रावक लोभ और कामको घटानेके लिये तथा पापको छोड़नेके लिये वर्ष आदिकी अथवा प्रति दिनकी मर्यादा करके, पहले दिग्विरतिव्रतमें किये हुए दिशाओंके परिमाणको भोगोपभोगपरिमाण में किये हुए इन्द्रियोंके विषयोंके परिमाणको करता है उसके चौथा देशावकाशिक नामका शिक्षावत होता है । नामक गुणव्रतमें दसों दिशाओंकी मर्यादा जीवनपर्यन्तके लिये की जाती है, तथा भोगोपभोग परिमाण व्रतमें इन्द्रियोंके विषयोंकी मर्यादा की जाती है । किन्तु देशावका शिक नामके शिक्षा में काली मर्यादा बांध कर उक्त दोनों मर्यादाओंको और भी कम किया जाता है। अर्थात् जिस नगर या ग्राम देशावकाशिक व्रती रहता हो उस नगरकी चार दीवारी, खाई, या अमुक मार्ग अथवा अमुक घर, बाजार, नदी, सरोवर, कुआ, समुद्र, गांव, वन, उपवन वगैरह की मर्यादा बांध कर तथा १ कयाणं २ तह (१) । ३ ब दिन दि (१) । ४ मसग समग्रर्थं । और भी कम भावार्थ - दिग्विरति Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३६८] १२. धर्मानुप्रेक्षा दिन प्रति वासादिकपपमा वर्षादिकृतप्रमाणे वर्षायनर्तुमासपक्षदिवसादिपर्यन्तकृतनाद कृतसंवरणम् अथवा मासादिकसपमाणं वस्वादिचतुर्दशवस्तूनां सप्तदशवस्तुना प्रतिदिन नियमः परिमाण वा मर्यादासंख्या कर्तव्यम् । स च 'संबूल १ गध २ पुप्फा ३ दिससंसा ४ बस्य ५ वाहणं जाण । सचित्तवत्युसंखा ८ रसपाओ , आसर्ग सेज्दा १० ॥णियगाममग्गसंषा ११ उद्दा ११ अहो १३ तिरयगमणपरिमार्ण १ । एदे चंउदसणियमा पढिदिवस होति साबयाणे च ॥ भोजने १ असे २ पाने ३ कुलमादिविलेपने ४ । पुष्प ५ ताम्बूल ६ गीतेषु . नृत्यादौ ८ प्रमचर्यके २॥मान १० भूषण ११ वस्त्रादौ १२ वाहने १३ शयना १४ सने १५। सचित्त १६ वस्तुसंख्यादौ १७ प्रमाण भज प्रत्यहम् ।।' इति । किमर्थ संवरणम् । लोभकामशमनार्थम् , लोभः तृष्णा परवस्तुवाञ्छा कामः कन्दर्पसुखं तयोलोमकामयोः शमनार्थ निरासार्थम् । पुनः किमर्थम् । सावधवर्जनार्थम् , साना हिंसादिकृतपाईं तस्य पापकर्मणः वर्जन निचिः तदर्थ पापव्यापारशमनाय पडिसंदरणं पूर्वकृत संवरणमपि पुनः संवरण प्रतिसैवरणम् । चनुदेशावशिकशिक्षामतस्याति - - - - और वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष या दिनका परिमाण करके वह उतने समय तक उस मर्यादाके बाहर नहीं आता जाता | तथा इसी प्रकार इन्द्रियोंके विषयोंको भोगनेके परिमाणको भी घटाता है । अथवा गाथामें आये 'घासादिक पमाणं' पदका अर्थ 'वर्ष आदिका प्रमाण' न करके 'वन आदिका प्रमाण' अर्थ भी किया जा सकता है क्यों कि प्राकृतमें 'वास' का अर्थ वन भी होता है । अतः तब अर्थ ऐसा होगा कि देशावकाशिक वतीको यस आदि चौदह वस्तुओका अथवा सतरह वस्तुओं का प्रतिदिन परिमाण करना चाहिये । वे चौदह वस्तुएँ इस प्रकार कही है-ताम्बूल, गन्ध, पुष्प वगैरह, वसा, सवारी, सचित्तवस्तु, रस, वाय, आसन, शया, अपने गांवके मार्ग, ऊर्ध्वगमन, अधोगनन और तिर्यम्गमन । इन चौदह बातोंका नियम श्रावकको प्रति दिन करना चाहिये । सतरह वस्तुएँ इस प्रकार है-भोजन, षट् रस, पेय, कुंकुम आदिका लेपन, पुष्प, ताम्बूल, गीत, नृत्य, मैथुन, बान, भूषण, बख, सवारी, शय्या, आसन, सचिस और वस्तु संख्या । इन सतरह वस्तुओंका प्रमाण प्रति दिन करना चाहिये कि मैं आज इतनी बार इतना भोजन करूंगा, या न करूँगा, आदि । यह प्रमाण लोभ कषाय और कामकी शान्ति के लिये तथा पापकर्मसे बचनेके लिये किया जाता है। इसीका नाम देशाषकाशिक व्रत है । यह हम पहले लिख आये हैं कि किन्हीं आचार्योंने देशावकाशिक व्रतको गुणवतोंमें गिनाया है और किन्हीने शिक्षाप्रोंमें गिनाया है । जिन आचार्योने देशाश्काशिकको शिक्षावतोंमें गिनाया है उन्होंने उसे प्रयम शिक्षावत रखा है तथा दिग्विरतिव्रतके अन्दर प्रतिदिन कालकी मर्यादा करके देशकी मर्यादाके सीमित करनेको देशात्रकाशिक कहा है। यही बात 'देशायकाशिक' नामसे भी स्पष्ट होती है। किन्तु इस ग्रन्थमें अन्धकारने देशावकाशिकको चौथा शिक्षावत रखा है तथा उसमें दिशाओंके परिमाणके संकोचके साथ भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका नियम रखा है । ये बातें अन्यत्र हमारे देखनेमें नहीं आई । अस्तु, इस व्रतके भी पाँच अतिचार कहे हैं काम पड़नेपर मर्यादित देशके बाहरसे किसी वस्तुको लानेकी आज्ञा देना आनयन नामक अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर किसीको भेजकर काम कराना प्रेष्यप्रयोग नामका अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर काम करनेवाले मनुष्योको लक्ष्य करके खखारना वगैरह शब्दानुपात नामका अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर काम करनेवाले नौकरोंको अपना रूप दिखाना जिससे वे मालिकको देखता देखकर जल्दी २ काम करें, रूपानुपात नामका अतिचार है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६९ चाराः पच 'आनयन प्रेष्यप्रयोगः २ शब्द ३ रूपानुपात ४ लक्षेपाः ५। एते वर्जनीया इति शिक्षानतं चतुर्थ संपूर्णम् । एतानि चत्वारि शिक्षामतानि भवन्ति । मातृपित्रादिवचनवदपत्यानाम् अणुव्रतानां शिक्षाप्रदायकानि अविनाश कारकाणीत्यर्थः ॥ ३६७-६८ ॥ अथ संक्षेपेण लेखनामुखिन्ति - बारस- वहिं' जुत्तो सलिहणं जो कुणेदि उवसंतो । सो सुर- सोक्खं पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ॥ ३६९ ॥ [ छाया-द्वादशव्रतैः युक्तः सास्वनां यः करोति उपशान्तः । स सुरसौख्यं प्राप्य क्रमेण सौख्यं परं लभते ॥] स पूर्वोद्वादशव्रतधारी श्रावकः सुरसौख्यं सुराणामिन्द्रादीनां सौख्यं सौधर्माच्युतस्य पर्यन्तइन्द्रसामानिकादीनां सुखम् अप्सरोविमानज्ञानविक्रियादिसंभवं खातं शर्म प्राप्य भुक्त्वा क्रमेण अनुक्रमे जघन्येन द्वित्रिभवग्रहणेनोत्कृष्टेन सप्ताष्टभवग्रहणेन षा 'जहयोग दोतिष्णिभवगणेण उकद्वेण समभवगण' इति वचनात् परं सौख्यं निर्वाणसख्यं स्वात्मोपलब्धिridevi शाश्वतम् अनुपमम् इन्द्रियातीतं सातं लभते प्राप्नोति । स कः । यः श्रावकः सखनां मारणान्तिक मरणकाले करोति । सत् सम्यग्लेखना कायस्य कषायाणां च कुशीकरण तनूकरणं तुच्छकरणं सदेखना । कायस्य सल्लेखना बाह्यक्षमा उषावाणी देशना आपण जायकारणानपानत्यजनं कथायाणां च स्वजनम् । शरीरसल्लेखनां कषायाणां साखनो च सं सम्यक् यथोक्तं भगवत्याद्युक्तप्रकारेण लेखनं कृषीकरणं करोति । कीदृक्षः सन् 1 उन्हीं को लक्ष्य करके उनका ध्यान आकृष्ट करनेके लिये पत्थर वगैरह फेंकना पुद्गलक्षेप नामका अतिचार है। ये अतिचार देशावकाशिक प्रतीको छोड़ने चाहिये । जैसे माता पिता के वचन बच्चोंको शिक्षादायक होते हैं वैसे ही ये चार शिक्षावत भी अणुव्रतों का संरक्षण करते हैं ॥ ३६७-३६८ ॥ आगे संक्षेपसे मंलेखनाको कहते हैं । अर्थ- जो श्रावक बारहदों को पालता हुआ अन्त समय उपशम भावसे सल्लेखना करना है, वह स्वर्गके सुख प्राप्त करके कमसे उत्कृष्ट सुख प्राप्त करता है । भावार्थ - शरीर और कषायोंके क्षीण करनेको सल्लेखना कहते हैं । शरीरको क्षीण करना बाल सल्लेखना है और कषायको क्षीण करना अभ्यन्तर सल्लेखना है । यह सल्लेखना मरणकाल आनेपर की जाती है। जब पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावतका पालक श्रावक यह देखता है कि किसी उपसर्गसे या दुर्भिक्ष पड़नेसे, या बुढापेके कारण अथवा रोमके कारण मृत्यु सुनिश्चित है और उससे बचनेका कोई उपाय नहीं है तब वह अपने जीवन भर पाले हुए धर्मकी रक्षा के लिये तत्पर हो जाता है। और राग, द्वेष, मोह, परिग्रह वगैरह को छोड़कर, शुद्ध मनसे अपने • कुटुम्बियों और नौकर चाकरोंसे क्षमा मांगता है तथा उनके हैं। उसके बाद स्वयं किये हुए, दूसरोंसे कराये हुए और अनुमोदनासे किये हुए अपने जीवन भर अपराधोंके लिये उन्हें क्षमा कर देता मरणपर्यन्त के लिये पूर्ण महाव्रत के पापों की आलोचना बिना छल छिद्रके करता है । उसके बाद धारण कर लेता है अर्थात् मुनि हो जाता है और शोक, भय, खेद, अच्छे अच्छे शास्त्रोंकी चर्चा श्रवणसे अपने मनको प्रसन्न रखनेकी कषायको क्षीण करके भोजन छोड़ देता है और दूध वगैरह परही रहता है । फिर क्रमसे दूध Threat भी छोड़कर गर्भजल रख लेता है । और जब देखता है कि मृत्यु अत्यन्त निकट है तब गर्म जलको भी छोड़कर उपवास धारण कर लेता है । और मनमें पश्चनमस्कार मंत्रका चिन्तन १ मरावयेदि । २ मग जो स ( स सं ) करेदि, व सक्षण (१) । ३ व सुक्खं ४ च मोक्खं (१) । स्नेह वगैरह दुर्भात्रों को छोड़कर चेष्टा करता है। इस तरह Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 1 - ३७० ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २७१ ) पूर्वोक्तः पक्षात त्रिगुणवतचतुः शिक्षानतैव शैर्युक्तः संयुक्तः सन् । पुनः किंभूतः । उपशान्तः अनन्तानुबन्ध्य प्रयाख्याम. क्रोधमान माया लोभानामुपशामकः क्रोधादिरहितः रागद्वेषपरिणाम विनिर्मुक्त इत्यर्थः । तस्याः अतिचाराः पट के से इति दुध्यसे । 'जीवितमरणाशंसा मित्रानुरागसुखानुयन्त्रनिदानानि । जीवितस्याशंसा बाच्छा अभलाषः मरमस्य :शंसा छाभिलाषः । कथम् । निश्चितम् अधुवं हेयं चेदं शरीरं तस्य स्थिती आदरः जीविताशंसाभिलाषः १ । रोगादिमीतेfferriशेन मरणे मनोरथो मरणाशंसाभिलाषः २ । चिरन्तनं मित्रेण सह क्रीडानुस्मरणं कथमनेन ममाभीटेन मित्रेण मया सह पालक्रीडनादिकं कृतम् कथमनेन ममाभीष्न व्यसन सहायत्वम् आचरितं कथमनेन समाभीटेन मदुत्सवे संभ्रमो विहितः इत्यायनुस्मरणं मित्रानुरागः ३ । एवं मया यनवस्त्रादिकं भुक्तम् एवं मया हंसतुलोपरि दुकूलाच्छादिता यायt वरदनिताया आलिङ्गितेन सुखं दशयितम् इत्यादिसुखानि मम संपन्नानि अनुभूतप्रीतिप्रकार स्मृतिः वार वारं स्मरणं सुखानुबन्धः पूर्वभुतसुखानुस्मरण मिलार्थः ४ । भोगाकाक्षणेन निश्चितं दीयते ननो यस्मिन् येन वा तन्निदानम् ५ । ॥ ३६९ ॥ इति सलेखनानामकं व्रतं समाप्तम् । पुनः व्रतमाहात्म्यं संटीकते एकं पि वयं विमलं सद्दिट्ठी जर कुणेदि दिढ चित्तो । तो विविह- रिद्धि-जुत्तं इंदसं पावए नियमा ॥ ३७० ॥ [ छाया-एकम् अपि तं चिमले सहृतिः यदि करोति दृढचित्तः । तत् विविध ऋद्धियुक्तम् इन्द्रत्वं प्राप्नोति नियमात् ॥ ] यदि खेत् सङ्घष्टिः सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वसहितः धावकः किंभूतः । दृटन्वितः स्वकीयत्रतरक्षणे निश्चलचित्तः स्थिरमनाः एकमपि वतं द्वादशवतानां मध्ये एकमपि व्रतम् अपिशब्दात् सकलान्यपि व्रतानि करोति संघते धरति 1 की तमाशाला गः केशिन् सेनाविचाराः ते रहितं निरतिचार व्रतमू, तो नहि, नियमात् निश्चयतः इन्द्र सुरस्वामित्वं कल्पवासिदेवानामीशस्य प्राप्नोति लभते । कीदृक्षं तत् । विविधर्द्वियुक्तम्, सामा. निकादिसुर विमान देवाशनाविमुखैः संयुक्तम् अथवा अणिमा विशच्छिद्रेऽपि चक्रवर्तिपरिवार विभूर्ति राजेत् १, महिमा करते हुए शरीर को छोड़ देता है । इसी को सल्लेखना या समाधिमरण कहते हैं । इस समाधिमरणसे श्रावक मरकर नियमसे स्वर्गमें जन्म लेकर वहाँके सुखोंको भोगता है और फिर कमसे कम दो तीन भव और अधिक से अधिक सात आठ भव धारण करके खात्मोपलब्धिरूप अनुपम मोक्षसुखको प्राप्त करता है। इस सल्लेखना के भी पांच अतिचार छोड़ने चाहिये । जो इस प्रकार हैं--समाधि मरण करते समय जीने की इच्छा करना पहला अतिचार है । रोग, कष्ट वगैरह के मयसे जल्दी मरण होनेकी इच्छा करना दूसरा अतिचार है। मित्रोंको याद करना कि अमुक मित्रके साथ मैं बचपन में कैसा खेला करता था, कैसे मेरे मित्रने कष्टमें मेरा साथ दिया, यह सब याद करना तीसरा अतिचार है। 'मैं युवावस्था में कितनी मौजसे खाता पीता था, गुलगुले गद्दोंपर के साथ सोता था इस प्रकार पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना चौथा अतिचार है । 'मैं मरकर स्वर्ग में देव हूंगा. वहां तरह तरहके सुख भोगूंगा' इस प्रकार आगामी सुखोंकी चाह करना पांचवा अतिचार है । इस प्रकार सल्लेखना व्रतका वर्णन समाप्त हुआ || ३६९ | आगे व्रतका माहात्म्य कहते हैं । अर्थ-यदि सम्यग्दृष्टि जीव अपने चित्तको इद करके एक भी निर्दोष व्रतका पालन करता है तो नियमसे अनेक प्रकारकी ऋद्धियोंसे युक्त इन्द्रपदको पाता है | भावार्थ- एक भी व्रतका ठीक ठीक पालन करनेके लिये जीवको सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिये । बिना सम्यतत्रके बता पालन करना बिना बीजके वृक्ष उगाने के समान ही है | अतः सम्यग्दृष्टि श्रावक यदि दिलको मजबूत करके ३ नमार्थं । जो हत्यादि । १ ब जो करदि, जर कुणवि स कुणेषि, विजय कुदि । २ पावर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकैयानुप्रेक्षा [गा ३१ मेरोरपि महन्छरीरे कुरुते २, लघिमा वायोरपि लघुता ३, गरिमा बनशैलादपि गुरुतरा ४, भूमौ स्थित्वा फरेण शिखा रादिस्पर्शनं प्राप्तिः ५, जले भूमाविव गमनं भूमौ जले श्व मजनोन्मजन प्राकाम्य जातिक्रियागुणदल्यसैम्यादिकरणं या प्राकाम्यम् ६, त्रिभुवनप्रभुस्वम् ईशवम् ७, अदिमध्ये वियतीत्र गमनम् अप्रतीघात अदृश्यरूपता अन्तर्षानम् अनेकरूपकरण मूर्तामृताकारकरणं वा कामिल पत्त्रम् ८ । अणिवा १ महिमा २ सविसा ३ गरिमा ४ न्तर्धान ५ कामरूपित्वं ६ प्राप्तिप्राकाम्यवशित्वेशिस्वाप्रतिहतत्वमिति दिक्रियिकाः, हत्यायनेकर्द्धिसंयुक्तम् ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाया भ. औशुभचन्द्रकृतायां टीकायां द्वादशवतव्याख्या समाप्ता ॥ ३० ॥ अय सामायिकप्रतिमो गाथाद्वयेन व्यनकि जो कुणदि काउसग्गं बारस-आवत-संजदो धीरो। णमण-दुगं पि कुणंतोषदु-प्पणामो पसण्णप्पा ।। ३७१ ।। चिंतंतो ससरूवं जिण-बिंब अहव अक्खरं परमं । झायदि कम्म-विवायं तस्स पयं होदि सामइयं ॥ ३७२ ॥ [छाया-या करोति कायोत्सर्ग द्वादशआवर्ससंयतः धीरः । नमनविकम् अपि कुर्वन् चतुःप्रणामः प्रसन्नात्मा ॥ चिन्तयन् स्वस्वरूप जिनबिम्बम् अथवा अक्षरं परगम् । ध्यायति फर्मविपाक तस्य व्रत गति सामाथिकम् ॥ तस्य एकमी व्रतका निरतिचार पालन करे तो उसे इन्दपद मिलना कोई दुर्लभ नहीं । अर्थात् वह गरकर कल्पवासी देवोंका स्वामी होता है जो अणिमा आदि अनेक ऋद्धियोंका धारी होता है । ऋद्धियां इस प्रकार हैं-इतना छोरा शरीर बन्न: समाना के मायके एक छिद्रों कवर्तिकी विभूति रच डाले इसे अणिमा ऋद्धि कहते हैं । सुमेरुसे भी बड़ा शरीर बना लेना महिमा ऋद्धि है । वायुसे भी हल्का शरीर बना लेना लघिमा ऋद्धि है । पहाड़से भी भारी शरीर बना लेना गरिमा ऋद्धि है । भूमिपर बैठकर अंगुलिसे सूर्य चंद्रमा वगैरहको छु लेना प्राप्ति ऋद्धि है । जलमें भूमिकी तरह गमन करना और भूमिमें जलकी तरह डुबकी लगाना प्राकाम्य ऋद्धि है । तीनों लोकोंका खामीपना ईशित्व ऋद्धि है। आकाशकी तरह बिना रुके पहाडमेंसे गमनागमन करना, अदृश्य हो जाना अथवा अनेक प्रकारका रूप बनाना कामरूपित्य ऋद्धि है। इस तरह व्रत प्रतिमा का वर्णन करते हुए बारह व्रतोंका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ ३७० ॥ अब दो गाथाओंसे सामायिक प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो धीर श्रावक बारह आवर्तसहित चार प्रणाम और दो नमस्कारोंको करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक कायोत्सर्ग करता है | और अपने खरूपका, अथवा जिनबिम्बका, अधवा परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका, अथवा कर्मविपाकका चिन्तन करते हुए ध्यान करता है उसके सामायिक प्रतिमा होती है ॥ भावार्थ-सामायिक शिक्षारतका वर्णन करते हुए सामायिकका वर्णन किया गया है। सामायिक प्रतिमा उसका विशेष स्वरूप बतलाया है । सामायिक करनेवाला धीर धीर होना चाहिये अर्थात् सामायिक करते समय यदि कोई परीषह अथवा उपसर्ग आजाये तो उसे सहनेमें समर्थ होना चाहिये तथा उस समय भी परिणाम निर्मल रखने चाहिये । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और परिग्रह वगैरहकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये । प्रथम ही सामायिक दण्डक किया जाता है | उसकी विधि इस प्रकार है-श्रावक पूर्वदिशाकी ओर मुंह करके दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर भूमिमें नमस्कार करे। फिर खड़ा होकर दोनों हाथ नीचे लटकाकर शरीरसे ममत्य छोद कायोत्सर्ग करे । १.कम स ग कुणा । २ म आउत्त। ३ ल म स ग करतो। ४ सामार (?) ई ! सत्तम इस्पाणि । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२] १२. धर्मानुमेक्षा २७३ श्रावकस्य सामायिाख्यं व्रतं सर्वसावरयोगविरतोऽस्मि लक्षणं भरति । तस्य कस्य । यः धावकः करोति विदधाति । के तम् । कायोत्सर्गः कायस्य शरीरादेः उत्सर्ग: ममतापरित्यागः तं कायोत्सर्ग शरीरादेर्ममत्यपरित्यागं करोति । दण्डके पश्चनमस्कारवेलायो कागेत्सर्ग शरीरममत्रपरिहारम् । कथंभूतः सन श्रावकः । द्वादशावतसंयुक्तः, करयोः आवर्तनं परिभ्रमगं आवतः, द्वादश चैते आवर्ताश्च हस्तपरिघ्रममाः । दण्डकस्य प्रारम्भे त्रयः भात्राः पानमस्कारोचारेगादी मनोवचनकायानो संयमनानि शुभयोगवृत्तयः प्रमः आवताः ३, तथा पञ्चनमस्कारसमाप्ती 'दुचरियं बोस्सरामि' अत्र आवर्तास्त्रयः मनो. वचनकायाना शुमतयः प्रयः आवर्ताः ३, चतुर्विशतिस्तवनादौ 'श्रोस्सामि ई जिणवरे' अत्र मनोवचनकायानां शभत्तयः प्रीण्यपरावर्तनानि ३. तथा चशितिस्तवनसमाती सिद्धा सिदि मम दिसंत' अत्र शुभमनोवचनकायापुस्त यत्रीण्यावर्तनानि ३, एवं द्वादशधा भनोयचनकायवृत्तयो द्वादशावर्ता भवन्ति १२ । एवं द्वादशावतेन समेतः, अथवा चतुर्दिक्षु चत्वारः प्रणामाः एकस्मिन् भ्रमणे, एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादशावर्ताः तैर्युक्तः । पुनः कीदक्षः । धीरः धियं बुद्धि राति गृहातीति धीरः भेदज्ञानी वा परीषहोपसर्गसहनसमर्थः । पुनः फीरक्षः । नतिद्वयं कुर्वन् वे अवनती विदधानः, दण्डकस्पादो अन्ते च नतिवयम्, इस्तस्य मस्लके कृत्वा भूमौ नमनै पश्चनमस्कारादों एकायनतिमि संस्पृश्य तथा पतुर्विशसिस्तवनान्ते' द्वितीयावनतिः शरीरनमनम्, वे अवनती कुर्वन् । पुनरपि कीहक् । चतुःप्रगामः चत्वारः प्रणामाः पिरोनतयः यस्य स तथोकः । दण्डकस्यादौ एकः प्रणामः १,मध्ये वो प्रणामौ २, अन्ते एकः प्रणामः । समाई पारद कर सत्सुअगास्तिरीकरण २, तथा चतुर्विंशतिस्तवादी अन्ते च करमुकुलाकृितशिरः करणमेनं २ चत्वारि शिरांसि चतुःशिरोनतयः चतुःप्रगामः । स पुनः कीरक । प्रसजात्मा प्रसन्नः कषायादिदुःपरिणामरहित: भात्मा स्वरूपं यस्य स प्रसमात्मा क्रोधमानमायालोभरागद्वेषसंगादिपरिणामरहितः निर्मलपरिणाम इत्यर्थः । पुनः कीदक्षः। चिन्तयन् प्यायन् अनुभवन् । किम् । खखरूप खशुद्धचिप खशुद्धकपरमानन्दस्वरूपपरमात्मानं चिन्तयन् , अथवा जिनबिम्ब जिनप्रतिमा ध्यायति, अथवा परमाक्षरे ध्यायति चिन्तयति। उक्त च 1 "पणतीस ३५ सोल १६ पण ५ ४ दुग २ मेग १च जवह शाएह । परमेट्रिवाचयाण अण्णं च गुस्वदेसेण ॥ इति । तथा कायोत्सर्गके अन्तमें दोनों हाथोंको मुकुलित करके मन वचन कायकी शुद्धताके सूचक तीन पावर्त करे, अर्थात् दोनों मुकुलित करोंको तीन बार घुमाये । और फिर दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर प्रणाम करे । इस तरह चारों दिशाओंमें कायोत्सर्ग समाप्त करके पुनः दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर भूमिमें नमस्कार करे। ऐसा करनेसे प्रत्येक दिशामें तीन तीन आवर्त और एक एक प्रणाम करनेसे बारह आवर्त और चार प्रणाम होते हैं, तया दण्डकके आदि और अन्तमें दो नमस्कार होते हैं। इस तरह दण्डक कर चुकनेके पश्चात् ध्यान किया जाता है । ध्यान करते समय या तो शुद्ध बुद्ध परमानन्द स्वरूप परमात्माका चिन्तन करना चाहिये या जिनबिम्बका चिन्तन करना चाहिये या परमेष्ठीके वाचक मंत्रोंका चिन्तन करना चाहिये । कहा भी है-- परमेष्ठीके वाचक ३५, १६, ६, ५, १, २, और एक अक्षरके मंत्रका जप करो और ध्यान करो । तथा गुरुके उपदेश से अन्य भी मैत्रोंको जपो और ध्यान करो। सो पैतीस अक्षरका मंत्र तो नमस्कार मंत्र है। 'अईन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुः' यह मंत्र १६ अक्षर का है। 'अरिहन्त सिद्ध ' यह मंत्र छ:अक्षरका है। 'अ सि आ उ सा' यह मंत्र पांच अक्षरका है । 'अरिहन्त' यह मंत्र चार अक्षरका है। 'सिद्ध ' यह मंत्र दो अक्षरका है और 'ओं' यह मंत्र एक अक्षरका है । इन मंत्रोंका ध्यान करना चाहिये । और यदि सामायिकके समय कोई परीषह या उपसर्ग आजाये और मन विचलित होने लगे तो कोंके उदयका विचार करना चाहिये । या वैसे भी ज्ञानावरण आदि कोंके विपाकका चिन्तन करना चाहिये कि शुभ प्रकृतियोंका उदय गुड खाण्ड शर्करा और अमृतके समान Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३७६कर्मविपार्क च्यायति, कर्मगा ज्ञानावरणादीनां विपाका उपयः, शुभप्रकृतीनां विपाक: उदयः गुडमण्डशर्करामृतरूपः अशुभप्रकृतीनाम् उदयः निम्बकाझीरविषहान्दाहरूपः, ते ध्यातिचिन्तयः । श्रीमन्दिरीमरिमा तथा दोसः कः 'दोऊण मुई चेश्यगिहम्मि सगिद्दे व चेझ्याहिमुहो। अम्पत्य सुइपएसे पुरखमुहो सत्रमुहो वा ॥ १ ॥ जिणवयण १ धम्म २ चेइय ३ परमेष्टि ४ जिणालयाण ५ णिच्छ पि । जं बंदणं विया कीरइ सामाइयं त ह ॥२॥ काउसागम्हि ठिदो लाहालाहं च सत्तुमित्त च । संजोगविपजोर्ग तिगकंचण चंद वासं ॥ ३ ॥ जो पस्सइ समभावं मणम्हि सरिदूषण पंचगवकार । वरअपाडिहेरेहिं संजुदं जिणसरूवं वा ॥ ४ ॥ सिद्धसरुवं शायदि अहवा प्राणुतम ससंवेयं । खुणमेकमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ॥ ५ ॥" तथा "तिविहं तियरणसुद्धं मयरहिर्य बुविहठाणपुणरुतं । विशएण कमविसुद्ध किदियम्भ होदि काय, 11-किदिकम्मपि करतो ण होदि किदिकम्माणिज्वराभागी । बत्तीसाणण्गदरं साह्न ठाणे विराहतो " इति सामायिकप्रलिमा, चतुर्थो धर्मः४॥३७१-२॥ अथ प्रोषधप्रतिमाधर्म गाथाषनाह सत्तमितेरसि-दिवसे अवरण्हे जाइऊण जिण-भवणे । किच्चा किरिया-कम्म' उवासं चउयिह गहिये ॥ ३७३ ।। गिह-बाधारं चत्ता रत्तिं गमिऊण धम्म-चिंताएं। पञ्चूसे उद्वित्ता किरिया-कम्मं च कादूर्ण ॥ ३७४ ॥ सस्थम्भासेण पुणो दिवसं गमिऊण बंदणं किच्चा । रतिंदूर्ण तहा पञ्चूसे बंदणं किया ॥ ३७५ ॥ पुजेण-विहिं च किचा पत्तं गहिऊण णवरि ति-विहं पि। भुंजाँविऊण पतं भुजंतो पोसहो होदि ॥ ३७६ ॥ होता है और अशुभ प्रकृतियोंका उदय नीम, कांजीर, विष और हलाहल विषकी तरह होता है । इसे ही विपाक विचय धर्मध्यान कहते हैं । आचार्य सुनन्दि सैद्धान्तिकने भी कहा है-"जो शुद्ध होकर जिन मन्दिरमें अथवा अपने घरमें, अथवा किमी अन्य पवित्र स्थानमें जिनबिम्बके सन्मुख या पूर्वदिशा अथवा उत्तर दिशाकी ओर मुख करके सदा त्रिकाल जिनवचन, जिनधर्म, जिनबिम्ब, परमेष्ठी और जिनालयकी वन्दना करता है वह निश्चयसे सामायिकको करता है । तथा जो कायोत्सर्गसे स्थित होकर लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, संयोग वियोग, तृण कांचन, चन्दन और बिसौलाको समभावसे • देखता है । तथा मनमें पंच नमस्कारको शरण करके आठ उत्तम प्रातिहायोंसे युक्त जिन भगवान्के खरूपका अथया सिद्धखरूपका ध्यान करता है, अथवा एक क्षणके लिये भी निश्चल अंग होकर आरमखरूपका ध्यान करता है यह उत्तम सामायिकका धारी है ।।" और भी कहा है-"मन वचन और कायको शुद्ध करके, मद रहित होकर विनय पूर्वक क्रमानुसार कृतिकर्म करना चाहिये । वह कृतिकर्म दो नमस्कार, बारह आवर्त तथा चार प्रणामके भेदसे तीन प्रकारका है और पर्यासन अथवा खलासन ये दो उसके आसन है ॥ किन्तु यदि साधु बत्तीस दोषोंका निवारण करके कृतिकर्म नहीं करता तो कृतिकर्म करते हुए भी वह कृतिकर्मसे होनेवाली निर्जराका भागी नहीं होता ॥" इस प्रकार सामायिक प्रतिमाका वर्णन समाप्त हुआ || ३७१-७२ ।। भागे छ: गाथाओंसे प्रोषध प्रतिमाको कहते वसत्तम । २ स जायण। ३०म सब किरिया कम्मं काक (ई), किश किरिया। ४ सर्वत्र तुचडचिई। ५ ग गष्ठिथं । ६ मनिता। पकाकर्ग। श्ण। ५. पूजण । म तह य । १० भुजाविक । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + --३७६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २४५ । [ छाया - सप्तमीत्रयोदशीदिवसे अपराह्न गत्वा जिनभवने । कृत्वा क्रियाकर्म उपवासं चतुर्विषं गृहीत्वा ॥ गृहव्यापारं त्यक्त्वा रात्रिं गमयित्वा धर्मचिन्तया । प्रत्यूषे उत्थाय क्रियाकर्म च कृत्वा ॥ शास्त्राभ्यासेन पुनः दिवसे गमयित्वा वन्दना कृत्वा । रात्रिं नीत्वा तथा प्रत्यूषे वन्दनां कृत्वा ॥ पूजनविधिं च कृत्वा पात्रं गृहीत्वा सविशेषं विविधम् अपि । भोजयित्वा पात्रं भुञ्जानः प्रोषधः भवति ॥ ] स प्रोषधः प्रोषधत्रतधारी भवति । स कः । यः सप्तम्यात्रयोदश्याश्व दिवसे अतिथिजनाय पात्राय भोजनं दवा पश्चात् स्वयं भुक्त्वा ततः अपराक्के जिनभवने गत्वा श्री जिनेन्द्र चैत्यालय गत्वा, 'वसतिकायां वा गत्वा ततः क्रियाकर्म कृतिकर्म देववन्दनां कृत्वा, अथवा सिद्धयोगमती कृत्वा दत्त्वा वा उपवास गृमासीत्यर्थः । ततः किं कृत्वा । उपवासं चतुर्विधं गृहीत्वा श्रीगुरुमुखेन अशन पानखाय वाद्यादीना प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् उपोषणशोषकक्षपण गृहीत्वा अङ्गीकृत्य ततः गृहव्यापारं लक्ष्या वस्तूनां क्रयविक्रयलानभोजनकृषिमषिवाणिज्यपशुपालनपुत्रमित्रकलत्राविपालन प्रमुखं सर्वव्यापार गृहस्थकर्म परित्यज्य, सतः रात्रि धर्मचिन्तया गमयित्वा सप्तम्या रात्रिं रजनीं त्रयोदश्या रात्रिं रजनीं मा निर्गम्य नीत्वा । कया । धर्मविन्तया धर्मध्यानचिन्तनेन 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविजयाय धर्म्यम्' तथा पिण्डस्थादस्वरूपत्थरूपातीत धर्मध्यानचिन्तनेन सप्तम्यास्त्रयोदश्या वा रात्रिं गमयति इत्यर्थः । ततः से उद्धता अष्टम्यां चतुर्दश्यां वा प्रत्यूषे प्रभातकाले उत्पास उद्घोभूय निादिकं विहाय ततः च पुनः कृतिकर्म क्रियाकर्म सामायिकचैव्यभक्त्यादिकं कावूण कृला विधाय ततः पुनः शास्त्राभ्यासेन दिवसं गमयित्वा अष्टम्या दिवस चतुर्दश्या दिवसं गमयित्वा नीत्वा । केन | शास्त्राभ्यासेन श्रुवेन वा पठनपाठनश्रवणेन कृत्वा अष्टम्यां चतुर्दश्यां वा उपवासदिवसं निर्गमयतीत्यर्थः । ततः पुनः वन्दनां कृत्वा मध्याहकाले अपराह्नकाले मध्याहिकापराह्निक्वन्दन चैत्यवन्दना सामायिकादिस्त्रवनस्तोत्रादिकृतिकर्म कृत्वा विधाय तसः पुनः तथा धर्मध्यानप्रकारेण रात्रिं नीत्वा अष्टम्याः चतुर्दश्या वा रजनीं निर्गम्य धर्मध्यानेन निर्गमयतीत्यर्थः । ततः पुनः तथा प्रत्यूषे वन्दना कृत्वा तथा पूर्वोकप्रकारेण नवम्याः प्रभाते पूर्णिमाया अमावास्यायाः वा प्रभाते प्रातःकाले वन्दन। चैत्यवन्दनां सामायिकस्तवनादिकं कृत्वा विधाय ततः अभी कृत्य हैं। अर्थ- सप्तमी और तेरस के दिन दोपहरके द्वार कि कर्म करके चार प्रकारके आहारको व्याग कर उपवास ग्रहण करे । और घरका सब कामधाम छोड़कर धर्मध्यान पूर्व रात बिताने । फिर प्रातःकाल उठकर सामायिक आदि क्रियाकर्म करे । और शास्त्र स्वाध्याय पूर्वक दिन बिताकर सामायिक करे | फिर उसी तरह धर्म ध्यानपूर्वक रात बिताने और प्रातः काल होनेपर सामायिक और पूजन वगैरह करके तीनों प्रकारके पात्रोंको पड़गाह कर भोजन करावे फिर स्वयं भोजन करे, उसके प्रोषध प्रतिमा होती है । भावार्थ - प्रोषध प्रतिमाका धारी सप्तमी और तेरस के दिन पात्रको भोजन कराकर फिर खयं भोजन करके दोपहर के समय जिनालय अथवा किसी अन्य शान्त स्थान में जाकर पहले सामायिक करता है । उसके बाद चारों प्रकारके भोजनको त्याग कर उपवासकी प्रतिज्ञा ले लेता है । और वस्तुओंका खरीदना बेचना, स्नान, भोजन, खेती, नौकरी, व्यापार, पशुपालन पुत्र मित्र श्री वगैरहका पालन पोषण आदि सब घरेलु धन्धोंको छोड़कर आज्ञाषिचय, अपायविचध, संस्थानविचय और विपाकविचय नामक धर्मध्यान पूर्वक अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातील नामक धर्मध्यान पूर्वक रात्रि बिताता है। फिर अष्टमी और चतुर्दशीके सबेरे उठकर सामायिक चैत्यभक्ति आदि क्रियाकर्म करता है । और अष्टमी तथा चतुर्दशीका पूरा दिन शास्त्रोंके पठन पाठनमें या सुनने सुनाने में बिताता है । मध्याह के समय तथा सन्ध्या के समय सामायिक आदि करके अष्टमी और चतुदेशीकी रात भी धर्मध्यान पूर्वक बिताता है। फिर नवमी और पूर्णमासी अथवा अमावस्या के प्रभात में dent पहले सामायिक आदि करता है उसके बाद जिन भगवानके अभिषेकपूर्वक अष्ट द्रव्यसे पूजन करता है। फिर अपने घरपर आये हुए जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट पात्रको पड़गाह कर यथायोग्य नवधा Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३७७ पुन: पूजनविधिं कृत्वा जिनम्रपाष्टधानविधि कृत्वा विधाय ततः पुनः पणवरि विशेषेण त्रिविधपात्रं गृहीत्वा जघन्यमध्यमोत्कृष्टपार्थं सम्यग्दृष्टिश्रा व कमुनीश्वरलक्षणं नवरि सप्तदातृगुणन व विधपुष्योपार्जन विशेषेण गृहीत्वा गृहागतं पात्रं प्रति गृह्य भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा त्रिविधपात्रेभ्य आहारदानं दवा इत्यर्थः । ततः पश्चात् भोजनपारण कुर्वन् प्रोषधो भवति प्रोषधव्रतधारी स्यात् सप्तम्यास्त्रयोदश्याश्च दिवसे मध्यावे सुचवा उत्कृष्टप्रोषधवती चैत्यालये गत्वा प्रोषधं गृह्णाति, मध्यमप्रोषधवती तत्संध्यायां प्रोषधं गृह्णाति जधन्यप्रोषथन्नती अडमीचतुर्दशीप्रभाते प्रोषधं गृह्णाति ॥ ३७३-७६ ॥ ar प्रोषध माहात्म्यं गाथाद्वयेनाह एकं पि णिरारंभं उववासं जो करेदि उबसंतो । बहु-भत्र संचिय-कम्मं सो णाणी संवदि लीलाए ॥ ३७७ ॥ [ छाया - एकम् अपि निरारम्भं उपवासं यः करोति उपशान्तः । बहुभवसंचितकर्म स ज्ञानी क्षपति लीलया ॥ ] स ज्ञानी भेदज्ञानी विवेकवान् प्रोषधवत पुमान् बहुभवसंन्दितकर्म क्षपयति बहुभवेषु अनेकमवेषु बहुजन्मसु संचितमुपाजितं यत्कर्म ज्ञानावरणादिकं क्षये नयति । क्या । लीलया क्रीडया सुखेन प्रयासं विना । स कः । यः करोति विदधाति । कम् । एकमपि अद्वितीयमपि, अपिशब्दात् अनेकमपि, उपवासं प्रोषवं प्रोषधोपवासं करोति । कीदृक्षम् । निरारम्भं गृहब्यापारक्रयविक्रयादिसावद्यरहितम् । उक्तं च । 'कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं चिदुः ॥ ३७७ ॥ उवत्रा कुतो औरंभ जो करेदि मोहादो । सोणिय देहं सोसदि ण झडए कम्म-लेसं पि ॥ ३७८ ॥ * [ छाया - उपवासं कुर्वन आरम्मं यः करोति मोद्दात् । स निजदेहं शोषयति न शातयति कर्मलेशम् अपि ॥ ] स प्रोषधोपवासं कुर्वन् शुष्यति कृशतां नयति । कम् । निजदेहं स्वशरीरं ऋशीकरोति, न लाए नोज्झति न जीर्यते न भक्ति पूर्वक उन्हें भोजन कराता है । उसके बाद स्वयं भोजन करता है । यह प्रोषध प्रतिमाके धारक श्रावककी विधि है। इसमें इतना विशेष है कि उत्कृष्ट प्रोषधवती सप्तमी और तेरसके दिन मध्याहमें भोजन करके चैत्यालय में जाकर प्रोषधको खीकार करता है। मध्यम प्रोषधनती सप्तमी और तेरसकी सन्ध्याके समय प्रोषध ग्रहण करता है और जघन्य प्रोषधती अष्टमी और चतुर्दशी के प्रभात में प्रोषध ग्रहण करता है । ३७३-३७६ ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रोषधका माहात्म्य बतलाते हैं। अर्थ-जो ज्ञानी आरम्भको त्यागकर उपशमभावपूर्वक एकमी उपवास करता है वह बहुत भवोंमें संचित किये हुए कर्मको लीलामात्रमें क्षय कर देता है || भावार्थ - कषाय और विषय रूपी आहारको त्यागकर तथा इसलोक और परलोक भोगों की आशा छोड़कर जो एक भी उपवास करता है वह मेदज्ञानी विवेकी पुरुष भव भव संचित कमको अनायास ही क्षय करदेता है, क्यों कि वही उपवास सच्चा उपवास है जिसमें कषाय और विषयरूपी आहारका त्याग किया जाता है। भोजन मात्रका छोड़ देना तो उपवास नहीं है, लंघन है। ऐसे एक उपवास से भी जब भव भव में संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं तब जो प्रोषध प्रतिमा लेकर प्रत्येक पक्षमें दो उपवास करता है, उसका तो कहना ही क्या है ? || ३७७ ॥ अर्थ-जो उपवास करते हुए मोहश आरम्भ करता है वह अपने शरीर को सुखाता है उसके लेशमात्र भी कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती ॥ भावार्थ- जो प्रोषध प्रतिमाधारी अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास ग्रहण करके भी मोहमें पड़कर घर १ व सवदि, ग स्पषिद । २ ग आरंभो । ब शाह व पोसद्द । सचिचं त्यादि । A Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६६४] १२. धर्मानुभेक्षा निर्जरयति । कम् । कमलेशम् अपि एकदेशेन कर्मनिर्जराम् अपिशब्दात साकल्येन न कर्मनिर्जरा करोति, लेशमात्रकर्म न निजरतीत्यर्थः । स कः । य आरम्भं करोति, आरम्भ गृहहहण्यापारक्रयविक्रयकृषिमषिवाणिज्याधुत्यम् आरम्भं करोदिया स लवलेशमात्रकर्म न निर्जरति । कुतः । मोहात् मोहनीयकों कात् , ममत्वपरिणामाद्वा रागद्वेषपरिणामाद्वा । किं कुर्वन् । उपवास प्रोषधं कुर्वन् विदधानः । प्रोषधप्रतिमाधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च प्रोषधोपवासमझीकरोतीत्यर्थः । व्रतेतु प्रोषधोपवासस्य नियमो नास्तीति । तथा वसुनन्दिसिद्धान्तिना प्रोक्तं च । "उमममममजवर्ण तिविहं पोसइविहाणमुदिडं । सगसत्तीए मासम्मि चउसु पञ्चेसु कायर्व १॥ सत्तमितेरसिदिवसम्म अतिहिजणभोयगावसाणम्मि । भोतण भुंजणि तत्थ वि काऊण मुहसुदि॥ २॥ पक्खालिदूण वयण करचलणे जियमिण तत्थेव । पच्छा जिगिंदभवणे गंतण जिर्ण णमसित्ता ॥३॥ गुरुपुरदो रिसदानकोटका दूण पुरसतिसामुदाहिन! यसयिह विहिगा ॥४॥ वायणकहाणुपेहणसिकाखावणचिन्तगोपओगेहिं । णेकूण दिवससेसं अवरण्यित्रंदणं किच्चा ॥५॥ रयणिसमयम्हि लिया काउस्समोण णिययसत्तीए । पडिले हिण भूमि अप्यफमाणेग संथारै ॥६॥णेदूण किन्धि रसिं सुइण जिगालए जियघरे वा । अहबा सयल रति काउस्सग्गेण दुण ॥ ७॥ पसे उट्टेसा वदगविहिणा जिणं गमसिना । तह दब्यमापुज . विणसुदसाहूण काऊण ॥८॥ पुन्वुत्तविहाणेर्ण दियह रत्तिं पुणो वि गमिदूण । पारणदियहम्मि पुणो पूर्व कारुण पुर्व व ५ ॥१॥ गतूण णिययगेहं अतिहिविभागै च तस्य काऊण । जो भुंड तस्स फुट पोसहविहिमुत्तम होदि ॥१०॥ अह उबई तह मज्झिम पि पोसहबिहाणमुहिर्टणवर घिसेसो सलिल छंडिसा बजए सेसं ११|| मुणिऊण गुरुवकचं सावविवक्षिय जियारेभ । जदि कुगदि पि कुजा सेसं पुत्रं व पायव्वं ।। १२॥ आयंबिलणिम्बियही एयहाणं च एवमत च। अंकीरदि तं णेयं जहष्णय पोसहविहार्ण ॥१३॥ सिष्हाणवट्टणगंधधम्मिलकेसादिदेहसंकप्पं । अमण पिरागहेवं विवजए पोसहदिम्मि ॥ १४ ॥" इत्यनुप्रेक्षायां प्रोषधप्रतिमा, पञ्चमो धर्मः ५॥३५८ ॥ अथ सचित्तविरतिप्रतिमा गाथाद्येन भणीति दुकानका काम धाम नहीं छोडता अर्थात् विषय कषायको छोड़े बिना केवल आहार मात्र ही छोड़ता है यह उपवास करके केवल अपने शरीरको सुखाता है, कोंकी निर्जरा उसके लवमात्र भी नहीं होती। यहाँ इतना विशेष जानना कि व्रत प्रतिमामें जो प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है उसमें प्रोषधोपवासका नियम नहीं है। आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिकने प्रोषधोपवासका वर्णन इस प्रकार किया है "उत्तम मध्यम और जघन्यके मेदसे तीन प्रकारका प्रोषधोपवास कहा है जो एक महिनेके चार पोंमें अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये ॥ सप्तमी और तेरसके दिन अतिथिको भोजन देकर स्वयं भोजन करे और भोजन करके अपना मुँह शुद्ध करले || फिर अपने शरीरको धोकर और हाय पैरको नियमित करके जिनालयमें जाकर जिन भगवानको नमस्कार करे ॥ फिर बन्दनापूर्वक सामायिक आदि कृतिकर्म करके गुरुको साक्षीपूर्वक चार प्रकारके आहारको त्यागकर उपासको स्वीकार करे। शास्त्र वांचना, धर्मकथा करना, अनुप्रेक्षाओंका चिन्तना, दूसरोंको सिखाना आदि उपयोगोंके द्वारा शेष दिन बिताकर संध्याके समय सामायिक आदि करे || रात्रिके समय भूमिको साफ करके उसपर अपने शरीरके बराबर संथरा लगाकर अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग करे। कुछ रात कायोत्सर्गपूर्वक बिताकर जिनालयमें या अपने घर शयन करे । अथवा सारी रात कायोत्सर्गपूर्वक बितावे ।। प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक जिनकन्दना करके देव शास्त्र और गुरुकी द्रव्यपूजा और भावपूजा करे || फिर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार वह दिन और रात बिताकर पारणाके दिन पहलेकी ही तरह पूजा करे ।। फिर अपने घर जाकर अतिथियोंको भोजन कराके स्वयं भोजन करे । इस प्रकार जो करता है उसके उत्तम प्रोषधोपवासं होता है। उत्कृष्ट प्रोषधोषवासकी जो विधि है वही मध्यम प्रोषधोपवासकी है। केवल इतना अन्तर है कि मध्यम उपवासमें पानीके सिवाय अन्य सब वस्तुओंका त्याग होता है ।। अत्यन्त आवश्यकता जानकर यदि कोई ऐसा कार्य करना चाहे जिसमें सावधका योग न हो और न आरम्भ करना पड़ता हो तो कर सकता है | शेष बातें उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी तरह जाननी चाहिये ॥ चावल या Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ન स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सचि पते फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीयं । जो ण यै भक्खदि गाणी संचिस-विरदो हवे सो दु ॥ ३७९ ॥ [ छाया - सचित पत्रफलं स्वक् मूलं च किसलयं बीजम् । यः न च भक्षयति झानी राष्वित्तविरतः भवेत. स तु ॥] सोऽपि प्रसिद्धः अपि शब्दात् न केवलमप्रेसरः, श्रावकः सवित्तविरतः सचित्तभ्यः जलफलादिभ्यो वित्तः विगतरागः नितः भवेत् यः ज्ञानी भेदविज्ञान विवेकगुण संपन्नः धात्रकः न भक्षते न अनाति किं तत् । सचिनं चितेन चैतन्येन आत्मना जीवन सह वर्तमान सचितम् । किं तत् । पत्र फलं सचिमनागवली दललिप सर्वे च गा दिन धतूरादिदलपत्रशाकादिकं मानाति, फल सचिराचिर्भटकर्कटिका दिसूक्ष्माण्डनी फल्दा डिमबीजपूरापका कदलीफलादिकम् छली वृक्षवदयादिसचित्तत्वक् नाशि, मूलम् भाईकादिलिम्बादिवृक्ष वली वनस्पतीनां मूलं न खादलि किसलयं पलवं लघुपालवं कुलं नाति, बीज सचितचणमुद्गतिवर्जरिकामा पाढकीजर कुवेर राजीगोधूमत्रीह्यादिकं न भक्षते । उर्फ च । 'मूलफलेशकशाखाकरीरकन्दप्रसुनभीजानि । नामानि योति सोऽयं सवितमिरतो दयामूर्तिः ॥ प्रासु कतिधेत्युच्यते । 'वर्ष पर्क सुर्क अंबिललवणेहिं मीसियं दचं । जं जंतेण य छिष्णं तं राब्वं पासुयं भणियं ॥ इति ॥ ३७९ ॥ जो ण य भक्वेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउ । मुस्स भाजिदस्स हि यत्थि विसेसो जंदो को वि ॥ ३८० ॥ [ गा० ३७९ [ छाया-यः न च भक्षयति स्वयं तस्य न अन्यस्मै युज्यते दातुम् । भुक्कस्य भोजितस्य खलु नास्ति विशेषः यतः कः अपि ॥ ] च पुनः स्वयम् आत्मना यः सचित जलफलदलमूलकिसलयची जादिकं न भक्षयति न अति तस्य सचितविरतश्रावकस्य अन्य पुरुषाय सचित्तं वस्तु भोक्तुं दातुं न युज्यते, दातुं युक्तं न भवति । यतः यस्मात् कारणात् स्वयं कस्य स्वयं सचितादिकं भोजनं कुर्वतः सन्धिनादिक भोजयिष्यतः परान् भोजनं कारयिष्यतः सतः अन्यान् हि स्फुटम् कोsपि विशेषो न, उभयत्र सदोषत्वात् ॥ ३८० ॥ चावलका भाण्ड लेना, या गोरस, इक्षुरस, फलरस और धान्यरससे रहित कोई ऐसी वस्तु लेना जो विकार पैदा न करे, या एक वस्तु खाना अथवा एक बार भोजन करना जघन्य प्रोषध है | प्रोषधके दिन खान, उबटन, इत्र, फुलेल, केशका संस्कार, शरीरका संस्कार तथा अन्य भी जो रागके कारण हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये ।" इस प्रकार पाँचवी प्रोषध प्रतिमा का वर्णन समाप्त हुआ || ३७८ ॥ अब दो गाथाओंसे चित्त विरत प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ- जो ज्ञानी श्रावक सचित्त पत्र, सचित्त फूल, सचित्त छाल, सचित मूल, सचित्त कोंपल और सचित्त बीजको नहीं खाता वह सचित्तविरत है | भावार्थStation सचित्त अर्थात् जिसमें जीव मौजूद हैं ऐसे नागबली के पत्तोंको, नींबू के पत्तोंको, सरसों और चनेके पत्तोंको, धतूरेके पत्तोंको और पत्तोंकी शाक बगैरहको नहीं खाता, सच्चित्त खरबूजे, ककड़ी, पेठा, नीम्बु, अनार, बिजौरा, आम, केला आदि फलों को नहीं खाता, वृक्षकी सचित्त छालको नहीं खाता, सचित्त अदरक वगैरह मूलोको नहीं खाता, या वनस्पतियों का मूल यदि सचित हो तो नहीं खाता, छोटी छोटी ताजी नई कोंपलोको नहीं खाता, तथा सन्चित बने, मूंग, तिल, उड़द, अरहर, जीरा, गेहूं, जो वगैरह बीजोंको नहीं खाता, वह सचित्त व्यागी कहा जाता है। कहा भी है- "जो दयालु श्रावक मूल, फल, शाक, शाखा, कोंपल, वनस्पतिका मूल, फूल और बीजोंको अपक दशामें नहीं खाता वह सचित्तविरत है ।" ॥ २७९ ॥ अर्थ - तथा जो वस्तु वह स्वयं नहीं खाता उसे दूसरोंको देना भी उचित नहीं है । क्यों कि खानेवाले और खिलानेवालेमें कोई अन्तर नहीं है । भावार्थ- सचित्त विरस श्रावको चाहिये कि जिस सचित्त जल, फल, पत्र, मूल, कोरल बीज वगैरहको वह स्वयं नहीं . खाता उसे अन्य पुरुषकोभी खानेके लिये नहीं देना चाहिये। तभी सचित त्यागवन पूर्ण रूप से पलता | क्यों कि स्वयं खाना और अन्यको खिलाना एक ही है । दोनों ही सुदोष हैं ॥ ३८० ॥ १ सचिपति । २ क स ग बीजं, म बी ३ ब जो व ण य । 'नि' त्यति पाठः । ३ 'कु' इत्थरि पाठ । ७ छ म ल ग तदो । ४ म सग सचिशविरको ( ? ) हवे सो वि। i Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUR - - - -२८३] १२. धर्मानुप्रेक्षा जो वजेदि सचित्त दुजय-जीहा विणिज्जियों तेण। दय-भावो होदि किओ' जिण-वयणं पालियं तेण ॥ ३८१॥' [छामा-यः वर्जयति सचित्त दुईयजिला विनिजिता तेन । दयाभावः भवति फुतः जिनवयनं पालित चेन ॥ तेन पुंसा दुर्जयजिहापि दुःखेन जीयते इति दुर्जया सा चासो जिला त्रादुर्जयजिवा दुःखेन जेतुमशक्या रसना, अपिशन्दात् शेषेन्द्रियाणि, निर्जिता जयं नीता वरी नीता इत्यर्थः । तेन दयाभावः कृपापरिगामः कृतः निष्पादितो भवति । तथा तेन पंसा जिनवचनं पालितं सर्वज्ञवाक्यं पालितं रक्षितं भवति। तेन केन । यः सचित्त जलकलदलकन्दवीजादिकं बर्जयति निषेधयति । इत्यनुप्रेक्षा सचित्तविरतिप्रतिमा, षष्ठो धमा व्याख्यातः ६ ॥३८१।। अथ रात्रिभोजनविरतिप्रतिमा गायादवेन जो चउ-विहं पि भोज रयणीएँ व भुंजदे णाणी । ण य भंजाबदि अण्णं णिसि-विरओ सो हवे भोजो ॥ ३८२ ॥ छाया-यः चतुर्विधम् अपि भोज्य रजन्यां नैत्र भुझे ज्ञानी । न च भोजयति अन्य निधि विरतः स भवेत् भोज्यः।।] स भोज्यः भकः श्राद्धः भवेत् आयते । अथया निशि रात्रौ भोज्यात् भुक्तः आहारात् विरतः निवृत्तः रात्रिभुक्तिविरत इत्यर्थः । स कः । यः ज्ञानी सन् ज्ञानवान बुद्धिमान रजन्यो निशायां चतुर्विधमपि भोज्यम् अशनपानखायखाद्यादिक भोजनम् आहारं नैव भुते नैवाति, च पुनः, अन्यं परपुरुष न भोजयति भोजनं नैव कारयति ॥ ३४३ ।। जो णिसि-भुत्ति जदि सो उववासं करेदि छम्मा । संवच्छरस्स मज्झे आरंभं चयदि रयणीए ॥ ३८३॥ अर्थ-जिस श्रावकने सचित्तका त्याग किया उसने दुर्जय जिवाको भी जीत लिया, तथा दयाभाव प्रकट किया और जिनेश्वरके वचनोंका पालन किया ।। भावार्थ-जिक्षा इन्द्रियका जीतना बड़ा कठिन है। जो लोग विषयसुखसे विरक्त होजाते हैं उन्हें भी जिहाका लम्पटी पाया जाता है | किन्तु सचित्तका त्यागी जिल्ला इन्द्रियको भी जीत लेता है । वैसे सचित्तके त्यागनेसे सभी इन्द्रियों वशमें होती है, क्यों कि सचित्त वस्तुका भक्षण मादक और पुटिकारक होता है । इसीसे यधपि सचित्तको अचित्त करके खानेमें प्राणिसंयम नहीं पलता किन्तु इन्द्रिय संयमको पालनेकी दृष्टिसे सचित्त त्याग आवश्यक है। सुखाने, पकाने, खटाई, नमक वगैरहके मिलाने तथा चाकू वगैरहसे काट देनेपर सचिस वस्तु अचित्त हो जाती है । ऐसी वस्तुके खानेसे पहला लाभ तो यह है कि इन्द्रियों काबू होती है। दूसरे इससे दयाभाव प्रकट होता है, तीसरे भगवानकी आज्ञाका पालन होता है, क्योंकि हरितकाय वनस्पलिमें भगवानने जीवका अस्तिता बतलाया है | यहाँ इतना विशेष जानना कि भोगोपभोग परिमाण ब्रतमें सचित्त भोजमको अतिचार मान कर छुडाया गया है, और यहाँ उसका व्रत रूपसे निरतिचार त्याग होता है ।। इस प्रकार छठी सचित त्याग प्रतिभाका वर्णन समाप्त हुआ || ३८१ ॥ अब रात्रिभोजन साग प्रतिमाको दो गाथाओंसे कहते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी श्रावक रात्रिमें चारों प्रकारके भोजनको नहीं करता और न दूसरेको रात्रिमें भोजन कराता है वह रात्रि भोजनका स्वागी होता है। भावार्थरात्रि में खाद्य, खाद्य, लेख और पेय चारोही प्रकारके भोजनको न स्वयं खाना और न दूसरेको खिलाना रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है । वैसे रात्रि भोजनका त्याग तो पहली और दूसरी प्रतिमामें ही हो जासा है क्योंकि रातमें भोजन करनेसे मांस खानेका दोष लगता है, रातमें जीवजन्तुओंका बाहुल्य रहता है और तेजसे तेज रोशनी होने परभी उनमें धोखा होजाता है। अतः सजीवोंका घातभी होता है। परन्तु यहाँ कुत और कारित रूपसे चारोही प्रकारके भोजनका त्याग निरतिचार रूपसे होता है ।। ३८२ ॥ अर्थ-जो पुरुष रात्रिभोजनको छोड देता है वह एक वर्षमें छ: महीना उपवास करता १स विणिज्जिदा। पदयभाषोनिय अजिब(1)। सचित्त विरवी। जो चनपित्यादि। मस रवलीये 14 जादि । लमसा मुंजापन ( म भु जो। कमसग मुयादि । १.रायभनी सम्पर्सि श्लादि। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिमारिकयातुमेक्षा [गा- ३८४[छाया-यः निधिभुक्ति वर्मयति स उपवास करोति षण्मासम् । संवत्सरस्य मध्ये भारम्भ त्यजति रजन्याम् ॥1 भः पुमान् निशि भुमि चतुर्धा रात्रिभोजन वर्जयति नियमेन निषेधयति स पुमान संवत्सरस्य मध्ये घर्षस्य मध्ये षण्मासमुपचास करोति, सस्य षण्मासकृतोएवासफल भवतीत्यर्थः । च पुनः, रजन्या रात्री स रात्रिभोजमविर कः पुमान् भारम्भ गृहव्यापार ऋयविक्रयवाणिज्यादिक खण्डनीपीसनीहीउदकुम्भप्रमाजनीपञ्चसमादिकं त्यजति स रात्रिभोजनविरतः रात्रौ सावधपापच्यापाराविक स्यजति । तथा चोक्त च। अनं पानं खाद्य लेख नानाति यो विभााम् । स ब रात्रिभुकिविरतः सरवन्धनुकम्पमानमनाः ॥,यो निशि भुक्ति मुञ्चति तेनानानं तं च षण्मासम् । संवत्सरस्म मध्ये निर्दिष्टं मुनिवरेपोति । तथा च बारित्रसारे 'रात्रिभवतः रात्री स्त्रीणी भजनं रात्रिभर तत् प्रतयति सेवते इति रात्रिभधानतः दिवा ब्रह्मवारीत्यर्थः । तथा वमुनन्दिना दोस । 'मणवयणकायकदकारिदाणुमोदेहि मेहुणे णबंधा । दिवसम्मि जो विवजइ गुणम्मि सो सावओ टटो ॥ इति रात्रिभुक्तियतप्रतिमा, सप्तमो धर्मः ॥३८३॥ अथ ब्रह्मचर्यप्रतिमा बंभणीति सव्वेर्सि इत्थीणं जो अहिलासंण कुन्वदे णाणी । मण-याया-कायेण य बंभ-वई सो हवे सदओ ॥ ३८४ ॥ जी कय-कारिय-मोयण-मण-यय-काएण मेहुणं चयदि । बंभ-पवजारूढो बंभ-वई सो हवे सदओ ॥ ३८४ *१॥ [छाया-सर्वासा स्त्रीगा यः अमिलाएं न कुरुते ज्ञानी । मनोवाकायेन च वावती स भवेत् सदयः ॥ य: सकारितमोदनमनोचाकायेन मैथुनं खजति । ब्रह्मप्रवज्यारूढः ब्रह्मावती स भवेत् सदयः ॥] स श्रावकः ब्रह्मचर्यप्रतधारी भवेत् । कोहक्षः सदयः । स्त्रीशरीरोत्थजीवदयापरिणतः । उर्फ च ।(लिंगम्मि य इत्थीणं थर्णतरे माहिकक्वदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ सासिं कह होइ पवजा " श्लोकः । 'मैथुनाचरणे मूडा नियन्ते जन्तु है। और रात्रिमै आरम्भका त्याग करता है ।। भावार्थ-जो श्रावक रातमें चारोंही प्रकारके भोजनको ग्रहण नहीं करता वह प्रतिदिन रातभर उपवासी रहता है, क्यों कि चारों प्रकारके आहारको सागनेका नाम उपवास है । अत: वह एक वर्षमें छ: महीना भोजन करता है और छ: महीना उपवासी रहता है, इससे उसे प्रतिवर्ष छ महीनेके उपवासका फल अनायास मिल जाता है । तथा रातमें कूटना, पीसना, पानी भरना, माह लगाना, चूल्हा जलाना आदि आरम्भ करनेसेभी वह बच जाता है । कहाभी है'जो रात्रिमें अन्न (अनाज) पान (पीने योग्य जल वगैरह ) खाद्य ( ला वगैरह ), लेछ ( रबडी वगैरह ) को नहीं खाता वह प्राणियोंपर दया करनेवाला श्रावक रात्रिभोजनका स्वागी है । और भी कहा है-'जो रात्रिमें भोजनका स्याग करता है यह वर्षमें छ: महीना उपवास करता है ऐसा मुनिबरने कहा है। चारित्रसार नामक ग्रन्थमें रात्रि ही स्त्री सेवन करनेका व्रत लेनेवालेको रात्रिभुक्तवत कहा है, अर्थात् जो दिनमें मैथुनका त्याग करता है उसके यह प्रतिमा होती है । आचार्य वसुनन्दिका भी यही कहना है यथा-'जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकारोंसे दिनमें मैथुनका त्याग कर देता है वह छठी प्रतिमाका धारी श्रावक है ।" इस प्रकार रात्रिमुत्रवतका कथन हुआ ॥ ३८३ ॥ अब ब्रह्मचर्य प्रतिमाको कहते हैं। अर्थ-जो ज्ञानी मन, वचन और कायसे सब स्त्रियोंकी अभिलाषा नहीं करता बह दयाल ब्रह्मचर्यव्रतका धारी है | भावार्थ-स्त्रियाँ चार प्रकारको होती है-एक तो देवांगना, एक मानुषी, एक गाय, कुतिया वगैरह तिर्यश्चनी और एक लकडी पत्थर 14गणवयण कायेण (१)। २ या गाथा व म पुस्तकयोरेन। म पुस्तके 'मोयण ति पदं नास्ति। ४सो होति मूलपाठ ५संभवई । जो इत्यादि। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ] १२. धर्मानुभेक्षा २८१ कोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पना लिसंघटपीडिताः 'घाए घाइ असंखे बा' इति । स कः । यः शानवान् अमिलापं वाष्ठा न कुरुते न विदधाति । कासाम् ।.सर्यासो खीणां, देवी मानुषी तिरश्वी काठपाषाणादिघटिताऽचेतना ली इति चतुर्विधानां युवतीनाम्, अमिला न कुछते । केन । मनसा चिन वाचा बचनेन कायेन शरीरेण, च शब्दात् कृतकारितानुमोदनेन च। मनःकृतकारितानुमोदनेन वीणा वाञ्छां न करोति न कारयति नानुमोदयति ३, [वाचा कृतकारतानुमोदनेन स्त्रीणां बाछा न करोति न कारयति नानुमोदयति ३, कायकृतकारितानुमोदनेन स्त्रीणां वाञ्छा न करोति न कारयति नानुमोदयति३ । तथाष्टादशशीलसहनप्रकारेण शीलवत पालयति । अट्ठारससीलसहस्सेस जोगे ३ करणे ३ सम्णा YMS..* --- इंदिय ५ णिहा १० य सवणधम्मो य अण्णोण हय अट्ठारसनीलसहस्सा य ॥ देवी मानुषी तिरष्दी अचेतना चततः स्त्रीजातयः ४, मनोवयनकायैस्ताडिताः भेदाः १२, ते कृतकारितानुमतबिमिः करणः ३ गुणिताः मेदाः ३६, ते पछेन्द्रियैईताः मेदाः १८०, ते दासंस्कारगुणिताः १८.. । तथाहि, गारीरसंस्कार. १, झाररसरागसेना २, हास्यकोडा ३, संसर्गवाञ्छा , विषयसंकल्पः५, शरीरनिरीक्षण, शरीरमण्डन ७, दान ८, पूर्वस्तस्मरणं, मनश्चिन्ता १०.ते दशसंस्कारैर्गुणिताः १८..ते दशकामचेष्टाभिगुणिताः मेदाः १८००० । तथाहि, चिन्ता १, दर्शनेच्छा २षोंग्यासः ३ शरीरे धातिः ४, शरीरदाहः ५, मन्दामिः ६, मूरली ७, मझेन्मलः ८, प्राणसंदेवः ९, शुकमोचनम् १०, इति । तमा .- ---. .. वगैरहसे बनाई गई अचेतन खी आकृति । जो इन सभी प्रकारकी सियोंको मन वचन कापसे और कृत, कारित, अनुमोदनासे नहीं चाहता, अर्थात् वयं अपने मनमें खीकी अभिलाषा नहीं करता, न दूसरेको वैसा करनेके लिये कहता है और न जो किसी स्त्रीको चाहता है उसकी मनसे सरम्झना करता है। न स्वयं खियोंके विषयमें रागपूर्वक बात चीत करता है, न वैसा करने के लिये किसीको कहता है और न जो वैसा करता है उसकी सराहना वचनसे करता है। स्वयं शरीरसे स्त्रीविषयक बांछ नहीं करता, न दूसरेको वैसा करनेका संकेत करता है और न जो ऐसा करता हो उसकी कायसे अनुमोदना करता है । वह ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचर्य अथवा शीतके अठारह हजार भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार है-देवी, मानुषी, तिरश्ची और अचेतन ये स्त्रियोंकी चार जातियां हैं । इनको मन वचन और कायसे गुणा करने पर १२ भेद होते हैं । इन बारइको कृत, कारित और अनुमोदनासे गुणा करने पर ३६ भेद होते हैं । इनको पाँचों इन्द्रियोंसे गुणा करने पर १८० मेद होते हैं । इनको दस संस्कारोंसे गुणा करने पर १८०० अट्ठारहसौ भेद होते हैं। दस संस्कार इस प्रकार हैं-शरीरका संस्कार करना, शृङ्गाररसका रागसहित सेवन करना, हंसी क्रीडा करना, संसर्गकी चाह करना, विषयका संकल्प करना, शरीरकी ओर ताकना, शरीरको सजाना, देना, पहले किये हुए सभोगका स्मरण करना और मनमें भोगकी चिन्ता करना । इन १८०० भेदोंको कामकी दस चेष्टाओंसे गुणा करने पर १८००० अट्ठारह हजार भेद होते हैं । कामकी दस चेष्टायें इस प्रकार है-चिन्ता, दर्शनकी इच्छा, आहे भरना, शरीरमें पीडा, शरीरमें जलन, खाना पीना छोड देना, मूर्छित हो जाना, उन्मत्त होजाना, जीवन में सन्देह और वीर्यपात । इन अट्ठारह हजार दोषोंको टालनेसे शीलके अट्ठारह हजार भेद होते हैं। पूर्ण ब्रह्मचारी इन भेदोंका पालन करता है । जो प्रमचर्य पालता है वह बड़ाही दयाल होता है; क्यों कि सियोंके गुप्तांगमें, स्तन देशमें, नाभिमें और काखमें सूक्ष्म जीव रहते हैं। अतः जब पुरुष मैथुन करता है तो उससे उन जीवोंका घात होता है । आचार्य समन्तभद्ने ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकार कहा है-"स्त्रीके गुप्त अंगका मूल मल है, यह मलको उत्पन्न करनेवाला है, उससे सदा मल कार्तिक ३५ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ?zwadc २८१ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ ना० २८५ 'मुलगी मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि यीभत्सम् । पश्यन्नहमननाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ यो न च याति विका युवतिनकटाक्षवाणविद्धोऽपि । स त्वेव शूरशूरो रणशूरो नो भवेच्छूरः ॥ इति ब्रह्मचर्यप्रतिमा, अष्टमी धर्मः ॥ ३८४ ॥ अधारम्भविरतिप्रतिमां वकुमारभते जो आरंभं ण कुणदि अण्णं कारयदि व अणुमण्णे' । हिंसा - संत-मणो चत्तारंभो हवे सो हुं ॥ ३८५ ।। ' [ छाया यः आरम्भ न करोति अन्यं सम्यति नैव अनुमन्यते । हिंसासंत्रस्तमनाः यतारम्भः भवेत् स खलु ॥] हि निश्चितं स त्यारम्भः असिमपिकृषिवाणिज्याद्यारम्भनिवृत्तिप्रतिमा परिणतः श्रावको भवेत् । स कः । यः आरम्भम् असिमधिकृषिवाणिज्यादिगृहव्यापार प्रारम्भं स्वयम् आत्मना न करोति न विदधाति च पुनः अन्य परपुरुषं प्रेर्यभारम्भ नैव कारयति आरम्भं कुर्वन्तं नरं नानुमोदयति । परपुरुषम् आरम्भं पापकर्म सावच्या दिकं कुर्वन्तं दृष्ट्वा अनुमोदनामनाः हर्षादिकं न प्राप्नोतीत्यर्थः । कीदृक्षः सन् । हिंसासंत्रस्तमनाः हिंसायाः संत्रस्तं श्रासे भयं प्राप्तं मनो यस्य स हिंसासंत्रस्तमनाः हिंसायाः प्रागाविपातात् भयभीतचितः । तथा चोक्तं च । सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योसावारम्भषिनिवृतः । इत्यारम्भविरतिप्रतिमा, नवमः श्रावकधर्मः ९ ॥ ३८५ ॥ अथ परिप्रहविरति प्रतिमां गाथादयेन विहगोति 25 ह जो परिवाई गंध अभंतर बाहिरं व साणंदो । पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥ ३८६ ॥ [ छाया-यः परिवर्जयति प्रन्थम् अभ्यन्तरबाह्य व सानन्दः । पापम् इति मन्यमानः निर्ग्रन्थः स भवेत् ज्ञानी ॥ ] शानी मेदशाभी विवेकसंपनः निर्मन्थः अन्येभ्यः ह्याभ्यन्तरपरिग्रहेभ्यः निःकान्तो निर्गतः निर्मन्यः । निरादयो निर्ग बहता रहता है, दुर्गन्धयुक्त है, देखनेमें बीभत्स है। ऐसे अंगको देखकर जो कामसे विरक्त होता है यह ब्रझचारी है ।” और भी कहा है--'जो युवतियोंके कटाक्षरूपी बाणोंसे घायल होनेपरमी विकारको, प्राप्त नहीं होता वहीं पुरुष शूरवीरोंमें शूरवीर है। जो रणके मैदान में शूर है वह सम्धा शूर नहीं है ]] इस प्रकार आठवी मह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप कहा ॥ ३८४ ॥ आगे आरम्भ स्याग प्रतिमाको कहते 1 है । अर्थ- जो श्रावक आरम्भ नहीं करता, न दूसरेसे कराता है और जो आरम्भ करता है उसकी अनुमोदना नहीं करता, हिंसासे भयमीत मनवाले उस श्रावकको आरम्भ स्यागी कहते हैं । भावार्थहिंसा भयसे जो श्रावक तलवार चलाना, मुनीमी करना, खेती, व्यापार करना इत्यादि आरम्भोको न तो स्वयं करता है, न दूसरे पुरुषोंको आरम्भ करने की प्रेरणा करता है और न आरम्भ करते हुए मनुष्यको देखकर मनमें हर्षित होता है वह आरम्भत्यागी है। कहा भी है-“जो हिंसाका कारण होनेसे खेती, नौकरी व्यापार आदि आरम्भसे विरक्त हो जाता है वह आरम्भस्यागी है ।" इससे यह प्रकट होता है कि आरम्भत्यागी श्रावक जीविका उपार्जनके लिये कोई आरम्भ नहीं करता । किन्तु गृह सम्बन्धी आरम्भका याग उसके नहीं होता । अतः वह स्वयं भोजन बनाकर खा सकता है। इस प्रकार आरम्भत्याग प्रतिमाका स्वरूप कहा ॥ २८५ ॥ आगे दो गाथाओंसे परिग्रहत्याग प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष पाप मानकर अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको आनन्दपूर्वक छोड २ अणुमणे (मणो १) म अणुमण्णो, ख स अणुमध्णे ( ग 'मणो ) । २कम सग हि । १ ब रंभा ॥ जो परिवज्जर इत्यादि । ४ म प स परिवदि । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र -10] १२. धर्मातुप्रेक्षा ગ भाद्यर्थे पञ्चम्याः इति पञ्चमीतत्पुरुषः । स कः । यः अभ्यन्तरं मन्यम्, मिथ्यात्व वेददास्यादिषट्कषायचतुष्टयम् । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्च गुर्दश ॥ इति चतुर्दश प्रकार परित्र परिवर्जयति । च पुनः बाह्य प्रम्यम्, क्षेत्र वास्तु घनं भा द्विपदं च चतुःपदम् । यानशय्यासनं कुर्य भांडं चेति बहिर्दश ॥ इति दशमेदभिन्नपरिग्रहं परिवर्जयति त्यजति २०१ ग्रन्यं प्रनासि अनुबध्नाति संभारमिति ग्रन्थः परिषदः तं परिवर्जयति व्यजति । यः श्रावकः । कीदृक्षः सानन्दः आनन्देन शुद्धचित्र पोत्यानानन्देन सुखेन वर्तमानः सानन्दः । पुनः कीदृक् । परिग्रह पापमिति दुरितमिति मन्यमानः कामन् । सब यो च मोसूण वत्थमे परिगाहं जो वित्रजए सेसं । तत्थ बि मुच्छे ण करेदि जाण सो सावओो जनमो ॥ तथा चाषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः प्रन्य विद्दीना देखिमनुजाः स्वपापतः सन्ति । पुनरभ्यन्तरसंगत्यागी लोकेऽतिदुर्लभो जीवः ॥27 क्रोधादिकषायागामारौद्रयोः हिंसादिपञ्चपापानां भवस्य च जन्मभूमिः दूरोत्सारितधर्मशुद्धः परिप्र६ इति मत्वा दशविधवापरिग्रहाद्विनिवृत्तः स्वस्थः संतोषपरो भवतीति ॥ ३८६ ॥ बाहिर-गंध-विहीणा दलिह मथुत्री सहावदो होति' । अब्भंतर-गंधं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥ ३८७ ॥ [छाया-बाह्यमन्यविहीनाः दरिद्रमनुजाः स्वभावतः भवन्ति । अभ्यन्तरप्रन्थं पुनः न शक्नोति कः अपि त्यक्तुम् ॥ ] स्वभावतः निसर्गतः पापाद्वा दरिद्रमनुष्याः निर्व्रव्यपुरुषाः दरिक्षिणः नरा भवन्ति । कथंभूताः । बाह्यप्रन्थविहीनाः क्षेत्र देता है उसे निर्ग्रन्थ ( परिग्रहत्यागी ) कहते हैं । भावार्थ- जो संसारसे बाँधता है उसे अन्य अथवा ॥ परिग्रह कहते हैं । परिग्रहके दो भेद हैं-अन्तरंग और बाह्य । मिध्यात्व एक, वेद एक, हास्य आदि छै: मोकषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष ये चौदह प्रकारका तो अन्तरंग परिग्रह है, और खेत, मकान, धन, धान्य, सोना, चांदी, दासी, दास, भाण्ड, सवारी ये दस प्रकारका बाह्य परिग्रह है। जो इन दोनोंही प्रकार के परिग्रहको पापका मूल मानकर व्याग देता है तथा व्याग करके मनमें सुखी होता है वही निर्ब्रन्थ अथवा परिग्रहका लागी है। बसुनन्दि श्रावकाचार में भी कहा है- 'जो चख मात्र परिग्रहको रखकर बाकी परिग्रहका व्याग कर देता है और उस वन मात्र परिग्रहमें भी ममत्व नहीं रखता वह नवमी प्रतिमाका धारी श्रावक है।' रत्नाकरंड श्रावकाचार में कहा है- "बाह्य दस प्रकारकी वस्तुओंमें ममत्व छोडकर जो निर्ममत्वसे प्रेम करता है वह स्वस्थ सन्तोषी श्रावक परिग्रहका त्यागी है ||" आशय यह है कि आरम्भका त्याग कर देनेके पश्चात् श्रावक परिग्रहका त्याग करता है। वह अपने पुत्र या अन्य उत्तराधिकारीको बुलाकर उससे कहता है कि 'पुत्र, आज तक हमने इस गृहस्थाश्रमका पाचन किया । अब हम इससे विरक्त होकर इसे छोडना चाहते हैं अतः अब तुम इस भारको सम्हालो और यह धन, धर्मस्थान और कुटुम्बीजनोंको अपना कर हमें इस भारसे मुक्त करो।' इस तरह पुत्रको सब भार सौंपकर वह गृहस्थ बडा हल्कापन अनुभव करता है और मनमें सुख और सन्तोष मानता है। क्यों कि यह जानता है कि यह परिग्रह हिंसा आदि पापोंका मूल है, क्रोध अदि कायोंका घर है और दुर्ष्यानका कारण है। अतः इसके रहते हुए धर्मध्यान और शुक्लध्यान नहीं हो सकते || ३८६ ॥ अर्थबाबा परिप्रहसे रहित दरिद्री मनुष्य तो स्वभावसे ही होते हैं । किन्तु अन्तरंग परिग्रहको छोडने में कोई भी समर्थ नहीं होता || भावार्थ - वास्तव में परिग्रह तो ममत्व परिणाम ही है। धन धान्य वगैरहको तो इस १ क मा दलिहणुआ ( स मणुवा)। २ ब ति २ को वि ४ व निर्ममः । जो अशु हत्यादि । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३८८वासुधनधान्यादिधायपरिग्रहरहिताः । पुनः अनूचः कोऽपि कश्चित्पुमान् न शमोति न समों भवति । किं कर्दम् । छाडयितुं त्या मोक्तुं। कं तम् । अभ्यन्तर ग्रन्थं मिथ्यावादिपरिग्रहम् , इन्द्रियामिलापलक्षणं परिग्रह वा मनोऽभिलाषरूपं स्यक्तुं का समर्थः, अपि तु न । इति परिग्रहविरतिप्रतिमा, श्रावकस्य दशमो धर्मः १० ॥३८७ ॥ अयानुमोदनविरति गाथायेन विकृष्णोति जो अणुमणणं ण कुणदि निहत्थ-कज्जेसु पाव-मूलेसु'। भवियव्वं भावतो अणुमण-विरओ हवे सो दु॥ ३८८॥ . [छाया-यः अनुमननं न करोति गृहस्थकार्येषु पापमूलेषु । भवितव्यं भावयन् अनुमननिरतः भवेत् स तु ॥] स सुधावकः अनुमननविरतः अनुमोदमारहितः अनुमतरहितः धाद्धो भवेत् । स कः । यः गृहस्थकार्येषु गृहस्थानों पुत्रपौत्रादिपरिवाराणा कार्याणि विवाधनोपार्जनगृहनिर्मापणप्रमुखानि तेषु गृहस्थकार्येषु अनुमननम् , अनुमोदनां मनसा वचसा श्रद्धानं चिरूपा न करोति न विदधाति । कथंभूतेषु गृहस्थकार्येषु । पापमूलेषु पापकारणेषु पापानाम् अशुभकर्मणा मुलेषु कारणभूतेषु 1 कीहक् सः । भवितव्य किंचित् भवितव्यं तत् भविष्यत्येव इति भावयन् चिन्तयन् । स श्रावकः माराकानाम्भारम्भावामनुभननाद्विनिता भवति ॥ २८८ ॥ जो पुणे चिंतदि कर्ज सुहासुहं राय-दोस-संजुत्तो। उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कजं ॥ ३८९ ॥ लिये परिग्रह कहा है कि वह ममत्य परिणामका कारण है । उनके होतेही मनुष्य उन्हें अपना मानकर उनकी रक्षा वगैरहकी चिन्ता करता है । किन्तु यदि भाग्यवश बाह्य परिग्रह नष्ट होजाये या मनुष्य जन्मसे ही दरिद्री हो तो भी उसके मनमें परिग्रहकी भावना तो बनी ही रहती है तथा बाह्य परिग्रहके न होने या नष्ट होजाने पर भी काम,क्रोध, आदि अन्तरंग परिग्रह बना ही रहती है । इसीसे आचार्य कहते हैं कि बाह्य परिप्रहके छोडनेमें तारीफ नहीं है, किन्तु अन्तरंग परिग्रहके छोडनेमें तारीफ है | सदा अपरिग्रही वही है जिसके अन्तरंग परिग्रहकी भावना नहीं है । इस प्रकार परिग्रहयाग प्रतिमाका कथन सम्पूर्ण हुआ ॥ ३८७ ॥ आगे, दो गाथाओंसे अनुमोदनाविरतिको कहते हैं । अर्थ-'जो होना है वह होगा ही ऐसा विचार कर जो श्राक्क पापके मूल गाईस्थिक कार्योंकी अनुमोदना नहीं करता वह अनुमोदनाविरति प्रतिमाका धारी है । भावार्थ-परिग्रहत्याग प्रतिमाका धारी श्रावक आरम्भ और परिग्रहको छोडने पर भी अपने पुत्र पौत्रोंके विवाह आदि कार्योकी, वणिज व्यापारकी, मकान आदि बनवाने की मन और वचनसे अनुमोदना करता था, क्यों कि अभी उसका मोह अपने घरसे हटा नहीं था तथा यह घरमें ही रहता था । किन्तु अनुमोदना विरत श्रावक यह सोचकर कि 'जिसका जो कुछ भला बुरा होता है वह होओ' अपने घरकी ओरसे उदासीन होजाता है। उसके पुत्र वगैरह कोई भी गार्ह स्थिक काम करें उससे उसे कोई प्रयोजन नहीं रहता । अब वह घरमें रहता है तो उदासीन बनकर रहता है, नहीं तो घर छोडकर फेस्यालय वगैरहमें रहने लगता है । भोजनके लिये अपने घरका मा पराये घरका जो कोई बुलाकर लेजाता है उसके घर भोजन कर लेता है । तथा ऐसा मी नहीं कहता कि हमारे लिये भोजनमें अमुक वस्तु बनवाना । जो कुछ गृहस्थ जिमाता है, जीम आता है। हौं, भोजन शुद्ध होना चाहिये ।। ३८८ ।। अर्थ-जो बिना प्रयोजन राग द्वेषसे १म पापसेन । २१४। मग उगेण। ४६मणुमयाबरओ । जो नव इस्मादि । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९० ] १२. धर्मामुप्रेक्षा [ः पुनः चिन्तयति कार्य शुभाशुभं रागदोषसंयुक्तः उपयोगेन विहीनं स करोति पापं विना कार्यम् ] स प्रसिद्धः करोति विद्याति । किं तत् । कार्य मिना पार्य साध्ममन्तरेण फलं बिना दुरितं करोति । स कः । यः पुनः चिन्तयति ध्यायति । किं तत् शुभाशुभकार्य पुत्रजन्माशन चूहा करणाध्यापनविवाहादिकं शुभं कर्म परपीडनमारणबन्धादिकं क्षितिजननादि शुभकार्य चिन्तयति । कीदृशं तम उपयोगेन साध्यसाधकत्वेन विहीन रहित निरर्थकमित्यर्थः । कीदृक्षः सन् । रागद्वेषसंयुक्तः शुभेषु कार्येषु रागः प्रीतिः अशुमेषु कार्येषु द्वेषः अभीतिः ताभ्यां संयुक्तः रागद्वेषमय इत्यर्थः । एवंभूतस्य पुंसः अनुमननविनिवृतिः कथं भवतीति । तथा वसुनन्दिना चोक्तं य। 'पुट्टो वायुको अणिययपरे च समि अणुमणणं जो ग कुणदि विवान सो सावओो दहनो ॥' तथा । 'अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वेद्दिकेषु कर्मसु वा । नास्ति ख यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥ इति । इत्यनुमतविरतिप्रतिमा, एकादशो धर्मः ११ ॥ ३८९ ॥ अथ गाथायेोविविरतिप्रति जो व कोडि विद्धं भिक्वायरणेण भुंजदे भोजें । जायण - रहियं जग्गं उद्दिट्ठाहार - विरदो सो ॥ ३९० ॥ [ छाया-यः नवकोटिविशुद्धं मिक्षाचरणेन भुझे भोज्यम् । याचनरहितं भोग्यम् उद्दिष्ठाद्वारविरतः सः [0] भावकः उद्दिष्टाहारविरतः उद्दिष्टः पात्रं वहिश्य निर्मापितः उद्दिष्टः स चासो आहारथ उद्दिष्टाहारः तस्मात् वरिष्टाद्वारात् विरतः निवृत्तः उद्दिष्टाहार विरतः स्वोदिष्टपिण्डोपविशयनवरासन वसत्यादेर्विरतः भवेत् । स कः । यः भुंके याति भक्षयति किं तत् । भोज्यं भोजनमाहारम् अशनपानखाथस्वाद्यादिकं चतुर्विधम् । केन मिक्षाचरणेन आहारार्थ परगृहगममेन परिभ्रमणेन । कीदृक्षं तत् भोज्यम् । नवकोटिविशुद्ध मनोवचनकायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः नवकोटिभिः नवोप्रकारः विशुर्ददोषरहित निर्मलं भोज्य निर्दोषम् । मनः कृतं भोग्यं १, मनः कारितं भोज्यं २, मनोनुम भोज्यं ३, मोज्यं ४, मनकारितं भयं ५, रचनानुमोदित भोज्यं ६ कायकृत भोज्यं ७, कायकारित भोज्यं ८, काना । संयुक्त होकर शुभ और अशुभ कार्योंका चिन्तन करता है वह व्यर्थ पापका उपार्जन करता है ॥ भावार्थ - मनुष्यों में प्रायः यह आदत होती है कि ये जिनसे उनका राग होता है उनका तो वे भला विचारा करते हैं और जिनसे उनका द्वेष होता है उनका बुरा चाहते हैं । किन्तु किसीके चाहने मात्रले किसीका मला पुरा नहीं होता । अतः ऐसे आदमी व्यर्थमें ही पापका संचय किया करते हैं। किन्तु अनुमोदना विरल श्रावक तो आरम्भ और परिहको छोड़ चुका है । घरसे भी उसका बास्ता नहीं रहा । ऐसी स्थितिमें भी यदि वह राग और द्वेषके वशीभूत होकर पुत्रजन्म विवाह आदि शुभ कागोंकी और दूसरोंको पीडा देना मारना पीटना आदि अशुभ कार्योंकी अनुमोदना करता है तो वह यही पाप बन्ध करता है। ऐसे श्रावकके अनुमतित्याग प्रतिमा नहीं हो सकती | वसुनन्दिने भी कहा है- "अपने या दूसरे लोगोंके द्वारा घरेलु कार्मोके बारेमें पूछनेपर या बिना पूछे जो सलाह नहीं देता वह दसवीं प्रतिभाका धारी श्रावक है ।"] रत्नकरंड श्रावकाचार में भी कहा है- "खेती आदि आरम्भकें • विषयमें, धन धान्य आदि परिप्रहके विषय में और इस लोक सम्बन्धी विवाह आदि कार्योंमें जो अपनी अनुमति नहीं देता वह समबुद्धि श्रावक अनुमतिविरत है ।" इस प्रकार अनुमतिविरत श्रावकका कथन समाप्त हुआ || ३८९ | आगे दो गाथाओंसे उद्दिष्ट विरति प्रतिमाका स्वरूप कहते हैं। अर्थजो श्रावक भिक्षाचरण के द्वारा बिना याचना किये, नव कोटिसे शुद्ध योग्य आहारको ग्रहण करता है वह उद्दिष्ट आहारका लागी है । भावार्थ-अपने उद्देश्यसे बनाये हुए भाहारको महण न करने १ छ नम २ बस विशुद्धं । ६ म भोगी । ४ छ म सग चिरओ (१) । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६५ नुमोदित भोज्यं ९ इति नवोत्कर्षप्रकारैः विशुद्धं दोषरहितमित्यर्थः । मनसाऽकृतभोजनमित्यादयः नवप्रकाशः ज्ञातव्याः । अत्र पवित्र सत् १ दातार २ पात्रं च ३ पवित्रं करोति । दाता शुद्धः सन् १ अनं २ पात्रे च ३ शुद्धं करोति । पानं शुद्धं सत् १ दातारम् २ अनं च ३ शुद्धं करोति इति नमा नूतना कोटिः प्रकर्षः तया विशुद्धम् । पुनः कीदृक्षम् । याज्यारहितं मध्यम अन्नं देहीति, आहार प्रार्थनार्थं द्वारोद्घाटन शब्दज्ञापनम् इत्यादियाज्ञया प्रार्थनया रहितम् । पुनः कीदृक्षम् । योग्यं मकारत्रयरहितं चर्मजल घृततैलरामठादिभिरसृष्टं रात्रावकृतं चाण्डालनीचलोकमार्जारशुनका दिस्पर्शरहितं यतियोग्य भोज्यम् ॥ ३९० ॥ जो सावयवय-सुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि । सो अदहि' सग्गे इंदो सुर-सेविदो' होदि ।। ३९१ ॥ [ छाया-यः श्रावकवतशुद्धः अन्ते आराधनं परं करोति । सः अच्युते खर्गे इन्द्रः सुरसेषितः भवति ॥ ] यः श्रावकत्रतशुद्धः श्राषकस्य श्राद्धस्य व्रतैः सम्यग्दृष्टिदर्शनिका तसामायिकपोषघोपवाससचित्त विरतरा त्रिभुक्तिविर लावावाला श्रावक उद्दिष्ट आहारका त्यागी होता है। आहारकी ही तरह अपने उद्देश्यसे बनाई गई वसतिका, आसन, चटाई वगैरह को भी यह स्वीकार नहीं करता, न वह निमंत्रण स्वीकार करता है। किन्तु मुनिकी तरह श्रावकों के घर जाकर भिक्षा भोजन करना है। श्राचकोंके घर जाकर भी वह मांगता नहीं कि मुझे भोजन दो, और न आहार के लिये श्रावकों का दरवाजा खटखटाता है। तथा मुनिके योग्य नव कोटिसे शुद्ध आहारको ही ग्रहण करता है। मन बचन कायके साथ कृत, कारित और अनुमोदनको मिलानेसे नौ कोटियां अर्थात् नौ प्रकार होते हैं । अर्थात् उद्दिष्ट व्यागी जो भोजन ग्रहण करे वह उसके मनसे कृत न हो, मनसे कारित न हो, मनसे अनुमत न हो, वचनसे कृत न हो, वचनसे कारित न हो, वचन से अनुमोदित न हो, कायसे कृत न हो, कायसे कारित न हो, कायसे अनुमोदित न हो। इन्ह उत्कृष्ट नौ प्रकारोंसे युक्त विशुद्ध भोजनको ही उद्दिष्ट विरत श्रात्रक ग्रहण करता है || ३९० ॥ अर्थजो श्रावक व्रतोंसे शुद्ध होकर अन्तमें उत्कृष्ट आराधनाको करता है वह अच्युत स्वर्ग में देवोंसे सेवित इन्द्र होता है । भावार्थ- जो श्रावक सम्यग्दृष्टि, दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त विरत, रात्रिभुक्ति विरत, अब्रह्म विरत, आरम्भ विरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत, और उद्दिष्ट विरत इन बारह व्रतोंसे निर्मल होकर मरणकाल उपस्थित होनेपर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और इन चार आराधनाओं को करता है वह मरकर अच्युत नामके सोलहवें स्वर्ग में जाता है, उससे आगे वग्रैवेयक वगैरह में नहीं जाता, ऐसा नियम है। तथा वहाँ देवोंसे सेवित इन्द्र होता है । श्रीवसुनन्दि सैद्धान्तिक उद्दिष्टाहार विरत प्रतिमाका लक्षण इस प्रकार कहा है- "श्यारहवीं प्रतिमाका धारी उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकारका होता है । एक तो एक वस्त्र रखनेवाला और दूसरा लंगोटी मात्र रखनेवाला || प्रथम उत्कृष्ट श्रावक अपने बाल उत्तरेसे बनवाता है अथवा कैचीसे कतरवाता है। और सावधानी पूर्वक कोमल उपकरणसे स्थान आदिको साफ करके बैठता है । बैठकर स्वयं अपने हाथरूपी पत्र में अथवा बरतन में भोजन करता है । और चारों पत्रोंमें नियमसे उपवास करता है। उसके भोजन की विधि इस प्रकार है- पात्रको धोकर वह चर्या के लिये श्रावकके घर जाता है और आंगन में खड़ा होकर 'धर्मलाभ' कहकर स्वयं भिक्षा मांगता है || तथा भोजन के मिलने और न मिलनेमें सम १ अन्मि । २ म सग सेविमो (१) १. छाति विरहो एवं सावयधम्मो समायन्तोः ॥ जो रगणन्त्रय इत्यादि । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुभेक्षा विरतारम्भविरतपरिग्रहविरतानुमतविरतोदिष्टाहारमिरनवादशमितैः शुरः निर्मलः षष्टिशेषरहितः श्राद्धः अन्ते अवसाने जीवितान्ते मरणकाले था। तथा चोकम् । "उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्मीय तनुविमोचनमाहुः सालेखनामार्याः॥" आराधनं करोति विदधाति सम्यग्दर्शनशानचारित्रतपसा व्यवहारनियमतः बाराधन करोति चिदधाति । कथंभूतम् । परम् उत्कृष्ठम् । स श्रावधर्मशुद्धः पुमान् अच्युतख, इन्द्रो मघवा भवति अच्युतनानि षोडशनाके षोडशस्वर्गे गच्छति । ततः परं नवौशेयकादिषु न याति इति नियमो ज्ञातव्यः । कीकू इन्द्रः । सुरसेवितः सुरैः सामानिकादिदेवत्रन्दैः सेवितः सेव्यः स्यात् । तथा वसनन्दिसिद्धान्तिनोद्दिष्टाहारविरतिप्रतिमालक्षणं प्रोकं च । 'एयारसम्मि ठाणे उबिटो सावओ बुरे विहो । प्रत्येक्चरो पढमो कोबीणपरिग्गही विदिओ ॥१॥ धम्मिल्लाणवणवर्ण कारवि कमरिछुरेण वा परमो । ठाणादिसु पडिलेहदि मिदोधकरगेण पयप्पा ॥२॥ भुजेदि पाणिपत्तम्मि भायणे वा सर्य समुवविठ्ठो । उवषासं पुण णियमा चउचिहै कुणदि पन्चेसु ॥ १॥ पक्वालिलण पत्तं पविसदि परियाए पंगणे. ठिचा। भणिदूण धम्मलाभ जायदि भिक्ख सर्य चेव ॥ ४॥ सिगर्व लाहालाहो अवीणवयणो णियन्तिपूर्ण सदो। अण्णम्हि गिहे पचवि दरिसवि मोणेण कार्य वा ॥ ५॥ जदि अद्धबहे कोई वि भण्णइ एत्थेव भोयर्ण कुष्णह । भोलण जिययभिवर्स तत्यिाच भुंजए सेसं ॥ ६ ॥ अह ण लहइ तो मिक्खं भमिख पियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एपम्दि गिहे जायखो पासुगं सलिल ॥७॥ कि पि पडिमिक्खै भुजिखो सोहिदूण जातेण । पक्खालिदूर्ण परी गच्छेजो गुरुसयासम्मि ॥4॥ अवि एवं ण चएजो कावु रिसिरोहणम्मि चरियाए । पविसितु एयमिक्स परिसिणियमेण ता कुबा ॥ ९॥ गंतूण एरुसमीर्य मुद्धि रखकर, भोजन न मिलनेपर दीनमुख न करके वहाँसे शीघ्र निकल आता है, और दूसरे घर जाता है, तथा मौनपूर्वक अपना आशय प्रकट करता है। यदि कोई भोजन करनेकी प्रार्थना करता है तो पहले ली हुई भिक्षाको खाकर शेष भिक्षा उससे लेकर स्वाता है | यदि कोई मार्गमें भोजन करनेकी प्रार्थना नहीं करता तो अपने पेट भरने लायक भिक्षाकी प्रार्थना करता है और फिर किसी घरस प्रामुक पानी मागकर जो कुछ भिक्षामें मिला है उसे सारधानी पूर्वक शोधकर खा लेता है और पात्रको धोकर गुरुके पास चला जाता है । किन्तु यदि किसी मी घरसे आहार नहीं मिलता तो उपवास ग्रहण कर लेता है। यदि किसीको उक्त विधिसे मोचरी करना न रुचे तो वह मुनियोंके गोचरीका जानेके पश्चात् श्रावकके घरमें जाये, और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो उपवासका नियम लेलेना चाहिये । गुरुके समीप जाकर विधि पूर्वक चार प्रकारके आहारका व्याग करता है । और यमपूर्वक गुरूके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करता है। दूसरे उत्कृष्ट श्रावककी मी यही क्रिया है । इतना विशेष है कि वह नियमसे केशलोंच करता है, पीछी रखता है और हायमें भोजन करता है । दिनमें प्रतिमायोग, खयं मुनिकी तरह भ्रामरीवृत्तिसे भोजनके लिये चर्या करना, त्रिकाल योग अर्थात् गर्मीमें पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, और शीत ऋतु, नदीके किनारे ध्यान करना, सूत्ररूप परमागमका और प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, इन बातोंका अधिकार देश विरत श्रावकोंको नहीं है । इस प्रकार म्यारहवें उद्दिष्टविरत श्रावकके दो भेदोंका कथन संक्षेपसे शास्त्रानुसार किया " समन्तभद्रखामीने भी कहा है-"घर छोड़कर, जिस वनमें मुनि रहते हैं वहाँ जाकर, जो गुरुके समीप प्रतोंको ग्रहण करता है, और भिक्षा भोजन करता है, तपस्या करता है तथा खण्ड पक्ष रखता है वह उत्कृष्ट श्रावक है ।" चारित्रसार नामक ग्रन्यमें लिखा है-'वदिष्ट त्यागी अपने उद्देशसे बनाये हुए भोजन, उपधि, शम्या, वसतिका आदिका त्यागी होता है । वह एक धोती रखता है, मिला भोजन करता है और बैठकर अपने हापमें ही भोजन करता है । रातमें प्रतिमायोग वगैरह सप करता है किन्तु आतापनयोग वगैरह नहीं करता । अणुवती और महावती यदि समितियोंका --- - --- -- - -- - -- -- --- -- Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ स्वामिकार्तिकेयानुभेक्षा [गा ३९५परमाणे चउदिई विहिगा । गहिदूण तदो सठ आलोवेजो पयत्तण ॥ १०॥ एमेव होदि विदिओ गवार विसेसो पुगे पाठन करते हैं तो वे संयमी कहे जाते हैं । और बिना समितियों के वे केवल विरत है। जैसा कि वर्गणाखण्ड के बन्धाधिकारमें लिखा है-'संयम और विरतिमें क्या भेद है ! समिति सहित महानतो और अणुव्रतोंटो संगम करते हैं और संयम दिना महान और अणुव्रत विरति कहे जाते हैं । उक्त ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे ( सब श्रावकाचारोंमें दार्शनिकसे लेकर उद्दिष्टत्याग तक ग्यारह प्रतिमाएं ही बतलाई है ) दर्शनिक से लेकर शुरु की छः प्रतिमात्राले श्रावक जघन्य होते हैं, उसके बाद सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमावाले श्रावक मध्यम होते हैं । और अन्तिम दो प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट होते हैं !' चारित्रसारमें श्रावक धर्मका विस्तारसे वर्णन किया है जिसे संस्कृत टीकाकारने उद्धृत किया है । "अतः वह संक्षेपमें दिया जाता है-गृहस्थलोग तलवार चलाकर, लेखनीसे लिखकर, खेती या व्यापार आदि करके अपनी आजीविका चलाते हैं, और इन कार्योंमें हिंसा होना संभव है अतः वे पक्ष, चर्या और साधनके द्वारा उस हिंसाको दूर करते हैं । अहिंसारूप परिणामोंका होना पक्ष है। गृहस्थ धर्मके लिये, देवताके लिये, मंत्र सिद्ध करने के लिये, औषधके लिये, आहारके लिये और अपने ऐशआरामके लिये हिंसा नहीं करूंगा । यही उसका अहिंसारूप परिणाम है । तथा जब वह गाहस्थिक कार्यों में हुई हिंसाका प्रायश्चित्त लेकर सब परिग्रहको छोड़नेके लिये उद्यत होता है और अपना सब घरद्वार पुत्रको सौंपकर घर तक छोड़ देता है उसे चर्या कहते हैं । और मरणकाल उपस्थित होनेपर धर्मभ्यानपूर्वक शरीरको छोड़ने का नाम साधन है। इन पक्ष, चर्या और साधनके द्वारा हिंसा आदिसे संचित हुआ पाप दूर हो जाता है । जैनागममें चार आश्रम अथवा अवस्थायें कही है-ममचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक । ब्रह्मचारी पाँच प्रकारके होते हैं-उपनय ब्रह्मचारी, अवलम्ब अमचारी, दीक्षा ब्रह्मचारी, गूढ ब्रह्मचारी, और नैष्टिक ब्रह्मचारी। जो ब्रह्मचर्यपूर्वक समस्त विद्याओंका अभ्यास करके गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे उपनय ब्रह्मचारी हैं। क्षुल्लक रूपसे रहकर आगमका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अबलम्ब ब्रह्मचारी हैं । बिना किसी पेशके आगमका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अदीक्षा ब्रह्मचारी हैं। जो कुमारश्रमण विद्याभ्यास करके बन्धुजन अथवा राजा आदिके कारण अथवा स्वयं ही गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं वे गूढ अमचारी हैं। जो चोटी रखते हैं, भिक्षा भोजन करते हैं और कमरमें रक्त अथवा सफेद लंगौटी लगाते हैं वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । इज्या, वार्ता, दान, खाध्याय, संयम और तप ये गृहस्थके षट् कर्म हैं । अर्हन्त देवकी पूजाको इज्या कहते हैं । उसके पाँच भेद हैं-नित्यपूजा, चतुर्मुग्यपू ना, कल्पवृक्षपूजा, अष्टाहिकपूजा और इन्द्रध्वजपूजा । प्रति दिन शक्तिके अनुसार अपने घरसे अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालयमें जिनेन्द्र देवकी पूजा करना, चैत्य और चैल्यालय बनवाकर उनकी पूजाके लिये गांव जमीन जायदाद देना तथा मुनिजनोंकी पूजा करना नित्यपूजा है । मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं, क्यों कि चतुर्मुख बिम्ब विराजमान करके चारोंही दिशामें की जाती है । बड़ी होनेसे इसे महापूजा भी कहते हैं। ये सब जीवोंके कल्याण के लिये की जाती है इसलिये इसे सर्वतोभद्र भी कहते हैं । योचकोंको उनकी इच्छानुसार दान देने के पश्चात् चश्यती अईन्त भगवानकी Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९१] १२. धर्मानुप्रेक्षा I य नियमेण । लोचं धरिज पेच्छे भुजिजो पाणिपत्त हि ॥ ११ ॥ दिणपश्चिमवीरचरियासियाजोगे णत्थि महियारो। सितरहस्साणं अजय देसविरदानं ॥ १२ ॥ उद्द्द्विपिंडविरदो दुवियप्पो सावओ समासेण । एयारसम्म ठाणे भणिभो सानुसारेण ॥ १३ ॥ तथा समन्तभद्रेणोक्तं च । 'गृहतो सुनिनमिवा गुरूपकण्ठे प्रतानि परि भैक्ष्याशन स्वपस्यक्षुत्कृष्ट श्रेयखण्डधरः ॥' 'एकादशके स्थाने छुत्कृष्टः श्रावको भवेद्विविधः । वस्त्रैकश्वरः प्रथमः कौपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥ २ ॥ पत्र बोपविश्य पाणिपुटे ॥ ३ ॥ वीरचर्या च सूर्यप्रतिमात्रैकाल्ययोगनियमच । सिद्धान्तरहस्यादिष्यध्ययनं नास्ति देशाविरतानाम् ॥ ४ ॥ आधास्तु षड् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयम् । शेत्रौ द्वावुत्तमावुसी जैनेषु जिनशासने ॥ ५ ॥ चारित्रसारे "स्त्रोटिपिण्डोपधिशयन वरासनादेर्विरतः एकशाटकघरो भिक्षाशनः पाणिपात्रपुटेन उपविश्य भोजी रात्रिप्रतिमादितपःसमुद्यतः आतपनादियोगरहितो भवति । अणुवतिमहा वतिनी समितियुक्तौ संयमिनौ भवतः समितिं विना विरतो' । तथा चोक वर्गणाखण्डस्य बन्धनाधिकारे । 'संजमविरईण को मेदो । ससमिदिमहम्वयाणुत्रबाई संजमो, समिहीहिं विणा महव्वयाणुष्याई विरदी" इति । असिमधिकृषिवाणिज्यादिभिः गृहस्थाना हिंसासंभवै पक्षचर्यासाधकत्वैहिंसाऽभावः क्रियते । तत्राहिंसापरिणामत्वं पक्षः १ | धर्माचं देवतार्थं मन्त्रसिद्ध्यर्थम् औषमार्थम् आहारार्थं स्वभोगार्थं च गृहमेधितो हिंसा न कुर्वन्ति । हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्धः सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्मं च श्रंश्याय समर्प्य यायगृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति २ । सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकम्प - नोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य निहितलोकाश्रमनसः शरीर, परित्यागः साथकत्वम् ३ । एवं पक्षादिभिखिमिर्हिसाधुपचितं पापमपगतं भवति । जैनागमे आश्रमाचत्वारः । उक्तं चोपासकाध्ययने 'ब्रह्मचारी १ गृहस्थ २ वानप्रस्थ ३ भिक्षुकः ४ । इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमानाद्विनिःसृताः ॥' तत्र ब्रह्मचारिणः पचविधाः । उपनयावलम्बीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन । तत्र उपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा [ गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति १ । अवलम्ब वारिणः करूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति २ अदीक्षावह्मचारिणः वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा ] गृहधर्मनिरता भवन्ति ३ । गूढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणाः सन्तः स्त्रीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिः दुस्साहपरपरात्मना नृपादिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहबासरता भवन्ति ४ । नैष्ठिकन्नह्मचारिणः समाधिगतशिखालक्षित शिरोलिना गणधर सूत्रोपयतिशेलिब्राः शुलर कवसन खण्डकॉपीनलक्षित कटीलिङ्गाः जातका भिक्षातयो भवन्ति देवता चैनपरा भवन्ति ५ । गृहस्थस्य ज्या १ वार्ता २ ० ३ स्वाध्यायः ४ संयमः ५ तपः ६ कर्माणि भवन्ति । तत्र अर्हत्पूजा इज्या, स्रा च नित्यमहः १ चतुर्मुखं २ कल्पवृक्षः ३ आष्टाकिं ४ ऐन्द्रध्वजः ५ इति । तत्र नित्यमहः निर्त्य यथाशकि जिनगृहेभ्यो निजगृहाद्गन्धपुष्पाक्षतादिनिवेदनं चैत्यचैत्यालयं कृत्वा ग्रामक्षेत्राचीना शासनदानं मुनिजनपूजनं च भवति १ । चतुर्मुख फुटबद्धः किममाणा पूजा सैव महामहः सर्वतोभद्र इति १ । कल्पवृक्षः अर्थिनः प्रार्थितार्थैः संतर्प्य चक्रवर्तिभिः क्रियमाणो महः ३। आष्टाक्किकं प्रतीतम् ४। ऐन्द्रः इन्द्रादिभिः क्रियमाणः बलिनपनं संध्यान्त्रयेऽपि जगत्रयस्वामिनः पूजा 4 जो पूजन करता है उसे कल्पवृक्ष पूजा कहते हैं । अष्टाह्निकापर्व में जो जिनपूजा की जाती है वह आष्टाक पूजा है । इन्द्रादिकके द्वारा जो जिनपूजा की जाती है वह इन्द्रध्वज है। असि (तलवार) मषि (लेखनी ) कृषि ( खेती ) वाणिज्य (व्यापार) और शिल्प ( दस्तकारी ) के द्वारा न्यायपूर्वक धन कमानेको बार्ता कहते हैं । दानके चार भेद हैं- दयादान, पात्रदान, समदान और सकलदान । दयाके पात्र प्राणियों पर दया करके दान देना दयादान है । महातपस्वी साधुओंको नवधा भक्तिपूर्वक निर्दोष आहार देना, शास्त्र तथा पीछी कमंडलु देना पात्रदान है। गृहस्थोंमें श्रेष्ठ साधर्मी भाईको कन्या, भूमि, सोना, हाथी, घोड़ा, रथ वगैरह देना समदान है। अपने पुत्र अथवा दत्तकको घरकापूरा भार सौंपकर गृहस्थीके त्याग करने को सकलदान कहते हैं, और इसीका नाम अन्वयदान भी है। ये दानके भेद हैं। तत्त्वज्ञानके अध्ययन अध्यापनको स्वाध्याय कहते हैं । पाँच अणुव्रतोंके पालन करनेका नाम संयम है । और बारह प्रकारका तप होता है । इन षट्कर्मोंका पालन करनेवाले गृहस्थ दो १ प्रती 'अति' इति पाठः । १ मत 'अरिति पाठः । कार्तिके० ३७ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३९९मिवेककरणे ५। पुनरप्येषां विकल्पा: अन्येऽपि पूजाविशेषः सन्तीति । चार्ता असिमषिवृषिवाणिज्यादिशिस्पिकर्ममिविशुद्धत्या अथोपार्जमामिति । दलिः दया १ पात्र २ सम सकलमेदा ४ चतुर्विधा । तत्र दयादत्तिः अनुकम्पया अनुपालेभ्यः प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिमिरभयदानम् । पानदत्तिः महातपोधनेभ्यः प्रतिग्रहार्चनादिपूर्वक निरवद्याहारदानं ज्ञानसंयमोपकरणादिदाम च । समदत्तिः खसमनियाय मित्राय निस्तारकोत्तमाय कन्याभूमिसुवर्णहरूत्यश्वरपरत्नादिदान, खसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानम् ३ । सकलदत्तिः आत्मीयवसतविस्थापनार्थ पुत्राय गोबजाय वा धर्म धनं च समर्प्य प्रवानमन्वयदत्तिश्च सेव । तथा चोक । " उप्पजइ दवं तं कायध्वं च युद्धिर्वतेण । डम्भायगय सम्बं पढमो भागो हु धम्मस्स ॥१॥ यीओ भागो गेहे दायन्धो कुटुंबपोसणत्येण । तदो भागो भोगे चउत्थमो सयमवग्गम्हि ॥ २॥ सेसा जे बे भागा ठायदा होति वे वि पुरिसेण । पुजामहिमाकजे अहया कालावकालरस ॥३॥" इति । स्वाध्यायः तत्वज्ञानस्य अध्ययनमध्यापन स्मरण च । संयमः पश्चाणुनतप्रवर्तनम् । तपः अनशनादिद्वादशविधानुडानम् । इति भार्यषर्भनिरता गृहस्था द्विविधा भवन्ति । जातिक्षत्रियातीर्थक्षत्रियाश्चेति । तत्र जातिक्षत्रियाः क्षत्रिय १ ब्राह्मण २ वैश्य ३ र ४ मेदामानिया ! दीर्थक्षत्रिपाः वनीवकिपादनेकपा नितान्ने २ । वानप्रस्थाः अपरिगृहीतजिनरूपा वनखण्डधारिणो निरतिशयतपःसमुद्यता भवन्ति । भिक्षवो जिनरूपधारिणस्ते बहुधा भवन्ति । अनगारा पतयो मुनय ऋषयश्चेति । तत्र अनगाराः सामान्यसाधव उच्यन्ते। यतयः उपशमक्षपकरेण्याहता भण्यन्ते । मुनयः अवधिमनःपर्ययज्ञानिनः कैवलिनश्च कथ्यन्ते । ऋषयः ऋद्धिं प्राप्ताते चतुर्विधाः, राजब्रह्मदेव परमऋषिभेदात् । तत्र राजर्षयः विक्रियाक्षीणद्धिप्रामा भवन्ति ,, ब्रह्मर्षयः मुख्यौषभ्यर्दियुताः कीर्त्यन्ते २, देवर्षयः गगनगमनसिंपन्नाः पश्यन्ते ३, परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगधन्ते ४ । अपि च वृत्तम् । 'देशाप्रत्यक्षवित्केवलभृदिह मुनिः स्यादृषिः प्रोद्गतदिरात श्रेणियुम्मोऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुएकः । राज्जा ब्रह्मा च देवः परम इति ऋषिर्वि क्रियाक्षीणशक्ति-प्राप्तो दुखौषधीशो बियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ॥३९१॥ इति श्रीखामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायां शुभचन्द्रदेवविरचितटीकाया श्रावकधर्मव्याख्यानं समाप्तम् ॥ अथ यतिधर्म व्याचष्टे जो रयण-त्तय-जुत्तो खमादि-भावहि परिणदो णिनं । सव्वत्थ वि मज्झत्थो सो साहू भण्णदे धम्मो ॥ ३९२॥ [छाया-यः रत्नत्रययुक्तः क्षमादिभावैः परिणतः नित्यम् । सर्वत्र अघि मध्यस्थः स साधुः भण्यते धर्मः ॥] स साधुः, साश्यति रत्नत्रयमिति साधुः, धर्मः भण्यवे कथ्यते, कारणे कार्योपचारात् । स कः। यः नित्यं सदा निरन्तर रत्नत्रययुक्तः व्यवहारनिधयमेदाभेदसम्यग्दर्शनज्ञानाचारित्रः सहितः। पुनः कीदक्षः। क्षमादिभावः परिणतः उत्तमक्षमादि प्रकारके होते हैं -जातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय । जातिक्षत्रिय क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके. भेदसे चार प्रकारके होते हैं । और तीर्थक्षत्रिय अपनी जीविकाके भेदसे अनेक प्रकारके होते है। जो खंडवल धारण करते हैं और तपस्थामें लगे रहते हैं वे वानप्रस्थ कहे जाते हैं। जिनरूपके धारकोंको भिक्षु कहते हैं । ये भिक्षु अनेक प्रकारके होते हैं । सामान्य साधुओंको अनगार कहते हैं। जो साधु उपशम अथवा क्षपक श्रेणिपर आरूढ होते हैं उन्हें यति कहते हैं । अवधिज्ञानी, मनःपर्ययझानी और केवलज्ञानियोंको मुनि कहते हैं । ऋद्धिधारी साधुओंको ऋषि कहते हैं। ऋषिके चार भेद हैं-राजर्पि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया ऋद्धि और अक्षीण ऋद्धिके धारी साधुओंको राजर्षि कहते हैं । बुद्धि ऋद्धि और औषध ऋद्धि धारिओंको ब्रह्मर्षि कहते हैं। आकाशगामिनी ऋतिके धारकोंको देवर्षि कहते हैं, और केवलज्ञानियोंको परमर्षि कहते हैं। इस प्रकार श्रावक धर्मका निरूपण समाप्त हुआ || ३९१ | अब मुनिधर्मको कष्ठते हैं। अर्थजो रत्नत्रयसे युक्त होता है, सदा उत्तम क्षमा आदि भावोंसे सहित होता है और सबमें मध्यस्थ रहता है वह साधु है और वही धर्म है ।। भावार्थ-जो व्यवहार और निश्चयरूप सम्यग्दर्शन, सम्पग्हान १५ भाषण । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९४] १९. धर्मानुप्रेक्षा यशप्रकारे परिणति प्रातः । पुनः विभूतः। सर्वत्र मध्यस्थः, सर्वेषु सुख दुःख तृणे रत्ने लाभालामे शत्रौ मिचे मध्यवः उदासीनः समचित्तः । रागद्वेषरहितः असौ साधुः यतीश्वरः धर्मों मण्यते ॥ ३९२ ॥ अथ दशप्रकारं धर्म विष्पोति सो चेव दह-पधारो खभादि-भावहिं सुपसिरहे। ते पुणु भणिजमाणा मुणियब्वा परम-भत्तीए ॥ ३९३ ॥ [छाया--स चैव दशप्रकारः क्षमादिभावैः सुप्रसिद्धः । ते पुनर्भण्यमामाः ज्ञातव्याः परमभक्त्या ॥] स एव भतिधमः दशप्रकारः दशमेदः । कैः । ममादिभाषैः, उनमक्षमामाईवार्जवसत्यशीचर्सयमतपस्त्यागाकिचन्यायायोख्यैः परिणामः परिणतः । कयंभूतस्तैः । सौख्यसारीः सौख्यं शर्म सारं श्रेष्ठ येषां येषु येभ्यो वा ते सौख्यसारास्तैः सौख्यसारैः सौख्येन शर्मणा वर्गमुक्त्यादिजेन सारैः श्रेष्ठः। अथोत्तरार्धन दशधर्मस्य दशगाथासूत्रेण व्याख्यायमानस्य पातनिर्य प्रतनोति । ते पुनः दश धर्माः दशविधधर्माः भाणिखमाणा काध्यमानाः मन्तम्याः सातम्याः। क्या । परमभक्त्या परमधर्मानुरागेण श्रेष्ठभजनेन ।। ३९२ ॥ अथोत्तमक्षमाधर्ममाचष्टे कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिएहि कीरमाणे वि । अवसग्गे वि रहे सस्स स्खमा णिम्मला होदि ॥ ३९४ ॥ [छाया-क्रोधेन यःन तप्यते सुरनरतिर्यग्भिः क्रियमाणे अपि । उपसगै अपि रौ तस्य क्षमा निर्मला भवति॥ तस्स मुनेः क्षमा क्षान्तिनिर्मला भवति, उत्तमक्षमा धर्मः स्यात् । उनमग्रहणं ख्यातिपूजालामादिनित्यर्थ तपस्येवमनिस भव्यते । उत्तमक्षमा उत्तममार्दवादिष्विति । तस्य कस्य । यो मुनिः क्रोधेन कोपेन कृत्वा म तप्यति तापं संताप न गच्छति न चलते इत्यर्थः । क सति । रौदे घोरे उपसर्गेऽपि चतुर्विधोपसमें अपिशब्दात् न केवल अनुपसर्गे । कीदो। क्रियमाणे निष्पाघमाने अपिशब्दात् श्रचेतनेनानध्यवसायेन च । केः क्रियमाणे उपसमें । सूरनरसियेभिः सुराव नरामतिर्वबच सुरलरतिर्यचः तैः ॥ यथा श्रीदत्तमुनिः श्यन्तरकृतोपसर्ग प्राप्य शुद्धनुकशुद्धचिपखरूपं साम्यखखरूपं वीतरामनिर्विकल्पसमाधिना समाराध्य घातिचतुष्टयं हत्वा केवलज्ञान लब्ध्वा मोक्ष खामोपलब्धि प्राप॥ तथा विद्युबरमनिः ne - --- --- --- - --- - -- - --- ----.....------- और सम्यक् चारित्रका धारक होता है । उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोको सदा अपनाये रहता है और सुख दुःख, तृण रन, लाम अलाभ और शत्रु मित्रमें समभाव रखता है, न किसीसे देष करता है और न किसीसे राग करता है, वह साधु है । और वही धर्म है। क्योंकि जिसमें धर्म है वही तो धर्मकी मूर्ति है, बिना धार्मिकोंके धर्म नहीं होता १३९२॥ अब धर्म के दस भेदोंका वर्णन करते हैं । अर्थ-वह मुनिधर्म उत्तम क्षमा आदि भावोंके मेदसे दस प्रकारका है, उन भावोंका सार ही सुख है। आगे उसका वर्णन करेंगे । उसे परमभक्तिसे जानना उचित है । भावार्थ-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंघन्य और ब्रह्मचर्यके मेदसे मुनिधर्म दस प्रकारका है । इन दस धोका सार सुख ही है। क्योंकि इनका पालन करनेसे वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त होता है। आगे इनमेंसे प्रत्येकका अलग अलग व्याख्यान करेंगे ॥ ३९३ ।। अब उत्तम क्षमा धर्मको कहते हैं । अर्थ-देव, मनुष्य और तिर्यञ्चोंके द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि कोषसे संताह नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है। भावार्थ-उपसर्गके चार भेद है-देवकर, मनुष्यकृत, तिर्यचकत और अचेतनकृत | जो मुनि इन चारों ही प्रकारके भयानक उपसर्गोसे विचलित होकर अपने मनमें मी क्रोधका भाव नहीं लाता, यही मुनि उच्चम क्षमाका धारी होता है। शाओंमें ऐसे क्षमा ---- -- - -------- रामसागसुखपारहि। रस होवि (ही) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्रेणिन्नुयुभर ग्रंथकार अर अर्थात ठे [ गा० ३९४ "म चामुण्डाव्यन्तर्या कृतोपसर्ग सोडा उत्तमक्षमाधमं भजन् वीतरागनिर्विकल्पसमाथि प्राप्य केवलज्ञानमुत्पाद्य मोक्षं गतः ॥ 'श्रेणिकराजस्य पुत्रः चित्रतीपुत्रः नाम्ना व्यन्तरीकृतोपसर्गं प्राप्य शरीरे निःस्पृहो भूत्वा परमक्षान्ति प्राप्य उत्कृष्टधर्मेध्यानबलेन समाधिना कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धिं गतः ॥ स्वामिकार्त्तिकेयमुनिः कोश्चराजकृतोपसर्ग सोडा साम्यपरिणामेन समाधिमरणेन देवलोकं प्राप्तः ॥ गुरुदत्तमुनिः कपिल ब्राह्मणकृतोपसर्गे सोढा परमक्षमाधर्मं प्राप्य कर्मक्षयं शुक्लध्यानेन कृत्वा मोक्षं गतः ॥ पञ्चशतमुनयः दण्डकराजेन यन्त्रमध्ये पीडिताः समाधिना मरणं कृत्वा सिद्धिं गताः ॥ गजकुमारमुनिः पांशुलश्रेष्ठिनरकृतोपसर्ग सोडा समाधिमरणं कृत्वा सिद्धिं गतः ॥ चाणक्यादिपशतमुनयः मन्त्रिकृतोपसर्गे सोना शुरू ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा सिद्धिं गताः ॥ सुकुमालस्वामी मुनिः शृगालीकृतोपसर्ग सोड्डा शुभध्यानेन अच्युतखर्गे देवो जातः ॥ सुकोशलमुनिः मातृचरीव्याघ्रीकृतोपसर्ग सोडा सर्वार्थसिद्धिं गतः ॥ श्रीमणिकमुनिः जलोपसर्ग सोडा मुक्तिं गतः ॥ द्वात्रिंशत् श्रेष्ठपुत्रा नदीप्रवाहे पतिताः सन्तः शुभम्यानेन मरणं प्राप्य खर्गे देवा जाताः ॥ इति देवमनुष्यपशुविचेतनकृतोपसर्ग सोडा उत्तमक्षमा प्राप्य सद्गतिं गताः । चतुर्विधोपसर्गे क्रियमाणे कोवेन संतापं न गच्छन्ति तेषाम् उत्तमक्षमाधम भवति । तथाहि । तपोवृंहण कारण शरीरस्थितिनिमि विद्या परगृच्छतो मिक्षोः भ्रमतः दुष्टमिथ्याहरजनाक्रोशनात् प्रहसनावज्ञानुताडनयष्टिमुष्टिप्रहारशरीरव्यापादनादीनां क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां संनिधाने कालुष्याभावः क्षमा प्रोष्यते । उत्तम क्षमाया श्रतशीलपरिरक्षणमिहामुत्र च दुःखानमिष्वशः सर्वस्य जगतः सन्मान सरकारलाभप्रसिध्याविश्व गुणः, तरप्रतिपक्षकोधस्य धर्मार्थकाममोक्षप्रणाशनं दोषः इति विचिन्त्य क्षन्तव्यम् । किंच क्रोधनिमित्तस्यात्मनि भाषानुचिन्तना । साचत् विद्यन्ते मयि विषये एते दोषाः, किमत्र असौ मिथ्या ब्रवीतीति क्षमितव्यम् । अभावचिन्तनादपि नेते मयि विषये विद्यन्ते दोषाः, अज्ञानादसी मवीतीति क्षमा कार्या । अपि च बालस्वभावचिन्तनं परोक्षप्रत्यक्षाक्रोशनताडन मारणधर्मभ्रंशनानामुत्तरोत्तररक्षार्थम् । परोक्षमाक्रोशति वाले मूर्खे मिध्यादृष्टी क्षमितम्यम् । एवंस्वभावा हि वाला भवन्ति, दिव्या च स मां परोक्षमा कोशति न च प्रत्यक्षम् एतदपि बालेष्विति लाभ एव मन्तव्यः । प्रत्यक्षमाक्रोशति सोढव्यम्, विद्यते एतद्वालेषु, दिव्या च मां प्रत्यक्षमाक्रोशति, न च ताडयति, एतदपि विद्यते बालेष्विति लाभ एव मन्तव्यः । तायत्यपि मर्षितम्यम् दिष्या च मां ताडयति न प्राणैर्वियोजयति, एतपि वियते बालेविति लाभ एव मन्तव्यः I yuden २९२ है मोक्षगयेोध्या? भ. महाथीर बार ही लेने दुष स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा › बिधुत सम्बुस्वामी के राजा श्रोणिकका पुत्र शील मुनियोंके अनेक कथानक पाये जाते हैं। श्रीदत्त मुनि व्यन्तर देवके द्वारा किये गये उपसर्गको जीतकर वीतराग निर्विकल्प ध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके केवल ज्ञानको प्राप्त हुए और फिर मुक्त होगये । विद्युच्चर मुनि चामुण्डा नामकी व्यन्तरीके द्वारा किये हुए घोर उपसर्गको सहनकर वीतराग निर्विकल्प समाधिके द्वारा सर्वार्थ सिद्धि गये । चिलातीपुत्र व्यन्तरीके द्वारा किये गये उपसर्गको सहनकर उत्कृष्ट ध्यानके बलसे मरकर सर्वार्थ सिद्धि गया । स्वामी कार्तिकेयमुनिने क्रौंच राजाके द्वारा किये गये उपसर्गको साम्यभावसे सहनकर देवलोक प्राप्त किया । गुरुदत्तमुनि कपिल ब्राह्मणके द्वारा किये गये घोर उपसर्गको क्षमा भावसे सहनकर शुद्ध ध्यानके द्वारा कमका क्षय करके मोक्ष गये । दण्डक राजाने पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पेल दिया। वे सभी समाधि मरण करके मुक्त हुए। गजकुमार मुनिने पांसुल सेठके द्वारा किये गये घोर उपसर्गको सहनकर मुक्ति प्राप्त की । चाणक्य आदि पांच सौ मुनि मंत्री के द्वारा किये गये द्वारा मुक्त हुए । सुकुमाल मुनि शृगालीके द्वारा खाये जानेपर सुकोशल मुनि सिंहनीके द्वारा, जो पूर्व भव उनकी माता थी, त्यागकर सर्वार्थ सिद्धि गये। श्री पणिक मुनि जलका उपसर्ग सहकर मुक्त हुए । बत्तीस श्रेष्ठिपुत्र नदीमें बहने पर शुभ ध्यानसे मरकर खर्गमें देव हुए। इस प्रकार घोर उपसर्गको सहकर शुक्र ध्यानके शुभ ध्यान से भर कर देव हुए। खाये जानेपर शान्त भावोंसे प्राण १ विदषु वालेष्वतिकामः । ~~~ , Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९५] १२, धर्मानुप्रेक्षा २९५ प्राणषियोजयत्यपि तितिक्षा कर्तव्या, विछया च मां प्राणैर्वियोजयति, मदधीनादाच अंशयतीति । किंवान्यन्ममैवापराधोऽयं पुराचरितं तन्महड्डुकर्म तत्फलमिदमाकोशवचनादि निमित्तमात्र परोऽयमत्रेति सहितम्यमिति । उ च । 'आकुष्टोऽई हतो मैव हतो नैव विधाकृतः । द्विधाकृन्न हतो धर्मः प्रतीदं शत्रुमित्रतः ॥ इत्युत्तमः क्षमाधर्मः ॥ ३९४ ॥ अथ उत्तममार्दवमाइ उन्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तवयरण-करण-सीलो वि । अप्पाणं जो होलदि महवरयणं भवे' तस्स ॥ ३९५ ॥ [छाया-उत्तमज्ञानप्रधानः उत्तमतपश्चरणकरणशीलः अपि । आस्मानं यः हेलयति मार्दवरत्नं भवेत् तस्य ॥] तस्य मुनेः मादेवरले मार्दवाख्यमुत्तमनिर्मलधर्मरत्न भवेत् । तस्य कस्म । यः साधुः आत्मानं स्वयं हीलति हेरूनाम् उपसर्ग आनेपर भी जो क्षमा भावसे विचलित नहीं होते वही उत्तम क्षमाके धारी होते हैं। आशय यह है कि मुनि जन शरीरको बनाये रखनेके लिये आहारकी खोजमें गृहस्थोंके घर जाते हैं। उस समय दुष्ट मनुष्य उन्हें देखकर हंसते हैं, गाली बकते हैं, अपमान करते हैं, मार पीट करते हैं । किन्तु क्रोध उत्पन्न होनेके इन सब कारणोंके होते हुए भी मनमें जरा भी कलुषताका न आना उत्तम क्षमा है। ऐसे समय में मुनिको उत्तम क्षमा धर्मकी अच्छाई और क्रोधकी बुराइयोंका विचार करना चाहिये। उसम क्षमा व्रत और शीलकी रक्षा करने वाली है, इस लोक और परलोकमें दुःखोंसे बचाती है, उत्तम क्षमाशील मनुष्यका सब लोक सन्मान करते हैं। इसके विपरीत क्रोध धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका नाशक है। ऐसा सोचकर मुनिको क्षमा धारण करना चाहिये । तथा यदि कोई मनुष्य अपशब्द कहता है तो उस समय यह विचारना चाहिये कि ये मनुष्य मुझमें जो दोष बतलाता है वे दोष मुहमें हैं या नहीं? यदि हैं तो वह झूठ क्या कहता है ! और यदि नहीं है तो वह अज्ञानसे ऐसा कहता है, यह सोचकर उसे क्षमा कर देना चाहिये। और भी यदि कोई पीठपीछे गाली देता हो तो विचारना चाहिये कि मूखौंका स्वभाव गाली बकनेका होता ही है। वह तो मुझे पीठपीछे ही गाली देता है, मूर्ख लोग तो मुंहपर भी गाली बकते हैं। अतः वह क्षमाके योग्य हैं। यदि कोई मुंहपर ही अपशब्द कहे तो विचारना चाहिये कि चलो, यह गाली ही बककर रह जाता है, मारता तो नहीं है । मूर्ख लोग तो मार मी बैठते हैं अतः वह क्षम्य है। यदि कोई मारने लगे तो विचारे, यह तो मुझे मारता ही है, जान तो नहीं लेता । मूर्ख लोग तो जान तक लेडालते हैं। अतः क्षम्य है। यदि कोई जान लेने लगे तो विचारे, यह मेरी जान ही तो लेता है, धर्म तो भ्रष्ट नहीं करता । फिर यह सब मेरे ही पूर्व किये हुए कमोका फल है, दूसरा मनुष्य तो केवल इसमें निमित्त मात्र है अतः इसको सहना ही चाहिये । किन्तु यदि कोई अपनी कमजोरी के कारण क्षमाका भाव धारण करता है और हृदयमें बदला लेनेकी भावना रखता है तो वह क्षमा नहीं है। इस प्रकार मुनियोंके उत्तम क्षमा धर्मका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥ ३९४ ॥ आगे उत्तम मार्दव धर्मको कहते हैं । अर्थ-उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो मद नहीं करता वह मार्दव रूपी रन का धारी है || भावार्थ-जो मुनि सकल शास्त्रोंका ज्ञाता होकर भी वह मद नहीं करता कि मैं सकल शारोंका हाता, ---- - - Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३९६बनादरं करोति, निर्मदं मदरहितमात्माने करोतीत्यर्थः। कीदक्षो मुनिः । उत्तमज्ञामप्रधामः, उत्तम श्रेष्ठ पूर्वापर विरुद्धरहित ज्ञान जैमभुस भेदविज्ञान प्रधानं यस्य स तयोक्तः । जिनकथितसकलशास्त्रज्ञः सन् आत्माम हीलति अमादरति ज्ञानमय करोति । मह विद्वान् सकलशाबशः, कविरहम् , अहं वादी, गमकोऽहम . चलुरोऽहम, मत्सकाशात् कोऽपि विद्वान शासशोभ कवीश्वरादिको न च इत्यादिक गर्व मदं न विदधाति । मत्सकाशात अनेकशानिनो भवन्ति, श्रुतज्ञानिभ्यः एकाशात् अवधिशानिनो शाने बहुतरम्, ततो मनःपर्ययज्ञानिना ज्ञानमधिकम्, ततः केवलज्ञानिना ज्ञानं सर्वोत्कृष्टम् , गई फेनमात्रः अल्पशः इत्यादिकं निरहंकारत्वं विदधाति । पुनः कथंभूतः । उत्तमतपश्चरणकरणशीलः, उत्तमानि तानि च तपश्चरणानि ख्याविपूजालाभरहितान्यनशनाघमोदर्यादिद्वादशविधतपश्चरणानि तेषां करणे कर्तव्ये शील सभाचो यस्य स तयोक्तः । अथवा उत्तमसपासि अनशनादीनि द्वादश, उत्तमचरणानि चारित्राणि पश्नमहाव्रताचीनि प्रयोदशधा, सामायिकावीनि वा, तेषां करणे श्रीलं खभावो यस्य स उत्तमतपश्चरणशीलः सन् , आत्मनः हेलनां करोति, तपश्चरणादिगई न करोति, अहं तपस्ली अहं बारित्रवान् साधुः इत्यादिमदं न करोति। तथाहि उसमजातिकुलरूपविज्ञानश्वर्यभूतलाभदौर्यस्यापि सतः विद्यमानस्य मुनेः तस्कृतमदावेशाभावात् परप्रयुक्तपरिभवनिमित्ताभिमानाभावो मार्दवं माननिहरणमषगन्तव्यम् । मार्दवोपेतं शिष्य गुरवोऽनुगृमन्ति, साधबोधपि साधु मन्यन्ते, ततश्च समप्रज्ञानादीनां पात्रीभवति। अतः स्वर्गापवर्गफलप्राप्तिः। मानमलिनमनसि व्रतशीलानि नावतिष्ठन्ते । साधवचन परित्यजन्ति, तन्मूलाः सर्वा विपद इति ।। १९५ ॥ अथ मायास्वभावमाह जो चिंतेइ ण वंक ण कुणदि वकं ण जंपदे' वकं । जय गोषोदे गंध-दोस अगाव-धम्मो हवे तस्स ॥ ३९६ ॥ [छाया-यः चिन्तयति न वक्र न करोति वक्र म जल्पति वक्रम् । न च गोपायति निजदोषम् आर्जवधर्मः भवेत् तस्य ॥ तस्य मुनीश्वरस्य भावधर्मों भवेत् । तस्य कस्य । यो मुनिः य म चिन्तयति, व] कुटिल फुटिलपरिणाम कवि हूँ, वादी हूँ, गमक हूँ, चतुर हूं, मेरे समान कोई भी विद्वान शास्त्रज्ञ अथवा कवि नहीं है, प्रत्युत यह विचारता है कि मुझसे गले अनेक ज्ञानी है क्यों कि श्रुतज्ञानियोंसे अवधि ज्ञानी बड़े होते हैं, उनसे मनःपर्ययज्ञानी बड़े होते हैं और उनसे बड़े सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञानी होते हैं। मैं तो अल्पज्ञ हूँ। यह मुनि मार्दवधर्मका धारी है। तथा जो मुनि अनशनआदि बारह प्रकारके तोंको और तेरह प्रकारके चारित्रको पालता हुआ भी अपने तपश्चरणका गर्व नहीं करता वह मुनि मार्दव धर्मका धारी है। सारांश यह है कि उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, उत्तम ज्ञान, उत्कृष्ट ऐश्वर्य और शक्तिसे युक्त होते हुए भी मद न करना उत्तम मार्दव है। क्योंकि मानके दूर होनेका नाम मार्दव है । जो शिष्य विनयी होता है उसपर गुरुकी कृपा रहती है । साधु जन भी उसकी प्रशंसा करते हैं। अतः वह सम्यग्ज्ञानका पात्र होता है । और सम्यग्ज्ञानका पात्र होनेसे उसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है । इसके विपरीत मानसे मलिन चित्तमें व्रत शील वगैरह नहीं ठहर सकते । साधु जन घमंडी पुरुषसे दूर रहते है । अतः अहंकार सब विपत्तियोंका मूल है ।। ३९५ ॥ आगे आर्जव धर्मको कहते हैं । अर्थजो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता, तथा अपना दोष नहीं छिपाता, उसके आर्जव धर्म होता है ॥ भावार्थ-जिसके मनमें मायाचार नहीं है, जिसके कर्ममें मायाचार नहीं है और जिसकी बालोंमें मायाचार नहीं है, अर्षात् जो मनसे विचारता है, वही प्रश्चनसे कहता है और जो वचनसे कहता है बही कायसे करता है वह आर्जव धर्मका सग कुपदिण।२७मस गपए। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९७] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९५ मनसा वक्रं कुटि माचरति म विवधाति, सरसावं ममसा चिन्तयतीत्यर्थः । वर्क न करोति, मानारूप एवं लं कायेन न विद्धाति । तथा व कुटिलबचनं वचनेन जिल्हया न जल्पति न बति । 'मनोरच कामकर्मणाम् कौटिल्यमार्जवमभिधीयते इति वचनात् । तथा निजदोषं स्वयंकृतापराधम् अतिचारादिदोषकृतं नैव भोपायति न वाच्छादयति । खकुतशेषं गर्हानिन्दादिकं करोति प्रायश्वितं विदधाति च । योगस्य हि कायवाब्धनोरक्षणस्य अवकता आर्जवमित्युच्यते । ऋजुहृदयमधिवसन्ति गुणा मायाभावं नाश्रयन्ति । मायाविनो न विश्वसिति लोकः । मायातिर्यग्योनिवेति गर्हिता च गतिर्भवतीति ॥ ३९६ ॥ शौचत्वमाह तिब्बकी 1712172 सम-संतोस जलेणं जो धोषदि तिब्वे लोह-मल- पुंजं । भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे' विमलं ॥ ३९७ ॥ [ छाया - समसंतोषजलेन यः धावति तीव्रलोभमलपुजम् । भोजनगृद्धिविहीनः तस्य शौच भवेत् विमलम् ॥ ] तस्य मुनेः चित्तम् उत्तममानसे शौचरवं पवित्रं वा बिमले लोभादिमलरहित शौचपरिणत वित्तमित्यर्थः भवति । तस्य कस्य । यः मुनिः तृष्णाष्टोभमलपुत्रं धोयदि प्रक्षालयति । तृष्णा परपदार्थाभिलाषः, लोभः परवस्तुग्रहणाकांक्षा, तृष्णा च लोभव तृष्णा लोभौ तावेव मलः किल्बिषं तस्य पुञ्जः समूहः तं तृष्णा लोभमलपुर्ज, परपदार्थानिलाष पर वस्तुग्रहणकांक्षारूपमराशि धारी होता है। क्यों कि मन, वचन और कायकी सरलताका नाम आर्जव है । तथा जो अपने अपराधको नहीं छिपाता, व्रतोंमें जो अतिचार लगते हैं उनके लिये अपनी निन्दा करता है और प्रायश्चित्तके द्वारा उनकी शुद्धि करता है यह भी आर्जव धर्मका धारी है । वास्तव में सरलता ही गुणोंकी स्थान है। जो मायावी होता है उसका कोई विश्वास नहीं करता तथा वह मरकर तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेता है ॥ ३९६ ॥ आगे शौच धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो समभाव और सन्तोष रूपी जलसे तृष्णा और लोभ रूपी मलके समूहको धोता है तथा भोजनकी गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म होता है । भावार्थ-तृण, रत्न, सोना, शत्रु, मित्र आदि इष्ट अनिष्ट वस्तुओंमें राग और द्वेष न होनेको साम्यभाव कहते है और संतोष तो प्रसिद्ध ही है। पदार्थों की अभिलाषा रूप तृष्णा और प्राप्त पदार्थोंकी लिप्सा रूप लोभ ये सब मानसिक मल है गन्दगी है । इस गन्दगीको जो समता और सन्तोष रूपी जलसे घोडालता है अर्थात् समताभात्र और सन्तोषको अपनाकर तृष्णा और लोभको अपने अन्दरसे निकाल फेंकता है, वह शौच धर्मका पालक है। तथा मुनि कंचन और कामिनी का माग तो पहले ही कर देता है, शरीरकी स्थितिके लिये केवल भोजन ग्रहण करता है। अतः भोजनकी तीव्र लालसा नहीं होना भी शौच धर्मका लक्षण है। असलमें लोभ कषायके त्यागका नाम शौच है । लोभके चार प्रकार है- जीवनका लोभ, नीरोगताका लोभ, इन्द्रियका लोभ, और उपभोगका लोभ । इनमेंसे मी प्रत्येकके दो भेद हैं-अपने जीवनका लोभ, अपने पुत्रादिकके जीवनका लोभ, अपनी नीरोगताका लोभ, अपने पुत्रादिकके नीरोग रहनेका लोभ, अपनी इन्द्रियों का लोभ, पराई इन्द्रियोंका लोभ, अपने उपभोगका लोभ और परके उपभोगका लोभ । इनके व्याग का नाम शौच धर्म है। शौच धर्मसे युक्त मनुष्यका इसी लोक में सन्मान होता है, उसमें दानादि अनेक गुण पाये जाते हैं इसके विपरीत लोभी मनुष्यके हृदयमें कोई भी सगुण नहीं ठहरता, १ ग विठ (३१) [ष्णा ] स म स ग त सुचित हवै। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा ३९८ धावयसि प्रक्षालयति । केन । समसंतोषजलेन, समः तृणरलकाशनशत्रुमित्रष्टानिष्टवस्तुसाम्ये समता संतोषः शुभाशुमेषु सर्व माध्यस्थं समश्च संतोषश्च समसंतोषो तावेद जलमुदकं तेन धोवति शुद्ध निर्मलं विद्धाति । स मुनिः कीदृक्षः। भोजनगृद्धिरहितः भोजनम् आहारस्य उपलक्षणात् कनकयुवतिगजाश्ववस्वादीना ग्रहणे तस्य अतिगृद्धिः अत्याकाला वाछा तया विहीनः । शीचं लेभविनिर्मुक्तमित्युक्त्वात् । तथाहि प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः शौचमित्युच्यते । शुच्याबारं नरमिहापि सन्मानयन्ति, सर्वे दानादयश्च गुणास्तमधितिष्ठन्ति, लोभभावनाकान्ते हृदये नावकाश लमन्ते गुणाः । स च ल्येभः जीवितारोम्येन्द्रियोपभोगविषयभेदाचतुर्विधः । स्वपरविषयत्वात् स प्रत्येक द्विधा मिद्यते । स्थजीवितलोभः १ परजीवितलोभः १ स्वारोग्यलोभः ३ परारोग्यलीमः ४ खेन्द्रियलोभः ५ परेन्द्रियलोभः ६ स्खोपभोगलोभः ७ परोपभोगलोभश्चेति 4। अतस्खभिवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमिति ॥ ३९७ ॥ अथ सत्यधर्ममाह जिण-ययणमेव भासदि तं पालेदुं असकमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण पददि जो सञ्चवाई सो ॥ ३९८ ।। [छाया-जिनवचनमेव भाषते तत् पालयितुम् अशक्नुवानो अपित व्यवहारेण अपि अलीकं न वदति यः सत्यवादी सः॥] स मुनिः सत्यवादी सत्यं चदत्येवंशीलः सत्यवादी सत्यधर्मपरिणतो भवेत् । स कः। यः जिनवचनमेव भाषते जिनस्य वचन द्वादशातरूप जैन सिद्धान्तशास्त्रं वक्तिते । एवकारणेन न सांख्यसौगतभवैशेषिकचार्याकादिपरिकल्पितं नव वकि। तत जिनवचनं पालयितुं रक्षितुं ज्ञातु वा, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थी इति पालधातुः ज्ञानार्थेऽपि वर्तते, अशक्यमानोऽपि अशक्तोऽपि असमर्थोऽपि अपिशब्दात् न केवल शक्तोऽपि, अपि म वक्ति न वदति न भाषते । किं तत् । भलीकं मृषापचनम् असत्य न वक्ति। केन । व्यवहारेण दत्तिप्रतिग्रहभोजनादिव्यापारण, अथवा पूजाप्रभावनाद्यर्थम् अली कवचनं न बदति । अपिशब्दात न केवलम् अव्यापारेण । तथाहि रासु प्रशस्तेषु दिगम्बरेषु महामुनिषु तदुपासकेषु व श्रेष्टेषु लोकेषु साधुवचनं समीचीनश्चनं यत् तत्सत्यमित्युय्यते । सन्तः प्रव्रज्यां प्राप्ताः तद्रताः वा ये वर्तन्ते तेषु यवचनं साधु तत्सत्यम् । तया अतः लोभका त्यागरूप शौचधर्म पालना चाहिये ।। ३९७ ॥ अब सत्यधर्म को कहते हैं। अर्थजैन शाखोंमें कहे हुए आचार को पालनेमें असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचनका ही कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता, तथा जो व्यवहारमें भी झूठ नहीं बोलता, वह सत्यवादी है । भावार्थ-जैन सिद्धान्तमें आचार आदिका जैसा स्वरूप कहा है, वैसा ही कहना, ऐसा नहीं कि जो अपनेसे न पाला जाये, लोक निन्दाके भयसे उसका अन्यथा कथन करे, तथा लोक व्यवहारमें मी सदा ठीक ठीक बरतना सत्य धर्म है। सत्यवचनके दस भेद हैं- नाम सत्य, रूप सध्य, स्थापना सत्य, प्रतीत्य सस्य, संवृतिः सत्य, संयोजना सत्य, जनपद सत्य, देश सत्य, भाव सत्य और समय.सत्य | सचेतन अथवा अचेतन वस्तुमें नामके अनुरूप गुणोंके न होनेपर भी लोक व्यवहार के लिये जो इच्छानुसार नामकी प्रवृत्ति की जाती है उसे नाम सत्य कहते हैं जैसे कि मनुष्य अपने बच्चों का इन्द्र आदि नाम रख लेते हैं । मूल वस्तुके न होते हुए भी वैसा रूप होनेसे जो व्यवहार किया जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं जैसे पुरुषके चित्रमें पुरुष के चैतन्य आदि धर्मों के न होने पर भी पुरुषकी तरह उसका रूप होनेसे चित्रको पुरुष कहते है। मूल वस्तुके न होते हुए भी प्रयोजनवश जो किसी वस्तु में किसीकी स्थापना की जाती है उसे स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे पाषाणकी मूर्तिमें चन्द्रप्रभकी स्थापना की जाती है। एक दूसरेकी अपेक्षासे जो वचन कहा जाता है वह प्रतीय सत्य है । जैसे अमुक मनुष्य लम्बा है। जो घचन लोकमें प्रचलित १.जोण वददि । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९९] १२. भागमेशा चशानमारित्राविधिक्षणे प्रचुरमपि अमितमपि वचनं वक्तव्यम् । सत्यसकायो दशविधः नाम रूप स्थापना ३ प्रातील ४ सविति ५ सयोजना ६ जनपद ७ देश ८ भाव र समय १० सत्यमेहेन । तत्र सचेतनेतर द्रव्यम असत्यर्फे यमबहारार्य संज्ञाकरणं तमामसत्यम, इन्द्र इत्यादि । यदर्थासनिधानेऽपि स्पमात्रेणोच्यते तदपसत्यम्, यथा त्रिपुरवाहिए असत्यपि चैतन्योपयोगादावथें पुरुष इत्याधि ३ । असत्यप्यर्थे यत्कार्मा स्थापित गुताक्षसारिनिक्षेपादिषु तत्स्थापनासत्यम, चन्द्रप्रमप्रतिमा इत्यादि ३ । साधनादीनोपशमिकाहीन भावान् प्रतीत्य पदचने तत्प्रतीत्यसत्य, पुरुषरतात इत्यादि ४ । योकसंवृत्त्यागतं बचस्तत्सवित्तिसत्यम् , यथा पृथिव्याधनेक कारणत्वेऽपि सति पर जातं पकमित्यादि ५। धूपपूर्णवासनामुलेपन प्रकर्यादिषु पामकरईसचक्रसर्वतोभद्रक्रौनव्यूहादिषु अमेसनेतरद्रव्यागों यथामागविधान सैनिवेशाविर्भाबकं यद्वचस्तरयोजनासमम् ६ । द्वात्रिंशजनपथ्षु आर्यानाभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापकं यचखानपयसत्यम्, राजा राणक इत्यादि ५ । प्रामनगरराजगणपाण्डिजातिकुलादिधर्माणामुपदेशक यतचस्तादेशसत्यम्, प्रामो परवापत मावि । छयस्थज्ञानस्य व्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासयतस्य वा खगुणपरिपालनार्थ प्रासुकमिवमासुकमित्यादि यवतद्वावसत्यम् । प्रतिनियतषद्रव्यपाथाणामागमगम्याम याथात्म्याविष्करणं यवचनं तत्समयसत्यम् । समयोतरवृध्द्या बालो युवा पल्योपम इत्यादि १.। सत्यवापि प्रतिष्ठिताः सर्वगुणसंपदः, अमृतामिभाषिणं नई बन्धकोऽप्यक मन्यन्ते, मित्राणि च विरफिभावमुपयान्ति, विशम्युदकावीन्यप्येने न सहन्ते, जिवाच्छेदनसर्व बहरणादिव्यसनभागपि भवति इति ॥ ३९८॥ संपमधर्ममाचष्टे जो जीव-रक्षण-परो गमणागमणादि-सव्य-कोसे। तण-छेदं पिण इच्छवि संजम-धम्मों" हवे तस्स ॥ ३९९ ॥ छामा-सा जीवरक्षणपरए गमनागमनाविसर्वकार्येषु । तृणमोद अपि न इति संयमधर्मः भवेत् सरस ] तल मुनेः संयमभावः स्यमन वशीकरण स्पर्शनरसनग्राणच धोत्रेन्द्रियमनसां षट्पृथिव्यतेजोवाश्वनस्पसिनसक्रानिकानां व्यवहारके आश्रयसे कहा जाता है यह संवृति सत्य है । जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होने पर भी कमलको पंकज ( कीचड़से पैदा होनेवाला ) कहा जाता है । चूर्ण वगैरहसे जो माण्डनों औरह की स्थापना की जाती है उसमें जो यह कहा जाता है कि यह अमुक द्वीप है, यह अमुक जिनालय है, इसे संयोजना सत्य कहते हैं । जिस देशकी जो भाषा हो वैसा ही कहना जनपद सस्य है । ग्राम नगर आदिका कथन करनेवाले वचनको देश सत्य कहते हैं । जैसे जिसके चारों और बाद हो पाह गांव है । छास्यका ज्ञान वस्तुका यथार्थ दर्शन करनेमें असमर्थ होता है फिर भी श्रावक अथवा मुनि अपना धर्म पालनेके लिये जो प्रामुक और अनासुकका व्यवहार करते हैं वह भाव सत्य है । जो वस्तु आगमका विषय है उसे आगमके अनुसार ही कहना समय सस्प है, जैसे पल्य और सागर वगैरहके प्रमाणका कयन करना । इन सत्य वचनोंको बोलनेवाले मनुष्यमें ही गुणोंका वास रहता है। किन्तु जो मनुष्य झूठ बोलता है, बन्धु बान्धव और मित्रगण भी उसका विश्वास नहीं करते। इसी लोकमें उसकी जीभ काटवादी जाती थी, राजा उसका सर्वस्व छीन लेता था । अतः सत्य वचन ही बोलना चाहिये ॥ ३९८ ॥ आगे संयमधर्मको कहते हैं। अर्थ-जीवकी रक्षामें तत्पर जो मुनि गमन आगमन आदि सब कार्योंमें तृणका भी छेद नहीं करना चाहता, उस मुनिके संयमधर्म होता है ॥ भावार्थ-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र और मनको वशमें करना तथा पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, घायुकायिक, और उसकायिक जीवोंकी रक्षा करनेका नाम संयम है। जो २५ गमणार । २ मसग कम्मेस । र तिणछेयं । ४ (मस!) संयमभाऊ (ओ) व संजम्म । कार्तिके. ३० - - - - - Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३९९ रक्षर्ण च तस्य भावः परिणामः भवेत् । तस्य कस्य । यः साधुः गमनागमनादिसर्वकर्मसु गमनम् अटनं परिभ्रमणम् आगमनम् आगतिः गमनागमने ते द्वै एवादिर्येषां तानि गमनागमनादीनि तानि सर्वकर्माणि च समस्तकार्याणि च तेषु गमनागमनपरिभ्रमणोपवेशनशयनादानाने क्षेपणभोजन मलमूत्रनिक्षेपणादिषु कार्येषु जीवरक्षणपरः प्राणिरक्षागरायणः दयापरिणतः पृथितेजोवायुतनस्पतिकायिककृमिकीट भूलता दियूकामत्कुणकीटक कुश्वाविदेशमपतङ्गमक्षिका दिगो महिषाश्वमनुष्यदेवा दिवसजीवन रक्षणपरः भुनिः तृणच्छेदं शुष्कद्रव्यतृणकाष्टपाषाणादिच्छेदम् अपिशब्दात् चालननिक्षेपणोश्बालनं स्थापनादिकं च न इच्छति । तथाहि धर्मोपबृंहणार्थे पञ्चसमितिपु वर्तमानस्य मुनेः तत्प्रतिपालनार्थ प्रागव्यपरोपणं परिहरन् षडिन्द्रियविषय परिहरणं संयम उच्यते स संयमो द्विविधः, उपेक्षासंज्ञकः अपहृतसंज्ञकश्च । तत्रांपेक्षा संन्यमः देशकालविधानज्ञस्य, परेषामनुपरोधेन व्युष्ट कायस्य त्रिगुसिगुप्तस्य मुनेः रागद्वेषयोरनभिषङ्गः इत्युपेक्षासंयमः अपहृतसंयमस्य मुनेः समितयः कार्यास्ता उच्यन्ते । ईर्याभाषैत्रणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः इति । तत्र ईयसमितिः नामकर्मोदयापादितविशेषैकद्वित्रिचतुःपचेन्द्रियभेदेन चतुर्द्विद्विद्धिंश्चतुर्विकल्पचतुर्दशजीवस्थानादिविधानवेदिनो मुनेः धर्मार्थं पर्यटतः गच्छतः सूर्योदये चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्यम् 'उपजायते । मनुष्यहस्त्यश्वशकट गोकुलादिचरणपातोपहता वश्यायप्राये प्राकमार्गे अनन्यमनसः शनैर्न्यस्तपादस्य संकुचितावयवस्य उत्पार्श्वदृष्टेर्युग मात्रपूर्वनिरीक्षणावहितलोचनस्य स्थित्वा दिशोऽनवलोकयतः पृथिव्याद्यारम्भाभावात् ईर्यासमितिरित्याख्यायते १ । हितमितासंदिग्धानिधानं भाषासमितिः। मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम्, तत् द्विविधं स्वहितं परहितं चेति । मितमनर्थक प्रलपनरहितं स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर चा असंदिग्धं तस्याः प्रपशो मिथ्याभिधा I मुनि आना, जाना, उठना, बैठना, सोना, रखना, उठाना, भोजन करना, मलमूत्र त्यागना आदि कार्यों में जीवरक्षाका ध्यान रखता है, इन कार्योंको करते हुए पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, कीट, पतंग, जूं, डांस, मच्छर, मक्खी, गाय, भैंस, घोडा, मनुष्य आदि किसी भी जीवको अपने निमित्तसे कष्ट नहीं पहुँचने देता वह मुनि संयमधर्मका पालक होता है। संयमके दो भेद हैं- उपेक्षा संयम और अपहृत संयम । तीन गुप्तियोंका पालक मुनि कायोत्सर्ग स्थित होकर जो राग द्वेषका त्याग करता है उसके उपेक्षा संयम होता है । उपेक्षाका मतलब उदासीनता अथवा वीतरागता है । अपहृत संयमके तीन भेद हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । अपने उठने बैठने के स्थान में यदि किसी जीव जन्तुको बाधा पहुँचती हो तो वहांसे खयं हृट जाना उत्कृष्ट अपहृत संयम है, कोमल मयूर पिच्छसे उस जीवको हटा दे तो मध्यम अपहृत संयम है और लाठी तिनके बगैरह से उस जीवको हटाये तो जघन्य अपहृत संयम है । अपहृत संयमी मुनिको पाँच समितियोंका पालन करना चाहिये । अतः समितियोंका स्वरूप कहते हैं । समितियां पांच हैं-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति और उत्सर्ग समिति । मुनिको जगह जगह घूमना पड़ता है, अतः सूर्यका उदय हो जानेपर जब आंखें ठीक तरहसे सब वस्तुओंको देख सकें, मनुष्य, हाथी, घोड़ा, गाड़ी, गोकुल आदिके आवागमन से प्रासुक हुए मार्गपर मनको एकाग्र करके चार हाथ आगेकी जमीनको देखकर इधर उधर नहीं ताकते हुए धीरे धीरे चलना ईर्या समिति है । हित मित और असंदिग्ध बोलना भाषा समिति है । जिसका फल मोक्षकी प्राप्ति हो उसे हित कहते हैं । व्यर्थ बकवाद नहीं करनेको मित कहते हैं। जिसका अर्थ स्पष्ट हो, अथवा अक्षरोंका उच्चारण स्पष्ट हो उसे असंदिग्ध कहते हैं । मिथ्या, निन्दा परक, अप्रिय, भेद डाल देनेवाले, सार हीन, संशय और भ्रम डाल देनेवाले, कषाय से भरे हुए, परिहासको लिये हुए, अयुक्त, असभ्य, निठुर, धर्मविरोधी, देश काल के विरुद्ध और अतिप्रशंसापरक वचन मुनिको नहीं बोलना चाहिये । जीवदया - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११९] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९९ नासूयात्रियसंमेदाल्पुसारशङ्कितवान्तकषायपरिहासायुक्तासभ्य शपन निष्ठुर धर्मविरोधिदेशकालविरोध्यतिसंस्तवादि वाग्दोषविरहिताभिधानम् २अनगारस्य मोक्षेकप्रयोजनस्य प्राणिदयालत्परस्य कायस्थित्यर्थं प्राणयात्रानिमित्तं तपोबृंहणा च चर्या निमित्तं पर्यष्टतः शीलगुणसंयमादिकं संरक्षतः संसारद्वारीर भोगनिर्वेदत्रयं भावतो वस्तुयाथात्म्यस्वरूपं चिन्तयतो देशकाल्सामर्थ्यादिविशिष्टम् अगर्हितम् आहार नवकोटिपरिशुद्ध मेषणा समितिः । पड्डीवनिहायस्य उपद्रव उपवणम्, अच्छेदनादिव्यापारो विदावणं, संतापजननं परितापनं, प्राणिप्राणव्यपरोपणम् आरम्भः एवं उपद्रवणविद्रावयपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमनं खेन कृतं परेण कारितं अनुमतं च आधाय तत्सेविनो अनशनादितपांसि अभ्रात्र का शादियोगा वीरासनादियोग विशेषाश्च भिनभाजनभरितामृतवत् प्रक्षरन्ति ततस्तदभश्यमिव परिहरतो भिक्षोः परकृतप्रशस्तप्रानुकाहारग्रहणेऽपि षट्चत्वारिंशो भवन्ति । तयथा । षोडशविध उद्गमदोषः १६, पोडशविध उत्पादनदोषः १६, दशविध एषणादोषः १०, संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमदोषाचत्वारः ४, एतैर्दोषैः परिवर्जितमाहारण मेषणा समितिरिति । नैःसंगिकों चर्यामातिष्ठमानस्य पात्रग्रहणे सति तत्संरक्षणादिकृतो दोषः प्रसज्यते कपालमन्यदू। भाजनमादाय पर्यटतो भिक्षोर्दैन्यम् आसज्यते । गृहिजनानीतमपि भाजनं न सर्वत्र सुलभं तत्प्रक्षालनादिविधौ च दुःपरिहारः पापलेपः । स्वभाजनेन देशान्तरं नीत्वा भोजने च आशानुबन्धः स्यात् । खपूर्वविशिष्ट भाजनाधिकगुणासंभवाच्च येन केनचित, भुञ्जानस्य दैन्यं स्यात् । ततो निस्संगस्य निःपरिग्रहस्य भिक्षोः स्वनाभ्यतिमिमा तम आदि अणि नि बाधे देशे निरालम्ब चतुरकुला में तत्पर मुनि शरीरको बनाये रखने के लिये, और तपकी वृद्धि के लिये देश काल और सामर्थ्यके अनुसार जो नत्र कोटिसे शुद्ध निर्दोष आहार महण करता है उसे एत्रणा समिति कहते हैं। दूसरेके द्वारा दिये गये प्राक आहारको ही श्रावकके घर जाकर मुनि ग्रहण करता है। उसमें भी ४६ दोष होते हैं, जिनमें १६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० एषणा दोष और चार संयोजन, प्रमाणातिरेक, अंगार और धूम दोष होते हैं। इन छियालीस दोषको टालकर अपने हस्तपुटमें आहार ग्रहण करना एषा समिति है । मुनि पात्रमें भोजन नहीं करते। उनकी सब चर्या स्वाभाविक होती है। वे यदि अपने पास भोजनके लिये बरतन रखें तो उसकी रक्षाकी चिन्ता करनी पड़े और बरतन लेकर भोजनके लिये जानेसे दीनता प्रकट होती है। तथा यदि बरतनमें भोजन मांगकर कहीं ले जाकर खायें तो तृष्णा बढ़ती है। गृहस्थोंके धरपर बरतन मिल सकता है, किन्तु उसको मांजने बोनेका आरम्भ करना पड़ता है। इसके सिवाय यदि किसी गृहस्थाने टूटा फूटा बरतन खानेके लिये दिया तो उसमें भोजन करनेसे दीनता प्रकट होती है। अतः निष्परिग्रही साधुके लिये अपने हस्तपुरसे बढ़िया दूसरा पात्र नहीं है । इस लिये शान्त मकान में बिना किसी सहारेके खड़े होकर अपने स्वाधीन पाणिपात्रमें देख भाल कर भोजन करनेवाले मुनिको उक्त दोष नहीं लगते। यह एषणा समिति है। ज्ञान और संयम साधन पुस्तक कमंडलु वगैरहको देखकर तथा पीछीसे साफ करके रखना तथा उठाना आदान निक्षेपण समिति है। स्थावर तथा त्रस जीवोंकी विराधना न हो इस प्रकारसे मल मूत्रादि करना उत्सर्ग समिति है । इन समितियोंका पालन करते हुए एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंकी रक्षा होनेसे प्राणिसंयम होता है तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें राग द्वेष न करनेसे इन्द्रियसंयम होता है । कहा भी है--समितियों का पालन करनेसे पापत्रन्ध नहीं होता और असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करनेसे पापबन्ध होता है। और भी कहा है – जीव मरे या जिये, जो अयत्वाचारी है उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है । और जो सावधानता पूर्वक देख भाल कर प्रवृत्ति करता है उसे हिंसा हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता । और भी कहा है- 'मुनिको यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यक्षपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० ३९९न्तरसमपादाभ्यां स्थिस्या परीक्ष्य भुजानस्य निमृतस्य तद्तदोषाभावः इत्येषणासमितिः ३ । धर्माविरोधिना परानुपरोधिनी वण्याणां जानादिसायमानो पुस्तकाबीना प्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य मयरपिन प्रमूख्य प्रवर्तनमादाननिपगसमितिः ।। स्थायराणा अङ्गमामा च जीवानामविरोधेन अमलमूत्रादिनिर्हरण शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमितिः ५ । एवमीर्यासमिस्वादिषु वर्तमानस्य मुनेः तत्प्रतिपालनार्थम् एकेन्द्रियादिप्राणिपीलापरिहारः प्राणिसंयमः, इन्द्रियादिश्वर्येषु रागपरित्यागः इन्द्रियसंयमः । स चापतसंयमनिविधः, उत्कृष्ठो मध्यमो जपन्यति । तत्र प्रासुकवसतिभोजनादिमात्रयायसाधनस्य स्वाधीनज्ञामादिकस्य मुनेः जन्तूपनिपाते आल्मान ततोऽपद्दत्व दूरीकृत्य जीवान पासयनः उत्कृष्टसंयमो भवति । मूदुना मधुरपिस्छन प्रमुज्य जन्तून् परिहरतो मुनेः मध्यमः सैथमः । उपकरणान्तरेण प्रमृज्य जीवान परिदरतो जपन्यः संयमः । तथा चोक यलपरस्य समितियुक्तस्य हिंसादिपापबन्धो न भवति । अयनपरस्य पापबन्धो भवति । "मरघुव जीवदु जीवो अयदायारस्स णिच्छिया हिंसा । पदस्रा गरिथ धो हिंसामित्तेण समिदस्त || जदं चरे जद पिढे जद मासे जर्द सये। जदं मुंजेख भासेज एवं पार्वण बज्मइ ॥ तस्यापहतसंयमस्य प्रतिपालनार्थ शुम्बष्टकोपदेशः । तद्यथा अष्टौ शुस्यः । भावशुद्धिः १, कायशुद्धिः २, विनयशुधिः, ३ ईर्थापयशुद्धिः ४, मिक्षाशुद्धिः ५. प्रतिष्ठापनाशुद्धिः ६, शयनासनशुद्धिः ७, वाक्या बात माशुद्धः कोपरामजनिता मोक्षमार्गशल्याहितप्रसादा रामायुपासवरहिता, तस्मा सत्याम्, आचार: प्रकाशते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् १। कायशुद्धिः निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमल. धारिणी निराकृताइविकास सर्वत्र प्रयत्नयतिः प्रशममूर्तिमित्र प्रदर्शयन्ती, तस्या सत्यां न स्वतोऽभ्यस्य भयमुपजायते, नाप्यन्यतस्तस्य २ । विनयशुद्धिः अहंदादिपरमगुरुघु यथा अहत्पूजाप्रवणा ज्ञानादिषु यथाविधिभफियुक्ता गुरोः सर्वत्रानु - सोना चाहिये, यनपूर्वक भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक बोलना चाहिये, ऐसा करनेसे पाप नहीं लगता' ।। पहले जो अपहृत संयम बतलाया है उसके पालनेके लिये आठ शुद्धियाँ बतलाई है। वे आठ शुद्धियाँ इस प्रकार हैं-भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापयशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । इनका स्वरूप-- कोंके क्षयोपशमसे रागादि विकारोंसे रहित परिणामोंमें जो निर्मलता होती है वह भावशुद्धि है ! जैसे खच्छ दीवारपर की गई चित्रकारी शोभित होती है वैसे ही भावशुद्धिके होनेपर आचार शोभित होता है । जैसे तुरन्तके जन्मे हुए बालकके शरीरपर न कोई वस्त्र होता है, न कोई आभूषण होता है, न उसके बाल वगैरह ही संवारे हुए होते हैं, और न उसके अंगमें किसी तरहका कोई विकार ही उत्पन्न होता है, वैसे ही शरीर पर किसी वस्त्राभूषणका न होना, बाल वगैरहका इत्र तेल वगैरहसे संस्कारित न होना और न शरीरमें काम विकारका ही होना कायशुद्धि है । ऐसी प्रशान्त मूर्तिको देखकर न तो उससे किसीको भय लगता है और न किसीसे उसे भय रहता है । अर्हन्त आदि परम गुरुओंमें, उनकी पूजा वगैरहमें विधिपूर्वक भक्ति होना, सदा गुरुके अनुकूल आचरण करना, प्रश्न स्वाध्याय कथा वाती वगैरहमें समय बिधारनेमें कुशल होना, देश काल और भावको समझनेमें चतुर होना तथा आचार्यकी अनुमक्तिके अनुसार चलना विनयशुद्धि है । विनय ही सब संपदाओंका मूल है, वही पुरुषका भूषण है और वही संसाररूपी समुद्रको पार करने के लिये नौका है । अनेक प्रकारके जीवोंके उत्पत्तिस्थानोंका ज्ञान होनेसे जन्तुओंको किसी प्रकारकी पीड़ा न देते हुए, सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित भूमिको अपनी आंखोंसे देखकर गमन करना, न अति शीघ चन्दना, न अति विलम्बपूर्वक चलना, न ठुमक ठुमक कर चलना, तथा चलते हुए इधर उधर नहीं देखना, इस प्रकारके गमन करनेको ईर्यापथ शुद्धि कहते हैं। जैसे न्याय मार्गसे चलनेपर ऐश्वर्य स्थायी रहता है वैसे ही ईयर्यापथ शुद्धिमें संयमकी प्रतिष्ठा है । भिक्षाके लिये जानेसे Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ----- -३९९] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३०१ कूलपतिः प्रथलाध्यायवाचनाकथाविज्ञापनादिषु प्रतिपनिकुशला देशकालभावावयोधनिपुणा आचार्यानुमतबारिणी,तन्मूलाः सर्वसंपवः, सैघ भूषा पुरुषस्य, सैत्र मौः संसारसमुद्रोलरणे ३ । ईपिथशुद्धिः नानाविधजीवस्थानाना योनीनाम् आध्याणामव. बोधात् जनितप्रयापरिहतजन्तुपीडा ज्ञानादित्यवेन्द्रियप्रकाशनिरीक्षितदेशगामिनी द्रुतविलम्बितसंभ्रान्तविस्मितलीला सिकारदिगवलोकनादिदोषविरहितगमना, तस्या सत्यां संयमा प्रतिष्ठितो भवति विभत्र इन सुनीतौ ४ । मिक्षाशुद्धिः परीक्षितोभयप्रचारा प्रमृष्टपूर्वापरवाहदेशविधाना आचारसूत्रोक्तकालदेशप्रकृतिप्रतिपत्तिकुमाला लाभालाभमानापमानसमानमनोवृतिः गीतनृत्यवाद्योपजीविप्रसूतिकामृतकपण्याङ्गनापापकर्मदीनानाथदानशालायजनषिवाहादिमहलमोहपरिवर्जनपरो चन्द्रगतिरिव होनाधिकगृहा विशिष्टोपस्थाना लोकगतिकुलपरिवर्जनोपलक्षिता दीनवृत्तिविगमा प्रासुकाहारगवेषणसावधाना आगमविहितनिरवद्याशनपरिप्राप्तप्राणयात्राफला तत्प्रतिबद्धा हि चरणसंघद् गुणसंपदिव साधुजनसेवानिबन्धना, मा भिक्षा लाभालाभ्योः सरसविरसयोश्च समसंतोषवादिः भिक्षेति भाष्यते ५ । भिक्षाशुद्धिपरस्य मुनेरशन पञ्चविधं भवति, गोचाराक्षम्रक्षणोदरामिप्रशमनम्रमराहारश्नपूरणनामभेदेन । यथा सलीलसालंकारदरयुवतिभिरुपनीयमाने घासे मौन तदातत्सौन्दर्यनिरीक्षणपरस्तृणमेवाति यथा वा तृगली नानादेशसं यथालाभमभ्ययहरति न योजनासंपदमपेक्षते तथा भिक्षरपि भिक्षापरिवेषकजनमृदुललिततनुरूपवेषाभिलापविलोकननिरुत्सुकः शुष्ववाहारयोजनाविशेष यानवेक्षमागो यथागतममानीति गौरिव चारो गोचार इति कथ्यते । तथा गवेषणेति च । यथा शकटी रात्रभारपूर्णा सेन कनचिनेहन अक्षलेपं कृत्वा अमिलषितदेशान्तर बणिगू नयति तथा मुनिरपि गुणरमभरिलां तनुशक्टीम अनवयभिधायुरक्षम्रक्षणनाभिरेनसमाधिपत्तन -.---. पहले अपने शरीरको प्रतिलेखना करके, आचारांगमै कहे हुए काल, देश, स्वभावका विचार करे, तथा भोजनके मिलने न मिलनेमें, मान और अपमानमें समान भाव रक्खे और आगे लिखे घरोंमें भोजनके लिये न जावे । गा बजा कर तथा नाच कर आजीविका करनेवाले, जिस घरमें प्रसूति दुई हो या कोई मर गया हो, वेश्याके घर, जहाँ पापकर्म होता हो, दीन और अनाथोंके घर, दानशालामें, यज्ञशालामें, जहाँ विवाह आदि मांगलिक कृत्य हो रहे हों, इन घरोंमें भोजनके लिये न जाये, जो कुल लोकमें बदनाम हों वहाँ भी भोजनके लिये न जाये, धनवान और निर्धनका भेद न करे, दीनता प्रकट न करे, प्रासुक आहारकी खोजमें सावधान रहे, शास्त्रोक्त निर्दोष आहारके द्वारा जीवन निर्वाह करने पर ही दृष्टि हो । इसका नाम भिक्षा शुद्धि है । जैसे गुणलम्पदा साधु जनोंकी सेवा पर निर्भर करती है वैसे ही चारित्ररूपी सम्पदा भिक्षाशुद्धिपर निर्भर हैं । भोजनके मिलने और न मिलनेपर अथवा सरस या नीरस भोजन मिलनेपर भिक्षुको समान संतोष रहता है, इसीसे इसे भिक्षा कहते हैं । इस भिक्षाके पाँच नाम हैं । गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्नि प्रशमन, भ्रमराहार और गर्तपूरण । जैसे वसाभूषणसे सुसज्जित सुन्दर स्त्रीके द्वारा घास डालनेपर गौ उस स्त्रीको सुन्दरताकी ओर न देखकर घासको ही खाती है, वैसे ही भिक्षु भी भिक्षा देनेवाले स्त्रीपुरुषोंके सुन्दर रूपकी ओर न देखकर जो रूखा, सूखा अथवा सरस आहार मिलता है उसे ही खाता है, इसीसे इसे गोचार या गोचरी कहते हैं । जैसे व्यापारी मालसे भरी हुई गाडीको जिस किसीभी तेलसे औंध कर अपने इच्छित स्थानको ले जाता है वैसे ही मुनि भी गुणरूपी रत्नोंसे भरी हुई इस शरीररूपी गाडीको निर्दोष भिक्षारूपी तेलसे औंधकर समाधिरूपी नगर तक ले जाता है । इस लिये इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं । जैसे गृहस्थ अपने भण्डारमें लगी हुई आगको गदले अथवा निर्मल पानीसे बुझाता है वैसे ही मुनि भी उदराग्नि ( भूखकी ज्वालाको) सरत अथवा नीरस कैसा भी आहार मिल जाता है उसीसे शान्त करता है इससे इसे - -- १ आदर्श तु 'मंगलमेव परि" इति पाठः । - Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३९९ प्रापयतीति अक्षम्रक्षणमिति च नाम प्रसिद्धम् २ | यथा भाण्डागारे समुत्थितं वैश्वानरं अशुचिना शुचिना वा पानीयेन प्रशमयति गृही तथा यथालब्धेन यतिरप्युदामिं सरसेन विरसेन गादारेण प्रशमयतीत्युदराभिप्रशमनमिति य निषध्यते ३ । दातृजनबाया बिना कुशलो मुनिभ्रमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाध्यते । येन केनचित् कृतचारेण श्वश्रपूरणवदुद्रगर्तमनगारः पूरयति खादुना निःस्वादुना वाहा रेगोदरगर्तपुरणमिति वपूर्ण चतिगयते ५ । प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संगतो नखरोमसिंघाण क श्लेष्मनिष्ट्रीयन शुक्र मलमूत्रत्यजने देहपरित्यागे च ज्ञातप्रदेशकालो जन्तुपीयां वाघा बिना प्रयतते । संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण स्त्री दुष्टजीव नपुंसक चोर मद्यपायिकल्पपालबूत कारपक्षिवधकनी च लोकादिपापजनात्रासा वर्ज्याः, शृङ्गार विकार भूष गोयल वेष वेश्याडा भिरामगीतनृत्यवादिचा कुलप्रदेशा विकृतागुपदर्शन काष्ठमयालेख्यहास्योपभोगमहोत्सवबाद मनायुधव्यायाम भूमग्रश्व राग कारणानीन्द्रियगोचर विषया मदमानशोककोपसंक्लेशस्थानादयश्च परिहर्तव्याः, अकृत्रिमा गिरिगुहातस्कोट रादयः कृत्रिमाच शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासाः अनात्मोदेशनिष्पक्ष निरारम्भाः सेव्याः । तत्र संगतस्य त्रिविधो निवासः स्थानमासनं शयनं चेति । पादौ चतुरङ्गुलान्तरे प्रस्थाप्य अस्तिर्यगूर्ध्वान्यतममुखो भूत्वा यत्रात्मभावो यथावत्स्वभावः यथात्मबलवीर्य सदृशः कर्मक्षयप्रयोजनः असं लिष्टमतिस्तिष्ठेत् अथ न शक्नुयात् निष्प्रतिज्ञातः पर्यवादिभिरासनैरासीत यद्यपरिमितकालयोगः खिन्नो वा एकपार्श्वबाहुप्रलम्बन ताङ्गादिभिरल्पकालं श्रमपरिहारार्थं शयीत ७ । वाक्यशुद्धिः पृथिवीकायिकाद्यारम्भप्रेरणरहिता युद्धकामकर्कशर्सभिन्नालापशून्य परुषनिष्टरादिपरपीडाकर प्रयोगनित्सुका खोभक्तराष्ट्रान निपालाश्रितकथाविमुखा व्रतशीलदेशनादिप्रदानफला स्वपरहितमितमधुरमनोहरा परमवैराग्यहेतुभूता परिहृतपरात्मनिन्दाप्रशंसा संमतस्य योम्पा तदधिष्ठानाः सर्वसंपद इति ८ । 'उदराति अशमन' भी कहते हैं । जैसे भौरा फूलको हानि न पहुँचाकर उससे मधु ग्रहण करता वैसे ही मुनि भी दाता जनों को कुछभी कष्ट न पहुँचाकर आहार ग्रहण करते हैं। इस लिये इसे भ्रमराहार या भ्रामरी वृत्ति भी कहते हैं। जैसे गड्ढेको जिस किसी भी तरह भरा जाता है वैसेही मुनि अपने पेटके गढेको स्वादिष्ट अथवा बिना खादवाले भोजनसे जैसे तैसे भर लेता है। इससे इसे पूरण भी कहते हैं । इस प्रकार भिक्षा शुद्धि जानना । प्रतिष्ठापन शुद्धिमें तत्पर मुनि देश कालको जानकर नख, रोम, नाकका मल, थूक, मल, मूत्र आदिका त्याग देश कालको जानकर इस प्रकार करता है, जिससे किसी प्राणीको बाधा न हो। यह प्रतिष्ठापन शुद्धि है । शयनासन शुद्धिमें तत्पर मुनिको ऐसे स्थानोंमें शयन नहीं करना चाहिये और न रहना चाहिये जहाँ स्त्री, दुष्टजीव, नपुंसक, चोर, शराबी, जुआरी, हिंसक आदि पापी जन रहते हों, वेश्याएं मार्ती नाचती हों, अश्लील चित्र अंकित हों, हंसी मजाख होता हो या विवाह आदिका आयोजन हो । इस प्रकार जहाँ रामके कारण हों, वहाँ साधुको नहीं रहना चाहिये | पहाड़ोंकी अकृत्रिम गुफाओं और वृक्षोंके खोखलोंमें तथा कृत्रिम शून्य मकान में अथवा दूसरों के द्वारा छोडे हुए मकानोंमें, जो अपने उद्देश्यसे न बनाये गये हों, उनमें मुनिको निवास करना उचित है। मुनिके निवासके तीन प्रकार हैं-खड़े रहना, बैठना और सोना । दोनों पैरोंके बीच में चार अंगुलका अन्तर रख कर, सुखको अवनत, उन्नत अथवा तिर्यग करके अपने बल और वीर्यके अनुसार मुनिको खडे होकर ध्यान करना चाहिये । यदि खड़ा रहना शक्य न हो तो पर्यत आदि आसन लगा कर बैठे । यदि धकान मालूम हो तो उसे दूर करनेके लिये शरीरको सीधा करके एक करवट से शयन करे | यह शयनासनशुद्धि हैं । पृथिवी कायिक आदि जीवोंकी जिसमें विराधना होती हो, ऐसे आरम्भोकी प्रेरणासे रहित वचन मुनिको बोलना चाहिये, जिससे दूसरेको पीड़ा पहुँचे ऐसे कठोर वचन नहीं बोलना चाहिये। स्त्री, भोजन, देश और राजाकी कथा नहीं करनी चाहिये । व्रत Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ram - - १२. धर्मानुप्रेक्षा संपममेदाः साक्षान्मोक्षप्राप्तिकारणानि । सामायिक १ छेदोपस्थापना २ पर हारविशुद्धिः ३ सूक्ष्मसापरायः ४ यथाख्यातचारिममिति ५। तथा च पञ्चमहावतधारणपसमितिपरिपालन पञ्चशितिकयायनियहमायामिथ्यानिदानदण्डात्रय त्यागपत्रेन्द्रियजयः संयमः । “बंदसमिदिकसायाण दंडाण तहे दिखाण पंचहै। धारणपालगणियहचागजयो संजमो भणियो।" असुहादो विणिवित्ती महे पविती य जाण चारिस । दससिदिगुत्तिजुतं वबहारणवादु जिणभणियं ॥" एतेषां विस्तारव्याख्या गोम्मटसारभगवत्याराधनाचारित्रमाराचारसारादिग्रन्थेषु ज्ञातव्या ।। ३९९ ॥ अथ तपोधर्ममाचष्टे इह-पर-लोय सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम-भावो। विविहं काय-किलेस तव-धम्मो जिम्मलो तस्स ॥ ४०० ।। छाया-इहपरलोकसुखानां निरपेक्षः यः करोति समभावः । विविध कायलेश तपोधमः निर्मल: नस्य ॥] तस्य मुनेः तपोषनस्य तपोधर्मस्तपश्वरणाख्यो धर्मों मवेत् । कथभूतस्तपोधर्मः । निर्मला भलातीतः दोषरहितः द्वादशमितपश्चरजातिवाररहितः । तस्य ह . पो मुनिः गोपनः कोश मिति सरकारमू अनेकमेदभिनं शारीरदमनं शरीरस्पर्शनादीन्द्रियमनसा दमनं संयमन वशीकरणं विदधाति । 'अनशनावमोदर्यवृतिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासनकायकेशा पाय तपः' । 'प्रायम्बितधिनयवैयावृत्स्यस्वाध्यायच्युत्सर्गध्यानान्युसरम इति द्वादशविध तपक्षरणं करोती. त्यर्थः । कायग्नेशं त्पिपासाक्षीतोष्णदशमसकादिपरीपहसहन शीतोष्णवर्षाकालेषु चतुःपथगिरिशिखरापगातरुवृक्षामूलेषु योगधरणं च करोति । यः कीदृक्षः सन् तपोवनः । इहपरलोकसुखाना निरपेक्षः, इहलोकसुखाना स्वर्गमर्त्यपातालस्थितानामिन्द्रनरेन्धधरणेन्द्रादीना सौख्याना वाञ्छारहिताश्च । 'निःशल्यो व्रती' इति वचनात् मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयरहित इत्यर्थः । पुनः कीदृशः तपोधनः । समभाषः सर्वत्र सुखदुःखशत्रुमित्रलाभालाभेष्टानिष्टतृणकाशनादिषु समपरिणामः सदृशपरिणाम इत्यर्थः । तथा हिलपार्जितकर्मक्षयार्थ मार्गाविरोधेन तपखिना सप्यते इति तपः, सम्यग्दर्शनशानचा रिमरूपरनप्रयप्रकटीकरणार्थम् इच्छानिरोधो वा तपः ॥ ४०॥ अथ स्यागधर्ममाच जो चयदि मिट्ठ-भोज उवयरणं राय-दोस-संजणयं । वैसर्दि ममत्त हेतुं पाय-गुणो सो हवे तस्स ॥४१॥ शील आदिका उपदेश करनेवाले, हित मित और मधुर वचन ही बोलना चाहिये । दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये । यह वाक्यशुद्धि है । इस प्रकार ये आठ शुद्धियां संयमीके लिये आवश्यक है । गोम्मटसारमें, पाँच प्रतोंका धारण, पांच समितियोंका पालन, कषायोका निग्रह, मन वचन कायकी प्रकृत्तिका त्याग और पाँचों इन्द्रियोंके जीतनेको संयम कहा है । इनका विस्तृत व्याख्यान चरणानुयोगके ग्रन्थोंसे जानना चाहिये ॥३९॥ आगे तपधर्मको कहते हैं। अर्थ-जो समभावी इस लोक और परलोकके सुखकी अपेक्षा न करके अनेक प्रकारका कार्यक्लेश करता है उसके निर्मल तपधर्म होता है || भावार्थ-भूख, प्यास, शीत, उष्ण, डांस मच्छर वगैरहकी परीषहको सहना, तथा शीतऋतुमें खुले हुए स्थानपर, प्रीष्मऋतुमें पर्वतके शिखरपर और वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे योग धारण करने को कायक्लेश कहते हैं। और कायक्लेश करनेका नामही तप है । किन्तु उसी मुनिका तप निर्मल कहा जाता है जो सुख दुःग्नमें, शत्रु मित्रमें, लाभ अलाभमें, इ अनिष्टमें और तृण कंचनमें समभाव रखता है, तथा इस लोक और परलोकके सुखोंकी जिसे चाह नहीं है । क्योंकि जो मायाचार, मिथ्यात्व और निदान (आंगामी सुखोंकी चाह ) से रहित होकर व्रतोंका पालन करता है वही व्रती कहलाता है। कोका क्षय करनेके उद्देश्यसे जैन मार्गके अनुकूल जो तपा जाता है वही तप तप है। इनको रोकनेका नाम भी तप है ।। ४०० ॥ अब त्याग धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो मिष्ट भोजनको, राग १ ग ककेस । २ स.पुस्तके एषा गाथा नारिख । ३म विसयविसमस । ४ म सुधो (दो)। - -- Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा. ३०२ [छाया-यः त्यजति मिष्टभोज्यम् उपकरणं रामदोषसंजनकम् । सति ममत्वहेतु त्यागगुणः स भवेत् तस्य ॥] तस्य मुनेः जगप्रसिद्धः त्यागगुणः दानाख्यो गुणः त्यागधौ वा भवेत् स्यात् । कस्य । यः मुनिः त्यजति परिहरति । 10किम् मिएभोज्यं रसादिकं पृष्परसं कामजनक कम्दोत्पादक सरसाहार स्यजति, तथा रागद्वेषमनकम् उपकरणं त्यजति, रागद्वेषोत्पादकं परिग्रह त्यजति, यत् रागद्वेषोत्पादकक्षेत्रभूमिप्रदेशवसतिकादिधनधान्यद्विपदचतुष्पदादिकं त्यजति। चारित्रसारे, पधित्यागः पुरुषहितो यतो यतः परिप्रद्दात् अपेतः ततस्ततः संयतो भवति । ततोऽस्य खेदो व्यपगतो भवति । परिग्रह परित्याग दृष्टपरलोकपरमसम्बकारणं भवति । निरवद्यमनःप्रणिधानं पुण्यनिधानं भवति । परिग्रहो बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः । परिग्रहसंग्रह एवं दुःखमयादिक जनयतीति रागद्वेषजनकमुपकरण मनोज्ञरागवारिकनकरजतादिनिष्पादितकमण्डलुपसूत्रअडितपिच्छिकापुस्तकजपमालिकाचकलपीठादिकं त्यजति । मुनिवारामुपाश्रयस्थानं ममत्वकारण मोहोत्पादकं त्यजति । तथा तत्वार्थसूत्रे 'संयमिना योग्य ज्ञानसंयमशीन्योपकरणादिदा बाग उन्.यते ॥ ४.१॥ आकिंचन्यधर्म बितनोति ति-विहेण जो विवजादि चेयणमियरं च सव्वहा संग । लोय-यवहारै-विरदो णिग्गंथर्स हवे तस्स ॥४०२॥ छाया-त्रिविधेन यः विवर्जमति चेतनमितरं च सर्वथा संगम् । लोकय्यवहारविरतः निर्ग्रन्थत्वं भवेत् तस्य ।। तस्य मुनेः निप्रन्धत्वं परिग्रहराहित्यम् आकिंचन्य नाम धर्मों भवेत् । तस्य कस्य । यो मुनिः विवर्जयति त्यजति । कम् । संग परिप्रई चेतन शिष्यछात्रार्यिकाक्षुल्लिकापुत्रकलत्रमित्रखजनवान्धवादिलक्षणं सचेतनं त्यजति, इतरच्च अचेतनं क्षेत्रवास्तुधनसुवर्णरनरूप्यताम्रवस्त्रभाजनशम्पाशनादिक वर्जयति । कथम् । सर्वथा सर्वप्रकारेण मनोवचनकाययोगेन निविधेन प्रत्येक कृतकारितानुमोदेन प्रकारेण संग सजति । मनसा फुतकारितानुमोदनेन परिग्रह त्यजति, बचनेन कृतकारितानुमोदन संग त्यजति, कायेन कृतकारितानुमोदेन संग परिहरति इत्यर्थः । कीटक् राम् मुनिः । लोकव्यवहारविरतः लोकाना द्वेषको उत्पन्न करनेवाले उपकरणको, तथा ममत्व भावके उत्पन्न होनेमें निमित्त वसतिको छोड़ देता है उस मुनिके त्याग धर्म होता है || भावार्थ-संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त व्यक्ति ही मुनिपदका अधिकारी होता है, अतः इनका त्याग तो वह मुनिश्रत धारण करते समय ही कर देता है । यहाँ तो मुनिको जिन वस्तुओंसे काम पड़ता है उनके त्यागका ही निर्देश किया है । मुनिको जीनेके लिये भोजन करना पड़ता है, किन्तु वह कामोत्पादक सरस आहार ग्रहण नहीं करता, धर्मसाधनमें सहायक पीछी कमण्डल आदि भी ऐसे नहीं रखता, जिनसे. मनमें राग उत्पन्न हो, तथा ऐसी जगह नहीं क्सता जिससे ममत्व पैदा हो । इसीका नाम त्याग है । तस्त्रार्थसूत्रकी टीकामें संयमी मुनिके योग्य ज्ञान, संयम और शौचके उपकरण पुस्तक, पीली और कमण्डल देनेको त्याग कहा है ॥ ४०१॥ आगे आकिंचन्य धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो लोकव्यवहारसे विरक्त मुनि चेतन और अचेतन परिग्रहको मन वचन कायसे सर्वथा छोड़ देता है उसके निम्रन्थपना अथवा आकिंचन्य धर्म होता है | भावार्थमुनि दान, सन्मान, पूजा, प्रतिष्ठा, विवाह आदि लौकिक कौसे विरक्त होते ही हैं, अतः पुत्र,स्त्री, मित्र, बन्धुबान्धव आदि सचेतन परिग्रह तथा जमीन जायदाद, सोना चांदी, मणि मुक्ता आदि अचेतन परिग्रहको तो पहले ही छोड़ देते हैं । किन्तु मुनि अवस्थामें भी शिष्य संघ आदि सचेतन परिमहसे और पीछी कमंडलु आदि अचेतन परिग्रहसे मी ममत्व नहीं करते । इसीका नाम आकिंचन्य है। मेरा कुछ भी नहीं है, इस प्रकारके भाषको आकिंचन्य कहते हैं । अर्थात् 'यह मेरा है। इस प्रकारके संस्कारको दूर करनेके लिये अपने शरीर वगैरहमें मी ममत्व न रखना आकिंचन्य धर्म है । १मस विवहार, ग चे (३१) वद्वार। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३] १२. धर्मानुशा ३०५ उद्दारः मानसन्मानदानपूजाला भादिलक्षणः तस्मात् विरतः विरक्तः निवृतः अथवा संघयात्रा प्रतिष्ठा प्रतिनाप्रासादोद्धरणादिपुण्यकरणादिरहितः । तथा तवार्थसूत्रे एवमप्युक्तं च । 'नास्ति अल्प किंचन किमपि अकिंचनो निःपरिग्रहः तस्म भावः कर्म वा आकिंचन्यं निःपरिग्रहसं निजशरीरादिषु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसंधिनिषेधनमित्यर्थः । तदाचिन्न चतुःप्रकारे भवति । सम्य परस्य च जीवितलोभपरिहरणं १, स्वस्य परस्य न आरोग्यलोभ परिहरणं २, स्वस्य परस्य च इन्द्रियभपरिहरणं ३, स्वस्य परस्य चोपभोगलोभयञ्जनं चेति ४ । शरीरादिषु निर्ममत्वात् परमनिर्ऋतिमवाप्नोति । यथा यथा शरीरं पोषयति तथा तथा लाम्मभ्यं तजनयति तपस्यनादरो भवति, शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य मुनेः संसारे सर्वकालमभिष्य एव ॥ ४०२ || अथ ब्रह्मचर्य धर्ममाख्याति कम्पनु जो परिहरेदि संगं महिलाणं व परसदे रुवं । काम - कहादि-गिरीहो णत्र- विह-बंर्भ हवे तस्स ॥ ४०३ ॥ [ छाया-थः परिहरति संगै महिलानां नैव पश्यति रूपम्। कामकथादिनिरीह : नवविधब्रह्म भवेत् तस्य ॥ ] तस्य सुनेः नवधा ब्रह्मचर्यं भवेत, नवप्रकारैः कृतकारितानुमगुणिनामनो वचनकायैः कृत्वा स्त्रीसंगं वर्जयति ब्रह्मचर्य स्वात । ब्रह्मणि स्वरुपे शुद्धबुद्धे शुद्धविद्रूपे परमानन्दे परमात्मने चरति गच्छति विप्रत्यनुभवतीति परमानन्दैकामृतरसं स्वादयति भुनक्तीति ब्रह्मचर्यं भवति । तस्य वस्य । यो मुनिः महिलाना संगं परिहरति, स्त्रीणां युवतीनां देवीनां मानुषी तिरवीना व संग संगति गोष्ठों लजति वनितासंगासुतशय्यासनादिकं परिहरतीति, तथा महिलानी स्त्रीणां रूप जघनस्तुनवइन नयनादिमनोदराजादिलक्षणं रूपं नैव पश्यति नैवावलोकते । कथंभूतो मुनिः । कामकथादिनिवृत्तः कामपा शरीर वगैरह भी निर्ममत्व होनेसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है। किन्तु जो मुनि शरीरका पोषण करते हैं, उनका तपस्या में आदर भाव नहीं रहता । अधिक क्या, शरीर आदि से ममता रखनेवाला मुनि सदा मोहकी कीचड़ में ही फंसा रहता है ॥ ४०२ ॥ आगे ब्रह्मचर्य धर्मका वर्णन करते हैं । अर्थ- जो मुनि त्रियोंके संगसे बचता है, उनके रूपको नहीं देखता, कामकी कथा आदि नहीं करता, उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है । भावार्थ - अह्म अर्थात् शुद्ध बुद्ध आनन्दमय परमात्मामें लीन होनेको ब्रह्मचर्य कहते हैं । अर्थात् परमानन्दमय आत्मा के रसका आस्वादन करना ही ब्रह्मचर्य है | आमाको भूलकर जिन परवस्तुओंमें यह जीव लोन होता है उनमें स्त्री प्रधान है। अतः स्त्रीमात्रका, चाहे वह देवांगना हो या मानुषी हो अथवा पशुयोति हो, संसर्ग जो छोड़ता है, उनके बीच में उठता बैठता नहीं है, उनके जघन, स्तन, मुख, नयन आदि मनोहर अंगोंको देखता नहीं है तथा उनकी कथा नहीं करता उसीके मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना मेदसे नौ प्रकार का मचर्य होता है । जिन शासनमें शीलके अठारह हजार भेद कहे हैं जो इस प्रकार हैं- स्त्री दो प्रकार की होती है अचेतन और चेतन । अचेतन त्रीके तीन प्रकार हैं-लकड़ी की, पत्थरकी और रंग वगैरह से बनाई गई । इन तीन भेदोंको मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन छः गुणा करने पर १८ भेद होते हैं । उनको पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर १८४५ - ९० भेद होते हैं। इनको द्रव्य और भावसे गुणा करने पर ९० x २ = १८० एकसौ अस्सी भेद होते हैं । उनको क्रोध, भान, माया और लोभसे गुणा करने पर १८० x ४ = ७२० भेद होते हैं। चेतन खोके भी तीन प्रकार हैं- देवांगना, मानुषी और तिर्यश्चनी । इनको कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करनेपर ३ x ३ - १ गप्पच । (स) गणितो. मणिम सग वहा । कार्तिके० ३९ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गां० ४०४ दकनीकथास्मरणविरक्त इति । ब्रह्मचर्यमनुपालयन्तं हिंसादयो दोषा न स्पृशन्ति, गुणसंपदः श्रयन्ति च ॥ तथा भावसहस्रशीलगुणाः के इत्युच्यन्ते । 'जोए ३ करणे ३ सण्णा ४ इंदिय ५ भोम्मादि १० समणधम्मो य [१०] अण्णोहि अभया अठ्ठारहसीलसहस्साई ।' अनुभमनोबचनकाययोगाः शुमेन मनसा गुण्यन्ते इति श्रीणि शीलानि ३, अशुभमनोवचनकाययोगाः शुभेन वचनेन गुण्यन्ते इति षट् शीलानि ६, अशुभ मनो वचन काययोगाः शुमेन काययोगेन गुण्यन्ते इति नवशीलानि ९, खानि चतसृभिराहारादिसंज्ञाभिर्गुणितानि पट्टिशच्छीलानि च ३६, तानि पवमिः स्पर्शनान्द्रियैर्गुणितानि १८०, तानि पृथिवी १ जल २ अनि ३ वायु ४ प्रत्येक ५ साधारण वनस्पति ६ द्वित्रिचतुः पतेन्द्रियजीवरक्षणैः दशभिगुणितानि १८००, तानि उत्तमक्ष मादिदशधमैगुणितानि १८००० भवन्ति ॥ अथवा काष्ठपाषाणलेपकृताः स्त्रियः ३, मनोवयनकायकृतकारितानुमतगुणिता अष्टादश १८, स्पर्शनादिपचेन्द्रियैर्गुणिताः नवतिः ९०, दष्यभावाभ्यां गुणिताः असीत्यशतं १८०, क्रोधादिकषायैश्चतुर्भिर्गुणिताः विंशत्यधिकसप्तशतानि ७२०, इत्यचेतनस्त्रीकृतमेदाः । सचेतन स्वीकृतमेदास्ते के 1 देवी १ मानुषी २ विरश्री ३ च तिस्रः स्त्रियः कृतकारितानुमतगुणिता नत्र ९, एते मनोवचनकायगुणिताः सप्तर्वेिशतिः २५ एते स्पर्शरसगन्धवशन्देः पञ्चभिर्गुणिताः पञ्चत्रिंशदधिकशतं १३५, द्रव्यभावाभ्यां द्वाभ्यां गुणिताः २७०, एते श्राहारादिभिः चतसृभिः संज्ञाभिर्गुणिता १०८०, एते अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनको धमानमायालो भैः षोडशैर्गुणिताः अशीत्यधिकद्विशतामसप्तदश सहस्रमेदाः १७२८० इति सचेतनजीकृतमेशः । एकत्रीकृताः सर्वे १८००० भवन्ति ॥ ४०३ ॥ स्त्रीणां कटाक्षवाणैर्न विद्यः स शूरः कथ्यते- 101 जो वि जादि' वियारं तरुणियण- कडक्ख' वाण-विद्धो वि । सो चैव सूर-सूरो रण-सूरो णो हवे सूरो ॥ ४०४ ॥ [ छाया-यः नैव याति विकारे तरुणीजनकटाक्षवाणविद्धः अपि । स एव शरशूरः रणशूरः न भक्त शूरः ॥ ] स एव च शूरशूरः शूराणां विक्रमाकान्तपुरुषाणां मध्ये शूरः सुभटः पराक्रमी अजेयमको भवेत् । रणशूरः संग्रामशोष्ठः ९ ६ होती हैं । इन्हें मन वचन काय से गुणा करने पर ९४३ = २७ मेद होते हैं। उन्हें पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर २७४५ = १३५ भेद होते हैं । इन्हें द्रव्य और भावसे गुणा करनेपर १३५ x २ = २७० भेद होते हैं । इनको आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे गुणा करने पर १०८० एक हजार अस्सी भेद होते हैं। इनको अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायोंसे गुणा करनेपर १०८०x१६ १७२८० सतरह हजार दो सौ अस्सी भेद होते हैं। इनमें अचेतन बीके सात सौ बीस मेद जोड़ देने से अट्ठारह हजार मेद होते हैं। ये सब विकार के भेद हैं। इन विकारों को स्वागनेसे शीळके अट्ठारह हजार भेद होते हैं । इन भेदोंको दूसरे प्रकार से भी गिनाया है । मन वचन और काय योगको शुभ मन, शुभ वचन और शुभ लायसे गुणा करनेपर ९ भेद होते हैं। उन्हें चार संज्ञाओं से गुणा करनेपर ९ x ४ = ३६ छत्तीस भेद होते हैं । उन्हें पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करनेपर ३६५५ - १८० भेद होते हैं। उन्हें पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवोंकी रक्षा रूप दससे गुणा करनेपर १८०० भेद होते हैं । और उन्हें उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोसे गुणा करनेपर अठ्ठारह हजार भेद होते हैं ॥ ४०३ ॥ शूरकी व्याख्या इस प्रकार है । अर्थ-जो तरुणी स्त्रीके कटाक्ष रूपी बाणोंसे छेदा जाने पर भी विकारको प्राप्त नहीं होता वही शूर सवा शूर है, जो संग्राममें शूर है वह शूर नहीं है ॥ १ वि वि जाति । १ तणिक पाण Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -०५] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३०७ शूनः सुभटो न भवेत, संग्रामाणे अनेकसुभटजयकारी शूरो न स्यात् । तर्हि कोऽसौ शुरः 1 यो मुनिर्भय्यो वा तरुणीकटाक्षबाणविद्धोऽपि तरुणीजनानां यौवनोन्मत्तस्त्रीजनानां सलीलहावभावविभ्रमरागचेष्टाविचेष्टितयुवतिजनसमूहानां नयनानि लोचनानि तेषां कटाक्षा अपाङ्गदर्शनानि केकरापाता त एव बाणाः शराः तैर्षिदः ताडितः सन् विकार विक्रिया मनःझोभ चञ्चललं न याति न प्राप्नोति स एव शूरशूर: अजेयमालो गंवेत् । उच्च च "शम्भुवयंभुहरयो हरिणेक्षणानो येनाकियन्तै सततं गृहकुम्भदासाः। बाबामगोचरचरित्रपविन्त्रिताय तस्मै नमो बलदते मकरध्वजाय ॥ मतेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः केचित्प्रचण्डममराजवधेऽपि दक्षाः। किंतु अवीमि बलिनां पुरतः प्रसय कन्दर्पदर्यदलने विरला मनुष्याः ॥ तावन्महस्त्वं पाण्डिवं कुलीनत्वं विवेकिता। सावजवलति नाङ्गेषु इतः पञ्चेषुपावकः ॥ विकलयति कलाकुशल हसति शुचि पण्डित विडम्बयति । अधरयति धीरपुरष क्षणेन मकरध्वजो वीरः॥ दिवा पश्यति नो घूकः का नतं न पश्यति । अपूर्व कोऽपि कामान्धो दिवानत न पश्यति ॥ तथा विद्यार्यताम् । दुर्गन्धे चर्मगर्ने व्रणमुखशिखरे मूत्ररेतःप्रवाहे, मांसासदमाः कृमिकुलकलिते दुर्गमे दुनिरीक्षे । विष्ठाद्वारोपकण्ठे गुर्दविवरगलवायुधमार्तधुपे, कामान्धः कामिनीनां काटेतरनिकटे गर्दमत्युस्थमोहात् । ४०४ ॥ अथ दशप्रकार धर्ममुपसंहरति “एसो दह-प्पयारो धम्मो दह-लक्षणो हवे णियमा । अण्णो ण ईवदि धम्मो हिंसा सुहुमा वि जस्थथि ॥ ४०५ ॥ [छाया-एष दशप्रकारः धर्मः दशलक्षणः भवेत् नियमात् । अन्यः न भवति धर्मः हिंसा सूक्ष्मा अपि यत्रास्ति ॥] एथ प्रत्यक्षीभूतो जिमोक्तो धर्मः दशप्रकारः । उत्तमक्षमा १ उत्तममार्दवः २ उत्तमार्जनः । उत्तमसत्यम् । सप्तमीचम्) ५ उत्तमसंयमः ६ उत्तमतपः ७ उत्तमत्यागः ८ उत्तमाकिंचन्यम् १ उत्तमब्रहाचर्यम् १० इति देशाधिधधर्म: 1 संसारदुःखादुरल मोक्षसुखे धरतीति धर्मः भवेत् । दशमेद इति कथम् । दशलक्षणत्वात्, दशधर्माणा पृथक्पृथक् लक्षणानि सन्तीति देतोः। नियमात निश्चयल: दशलक्षणो श्रमों मवेत । पुनः अन्यो न धर्मः सौख्यवौद्धनैयायिकजैमिनीयचार्वाकजनाभासाविप्रणीतवेदस्मृतिपुराणादिकथितवमों नुषो न भवति न स्यात् । कुतः पत्र धर्मे सूक्ष्मा हिंसा सूक्ष्मो जीवनधो न चेतनाचेतनप्राणिवधो न । अपिशब्दात् स्थूलहिंसाजीवघातन न नास्ति गोमेधाश्वमेधगजमेधनरमेधादिकं नास्ति स धर्मः ॥४.५॥ अथ हिंसारम्भ गायत्रयेण धारयतिभावार्थ-और मी कहा है-'पृथ्वीपर मदोन्मत्त हाथीका गण्डस्थल विदारण करनेवाले वीर पाये जाते हैं। कुछ उग्र सिंहको मारनेमें भी कुशल हैं । किन्तु मैं बलवानों के सामने जोर देकर कहता हूं कि कामदेवका मद चूर्ण करनेवाले मनुष्य बहुत कम पाये जाते हैं' ।। वास्तवमें काम बड़ा ही बलवान है । इसीसे किसी कविने कहा है-'जिसने ब्रह्मा, विष्णु और महादेव को भी कामिनियोंका दास बना दिया तथा जिसकी करामातका वर्णन वचनोंसे नहीं किया जाता उस कामदेवको हमारा नमस्कार है'। और भी कहा है-'तमी तक पाण्डिल्य, कुलीनता और विवेक रहता है जबतक शरीरमें कामानि प्रज्वलित नहीं होती' || 'यह वीर कामदेव क्षणभरमें कलाकारको मी विकल कर डालता है, पवित्रताका दम्भ भरनेवालेको हंसीका पात्र बना देता है पण्डितकी विडम्बना कर देता है और धीर पुरुषको मी अधीर कर देता है । 'उल्लूको दिनमें नहीं दिखाई देता, कौवोंको रात्रिमें नहीं दिखाई देता । किन्तु कामसे अन्धे हुओं मनुष्य को न दिनमें दिखाई देता है और न रात्रिमें दिखाई देता है। अतः ब्रह्मचर्य दुर्धर है ॥ ४०४ ॥ अब दसधौके कथनका उपसंहार करते हैं । अर्थ-वह दस प्रकारका धर्म ही नियमसे दशलक्षण रूप धर्म है। इनके सिवाय, जिसमें सूक्ष्म भी हिंसा होती है यह धर्म नहीं है | भावार्थ-जो संसारके दुःखोंसे उद्धार करके जीत्रको मोक्षके सुखमें धरता है ... आदर्श तु येन कृताः सततं ते गृह। १ स इव । ३ व सुहमा । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा हिंसारंभी ण सुहो देव- णिमितं गुरुण कज्जेसु । हिंसा पावं ति मदो दया पहाणी जदो धम्मो ॥ ४०६ ॥ [ गा० ४०६ [ छाया-हिंसारम्भः न शुभः देवनिमित्त गुरूणां कार्येषु । हिंसा पाप इति मतं दयाप्रधानः यतः धर्मः ॥ ] हिंसारम्भः हिंसायाः प्रारम्भः न शुभः न पुण्यं नापि श्रेष्ठः समीचीनो न भवति । किमर्थ हिंसारम्भः । देवनिमित हरिहरहिर प्रयगर्भचण्डिकाकालिका महन्मा याक्षेत्रपालयक्षभूत पिशाचादिदेवार्थ तथा गुरूणां कार्येषु कर्तव्येषु संशयिभिर्यदुक्तं देवगुरुधर्मकार्येषु हिंसा न दोषाय । तथा चोकं तत्सूत्रे | 'देवगुरुधम्मकज्जे चूरिज्जद चकवणं पि । जइ तं कुणइ ण साहू अनंतसंसारिओ होइ । जंग कारणेण सूज व गुण सो भगत संसारिओ होइ ॥ तथा रगगणवलं गर्भसंचारामा स वसनपरिमुत्को नायको तीर्थदेवः । पलमशन विधातुमन्दिरे भिक्षुचर्या समयगहनदातुर्मारणे नास्ति पापम् ॥ सयंमरो वा दिर्यवरो वा अहवा बुद्धझे थ अण्णो था । समभावभाविमप्या लहइ मोक्खं संदेहो ॥१/ बौद्धादीना हिंसकाना मुक्तिः कथिता । तथा मधुमया मिषाद्दारादिकं कल्पे स्थापितम् दुई १ दहिय २ णवणीयं ३ साप्पि ४ तिल ५ गुढं ६ मजं ७ मंसं ८ महु ९ इमाओ नवरसविगईओ अभिक्तणं २ आहारितये नो से कप्पर बुद्धगिलापरस से वियजा से वियणं परिपूरये नो चेवण अपरिपूरये [] अत एते संशयिनः आचार्या नरकं गच्छन्तीत्याह । पंचत्रणं कीर्ण पंचावणाई सतसहस्साइ पंचसया वायाला आयरिया परयं वज्रंति ५५५५००५४२ । एतत्सर्वं तन्मतोकम् । इत्येतत्सूत्रेण देवार्थं गुरु कार्येषु हिंसारम्भो निराकृतः, यतः हिंसा पापं इति जीववध संकल्पं पापमिति धर्मः यतिधर्मः दयाप्रधानो मतः कथितः षट्जीवनिकायरक्षापरः यतिधर्मः प्रतिपादितोऽस्ति । तथा प्रकारान्तरेण व्यस्याः गाथाया व्याख्यान वही धर्म है। वह धर्म उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उसम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य इन दश लक्षण रूप है । धर्मके येही" दस लक्षण है। जहाँ थोडीसी भी हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है ॥ ४०५ ॥ आगे तीन गाथाओंसे हिंसाका निषेध करते हैं। अर्थ-चूंकि हिंसाको पाप कहा है और धर्मको दयाप्रधान कहा है, अतः देवके निमित्तसे अथवा गुरुके कार्यके निमित्तसे भी हिंसा करना अच्छा नहीं है ॥ भावार्थ - जैनधर्मके सिवाय प्रायः सभी अन्य धर्मो में हिंसामें धर्म माना गया है। एक समय भारतमें यज्ञोंका बढ़ा जोर था और उसमें हाथी घोड़े और बैलोंको ही नहीं मनुष्य तक होमा जाता था । वे यज्ञ गजमेध, अश्वमेध, गोमेध और नरमेधके नामसे ख्यात थे। जैनधर्मके प्रभावसे वे यज्ञ तो समाह होगये । किन्तु देवी देवताओंके सामने बकरों, भैंसों, मुर्गों वगैरहका बलिदान आज भी होता है । यह सब अधर्म है, किसी की जान ले लेनेसे धर्म नहीं होता । किन्हीं सूत्रमन्थोंमें ऐसा लिखा है कि देव गुरु और धर्मके लिये चक्रवर्तीकी सेनाको भी मार डालना चाहिये । जो साधु ऐसा नहीं करता वह अनन्त काल तक संसारमें भ्रमण करता है । कहीं मांसाहारका मी विधान किया है। प्रन्थकारने उक्त गाथाके द्वारा इन सब प्रकार की हिंसाओं का निषेध किया है। उनका कहना है कि धर्मके नाम पर की जानेवाली हिंसा भी शुभ नहीं है । अथवा इस गाथाका दूसरा व्याख्यान इस तरह भी है कि देवपूजा, चैत्यालय, संघ और यात्रा वगैरह के लिये मुनियोंका आरम्भ करना ठीक नहीं है । तथा गुरुओंके लिये वसतिका बनवाना, भोजन बनाना, सचित्त जल फल धान्य वगैरहका प्रासुक करना आदि आरम्भ भी मुनियोंके लिये उचित नहीं हैं, क्यों कि ये सब आरम्भ हिंसाके कारण हैं । वसु १ 'गर्भसंसार' इत्यपि पाठः पुस्तकान्तरे । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०८] १२. धर्मानुप्रेक्षा २०९ माह बनिमितं देवानामिज्याचेत्यचैत्यालयसंपयात्राद्य यतिमिः हिंसारम्भः किममाणः शुभो न भवति । तमा गुरुमा का सतिकानिष्पावनपाकादिविधानसविल जलफळचाम्पादिप्रासुककरणादिषु च हिंसारम्भः सावधारम्मः पापारम्ना जियमाणः शुभो न भवति । सुनन्दिना यत्याचार प्रोक्तं च सावजकरणजोग्य सम्वं तिबिहेण तियरणविमुद्ध। बजति बजमीरू जावजीवा यणिगंथा।"/निन्थाः अवद्यभीरवः पापमीरवः सावधकरणं योर्ग सर्वमपि त्रिविधेन त्रिप्रकारेण कृतकारितानुमतरूपेण त्रिकरणविशुद्ध यथा भवति मनोवचनकायक्रियाशुद्ध यथा भवति तथा वर्जयन्ति परिहरन्ति बारजीचे मरणपर्यन्तम् । तथा तिणवखहरिदच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाई । फलपुष्पमीयघाद ण करवि भुणी ण कारेति ।। तृणच्छेद वृक्षन्दै हरितन्छेदन छिन्नच्छेदनं च न कुर्वन्ति ने कारयन्ति मुनयः । तथा त्वक्पत्रप्रवालकन्दमहानि न छिन्दान्त न छेदयन्ति । तथा फलपुष्पबोजघात न कुर्वन्ति न कारयन्ति मुनयः। तथा / पुढचीय समारंभ अलपवणगीतसाणमारंभ । ण करति ण कारेन्ति य कीरतं पाणुमोदति।" पृथिव्याः समारम्भ खनमोत्कीरणचूर्णनादिकं न कुर्वन्ति न कारयन्ति नानुमन्यन्ते धीरा बुद्धिमन्तो मुनयः । तथा जलपवनामित्रसाना सेचनोत्कर्षणवीजनज्वालनमर्दनत्रासनादिकं न कुर्वन्ति न कारयन्ति नानुमन्यन्त इति ॥ ४०६ ॥ यतः । देव-गुरूण णिमित्तं 'हिंसा-सहिदो वि होदि जदि धम्मो। हिंसा-रहिदो धम्मो इदि जिण-चयण हवे अलियं ॥ ४०७ ॥ [छाया-देवगुर्वोः निमित्तं हिंसासहितः अपि भवति यदि सभः । हिंसारहितः धर्मः इति जिनवचनं भवेत् असीकम् ॥] अथ हिंसारम्भः हिंसायाः जीववधस्य आरम्भः निष्पादनं स्थावरजङ्गमजीयघातनं हिंसाप्रारम्भः धर्मों यो माति । किमर्थम् । देवगुर्बोनिमित्तं देवकार्याय गुरुकाय व । हिंसारम्भो धर्मः इति यदि चेत् तईि । इति बिनापन - बसस्य मिथ्या भवेत् । इति किम् । हिंसारहितो धर्मः जीवदयाधर्मः । उस च । 'धर्मस्य मूल दया' इति । तथा पम्मो मंगमुकि₹ लाहिंसा संजमो तथो। इति ॥ ४० ॥ इदि एसो जिण-धम्मो अलद्ध-पुन्चो अणाई-काले वि । मिच्छत-संजुदाणं जीवाणं लद्धि-हीणाणं ॥ ४०८॥ मन्दि आचार्य ने यति-आचार बतलाते हुए लिखा है-निम्रन्थ मुनि पापके भयसे अपने मन वचन और कामको शुद्धकरके जीवन पर्यन्तके लिये सावध योगका त्याग कर देते हैं ।। तथा मुनि हरित तृण, वृक्ष, छाल, पत्र, कोंपल, कन्दमूल, फल, पुष्प और बीज वगैरहका छेदन मेदन न स्वयं करते है और न दूसरोंसे कराते हैं | तथा मुने पृथिवीको खोदना, जलको सींचना, अग्निको जलाना, वायुको उत्पन्न करना और बसोंका घात न वयं करते हैं, न दूसरोंसे कराते हैं और यदि कोई करता हो उसकी अनुमोदना भी नहीं करते ।। ४०६ ॥ क्यों कि । अर्थ-यदि देव और गुरुके निमित्तसे हिंसाका आरम्भ करना भी धर्म हो तो जिन भगवानका यह कहना कि 'धर्म हिंसासे रहित है' असत्य हो जायेगा | मावार्थ-गृहस्थी बिना आरम्भ किये नहीं चल सकती और ऐसा कोई आरम्म नहीं है जिसमें हिंसा न होती हो । अतः गृहस्थ के लिये आरम्भी हिंसाका त्याग करना शक्य नहीं है। किन्तु मुनि गृहवासी नहीं होते अतः वे आरम्भी हिंसाका भी त्याग कर देते हैं । वे केवल अपने लिये ही आरम्भ नहीं करते, बल्कि देव और गुरुके निमित्तसे भी न कोई आरम्भ खयं करते हैं, न दूसरोंसे कराते हैं और न ऐसे आरम्मकी अनुमोदना ही करते हैं ॥ १०७ ।। अर्थ-इस प्रकार यह जिन भादर्श गाणुमोदए धीरा' इति पाठः 1 २ छ ग हिसारंभो वि जो हवे धम्मो। इमस (1) शोदि जाये। होगा। ४कम सग दिसारहिओ (१)[५. अण्णाब, म भणीह। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४०९[छाया-इति एष जिनधर्मः अलग्यपूर्वः अनादिकाले अपि । मिथ्यात्वसंयुताना जीवाना लम्विहीमानाम् ॥] इत्युकप्रकारेण एष प्रत्यक्षीभूतो जिनधर्मः सर्वशोकधर्मः मिथ्यात्वसंयुकाना जीवानाम् अनादिकालीनमिथ्यात्वसंयुकानो जीवानाम् अनादिकालेऽपि अनन्तानन्तातीतकालेऽपि भपिशब्दात् अभव्यदूरानुत्तरभव्यापेक्षया वर्तमानकालानन्तानन्तभविष्यकाले, अलब्धपूर्वः पूर्वं न लब्धः न प्राप्तः जिनधों न प्राप्तः । कीदक्षाणाम् । लब्धिहीनानां क्षयोपशमलब्धिरहितानाम् ॥ ४०८॥ अथ दशप्रकारधर्मस्य माहात्म्यमभिष्टौति एदे दह-प्पयारा पावं-कम्मरस णासया भणिया । पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायब्वा ॥ ४०९ ॥ [छाया-एते दश प्रकाराः पापकर्मणः नाशकाः मणिताः । पुण्यस्य च संजनकाः पर पुण्यार्य न कर्तव्याः ॥ एते पूर्वोक्ता दशप्रकारा उत्तमक्षमादिदशमेदभिक्षाः पापकर्मणः नाशकाः । अतोऽन्यत्पापम्।' अस द्याशुभायुनामगोत्रशानाबरणदर्शनादरणमोहनीयान्तरायस्य अशुभप्रकृतेः भ्यशीतिसंख्यायाः ८२ नाशकाः विनाशकाः स्फेटकाः क्षयकार: उपशमकाःक्षयोपशमका भणिताः कथिताः । पुनः कथंभूताः। पुण्यस्य जनकाः पुण्यकर्मणः सद्यशुभायुनर्नामगोत्रस्य पुण्यप्रकृतेः प्रशस्वशुभप्रकृतेः द्विचत्वारिंशत्संख्यायाः संजनकाः उत्पादकाः कथिताः। पर केवलं ते पूर्वोक्ताः दशविषोत्तमक्षमाविधर्माः पुण्यार्थ शुभप्रकृतिवन्धनार्थ न कर्तव्याः न कार्याः, पुण्य संसारकारणमिति हेतोः॥४.१॥ अथ पुण्यकर्ममाछो गाथाचतुष्केण निषेधयति " पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो सेण ईहिदो होदि । पुणं सुगेई-हेदु' पुण्ण-खएँणेव णिय्वाणं ॥ ४१०॥ [छाया-पुण्यम् अपि यः समिच्छति संसारः तेन इंहितः भवति । पुण्यं सुगतिहेतुः पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम् ॥] यः पुमान् समिच्छति पाश्चत । कि त पुच अजवती मायावतीन मुला सारः चतुर्गतिलक्षणो भवः इंहितो भवति धर्म कालादि लम्धिसे हीन मिथ्यादृष्टि जीवोंको अनादि काल बीत जानेपर भी प्राप्त नहीं हुआ ॥१०॥ अर्थ-ये धर्मके दशमेद पापकर्मका नाश करनेवाले और पुण्यकर्मका बन्ध करनेवाले कहे हैं। किन्तु इन्हें पुण्यके लिये नहीं करना चाहिये ॥ भावार्थ-सातावेदनीय एक, शुभ आयु तीन--तिर्यश्चायु, मनुष्यायु, देवायु, शुभ गोत्र एक तथा नामकर्मकी शुभ प्रकृतियाँ ३७, ये ४२ तो पुण्यकर्म हैं और चारों घातिकमोंकी ४७ प्रकृतियाँ, एक असातावेदनीय, एक नरकायु, एक नीच गोत्र तथा नामकर्मकी ३४ अशुभ प्रकृतियाँ ये चौरासी पुण्य प्रकृतियाँ हैं । दशलक्षण धर्मको पापका नाश करनेवाला और • पुष्यका संचय करानेवाला कहा है । किन्तु पुण्यसंचयकी भावनासे इन दश धोका पालन नहीं करना चाहिये; क्योंकि पुण्य मी कर्मबन्ध ही है । अतः वह भी संसारका कारण है ॥ ४०९ ।। आगे चार . गायाओंसे पुण्यकर्मकी इच्छा का निषेध करते हैं । अर्थ-जो पुण्यको भी चाहता है यह संसारको चाहता है; क्यों कि पुण्य सुगतिका कारण है । पुण्यका क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है ।। भावार्थ-समस्त कमोंसे छूट जानेका नाम ही मोक्ष है। चूंकि पुण्य भी कर्म ही है । अतः जो पुण्यको चाहता है वह संसारमें ही रहना चाहता है । आशय यह है कि जो सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनका देव शाल और गुरुकी भक्ति रूप पुण्यकर्म भी परम्परासे मोक्षका कारण होता है । किन्तु सम्यक्त्वसे हीन जीवोंका पुण्य भी शुभकारी नहीं है । क्यों कि निदान पूर्वक बांधे गये पुण्यसे मिथ्यादृष्टि जीव दूसरे १ सर्वत्र पाव-कम्मस्स [ पाचकम्मस्स]। २म अगाव ग गइहे । ३० मसग ()। कम सग समेगे । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४११] १२. धर्मानुप्रेक्षा बारिल जलः पुण्यं प्रतं कर्म राहातुकम् उत्तमननुष्य देवा दिगतिकारणम् पुण्यक्ष्येणैव शुभप्रकृतिविनाशनेन एवं नियम निर्वाण मोक्षः स्यात् । उके च । 'कषिप्रमोक्षो मोक्षः' इति । ननु पुण्यवाच्या कथं संसारः समीहितो भवति । तत्कथम् ततरमाह । सम्मदव सहितानां पुष्पं देवशास्त्रगुरुमफिलक्षणं पापं व भद्रं परंपरया मोक्षकारणं स्यात् । सम्यस्वरहितानां पुण्यमपि भद्रं न भवति । कुतः । तेन निदानबन्धपुण्येन भवान्तरे स्वर्गादिसुख लभ्या पश्चाश्वरकादिकं गच्छन्तीति भावार्थः । तथा चोकं । “घरं नरकवासोऽपि सम्यत्तत्वेन हि संयुतः । न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ॥” तथा च । 'जे नियदंसण अहिमुद्दा सोक्खु अणंतु कहंति । ते विणु पुण्ण करता त्रि दुक्खु अतु सति ॥ " ये केचन निजदर्शनामिमुखाः निश्वयसभ्यताभिमुखास्ते पुरुषाः सौख्यमनन्तं लभन्ते । अपरे केचन तेन सम्यत्तवेन चिना पुण्यं दानपूजादिकं कुर्वाणाः दुःखमनन्तमनुभवन्ति इति । तथा। “पुण्णेम होइ विवो विदेश मओ मरण मइमोहो । महमोद्देण य पावं तं पुष्णे अम्ह मा होउ ॥" पुण्येन दृष्टश्रुतातुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानसहितेन विभवो विभूतिर्भवति । विभवेन मोहंकारो गर्यो भवति । विज्ञानाद्यष्टविधमदेन मतिभ्रंशो विवेकमूढत्वम्, मोहेन मतिमूढत्वेन पापं भवति । तस्मादित्यंभूतं पुण्यम् अस्माकं माभूदिति । किमिति पुण्यम् । “देवहे सत्यहं मुणिवरहं भतिए पुष्णु हनेइ । कम्मक्लव पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेह ॥" तथा देवसेनेनोक्तम् । “अइ वृषउ त पालेज जर्म पटउ सयलमत्याई । जाम करव अप्पा ताम ण मोक्खं जिणो भणई ॥” तथा योगेन्द्रदेवेन । "पावें णार तिरिउ जिउ पुण्णे अमरु विषाणु । मिस्सें माणुसगह लहर दोहि वि खए, पिब्वाणु ॥" पापेन नारको जीवो भवति तथा तिर्यग्जीवो भवति पुण्येन भ्रमरो देवो भवति इति जानीहि मिश्रेण पुण्यपापद्वयेन मनुष्यगतिं लभते, द्वयोरपि पुण्यपापयोः कर्मणोः क्षयेन मोक्षे लभत इति ॥ ४१० ॥ जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसय-सोक्ख-तण्हाए । दूरे तस्स विसोही विसोहि मूलाणि पुष्णाणि ॥ ४११ ॥ ३११ [ छाया - यः अमिलषति पुण्यं समवायः विषयसौख्यतृष्णया । दूरे तस्य विशुद्धिः विशुद्धिमूलानि पुण्यानि 12 1 यः पुमान् दृष्टश्रुतानुभूतभोगार्काक्षारूपनिदान बन्त्रपरिणामसहितः रमत्रयरहितः पुण्यं प्रशस्तं कर्म सद्वैधशुभायुर्नामगोत्रret खर्ग आदिका सुख भोगकर पीछे नरक आदि कुगतिमें चला जाता है। कहा भी है- 'सम्यवस्व के साथ नरक में रहना मी अच्छा है किन्तु सम्यक्त्वके बिना खर्गमें रहना भी अच्छा नहीं है ॥' और भी कहा है- 'जो जीव आत्मदर्शनरूप निश्चय सम्यक्त्व अभिमुख हैं वे अनन्त सुखको प्राप्त करते हैं । किन्तु जो सम्यक्त्व बिमा पुण्य करते हैं वे अनन्त दुःख भोगते हैं' || पुण्यकी बुराई बतलाते हुए कहा है- 'पुण्य से विभूति मिलती है । विभूतिके मिलनेसे अहंकार पैदा होता है । अहंकारके होने से हिताहितका विवेक जाता रहता है। विवेकके नष्ट हो जानेसे मनुष्य पापमें लिप्त हो जाता है, अतः ऐसा पुण्य हमें नहीं चाहिये ||' आचार्य देवसेनने भी कहा है- 'कितना ही तप करो, संयम को पालो और शास्त्र पढो, किन्तु जब तक आत्माको नहीं जानोगे तब तक मोक्ष नहीं होगा ।' योगीन्द्र देवने मी कहा है- 'पापसे जीव नारकी और तिर्यश्च होता है, पुण्यसे देव होता है तथा पुण्य और पापके मेलसे मनुष्य होता है। और पुण्य और पापके क्षयसे मोक्ष प्राप्त करता है' ॥ ४१० ॥ अर्थ- जो कषाय सहित होकर विषयसुखकी तृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है, उससे विशुद्धि दूर है और पुण्यकर्मका मूल विशुद्धि है || भावार्थ- जो मनुष्य देखे हुए, सुने हुए अथवा भोगे हुए पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी तृष्णासे पीड़ित होकर इस लिये पुण्य कर्म करना चाहता है कि उससे मुझे स्वर्ग मिलेगा और वहाँ मैं देवांगनाओंके साथ भोग विलास करूँगा, उस मनुष्य के तीव्र कषाय है १ सुक्ख । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४१५रूपं स्वर्गादिसुसजनकम् अमिलषति वाञ्छति ईहते। कया। विषयसौख्यतृष्णया पवेन्द्रियाणां सप्तविंशतिविषयसुखवाग्छया पुण्यं वाग्छति । स कीदग्विधः सन् 1 सकषायः कषायैः सह वर्तते इति सकरायः क्रोधमानमामालोभरागद्वेषादिपरिणामसहितः । तस्य पुंसः विशुद्धिः विशुद्धिता निर्मलता पित्तविशुद्धिता कर्मणामुपशान्सतादिवा अतिशयेन पूरतरा भवति । भवत नाम विशवः दस्त्वं. का नो हानिः इति न बाच्यम् । यतः पुण्यानि शुभकर्माणि देवशास्त्रगुरुभक्तिकानि दानपूजाव्रतवीलयुक्तानि विशुद्धिमूलक शिकारमाल, विद्वेरमात्र गमाः । ४१ । पुण्णासाण पुण्णं जदो' गिरीहम्म पुण्ण-संपत्ती । इय जाणिऊण जइणो' पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥ ४१२ ॥ छाया-पुण्याशया न पुण्यं यतः निरीहस्य पुण्यसंप्राप्तिः । इति ज्ञात्वा यतयः पुण्ये अपि मा भादरं कुरुत ॥] मो यतयः भो.साधवः मुनयः पुण्येऽपि, न केवल पापे, आदर प्रशस्तकोपार्जने उद्यम मा कुरवं यूर्य मा कुस्त । कि कृत्वा । इति पूर्वोक्त पुण्यफलं ज्ञात्वा मत्वा । इति किम् । निरीहस्य इह परलोकसौख्यवाञ्छारहितस्य श्रुतानुभूतभोगाकोक्षारूपनिदानरहितस्य लोभाकांक्षारहितस्य पुंसः पुण्यसंपत्तिः प्रशस्तकर्मणां प्राप्तिर्भवति, सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्रकर्मणां बन्धः स्यात् । यतः पुण्याशया पुण्यवाञ्छया शुभकर्मणामीहया पुण्यं न भवति, निदानादीनां वाग्छाऽशुभकर्मोत्पादमखात् ॥ ४१२॥ पुष्णं बंधदि जीवो मंद-कसाएहि परिणदो संतो। तम्हा मंद-कसाया हेॐ पुण्णस्स ण हि बंछा ॥ ४१३ ॥ [छाया-पुण्य बधाति जीवः मन्दकषायैः परिगतः सन् । तस्मात् मन्दकषायाः हेताः पुण्यस्य न हि वाञ्छा ॥] जावः भात्मा यतः कारणात् बन्नाति बन्धनं विदधाति । किं तत् । पुण्यं मुभं कर्म प्रशस्तप्रकृतिसमूह 'सद्धेद्यशुभायुर्नामअतः चित्तकी विशुद्धि उससे सैकड़ों कोस दूर है । शायद कोई कहे कि यदि उससे विशुद्धि दूर है तो रही आओ, हानि क्या है ? इसका उत्तर यह है कि देव शास्त्र और गुरुकी भक्ति, दान, पूजा, व्रत, शील आदि शुभ कर्मका मूल कारण चित्तकी विशुद्धि है । चित्तकी निशुद्धि हुए बिना पुण्यकर्मका संचय नहीं होता || ४११ ॥ अर्थ-तथा पुण्यकी इच्छा करनेसे पुण्यबन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित ) व्यक्ति को ही पुण्यकी प्राप्ति होती है । अतः ऐसा जानकर हे यतीबरों, पुण्यमें भी भादर भाव मत राखो ।। ४१२ ॥ अर्थ-मन्दकषायरूप परिणत हुआ जीव ही पुण्यका बन्ध करता है। अतः पुण्यबन्ध का कारण मन्द कषाय है, इच्छा नहीं ।। भावार्थ-इच्छा मोहकी पर्याय है अतः वह तीन कषाय रूप ही है। फिर इच्छा करनेसे ही कोई वस्तु नहीं मिल जाती । लोकमें भी यह बात प्रसिद्ध है कि इच्छा करनेसे कुछ नहीं मिलता और बिना इच्छाके बहुत कुछ मिल जाता है । अतः इच्छा तो मुण्यकी छोड़ मोक्षकी भी निषिद्ध ही है । यहाँ यह शक्का हो सकती है कि पुराणोंमें पुण्यका ही व्याख्यान किया है और पुण्य करनेकी प्रेरणा मी की है । पुण्य कर्मसे ही मनुष्यपर्याय, अछा कुळ, अच्छी जाति, सत्संगति भादि मोक्षके साधन मिलते हैं । तब ऐसे पुण्यकी इच्छा करना बुरा क्यों है ? इसका समाधान यह है कि भोगोंकी लालसासे पुण्यकी इच्छा करना बुरा है । जो भोगोंकी तृष्णासे पुण्य करता है, प्रथम तो उसके सातिशय पुण्यबन्ध ही नहीं होता । दूसरे, थोपा बहुत पुण्य बन्ध करके उसके फल स्वरूप जब उसे भोगोंकी प्राप्ति होती है तो यह अति अनुरागपूर्वक १ व पुण्णासम (१)। २ म होवि ३ मुणिगी। मण। ५ ख कुणः । ६ ग आज (ओ)। महेउ । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -४१४] १२. धर्मानुप्रेक्षा गोत्राणीति पुण्यम्' अभ्राति । कीदृक्षः सन् जीवः । मन्दकषायैः परिणतः अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनको घमानमायादिकषायेः सह परिणामं गतः । तस्मात्कारणात् पुण्यस्य शुभकर्मणां हेतुः प्रशस्त प्रकृतीनां कारणं मन्दकषाया एवं ताकभागाद्यनुभाग परिणताः तुच्छकषायाः अप्रत्याख्यानादयः पुण्यस्य हेतवः कारणानि भवन्ति इत्यर्थः । हि यस्मात् वाच्छा पुण्यस्य समीश पुष्यकारणं न उ च । इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी कांक्षा कापि न योजयेत्' इति ॥ ४१३ ॥ अथ सम्यत्तत्रम्य निःशङ्कसगुणं गाथाद्वयेन विवृणोति - किं जीव दया धम्मो जण हिंसा कि होदि किं धम्मो । इमादि-संका तदकरणं जाण जिस्संका ॥ ४१४ ॥ ३१३ [ छाया किंवा धर्मः यज्ञे हिंसा अपि भवतेि किं धर्मः । इत्येवमादिशङ्काः तदकरणं जानीहि निःशङ्का ॥ ] इत्युक्तवक्ष्यमाणलक्षणेन एवमादिका एवंप्रकारा शहा संदेहः संशयः । इति किम् । किं जीवदया धर्मः किमित्याक्षेपे, जीवाना स्थावरजङ्गमप्राणिनां दया रक्षणमनुकम्पा धर्मः पृषो भवति । अपि पुनः यज्ञे अश्वगजाजनरमेधगो मेधादिक ऋतौ हिंसा जीववधो धर्मः किम्। न केवलम् अहिंसा धर्मः यज्ञे, अश्वगजगोलागनरबधादिः किं धर्मो भवति यज्ञे । प्रोक्तं च । "ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यश्वः पक्षिणो नराः । यशार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्मुच्छ्रितां गतिम् ॥ गोसवे सुरा हन्यात् राजसूये तु भृभुजम् । अश्वमेधे इयं हन्यात् पौण्डरीके च दन्तिनम् ॥ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यो हि भूत्यै सर्वेष तस्मा धोऽवधः ॥" तथा यजुर्वेद ऋचयः । 'सोमाय हंसानालभते वायवे बलाका इन्द्राभिभ्यां कुशान् मित्राय महून वरुणाय नकान् ॥ वसुभ्य ऋप्यानालभते स्वेभ्यो रुरुनादित्येभ्यो न्यरून वरुणाय चक्रवाकानश्विभ्यां मयूरान् मित्रावरुणाभ्यां तान् ॥ वसन्ताय कपिअला बालभते श्रीष्माय जलविकान् वर्षाभ्यस्तितिरीष्ठरदे वर्तिका हेमन्ताय ककराछिशिराय विककरान् ॥ इति पऋतुयजनम् । समुद्राय शिशुमारांना लभते पर्जन्याय मण्कानको मत्स्यान् मित्राय कुलीपयान् वरुणाय चक्रवाकान् ॥ भर्मेभ्यो हस्तिदं जवायाश्वयं पुच्ये गोपाल श्री ययाविपाल तेजसेऽजपालमिराबे कीनाश भोगोंका सेवन करता है और उससे वह पुन: नरक आदिमें चला जाता है। किन्तु जो मोक्ष प्राप्तिकी भावना से शुभ कर्मों को करता है वह मन्दकषायी होनेसे सातिशय पुण्यबन्ध तो करता ही है, परम्परा से मोक्षभी प्राप्त कर लेता है। अतः विषय सुखकी चाह से पुण्य कर्म करना निषिद्ध है ॥ ११३ ॥ आगे सम्यक् के आठ अङ्गों में से निःशक्ति अंगका वर्णन दो गाथाओंसे करते हैं । अर्थ-क्या जीवदया धर्म है अथवा यज्ञ में होनेवाली हिंसामें धर्म है, इत्यादि संदेहको शंका कहते हैं । और उसका न करना निःशङ्कां है || भावार्थ- पीछे धर्मका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि जहां सूक्ष्म हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। अतः अहिंसा धर्म है और हिंसा अधर्म है, इस श्रद्धानका नाम ही सम्यक्त्व हैं, और उस सम्यक्त्वके आठ अंग हैं । उनमें से प्रथम अंग निःशंकित है। निःशंकित का मतलब है, शंकासंदेहका न होना । एक समय भारतमें याज्ञिक धर्मका बहुत जोर था । अश्वमेध, गजमेध, अजमेध, नरमेध, गोमेव, आदि यज्ञ हुआ करते थे । याज्ञिक धर्मके ग्रन्थों में लिखा है- 'औषधियाँ, पशु, वृक्ष, तिर्यश्व, पक्षी और मनुष्य यज्ञके लिये मरकर उच्च गतिको प्राप्त करते हैं [गोसव में सुरभि गौको मारना चाहिये, राजसूय यज्ञमें राजाको मारना चाहिये, अश्वमेघ यज्ञमें घोड़ेको मारना चाहिये, और पुण्डरीक यज्ञ में हाथीको मारना चाहिये ॥ जाने स्वयं यज्ञके लिये ही पशुओंको बनाया है | यज्ञ सबके कल्याण के लिये है । अतः यज्ञमें की जाने वाली हिंसा हिंसा नहीं है ।।] यजु ५ व ग ज । कार्तिके० ४० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा०४१कौलालाय सुराकार भवाय गृहप श्रेयसे वितं धर्माध्यक्ष्यायानुक्षतारम् । अषैतानष्टौ विरूपानालमतेऽतिवीर्ष वातिहलं पातिस्थूलं चातिको चातिशुकं चातिकृष्णं चातिशुल्वं चातिलोमर्श च । अशुदा अब्राह्मणास्ते प्राजापस्याः । मागधः पुंचली कितवः क्लीबोऽशूदा अबाह्मणास्ते प्राजापत्याः ।। ब्रह्मणे ब्राह्मणमासमेत इन्द्राय क्षत्रिय मरुभ्यो वैश्य तपसे शुद्र तमसे तस्कर आत्मने की कामाय पुचलम् अतिक्रुष्टाय मागधम् । गीताय सुतम् आदित्याय स्त्रियं गर्भिणीम्।" सौत्रामणी य एवंविधा सुरो पिबति ना तेन सुरा पीता भवति । सुराश्च तिस्र एष श्रुतौ संमताः, पैष्टी गौकी माधवी घेति (गोसवे ब्राह्मणो मोसनेनेवा संवत्सरान्ते मातरमप्यमिलषति) उपेहि मातरमुपेहि खसारम् इत्यादि । यज्ञेषु जीववधो धर्मो भवति किमिति क्षेपे इत्येवप्रकारा या शङ्का तस्या अकरण निःशङ्का निश्शङ्कितगुर्ण निस्सन्देहं जानीहि । आदिशब्दात् किं दिगम्बराणां मूलोत्तरगुणप्रतिपालने धर्मः, किंवा तापसानी पञ्चानिधूम्रपानसाधने कन्दमूलपत्रादिभक्षणे धर्मः। तथा जैनाभासाना श्वेताशुकादीनां सत्र भिक्षाचरणे केवलिन भुक्तिकरणे गृहिणखीणामन्यलिगिनां च मुक्तिगमनमित्वत्र किंवा धर्मः, किंवा जिन एवं देवः, किंवा ईश्वरब्रह्मविष्णुकपिलसौमतादयो देवाः, किं जिनोतसप्ततत्त्वषद्रव्यपश्चास्तिकायनवपदार्थानां श्रद्धाने धर्मः, कि वा अन्यमतजैनाभासशैवसांख्यसौगतादिकथिततत्त्वानां श्रद्धाने धर्मः, कि जैनशास्त्रोक्तः धर्मः, किंवा परमतशास्त्रोक्तः धर्मः इत्यादिशकायाः अकरण निःसन्देहः 1 सूक्ष्म जिनोक तत्त्वं हेतुभिनव इन्यते। जिनदेवजिनधर्मजिनशास्त्र तत्वादिषु अंशा रुचिः विश्वासः प्रतीतिः । रागद्वेषाधादिदोषकदम्बकम् अशानम् मसत्यवचनकारण च वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति, ततः कारणात् तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्वे मोक्षमार्ग धर्म गुरौ शाख्नेय भव्यैः शमा संशयः संदेहो न कर्तव्य इति निःशक्तिगुणः ॥ ४१४॥ वैदकी ऋचाओंमें लिखा है। सोम देवताके लिये हंसोका, वायुके लिये बगुलोंका, इन्द्र और अग्निके लिये सारसोंका, सूर्य देवताके लिये जलकारोंका, वरुण देवताके लिये नक्रोंका वध करना चाहिये । छ: ऋतुओं से वसन्तऋतुके लिये कपिल पक्षियोंका, प्रीष्मऋतुके लिये चिरौटा पक्षियोंका, वर्षाऋतुके लिये. तीतरोंका, शरदऋतुके लिये बत्सकोंका, हेमन्तऋतुके लिये ककर पक्षियोंका, और शिशिरऋतुके लिये विककर पक्षियोंका वध करना चाहिये । समुद्रके लिये मन्छोंका, मेघके लिये मेंडकोंका, जलोंके लिये मछलियोंका, सूर्यके लिये कुलीषय नामक पशुओंका, वरुणके लिये चकवोंका वध करना चाहिये । तथा लिखा है-सूत्रामणि यज्ञमें जो इस प्रकारकी मदिरा पीता है वह मदिरा पीकर भी मदिरा नहीं पीता । श्रुतिमें तीन प्रकारकी मदिरा ही पीने योग्य कही है-पैष्ठी गौडी और माधवी । इत्यादि मुनकर 'क्या जीववधमें धर्म हैं। इस प्रकारकी शलाका मी न होना अर्थात् जीयवधको अधर्म ही मानना निःशंकित गुण है। इसी तरह क्या जैनधर्ममें कहे हुए मूलगुण और उत्तर गुणोंका पालन करनेमें धर्म है अथवा तापसोंके पंचाग्नि तप तपने और कन्द मूल फल खानेमें धर्म है ? क्या जिनेन्द्रदेव ही. सधे देव हैं अथवा ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, कपिल, बुद्ध वगैरह सच्चे देव हैं ? क्या जैन धर्ममें कहे हुए सात तत्व, छः द्रव्य, और पाँच अस्तिकाय और नौ पदाथोंके श्रद्धानमें धर्म है, अथवा सांख्य सौगत आदि मतोंमें कहे हुए तस्वोंके श्रद्धानमें धर्म है ? इत्यादि सन्देहका न होना निःशंकित गुण है । सारांश यह है कि जिनभगवानके द्वारा प्रतिपादित तत्त्व बहुत गहन है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। ऐसा जानकर और मानकर जिनदेव, जिनशास्त्र, जिनधर्म और जैन तस्त्रों में श्रद्धा, रुचि और प्रतीति होनी चाहिये । क्योंकि मनुष्य राग द्वेष अथवा बचानसे असत्य बोलता है। वीतराग और सर्वज्ञमें ये दोष नहीं होते। अतः उनके द्वारा कहे हुए तस्वोंमें और मोक्षके मार्गमें सन्देह नहीं करना चाहिये । निःसन्देह होकर प्रवृत्ति करनेमें ही कल्याण है ॥४१४॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुभेक्षा दय-भावो वि य धम्मो हिंसा-भावो' ण भण्णदे धम्मो । इदि संदेहाभावो' णिस्संका णिम्मला होदि ॥ ४१५ ॥ [छया-दयाभावः अपि च धर्मः हिंसाभावः न भण्यते धर्मः । इति सन्देहाभावः निःशका निर्मला भवति । इति पूर्वोकप्रकारेण संदेहाभावः संशयस्य अभावः राहित्यमेव निर्मला निदोषा निःशका निःशक्ति गुणो भवति । इति किम् । दयाभावः स्थावरजङ्गमजोवरक्षणपरिणाम एव धर्मः। आप च एवकाराया हिंसाभावः यत्रोक्तजीववधपरिणामः धर्मः श्रयो न भव्यते न कथ्यते ॥ ४१५॥ अथ निष्कांक्षितगुण म्याचष्टे जो सग्ग-सुह-णिमित्तं धम्मं पायरदि दूसह-तवेहि । मोक्ख' समीहमाणो णिक्खंखा जायदे तस्स ॥ ४१६ ॥ [छाया-यः स्वर्गसुखनिमित्त धर्म न आचरति दुःसहत्तपोमिः । मोक्षं समीहमानः निःकाला जायते तस्म ।।] तस्य भष्यजीवस्य निष्कांक्षागुणो निष्कांक्षितगुणो जायते । तस्य कस्य । यः जीचः धर्म श्रावकधर्ममेकादशसम्यक्त्वादि. प्रतिमालक्षण यतिधर्मम् उसमक्षमादिदशप्रकारबतसमितिगुमिमूलोतरगुणम्पं धर्मच नाचरति न करोति न विदधातिन पालयति । किमर्थम् । स्वर्गसुखनिमित्तं देवलोकसखाय इन्द्राहमिन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्र चक्रवत्यादिमुखप्राप्त्यर्थ वा । कथंभूतः सन जीवः । मोक्ष समीहमानः सिद्धमुखं वाग्छन् सन् कर्मणां मोचन स्यात्मोपलब्धि बाञ्छन् । कैः कृत्वा । दुःसहतपोभिः दुःसाध्यानशनादितपःपरीषहोपसर्गादिकः । तथाहि इहलोकपरलोकाशारूपभोगाकांक्षा निदानत्यागेन केवलज्ञानानन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थ दानपूजातपश्चरंणाधनुष्टानकरणं निःकालागुणो भण्यते । तथा निश्चयेन निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमार्षिकवारमोत्थसुखामृतरसेन वित्तसंतोषः स एवं निःकांक्षागुण इति ॥ ४१६ ॥ अथ निर्दिचिकित्सागुणं रिकित्सते दह-विह-धम्म-जुदाणं सहाव-दुग्गंध-असुइ-देहेसु। जं जिंदणं ण कीरदि णिन्त्रिदिगिंछा गुणो सो है ॥ ४१७ ॥ अर्थ-दया भाव ही धर्म है, हिंसा भावको धर्म नहीं कहते' इस प्रकार निश्चय करके सन्देहका न होना ही निर्मल निःशंकित गुण है || भावार्थ-पूर्वोक्त प्रकारसे धर्मके स्वरूपके विषयमें सन्देहका न होना ही निःशंकित गुण है ॥ ४१५ ।। आगे निकांक्षित गुणको कहते हैं । अर्थ-दुर्धर तपके द्वारा मोक्षकी इच्छा करता हुआ जो प्राणी वर्गसुखके लिये धर्मका आचरण नहीं करता, उसके निःकांक्षित गुण होता है । भावार्थ-इस लोक और परलोकमें भोगोंकी इच्छाको त्यागकर जो केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी अभिव्यक्तिरूप मोक्षके लिये दान, पूजा, तपश्चरण आदि करता है उसके निःकांक्षा गुण कहा है । तथा निश्चयनयसे रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न हुए सच्चे आत्मिक सुखरूपी अमृतसे चित्तका संतस होना ही निःकांक्षित गुण है ।। ४१६ । आगे निर्विचिकित्सा गुणको कहते हैं। अर्थ-दस प्रकारके धर्मोसे युक्त मुनियोंके खभावसे ही दुर्गन्धित और अपवित्र शरीरकी जो निन्दा नहीं करता, उसके निर्विचिकित्सा गुण होता है ॥ भावार्थ-रस्त्रयके आराधक भन्य जीवोंके दुर्गन्धित और घृणित शरीरको देखकर धर्मबुद्धि अथवा दया भावसे घृणा न करना निर्विचिकित्सा गुण है । अथवा, 'जैन धर्ममें और सब तो ठीक है, किन्तु साधुगणोंका नंगा रहना और खान आदि न करना ठीक नहीं है। इस प्रकारके कुत्सित विचारोंको विवेकके द्वारा रोकना निर्विचिकित्सा गुण है । इस १ म (स)भावे । २ ग संदेहोऽभावो। ३लम स ग मुक्त । ४ ल म सग कीरइ । ५ गुणो तस्स (1) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४१८ [ छाया-दशविधधर्मयुतानां स्वभावदुर्गन्धाशुन्विदेहेषु यत् निन्दर्न न क्रियते निर्विचिकिल्लागुणः स खलु ॥ ] हु इति स्फुटं निश्रयतो वा, स निर्विचिकित्सा गुणो भवति जुगुप्सारहितगुणः स्यात् । स कः । यत् न क्रियते न विधीयते । किं तत् । निन्दनं दोषोत्पादनं नृणाम्। केषु स्वभावदुर्गन्धाशुचिदेहेषु दुर्गन्धाः पूतिगन्धाः अनुत्रयः अपवित्राः देहाः शरीराणि खभावेन सहजेन दुर्गन्धाव ते अशुचयश्च ते देहाः शरीराणि स्वभावेन सहजैन दुर्गन्धाश्च ते अशुचयश्च ते देहाः स्वभावदुर्गन्धाशुचिदेहाः तेषु स्वभावदुर्गन्धादिदेहे । केषाम् । दशविधधर्मयुकाना दशलाक्षणिकधर्मसहितानाम् उत्तमक्षमादिधर्मिष्ठान महामुनीनां सहजेन दुर्गन्धापवित्रशरीरेषु निन्दनं घृणा न क्रियते । तथाहि मेदाभेदरलत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धमीभत्सादिकशरीरं दृष्ट्वा धर्मबुच्या कारुण्यमावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिर्विचिकित्सा गुणो भण्यते । यत्पुनर्जिनसमये सर्व समीचीनं परं किंतु वस्त्रप्रावरणं जनानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव दूषणमित्यादिकुत्सितभावस्य विशिष्टविवेकत्र लेन परिहरणं सा भावनिर्विचिकित्सा भण्यते । इति निश्वयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुणस्य बलेन समस्तद्वेषादिविकल्पत्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्वि किस्सागुण इति ॥ ४१७ ॥ अयामूढदृष्टिं गुणं दर्शयति- ३१६ भय-लज्जा - लाहादो' हिंसारंभी ण मण्णदे धम्मो । जो जिण वयणे लीणो अमूढ - दिट्ठी हवे सो दु' ॥ ४१८ ॥ [ छाया-भयज्ञालाभात हिंसारम्भः न मन्यते धर्मः मः जिमवचने लीमः अमूतदृष्टिः भवेत् सल ॥ ] दुइति निश्चयेन स जगत्प्रसिद्धः अमृतसम्यग्दृष्टिः अम व्यगुणपरिणतो भवेत् । स कः । यः हिंसारम्भः य यागादी पुण्यनिमित्तं हिंसायाः जीवनस्य आरम्भः प्रारम्भः विधानं धर्मो वृषो न मन्यते, हिंसाधर्म न श्रभाति विप्रतीतिविश्वासं न विधामा नाम यक्षयक्षिणीभूत पिशाचादिमहूपीडाडाकिनीशाकिन्यादिभयात् इहपरलोकादिसप्तभयाद्वा, लज्जातः पितृमातृभ्रातृबान्धवमित्रा दिवपातः, लाभात् यशादी श्रीयमान सुवर्णादिदानप्राप्तेः हिंसाधने यो न मानयति स अमूददृष्टिः सम्यम्टष्टिः स्ात्। तथाहि वीतरागसर्वज्ञकथिता. गमबहिर्भूतैः कुदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं धातुवादखन्यवादमणिमन्त्रयन्त्रत आदिवादक्षुदविद्याव्यन्तरविकुर्वणादिकर्म अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च मूढभावेन योऽसौ धर्मयुद्ध तत्र रुचि भक्ति प्रतीति न करोति एवं व्यवहारेणामूढदृष्टिरुच्यते । नियेन पुनः तस्यैव व्यवहारामूढरष्टिगुणस्य प्रसादेन अन्तस्तत्त्व बहिस्तस्वनिश्वये जाते सति समस्तमिध्यात्वरागादिषु शुभाशुभसंकल्प विकल्पेषु आत्मबुद्धिमुपादेयबुद्धि हितबुद्धिं ममत्वभाव व्यक्त्वा त्रिगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि निश्वयावस्थानं तदेवामूहष्टित्वमिति । संकल्पविकल्प लक्षणं कध्यते । पुत्रकलत्रमित्रधनधान्यादी बहिर्द्रव्ये ममेदमिति संकल्पनं संकल्पः, अभ्यन्तरे मुख्यहं दुःख्यहम् इति हर्षविषादकरणं विकल्प इति । भवा वस्तुवृत्त्या संकल्पः इति कोऽर्थः, विकल्प इति तस्यैव पर्यायः ॥ ४१८ ॥ अथोपगूहनगुणं गृणाति व्यावहारिक निर्विचिकित्सा गुणके द्वारा द्वेष आदि समस्त विकल्पोंको त्यागकर निर्मल स्वानुभूतिरूप · शुद्धात्मामें अपनेको स्थिर करना निश्चय निर्विचिकित्सा गुण है ॥ ४१७ ॥ आगे अमूह दृष्टि गुणको कहते हैं । अर्थ-भय, लज्जा अथवा लालचके वशीभूत होकर जो हिंसा मूलक आरम्भको धर्म नहीं मानता, उस जिनवचनमें लीन पुरुषके अमूद दृष्टि अंग होता है ॥ भावार्थ- जो सम्यग्दृष्टि पुरुष मिध्यादृष्टियोंके द्वारा रचित और अज्ञानी मनुष्योंके चित्तमें चमत्कारको उत्पन्न करनेवाले मणि मंत्र तंत्र आदिको देखकर या सुनकर उनमें धर्मबुद्धिसे रुचि नहीं रखता नइ व्यवहारसे अमूद दृष्टि अंगका पालक कहा जाता हैं । और उसी व्यवहार अमूद दृष्टि अंगके प्रसाद से अन्तस्तत्त्व और बाह्य तत्वोंका निश्चय होनेपर समस्त मिथ्यात्व राग वगैरह में और शुभ तथा अशुभ संकल्प विकल्पोंमें ममत्वको व्यागकर विशुद्ध ज्ञान और विशुद्ध दर्शन स्वभाववाले अपने आत्मामें स्थिर होना निश्चय अमृद दृष्टि अंग है १ भयब्जगारपेहिं य (१) २ म स ग ( ख ) ड | M Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -४२०] १२. धर्मानुप्रेक्षा जो पर-दोसं गोवदि णिय-सुकयं जो ण पपडदे लोए। भवियव-भावण-रओ उपगृहण-कारओ सो हु॥४१९ ॥ [छाया यः परदोष गोपयति निजयुक्तं यः न प्रकटयति लोके। भवितव्यभावनारतः उपगृहनकारकः स खलु ॥] हु इति व्यकम् । स सम्यग्दृष्टिरूपगृहनकारकः उपग्रहुन परेषामन्येषां दोषाच्छादनं तस्य कारकः कर्तास कायो भव्यः गोपयति आच्छादयति झम्पयति । कम् । परदोषं परेषामन्येषां सम्यग्दृष्टिश्रावकयतीनो सम्यक्त्वातिचारव्रतभशादिभनितापराधः तं लोके जगति गोफ्यति तथा लोके न प्रकाशसे प्रकटयति न । कि तत् । निजमुकृत स्वयंकृतदानपूजातपपरमादिक शास्त्राध्ययनाध्यापनादिकं च । कीरक्षः सन् । यो भव्यः भवितव्यभावनारतः, यद्भाव्य तयत्येवमिति भावनायां रतः तत्परः निश्चयः । तथाहि भेदाभेदरत्नत्रयभावनारूपो मोक्षमार्गः खभावन शुद्ध एवं तारत् । तत्राज्ञानिजननिमिसन तथैवाभकजननिमित्तेन च धर्मस्य पैशून्यं दूषणम् अपवादो दुःप्रभावना यदा भवाते तदागमाविरोधेन एषाशासन धर्मोपदेशेन पा यमाय दोषस्य सम्पनं निवारन क्रियते तवपहारनयनोपगृहनं भण्यते। निश्चयेन पुनः तस्यैव सहकारित्वेन निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादकाः ये मिथ्यात्वरागादिदोषास्तेषां तस्मिमेव परमात्मनि सम्पन श्रदानशानानुष्ठानरूपं यासानं तेन प्रच्छादनं विनाशने चोपन सम्पनं तदेवोपगृहमिति ॥ ४१९ ॥ अथ स्थितिकरण द्रश्यनि धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अपाणं पि सुदिढयदि ठिदि-करण होदि तस्सेव ॥ ४२०॥ [छाया-धर्मतः चलन्तं यः श्रन्यं संस्थापयति धौ । आत्मानमपि सुदढयति स्थितिकरणं भवति तस एव 1] रास्सैव भव्यजीवस्यैव स्थितिकरणं भवति । सम्यक्त्वत्रतज्ञानधर्मात् प्रच्युतवतः जीवस्य पुनः तत्र सम्यक्त्वादिषु स्वित्या दृढीकरण स्थिरीकरणम् । तस्य कस्य । यः पुमान् धर्मात् रलमान सम्यक्त्वात् व्रताद्वा चलनेन पतनोन्मुखम् अन्य परपुख्य सम्पष्टि व्रतधारिणं वा धर्मे राम्यत्तचवतलक्षणे स्थापयति स्थिरीकरोति निश्चलीकरोति, अपि पुनः सत्यति सह अतिशयेन दृढीकरोति। कम् । आत्मानं खदेहिनम् । छ । धर्मे भेदाभेदरमत्रये खात्मानं दढयतीत्यर्थः । तथाहि मेदा- ॥ ४१८ ॥ आगे उपगृहन गुणको कहते हैं । अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि दूसरोंके दोषोंको तो ढाँकता है और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नहीं करता । तथा ऐसे भावना रखता है कि जो भवितव्य है वही होता है, उसे उपगूहन गुणका धारी कहते हैं ॥ भावार्थ-किसी सम्पग्दृष्टि, श्रावक अथवा मुनिके द्वारा सम्यक्त्वमें कोई अतिचार लगाया गया हो, या व्रतका भंग किया गया हो तो सम्यग्दृष्टि उसे लोकमें प्रकाशित नहीं करता । आशय यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान और सम्यञ्चारित्ररूप मोक्षमार्ग खभावसे ही शुद्ध है । किन्तु जब अज्ञानी अथवा अश्रद्धाल मनुष्योंके निमित्तसे धर्मका अपवाद होनेके कारण उस मार्गको बदनामी होती हो तो आगमके अनुसार धर्मोपदेशके द्वारा यथाशक्ति जो उस बदनामीका निवारण किया जाता है उसे व्यवहारसे उपगृहन अंग कहते हैं। तथा अपने निरंजन निर्दोष परमात्माको ढांकनेवाले जो मिथ्यात्व राग आदि दोष हैं, उन दोषोंको दूर करनेका उपाय करना निश्चयसे उपगृहन अंग कहा है ।। ४१९ ।। आगे स्थितिकरण गुणको कहते हैं । अर्थ-जो धर्मसे चलायमान अन्य जीवको धर्ममें स्थिर करता है तथा अपनेको भी धर्ममें द करता है उसीके स्थितिकरण गुण होता है ।। भावार्थ-मुनि, आर्यिका और श्रावक श्राविकाके मैदसे चार प्रकारके संघर्मसे जब कोई व्यक्ति दर्शन मोहनीय अथवा चारित्र मोहनीयके उदयसे सम्यग्दर्शन या सम्यक् चारित्रको छोड़ना चाहता हो तो यथाशक्ति भागमानुकूल धर्मका उपदेश देकर लम स ग सकयं गो पयासदे। २ म भविभम्य । ३ मट्रिदियरण । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7a 4 स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४२१ मेदरम्नत्रयाधारस्य चातुर्वर्ण्यसंघस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनवारित्रमोहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्र वा परित्यकुं वाष्ठति सदागमाविरोधेन यथाशतया धर्मश्रवणेन वाऽर्थेन वा सामध्न वा केनाप्युपायेन यह स्थिरत्वं क्रियते तथ्यवहारेण स्थिरीकरणमिति । निश्वयेन पुनस्तेनैव व्यवहारस्थिरीकरणगुणेन धर्मदृदत्वे जाते राति दर्शनचारित्रमोहोदयजनितसमस्तमिथ्यात्वगादिविकल्पजात्यागेन निजपरमात्मस्व मावेनोत्पक्षपरमानन्दैकलक्षणसुखामृत रसास्वादेन तहयतन्मयपरमसम रसीभावेन चित्तस्थिरीकरणमिति ॥ ४२० ॥ अथ वात्सल्यमुमुखिति- जो धम्मसु भत्ती अणुचरणं कुणदि परम-सद्धाए । पिय-वयणं जंपतो वच्छलं तस्स भय्वस्स ॥ ४२१ ॥ [ छाया-यः धार्मिकेषु भक्तः अनुचरणं करोति परमश्रद्धया । प्रियवचनं अल्पन् वात्सस्यं तस्य भव्यस्य ॥ ] तस्य भव्यस्य प्राणिनः वात्स वात्सल्याख्यगुणो भवेत् । स कः । | भव्यः धार्मिकेषु सम्यग्दृष्टिषु श्रावकेषु ऋषिमुनियत्यनगारेषु च भक्तः भक्तियुक्तः धर्मानुरागः । पुनः करोति यो भव्यः विघाति । किम्। अनुचरणं साधर्मिकेषु भोजनसाईगमनोभवनादिपरिचय करोति । कया । परमश्रद्धया उत्कृष्टभावेन उत्कर्षेण रथिरूपेण किंभूतः सन् साधर्मिक जनेषु प्रियवचनं मृष्टवसनम् अहं तव किं करोमि इत्यादिकलक्षणं जल्पन् कथयन् । तथाहि बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाधारे चतु - पिसं चत्से धेनुवत् पोन्द्रियविषयनिमित्तं पुत्रसुवर्णादिवत् वा यदकृत्रिमोहकारणं तद्व्यवहारेण वात्सल्यै भव्यते । निश्चयवात्सल्यै पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे दृढत्वे जाते सति मिध्यात्वरागादिसमस्तशुभाशुभम हिर्भावेषु प्रीर्ति त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरम स्वास्थ्यसंवित्तिसंजातसदा नम्दै कलक्षणसुखामृतरसास्वादे प्रीतिकरण निश्चयनात्सल्यमिति ॥ ४२१ ॥ अथ प्रभावनागुणं गाथाद्वयेनाह- K जो दस भेयं धर्म्म' भव्व जणाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि णाणेण पहावणा तस्स ॥ ४२२ ॥ [ छायायः दशमेदं धर्म भव्यजनानां प्रकाशयति विमलम् । आत्मानम् अपि प्रकाशयति ज्ञानेन प्रभावना तस्य ॥ ] तस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य प्रभावना प्रभावनाख्यगुणो भवति । तस्य कस्य यः भव्यः भव्यजनानां मेदामेदरत्नत्रयेण भवितुं स्वात्मोपलब्धि प्राप्तुं योग्या भव्यास्ते च ते जनाः मव्यजनास्तेषां भव्यजनानां भव्य लोकाना मैदामेदरमत्रये शापकानाम दशमेदं धर्मम् उत्तमक्षमा दिदशप्रकारे धर्म प्रकाशयति प्रकटयति कथयति उपदेशयति । अपि पुनः ज्ञानेन मेदज्ञानेन कृत्वा निर्मलम् आत्मानं प्रकाशयति कर्ममलकलकरहित शुद्धस्वरूपं परमात्मानं स्वस्वरूप स्वयं स्वात्मार्न प्रकटीकरोति । तथा भव्यलोकानाम आत्मनः स्वरूपं प्रकाशयति इत्यर्थः ॥ ४२२ ॥ या धन की सहायता देकर या शक्तिका प्रयोग करके अथवा किसी भी अन्य उपायसे जो उसे धर्ममें स्थिर किया जाता है उसे व्यवहारसे स्थितिकरण गुण कहते हैं । और मिथ्याध्य, राग वगैरह समस्त विकल्प जालको त्यागकर अपने आत्म स्वभावमें स्थिर होना निश्चयसे स्थितिकरण गुण है || ४२० ॥ अब वात्सल्य गुणको कहते हैं । अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रियवचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धाले धार्मिकजनोंमें भक्ति रखता है तथा उनके अनुसार आचरण करता है उस भव्य जीवके वारसल्य गुण कहा है। भावार्थ-जैसे गाय अपने बच्चे से स्वाभाविक प्रेम करती है वैसे ही रमत्रयके धारी तुधि संघसे स्वाभाविक स्नेहका होना व्यवहारसे वात्सल्य गुण है । और व्यवहार बात्सल्य गुणके द्वारा धर्ममें दृढ़ता होनेपर मिध्यात्व राग वगैरह समस्त अशुभ भावोंसे प्रीति छोड़कर परमानन्द स्वरूप अपने आत्मा से प्रीति करना निश्चयसे वात्सल्य गुण है ॥ ४२१ ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रभावना गुणको कहते हैं । अर्थ- जो सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञानके द्वारा भव्यजीवोंके लिये दश प्रकारके धर्मको ९ व दसविंद च धम्मं Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] १९. धर्मानुप्रेक्षा जिण सासण माहणं बहु-विह-जुतीहि जो पयासेदि । तह तिब्वेण तत्रेण य पहावणा णिम्मला तस्स || ४२३ ॥ ३१९ [छाया-जिनारा माहात्म्यं बहुविधयुविमिः यः प्रकाशयति । तथा तीब्रेण तपसा च प्रभावना निर्मला तस्य ॥ ] तस्य भव्यजनस्य प्रभावना प्रकर्षेण जिनशासनमाहात्म्यस्य भावना उत्साहेन प्रकटनं प्रभावनागुणो भवेत् । तस्य कस्य । यः भव्यः प्रकाशयति प्रकटयति । किम्। जिनशासनमाहात्म्य जिनशासनस्य जिनधर्मस्य महिमानं प्रकटयति कैः कृत्वा । बहुविधयुक्तिभिः अनेकप्रकारचैविद्यविद्या कुशलत्वेन छन्दोऽलंकार व्याकरणमा हित्यतर्कागमाध्यात्मशास्त्रैश्व प्रकाशनैः समुद्दयोतनैः यात्रा प्रतिष्ठाप्रासादोद्धरणजिनपू निर्माण गीतनृत्यवादित्र करण प्रमुखप्रकारैः च प्रकाशयति । तथा तीत्रेण तपसा च ती दुःसाध्येन तपसा अनशनादमोदर्यादिकायक्लेशा दिद्वादशविधतपश्चरणेन जिनशासनमुद्द्योतयतीत्यर्थः । तद्यथा । श्रावण दानपूजादिना तपोधनेन च तपः श्रुतादिना जैनशासनप्रभावना कर्तव्येति व्यवहारेण प्रभावनापुणो ज्ञातव्यः । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य चलेन मिध्यात्ववित्र्य कषायप्रभृति समस्त विभाव परिणामरूपपरसमयाना प्रभाव हत्वा शुद्धोपयोगलक्षण स्वयं वेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव निजशुद्धस्त्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव निश्वयप्रभावनेति ॥ ४२३ ॥ अथ निःशक्ति दिगुणानामाधारभूतं पुरुषं निरूपयति- जो ण कुणदि पर-तत्तिं पुणु पुर्ण भावेदि सुद्धमप्पाणं । इंदिय - सुह-रिवेक्खो' णिस्संकाई गुणा तस्स || ४२४ ॥ [ छाया-यः न करोति परतष्टिं पुनः पुनः भावयति शुद्धमात्मानम् । इन्द्रियसुखनिरपेक्षः निःशङ्कादयः गुणाः तस्य ॥ ] तस्य भन्यवर पुण्डरीकस्य निःशङ्काद्यष्टगुणा भवन्ति । तस्य कस्म । यः पुमान् न करोति न विदधाति । काम् । परतति परेषां निन्दा परदोषाभाषणं परापवादं न विदधाति न भाषते । तथा पुनः वारंवारं मुहुर्मुहुर्भावयति ध्यायति चिन्तयति प्रकाशित करता है, तथा अपने आत्माको मी ( दस प्रकारके धर्मसे) प्रकाशित करता है उसके प्रभावना गुण होता है ॥ ४२२ ॥ अर्थ - जो सम्यग्दृष्टि अनेक प्रकार की युक्तियोंके द्वारा तथा महान् दुर्द्धर तपके द्वारा जिन शासनका माहात्म्य प्रकाशित करता है उसके निर्मल प्रभावनागुण होता है || भावार्थ - अनेक प्रकारकी युक्तियोंके द्वारा मिथ्यावादियों का निराकरण करके अपना अनेक प्रकार के शास्त्रोंकी रचना करके या जिनपूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा वगैरहका आयोजन करके अथवा घोर तपश्वरण करके लोक जैन धर्मका महत्त्व प्रकट करना व्यवहारसे प्रभावनागुण है । और उसी व्यवहार प्रभाबनागुण के बलसे मिथ्यात्य, विषयकषाय वगैरह समस्त विभाव परिणामोंके प्रभावको हटाकर शुद्धोपयोग रूप स्वसंवेदन के द्वारा विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप अपनी आत्माका अनुभवन करना निश्चय प्रभावमागुण है ॥ ४२३ ॥ आगे बतलाते हैं कि निःशंकित आदि गुण किसके होते हैं ? अर्थ-जो पुरुष पराई निन्दा नहीं करता और वारंवार शुद्ध आत्माको भाता है तथा इन्द्रिय सुखकी इच्छा नहीं करता उसके निःशङ्कित आदि गुण होते हैं । भावार्थ - यहाँ तीन विशेषण देकर यह बतलाया है कि जिसमें ये तीनों बातें होती हैं उसीमें निःशंकित आदि गुण पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है- जो पुरुष दूसरोंकी निन्दा करता है उसके निर्विचिकित्सा, उपगूहन, स्थितिकरण और वात्सल्य नामके गुण नहीं हो सकते, क्यों कि बुरे अभिप्राय से किसीके दोषोंको प्रकट करनेका नाम निन्दा है । अतः जो निन्दक है वह उक्त गुणोंका पालक कैसे हो सकता है ? तथा जो अपनी शुद्ध १ व सती । २मस पुणे पुणे (१) । ३ व भागे । ४ म गिरविको । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ स्थामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० ४२५अनुभवति । कम् । शुद्धम्र आत्मानं द्रव्यमावनोकर्मभलरहित शुद्ध शुद्धचिद्रूपं भावयति। कीदृक्षः सन्। इन्द्रियसुखनिरपेक्षा इन्द्रियाणा स्पर्शनादीनां सुखतः शर्मणः निर्गता अपेक्षा वान्छा यस्य स तथोक्तः पवेन्द्रियविषयवाअरहितः ॥४२४ ॥ क क निःशक्तिलमित्युक्के चाह हिस्संका-पहुडि-गुणा जह धम्मे तह य देव-गुरु-तथे । जाणेहि जिण-मयादो सम्मत्त-विसोईया एदे ।। ४२५ ॥ [छाया-निःशाप्रभृतिगुणाः यथा धर्मे तथा च देवगुरुतत्त्वे। जानीहि जिनमतात् सम्यक्त्वविंशोधकाः एते। यथा येनैव प्रकारेण धर्म उत्तमक्षमामादचार्जवसत्यशोचसयमतपस्त्यागार्किचन्यब्रह्मचर्यलक्षणे धर्मे दशयकारे व्यवहारनिश्चय रमात्रये धर्म वा निःशङ्काप्रमृतिगुणा इति । निःशक्कित १ निःकांक्षित २ निर्विचिकित्सा ३ मृढदृष्टि ४ सोपाहून ५ स्थितिकरण ६ वात्सल्य ७ प्रभावनागुणाः भवन्ति । तथा तेनैव प्रकारेण देवगुरतत्त्वेषु तान् गुणान् जानीहि । देवे अष्टादशदोषरहितवीतरागसर्वज्ञदेवेऽष्टौ निःशहिताविगुगान् त्वं भो भव्य जानीहि । तथा गुरौ निम्रन्थाचार्ये चतुर्विशतिपरिग्रहपरिसंदिगम्बरगरी तान् निःशहिताचष्टौ गुणान् जानीहि । तथा तत्त्वेषु जीपाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोशेषु सप्तसु पुण्यपापद्वयसहितनवपदार्थेषु जीवाजीवधर्माधर्मकालाकाशेषु ष द्रव्येषु पसास्तिकायेषु व्रततपःसयमसम्पत्वादिषु च निःशलिाग गयान जानीहि । किं घहुना जिनोपसर्वपदार्थेषु शश्वादयो न कर्दव्याः। जिनोकाक्षरार्थपदोकादिषु शशादिकं करोति तदा मिध्यादृष्टिः स्यात् । कुतः । जिनमतात् जिनवचनात् सर्वज्ञवीतरागोपदेशात् जिनशासनमाश्रित्य । यतः एते निःशहितादयो गुणाः सम्यक्त्वविशुद्धिकराः सम्यग्दर्शनस्य विशुद्धिकरा निर्मलकराः । अत्राशनचोरादिकया सातव्याः ॥ ४२५ ॥ युग्मम् ॥ अथ धर्मस्य शातृत्वकर्तृत्वदुर्लभवं व्यनक्ति आत्माको भाता है उसी के निःशंकित, अमूद दृष्टि, प्रभावना नामके गुण हो सकते हैं; क्यों कि जिसको आत्माके स्वरूपमें सन्देह है और जिसकी दृष्टि मढ़ है वह अपनी व आत्माकी वारम्बार भावना नहीं कर सकता । तथा जिसके इन्द्रियसुखकी चाह नहीं है उसीके नि:कांक्षित गुण होता है, अत: जिसके इन्द्रिय Bखकी चाह है उसके मिःकांक्षित गुण नहीं होता । इस तरह उक्त तीन विशेषणोंवालेके ही बालों गुण होते हैं ।। ४२४ ॥ आगे बतलाते है कि निःशकित आदि गुण कहाँ कहाँ होने चाहिये। अर्थ ये निशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्मके विषयमें कहे वैसे ही देव गुरु और तत्त्वके विषयमें मी जैन आगमसे जानने चाहिये । ये आठों गुण सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करते हैं | भावार्थ-ऊपर उत्तम क्षमा आदि दस धोंक विषयमें निःशंकित आदि गुणोंको बतलाया है। आचार्य कहते है कि उसीप्रकार अठारह दोष रहित वीतराग सर्वझ देवके विषयमें, चौबीस प्रकारके परिप्रहसे रहित दिगम्बर गुरुओंके विषयमें, तथा जिन भगवान के द्वारा कहे हुए जीव अजीव आसव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष इन सात तत्वोंमें और इन्हीमें पुण्य पापको मिलानेसे हुए नौ पदार्थो व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छ. द्रव्योंमें मी निःशंकित आदि गुणोंका होना जरूरी है । अर्थात् सम्यादृष्टीको देव गुरु और तत्त्वके विषयमें शंका नहीं करनी चाहिये, उनकी यथार्थश्रद्धाके बदलेमें इन्द्रिय सुखकी कांक्षा (चाह ) नहीं करनी चाहिये, उनके विषयमें ग्लानिका भाव नहीं रखना चाहिये, उनके विषयमें अपनी दृष्टि मूढताको लिये हुए नहीं होनी चाहिये, उनके दोषों को दूर करनेका प्रयन करना चाहिये, उनके विषयमें अपना मन विचलित होता हो तो उसे स्थिर करना चाहिये, उनमें सदा वात्सल्य भाव रखना चाहिये, और उनके महत्वको प्रकट करते रहना चाहिये । इन गुणोंको धारण करने से सम्यग १गतह घेव । २ बिसोहिया । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२७ ! १२. धर्मानुप्रेक्षा धम्मं ण मुणदि जीवो' अहवा जाणेह कह व कट्ठेण । काउं तो वि ण सकदि मोह- पिसाएण भोलविदो ॥ ४२६ ॥ [छाया-धर्म न जानाति जीवः अथवा जानाति कथमपि कष्टेन कर्तुं ततः अपि न शक्नोति मोद्दपिशाचेन भ्रामितः ॥ ] जीव आत्मा धर्म श्रावक्यतिमेदभिन्नं धर्म जिनोतं न जानाति तत्स्वरूपं न वेति । अथवा कथमपि केनापि प्रकारेण महता कष्टेन दुःखेन धर्म जानाति चेत् तो चि तर्हि तथापि कर्तुं धर्मम् आचरितुं न शक्नोति । कीदृक् सन् जीवः । मोहपिशाचेन भ्रामितः, मोह एव पिशाचः राक्षसः प्रतारकत्वात् तेन भ्रमितः प्रतारितः छलितः मोहनीयकर्मपिशाचेन गृहीतः विकलीकृतः प्रथिल इत्यर्थः ॥ ४२६ ॥ अथ सोपहासं दृष्टान्तेन धर्मकर्तृत्वेन धर्मदुर्लभत्वं विवृणोति I जह जीवो कुणइ रई पुस- कलत्तेसु काम-भोगेसु' । तह जड़ जिणिंद - धम्मे तो लीलाए सुहं लहृदि ॥ ४२७ ॥ ३२१ [ छाया - थथा जीवः करोति रतिं पुत्रकलत्रेषु कामभोगेषु तथा यदि जिनेन्द्र धर्मे तत् लीलया सुखं लभते ॥ ] यथा येनैव प्रकारेण उदाहरणोपन्यासे वा जीव जन्तुः संसारी पुत्रकलत्रेषु रतिं करोति, तनुजका मिनीजनक जननीभ्रातृबन्धुमित्रत्यादिषु रागं प्रीति स्नेहं विदधाति । यथा जीवः कामभोगेषु कन्दर्पसुखे भोगेषु पञ्चेन्द्रियाणां विषयेषु धनधान्यमन्दिरवस्त्राभरणादिषु च रनिं करोति तथा तेनैव पुत्रकलत्रकामभोगप्रकारेण यदि जिनेन्द्रधर्मे जिनवीतरागसर्वशो में रतिं रामं प्रीतिं लेई करोति चेत् तर्हि लीलया कांडया हेलामात्रेण सुखेन सुखं स्वर्गमोक्षोद्भवं सौख्यं लभते प्राप्नोति । तथा चोकं च । "जा दव्वे होइ मई अवा तरुणीमु स्ववंती । सा जड़ जिणवरधम्मे करयरमाद्विया सिद्धी ॥” इति ॥ ४२७ ॥ अथ लक्ष्म्याः वाञ्छादरः सुलभ इत्यादयति दर्शन निर्मल होता है। इन गुणोंके धारक अञ्जन चोर वगैरह की कथा जैनशास्त्रोंमें वर्णित है वहाँसे जान लेनी चाहिये ॥ ४२५ ।। आगे कहते हैं कि धर्मको जागना और जानकर भी उसका आचरण करना दुर्लभ है । अर्थ- प्रथम तो जीव धर्मको जानता ही नहीं है, यदि किसी प्रकार कष्ट उठाकर उसे जानता भी है, तो मोहरूपी पिशाचके चक्कर में पडकर उसका पालन नहीं कर सकता ॥ भावार्थ - अनादिकाल से संसारमें भटकते हुए जीवको सच्चे धर्मका ज्ञान होना बहुत ही कठिन है, क्यों कि एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंगी पश्चेन्द्रियकी पर्याय तो हित-अहितको समझने की शक्ति ही नहीं होती । सैनी पश्चेन्द्रिय पर्यायमें भी यदि नारकी या पशु हुआ तो नरकगति और पशुगतिके दुःखोंसे सदा आकुल रहता है । और यदि कदाचित् मनुष्य या देव हुआ तो प्रथम तो भोग विलासमें ही अपना जीवन बिता देता है। यदि काललब्धिके आजानेसे धर्मको जान भी लेता है तो स्त्री-पुत्र के मोहमें पड़कर धर्मका आचरण नहीं करता ॥ ४२६ ॥ आगे दृष्टान्तके द्वारा मोही जीवका उपहास करते हुए धर्मका माहात्म्य बतलाते हैं। अर्थ-जैसे यह जीव स्त्री पुत्र सौरहसे तथा कामभोग से प्रेम करता है वैसे यदि जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए धर्मसे प्रीति करे तो लीलामात्र से ही सुखको प्राप्त कर सकता है । भावार्थ आचार्य कहते हैं कि स्त्री, पुत्र, माता, पिता, भाई, बन्धु, मित्र आदि कुटुंबीजनोंसे तथा धन, धान्य, मकान, वख, अलंकार आदि परियइसे व कामभोगसे यह जीव जितना प्रेम करता है वैसा प्रेम यदि वीतराग सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए धर्मसे करे तो उसे १ म जीओ। २व (१) भ स रई ! ३ ब भोसु । कार्त्तिके० ४१ ४ प जिणंद 1 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा लच्छि छेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ । बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि सस्स - णिष्पत्ती ॥ ४२८ ॥ [ गा० ४२८ [ छाया-लक्ष्मी वाञ्छति नरः नैषं सुधर्मेषु आदरे करोति । बीजेन बिना कुत्र अपि किं दृश्यते सस्यनिष्पत्तिः ॥ ] नरः पुमान् जनोमा लक्ष्मी वाञ्छति अश्वगजरथपदातिधनधान्यसुवर्णरत्नादिसंपदाम् इन्द्रवरणेन्द्रचक्रवर्त्यादिवैभवं वा ते आकांक्षति अभिलषति । सुधर्मेषु पूर्वापर विरोधरहित जिन कथितषेषु अतिश्रावक मेदभिन्नधर्मेषु नरः जनः आदरम् उद्यमम् अनुष्टानं नैव कुरुते विदधाति नैव । धर्म विना तो लक्ष्मीं कथं लभते इत्यत्रोदाहरणेन दृष्टान्तेन युनक्ति । कत्थ वि कुत्रापि धान्यनिष्पतिक्षेत्र केदारभूम्यादी बीजेन विना ब्रीहिगोधूमचणकमुद्रयवादिधान्यवपनं विना सस्मनिष्पत्तिः धान्योत्पत्तिः श्रीयादिसमुद्भवः किं दृश्यते अवलोक्यते किम् अपि तु न, तथा धर्म विना संपदा न दृश्यते । तथा च । तं पुष्णह अहिषार्थी हिला रही हु तं पावह परिणाम जं गुणवंत भिक्खडी” ॥ ४२८ ॥ अथ धर्मस्थो जीवः किं किं करोतीति गामाद्वयेनाह - जो धम्मत्थो जीवो सो रिङ-वग्गे वि कुणइ खम-भावं । ता पर-दवं वज्जइ जणणि समं गणइ पर-दारं ॥ ४२९ ॥ [ छाया-यः धर्मस्थः जीवः स रिपुवों अपि करोति क्षमाभावम् । तावत् परद्रव्यं वर्जयति जननीसमं गणयति परदारान् ॥ ] स जीवः करोति कम् । क्षमाभावं क्षान्तिपरिणाम क्रोधादिकषायाणामुपशान्तिम् क रिपुवर्गे शत्रुसम यः क्षमाभावं करोति, अपिशब्दात् मित्रखजनादिवर्गे । स कः । यः धर्मस्थः धर्मे पूर्वोदशलाक्षणिके नृपे तिष्ठतीति धर्मस्थः, यावत् जिनधर्मे स्थितः जीवः सा तावत्कालं परद्रव्यं वर्जयति परेषां रत्नसुवर्णमणिमाणिक्यधनधान्यत्रादिकं वस्तु परिहरति । तथा परदारान् परेष! युवतीः जननीसमाः मातृतुल्याः खससमानाः सदृशाः गणयत्ति मनुते जानाति ॥ ४२९ ॥ अनायासही स्वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त हो सकता है। कहा भी है-धनसम्पत्ति तथा रूपवती तरु गियोंमें तेरी जैसी रुचि है वैसी रुचि यदि जिनवर भगवानके कहे हुए धर्ममें हो तो मुक्ति तेरी हथेली पर रक्खी हुई है || ४२७ ॥ आगे कहते हैं कि लक्ष्मीको चाहना सुलभ है किन्तु धर्मके बिना उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं है। अर्थ यह जीव लक्ष्मीको तो चाहता है किन्तु सुधर्मसे प्रीति नहीं करता । क्या कहीं बिना बीजकेमी धान्यकी उत्पत्ति देखी गई है ? || भावार्थ - घोडा, हाथी, रथ, धन, धान्य, सुवर्ण, वगैरह सम्पदाकी तथा इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती वगैरह वैभवकी तो यह जीव इच्छा करता है, किन्तु सचे धर्मका पालन करना नहीं चाहता। ऐसी स्थितिमें धर्मके बिना उस लक्ष्मीको वह कैसे प्राप्त कर सकता है? क्या कहीं बिना बीजके गेहूं, चना, मूंग, उड़द वगैरह पैदा होता देखा गया है ? अतः जैसे बिना भीजके धान्य पैदा नहीं होता वैसेही बिना धर्म किये लक्ष्मीकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ ४२८ ॥ आगे धर्मात्मा जीव क्या २ करता है यह दो गाथाओंसे बतलाते हैं । अर्थ - जो जीव धर्मका आचरण करता है, वह शत्रुओं पर भी क्षमा भाव रखता है, पर ये इव्यको ग्रहण नहीं करता, और पराई स्त्रीको माताके समान मानता है । भावार्थ-धर्मात्मा जीव अपने मित्र वगैरह स्वजनों की तो बात ही क्या, अपने शत्रुओंपर मी क्रोध नहीं करता । तथा पराये रक्त, सुवर्ण, मणि, मुक्ता और धन धान्य वस्त्र वगैरहको पानेका प्रयत्न नहीं करता । और दूसरोंकी कियोंपर कभी कुदृष्टि नहीं डालता, उन्हें अपनी माता और बहिन के तुल्य समझता है || ४२९ ॥ १ लच्छी २ ग आइयं । ३ ब दीसह । ४ (१) म परयारं । | Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुसा २३ ता सम्वत्थ वि किती ता सव्वस्थ वि हवेई वीसासो। ता सव्वं पिय भासह ता सुद्ध माणसे कुणई॥४३० ॥ [छाया-तावत् सर्वत्र अपि कीर्तिः तावत् सर्वत्र अपि भवति विश्वासः। तावत् सर्व प्रिय भाषते तावत् शुद्ध मानसं करोति ॥] यावत्कालं जिनधर्मः यस्य जीवस्य भवति तावत्काल सर्वत्रापि अधोमध्यावलोके तस्य जीवस्य कीर्तिः यशः महिमा ख्याशिः स्यात् । अपि पुनः ता तावत्काल तस्य धर्मयतः पुंसः सर्वस्यापि समसत्रैलोक्यजनस्य, अपिशब्दात खकीयस्थ, विश्वासः विधम्भः प्रतीतिः स्यात् । ता तावत् सर्व प्रिय हितकारक भाषते । सर्वलोकः तं धर्मवन्त प्रति प्रिय हितमितमधुरमणप्रिश्ववन भाषते । स धर्मवान् जीवः सर्वान् प्रति हितमितमधुरादिवाक्यं वत्तीत्यर्थः । ता तावरकाले तस्य धर्मवतः मानस वितं शुद्ध निर्मले करोति परेषां मानर्स सधर्मः सन शुद्ध करोतीत्यर्थः ॥ ४३० ॥ अथ धर्ममाहात्म्य माथाचतुष्कनाह उत्तम-धम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो । चंडालो वि सुरिंदो उत्तम-धम्मेण संभवदि ॥ ४३१ ॥ [छाया-उत्तमधर्मेण युतः भवति तिर्यक् अपि उत्तमः हेवः । चण्डालः अपि सुरेन्दः उत्तमधर्मेण संभवति ॥] सिर्यम्जीवः मोगजापसिंहय्याघ्रशुगालकुर्कुर टदर्दुरादिपाणी । कथंभूतः । उत्तमधर्मेण युक्तः सन् , सम्यमत्रतादिपक नमस्कारदानपूजादिभावनाविलक्षणधर्मेण सहितः तिर्यक् उत्तमदेवो भवति सौधर्मस्वर्गाद्यच्युतवर्गनिवासी देवो जायते। सम्यकच विना ब्रतादिना युक्तः तिर्यजीवः भवनघासी देवो व्यन्तरदेवो वा ज्योतिष्कदेवो वा त्रायते । भपिशब्दात उत्तम. धर्मेण युक्तः मनुष्यः उत्तमदेवो भवति । श्रावकवर्मेण सहितः गृहस्थः सौधर्माद्यच्युतान्तकल्पवासी देवः इन्द्रप्रतीन्द्र सामानिकादिको आयते । यतिधर्मेण युतः सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तनिवासी उत्तमदेवो जायदे, सकलकर्मक्षयं त्वा सिदोऽपि जायते । तया उत्तमवर्षेण जिनोधर्मेग सम्यत्वाणुमतादिलक्षणेन कृत्वा चाण्डालो माताः उत्तमदेवः सुरेन्द्रः प्रदीनसामानिको बा संभवति जायते। के के नराः । सिपश्वश्च क कोत्कृष्टेन जायन्ते चेत्, त्रैलोक्यसारे प्रोकं च अर्थ-धर्मात्मा पुरुषकी सब जगह कीर्ति होती है, सब लोग उसका विश्वास करते हैं, वह सबके प्रति प्रिय वचन भोलता है, और अपने तथा दूसरोंके मनको शुद्ध करता है || भावार्थ-धर्मारमा जीवका सब लोकोंमें यश फैल जाता है कि अमुक मनुष्य बड़ा सन्तोषी और सच्चा है, वह किसीकी वस्तुको नहीं हरपता। इससे सब लोग उसका विश्वास करने लगते हैं । वह सबसे हितकारी मीठे वचन बोलता है, और सब लोग मी उससे मीठे बचन बोलते हैं। यह अपना मन साफ रखता है किसीका धुरा नहीं सोचता । इससे सब लोगभी उसके प्रति अपना मन साफ रखते हैं। कभी उसका बुरा नहीं चाहते। अतः धर्मात्मा जीव धर्मका पालन करनेसे केवल अपना ही भला नहीं करता किन्तु दूसरोंका मी मला करता है ॥ ४३० || आगे चार गाथाओंसे धर्मका माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ-उत्तम धर्मसे युक तिर्यत्र मी उत्तम देव होता है । तथा उत्तम धर्मसे युक्त चाण्डाल भी सुरेन्द्र होजाता है | भावार्थसम्यक्त्व बत, पंच नमस्कार मंत्र, दान, पूजा आदि उत्तम धर्मका पालन करनेसे गाय, बैल, हाथी, घोड़ा, सिंह, व्याक, शगाल, कुत्ता, मुर्गा, मेंदक आदि प्राणी भी मरकर उत्तम देवपद पाते हैं । अर्थात् यदि वे सम्यग्दृष्टि होते हैं तो मरकर सौधर्म खर्गसे लेकर सोलहवें अच्युत खर्गतक जन्म लेते हैं। और यदि सम्पादर्शनके बिना व्रतादिका पालन करते है तो मरकर भवनवासी, व्यन्तर अथवा ज्योतिष्क जातिके १रुमग सम्वरस। २गवद। समसग गई। ४ब संभकर। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुभेक्षा [गा. ४३१"णरतिरिय वेसअयदा उहस्सेणच्झदो ति जिम्मथा। पर अयवदेसमिछा गेवेतो नि गच्छति ॥ सम्बट्टो सि मुदिट्टी महबई भोगभूमिजा सम्मा। सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवणतियं तावसा य बरे ॥ चरया य परिष्वाजा बम्होत्तरपदो ति भागीवा । अणुदिसमणुतरादो चुदा ण केसवपद जंति ॥" ति । तथा योकं च । “प्रापदेव तब नुतिपदजीवकेनोपविष्टः, पापाचारीमरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम्। कः संदेहो यदुपलभते वासवधीप्रभुत्वं, जल्पन आप्यमणिभिरमसेस्स्वन्नमस्कारचकम् ॥" "अर्हचरणसपर्यामहानुभाव महात्मनामवदत् । मेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनकेन राजगृहे ॥” तथा । "धर्म: सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म घुधाश्चिन्यते, धर्मणैव समाप्यते शिवसुर्ख धर्माय तस्म नमः । धर्माचास्ति परः सुहृद् भवभूतां धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चित्तमई दधे प्रतिदिनं हे धर्म मां पालय ॥" "सुकुलजन्मविभूतिरनेकधा प्रियसमागमसौख्यपरंपरा । नृपकुले गुप्ता विमलं यशो भवति धर्मतरोः फलमीदृशम् ॥” इति ॥ ४३१ ॥ देव होते हैं। गाथामें आये हुए 'वि' शब्दसे इतना अर्थ और लेना चाहिये कि उत्तम धर्मसे युक्त मनुष्य मरकर उत्तम देव होता है । अर्थात् श्रावकधर्मका पालन करनेवाला मनुष्य भरकर सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत खर्ग पर्यन्त इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक आदि जातिका कल्पवासी देव होता है। तथा मुनिधर्मका पालक मनुष्य मरकर सौधर्मस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जन्म लेता है। अथवा सकल कोको नष्ट करके सिद्धपदको प्राप्त करता है। तथा सम्यक्त्व प्रत आदि उत्तम धर्मका पालक चाण्डाल भी मरकर उत्तम देव होजाता है । कौन २ मनुष्य और तिर्यश्च मरकर उत्कृष्टसे कहाँ २ उत्पन्न होते हैं, इसका वर्णन त्रिलोकसारमें इस प्रकार किया है-देशवती और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च मरकर अधिकसे अधिक सोलहवें खर्ग तक जन्म लेते हैं। द्रव्यलिंगी, किन्तु भावसे असंयत सम्यम्दृष्टि अथवा देशवती अथवा मिथ्यादि मनुष्य अवेयक तक जन्म लेते हैं ॥ सम्यादृष्टि महाव्रती मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जन्म लेते हैं । सभ्य भोगभूमया जीप कार सवालमें मार लेते हैं और मिथ्या दृष्टि भोगभूमिया जीव मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं। तथा उत्कृष्ट तापसी भी मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं ॥ नंगे तपस्त्री और परिवाजक ब्रह्मोत्तर खर्ग तक जन्म लेते हैं । आजीवक सम्प्रदायवाले अच्युत वर्ग तक जन्म लेते हैं। अनुदिश और अनुत्तरोंसे ध्युत हुए जीव नारायण प्रतिनारायण नहीं होते ॥ वादिराजसूरिने एकीभावस्त्रोत्रमें नमस्कार मंत्रका माहात्म्य बतलाते हुए कहा है। हे जिनबर, मरते समय जीवन्धरके द्वारा सुनाये गये आपके नमस्कार महामंत्रके प्रभावसे पापी कुत्तो नी भरकर देव गतिके सुखको प्राप्त हुआ। तब निर्मल मणियोंके द्वारा नमस्कार मंत्रका * जप करने वाला मनुष्य यदि इन्द्रकी सम्पदाको प्राप्त करे तो इसमें क्या सन्देह है। खामी समन्त मदने जिनपूजाका माहात्म्य बतलाते हुए श्री स्नकरंडश्रावकाचारमें कहा है राजगृही नगरीमें आनन्दसे मत्त होकर भगवान महावीरकी पूजाके लिये एक फल लेकर जाते हुए मेढ़कने महात्माओंको मी बतला दिया कि अईन्त भगवानके चरणोंकी पूजाका क्या माहात्म्य है ॥ धर्मका माहात्म्य बतलाते हुए किसी कषिने कहा है "धर्म सब सुखोंकी खान है और हित करने वाला है। (इसीसे) बुद्धिमान लोग धर्मका संचय करते हैं। धर्मसे ही मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । उस धर्मको नमस्कार हो । संसारी प्राणियोंका धर्मसे बढ़कर कोई मित्र नहीं । धर्म का मूल दया है। अतः मैं प्रतिदिन अपना पिस धर्ममें लगाता हूँ। हे धर्म मेरी रक्षा कर ॥ और भी कहा है अच्छे कुलमें जन्म, अनेक प्रकारकी विभूति, प्रिय जनोंका समागम, लगातार सुखकी प्राप्ति, राजघराने आदर सन्मान और निर्मल पथ, Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा ३२५ अग्गी विथ होदि हिमं होदि मुयंगो वि उत्तम रयणं । जीवस्स सुधम्मादो देवा वि य किंकरा होति ॥ ४३२ ॥ [मया-अमिः अपि च भवति हिम भवति भुजाः अपि उत्तम रनम् । जीवस्य सुधर्मात् देवाः अपि च कारा रागोक्तयतिभावधर्मात, अपि च विशेषे, अभिः वैशालरः टिम शीतलो भवति । भुजङ्गोऽपि उत्तमै रजम् अनर्यो मणिर्भवति । महाविषधरकृष्णसर्पः रममाला पुष्पमाला च भवति । तथा च पुन देवाः भवनभ्यन्तरज्योतिष्कक्रस्पवासिनः सुराः किंकराः सेवका भत्या भवन्ति । अपिशब्दात मानवाः किकरा भवन्ति । उकै च । "धम्मो मंगलमुबिई अहिंसा संजमो तवो । देवा चि तस्स पणमति जरस धम्ने सया मणौ ॥" इति ।। ४३२॥ तिक्खं खग्गं माला दुजय-रिजणो सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पि अभियं महापया संपया होदि ।। ४३३ ।। [छाया-तीक्ष्णः खङ्गा माला दुर्जयरिपकः सुखंकराः सुजनाः । हालाहलम् अपि अमृतं महापदा संपदा भवति ॥] धर्मस माहात्म्येन धर्मवतः युंसः इति सर्वत्र संबन्धनीयम् । तीक्ष्णः शितः खलः मसिः माला पुष्पसमवति। सपा दुर्जयारपवः दुःसाध्यशत्रवः सुखंफरा: सुखसाधकाः सुजनाः सम्बना उत्तमपुरुषाः खपरहितकारकाः स्वकीयजना वा बायन्ते । तथा हालाहल तारकालिकमरणकारिविष कालकूट विषम् अमृतं सुधा जायते। तथा महापदा महसका संपदा संपतिर्भवति ॥ ४३३ ॥ अलिय-षयणं पि स उजम-रहिए वि लच्छि-संपत्ती । धम्म-पहावेण णरो अणओ वि सुहकरो होदि ॥ ४३४ ॥ [छाया-अलीकवचनम् अपि सत्सम् उद्यमरहिते अपि लक्ष्मीसंप्राक्षिः । धर्मप्रभावेण नरः अनयः अपि सुखकरः भवति ॥] तथापि निश्चित धर्मप्रभावेण श्रीजिनधर्ममाहात्म्यात् धर्मवतः पुंसः अलीकदाचन कार्यात् कारणावा रागद्वेषाद्वा ये सब धर्मरूपी वृक्षके सुफल हैं ॥ ३१ ॥ अर्थ-उत्तम धर्मके प्रभावसे अग्नि शीतल हो जाती है, महा विषधर सर्प रतोंकी माला होजाता है, और देव नी दास हो जाते हैं ॥ ४३२ ॥ अर्थ-उत्तम धर्मके प्रभावसे तीक्ष्ण तलवार माला हो जाती है, दुर्जय शत्रु सुख देने वाले आत्मीय जन बन जाते है, तत्काल मरण करने वाला हालाहल विष भी अमृत हो जाता है, तथा बड़ी भारी आपत्ति मी संपदा हो जाती है || ४३३ ॥ अर्थ-धर्मके प्रभावसे जीवके झूठे वचन भी सच्चे हो जाते है, उपम न करनेवाले मनुष्यको मी लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाती है, और अन्याय मी सुखकारी हो जाता है। भावार्थ-आशय यह है कि यदि जीवने पूर्वभवमें धर्मका पालन किया है तो उसके प्रभावसे उसकी झूठी बात भी सधी हो जाती है, बिना परिश्रम किये भी सम्पति मिल जाती है और अन्याय करते हुए भी यह सुची रहता है । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि अन्याय करने का फल उसे नहीं मिलता या डूंठ बोलना और अन्याय करना अच्छा है बल्कि धर्मके प्रभावसे अन्याय भी न्यायरूप हो जाता है। धर्मका प्रभाव बतलाते हुए किसी कविने भी कहा है, जो लोग धर्मका आचरण करते हैं, उनपर सिंह, सर्प, जल, अग्नि आदि के द्वारा आई हुई विपत्तियों नष्ट हो जाती है, सम्पत्तियां प्राप्त महोति। २ च ग सहकरो सुरगो। इस रहिये । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ खामिकार्तिकेयानुप्रेमा [गा. केमापि असल्पवचनं श्रुत्पम् मलीकम् आलं दत्त सस्य जायते, दिव्यादिकेन शपयेन सत्यो नरो जायते । उपमरहिरोपि पुंसि धर्मप्रभावात् लक्ष्मीः संपत्तिः संपया नानाविधा भवति । धर्मप्रमाण वषमाहाल्येन नरः अनयोऽपि न्यायरहितः अन्यायी अन्यो वा शुभंकरः सुर्खकरो वा हितकारको भवतीत्यर्थः । "व्याघ्रव्यालजलानलावि विपरस्तेषां ब्रजन्ति क्षत्र, कल्याणानि समुन्डसन्ति वियुधाः सानिध्यमध्यासते। कीर्तिः सतिमियति वात्स्युपवर धर्मः प्रणश्यत्ययम् , स्वनिर्वानमुखानि सेविदधते ये शीलमाविनते ।।" "नापिरपि हलादिपिगोविनी .भालोमा पर्वतोऽप्युपलति क्वेडोऽपि पीयूषति । विनोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि कोडातडागस्यपी, नाथोऽपि खगृहत्याटम्यपि नृणां धर्मप्रमावा धुवम् ॥" बति ॥ ४३४ ॥ अथ धर्मरहितस्त्र निन्दा गाधात्रयेण दर्शयति देवो वि धम्म-चत्तो मिच्छत्त-वसेण तरु-वरो होदि। घकी वि धम्म-रहिओ णिवहई णरए णे संदेहो ॥ ४३५ ॥ [छाया-देवः अपि धर्मत्यतः मिथ्यात्ववशेन तस्वरः भवति । चक्की अपि धर्मरहितः निपतति नरके म सन्देहः ॥] देवोऽपि भवनज्यन्तरज्योतिष्ककाल्पनिवासी भुरोऽमरः । अपिशब्दात् मनुष्यतिर्यजीवः । किंभूतः । धर्मत्याकः जिनोकः धर्मरहितः सन् तयवरो भवति चन्दनागलकर्पूरामसहकारबाक्षादिरूपाक्षवनस्पतिकामिने उपलक्षगात् पृथ्वीकाषिक: अफायिका पञ्चेन्द्रियतिर्यग्जीवः हीनमनुष्यो वा भवति जायचे उत्पद्यते । केन कृत्वा। मिथ्यात्ववशेन अतलवानपशेन कुदेवकुधर्मगुरुकुशास्त्राराधदेन । मिध्यादृष्टिदेवः क जायते चेत्, ततुकं च। “देवी देवाणं संपादि का सणितिरियणरे । पयपुढविआऊबादरपज्जत्तरे गमणं ।" इति । तथा चक्यपि चक्रवर्मपि षट्पण्डाधिपतिः चक्रवर्ती त्रिखण्डाधिपतिरपचक्री वासुदेवः प्रतिवासुदेवः । अपिशब्दात् मुकुटममाडलिकादिकः नरः धर्मयका, मिथ्यात्वदशेन कृत्वा नरके आवंशामेषाञ्जनारिष्टामस्वीमाषवीषु जायते सुभौममयदत्तादिवत् धर्मत्यकः, पापं मिथ्यात्वं च संपदे संपनिमित्तं न भवति संपदर्थ लक्षाभ्यर्थ न स्यात् ॥ ४३५॥ होती हैं, विद्वान् लोग उनके निकट आकर बैठते हैं, सर्वत्र उनका यश फैलता है, धर्मका संचय होता है, पापका नाश होता है और स्वर्ग तथा मोक्षका सुख प्राप्त होता है । और भी कहा हैधर्मके प्रभावसे अग्नि भी जलरूप हो जाती है, सर्प मी माला रूप हो जाता है, व्याघ्र भी हिरनके समान हो जाता है, दुष्ट हाथी मी घोड़ेके तुल्य हो जाता है, पहाइ भी पत्थरके टुकड़ेके तुल्य हो जाता है, विषभी अमृतके तुल्य हो जाता है, विघ्न भी उत्सवके रुपमै बदल जाता है, शत्रु भी मित्र हो जाता है, समुद्र मी तालाबके तुल्य हो जाता है, और जंगल मी अपने घरके तुल्य बन जाता है, यह निश्चित है ॥४३॥ आगे तीन गायाओंसे धर्मरहित जीवकी निन्दा करते हैं। अर्थ-धर्मरहित . देव भी मिथ्यापिके वश होकर वनस्पतिकायमें जन्म लेता है। और धर्मरहित चक्रवर्ती भी मरकर नरकमें जाता है, क्योंकि पापसे सम्पत्तिकी प्राप्ति नहीं होती । भावार्थ-कुदेव, कुधर्म, कुगुरु और धूठे शाओंकी आराधना करनेसे मनुष्य और तिर्यश्च की तो बात ही क्या, कल्पवासी देव भी मरकर एकेन्द्रिय हो जाता है । आगममें कहा है कि कर्मके वशसे देव और देवियाँ मरकर कर्मभूमिया तिर्यत्र और मनुष्य होते हैं, तथा बादर पर्याप्तक घृषिवीकाय, बादर पर्याप्तक जलकाय और प्रत्येक वनस्पतिमें जन्म लेते हैं। तथा छखण्डोंका स्वामी चक्रवर्ती और तीन खण्डके स्वामी नारायण और प्रतिनारायण मी मरकर सभौम और चक्रवर्ती ब्रह्मदत्तकी तरह मिथ्याक्के प्रभावसे नरकमें चले जाते हैं। अतः पापसे १.णिवडय । २सगण संपदे होदि । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३८] १२. धर्मानुमेक्षा ३२७ धम्म-विहणो जीवो कुणइ अस पि साहसं जई वि। तो ण वि पावदि इट्ट सुड अणिद्वं परं लहदि ॥ ४३६ ॥ [ छाया-धर्मविहीनः जीवः करोति अशक्यम् अपि साहसं यदि अपि । तत् न अपि प्रायोति इष्ट मुक्षु मनिष्टं पर लभवे ॥धर्मविहीनः जिनोक्तधर्मरहितो जीवः प्राणी यद्यपि असाध्यमपि साहसं करोति नौगमनपर्वतारोहणवीपछीपान्तरगमनसंग्रामप्रवेशनासिमषिकृषिवाणिज्यव्यापार प्रमुख साहसमुद्यम करोति । तथा भसाय कार्य केनापि साधयितुमशक्य कार्य करोति यद्यपि यहि एतत असाध्यमपि साहसं विदधाति, तो तर्हि नैव प्राप्नोति सूा अतिशयेन मूर्ख पुत्रकलमित्रभ्रातृधनधान्यादिवाञ्छित वस्तु, पर केवलम् अनिष्टं शत्रुसर्पदुर्जनदारिद्यरोगादिकं दुःखं प्राप्नोति ॥ ३ ॥ इय पञ्चक्ख पेच्छह धम्माहम्माण विविह-माहप्पं । धम्म आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ।। ४६७ ॥ [छाया--इति प्रत्यक्ष पश्यत धर्माधर्मयोः विविधमाहात्म्यम् । धर्मम् आचरत सदा पाएं दूरैण परिहरत ॥] सदा निरन्तरम् मादरम्ख भो मत्यदरपण्डरीक रुष्व त्वम् । कम् । धर्म जिनोवृषम् । वरेण दूरतः भत्यर्थ पाएं जिनं दुरितं यूयं परिदरत मिध्यावासयमावताविक किल्विषं भो भव्या यूयं सर्वथा त्यत्रतेत्यर्थः । कि कृस्वा । इति पूर्वोकप्रकारेष धर्माधर्मयोविविधमाहात्म्यं प्रत्यक्षं दृष्ट्वा, धर्मस्य अनेकप्रकारप्रभावमहिमाखर्गमोक्षादिसुखप्राप्ति प्रत्यक्ष साक्षात् द्या, अक्षमस्य पापस्य विविधमाहात्म्य नरकतिर्यग्दारिखसमाप्ति दृष्टा पाप मुख धर्ममादरख इति ॥४३॥ इति र कृतानुप्रेक्षाया षिद्यविद्याशलपाइभाषाकविचक्रवर्तिमट्टारकधीशुभचन्द्रविरचितडीकाया यतिधर्मानुप्रेक्षाया वर्णमाभिकारः द्वादशः समाः ॥ अथ धर्मानुप्रेक्षायाधुलिको ब्याचक्षाणो द्वादशविधसपोविधानन्यायानं कार्तिकेयखामी वितनोति पारस-भेओ भणिओ गिजर-हेज' तवो" समासेण । तस्स पयारा पदे भणिजमाणा मुणेयन्वा ॥ ४३८ ॥ [छाया-द्वादशभेद भणितं निर्जराहेतुः तपः समासेन । तस्य प्रकाराः एते भम्यमानाः ज्ञातव्याः ।।] समासेन संक्षेपेण तषः तप्यते संतप्यते कर्मक्षयार्थं ख्यातिपूजालाभादेवमन्तरेण मुनीश्वरेण शरीरेन्द्रियाणीति । तपः कतिधा। सम्पत्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ १३५ ॥ अर्थ-धर्म रहित जीव यदि अतुल साहस मी करे तो भी इष्ट वस्तुको प्राप्त नहीं कर सकता, बल्कि उल्टा अनिष्टको ही प्राप्त करता है। भावार्थ-पापी जीन ऐसा साहस मी करे जो किसी के लिये करना शक्य न हो, अर्थात् नौकासे समुद्र पार करे, दुर्लष्य पर्वतको लांघ जाये, दीपसे द्वीपान्तरको गमन करे, भयानक युद्धोंमें भाग ले, फिर भी उसे मन चाही यस्तुकी प्राप्ति नहीं होती, उल्टे शत्रु, सर्प, दुर्जन, गरीबी, रोग वगैरह अनिष्ट वस्तुओंकी ही प्राप्ति होती है ॥ ४३६ ।। अर्थ-अतः हे प्राणियों, इस प्रकार धर्म और अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा धर्मका आचरण करो और पापसे दूरही रहो !! भावार्थ-धर्मका फल खर्ग और मोक्ष सुखकी प्राप्ति है, तथा अधर्मका फल नरकगति और तिर्यश्च गतिके दुःखोंकी प्राप्ति है । अतः पापको छोड़ो और धर्मका पालन करों ।। ४३७ ॥ इस प्रकार स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीका धर्मानुप्रेक्षा नामक बारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥ आगे धर्मानुप्रेक्षाकी चूलिकाको कहते हुए कार्तिकेय स्वामी १॥ विहीणो। १बजय । ३तो विणु पावरई। ४ स पावद। ५म स ग सहा (६) गस पिच्चिय, म पिच्छिह (१) ७स धम्माधम्माण । ८ धम्माणुधेक्खा ।। वारसमेओ इखादि। ९गई (क), २.व तो । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४३९ द्वादशभेदं भणितं वक्ष्यमाणम् अनशनादिवादशप्रकार कथित जिनेरिति शेषः । द्वादशं ततफ निर्जरा हेतुकं निर्जरया एकादशमेदमिया कर्मक्षपणकारणम्, तस्य तपसः प्रकारा मेदाः एते अनशनादयः मध्यमानाः कथ्यमानाः मन्तय्या ज्ञातम्याः । भेदाभेदरत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः, वा यदा परद्रव्याभिलाषां परिहरति तदा तपः वा व्यकभावकर्मक्षयार्थ मार्गाविरोधेन साधुना, तप्यते इतेि तपः, वा शरीरेन्द्रियसंतापनार्थ शोषणार्थं साधुना सप्यते संतप्यते इति तपः, वा कर्मेन्धनं तप्यते दह्यते भस्मीक्रियते इति तपः । तथा निश्वयतपोविधानमुतं च । “परद्रव्येषु सर्वेषु यदिच्छा तनिवर्तनम्। तपः परममनातं तनिश्चयनयस्थितैः ॥" ४३८ || अथ तत्रानशननामतपोविधानं गाथाचतुष्केन व्याकरोतिसमणो अक्खाणं उववासी वाण्णदी' समासेर्ण । तम्हा भुजंता वि य जिदिदिया होति उववासा ॥ ४३९ ॥ [ छाया-उपशमनम् अक्षाणाम् उपवासः वर्णितः समासेन । तस्मात् भुञ्जमानाः अपि च जितेन्द्रियाः भवन्ति उपवासाः ॥ ] मुनीन्द्रः प्रत्यक्षज्ञानवेदिभिः अवधिमनः पर्यय केवलज्ञानिभिः तीर्थंकरगणधरदेवादिभिः वर्णितः व्याख्यातः । कः । उपहासः, उप-समीपे आत्मनः परमब्रह्मणः शुद्धबुद्वैकस्वरूपस्य वसतीत्युपवासः । अथवा स्पर्शरसगन्धयर्णशब्दलक्षणेषु पसु विषयेषु परिद्वतोत्सुक्यानि पञ्चापि इन्द्रियाणि उपेथ आगल तस्मिन् उपवासे वसन्तीत्युपवासः । अशनादिचतुर्वि धाहारस्य परित्यागो वा उपवासः । किमर्थमुपवासः कथितः । अक्षाणामुपशमने स्पर्शनरसनघायचक्षुः श्रोत्रेन्द्रियाणां तद्विषयाणा रागद्वेषयोव उपशमने उपशमनिमितं शान्त्यर्थं निमित्तात् कर्मणि खामी वाच्या । तस्मादिन्द्रियोपशमकारणात् भुजमानाः भोजनं कुर्वाणाः चतुर्विधाहारे जिमन्तः गृन्तः, अपिशब्दात् अभुञ्जमानाः जितेन्द्रियाः जितानि इन्द्रियाणि स्वे जितेन्द्रियाः निर्जितपचेन्द्रियमदाः इन्दियवशीकर्ता उपवासाः उपत्रासिनो नराः सदा प्रोषधवतिनो भवन्ति । ये जितेन्द्रियास्ते सोपवासिनो नरा भवन्तीत्यर्थः ॥ ४३५॥ बारह प्रकारके तपका व्याख्यान करते हैं । अर्थ - कर्मोकी निर्जराका कारण तप संक्षेपसे बारह प्रकारका कहा है । उसके भेद आगे कहेंगे। उन्हें जानना चाहिये || भावार्थ - ख्याति, लाभ, पूजा वगैरह की भावनाको व्यागकर मुनीश्वरों द्वारा कर्मोंके क्षयके लिये जो तपा जाता है उसे तप कहते हैं । अथवा रक्षत्रयकी प्राप्तिके लिये इच्छाको रोकनेका नाम तप है । अथवा परद्रव्यकी अभिलाषाको दूर करनेका नाम तप है । अथवा शरीर और इन्द्रियोंका दमन करनेके लिये साधुके द्वारा जो तपा जाता है वह तप है । अथवा जिसके द्वारा कर्म रूपी ईंधनको जलाकर भस्म किया जाता है वह तप है । कहा भी है- 'समस्त परद्रव्योंकी इच्छाको रोकनाही निश्चयसे उत्कृष्ट तप कहा है ॥' संक्षेपसे उस तपके बारह भेद कहे हैं। अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, छ: प्रकारका बाह्य तप है। और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, प्रकारका अभ्यन्तर तप है। इनका स्वरूप आगे कहेंगे ॥ ४३८ ॥ मी चार गाथाओंसे अनशन नामक लपका वर्णन करते हैं । अर्थ - तीर्थकर, गणधर देव आदि मुनीन्द्रोंने इन्द्रियोंके उपशमनको ( विषयोंमें न जाने देने को ) उपवास कहा है । इस लिये जितेन्द्रिय पुरुष आहार करते हुए भी उपवासी है। भावार्थ- शुद्ध बुद्ध स्वरूप आत्मा के उप अर्थात् समीपमें क्सनेका नाम उपवास है । और आत्माके समीप वसनेके लिये पाँचों इन्द्रियोंका दमन करना आवश्यक है, तथा इन्द्रियोंके दमनके लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग करना आवश्यक है, क्यों कि जो भोजन के लोलुपी होते हैं उनकी इन्द्रियाँ उनके वशमें नहीं होती, बल्कि वे स्वयं इन्द्रियोंके दास विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये स्वाध्याय, ब्युत्सर्ग और ध्यान, ये १ व २ ससग मुरदेद्दि। 1 2 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. पर्मानुमेशा . जो मण-इंदिय-विजई इह-भव-पर-लोय-सोक्वं-णिरवेक्खो। अप्पाणे विय णिवसई सझाय-परायणो होदि ॥४४॥ छाया-य: मनइन्दियविजयी इइभवपरलोकसौख्यनिरपेक्षः । आत्मनि एव निवसवि स्वाध्यायपरायणः मवति ॥] स भन्यजनः स्वाध्यायपरायणो भवति । स्वाध्याये वाचनाप्रच्छनानप्रेक्षानायधर्मोपदेशलक्षणे पश्चप्रकारे परायणः तत्परः सावधानः एकत्वं गतः । स कः । यो भन्यजनः आत्मन्येव शुद्धयुद्धचिदानन्दैकरूपशुद्धषिपामेदरनत्रयरूपपरमाननी परमात्मनि खात्मनि निवसति निवास करोति तिइति ध्यानेन एकले गच्छति, वन्यरूपसुखामृतम् अनुभवति समस्या स्वाध्यायपरायणः । कीद विधो भव्यः । मनइन्द्रियविजयी मनः मानसं चित्तम् , इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां विजयी जेता यक्षीकारकः इन्द्रियमनोव्यापारविरहितः । पुनः कर्थभतः। यो भव्यः इहनवपरलोकसौख्यनिरपेक्षा. इहभा मामायुष्यजन्म परलोक अग्रे प्राप्यमानस्वर्गादिभवः इन्द्रः तयोः सौख्यानि, शरीरपोषणमष्टाहारप्रवणयुवतिसेवनमानपूजालाभादीनि विमानाप्सरोदेवसेवादीनि च तेषु निरपेक्षः निःस्पृहः वान्छारहितः । दृष्टश्रुतानुभूतमोगाकांक्षारुपनिदानमशःख्यातिपूजामहत्त्वलाभादिरहित इत्यर्थः ॥ ४४० ॥ कम्माण णिज्जरष्टुं आहारं परिहरेइ लीलाए । एग-दिणादि-पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि ॥४४१॥ [छाया-कर्मणा निर्जरार्थम् आहार परिहरति लीलया । एकदिनादिप्रमाणे तस्य तपः अनदान भवति ॥ तस्य भव्यस्य पैमः अनहाते नगे भाति । न विधीयते अशन भोजन चतुर्विधाहारे यस्मिमिति तदमशनम्, भानपानसाथमेयाविपरिहरणम् अनशनाख्यं तपः स्यात् । तस्य कस्म । यो भव्यः कीलया भल्लेशेन स्वशक्त्या आहारं चतुर्विध भोज्यम् होते है। और जो इन्दियोंके दास होते हैं वे अपनी शुद्ध बुद्ध आमासे कोसों दूर बसते हैं । अतः स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इन पांचों विषयोंकी ओर अपनी अपनी उत्सुकता छोड़कर पाँचों इन्द्रियोंका शान्त रहना ही वास्तवमें सचा उपवास है और इन्द्रियोंको शान्त करनेके लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग करना व्यवहारसे उपवास है। अतः जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंको जीतकर वशमें कर लिया है वे मनुष्य भोजन करते हुए मी उपवासी है । सारांश यह है कि जितेन्द्रिय मनुष्य सदा उपयासी होते हैं, अतः इन्द्रियोंको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४३९ ।। अर्थ- जो मन और इन्द्रियोंको जीतता है, इस भव और परमपके विषयसुखकी अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मसरूपमें ही निवास करता है और स्वाध्यायमें तत्पर रहता है ।। भावार्थ-सच्चा उपवास करने वाला वही है जो मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है, इस लोक और परलोकके भोगोंकी इच्छा नहीं रखता अर्याद इस लोकमें ख्याति लाम और मन प्रतिष्ठाकी भावनासे तथा आगामी जन्ममें खर्ग लोककी देवांगनाओंको भोगनेकी अभिलाषासे उपवास महीं करता, तथा जो शुद्ध चिदानन्द खरूप परमात्मामें अथवा खात्मामें रमता है और अच्छे अच्छे शाखोंके अध्ययनमें तत्पर रहता है || ४४० ॥ अर्थ-उक्त प्रकारका जो पुरुष कर्मोकी निर्जराके लिये एक दिन वगैरहका परिमाण करके लीला मात्रसे आहारका त्याग करता है उसके अनशन नामक तप होता है । भावार्थ-ऊपरकी गाथामें जो विशेषताएं बतलाई हैं विशेषताओंसे युक्त जो महापुरुष काँका एक देशसे क्षय करनेके लिये एक दिन, दो दिन आदिका नियम लेकर बिना किसी करके बसुन्न । २२ वि णिवेसर! ३ घ एकदिगार । ४४ अणसणे । उवदास इत्यादि । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४४२एकदिनादिप्रमाणम् एकाद्वत्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताष्टनवदशादिदिवरापक्षमासमत्वयनवर्षपर्यन्तं परिहरति चतुर्विधाहारं त्यजति । किमर्थम् । कर्मणां निर्जरार्थ ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाणाम् अष्टकर्मप्रकृतीनां निर्जरा गलनार्थ क्षयार्थम् , एकदेशकर्मक्षयनिमित्तम् । तथाहि वसुनन्दियत्याचारे “इसिरिय जावजीव विहं पुण अणसण मुणेदव्वं । इत्तिरिय साखं गिरावकख हवे बिदियं ॥" अनशनं पुनरित्तिरिय-यावज्जीवमेदाभ्या विविध ज्ञातव्यम्, इत्तिरिय साकांक्षे कालादिमिः सापेक्षम्, एतावन्त कालमहमनशनादिकमनुतिष्ठामीति, निराकांक्ष भवेत् द्वितीयं याषजीवम् आमरणान्तादपि न सेवनम् । सामसनद पम " रा सुनाहि गास जमणाणि ।नणगेगावलिआदीलदोविहाणाणि णाहारे।" अहोरात्रमध्ये भक्तवेले तत्रैकस्यां भक्तवेलायो भोजनमेकस्यां परित्यागः एकभक्तः । चतस्पो भवेलानां परित्यागचतुर्थ एकोपवासः । षण्णा भक्कलानां लागः पष्ठो द्विदिनपरित्सागः1 उपवासी । अष्टानां परिवागः अष्टमः या उपवासाः। दशमः चत्वारः उपवासाः, द्वादशः पभोपवासाः । आवलीशब्दः प्रत्येकम् , यनकावलीमुरजमध्यविमानपतिसिंहविक्रीडितादीनि । अनाहारः अनशन पष्ठाटमदशमद्वादशैर्मासार्धमासादिभिश्च यानि क्षमणानि कनककावल्यादीनि च यानि सपोविधानानि, तानि सर्वाभ्यनाहारः यावत् उत्कृष्टन षण्मासास्तत्सर्वं साकांक्षमनशनमिति । तथा चारित्रसारे । दृष्टफल मनसाधनावनुद्दिश्य फ्रियमाणमुपवसनम् अनशनमित्युच्यते। तत् किमर्थम् । प्राणीन्द्रियसंयमरागद्वेषायुक्छेदबहुकर्मनिर्जरणशुभघ्यानादिप्रास्र्थमू। सकृद्रोजनचतुर्थषष्ठारमदशमद्वादशपक्षमासऋतुअयनसंवत्सरेषु अशनपानखाद्यस्वावलक्षणचतु. पिधाहारनिवृत्तिः ॥४४१॥ उववासं कुब्वाणो आरंभं जो करेदि मोहादो। तस्स किलेसो अपरं कम्माणं णेव णिज्जरणं ॥४४२॥ छाया-[ उपवासं कुर्वाणः आरम्भ यः करोति मोहतः । तस्य लेशः अपर कर्मणां नैव निर्जरणम् ।। 1 तस्य प्रोषधप्रतिनः सः श्लेशः क्षुधातृषादिनाधया कायक्लेशः श्रमः निरर्थः निष्फलः । अपरम् अन्यच्च तस्य कर्मणो निर्जरण प्रसन्नता पूर्वक अशन, पान, खाद्य और लेह्यके भेदसे चारों प्रकारके भोजनको छोड़ देता है वही अनशन तपका धारक है । वसुनन्दि यत्याचारमें कहा है-अनशन दो प्रकारका होता है, एक साकांक्ष और एक निराकांक्ष । 'इतने काल तक मैं अनशन करूँगा' इस प्रकार कालकी अपेक्षा रखकर जो अनशन किया जाता है उसे साकांक्ष अनशन कहते हैं, और जीवन पर्यन्तके लिये जो अनशन किया जाता है उसे निराकांक्ष अनशन कहते हैं। साकांक्ष अनशनका स्वरूप इस प्रकार कहा है-एक दिनमें भोजनकी दो वेला होती है | उसमें से एक वेला भोजन करे और एक वेला भोजनका त्याग करे, इसे एकभक्त कहते है । चार वेला भोजनका त्याग करनेको चतुर्थ कहते हैं, यह एक उपवास हैं।छवेला भोजनका त्याग करनेको षष्ठ कहते हैं, यह दो उपवास हैं। इसी प्रकार आठ वेला भोजनका स्याग करनेको अष्टम कहते हैं, यह तीन उपवास हैं । दस वेला भोजनका त्याग करनेको दशम कहते हैं। दशम अर्थात् चार उपवास । बारह वेला भोजनका त्याग करनेको द्वादश कहते हैं । द्वादश माम पाँच उपवासका है । इसी तरह एक मास और अर्धमास आदि तक भोजनको ल्यागना तथा कनकावली एकापली आदि तप करना साकांक्ष अनशन है। साकांक्ष अनशन उत्कृष्टसे छ: महीना तक किया जाता है । चारित्रसारमें भी लिखा है-मंत्र साधन आदि लौकिक फलकी भावनाको त्यागकर प्राणिसंयम, इन्द्रियसंयम, राग द्वेषका विनाश, कमीकी निर्जरा और शुभध्यान आदिकी सिद्धिके लिये एक बार भोजन करना, या चतुर्थ, षष्ट, अष्टम, दशम, द्वादश, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और संवत्सरमें चारों प्रकारके आहारका त्याग करना अनशन है ।। ४४१॥ अर्थ-जो उपवास करते हुए मोहवश Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा निर्जरा मेव जायते । शानावरणायष्टकमंगा निर्जरा गलन न भवतीत्यर्थः । तस्य कस्प। यः जन्तुः पुमान् सपवासम् उपवस्व क्षपणो कुर्वाणः सन् विदधाति करोति । कम् । आरम्भम् असिमषिकृषिवाणिज्यव्यापारखण्डनीपेषणीचुहीजल कुम्भगालनप्रमानवस्त्रक्षालनगृहलिम्पनादिप्रारम्भ कुर्वन उपवासादिकः कायझेशः । कुतः । मोहात् मोहनीयकोदयात् ममत्वात् अज्ञानत्वात् । उक्कं च । "कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेष लक्लक विदुः ।।" "मोहात् द्रविणं भवन मे मे युवतिः सुताश्च मे मे मे । इति मे मे मे कुचन पशुरिच बद्धोऽस्ति संसारे ।" इति ॥४२॥ अधायमोदर्मतपोविधान गाथाद्वयेन प्ररूपयति आहार-गिद्धि-रहिओ चरिया -मग्गेण पासुगं' जोग्गं'। अप्पयरं जो भुंजइ अवमोदरिय तवं तस्स ॥ ४४३ ॥ [छाया-आहारद्धिराईतः चयामार्गेण प्रासुकं योग्यम् । अल्पतरं यः भुते अवमादय तपः तस्य । ] तस्य मुनेः भिक्षोः अवमोदर्यम् अवमोदर्याख्यं द्वितीयतपोनिधानं भवेत् । तस्य कस्य । यो भिक्षु: अल्पतरमाहारं स्वोकतर तुच्छम् आत्मीवप्रकृत्यौदनस्याहारस्य चतुर्भागेनान प्रासेन वा ऊनाहारे भोजनं भुजे अल्पशाति। कीदक्षमासारे भने । प्रासुकं मनोवचनकायेन कृतकारितानुमोदितादिदोषरहितम् उद्मोत्पादधणेङ्गालदोषरहित वा । पुनः कीदृक्षम् माहारम् । योम्यं यतीनां ग्रहयोचितम् । "णहरोमर्जद्वअदीकणकुंडयरहिरमसम्माणि । कंदफलमूलवीया छिण मला चउदशा होति ॥” इति चतुर्दशमलरहित भोजनं योग्यमुचितम् । केन त्वाहारं भुते। चर्यामार्गेण इत्युक्ताहारप्रकृत्या यस्याचारोमस्थितिभोजनकभक्तचतुरफुलपादानान्तरालमौनस्थद्वात्रिंशदन्तरायरहिताविप्रवर्तनेन आहा भुके। कर्मभूतो मिक्षुः । आहारगृद्धिरहितः आहारस्य भोजनस्य गृद्धपक्षिवत् गृद्धिः अत्यासक्त्या मृएरसाद्याकांक्षा तया रहितः । यथा भगवत्याराधनायाम् 1 "बत्तीसं किर काला आहारो कुक्खिपूरणो होइ । पुरिसस्स महिलिआए अट्ठावीस हवे कवला ॥" पुरुषस कुक्षिपूरणो भवत्याहारःद्वात्रिंशत्मवलमात्रः, सहनतण्डलैः कृत्वा एककवलमात्रः, तारशद्वात्रिंशत्वमालामात्र ३१ नरस्य स्वाभाविकाहारो भवतीत्यर्थः । महिलायाः खियाः कुक्षिपूरणो भरत्याहारः अष्टाविंशति करलमात्रः । ततः तस्मादादारात् "एकुगरसेटीए जाच य कबलो वि होदि परिहीणो । अवमोदरियतबो सो बद्धकालमेगसिस्थं च ॥' एक कवलोत्तरघेण्या परिक्षीनः द्वात्रिंशत्कवलेभ्यः ३२ एकैककवलेनोन ३६ द्वाभ्या ३. त्रिमिः २९ चतुर्मि: २८ पञ्चभिः २५ इत्येवं यावत् एककवलः शेषः २६ । २५ । २४ । २३ । २२ ।२१।२०। १९११८ । १७।१६।५। १४ । १३ । १२ । ११1१०।10।। ५।४।३।२।१॥ ततः अर्धकवाल तस्य अर्षकरने आरम्भको करता है, उसके लिये यह एक और कष्ट तो हुआ किन्तु कर्मोंकी निर्जरा नहीं हुई। भावार्थ-जो मनुष्य अथवा स्त्री मोइ अथवा अज्ञानके वशीभूत होकर उपवासके दिन असि, मषि, कृषि, सेवा, व्यापार, आदि उद्योगोंको तथा पीसना, कूटना, पानी भरना, चूल्हा जलाना, माड् देना, कपड़े धोना, घर लीपना आदि आरंभको करता है वह उपवास करके भूख प्यासकी बाधासे केवळ अपने कष्टको ही बढ़ाता है। कहा भी है जिसमें विषय कषाय रूपी आहारका त्याग किया जाता है यही उपवास है, केवल भोजनका त्याग करना तो लंघन है ।१४२ ॥ आगे दो गाथाओंसे अवमोदर्य तपको कहते हैं । अर्थ-जो आहारकी तृष्णासे रहित होकर शास्त्रोक्त चर्याके मार्गसे योदासा योग्य प्रासुक आहार ग्रहण करता है उसके अवमोदर्य तप होता है | भावार्थ-जो साधु आहारमें अति आसक्ति नहीं रखता और ईर्यासमिति पूर्वक श्रावकके घर जाकर, उसके पड़गाइने पर दिनमें एक बार खड़े होकर तथा भोजनके बत्तीस अन्तराय टालकर चौदह प्रकारके मलसे रहित भोजन एक चौपाई अथवा आधा ग्रास कम खाता है उसके अत्रमोदर्य तप होता है | भगवती आराधनामें कहा है मनुष्यका १ चरिमा । २.पामु योग। ३ग जोग्ग । अबमोदरियं व होदि सस्स मिक्सु॥ ४ में अवमोवरियं । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ खानिकाफिरानुभेक्षा गातवं यावत् एकसिक्चकै सिक्थम् अवशिष्टम् आहारस्याल्पतोफ्लक्षणमिति अधमोदर्याख्यं सपोविधान स्यात् । किमर्थमबमोदर्यवृत्तिरनुष्ठीयते इति पृष्टे उत्तरमाह। “धम्मे वासयजोगे जाणादीए उत्रगई कुणदि । ण य इंदियप्पदोसयरी उवमो. परितवोवुनी ॥" अबमोदीतपोवृत्तिः धर्मे क्षमादिलक्षणे दाप्रकारे आवश्यकक्रियासु समतादिषु पदमु योगेषु वक्षमूलादिए शानादिके पठनपाठनादिके स्वाध्याये चारित्रे च उपग्रहं करोति न चेन्नियप्रद्वेषकारी चादमोदर्यवृस्या इन्द्रियाणि प्रदेष गस्ति किंतु वशे तिष्ठन्तीति । बह्माशी यतिः धर्म नानुतिष्ठति, आवश्यककियाश्च न संपूर्गाः पालमति, त्रिकाल. योग बन क्षेमेग मानयति, खाध्यायध्यानादिकं च न कर्तुं शक्रोति, तस्य इन्द्रियाणि च स्वेच्छाकारीणि (म अवन्ति(?) । निद्राजयः वातपित्तश्लेष्मादिशास्तिश्च भवति ॥ ४४३ ॥ जो पुणु कित्ति-णिमित्त 'मायाए मिट्ठ-भिक्ख-लाहहूँ । अप्पं भुंजदि भोज तस्स तवं णिप्फलं बिदियं ॥ ४४४ ॥ [छाया-यः पुनः कीर्तिनिमितं मायया मिष्टं मिक्षालाभार्थम् । अल्पं भुढे भोज्य तस्य तपः निष्फलं द्वितीयम् ॥] सम्म मिक्षोः द्वितीयं तपोविधानम् अवमोदर्याख्यं निष्फलं फलरहित निरर्थक क्या भवेत् । तस्य कस्य । यो भिक्षुः भोजनभाहारम्, भस्पतर स्तोकतरम् एकसिक्थमारभ्य एकत्रिंशत्कबलपर्यन्त मुझे वरुभते अति अश्नाति । स्वोकतरे भोजनं करोति । किमर्थम् । कीर्तिनिमित्तम् । अनेन तपसा मम यशो महिमा ख्यातिः कीर्तिः प्रशंसा पूजालाभादिक जायते इति यो निमित्तम् । पुनः अनु च किमर्थम् अल्पं भोज्यं मुंफे। मायया पाषण्डेन लोकप्रतारणार्थम् । पुनः अनु च किमर्य स्तोक भोजन भुझे। मृष्ट भिक्षालाभार्थं 'मृधानमोदकपकानशर्करादिप्राप्तिनिमितम् । तस्य तपो थेति ॥ ४४४ ॥ अब त्तिपरिसंख्यानं तपोविधानं प्ररूपयति 'एगादि-गिह-पमाण किया संकप्प-कप्पियं विरसं। भोज पसु स्व भुंजदि वित्ति-पमाणं तवो तस्स ॥ ४४५ ॥ [छाया-एकादिगृहप्रमाणे कृत्वा संकल्पकल्पितं विरसम् । भोज्यं पशुवत् भुङ्के वृत्तिप्रमाण तपः तस्य ॥] सख भिक्षोः वृत्तिप्रमाणं पृत्तिपरिसंख्याख्यं तपोविधानं भवति । धृतेः प्रमाण परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या। स्वकीयतविशेषण खाभाविक आहार बत्तीस ग्रास होता है और स्त्रीको स्वाभाविक आहार अट्ठाईस पास होता है। अर्थात् एक हजार चाक्लका एक ग्रास होता है । और बत्तीस ग्रासमें मनुष्यका तथा अट्ठाईस प्रासमें सीका पेट भर जाता है। उनमेंसे एक एक मास घटाते घटाते एक ग्रास तक ग्रहण करना और उसमेंसे भी आधा ग्रास, चौथाई प्रास या एक चावल ग्रहण करना अवमोदर्य तप है । अवमोदर्य तपके करनेसे इन्द्रियाँ शान्त रहती हैं, त्रिकाल योग शान्तिपूर्वक होता है, आवश्यक क्रियाओंमें हानि नहीं होती, स्वाध्याय ध्यान वगैरहमें आलस्य नहीं सताता, वात, पित्त और कफ शान्त रहते हैं, तथा निद्रापर विजय प्राप्त होती है || ४४३ ॥ अर्थ-जो मुनि कीर्तिके लिये तथा मिष्ट भोजनकी प्राप्तिके लिये मायाचारसे अल्प भोजन करता है उसका अवमोदर्य तप निष्फल है ।। भावार्थ-थोड़ा भोजन करनेसे लोग मेरी प्रशंसा करेंगे, पूजा करेंगे, मुझे लङ्क आदि अनेक प्रकारके मिष्टान्न खिलायेंगे, ऐसा विचार कर लोगोंको ठगनेके लिये जो मुनि अल्प भोजन करता है उसका अल्प भोजन करना निरर्थक है, वह अक्मोदर्य नामका तप नहीं है । ४४४ ॥ आगे वृत्तिपरिसंख्यान तपको कहते हैं । अर्थ-जो मुनि आहारके लिये जानेसे पहले अपने मनमें ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज एक घर या दो घर तक समायाये मिट्ठभक्षलाइट्ट, छग मिट्टि मिक्खलाहिटुं, म लाहिद, स मिद्धिमिक्ख । २५ एयादि, स एमादि । गरिया। ४ बतओ। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा रसरुधिरमसिशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयमं परिपालयतो भिक्षार्थिनो मुनेः एकगृहसप्तग्रहैकमागर्षदायक भाजमभोजनादिविषयः संकल्पो वृत्तिः परिसंख्यानम्, आशानित्रुस्यर्थं वा, गृह्द्दायकभोजनकालादीनां परिसंख्यानपूर्वकोऽवमहो नियमः वृत्तिः । आहारादौ प्रवर्तनं तस्याः प्रमाणं संख्या मर्यादा, अस्मिन् मार्गे अस्मिन् गृहे अनेन दीयमानं भोज्यं भोश्यामि इत्यादिसंकल्पेन मर्यादा । तस्य कस्य । यः मुनिः मुझे मन्ति अश्नाति । किं सत् 1 भोज्य आहारम् । कीदृशम् । एकादिगृहप्रमाणम् । एकस्मिन् गृहे द्रयोर्गृहयोः त्रिषु गृहेषु वा इत्यादिप्रमाणं परिसंख्या मर्यादा विधाय अहम् आहार मोक्ष्यामि, तदाई भुक्ष्ये भोजनं करिष्या मीति । अन्यथा न इत्यादिप्रमाणं यत्र भोज्ये किंवा अथवा संकल्पकल्पितं मनसा संकल्पिर्स विरसं विगतरसे रसरहितं नीरसम् । किंवत् । पशुवत् यथा हावभावविभ्रमशृङ्गारमण्डितनवयौवनिक कामिनी गोः धेनोः तृणखलकर्पासादिकं क्दाति । स्रा गौः अधोमुखेन तृणादिक्रमत्ति । न तु कामिन्यादिकावलोकनेन प्रयोजनम् । तथा भिक्षुर्भिक्षावलोकनमधोमुखेन करोति, तु कामिन्याविकावलोकनेन प्रयोजनं न तु परावरलोकनं गोवत् गोचर्यामार्गेण वा सुखादुनिः खादुभिक्ष। नावल्लेकते ॥ तद्यथा । यत्याचारे। "गोयरपमाण-दायगभाजणणाणाविधाण जे गणं । तह एसणस्स गणं विविधस्स य दुक्तिपरिसंसा गोवरस्य प्रमाण गोचरप्रमाण गृहप्रमाणं एतेषु एकद्वित्रिकादिषु गृहेषु प्रविशामि नान्येषु बहुषु । अस्य गृहस्य परिकरतयावस्थितां भूमिं प्रविशामि न गृहमित्यभिग्रहः । पाटकस्य संख्या पाटकस्य गृहस्य संख्या च करोति । दायको दातारः free तत्रापि बाल्या युवया स्थविरया निरलंकारया ब्राह्मण्या राजपुत्र्या तथा एवंविधेन पुरुषेण इत्येवमादि- अवमहः । भाजनानि एवंभूतेन भाजनेनैवानीत गृह्णामि सौवर्णेन कास्यभाजनेन राजतेन भृण्मयेनेत्यादि अभिग्रहः । यज्ञानाविधान मानाकारणं तस्य प्रहृणं स्वीकरणम् । मार्गे गृहाङ्गणे च स्थितोऽहं कोऽपि मां प्रतिगृहाति तदाहं तिष्ठामीति । तथा अनशनस्य विविधस्य नानाप्रकारस्य यहणम् भवमोपादानम् । अथ यवानं प्रातुर्क भोक्ष्ये नान्यत् । अवास मान् እ जाऊँगा अपना नीरस आहार मिलेगा तो आहार ग्रहण करूँगा और वैसा आहार मिलनेपर पचकी तरह उसे चर लेता है, उस मुनिके वृत्तिपरिसंख्यान तप होता है । भावार्थ - तपखी मुनि धर्म पालनके लिये शरीर की रक्षा करना आवश्यक समझते हैं, अतः वे शरीरको बनाये रखनेके लिये दिनमें एक चार श्रावकों की तरफ जाते हैं और विधिपूर्वक भोजन मिलता है, तो उसे ग्रहण कर लेते हैं । सारांश यह है कि वे भोजनके लिये नहीं जीते किन्तु जीनेके लिये भोजन करते हैं। अतः वे भोजनके लिये जानेसे पहले अपने मनमें अनेक प्रकार के संकल्प कर लेते हैं। जैसे, आज मैं भोजन के लिये एक घर या दोघही जाऊँगा, या एक मार्ग तक ही जाऊँगा दूसरा मार्ग नहीं पकदूँगा, या अमुक प्रकारका दाता अथवा अमुक प्रकारका भोजन मिलेगा तो भोजन करूँगा, अन्यथा बिना भोजन किये ही लौट आऊँगा । इस प्रकारकी वृत्तिके परिसंख्यान अर्थात् मर्यादाको वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं । यह तप भोजनकी आशासे मनको हटानेके लिये किया जाता है। इस तपके धारी मुनि अपने किये हुए संकल्प के अनुसार भोजन के मिलनेपर उसे पशुकी तरह चर जाते हैं। अर्थात् जैसे गौको यदि विभावसे युक्त, शृङ्गार किये हुए कोई सुन्दर तरुणी घास चारा देती है तो गौ नीचा मुख किये हुए उस चारेको चर जाती है, तरुणीके सौन्दर्यकी ओर नहीं निहारती । वैसे ही साधु भी नीचा मुख किये डए अपने हस्तपुटमें दिये हुए आहारको खाता है, देनेवाले सौन्दर्यकी ओर अथवा भोजनके खादकी ओर ध्यान नहीं देता । यस्यावार में कहा भी है- 'घरोंका प्रमाण करना कि में भोजन के लिये एक या दो या तीन आदि घर जाऊँगा, इससे अधिक घरोंमें नहीं जाऊँगा । भोजन देनेवाले दाताका प्रमाण करना कि भोजन देनेवाला पुरुष अथवा स्त्री अमुक प्रकारकी होगी तो भोजन करूँगा अन्यमा नहीं करूँगा। भोजनका प्रमाण करना कि अमुक प्रकारके पात्रमें लाये हुए भोजन को ही ग्रहण करूँगा । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४४६ भोक्ष्ये, ओदनं चा प्रहीष्यामि शाकालमिदं मिलिष्यति तदा भोक्ष्ये नान्यत् चणकालमुद्रमा मसूरिकावीनि मानि भक्ष्यामीति नान्यत् यदेवमाद्यवग्रहं तत्सचे वृत्ति परिसंख्यानमिति । तथा "वसम्म दायरस य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए । देवमादिविधिणाणादय्वा कुत्तिपरिसंखा ॥” इति ॥ ४४५ || अथ परियातपोविधानगाह संसार- दुक्ख तो विस-सम-विसयं' विचितमाणो जो । नीरस - भोज भुंजइ रस-चाओ तस्स मुविसुद्धो ॥ ४४६ ॥ भवउपप्र [ छाया - संसारदुःखत्रस्तः विश्वसमविषय विचिन्तयन् यः । गीरसभोज्यं रसत्यागः तस्य सुद्रिः ॥ ] तस्म भिक्षोः रसत्यागः स्वशरीरेन्द्रियरामादिवद्विकरग्भदविधृतगुडतैलादिरसाना लागः व्यजनं रसपरिलागः स्याभिलषितस्निग्धमधुराम्लकटुकादिर सपरिहारो वा रसत्यागः । घृतादिरसानां क्रमेण युगपद्वा यजनं चतुर्थ रसपरित्यागा तपो भवेत् । कथंभूतो रसत्यागः । सुविशुद्धः मिश्रादिदोषरहितः । तस्य कस्य । यः भिक्षुः मुझे असे अश्नाति मति । किं तत् । नीर भोज्यं रसरहितं भोजनमाहारै दुग्धदधिघृततैलेरवणरहिनं भोज्यम् धृतपूरल फसायादिरहितं रसर्ससृष्टसूपाधूपशाकपाकपक्कान्नव टकमण्डकादिरहितं तिक्तकटुकषायाम्ल मधुररसर रहेन भोजन । उक्तं च मूलाचारे । “लीरदधिसपितेलं गुडलवणाणं च परिचयणं । तित्तकटुकसार्थमिळमधुरराणं च जं चणे ॥” इति । कीि भिक्षुः सन् । संसारदुःखत्रस्तः चतुर्गतिलक्षणसंसारदुःखात त्राएं संत्रास भयं गच्छन पक्षसंसारदुः सेभ्यः सीहः कातरः कम्पितदेहो वा । अपि पुनः किंभूतः साधुः । विषमविषयं विचिन्तयम् हाला कूट विष न्द्रयाणां सप्तविंशत्तिविषयान् चिन्तयन् स्मरन् । रसपरित्यागिना तपखिना तर्हि कीदा भोजन भोतव्यम्। "अरसं अवेलाको न्य व । भयंबिलमायामोदणं च विगोदणं चेन ॥" असं स्वादरहितम्, अन्यवेला वेला सरकृताम् शुद्धोदन केनचित् अमिश्रम, रूक्ष निग्धतारहितम् आचाम्लमसंस्कृतसौवीर मिश्रम्, आचाम्लोदनं भरलं विक्यान्यं विदन्ति । सहितं इत्यन्ये । विगडोदनम् अतीव तीमपक्रम उष्णोदकसन्निश्राश्रम् इत्यपरे । लवः किमर्थं रसत्यागः । दान्तेन्द्रि त्वं तेजोहानिः संयमः अतिचारादिदोषनिश्वभिदाय ॥ तथा भोज्यका प्रमाण करना कि आज प्रातुक यवान मिलेगा तो भोजन करूंगा, अन्यथा नहीं करूँगा, या प्रासुक मांड, या शाक या भात मिलेगा तो भोजन करूंगा, अन्यथा नहीं करूंगा | इस प्रकार संकल्प करने को वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं ।' संकल्प के अनुसार भोजनका योग मिलना दैवाधीन है । अतः यह बड़ा कठिन तप हैं || ४४५ ॥ आगे एसपरित्याग तपको कहते हैं । अर्थ- संसारके दु. से संतप्त जो मुनि इन्द्रियोंके विषयोंको विषके समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परिव्याग तप होता है || भावार्थ- शरीर और इन्द्रियों में रागादिको बढ़ाने वाले भी, दूध, दही, गुरु, तैल आदि रसोंके त्यागको रस परिव्याग कहते हैं । अथवा अपनेको अच्छे लगनेवाले विग्ध, मधुर, खट्टा, कडुआ आदि रसोंके लागको रसपरित्याग कहते हैं । इन रसोंका त्याग कमसे अथवा एक साथ किया जाता है । मूलाचार में कहा है- 'दूध, दही, घी, तेल, गुड़, और नमकका छोड़ना अथवा तीता, कडुआ, कसैला खट्टा, और मीठा रसका छोड़ना रसपरित्याग है ।' रसपरित्याग से इन्दियोंका दमन होता है, क्यों कि सभी रस मादक और उत्तेजक होते हैं। इसीसे साधुको कैसा भोजन करना चाहिये यह बतलाते हुए लिखा है-जो नीरस हो, तुरंतका बनाया हुआ गर्मागर्म न हो अर्थात् शीतल हो गया हो, दालभात या दालरोटी इस तरह मिला हुआ न हो, अकेला मात हो, अकेली रोटी हो, अकेली दाल या अकेला शाक हो, रूखा हो, आचाम्ल ( माड़िया ) हो या आचाम्ल ओदन (गर्म पानी में मिले हुए खूब पके चावल ) हो इस तरहका भोजन साधुके लिये करने योग्य है ||४४६ ॥ १ बिस २ व विसयं पतिमाणो । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ] १२. धर्मानुसा जो राय-दोस हे आसण-सिमादियं परिचयह। बमा णिविक स्वासस्व रामो पंचमो परमो॥४४७ ॥ [छाया-यः रागद्वेषहेतुः शसनशम्यादिवं परित्यजति । भारमा निर्विषयः सदा तस्य तपः पञ्चमं परमम् ॥ तस्म निम्यस्य पवर्म विविक्तशय्यासनाख्यं तपश्चरक स्यात् । कीदर्श पचम तपः । परम परमकाया प्राप्त परमोधम् । तस्म कस्य । यः साधुः आसनशम्यादिकं सदा परित्यजति । आसनं सिंहासनपट्टपीठचकलादिकम् , शम्या शय मशक पल्परकाष्ठकलादिकम् । आदिशब्दात् तृणपाषाणशिलादिशयनस्थानम् । कीदृक्षम् आसनशय्यादिकं रागदेवतुर्क रागः रतिः प्रेम सेहः, द्वेषः भरतिः अप्रेम इति रागद्वेषयोः कारगं शयनासनादिकं त्यजति, रागद्वेषकारण सत्यादिकमुत्पादादि दोषसहित परिहरति । कीदशो मुनिः । निर्विषयः आत्मविषयेभ्यः पञ्चेन्द्रियार्थेभ्यः अविकान्तः रहितः । आरमा स्वयं वा ।। ४४७ ॥ पूयादिसु जिरबेक्खो संसार-सरीर-भोग-णिविष्णो। अन्तर-तव-कुसलो जवसम-सीलो महासंतो ॥ ४४८॥ जो णिवसेदि मसाणे वण-गहणे णिज्जणे महामीमे । अण्णस्थ वि एचंते तस्स वि एवं तवं होदि ।। ४४९ ॥' [छाया-पूजादिषु निरपेक्षः संसारशरीरभोगनिर्विणः । आभ्यन्तरतपःकुशलः उपशमशीलः महाशान्तः । निवसति श्मयाने वनगहने निर्जने महा मे । अन्यत्र अपि एकान्ते तस्य अपि एतत् सपः भवति ॥ यम्मम् । सखानपारणः इद विविकशयनासनाख्यं तपो भवति । सस्य कस्म । य: मिg: पूजादिषु निरपेक्षः पूजाख्यातिक्योमहिमालाभादिषु निःस्पृहः दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाक्षारूपनिदानरहितः । पुनः कथंभूतः । संसारशरीरभोगनिर्विष्णः, संसारनरनारकादिचतुर्गतिलक्षणः, शरीरं देहः भोगः युवल्यादिसमुद्भवः इन्द्रियविषयोद्भवः द्वन्द्वः तेभ्यः निर्विष्णः विरकाः भागे तीन गाथाओंसे विविक्तशय्यासन नामक तपको कहते हैं। अर्थ-जो मुनि राग और द्वेषको उत्पन करने वाले आसन शय्या वगैरहका परित्याग करता है, अपने आरमस्वरूपमें रमता है और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त रहता है उसके विविक्त शय्यासन नामका पाँचवा उत्कृष्ट तप होता है ।। भावार्थ-आसन अर्थात् बैठनेका स्थान और शय्या अर्थात सोनेका स्थान तथा 'आदि' शब्दसे मल मूत्र करनेका स्थान ऐसा होना चाहिये जहाँ राग द्वेष उत्पन्न न हो और वीतरागताकी वृद्धि हो । अतः मुनिको विविक्त अर्थात् ऐसे एकान्त स्थानमें धैठना और सोना चाहिये ॥ ४४७॥ अर्थ-अपनी पूजा महिमाको नहीं चाहने बाला, संसार शरीर और भोगोंसे उदासीन, प्रायश्चित्त आदि अम्यन्तर तपमें कुशल, शान्त परिणामी, क्षमाशील महा पराक्रमी जो मुनि स्मशानभूमिमें, गहन वनमें, निर्जन महाभयानक स्थानमें अघदा किसी अन्य एकान्त स्थानमें निवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है ॥ मावार्थ-भगवती आराधनामें विविक्त शय्यासन तएका निरूपण करते हुए लिखा है-“जिस वसतिकामें मनको प्रिय अथवा अप्रिय लगने वाले शब्द रस रूप गन्ध और स्पर्शके निमित्तसे अशुभ परिणाम नहीं होते तया जहाँ खाध्याय और ध्यानमें बाधा नहीं आती वह वसतिका (निवास स्थान) एकान्त कही जाती है ।" "जिसके द्वार बन्द' हो अथवा खुले हों, जिसकी भूमि सम हो अथवा विषम हो, ग कुशलो। ५स महासतो। ६णिवसेर । मऊ। २४ सग पूजादिनु, म पुजा । ३ भोय। ४ गगरि। ८प एयंत,रूम स जते । ५. युगलं । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [पा०४४९वैरार्य प्राप्तः । नरकाविमति दुःखम्छेदनशूलारोपणकुम्भीपाकपचनक्षधातृषावेदनोबेशानिय वियोगसंयोगमानसिकादिजंदुःख वर्सते । शरीरे विनाशि सप्तधातुमयमिति । भोगः रोगगृह विनाशकारीति चिन्तयन् वैराग्यवान् । पुनः कथंभूतः । अभ्यन्तरतपःकुशलः अभ्यन्तरेषु तपस्सु तपश्चरणेषु प्रायश्रितादिषु कुशलः निपुणः निष्णातः दक्षः चतुरः विवेकी । पुनः कीदक्षः । उपशमशीलः क्रोधमानमान्यालोभरागद्वेषादीनामुपशमस्वभावः अनुदयम्वरूपः । पुनः कीदक । महाशान्तः महान् पूज्यः स चासो शान्तः क्षमादिपरिणतः, यः एवंभूतः क्षपकः स श्मशाने निवराति पितृधने तिष्ठति । क के वसति सतिनते। बनमहने महावने गहनारण्ये अन्यत्रापि उद्वरागृहगिरिगुकाकन्दरकोटरादिके । कर्मभूते 1 चियिते ध्यानाध्ययनविनकरस्त्रीपशुपाण्डकादिवाजते । पुनः कथंभून स्थाने । महाभीमे महारौद्रे अतिभयामक एवंभूते वासे वराति या सस्य विविक्तशयनासनतपोनिधानं स्यात् । तथा श्रीभगवत्याराथनायो विविवशयनासननिरूपणा कथ्यते । "जहिं ण विसोसिय अत्यि दु सहरसरूवांधफासेहिं । समायझा गवाघादो वा बसधी विविन्ना सा ॥" यस्यां वसती म विद्यते अशुभपरिणामः । कैः कृत्वा । शब्दरसरूपगन्धवः करणभूतैः मनोज्ञः अममोशा सा विविक्ता वसतिः । स्वाध्यायध्यानयोयाघातो घा नास्ति सा विविक्ता भवति। "वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं व अंतो वा। इत्षिणसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ॥" विघटायाम् उद्घाटितद्वारायाम् अविघटितायाम् अनुदाटितद्वाराया का समभूमिसमन्वितायो वा बहिर्भागे अभ्यन्तरे वा श्रीभिनपुसकैः पशुभिश्व वर्जितायां वसती शीतायाम् उध्यायाम् । जो बाह्य भागमें हो अथवा अभ्यन्तर भागमें हो, जहाँ ती नपुंसक और पशु न हों, जो ठंडी हो, भषवा गर्म हो वह वसतिका एकान्त वसतिका है ।" जो वसतिका उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित है वह एकान्त वसतिका मुनिके योग्य है । उद्गम आदि दोष इस प्रकार हैं-वृक्ष काटना, काटकर छाना, ईठे पकाना, जमीन खोदना, पत्थर बाल वगैरहसे गट्टा भरना, जमीन कूटना, कीचड करना, खम्मे खड़े करना, अग्निसे लोहेको तपाकर पीटना, आरासे लकड़ी चीरना, विसोलेसे छीलना, कुल्हाड़ीसे काटना, इत्यादि कार्योंसे छ. कायके जीवोंको बाधा देकर जो वसतिका खयं बनाई हो अपवा दूसरोंसे बनवाई हो यह वसतिका अधःकर्मके दोषसे युक्त होती है। जितने दीन, अनाथ, रुपण अपवा साधु आयेंगे, अथवा निम्रन्थ मुनि आयेंगे अथवा अन्य तापसी आयेंगे उन सबके लिये यह यसतिका होगी, इस उद्देश्यसे बनाई गई वसतिका उद्देशिक दोषसे युक्त होती है । अपने लिये ' बनवाते समय 'यह कोठरी साधुओं के लिये होगी' ऐसा मन में विचारकर बनवाई गई वसतिका भन्भोब्भव दोषसे युक्त होती है । अपने घरके लिये लायेगये बढ़त काष्ठादिमें श्रमणोंके लिये छाये हुए काष्ठादि मिलाकर बनवाई गई वसतिका पूतिक दोषसे युक्त होती है । अन्य साधु अथवा गृहस्पोंके लिये घर बनवाना आरम्भ करने पर पीछे साधुओंके उद्देश्यसे ही काष्ठ आदिका मिश्रण करके बनवाई गई बसतिका मिश्र दोषसे दूषित होती है । अपने लिये बनवाये हुए घर को पीछे संयतोंके लिये दे देनेसे वह घर स्थापित दोषसे क्षित होता है । मुनि इतने दिनों में आयेंगे जिस विन वे आयेंगे उस दिन सब घरको लीप पोतकर स्वच्छ करेंगे ऐसा मनमें संकल्प करके जिस दिन मुनिका आगमन हो उसी दिन वसतिकाको साफ करना पाहुडिग दोष है । मुनिके आगमनसे पहले संस्कारित वसतिका प्रादुष्कृत दोषसे दूषित होती है । जिस घरमें बहुत अंधेरा हो मुनियों के लिये प्रकाश लानेके निमित्तसे उसकी दीवारमें छेद करना, लकड़ीका पटिया घटाना, उसमें दीपक जलाना, यह पादुकार दोष है। खरीदे हुए घरके दो भेद हैं-द्रव्यत्रीत और भावक्रीत | गाय बैल भगैरह सचित्त पदार्थ देकर अथवा गुड़ खांड वगैरह अचित पदार्थ देकर खरीदा हुआ मकान सम्म पाल - वा विषमभूमिसमन्वितायो बाहि Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा "उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसदि असंसत्ताए पिप्पाहुखियाए सेजाए ॥" उद्मोत्पादनैषणादोषरहितायां वसत्यामू । तत्रोदमदोषो निरूप्यते । वृक्षच्छेदनतदानयनम् इटिकापाक: भूमिखनन पाषाणसिक्तादिमिः पूरणं घरायाः कुट्टनं कर्दमकरण कीलाना फरणममिना लोहतापनं कृत्वा प्रताब्य कचैः काष्ठपारनं परशुमिः छेदनमित्येवमादिल्यापारेण पण्णो जीवनिकायाना बाधा कृत्वा स्वेन बा उत्पादिता अन्येन वा वसतिः आधाकर्मशब्देनोध्यते।। यावन्तो दीनानाथकृपला भागन्ति लिकिलो द गामिनियहितग इतः पमिदा मेवेति घा निर्धन्यानामेदेति सा उद्देसिग-वसतिभण्यते । २१.अपवरक सेयतानां भवत्विति विकृतं अज्झोषज्झं । ३। आत्मनो गृहार्थमानीतः काष्ठादिभिः सह बहुभिः श्रमणार्थमानीयाल्पेन मिश्रिता यत्र रहे तत्पूतिकमिति । ४ । पाण्टिनो गृहस्थान वा क्रियमाणे गृहे पश्चात् संयतान् उदिश्य काष्ठादिमित्रेण निष्पादित वैश्म मिथम् । ५। खार्थमेव कृतं संयतामिति स्थापित ठविद इत्युच्यते । ६ । संयतः सच यावद्भिर्दिनरागमिष्यति तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कार सकलं करिष्यामः इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारित वेश्म तत् पाहुरिर्ग, तदागमानुरोधेन गृहसंस्कारकालापहासं कृत्वा वा संस्कारिता वसतिः।। यद्गृहमन्धकारबहुलं तत्र बहुलप्रकाशसंपादनाय यतीना छिद्रीकृतकुमम् अपाकृतफलक सुविन्यस्तप्रदीपकं वा तत्यादुष्कारशब्देन भण्यते । ८ । दम्यफीत भावकीतामिति द्विविध की बेदम सरि गोबलीदादिकं दत्त्वा संयतार्थ क्रीतम् अचित्त वा नगुडखण्डादिक दवा कति छन्दकीतं, विद्यामश्रादिदानेन वा क्रीत भावीतम् । २ । अरूपमणं कृत्वा वृद्धिसहितमधिकं वा गृहीतं संयतेभ्यः पामिच्छ। १० । महीये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मवीयं तावदई यतिभ्यः प्रयच्छेति गृहीतं परियई।११। कुख्याद्यर्थ कुटीरककटादिकं स्यायें कीत है । विद्या मंत्र वगैरह देकर खरीदा हुआ मकान भावक्रीत है | बिना ब्याजपर अथवा ब्याजपर घोडासा कर्जा करके मुनियोंके लिये खरीदा बुआ मकान पामिच्छ दोषसे दूषित होता है | आप मेरे घरमें रहें और अपना घर मुनियोंके लिये देदें इस प्रकार से लिया हुआ मकान परिवर्त दोषसे दूषित होता है। अपने घरकी दीवार के लिये जो स्तम्भ आदि तैयार किये हों वह संयतों के लिये लाना अभ्यासत नामक दोष है । इस दोषके दो भेद हैं-आचरित और अनाचरित । जो सामग्री दूर देशसे अथवा अन्य ग्रामसे लाई गई हो उसको अनाचरित कहते हैं और जो ऐसी नहीं हो उसे आचरित कहते हैं । इंट, मिट्टी, बाड़ा, किवाद अथवा पत्थर से ढका हुआ घर खोलकर मुनियोंके लिये देना उद्भिन दोष है । नसैनी वगैरहसे चदकर 'आप यहाँ आईये, यह वसतिका आपके लिये है। ऐसा कहकर संयतोंको दूसरी अथवा तीसरी मंजिल रहनेके लिये देना मालारोह नामका दोष है । राजा मंत्री वगैरहका भय दिखाकर दूसरेका मकान वगैरह मुनियों के लिये दिलाना अछेध नामका दोष है । अनिसृष्ट दोषके दो मेद है-जिसे देनेका अधिकार नहीं है ऐसे गृहखामीके द्वारा जो वसतिका दी जाती है वह अनिसृष्ट दोषसे दूषित है । और जो वसतिका बालक और पराधीन खामीके द्वारा दीजाती है वह मी उक्त दोषसे दूषित है । यह उद्गम दोषोंका निरूपण किया । अब उत्पादन दोषोका कथन करते हैं । धापके काम पाँच हैं। कोई धाय बालकको मान कराती है, कोई उसको आभूषण पहनाती है, कोई उसका मन खेलसे प्रसन्न करती है, कोई उसको भोजन कराती है, और कोई उसको सुलाती है। इन पाँच धात्री कमोमेंसे किसी कामका गृहस्थको उपदेश देकर उससे बसतिका प्राप्त करना धात्रीदोष है । अन्य प्राम, अन्य नगर, देश, देशान्तरके समाचार कह कर प्राप्त की गई वसतिका दूतकर्म दोषसे दूषित है । अंग, खर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, खम और अन्तरिक्ष ये आठ महानिमिस हैं । इन आठ महानिमित्तोंके द्वारा शुभाशुभ फल बतलाकर प्राप्त की गई बसतिका निमित्त दोषसे दूषित है । अपनी जाति, कुल, ऐश्वर्य, वगैरहका माहारभ्य बक्त कार्तिके. ४३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ स्थामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा - निष्पसमेव यत् संयतार्थमानीत तत् अम्माहि इति । तद्विविधम् । दूरवेशाद्वामान्तरादा आनीतम् अनाचरितम्, इतरदाचरितम् । १२ इष्टिकादिभिः मृत्पिण्डेन वृत्या कवाटेनोपटेन वा स्थगितम् अपनीय दीयते यत्तदिनम्। १३ [निश्रेण्या दि. भिरामय इत आगन्छत युष्माकामयं वसतिरिति या वीयते द्वितीया तृतीया वा भूमिः सा मालारोहमित्युच्यते । १४] राजामात्यादिमिर्भयमुपदर्य परकीयं यहीयते तत अच्छेज्ज इति । १५1 अनिमा देधा गृहम्सा मिना अनियुक्तेन या दीयते यदस्वामिनापि बालेन परवशयतिना धीयते विविधमनिसृष्टमिति । १६ । उत्पादनदोषो निरूप्यते। पञ्चविधानो धात्रीकर्मणाम् अन्यतमेनोत्पादिता वसतिः, काविहारकै समयति भूषयति कीडयति आशयति स्वापयति वा बसत्यर्थशनमुत्पादितवसतिधात्रीदोषदुपा।१। ग्रामान्तरात् नगरान्तराच देशात् अन्यदेशतो वा संवन्धिना वार्ताम् अमिधायोत्पादिता जूनकर्मोत्पादिता । २ । १ खरो २ घ्यजनं ३ लक्षणं ४ छिने ५ भौम ६ स्वप्रः अन्तरिक्षमिति एवंभूतनिमित्तोपदेशेन लन्धा वसतिनिमित्तदोषदुष्टा । ३। आत्मनो जाति कुलमैश्वर्य पाऽभिधाय स्वमाहात्म्यप्रकटनेनोत्पादिता वसतिराजीवशब्देनोच्यते । ४ । भगवन् सर्वेषामाहारदानात् वा वसतिदानाच पुण्यं किमु महदुपजायते इति पृष्टे न भवतीत्युक्त [गृहिजनः प्रतिकूलपचनरुष्टो वसर्ति न प्रयच्छेदिति एवमिति सदनुकूलमुक्त्या या उत्पादिला सा [वणियम-शब्देनोच्यते] 1५। अष्टविधया चिकित्सया लब्धा चिकित्सोत्पादिता । ६ । क्रोध [-मानमायालोभ-] उत्पादिताः च । 1-1-1 गच्छतामागञ्छता च यतीना भवदीयमेव गृहमाश्रयः [इतीर्थ वातो दूरादेवास्माभिः श्रुतेति पूर्व स्तुस्वा या लब्धा सा पूर्वसंस्तबदुष्टा । वसनोत्तरकालच गच्छन्प्रशंसा करोति पुनरपि वसति लप्ये इति यत्प्रशंसति [मन्त्रेण, चूर्णेन, योगेन, मूलकर्मणा । सा पश्चात्संस्तव-] दोषदुधः । १३ । विद्यया मनादिना गृहिण वशे स्थापमित्या लब्धा वसतिः अभिहिता दोषा। १२-१६। एषणादोषान् एवं जानीहि । किम् इयं योग्या वसतिति शारिता। तदानीमेव सिक्ता लिप्ता वा मशितदोषः । २ । सविसपृथिव्यामेजोवायुवनस्पतिबीजानां प्रसानाम् उपरि स्थापित पीठफलकादिकम् , अन मया शय्या व्या. या दीयते वसतिः सा निक्षिप्ता । ३ । सचित्तमृत्तिकापिधानमपाकृष्य या बीयते सा पिहिता । ४ । काष्टादिकाकरण कुर्वता पुरो यायिना उपदर्शिता वसतिः साहरणा ।५ । मृतजातसतकयुक्तगृहिअनेन व्याधितेन प्रथिलेन पीयमामा वसतिदायक लाकर प्राप्त की गई वसक्तिका आजीवक दोषसे दूषित है ! भगवन् , सत्रको आहार दान देनेसे और वसतिकाके दानसे क्या महान् पुण्यकी प्राप्ति नहीं होती ? ऐसा श्रावकका प्रश्न सुनकर श्रावकके अनुकूल उत्तर देकर वसतिका प्राप्त करना बनीपक दोष है ! आठ प्रकारकी चिकित्सा करके वसतिका प्राप्त करना चिकित्सा दोष है । क्रोध आदिसे प्राप्त की गई वसतिका क्रोधाधुत्पादित दोषसे दूषित हैं । 'आने जानेवाले मुनियोंको आपका ही घर आश्रय है ऐसी स्तुति करके प्राप्त की गई वसतिका पूर्वस्तुति नामक दोषसे दुष्ट है । वसतिका छोड़ते समय 'आगे भी कमी स्थान मिल सके इस हेतुसे गृहस्थकी स्तुति करना पश्चात् स्तुति नामक दोष है । विद्या मंत्र वगैरह के प्रयोगसे गृहस्यको वशमें करके वसतिका प्राप्त करना विद्यादि दोष है। भिन्न जातिकी कन्याके साथ सम्बन्ध मिलाकर वसतिका प्राप्त करना अथवा विरकोंको अनुरक करके उनसे वसतिका प्राप्त करना भूलकर्म दोष है । इस प्रकार ये सोलह उत्पादन दोष हैं । आगे दस एषणा दोष कहते हैं। यह वसतिका योग्य है अथवा नहीं ऐसी शंका जिसमें हो वह वसतिका शंकित दोषसे दुष्ट है। उसी समय लीपी पोती गई या धोई गई बसतिका म्रक्षित दोषसे दूषित है । सचित्त पृथिवी, जल, अग्नि, वनस्पति वगैरह अथवा त्रस जीवोंके ऊपर आसन वगैरह रखकर 'यहाँ आप विश्राम करें ऐसा कह कर दी गई वसतिका निक्षिप्त दोषसे दूषित है। सचित मिट्टी वगैरहके आच्छादनको हटाकर दी गई बसतिका पिहित 'दोषसे दूषित है । लकड़ी वगैरहको घसीट कर ले जाते हुए पुरुषके द्वार। बतलाई गई वसतिका साधारण दोषसे दुष्ट है । मरणके अशौच या जन्मके अशौचसे युक्त गृहस्थके द्वारा अथवा रोगी . Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुभेक्षा झा | स्थावरेलः पिपीलिकामखुणादिभिः सहिसोनिमश्रा ।। अधिकवितस्तिमात्राया भूमेरधिकाया प्रद्दणं प्रमाणाविरेकोषः। शीतवातातपाधुपाश्यमाद्विता वसतिरिय निन्दो कुर्वतो वसनं धूमदोषः ।९। निर्वाता विशाला जास्तुष्णा शोभनेयमिति तशनुराग झालदोषः । एवमेतैरुद्रमादिदोषैरनुपहता वसतिः हुदा, तस्याः दुःप्रमाजनादिसंस्काररहितायाः जीवसमवरहितामाः भत्र्यारहिताया षसल्याः अन्तर्बहिर्वा वसति यतिः विविक्तशम्यासमरतः । अथ का विविक्ता जससिरित्यत्राह । "सुण्णचरगिरिगुहारुक्समूलक्षातुगारदेवबुले । अकदयभारारामघरादीणि य बियिताई ।।" शून्य गृह लिगुडावृक्षामूल आगन्तुकानी वैश्म देवकुल शिक्षागृह केनचिदकलम् अकृतप्रारभारं कथ्यते । आरामगृहे कीडार्थमायातानामावासाय कृतम् एता विविका यसतयः । अत्र वसतेदाथाभावमाचष्टे ॥ "कलहो बोलो श्रोशा वामोहो संकरो ममति साकाणज्जपणविषायो परिय विविज्ञाए बसधीए॥" कलो ममेदं च वसतिस्तवेदमिति कलहो न केनचित अन्यजनरहितलात्, पोखे शब्बाला मशः व्यामोहो वैदिस्यम, मकरम् अयोग्हरसंयतः सह मित्रगम, ममत्वं ममेदै नास्ति, ध्यानस्य अध्यययन प प्याघातः । इति विविक्तक्षयनासनतयोविधानम् ॥ ४४९ ॥ अथ कायले शतपोनिधानं प्रतनोति दुस्सह-उपसग्ग-जई आसाषण-सीय-बाय-खिण्णो वि । जो णवि खेदं गच्छदि काय-किलेसो तवो' तस्स ॥ ४५० ।। [छाया-दुस्सहोपसर्गज्यी आतापनशीतधातखिनः अपि । यः नैय खेद गति कायक्लेशं तपः तस्य ॥] सत्य निर्मन्थमनेः कायशः कायस्य शरीरस्य उपलक्षणात इन्द्रियादेच केशः केशनं दमनं कदर्थन तपो भवति । तस्य कस्म । म मुनिः खेदं श्रम चिश मानसे खेदखिमत्वं नापि गच्छलि ने प्राप्नोति । कीदग्विधो मुनिः । आतापनशीत गृहसके द्वारा दी गई वसतिक्म दायक दोपसे दूषित है । स्थावर जीवों और त्रस जीवोंसे युक्त वसतिका उम्मिश्र दोषसे दूषित है । मुनियों को जितने वितस्ति प्रमाण जमीन ग्रहण करनी चाहिये उससे अधिक जमीन ग्रहण करना प्रमाणातिरेक दोष है । इस वसतिकामें हवा ठंड या गर्मी वगैरहका उपद्रव है ऐसी पुराई करते हुए वसतिकामे रहना धूम दोष है । यह वसतिका विशाल है, इसमें वायुका उपद्रव नहीं है, यह बहुत अच्छी है, ऐसा मानकर उसके ऊपर राग भाव रखना इंगाल दोष है । इस प्रकार इन उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित वसतिका मुनियोंके योग्य है । ऐसी वसतिकामें रहनेवाला मुनि विविक्त शप्पासन वपका धारी है ।। ४४८-४९ ॥ आगे कायकेश तपको कहते हैं । अर्थ-दुःसह उपसर्गको जीतनेवाला जो मुनि आतापन, शीत बात यगैरहसे पीड़ित होनेपर मी खेदको प्राप्त नहीं होता, उस मुनिके कायलेश नामका तप होता है ।। भावार्थ-तपस्वी मुनि ग्रीष्म ऋतुमें दुःसह सूर्यकी किरणोंसे तये हुए शिलातलोपर आतापन योग धारण करते हैं । तथा शीत ऋतुमे अर्थात् पौष और मायके महीनेमें नदी समुद्र आदिके किनारे पर अथवा वनके कोचमें किसी खुले हुए स्थानपर योग धारण करते हैं। और वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे योग धारण करते हैं, जहां वर्षा रुक जानेपर भी पत्तोंसे पानी टपकता रहता है और झंशा घायु बहती रहती है । इस तरह गर्मी सदी और वर्षा का असल्य कष्ट सहनेपर भी उनका चित्त कभी खिन्न नहीं होता। इसके सिवाय वे देव मनुष्य तिर्यन और अवेतनके द्वारा किये हुए दुःसह उपसर्गोको और भूख प्यासकी परीषहको भी सहते है, उन मुनिके कायझेश नामका तप होता है । चरिनसार आदि ग्रन्थोंने भी कहा है-वृक्ष के मूलमें भ्यान लगाना, निरम आकाशके नीचे आतापन योग धारण करना, वीरासन, कुक्कुटासन, पर्यङ्कासन आदि अनेक प्रकारके आसन लगाना, अपने शरीरको संकुचित करके शयन करना, ऊपरको मुख १कग त (ओ)। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा०४५१घातखिन्नोऽपि आतापनं दुःसहसूर्यकिरणसंतशपर्वतशिलातलेषु वैशाखज्येष्टमासादिषु आतापनम् आतापयोगधारणम् । उर्फ च । 'दिनकर किरणनिकरसंतारशिलानिचयेषु निःस्पृहाः इत्यादिषु झेयम् । शीतकाले पौधे माथे च नद्यादिसमुद्रादिकूळे वनमध्यस्थचतुष्पये च हिमभवं शीतम् । तथा अविरतबलतुहिनकणवारिभिरंघ्रिपपत्रशालमरित्याविक हेयम् । वर्षाकाले बनमध्यस्थितवृक्षादिमूले झंझावाताविसहन शिखिगलकजलालिमलिनैरित्यादिक मन्तव्यम् । वातपन च शीत ब वातब आतापनसीतवाताः तैः खिम्नः खेदं प्राप्तः जर्जरीकृतः । अपिशब्दात् अखिनः । पुनः कीदृक्षः । दुःसहोपसर्गजयी दुःसहाः दुःखेन महता कष्टेन सस्यन्ते इति दुःसहा ते च ते उपसर्गाः देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृताः, उपलक्षणात् क्षुत्पिपासादयः परीषहाः गृधन्ते, तान दुःसहोपसर्गान् परीषहांश्च जयतीत्येवंशीलः दुःसहोपसर्गजयी । तथा चारित्रसारादौ । पक्षमूलाभ्रास्कासातापनयोगधीरासनकुक्कुटासनपर्यशासनसंकुचितमानशयनउत्तानशयनमकरमुखहस्तिशुण्डमृतकशयमैः एकपार्श्वदण्डधनुःशय्याभिः शरीरपरिखेदः कायशः । तथा प्रमृष्टस्तम्भाविकमुपाश्रित्य स्थानमुद्रीमवनं स्थापितस्थानं निश्चयमवस्थान कायोत्सर्गः । समी पादी कृत्वा स्थानम् , एकेन पावेनावस्थानम् , बारप्रसार्याषस्थानम् इत्यादिकः कायोत्सर्गः शरीरलेशनम्। सत्रौ अन्यनम् अस्मान दम्तामामशोधनम् इत्यादिकायलेशनम् । किमर्थ कायक्लेशः । वर्षाशीतातपविसंस्थुलासनविषमशय्यादिषु शुभध्यानपरिचर्या दुःखोपसहनार्थ विषयसुखममार्थ शासनप्रभावनाधर्थ खकायक्लेशानुष्ठान क्रियते इति एनद्वायं तपः षडिवं बाह्यजमाना मिश्यादृष्टीनाम् अपि प्रकटं प्रत्याख्यातम् ॥ ४५०॥ अथ आभ्यन्तरं षडिवं तपोविधानं व्याख्यायते। तत्र प्रायश्चित्तं तपो माथापभनाह दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तियिहं । कुव्वाणं पि ण इच्छदि' तस्स विसोही परा' होदि ॥ ४५१ ॥ [छाया-दोध न करोति स्वयम मन्यम अपि न कारयति यः विविधम् । कुर्माणम् अपि न इच्छति तस्य विशुद्धिः परा भवति ॥ तस्य मुनेः तपरिखनः परा विशुद्धिः परा उत्कृष्टा विशुद्धिः निर्मलता प्रायम्बितं भवति । तद्यथा । प्रष्टो करके सीधा सोना, मगरके मुखकी तरह या हाथीकी सूंडकी तरह अथवा मुर्दे की तरह या दण्डकी तरह निश्चल शयन करना, एक करवटसे सीधा सोना या धनुषकी तरह शयन करना, इत्यादि प्रकारोंसे शरीरको कष्ट देना कायक्लेश तप हैं | तथा स्तम्भ वगैरह का आश्रय लेकर खड़े रहना, जहाँ रहे है वहाँ निश्चल खड़े रहना, दोनों पैरोंको समान करके कायोत्सर्ग पूर्वक खड़े रहना, एक पैरसे खड़े रहना या दोनों पैरों या वाहूको फैलाकर खड़े रहना इत्यादि प्रकारके कायोत्सगोंसे शरीरको कष्ट देना, रात्रि में शयन न करके ध्यान लगाना, स्नान न करना, दातौन न करना, इन सबको कायक्लेश कहते हैं। वर्षाम, शीलमें, घाममें, पधरीले स्थानमें, ऊँचे नीचे प्रदेशमें भी शुभ ध्यान करनेके लिये, दुःख सहन करनेकी क्षमताके अभ्यासके लिये, विषयसुखसे मनको रोकनेके लिये तथा जिनशासनकी प्रभावना आदिके लिये इस कायक्लेश तपको किया जाता है । इन छ: तपोंको बान तप इस लिये कहते है कि बाह्य मिथ्यादृष्टि भी इन तपोंको करते हुए देखे जाते हैं, अथवा अन्य लोगोंको इनका प्रत्यक्ष हो जाता है ॥ ४५०। आगे छ: प्रकारके अभ्यन्तर तपका वर्णन करते हुए प्रथम ही पाँच गाथाओंसे प्रायश्चित्त तपको कहते है | अर्थ-जो तपस्वी मुनि मन बचन कायसे स्वयं दोष नहीं करता, अन्यसे भी दोष नहीं कराता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनिके उत्कृष्ट विशुद्धि होती है । भावार्थ-यहाँ विशुद्धिसे आशय प्रायश्चित्तसे है। 'प्रायः' का अर्थ है प्रकृष्ट चारित्र । अतः प्रकृष्ट चारित्र जिसके हो उसे भी 'प्राय:' कहते हैं। इस लिये 'प्रायः' माने १बइच्छह । सलमग परो। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५१] १२. धर्मानुप्रेक्षा nuk अयः शुभावो विधिर्यस्य साधुलोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः प्रायस्य साधु लोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत्त्रायश्चित्तम् आत्मशुद्धिकरम् । अथवा प्रगतः प्रणः अयः प्राय अपराधः तस्य चित्तशुद्धिः प्रायश्चितमपराधं प्राय इत्युच्यते लोकवियों तस्य मनोभवेत् तस्य शुद्धिकरं प्रायश्वितम्। तथा च प्रायश्चित्तमपदरा प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात् पापात् विशुष्यते पूर्वबलेः संपूर्णो भवतीति प्रायश्वितं स्यात् । तस्य कस्य । यः तपस्वी स्वयमात्मना दोषम् अपराध महात्रतादिन्यूनता करणलक्षणं न करोति न विदधाति । अपि पुनः अन्यं परे पुरुष दोषं प्रतातिचार न कारयति । दोषं कुर्वाणम् भवतासिचारमाचरन्तं न प्रेरयतीत्यर्थः । अपि पुनः अभ्यं दोषं कुर्वाणं व्रतातिचारमाचरन्तं न इच्छति न अनुमनुते । मनोवचनकायेन कृतकारितानुमतप्रकारेण व्रता तिचारादिकं दोषमपराधं स्वयं न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । परं प्रेरयित्वा मनसादिकेन न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । अयं कुर्वन्तं दृड्डा मनसादिकेन न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । दशप्रकारे प्रायधिनं यया चारोक्तमाह । "आलोयणपडिकमणं उभय विषेगो तहा विलस्ग्गो तब छेदो मूलं पि य परिहारो चैव सण ॥" एकान्तनिषण्णाय प्रसन्नचेतसे विज्ञातदोषदेशकालाय सूरये गुरवे तादृशेन शिष्येण विनय सहितं यथा भवत्येवमवचनशीन शिशुत्रलबुद्धिना आत्मप्रमादप्रकाशन निवेदनम् आलोचनम् । १। रात्रिभोजनपरित्यागक्तसहित पश्चमड़ाव्रतोचारणं संभावनं दिवस प्रतिक्रमणं पाक्षिकं वा । अथवा निजदोषमुच्चार्योश्चार्य मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु इति प्रकटीकृतप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् । ३ । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वेन यत्र संदेहविपर्ययौ भवतः, अशुद्धस्यापि शुद्धत्वेन वा यत्र निश्रयो भवति, तत्र तदुभयम् आसनप्रतिक्रमणद्वयं भवति । ३ । यद्वस्तु नियमितं भवति तद्वस्तु वेषिजभाजने पतति सुखमध्ये वा स्मायाति यस्मिन् वस्तुनि गृहीते वा कषायादिकम् उत्पयते तस्य सर्वस्य वस्तुनः त्यागः क्रियते, तद्विवेकनाम प्रति १४ नियतकायस्थ दावो मनसश्व व्यागी भ्युत्सर्गः कायोत्सर्गः | ५ | उपवासादिपूर्वोकं पहूविधं पार्थ तपः सपोनामप्रायखितम् । ६ । दिवसपक्षमासादिविभागेन दीक्षाद्दापनं छेदो नाम प्रायश्वितम् । ७ पुनरद्यप्रभृति व्रतारोपण मूलप्रायश्चित्तम् । ८ । साधु लोग, उनका चित्रा जिस काममें हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । अतः जो आत्माकी विशुद्धि करता है वह प्रायश्चित्त है । अथवा 'प्रायः' माने अपराध, उसकी चित्त अर्थात् शुद्धिको प्रायश्चित्त कहते हैं । सारांश यह है कि जिस तपके द्वारा पहले किये हुए पापकी विशुद्धि होती है अर्थात् पहले के व्रतोंमें पूर्णता आती हैं उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इस प्रकार जो मुनि मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से दोष नहीं करता उसके प्रायश्चित्त तप होता है । मुनियोंके आचारमें प्रायश्चित दस मेद कहे हैं, जो इस प्रकार हैं-आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । एकान्त स्थानमें बैठे हुए, प्रसन्न चित्त, और देश कालको जाननेबाले आचार्य के सामने विनयपूर्वक जाकर बच्चेकी तरह सरल चित्रासे शिष्यके द्वारा अपना अपराध निवेदन करना आलोचन नामक प्रायश्चित्त है। अपने दोषको यह कह कर 'मेरा यह दोष मिथ्या हो' उस दोष के प्रति अपनी प्रतिक्रियाको प्रकट करना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्वित | शुद्ध वस्तु भी शुद्धताका सन्देह होनेपर या शुद्धको अशुद्ध अथवा अशुद्ध को शुद्ध सम लेने पर आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं। इसे उभय प्रायश्चित्त कहते हैं। जो वस्तु त्यागी हुई हो वह वस्तु यदि अपने भोजन में आजाये अथवा मुखमें चली जाये, तथा जिस वस्तुके ग्रहण करनेपर कषाय वगैरह उत्पन्न होती हो, उन सब वस्तुओंका व्याग किया जाता है। इसे विवेक नामका प्रायश्चित्त कहते हैं । कायोत्सर्ग करनेको व्युत्सर्ग प्रायश्चित कहते हैं । पहले कहे हुए अनशन आदि छ: बाह्य तपके करनेको तप प्रायश्चित्त कहते हैं। दिन, पक्ष और मास आदिका विभाग करके मुनिकी दीक्षा छेद देनेको छेद प्रायश्चित्त कहते हैं । पुनः दीक्षा देनेको Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ स्वामिभकियासुमेक्षा [ग ४५२दिक्सपक्षमासादिविभागेन दूरसः परिवर्जन परिहासामथया परिहार द्विप्रकारः गगप्रतिबद्धो, यत्र प्रश्रवणादिकं कुर्वन्ति मुनयः तत्र विष्ठति पिश्यिामप्रतः फस्या रतीनो बन्दना शोति तमा सतयः प्रतिवदनां न कुर्वन्ति । एवं या गणे किया गणप्रतिषः परिहारः । गत्र देशे धर्मों में शावते तत्र गला मीनेन तपश्चरणानुशनकरणमगणप्रतिपयः परिहारः । ९ । तथा श्रद्धाने तत्वाची परिणामः कोधादिपरित्यागो वा श्रद्धानम् । १० । तत्वाधसूत्र नम्मोपस्थापना. प्रायविसं कथितमस्ति । महावताना मूलम्छेदन विधाय पुनरपि दीक्षाप्रापणम् उपस्थापना। एतशप्रकार प्रायदि पोषानुरूप दातव्यमिति ।। ५५१॥ अह कह' वि पमादेण य दोसो अदि एदि तं पि पयडेदि । णिदोस-साटु-मूले दस दोस-विवजिदो' होई॥ ४५२ ॥ [छया-अथ कथमपि प्रमादेन च दोषः यदि एति तम् अपि प्रकटयति । निर्दोषसाधुमूले देशदोषविवर्जितः भवितुम् ।।] अथ अपवा यदि चेत् कथमपि प्रमादेन पश्चदशप्रमावप्रकारेण "विकहा तह य कसाया इंदियजिद्दा तहेव पणमो य । चदु पा पणमेगेनी होति पमादा हु पाणरसा ॥” इति । विश्थाः ४, कषायाः ४, इनियाणि ५, निद्रा १, प्रणया नेहः १ इति पदमप्रकारप्रमादाचरणेन दोषः अपराधः प्रतातिधारादिकः एति आगच्छति प्रामोति तमपि दोषं ब्रताविचारादिकं प्रकटयति प्रशीकरोति ।। निर्दोषसाधुमूले निर्दोषा यथोकाचारचारिणः साधवः सरिपाठकमुनयः निदोषाच ते साधवश्व निदोषसाधकः तेष साधूनां सूरिप्रमुखाणां मूले पादमूले तरने इत्यर्थः । क कर्तुम् । होर्दु भवितुं दशदोपवर्जितः भूत्वा, शेषाः आकम्पितादयः दश ते च दोषाश्च दोषाः तेषर्जितो भूत्वा । उक्तं च भगाल्याराधमाशम् । दशदोषरहितमाओवनं कर्तव्यम् । “मापिय १ अणुमानिय २ जे दिलु ३ भादरं ४ च मुहुर्म च ५ । छाणं ६ सहाउलयं ७ बहुजन मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। कुछ दिन, कुछ पक्ष या कुछ मासके लिये मुनिको संघसे पृथक् कर देनेको परिहार प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा परिहारके दो भेद है-गणप्रतिबद्ध और अगण प्रतिबद्ध । पीछी आगे करके मुनियोंकी यन्दना करनेपर मुनिगण उसे प्रतिवन्दना नहीं करते । यह गणप्रतिबद्धपरिहार प्रायश्चित्त है। जहाँ आचार्य आज्ञा दें वहाँ जाकर मौनपूर्वक तपश्चरण करना अगणप्रतिबद्धपरिहार प्रायश्चित्त है। तस्त्रों में रुचि होना अथवा क्रोध आदिका छोड़ना श्रद्धान प्रायश्चित है । तत्वार्थसूत्रके नौवें अध्यायमें श्रद्धानके स्थानमें उपस्थापना भेद गिनाया है। और उसका लक्षण मूल प्रायश्चित्तके समान है। अर्थात् महानतोंका मूलसे उच्छेद करके फिरसे दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । यह दस प्रकार का प्रायश्चित्त (तत्त्वार्थसूत्रमें प्रायश्चित्तके नौ ही प्रकार बतलाये हैं ) दोषके अनुसार देना चाहिये ।। ४५१ । अर्थ-अथवा किसी प्रकार प्रमादकै वशीभूत होकर अपने चारित्रमें यदि दोष आया हो तो निदोष आचार्य, उपाध्याय अथवा साधुओंके आगे दस दोषोंसे रहित होकर अपने दोषको प्रकट करे ॥ भावार्थ-रॉच इन्द्रिया, चार विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा ), चार कषाय, एक निद्रा और एक स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद है। इन प्रमादों के कारण साधुके आचारमें यदि दोष लगता है तो साधु अपने से बरे साधुओं के सामने अपने दोषकी आलोचना करता है । भगवती आराधनामें भी कहा है कि आलोचना दस दोषोंसे रहित होनी चाहिये । आलोचनाके दस दोष इस प्रकार कहे हैं-आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, प्रच्छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी । आचार्यको उपकरण आदि देकर उनकी अपने ऊपर करुणा उत्पन्न करके आलोचना करना अर्थात् उपकरण मादर्श तु 'धर्मेनुचायते । काय । दसनासविचम्मित | होदि (१)। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५३] १२. धर्मानुभेक्षा ८ अब्बत तस्सेवी १० ॥" आकम्पितमुपकरणाविदानेन गुरोरनुकम्पामुत्पाद्य मालोचयति।। अनुमानित वचनानु. मान्य वा आलोचयति।२। यदृष्टं यत्रोकदर तदेवालोचयति । ३। बादरे च स्थूलदोषवालोचयति । । । सूक्ष्मम् अल्पमेर दोषमालोचयति । ५। छौ केनचित्पुरुषेण निजदोषः प्रकाशितः भगवन् याहशो दोषोऽनेन प्रकाशितस्तादृशो दोषो ममापि वर्तते इति प्रच्छनमालोचयति । ६ । शब्दाकुलं यथा भवत्येवं यथा गुरपि न शृणोति तारशे कोलाहलमध्ये आलोचयति । ७। बहूजनं बहन् गुरुजनान् प्रत्सालोचयति ।। अव्यकम् अम्यकस्य अप्रबुद्धस्स गुरोरने आलोचयति ।। तस्सेवी यो गुरुत दोर्ष सेवते तब आलोचयति । १० । ईदम्बिधमालोचन यदि पुरुष आलोचयति तदा एको गुरुः एकः आलोचकः पुमान स्त्री चेदालोचयति तदा चन्द्रसूर्यादिप्रकाशे एको गुरुः | त्रियी अथवा नौ गुरू एका श्रीति । प्रायविनमकुर्वतः पुंसः महयपि सपोऽभिप्रेतफलप्रदं न भवाति मात्र पाश्चिमागे अवार्यमा लापनको अपेचना भवति, पुस्तकपिञ्छादिपरोपकरणहणे आलोचना, परोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवबनाकरणे आलोचना, आचामाचार्यप्रयोजनेन गत्या आगमनेन आलोचना, परसंघमपृष्टा खसंघागमने आलोचना, वेशकालनियमेन अवश्यकश्यस्य प्रतविशेषस्म धर्मकथाप्रसंगेन चिस्मरणे सति पुनः करणे भालोचना स्यात् । परिन्द्रियेषु वचनाविदुःपरिणामें भेंट करनेसे प्रसन्न होकर आचार्य मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे ऐसा सोचकर आलोचना करना आफम्पित दोष है । गुरु थोडासा प्रायश्चित्त देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे ऐसा अनुमान करके फिर आलोचना करना अनुमानित नामका दोष है। जो अपराध दूसरोंने देख लिया हो उसे तो कहे और जिस अपराधको करते हुए किसीने न देखा हो उसे न कहे, यह दृष्ट दोष है । स्थूल दोष तो कहे किन्तु सूक्ष्म दोषको न कहे, यह बादर दोष है । सूक्ष्म दोष ही कहे और स्थूल दोषको न कई यह सूक्ष्म नामका दोष है । किसी साधुको अपना दोष कहते सुनकर आचार्यसे यह कहना कि 'भगवन् जैसा दोष इसने कहा है वैसाही दोष मेरा भी है और अपने दोषको मुखसे न कहना प्रच्छन्न दोष है । कोई दूसरा न सुने इस अभिप्रायसे जब बहुत कोलाहल होरहा हो तब दोष को प्रकट करना शब्दाकुलित दोष है । अपने गुरुके सामने आलोचना करके पुनः अन्य गुरुके पास इस अभिप्रायसे आलोचना करना कि इस अपराधका प्रायश्चित्त ठीक है या नहीं, बहुजन नामा दोष है । जिस मुनिको आगमका ज्ञान नहीं है और जिसका चारित्र मी श्रेष्ठ नहीं है ऐसे मुनिके सामने आलोचना करना अध्यक्क नामका दोष है । जो गुरु स्वयं दोषी है उसके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करना तत्सेवी नामक दोष है । इस प्रकार इन दोषोंसे रहित आलोचना करनेवाला यदि पुरुष हो तो एक गुरु और एक आलोचना करनेवाला पुरुष ये दो होना जरूरी है । और यदि आलोचना करनेवाली बी हो तो चन्द्र सूर्य वगैरहके प्रकाशमें एक गुरु और दो नियों अथवा दो गुरु और एक स्त्री होना जसरी है। जो साधु अपने दोर्कका प्रायश्चित्त नहीं करता उसकी बड़ी भारी तपस्सा भी इष्ट फल दायक नहीं होती। यहाँ कुछ दोषोंका प्रायश्चित्त बतलाते हैं-पुस्तक पीठी आदि पराये उपकरणोंको लेलेने पर आलोचना प्रायश्चित्त होता है। प्रमादवश आचार्य वचनोंक्य पालन न करनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । आचार्यसे बिना पूछे आचार्यके कामसे जाकर लौट आनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । पर संघसे बिना पूछे अपने संधमें चले बानेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है। देश और कालके नियमसे अवश्य करने योग्य किसी विशेष व्रतको, धर्मकथामें लग जानेसे भूल जानेपर यदि बादको कर लिया हो तो आलोचना प्रायश्चित होता है। षट्कायके जीवोंके प्रति यदि कठोर वचन निकल गया हो तो प्रतिक्रमण प्रायश्चित होता है । कम किमु बहु का, (स बहुवं य), योनि किमु बहुव था। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४५४ ...-.-.-: - -.... - प्रतिक्रमणम् , पैदायकलहादिकरणे प्रतिक्रमणम, वैयावृत्यखाथायातिप्रमादे प्रतिक्रमणम् , आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघटने प्रतिक्रमणम्, व्रतसमितिगुप्लिषु खल्यातिचारे प्रतिकमणम् , गोचरगतस्य मुनेः लिङ्गोत्थाने प्रतिक्रमणम् , परसंगकरणादौ च प्रतिक्रमणम् । दिवसरात्र्यन्ते भोजनगमनादी आलोचनाप्रतिक्रमणद्वयम् , लोचनखच्छेदखनमधुनाचरणरात्रिभोजनेषु उभयम् , पक्षमासचनुमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयम् । मौनादिना बिना लोचन विधाने व्युत्सर्गः, हरिततृणोपरि गमने व्युत्सर्गः, कर्दमोपरि गमने म्युत्सर्गः, उदरकृमिनिर्गमने व्युस्सर्गः, हिमदंशमशकादिवातादिरोमाहे व्युत्रार्गः, आईभूम्युपरि गमने व्युत्सर्गः, जानुमात्रजलप्रवेशे व्युत्सा, मिरावत. परगनियु, वाचिणे व्युत्सर्गः, पुस्तकपत्तने बुत्सर्गः, प्रतिमाफ्सने सत्सर्गः, पञ्चस्थावरविघातादृष्टदेशननुमलविसर्गादिपु व्युत्सर्गः, पक्षादिप्रतिकमणक्रियान्तरव्याख्यान पुरयादिषु न्युत्सर्गः, उचारप्रसवणादिषु ट्युत्सर्गः । एवमुपवासच्छेदमूलपरिहारादिकरणं ग्रन्थतो ज्ञेयम् ॥ ४५२॥ जं कि पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सद्धाए। जो पुणु हियए संकदि कि थोत्रं किं पि बहुयं या ॥ ४५३ ॥ [छाया-यात् किमपि तेन दत्तं तत् सर्व स करोति श्रदया। नो पुनः हृदये शकते किं स्तोकं किमपि बहुके दा॥] यत् किमपि प्रायश्चित्तम् आलोचनाप्रतिक्रमणादिदशमेदाभिन सेन श्रीगुरुणा दक्ष वितारितम् अर्पितं तत्सर्व प्रायश्चित्तम् आत्येचनादशमेदभित्र स साः तपस्वी मुमुक्षुः करोति विद्याति, सर्व प्रायश्चित्त थड़या रुचिरूपेण अन्तःकरणभावनया करोति । पुनः हृदये स्तमनसि न शकते शको संदेहं न करोति । मम प्रायश्चित्तं श्रीगुरुणा सोकं स्वल्पं दी, वा अथवा, कि बहुतरं प्रपुरं दसम् इति नाशङ्कते ॥ ४५३ ॥ पुणरवि कार्य णेच्छदितं दोस जइ वि जाइ सय खंड । एवं णिच्छय-सहिदो पायपिछत्तं तवो होदि ॥४५४ ॥ छाया-पुनर अपि कर्तुं न इन्छति त दोष यद्यपि याति शतखण्डम् । एवं निश्चयसहितः प्रायश्चित तपः भवति।] एवं पूर्वोचप्रकारेण प्रायश्चित प्रायधिलाख्यमाभ्यन्तरं तपो भवति । एवं कथम् । यः नित्रयसहितः जिनधर्मे जिनवमने च किसीकी चुगली करनेपर या किसीसे कलह करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है । वैयावृत्य खाध्याय वगैरहमें आलस्य करनेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है । आचार्य वगैरहसे हाथ पैरके टकरा जानेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है | व्रत समिति गुप्ति वगैरहमें स्वल्प अतिचार लगनेपर, गोचरीके लिये जाते समय लिंगमें विकार आजानेपर और दूसरोंको संकेश पैदा करनेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है। दिन या रात्रिके अन्तमें गमनागमन करनेपर, खममें मैथुन सेवन या रात्रिभोजन करनेपर और पाक्षिक मासिक चातुर्मासिक तथा वार्षिक दोष वगैरहमें उभय (आलोचना और प्रतिक्रमण) प्रायश्चित्त होता है । बिना मौन पूर्वक आलोचन करनेपर, हरे तृणोंके ऊपर चलने पर, कीचबमेंसे जानेपर, पेटमेंसे कीड़े निकलने पर, शीत मच्छर बायु वगैरहके कारण रोमांच हो आनेपर, घुटनेतक जल में प्रवेश करनेपर, दूसरेके लिये आई हुई घस्तुका अपने लिये उपयोग करनेपर, नौका आदिके द्वारा नदी पार करनेपर, प्रतिक्रमण करते समय व्याख्यान आदि प्रवृत्तियों में लग जानेपर या मल मूत्र करनेपर व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है | इसी प्रकार उपवास, छेद, मूल, परिहार आदि प्रायश्चित्तोंकी विधि अन्य प्रन्थोंसे जाननी चाहिये ।। ४५२ ॥ अर्थ-दोषकी आलोचना करनेके पश्चात् आचार्यने जो प्रायश्चित्त दिया हो उस सबको श्रद्धा पूर्वक करना चाहिये । और हृदय बणेच्छादि (१), कमल णिच्छदि, गणपछादि । २ग सह। ३५ होति । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा સ निवयः प्रतीतः विश्वासः वेन सहितः युक्तः मुनिः श्रावको वा पुनरपि एकवारं दोषनिराकरणे कृते पुनः तं दोष कर्तुं न इच्छति, अपराधं श्रताविचारादिकं विधातुं न वाञ्छति इहते नैव । यद्यपि स्वयं शतन्त्रडं याति परीष है। उपसर्गः व्याधिभिः शरीरं शशधा खण्डतां याति तथापि तं दोषं कर्तुं न इच्छति ॥ ४५४ ॥ जो चिंतइ अध्याणं जाण सरुवं पुणो पुणो णाणी । धिकहा- विरत-चित्तो' पायच्छित्तं वरं तस्स ॥ ४५५ ॥ [ छाया-यः चिन्तयति आत्मानं ज्ञानस्वरूपं पुनः पुनः ज्ञानी विकथाविरचितः प्रायश्चित्तं वरं तस्य ॥ ] तस्य मुनेः श्रावकस्य वा प्रायश्चितं वरं श्रेष्ठं तपो भवति । तस्य कस्य । यः ज्ञानी मेदाभेदरनप्रयत्वज्ञानी मेदविज्ञानसंपन्नः चिन्तयति ध्यायति । क्रम् । कर्मतापत्नं पुनःपुनः वारंवारे मुहुर्मुहुः आत्मानं स्वपरमात्मानं शुद्धचिद्रूपम् । कीदृक्षम् । ज्ञानस्वरूपं शुद्धबोधमयं केवलज्ञानदर्शनमयम् । कीदृक् सन् । विकथा दिविशकमनाः विरूपकथाकथनं विक्रथा, स्त्रीभोजनराज" चोरादिकथाको मानम (यालोभ स्पर्शनादीन्द्रियनिवालेाः तेभ्यः विरक्तं निहतं मनः चित्तं यस्य स तथोक्तः एखदशनायाभ्यन्तरप्रमादरातः सार्धसतशित्सहस्रप्रमादविरतो वा आत्मनः परा उत्कृष्ट विशोधनाय यथा स्यादित्येवमर्थः । साक्षिका परसाक्षिका च विशुद्धिरुत्कृप्रेति मन्यते । प्रायः इत्युच्यते लोकक्षितं तस्य मनो भवेत्, चित्तशुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तमिति । प्रायश्चित्तफलं भावप्रसादनम् अनवस्थाया अभावः शल्यपरिहरणं धर्मादिकं च वेदितव्यम् ॥ ४५५ ॥ अथ विनयतपो गाथाश्रयेण विशृणोति विणओ पंच पयारो दंसण-जाणे तहा चरिते य । आरस - भेयमि तवे उक्यारो बहु-विहो ओ ॥ ४५६ ॥ चा [ छाया - विनयः पञ्चप्रकारः दर्शन - ज्ञाने तथा चारित्रे च द्वादशमेदे तपसि उपचारः बहुविधः ज्ञेयः ॥ ] विनयः कषायेन्द्रियाणां विनयनं स्ववशीकरणं विनयः, अथवा रत्नत्रयस्य तद्वत रवयवतां मुनीनां च नीचैर्वृत्तिर्विनयः । स पचप्रकारः पञ्चभेदभिन्नः । क क दर्शने सम्यग्दर्शने सम्यक्त्वे तत्त्वार्थद्धाने शङ्काकाक्षरविश्विकित्साना वर्जनं परिहार: उपगूहन स्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावनाः भक्त्यादयो गुणाः पचपरमेष्टिभक्त्यानुरागस्तेषामेव पूजा तेषामेव गुणानुवर्तनम् । तद्यथा । जवगूहादिन पुव्युत्ता तह भत्तिआदिआ य गुणा । संकादिवणं पिय दंसणविणओ समासेण इद में ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि आचार्यने मुझे जो प्रायश्चित्त दिया है वह छोड़ा है या बहुत है । भले ही शरीर के खण्ड खण्ड होजायें फिर भी लगे हुए दोषका प्रायश्चित्त लेनेके पश्चात् जो उस दोषको नहीं करना चाहता उस हद निश्चयवाले साधुके प्रायश्चित्त नामक तप होता है || भाषार्थ जो साधु यह निश्चय कर लेता है कि परीग्रह, उपसर्ग, व्याधि वगैरह के द्वारा यदि मेरे शरीरके खण्ड खण्ड भी होजायें तो भी मैं किये हुए दोषको पुनः नहीं करूँगा, उसी साधुका प्रायश्चित्त तप सफल है। और जो प्रायश्चित्त लेने के पश्चात् पुनः उसी दोपको कर बैठता है उसका प्रायश्चित निष्फल है ।। ४५३-४ ॥ अर्थ - जो ज्ञानी मुनि ज्ञान स्वरूप आत्माका वारंवार चिन्तन करता है और विकथा आदि प्रमादोंसे जिसका मन विरक्त रहता है, उसीके उत्कृष्ट प्रायश्चित होता है । भावार्थ-पन्द्रह अथवा साढ़े सैंतीस हजार प्रमादोंसे रहित होकर जो मुनि अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माका ही सदा चिन्तन करता है उसीके वास्तविक प्रायश्चित्त तप होता है; क्योंकि ऐसा करने से सब दोषों से छुटकारा हो जाता है ॥ ४५५ ॥ आगे तीन गाथाओंसे विनय तपको कहते हैं । अर्थ-विनयके पाँच भेद हैं। दर्शनकी विनय, ज्ञानकी विनय, चारित्रकी विनय, बारह प्रकारके तपकी विनय, और उपचार विनय । उपचार विनयके बहुतसे प्रकार है ॥ १ ख स ग विकादिबिरत्तमणी ( म माणो १) । २ म तबो । लमसग विषयो । ४ म अगारो । कार्तिके० ४४ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवली ३४६ स्वामिकार्त्तिकेयानुमेक्षा [ गा० ४५७ विमथः। १। शाने जिनोक्त सिद्धान्ते द्वादशाचतुर्दशपुर्वाणां कालशुद्ध्या पठनं व्याख्यानं परिवर्तनम् । हस्तपादौ प्रात्य पर्यायास्थितस्याध्ययनम् । अवग्रहविशेषेण पठनम् । बहुमानं यत्पठति यस्मात् शृणोति तयोः पूजा गुणरूसवनम् । अनिहवः यत्पठति यस्मात्पाठयति तयोः कीर्तनम्। व्यअशुद्धम् अर्थशुद्धं व्यञ्जनार्थशुद्धम् इति । ज्ञाने अष्टप्रकारो विनयः । यः शिक्षसे विद्योपादानं करोति, ज्ञानाभ्यासे करोति ज्ञानं परस्मै उपदिशति । य एवं करोति स शानविनीतो भवति इति ज्ञाने विनयः ॥ २ ॥ तथा तेनैव प्रकारेण चारित्रे व्रतसमितिपुतिलक्षणे त्रयोदशप्रकारे सामायिका दिपञ्चप्रकारे वा तदाचरणं तरणोपायेन यत्नः चारित्रे विनयः । तथा इन्द्रियकषायाणां प्रसरनिवारणम् इन्द्रियकषायथ्यापर निरोधनम् इति चारित्रविनयः । ३ । व पुनः द्वादशभेदे तपसि अनशनात्र मर्यादिद्वादशप्रकारे तपसि अनुष्ठानम् उत्साहः उद्योगः । तथा आतापनाद्युतरगुणेषु उद्यमः उत्साहः। समतास्ववचन्दना प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान कार्गाणाम् काना यस्यावश्यकस्य यावन्तः पठिता: कायोत्सर्गाः तावन्त एव कर्तव्याः न तेषा हानिर्वृद्धिर्वा कार्या । द्वादशविधतपोऽनुष्टाने भक्तिरनुरागः तपस्विन भक्तिः इति तपसि विनयः । ४ । उपचारो विनयः, उपचर्यते उपचारेण क्रियते साक्षादिति उपचारो विनयः 1 बहुधा बहुप्रकारः । कायिकचिनयः साधूनां दूरदर्शनात् आसनाद उत्थानम् सिद्धश्रुतमुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गादिकरणम्, नमनं शिरसा ग्रामः, अञ्जलिपुटेन नमनम्, सन्मुखगमनम् पृष्टिगमनम् देवगुरुभ्यः पुरतः नीचे स्थानम् वामपार्श्वे स्थानम्, गुरोर्वामपार्श्वे पृष्ठतो वा गमनम् इत्यादिकौपचारिककायविनयः । दाविनयः । तथथा । पृज्यवचनं बहुवचनोच्चारणं यूर्य भट्टारकाः पूज्याः इत्येवमादिकम् । हितस्य पयस्य भाषणम् इहलोक परलोकधर्मकारणं वचनम् । मितस्य परिमितस्य भाषणं वाल्पाक्षरवम् । मधुरं मनोहरवचनं श्रुतिसुखदम् । सूत्रानुजीविवचनम् आगमष्ट्या भाषणं यथा पापं न भवति । निशककादिकं वर्जविला भाषणम् । क्रोधमानमायालोभरागद्वेषादिविरहितं वचनम् । चकारम कारादिरहितं वचनम् । बन्धनानानादिरहितं वचनम् । असिमासि कृष्या दिक्रियारहितं चन्चनम्। परमुखविधायक वचनं धर्मोपदेशनम् । इत्यादिवाचिकविनयः यथायोग्य कर्तव्यो भवति । मानसिक विनयः । यथा हिंसादिपापकारि परिणामस्य परित्यागः । आर्तरौद्रपरिणामस्य परित्यागः । सम्यक्त्वविराधनापरिणामरहितः । मिथ्यात्वपरिणामपरित्यागः । धर्मे सभ्यत्वे ज्ञाने चारित्रे तद्वत्सु च शुभपरिणामः कर्तव्यः । कायादिको निनयः प्रत्यक्षः, दीक्षागुरौ श्रुतगुरी तपोऽधिके साधुषु सूरिपाठकेषु आर्थिका गृहस्थभावकलोकेषु च यद्विद्यमानेषु यथायोग्यं विनयः कर्तव्यः । एतेषु परोक्षभूतेषु गुर्बादिषु काषादिको विनयः कर्तव्यः । गुरूणामाज्ञादेशतदुपदेशवचन प्रतिपालन तदुपदिष्टंषु जीवादिपदार्थेषु श्रद्धानं कर्तव्यं परोक्षविनयः । विनयस्य फलम् विनये सति ज्ञानलाभो भवति, आचारविशुद्विश्व संजायते । विनयहीनस्य शिक्षा श्रुताध्ययनं सर्व निष्फलम् । विनयवान् सर्वकल्याणानि म्वर्गमोक्षसुखानि लभते । अन्मादिकमकल्याणकं चतुर्विधाराधनादिकं च लभते । तदुक्तं च 'बिणओ मोक्खहारे विणयाशे संजमों तथो णाणं । विगएणाराहिंज्जदि आयरिश्र सव्वसंघोय ॥] बिनयो मोक्षस्य द्वारे प्रवेशयः, विनयात संयमः, विनयात् तपः, विनयात् ज्ञानं विनवेन आराध्यते आचार्यः सर्वसंध श्रपि । तथा च ॥" किती मेती मानस मंजर्ण गुरुजणे य बहुमाणं । तिव्ययराणं आणा गुप्पाणुमोदो य विषयगुणा विनयस्य कीर्ति यशः सर्वव्यापि प्रतापं लभते, तथा मैत्री सत्रः सह मित्रभावं लभते तथात्मनो मार्न गर्व निरस्यति, गुरुजनेभ्यो बहुमानं लभने, तीर्थकराणामाज्ञां पालयति, गुणानुरागं च करोति । इत्यादिविनवत्तपोविधानगुणाः ॥ ४५६ ॥ दंसण-गाग-चरिते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो । बारस-भेदे' वितत्रे' सो विय' विणओ हवे तेसिं ॥ ४५७ ॥ . 131 भावार्थ - काय और इन्द्रियों को अपने वशमें करना विनय है । अथवा रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारी मुनियों विषयमें विनम्र रहना विनय है। उसके पांच भेद हैं ॥ ४५६ ॥ अर्थ-दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषयमें तथा बारह प्रकारके तपके विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनकी विनय है || भावार्थ तस्वार्थ के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन के विषय में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि दोषोंको छोड़ना और उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना आदि गुणका होना १ ब भेउ, म भेष्ट । २ ब तबो (१) १ ३ ख चिथ । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा [या- पर्शनशानचारित्रे सुषिशुद्धः यः भवति परिणामः ३ द्वादशमेदे अपि तपसि स एव विनयः भवेत् सेषाम् । सेसि तेषां दर्शमशामचारित्रतपसा सम्यादर्शनशानचारित्रतपसो स एष विनयो भवेत् 1 स कः । यः सुविशुद्ध: अतिशयेग निर्मला सवाहकपरिणामो वा परिणामः परिणतिः भावो भवति । केषु । दर्शनशानचारित्रेषु मेदामेदरसत्रयरूपसम्यग्दर्शनहानमारित्रेषु, दर्शने तस्वार्थश्रद्धामलक्षणे निश्चयम्यवाहारसम्यक्त्वे निःशरितादिदोषरहित खम्वरूपशुद्ध बुद्धकारमनि श्रद्धानरुचिलक्षणं वा वर्शनविनयः 11शाने द्वादशाशलक्षणे व्यजनोर्जितादिना पठन पाठनं वा चिदानन्देक खस्वल्पपरिज्ञाने वा ज्ञानविनयः ।। बारित्रे त्रयोदशप्रकारे सर्वातिचाररहित्येन पञ्चपञ्चभावनायुक्तत्वेन वा)प्रतिः का खखरूपानुभवनं या चारित्रविनयः ३ । अपि पुनः वादशमेदे तपसि अनशनादिद्वादशमेदभिकतपोविधानेषु असेदेन प्रवृत्तिः, तदाचरणे उत्साहः, आहारेन्द्रियकवायाणा रागद्वेषयोश्च परित्यागः इच्यावितपोदिनयः ॥ ४५ ॥ रयण-तय-जुसाणं अणुकूलं जो बरेदि भत्तीए । भियो जहरायाणं उवयारो सो हवे विणओ ॥ ४५८ ॥ छाया- रात्रययुक्तानाम् अनुकूल यः चरति मत्या। मृत्यः यथा राजाम, उपचारः स भवेत विनयः ॥ ] यो भन्दः रत्नत्रययुकानां सम्यग्दर्शनशानबारित्रवताम् भाचार्योपाध्यायसाधूनां दीक्षाशिक्षाश्रुतदानगुरूणां च मसया धर्मानुराण परमार्यपुग्या अनुकूलम् अभ्युत्थानमभिगमन करयोस्न वन्दनानुगमनं पृष्टगमनम् इत्यादिकम् आचरति, भानुकूल्येम तया पंच परमेष्ठीमें भविमा , उईके गुगविः अनुसरण पाना, ये सब दर्शनविनय है। कहा भी है-'उपग्रहन आदि तथा मक्ति आदि आत्मगुणोंका होना और शंका आदि दोषोंको छोड़ना संक्षेपसे दर्शनविनय है ।' काल शुद्धिका विचार करके जिन भगवान के द्वारा कहे हुए बारह अंग और चौदह पूर्वरूप सिद्धान्तका पड़ना, व्याख्यान करना, पाठ करना, हाथ पैर धोकर पर्षहासनसे बैठकर उसका ममन करना ज्ञान विनय है । ज्ञान विनयके आठ प्रकार हैं-योग्यकालमें साभ्याय करना, श्रुतमक्ति करना, खाध्याय कालतक विशेष नियम धारण करना, आदरपूर्वक व यन करना, गुरुके नामको न छिपाना, दोषरहित पदना, शुद्ध अर्थ करना, शुद्ध अर्थ और शुद्ध शब्द पाना, ये क्रमशः काल विमय, उपधान, बहुमान, अनिचव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय नामक आठ प्रकार हैं। इसी प्रकार व्रत, सनिति और गुप्तिरूप तेरह प्रकारके चारित्रका अथवा सामायिक आदिके मेदसे पाँच प्रकारके चारित्रका पालन करना, इन्द्रिय और कपायोंके व्यापारको रोकना अथवा अपने खरुपका अनभवन करना चारित्रविनय है। अनशन, अवमोदय आदि बारह प्रकार के तपका उत्साह पूर्वक पालन करना, तथा आतापन आदि उत्तरगुणों में उत्साहका होना, समता, खब, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छ: आवश्यकोंमें कभी भी हानि नहीं करना, (जिस आवश्यकके जितने कायोत्सर्ग बतलाये हैं उतने ही करने चाहिये उनमें घटाबढी नहीं करनी चाहिये) इस प्रकार बारह प्रकारके तपके अनुष्ठान तथा तपखियोंमें भक्तिका होना तपकी विनय है ॥ ४५७ ।। अर्थ-जैसे सेक्क राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रात्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सभ्यश्चारित्रके धारक मुनियोंके अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है ।। भावार्थ-औपचारिक विनयको उपचार विनय कहते हैं । पहले कहा है कि उपचार विनयके अनेक प्रकार हैं। अपने दीक्षागुरु, विद्यागुरु, तपखी साधुको दूरसे देखते ही खदे होजाना, हाथ जोड़कर या सिर नवाकर नमस्कार करना, उनके सामने जाना, या पीछे पीछे १ घरे। २ ग जित् । - - - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४५९ सन्मुखत्वेन परममवेन प्रवर्तते । यथा सेवकः राज्ञ सेवा करोति तथा रत्नत्रयधारिणां शिष्यः यो भव्यः अनुकूलत्वेन प्रवर्तते स प्रसिद्धः । उपचारो विनयः, औपचारिकोऽयं विनयो भवति । इति विनगत्तपोविधानं षष्ठम् ॥ ४५८ ॥ अथ वैयावृत्त्यं तपो गाथाद्वयेन विभावयति - जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग- जराइ- खीण कायाणं । पूयादिसु' रिमेक्खं वेजावचं' तवो तस्स ॥ ४५९ ॥ [ छाया-य: उपचरति यतीनाम् उपसर्गजरा दिक्षीणकायानाम् । पूजादिषु निरपेक्षं वैयावृत्यं तपः तस्य ॥ ] तस्य साधोः वैयावृत्त्यं तपः । व्यावृत्तिः परदुःखादिहरणे प्रवृत्तिः व्यावृतेर्भावः वैयावृत्त्यम् । अथवा कान्यपीबादुः परिणामविनाशार्थ कावचेष्टया द्रव्यान्तरेणोपदेशेन च व्यावृमस्य यत्कर्म तद्वैयावृत्यं नाम तपोविधानं भवेत् । तस्य कस्य । यो महान् भव्यः यतीनाम् भ्राचार्योपाध्यायतपस्वि शैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधु मनोज्ञानां दशविधानां पुरुषाणां दशविधं वैयावृत्य भवति । पचधाचारं स्वयमाचरन्ति शिष्यादीनामाचारयन्तीत्याचार्याः १ मोक्षार्थमुपेत्याधीयते शाश्रं तस्मादित्युपाध्यायः गुरुः २ । महोपवासकायक्लेशादितपोऽनुष्टानं विद्यते यस्य स तपस्वी ३ । शास्त्राभ्यासशीलः शैक्षः ४ । रोगादिपीडितशरीरो ग्लानः ५ । वृद्धमुनिसमूहो गणः ६ वीक्षकाचार्य शिष्यसंघातः कुलं या स्त्रीपुरुषसंतानः कुलभूष मुनियत्यनगार लक्षण चातुर्वर्ण्यश्रवणसमूहः संघः, ऋध्यार्यिका श्रावकश्राविका समूह वा संघः ८ । चिरीक्षितः साधुः ९ । जाना, देव और गुरुके सन्मुख नीचे स्थानपर बैठना, या उनके बाईं ओर खड़े होना, ये सब कायिक उपचार विनय है । आर्थिका और श्रावकोंके मी आने पर उनकी यथायोग्य विनय करना चाहिये । गुरुजनोंके परोक्षमें भी उनके उपदेशोंका ध्यान रखना, उनके विषय में शुभ भाव रखना मानसिक उपचार विनय है । गुरु जनोंके प्रति पूज्य वचन बोलना- आप हमारे पूज्य हैं, श्रेष्ठ हैं इत्यादि, हित मित मधुर वचन बोलना, निष्ठुर कर्कश कटुक वचन न बोलना आदि याचिक उपचार विनय है । इस प्रकार विनय तपके पाँच मेद हैं। इस विनय तपका पालन करनेसे ज्ञानलाभ होता है और अतिचारकी विशुद्धि होती है। जिसमें विनय नहीं है उसका पठन पाठन सब व्यर्थ है। विनयी पुरुष स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त करता है, तीर्थङ्करपद प्राप्त करके पांच कल्याणकका पात्र होता है, और चारों आराधनाओंको भजता है । कहा भी है 'विनय मोक्ष का द्वार है, विनयसे संयम, तप और ज्ञानकी आराधना सरल होती है, विनयसे आचार्य और समस्त संघ भी बशमें सबके साथ उसकी मित्रता हो जाता है ।' और भी कहा है- 'विनयी पुरुषका यश सर्वत्र फैलता है, रहती है, वह अपने ग्रर्चसे दूर रहता है, गुरुजन भी उसका सम्मान करते हैं, वह तीर्थकरोंकी आज्ञा का पालन करता है, और गुणानुरागी होता है।' इस प्रकार विनयमें बहुतसे गुण है। अतः विनय सपका पालन करना चाहिये ॥ ४५८ ॥ आगे दो गाथाओंसे वैयावृत्य तपको कहते हैं । अर्थ- जो मुनि उपसर्गसे पीड़ित हो और बुदापे आदिके कारण जिनकी काय क्षीण हो गई हो, जो अपनी पूजा प्रतिष्टाकी अपेक्षा न करके उन मुनियोंका उपकार करता है उसके वैयावृत्य तप होता है । भावार्थ - अपनी शारीरिक चेष्टासे अथवा किसी अन्य वस्तुसे अथवा उपदेशसे दूसरोंके दुःख दूर करनेकी प्रवृत्तिका नाम वैयावृत्य है। यह वैयावृत्य आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके मुनियोंकी की जाती है। इससे वैयावृत्यके दस भेद हो जाते हैं। जो पाँच प्रकारके आचारका स्वयं पालन करते हैं और शिष्योंसे १ म सग पूजादिसु । २ ब (?) क म ग विजान चे I Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T -४६० ] १२. धर्मानुप्रेक्षा वक्तृत्वादिगुणविराजितो लोकाभिमतो विद्वान् मुनिर्मनोशः, तागोऽसंयतराम्यम्टष्टिदो मनोशः १० एतेषां दशविधानां यतीनाम् उपचरति उपकुर्वते उपकारं व्याघ्रौ सति प्रासुको भक्तपानादिपध्यवसतिकासंस्तरणादिभिः उपकारं करोति, धर्मोपकरणैः पुस्तकैः सिद्धान्तदानैः उपकारं करोति तथा परीरहविनाशनैः उपकारं विदधाति मिध्या. त्वादिभने सम्यक्त्वे प्रतिष्ठापनम् बाह्यद्रव्यासं नवे कायेन ष्मायन्तर्भलायपनयनं तदनुकूलतानुष्ठानं करोति । कथम् । पूजादिषु निरपेक्षा पूजाख्यातिलाभमहत्त्यादिषु अपेक्षा द्वारहितं यथा भवति तथा। कीदृग्विधानां यतीनाम् उपसर्गअरादिक्षीणकायानां देवमनुष्य तिर्यग्जला भिवातपाषाणादिसंभवोपसर्ग प्राप्तानां जरया प्रस्वानां वृद्धानां क्षीणशरीराणां रोगैः कृत्वा क्षीणशरीराणां यतीनाम् उपकारं वैयावृत्त्यं करोति । तस्य भैयावृत्त्याख्यं तपो भवतीति । तथा चोकं १ 'करचरणसिरसाण महणभंगसेवकिरिया हि । उपपत्तिणपसारणा कुचणाई || पडिजमाणेहिं तणुजोयसपाहिं मेस जेहिं तद्दा उचारादीण विकिंचणेहिं तणुधोवणेहिं च ॥ थारसोहणेहि य वेयावचं सया पयतेण । कायदे सीए निविदिगिच्छेग भावेण || देहतवणिय मजम सीलसमाही य अभयदानं च गदिमदिवलं च दिण्णं वेयाव करतेण ॥' इति । किंबहुना, वैयावृत्त्यकारी जीवः यशः कीर्तिजिनाज्ञा रूपसंपदा स्वर्गमोक्षसुखं प्राप्नोति ॥ ३५९ ॥ जो वावरइ सरु सम-दम-भावग्मि सुद्ध' - उबजुत्तो । लो-ववहार-बिरदो' घेयावज्रं परं तस्स || ४६० ॥ पादन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। जिनके समीप जाकर मोक्षके लिये शाखाध्ययन किया जाता है उन्हें उपाध्याय अर्थात् विद्यागुरु कहते हैं। जो बड़े बड़े उपवास करता हो, कायक्लेश आदि तपोंको करता हो उसे तपखी कहते हैं। जो शास्त्रोंका अभ्यास करता हो वह शैक्ष्य है। जिसका शरीर रोग से पीवित हो वह ग्लान है । वृद्ध मुनियोंके समूहको गण कहते हैं। दीक्षाचार्यकी शिष्य- परम्पराको कुल कहते हैं । ऋषि यति मुनि और अनगारके भेदसे चार प्रकार के श्रमणके समूहको संघ कहते हैं। अथवा मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका समूहको संघ कहते हैं । जिसको दीक्षा लिये चिरकाल होगया हो उसे साधु कहते हैं । जो विद्वान मुनि वक्तृत्व आदि गुणोंसे सुशोभित हो और लोकमें जिसका सन्मान हो उसे मनोज्ञ कहते हैं । उक्त गुणोंसे युक्त असंत सम्यग्दृष्टि भी मनोज्ञ कहा जाता है । इन दस प्रकारके मुनियोंको व्याधि होने पर प्रासुक औषधि, पथ्य, वसतिक्का और संधरा वगैरहके द्वारा उनकी व्याधिको दूर करना, धर्मके उपकरण पुस्तक आदि देना, परीषहका दूर करना, उनके मिध्यात्वकी ओर अभिमुख होनेपर उन्हें सम्यक्त्वमें स्थिर करना, उनके श्लेष्मा आदि मलोको फेंकना, तथा उनके अनुकूल चलना, ये सब वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य ख्याति लाभ आदि की भावनासे नहीं करना चाहिये। कहा भी है- हाथ, पैर, पीठ और सिर का दबाना, तेल मलना, अंग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग फैलाना, सिकोड़ना, करवट दिलाना, आदि कार्योंके द्वारा, शरीरके योग्य अन्न पान तथा औषधियोंके द्वारा, मल मूत्र आदि दूर करने द्वारा, शरीरका धोना, संपरा आदि चिछाना आदि कार्यो के द्वारा ग्लानिरहित भावसे शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । वैयावृत्य करनेवाला देह, तप, नियम, संयम, शक्तिका समाधान, अभयदान, तथा गति, मति और बल देता है ॥ ४५९ ॥ अर्थ - विशुद्ध उपयोग से युक्त हुआ जो मुनि राम दम भाव रूप अपने आत्मखरूपमें प्रवृत्ति करता है और लोकव्यवहारसे विरत रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्य तप होता है | भावार्थ - रागद्वेष से रहित साम्य भावको राम कहते हैं, १ क म सग सुद्धि । २ भ विवहार ३ ब विरभो । ४ म विज्ञान ( १ ), स वेज्जावचं । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४६१ [ छाया - यः व्यापृणोति स्वरूये शमवमभावे शुद्ध-उपयुक्तः । लोकव्यवहारविरतः वैयावृत्यं परं तस्य ॥ ] तस्म भव्यजीवस्थ परम् उत्कृष्टं वैयावृत्यं तपो भवेत् । तस्य कस्य । यो भव्यः स्वरूपे व्यावृणोति शुद्धबुद्धचिदानन्दरूप शुद्धचिपे अमेवनत्रयस्वरूपपरमात्मनि व्यापारं करोति प्रवर्तते आत्मनात्मनि तिष्ठति, आत्मानमनुभवतीत्यर्थः । कथंभूतो भव्यः सन् । शुद्धउपयुक्तः शुद्धि) निर्मलता तथा उपयुक्तः सहितः राज्यएकेनाविष्टो वा । शमदमभावे शमः उपशमः क्रोधाद्युपशान्तिः दमः पत्रेन्द्रियनिग्रहः तयोर्भावः परिणामः तस्मिन् शमदमभावे निर्मलतासहितः । अथवा बंभूते स्वरूपे । शान्तदासपरिणामे निर्विकल्पसाम्यसमाधिपरिणामे । पुनः कीदृक्षः सन् 1 लोकल्यवहारविरतः लोकानां जनाना व्यवहारः अशनपानेन्द्रियविषय प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः व्यापारः तस्मात विरतः विरक्तः, दानपूजाख्यातिलाभादिविरहितो वा ।। ४६० ॥ अथ स्वाध्यायतपोविधानं गाथाषङ्केनाह - पर-तत्ती' णिरवेक्खो दुट्ठ-वियपाण णासण-समत्थो । - विणिच्छय हेदू सज्झाओ झाण-सिद्धियरो || ४६१ ॥ [ छाया - परतप्तिनिरपेक्षः दुष्टविकल्पानां नाशनसमर्थः । तत्त्वविनिश्चयहेतुः स्वाध्यायः ध्यानसिद्धिकरः ॥ ] स्वाध्यायः सुष्ठु पूर्वापराविरोधेन अध्ययन पठन पाठनम् आध्यामः सुष्ठु आध्यायः स्वाध्यायः, सुष्ठु शोभनः अध्यायः स्वाध्यायो या । स्वस्मै स्वात्मने हितः अध्यायः स्वाध्यायो वा सम्यग्युतोऽनुष्ठेयः इति स्वाध्यायो वा । स कथं मूतः स्वाध्यायः । परतातिनिरपेक्षः, परनिन्दा निरपेक्षः परेषामपवादवचनरहितः। स्वाध्याये प्रवृत्तः सन् मुनिः तद्रतचितवचनस्वात् परेषा निन्दां न विवाति निन्दावचनं न वति । पुनः कथंभूतः । दुष्टविकल्पानां रागद्वेषार्तध्या नरौद्रध्याना विविकल्पान परिणामानां नाशनसमर्थः बिनाशने शक्तियुक्तः । अथवा बहिर्द्रव्यविषये पुत्रकलत्रादिचेतनाचेतनरूपे ममेदमिति खरूपः संकल्पः, अहं सुखी अहं दुःखीत्यादिचिन्तागतो हर्षविषादादिपरिणामो विकल्प इति दुष्टसंकल्पविकल्पानां संकल्पविकल्परूपमनःपरिणामामा दुष्टानां स्फेटने समर्थः । खाध्यायं कुर्वन् सन् तङ्गतमानसत्वात् अन्यत्र मनोव्यापारं न करोतीत्यर्थः । भूयोऽपि कर्मभूतः स्वाध्यायः । तत्त्वविनिश्वयहेतुः सत्त्वानां जीवादिपदार्थानां विनिश्चयः निर्णयः निर्धारः निःसंदेहः तस्म हेतुः कारणम्, जीवाविपदार्थानां संशय संदेह स्फेट नहेतुरित्यर्थः । पुनरपि कथंभूतः । ध्यानांस देकर धर्म्यध्यानशुक्रुध्यानयोः सिद्धिं प्राप्तिं निष्पत्ति करोतीति ध्यानसिद्धिकरः, अतः एतच्चानयोः सिद्धिर्भवतीत्यर्थः ॥ ४६१ ॥ और पाँचों इन्द्रियोंके निग्रहको दम कहते हैं। जो शुद्धोपयोगी मुनिं शम दम रूप अपने आत्मस्वरूप में लीन रहता है, उसके खान पान और सेवा शुश्रूपार्ने प्रवृत्तिरूप टोकव्यवहार अर्थात् ऊपर कहा हुआ वैयावृत्य कैसे हो सकता है? उसके तो निश्चय त्रैयावृत्य ही होता है। अतः बाह्य व्यवहार से निवृत्त होकर निर्विकल्प समाधिमें लीन होना ही उत्कृष्ट वैयावृत्य है || ४६० || आगे छः गाथाओंसे स्वाध्याय शपको कहते हैं । अर्थ-स्वाध्यायतप परनिन्दा से निरपेक्ष होता है, दुष्ट विकल्पों को नष्ट करनेमें समर्थ होता । तथा तत्त्वके निश्चय करनेमें कारण है और ध्यानकी सिद्धि करनेवाला है ।। भावार्थ- सुष्ठुरीति पूर्वापर विरोधरहित अध्ययन करनेको स्वाध्याय कहते हैं । अथवा 'ख' अर्थात् आत्माके हित के लिये अध्ययन करनेको खाध्याय कहते हैं । स्वाध्याय परनिन्दासे निरपेक्ष होता है; क्यों कि स्वाध्यायमें लगे हुए मुनिका मन और वचन स्वाध्यायमें लगा होता है इस लिये वह किसी की निन्दा नहीं करता । तथा स्वाध्याय करनेसे राग द्वेष और आर्त रौद्र ध्यान रूप दुष्ट विकल्प नष्ट हो जाते हैं। अथवा पुत्र श्री धन धान्य आदि चेतन अचेतन बाह्य वस्तुओंमें 'यह मेरे हैं। इस प्रकार के परिणामको संकल्प कहते हैं, और 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार चित्तमें होने वाले हर्ष विषादरूप परिणामको विकल्प कहते हैं । स्वाध्याय करनेसे वे दुष्ट संकल्प विकल्प नष्ट हो जाते हैं, क्यों कि स्वाध्याय करनेवालेका मन स्वाध्यायमें ही लगा रहता है । इस लिये उसका मन इधर उधर नहीं जाता । १ परतिथी । 1. : Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६४] १२. धर्मानुप्रेक्षा १५१ पूयादिसु णिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पढेइ भसीए । कम्म-मल-सोहणहूँ सुय-लाहो' मुहयरो तस्स ॥ ४६२॥ [छाया-पूजादिषु निरपेक्षः जिनशास्त्र यः पठति भत्या । कर्ममलशोधनार्थ श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ।। ] तस्व माधो अतस्य मिहाशमायालय मानिर्भवति भूतः श्रुतलाभः । सुखकरः खर्गमुक्तपादिश्मनिष्पादकः । तस्य कस्म । यः साधुः पठति पाठयति स्वयमा येति शिष्यान् अध्यापयति । किं तत् । जिनशार्स जिनप्राप्तसिद्धान्तम् । कया । भक्त्या धर्मानुरागेग परमार्थबुद्ध्या वा । किमर्थम् । कर्ममलशोधार्थम्, कर्माणि झानावरगादीनि तान्येव मला: कर्दमास्तेषा विशोधनार्थ विशोधननिमितं स्फेटनार्थम् । यः कीदृक्षः । पूजादिषु निरपेक्षः पूजालाभख्यातिप्रकसमाद्रव्यादिप्राप्तिा वाच्छारहितः निरीदः ॥ ४६२ ॥ जो जिण-सत्यं सेवदि पंडिय-माणी फलं समीहंतो। साहम्मिय-पडिकूलो सत्थं पि विसं हवे तस्स ॥ ४६३ ॥ [छाया-यः जिनशास्त्र सेवते पण्डितमानी फलं समीहमानःसार्मिकप्रतिकूल: शास्त्रम् अपि विष भक्त् तस्य ।] तस्य मुनेः शास्तं श्रुतज्ञानम् अपि शब्दात् तसंयमधर्मादिक विष हालाहलं कालकूटसर शाई भवेत् जायते, संसारदुःखप्राप्तिहेतुत्वात् । तस्य कस्य । यः पुमान् जिनशास्त्रं सेवते जिने प्रवचन प्रथमानुयोगप्रमुखअतक्षानं भजते सर्व पठति अन्यान् पाठयति। की सन । पण्डितमानी पण्डितोऽहं विधान इत्यात्मानं मन्यते पण्डितमानी विद्यया गर्विष्ठः इत्यर्थः । उक्तं च । 'जाने मददपहर माद्यति यश्च तेन तस्य को वैद्यः । अमृतं यद्विषजातं तस्य चिकित्सा कय क्रियते ॥' इति । पुनः कीदृक् सन् । फले समीहमानः फलं ख्यातियशःकीर्तिप्रशंसापूजापादमर्दनाविकानलामाधिक भोजनमेषजादिक वाछन् वाञ्छां कुर्वन् । भूयोऽपि कोन्विधः । राधर्मिकप्रतिकूलः साघमिकेषु जनेषु सम्बदृष्टिनावकयतिषु परामुखः द्वेषकारीत्यर्थः ॥ ४६३ ।। जो जुद्ध-काम-सत्थं रायादोसेहिं परिणदो पढाइ । लोयावंचण-हेदु सज्झाओ णिप्फलो तस्स ॥ ४६४ ॥ तथा स्वाध्याय करनेसे तत्त्वोंके विषयमें होनेवाला सन्देह नष्ट हो जाता है और धर्म तथा शुक ध्यानकी सिद्धि होती है ।। ४६१ ॥ अर्थ-जो मुनि अपनी पूजा प्रतिष्ठाकी अपेक्षा न करके, कर्म मलको शोधन करनेके लिये जिनशाखोंको भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाम मुखकारी होता है। भावार्थ-आदर, सत्कार, प्रशंसा और धनप्राप्तिकी वाञ्छा न करके ज्ञानावरणआदि कर्म सपी मलको दूर करनेके लिये जो जैन शास्त्रोंको पढ़ता पहाता है, उसे स्वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त होता है ॥ ४६२ ॥ अर्थ-जो पण्डिताभिमानी लौकिक फलकी इच्छा रखकर जिन शासोंकी सेवा करता है और साधी जनोंके प्रतिकूल रहता है उसका शास्त्रज्ञानमी विषरूप है || भावार्थ-जो विधाके मदसे गर्विष्ठ होकर अपनेको पण्डित मानता है और प्रशंसा, पूजा, धन, भोजन, औषधि वगैरहके लाभकी भावनासे जैन शास्त्रोंको पढ़ता तथा पढ़ाता है और सम्पादृष्टि, श्रावक तथा मुनियोंका विरोधी रहता है उसका शास्त्रज्ञान भी विषके तुल्य है; क्यों कि वह संसारके दुःखोंका ही कारण है । कहा मी है-शान घमण्डको दूर करता है । किन्तु जो ज्ञानको ही पाकर मद करता है उसको इलाज कौन कर सकता है ? यदि अमृत ही विष हो जाये तो उसकी चिकित्सा कैसे की जा सकती है?॥१६३ ॥ अर्थ-जो पुरुष रागद्वेषसे प्रेरित होकर लोगोंको ठगने के लिये युद्धशास्त्र और कामशासको पदताई १ ल पूजादिसु (ग'शु }। २ सन्शाओ (), म सुत्रलाहो । ३ ल म स ग राय, राया (१), [रायदोसेडि] । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४६५ [ छाया-यः युद्धकामशास्त्रं रागद्वेषाभ्यां परिणतः पठति । लोकवसन हेतु स्वाध्यायः निष्फलः तस्य ॥ ] तस्य पुंसः स्वाध्यायः शास्त्राध्ययनं निःफले विद्धि वृथा फलदानपरिणतरहितः कार्यकारी न भवति । तस्य कस्य । यः पुमान् युद्धकामशास्त्रं पठति पाठयति चिन्तयति च । युद्धशास्त्रे खङ्गकुन्तशकिगदाचक्र धनुर्वाणादि विद्यादिशास्त्रसंप्रा ममयुद्धादिकशिक्षागजाश्वपरीक्षानरनारीलक्षणामुद्रिकज्योतिष्कवैद्य मन्त्रतत्रौषधियादिशास्त्रं कामशास्त्रं वा रसायनको स्त्रीसेवादिघु श्रुतं काम(सनशात्रं अध्येति परान् अध्यापयति अभ्यासयति । कीदृक् सन् । रागद्वेषाभ्यां परिणतः क्रोधमानमाया• लोभहास्यादिस्त्री वेदादिरागद्वेषः परिणति प्राप्तः, एकत्वं गतः । किमर्थम् । लोकवचनार्थं जनानां प्रतारणनिमित्तम् ॥४६४॥ जो अप्पाणं जाणदि असुइ-सरीरादु तच्चदो भिण्णं । जागरू सख्यं सो सत्थं जाणदे स ॥ ४६५ ॥ [ छाया यः आत्मनि जानाति अशुचि शरीरात् तत्त्वतः भिन्नम् । ज्ञायकरूपरूपं स शास्त्रं जानाति सर्वम् ॥ ] स मुनिः जानाति चेति । किं तत् । शास्त्रं जिनोक्तसिद्धान्तं परमागमम् । कियन्मात्रम् । सर्व द्वादशाङ्गरूपम् । स कः । यो योगी मुमुक्षुः आत्मानं जानाति निर्विकल्पसमाधिना स्वस्वरूपं शुद्धबुद्धचिदानन्दमय परमात्मा ने जानाति वेत्ति अनुभवति । तत्त्यतः परमार्थतः निश्वयतः । कथम् । भिन्नं जानाति । कुतः । अशुविशरीरात् सप्तधातुमलमूत्रात्मकदेहात् भिनं पृथग्भूतं खात्मानं जानाति । कीदृशमात्मानम् । ज्ञायकस्वरूपं ज्ञायकरूपः वेदकखभावः स्वरूपः आत्मा यस्य स तथोक्तस्तं केवलज्ञानदर्शनमयमात्मानमित्यर्थः । कथम् आत्मानं जानन् सर्वशास्त्र जानातीति । तयुक्त च । "जो हि सुदेश भिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिनो भणति लोयपदीवयरा ॥ अ सुदणाणं सव्यं जापदि सुदवली तमाहु जिणा । दणाणमाद सव्यं जम्हा मुदकेवली तम्हा ||" इति ॥ ४६५ ॥ 1 जो गवि जाणदि अप्पं णाण-सरूवं सरीरदो भिष्णं । सो वि जाणदि सत्यं आगम-पाढं कुणतो वि ॥ ४६६ ।। उसका खाध्याय निष्फल है ॥ भावार्थ-कोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद आदि राग द्वेषके वशीभूत होकर दुनियाके लोगोंको कुमार्ग में ले जानेके लिये युद्धमें प्रयुक्त होनेवाले अस्त्र शस्त्रकी विद्याका अभ्यास करना, स्त्रीपुरुषके संभोग से सम्बन्ध रखने वाले कोकशास्त्र, रतिशास्त्र, भोगासनशास्त्र, कामक्रीड़ा आदि कामशास्त्रों को पढ़ना पढ़ाना व्यर्थ है । अर्थात् जो शास्त्र मनुष्यों में हिंसा और कामकी भावनाको जागृत करते हैं उनका पठन पाठन व्यर्थ है । ऐसे ग्रन्थोंके खाध्यायसे आत्महित नहीं हो सकता। इसी तरह लोगोंको ठगाकर धन उपार्जन करनेकी दृष्टिसे सामुद्रिकशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र और वैद्यकशास्त्र को भी पढ़ना व्यर्थ है । सारांश यह है कि जिससे अपना और दूसरोंका हित किया जा सके वही स्वाध्याय स्वाध्याय है ॥ ४६४ || अर्थ-जो अपनी आत्माको इस अपवित्र शरीर से निश्चयसे भिन्न तथा ज्ञायकस्वरूप जानता वह सब शास्त्रोंको जानता है || भावार्थ – स्वाध्यायका यथार्थ प्रयोजन तो अपने शरीर में बसनेवाली आत्माको जानलेना ही है । अतः जो यह जानता है कि सात धातु और मलमूत्र से भरे इस शरीर से मेरी आत्मा वास्तवमें भिन्न है, तथा में शुद्ध बुद्ध चिदानन्द स्वरूप परमात्मा हूँ। केवल ज्ञान केवल दर्शन मेरा स्वरूप है, वह सब शास्त्रोंको जानता है । कहा भी है- 'जो श्रुतज्ञानके द्वारा इस केवल शुद्ध आत्मा को जानता है उसे लोकको जानने देखने वाले केवली भगवान् श्रुतवली कहते हैं | जो समस्त श्रुतज्ञानको जानता है, उसे जिन भगवानने श्रुतकेवली कहा है । क्यों कि पूरा ज्ञान आत्मा अतः वह श्रुतकेवली है । ४६५ ॥ अर्थजो ज्ञानस्वरूप आत्माको शरीरसे भिन्न नहीं जानता, वह आगमका पठन पाठन करते हुए भी शास्त्र " १ पाठ (१) । I Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६८] १२. धर्मानुप्रेक्षा [छाया-य: नैव जानाति आत्मानं ज्ञानस्वरूप शरीरतः भिन्नम् । स नैव जानातिशासम् आगमपाठं कुर्वन् अपि॥] स मुनिः शान जिनोक्तश्रुतशाने नैव जानाति नैव देति । कीटक सन् । आगमपाठ प्रवचनपठनं जिनोक्तश्रुतज्ञानपठन पाठनं च कुर्वन्नपि । अपिशब्दान् अकुर्वाः । स कः । यो योगी नापि जानाति नापि वेत्ति । कम् । आत्मानं स्वचिदानन्द शुद्धचिपम् । कीदृक्षम् । ज्ञानस्वरूपं शुद्धबोधस्यभावं केवलज्ञानदर्शनमयम् । पुनः कीदृशम् । शरीरात् भिमं पृथक्त्वं परमात्मानं न जानाति यः स किमपि शत्रं न जानातीत्यर्थः । तथाहि पचप्रकारः स्वाध्यायः । 'चाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षामायधर्मोपदेशाः।' यो गुरुः पापकियाधिरतः अध्यापनक्रिया फलं गापेक्षते स गुरुः शास्त्रे पाठयति । शाखस्यार्थ वाच्य कथयति प्रन्यार्थद्वयं च व्याख्याति । एवं विविधमपि शास्त्रपदानं पात्राय शिष्याय ददाति उपदिशति सा वाचना कथ्यते । प्रच्छना प्रश्नः अनुयोगः, शास्त्रार्थ जाननषि पृच्छति । किमर्थम् । संदेहविनाशाय । निश्चितोऽप्यर्षः किमर्य पृच्छयते । प्रन्धार्थयबलनानिमित्तम् । सा परदना निमोन्नतिपरप्रतारणोपहासादिनिमित्तं यदि भवति तदा संक्राधिका न भवति २। परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेश मनरग यत्पुनः पुनरम्यसनमनुशीलनं सानुप्रेक्षा, अनित्यादिभावनाचिन्तनानुप्रेक्षा ३ ॥ आधस्थानोच्चारविशेषेण यत शुद्ध घोषणं पुनः पुनः परिवर्तन स अरम्नायः ४ । दृष्टादृष्टप्रयोजनमनपेक्ष्य उन्मार्गविच्छेदनाय संदेहच्छेदनार्थम् अपूर्वार्धप्रकाशमादिकृते केवलमारमयोऽर्थ महापुराणादिधर्म कथाद्यनुकथनं स्तुतिदेववन्दनादिकं च धमापदेशः ५। अस्य स्वाध्यायस्य कि फलम् । प्रजातिशयो भवति, प्रशस्ताभ्यवसायम सेज्ञायते, परमोत्कृष्ठसंवेगः सेपद्यते। प्रवचन स्थितिजागर्ति, तपोवृदियाभाति, अनी चार शोधनं वान, संशयोच्छेदो जाघटीति, मिथ्यावादिभयाधभावो भवति ॥ ४६६ ॥ अथ व्युत्सर्गतपोविधानं गाथात्रयेणाह जल-मल'-लित्त-गत्तो दुस्सह-वाहीसु णिप्पडीयारो । मुह-धावणादि-विरऔ भौयण-समादि-णिरवेक्खो ॥ ४६७ ।। ससरूव-चिंतण-रओ' दुजण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे वि णिम्ममत्तो काओसग्गो तओ तस्स ॥४६८ ॥ को नहीं जानता || भावार्थ-शाखके पठन पाठनका सार तो आत्मस्वरूपको जानना है। शाम पदकर भी जिसने अपने आत्मस्वरूपको नहीं जाना उसने शास्त्रको नहीं जाना । अतः आत्मखरूपको जानकर उसीमें स्थिर होना निश्चयसे स्वाध्याय है । और स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, पृष्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । पापके कामोंसे विरत होकर जो पढ़ानेसे किसी लौकिक फलकी इच्छा नहीं रखता, ऐसा गुरु जो शास्त्रके अर्थको बतलाता है उसे वाचना कहते हैं । जाने हुए ग्रन्थके अर्थको सुनिश्चित करनेके लिये जो दूसरोंसे उसका अर्थ पूछा जाये उसे पृच्छना कहते हैं। यदि अपना बड़प्पन बतलाने और दूसरोंका उपहास करनेके लिये किसीसे कुछ पूछा जाये तो वह ठीक नहीं है । जाने हुए अर्थको एकाग्र मनसे पुनः पुनः अभ्यास करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। शुद्धता पूर्वक पाठ करनेको आम्नाय कहते हैं। किसी दृष्ट अथवा अदृष्ट प्रयोजनकी अपेक्षा न करके उन्मार्गको नष्ट करनेके लिये, सन्देहको दूर करनेके लिये, अपूर्व अर्थको प्रकट करनेके लिये तथा आत्मकल्याणके लिये जो धर्मका व्याख्यान किया जाता है उसे धर्मोपदेश कहते हैं । खाध्याय करनेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है, शुभ परिणाम होते हैं, संसारसे वैराग्य होता है, धर्मकी स्थिति होती है, अतिचारोंकी शुद्धि होती हैं, संशयका विनाश होता है, और मिथ्यावादियोंका भय नहीं रहता ॥ ४६६ ॥ आगे तीन गाथाओंसे व्युत्सर्ग तपको कहते है | अर्थ-जिस मुनिका शरीर जल्ल और मलसे लिप हो, जो दुस्सह रोगके - -..... -. - १लग जलमह। २ ग ससरूवं चिंतणओ। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४६८ [ छाया - जलमललितगात्रः दुःसहव्याधिषु निःप्रतीकारः । मुखभोवनादिविरतः भोजनशष्यादिनिरपेक्षः ॥ स्वस्वरूपचिन्तनरतः दुर्जनसज्जनानां यः खलु मध्यस्थः । देहे अपि निर्ममत्वः कायोत्सर्गः तपः तस्य ॥ ] तस्य तपस्विनः मुमुक्षोः कायोत्सर्गः व्युत्सर्गः व्युत्सर्गाभिधानं तपः तपोविधानम् । कार्यं शरीरम् उत्सृजति ममत्वादिपरिणामेन त्यजतीति कायोत्सर्गः तपो भवेन् व्युत्सर्गाभिधानं तपोविधानं स्यात् । हु इति स्फुटम् । यो मुमुक्षुः देहेऽपि शरीरेऽपि, अपिशब्दात् क्षेत्रवास्तु धनधान्यद्विपदचतुष्पदशयनासन कुप्यभाण्डेषु दशविधेषु बाह्यपरिग्रहेषु निर्ममत्वः ममतारहितः । दशप्रकारो बाह्यपरिग्रहः, तस्य त्यागो बाह्य व्युत्सर्गः देहस्य परित्यागश्च । आभ्यन्तरोपधिभ्युत्सर्गः । तथा 'मिच्छत वेदरामा त हस्सादिया यछोसा । चचारि तह कसाया चोइस अनंतरा गंधा ॥ इति चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाणां व्युत्सर्गः परित्यागः इति अभ्यन्तरम्युत्सर्गः । बाह्याभ्यन्तरोषध्योः इति व्युत्सर्गे द्विप्रकारः 1 पुनः कथंभूतः । दुर्जनस्वजनानां मध्यस्थः, दुर्जनाः धर्मपरामुखाः मिथ्यादृष्टयः उपसर्गकारियो वैरिणो वा, खजनाः सम्यग्दृष्ट्यादयः भातिकजना वा, द्वन्द्वः तेषां तेषु मध्यस्थः रागद्वेषरहितः उदासीनपरिणामः समताभावः । पुनरपि कीदृक्षः । स्वस्वरूपचिन्तनरतः, स्वस्यात्मनः स्वरूप केवलज्ञानदर्शन विदामन्दादिमयं तस्य चिन्तने ध्याने रतः तत्परः । पुनः कीदृक्षः । जलमललितगात्रः, सर्वाङ्गमन्मे जनः मुखनासिकादिभवो मलः ताभ्या जमलाभ्या लिप्तं गात्रं यस्य स तथोक्तः । पुनः कीदृक्षः । दुस्सहव्याधिषु निःप्रतीकारः, दुर्निवाररोगेषु विद्यमानेषु अतिदुःखपीडा वेदना कारि कुटंदर भगंदर जलोदरकुष्टक्षय ज्वरादिरोगसंभवेषु सत्सु औषधोपचारभोजनाच्छादनादिप्रतिकाररहितः । पुनः कीदृक्षः । मुखत्रोवनादिबेरतः, मुखधोवनं वदन प्रधालनम् आदिशब्दात शरीरप्रक्षालनं रागेण इखपादप्रक्षालनं दन्तधावनं नख केशादिसंस्कार करणं च तेभ्यः विरतः विरक्तः 1 पुनरपि कीदृक्षः । भोजनशय्यादिनिरपेक्षः, भोजनम् अशनपानवायावायले त्यादिकम् शय्या शयनस्थानम् पत्यक् मञ्चकादिकम् आदिशब्दात् आसननिवासपुस्तक कमण्डलुपिच्छिकादयो गृन्ते तेषु तेषां वा निर्मता अपेक्षा वाया हा यस्य स निरपेक्षः निःस्पृहः निरीहः ॥ ४६७-६८ ॥ - हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कारसे उदासीन हो, और भोजन शय्या आदिकी अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूपके चिन्तनमें ही लीन रहता हो, दुर्जन और सबनमें मध्यस्थ हो, और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनिके व्युत्सर्ग अर्थात कायोत्सर्ग नामका तय होता है । भावार्थ - काय अर्थात् शरीरके उत्सर्ग अर्थात् ममल त्यागको कायोत्सर्ग कहते हैं । शरीरमें पसीना आने पर उसके निमित्तसे जो धूल बगैरह शरीर से चिपक जाती है उसे जल कहते हैं, और मुँह नाक वगैरह को मल कहते हैं । कायोत्सर्ग तपका धारी मुनि अपने शरीरकी परवाह नहीं करता, इस लिये उसका शरीर मैला कुचैला रहता है, वह रागके वशीभूत होकर मुँह हाथ पैर वगैरह भी नहीं धोता और न केशोंका संस्कार करता है । अत्यन्त कष्ट देनेवाले भगन्दर, जलोदर, कुष्ट, क्षय आदि भयानक रोगोंके होजाने पर भी उनके उपचारकी इच्छा भी नहीं करता । खान पान और शयन आसनसे भी निरपेक्ष रहता है । न मित्रोंसे राग करता है और न अपने शत्रुओंसे द्वेष करता है, अर्थात् शत्रु और मित्रको समान मानता है । तथा आत्मस्वरूप के चिन्तनमें ही लगा रहता है । तत्त्वार्थसूत्र में इस व्युत्सर्गे लपके दो भेद बतलाये हैं- एक बाह्य परिग्रह का लाग और एक अभ्यन्तर परिग्रहका त्याग । खेत, मकान, धन, धान्य, सोना, चांदी, दासी, दास, और बरतन, इन दस प्रकारके बाह्य परिग्रहका त्याग तो साधु पहले ही कर चुकता है । अतः आहार वगैरहका ब्याग बाह्योपाधि त्याग है और मिथ्यात्य, तीन वेद, हास्य आदि छः नोकषाय और चार कषाय, इन चौदह अभ्यन्तर परिग्रहके व्यागको तथा कायसे ममत्रके त्यागको अभ्यन्तर परिग्रह त्याग कहते हैं । इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहको त्यागना व्युत्सर्ग तप है। - ↓ i Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६९] १२. धमोक्षा जो देह धारण-परो उवयरणादी- विसेस-संसन्तो । महिर ववहार-रओ काओसग्गो कुदो तस्स || ४६९ ॥ ३५५ [ छाया - यः देहधारणपरः उपकरणादिविशेषसंसक्तः । चायव्यवहाररतः कायोत्सर्गः कुतः तस्य ॥ ] तस्य तपखिनः कायोत्सर्गाख्यं तपोविधानं कुतः कस्माद्भवति, न कुतोऽपि भवति । तस्य कस्य । यः पुमान् देहपालनापरः, देवस्य शरीरस्य पालनं स्नानभोजनादिना रक्षणं पोषणं तत्र परः । पुनरपि कीदृक्षः । उपकरणादिविशेषसंसक्तः, उपकरणानि पिच्छिकाकमण्डलुपुस्तकानि आदिशब्दात् आरानचकलो च्छी कल्लक कर्तरि कारिका बालनन्त्रप्राकादयो त्यन्ते । तेषां विशेषः चिराचमत्कारकारणसमर्थः, तत्र संसक्तः । पुनरपि कीदृक्षः । वाह्यव्यवहाररतः । जिनकृतसमहोत्सवपूजायात्राप्रतिष्ठा दानमानादिलक्षणः, तत्र रतः आलकः । तथाहि विविधानां वाह्याभ्यन्तराणां बन्धन हेतूनां दोषाणाम् उत्तमस्त्यागो व्युत्सर्गः । आरमना अनुपातस्य एकत्वमनापनस्य आहारादेः त्यागो बाह्योषधिव्युत्सर्गः । क्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वद्दास्यरस्यरतिशोकभयादिदोषनिवृत्तिराभ्यन्तरोपाधिष्युत्सर्गः कामत्यागश्चाभ्यन्तरोपाधिभ्युत्सर्गः । स च द्विविधः, यावज्जीवं नियतकालचेति । तत्र यावज्जीवं त्रिधा । भक्तप्रत्याख्यानं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टेन द्वादशवर्षाणि, अवान्तरी मध्यमः उभयोपकारसापेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमरणम् १ पर प्रतीकारनिरपेक्षमात्मोपकार सापेक्षम् इतिनीभरणम् २ । भोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनमरणम् ३। नियतकालो द्विविधः, निल्यकालः नैमित्तिकथ । नित्य आवश्यकादयः, नैमित्तिकः पार्वणीक्रियाः निषद्याक्रियादयश्च । क्रियाकरणे वन्दनायाः द्वात्रिंशदोषाः, अनादरस्तब्ध प्रविष्टपरिपीडित ।। ४६७-४६८ ।। अर्थ- जो मुनि देहके दोष की लगा रहता है और पीटी, ग उपकरणोंमें विशेष रूपसे आसक्त रहता है, तथा पूजा, प्रतिष्ठा, विधान, अभिषेक, ज्ञान, सन्मान आदि बा व्यवहारोमें ही रत रहता है, उसके कायोत्सर्ग तप कैसे हो सकता है ? ॥ भावार्थ- जैसा ऊपर कहा है कायसे ममत्व व्यागका नाम ही व्युत्सर्ग तप है, इसीसे उसे कायोत्सर्ग या काय व्याग तप भी कहा है। ऐसी स्थिति में जो मुनि शरीरके पोषण में 'लगा रहता है, तरह तरहके स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजनोंका भक्षण करता है, तेल मर्दन कराता है, यज्ञ विधान कराकर अपने पैर पुजवाता है, अपने नामक संस्थाओंके लिये धनसंचय करता फिरता है, उस मुनिके व्युत्सर्ग तप नहीं हो सकता । काययागके दो भेद कहे हैं - एक जीवन पर्यन्त के लिये और एक कुछ कालके लिये । यावज्जीवनके लिये किये गये कापल्यागके तीन भेद हैं-भक्त प्रत्याख्यान मरण, इंगिनीमरण, और प्रायोपगमन मरण । जीवनपर्यन्तके लिये भोजनका परित्याग करना भक्तप्रत्याख्यान है । यह भक्तप्रत्याख्यान अधिकसे अधिक बारह वर्ष के लिये होता है क्यों कि मुनिका औदारिक शरीर बारह वर्ष तक बिना भोजन के ठहर सकता है। जिस समाधिमरणमें अपना काम दूसरेसे न कराकर स्वयं किया जाता है उसे इंगिनी मरण कहते हैं । और जिस समाधिमरणमें अपनी सेवा न वयं की जाये और दूसरोंसे न कराई I जाये उसे प्रायोपगमन मरण कहते हैं। नियत कालके लिये किये जानेवाले कायव्यागके दो भेद हैं-नित्य और नैमित्तिक । प्रतिदिन आवश्यक आदिके समय कुछ देरके लिये जो कायसे ममत्वका त्याग किया जाता है वह नित्य है। और पर्वके अवसरोंपर की जानेवाली क्रियाओंके समय जो कायत्याग किया जाता है वह नैमित्तिक है । है: आवश्यक क्रियाओंमें से वन्दना और कायोत्सर्गके बत्तीस बत्तीस दोष बतलाये हैं | दोनों हाथोंको लटकाकर और दोनों चरणों के बीच में चार अंगुलफा अन्तर रखकर १. मग पाण Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ स्थामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४७०दोलामितादयः ३२ । क्रियाकरणे कायोत्सर्गस द्वात्रिंदादोषाः । व्युत्सृष्टबाहुयुगले चतुरलान्तरितसमपादे साचलमरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषाः स्युः । आर्षे चोक्तम् १"वितस्त्वन्तरपादानं तयशान्तरपाष्णिकम् । सममृज्वायतस्थानमास्थाय रचितस्थितिः । इत्युक्तकायोत्सर्गः । घोटकपाद लतावकं स्वम्भावष्टम्भं कुख्याधित मालिकोबइन शबरीगुह्यगृहनं शंखलितं लम्बितम् उत्तरितं स्तन दृष्ठिः काकाबलोकनं खलीनितं युगकन्धरं कपित्श्चमुष्टिः शीर्षप्रकम्पन मूकसंज्ञा अलिचालनं भ्रक्षेपम् उन्मनं पिशाचम् अष्टदिगबलोकन ग्रीवोचमनं निष्ठीवनम् भास्पर्शन मिति चारित्रसारादी मन्तव्याः। किमर्थ व्युत्सर्गः । निःसंगलं निर्भयत्वं जीवताशानिरासः दोषोच्छेदो मोक्षमार्गभावनापरत्वमित्याद्यर्थम् ॥४६५ || अथ ध्यानमभिधत्ते-- अंतो-मुहुस-मेतं लीणं वत्थुम्मि' माणसं गाणं । शाणं भण्णदि समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥ ४७०॥ । [छाया-अन्तर्मुहूर्तमानं लीनं वस्तुनि मानसे ज्ञानम् । ध्यान भग्यसे समये अशुभं च शुभं च तत् द्विविधम् ॥] समये सिद्धान्ते जिनागमे अभ्यते कथ्यते । कि तत् । ध्यानं घ्यायते चिन्यते इति ध्यानम् । तत् कियकालम् । अन्तर्मुहर्तमात्र मुहूर्तस्य घटिकाइयस्म मध्ये अन्तर्मुहूर्तमात्रम् , अन्तर्मुहूर्तकालं ध्यान तिष्ठतीत्यर्थः । एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तकाल ध्यानं विछतीत्यर्थः । उक्त चोमाखामिना 1 एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । अन्तर्मुहूर्तकाल मर्यादी कृत्य घ्यानं भवति । अन्तर्मुहर्तात परतः एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणवान न भवतीत्यर्थः । कि तत् ध्यानम् , वस्तुनि लीने वस्तुनि पदार्थ जीवादिपदार्थे द्रव्ये पर्याये वा लीनं लयं प्राप्तम् एकत्वं गतम् एकाप्रताप्राप्तम् । मानसशानमेव मनसि भवं मानसोत्पनशान ध्यानमेव । तत् ध्यान द्विविधं द्विप्रकारम्, प्रशस्ता प्रशस्तभेदात् वैधम्, पापास्त्रबाहेतुत्वादशभम् अप्रशस्तमातरौद्रध्यानद्वयम् , शुभं कर्ममलकालनिर्दइनसमर्थ धर्मशुस्वयं प्रशस्तम् ॥४०॥ अथ ते २ ध्याने विभजति निश्चल खड़े रहनेका नाम कायोत्सर्ग है। उसके बत्तीस दोष इस प्रकार हैं--घोड़े की तरह एक पैरको उठाकर या नमाकर खड़े होना, साकी तरह अंगीको हिलाना, स्तम्भक सारस ख होना, दीवारके सहारेसे खड़े होना, मालायुक्त पीठके ऊपर खड़े होना, भीलनीकी तरह जंघाओंसे जघन भागको दबाकर खड़े होना, दोनों चरणोंके बीचमें बहुत अन्तराल रखकर खड़ा होना, नाभिसे ऊपरके भागको नमाकर अथवा सीना तानकर खड़े होना, अपने स्तनों पर दृष्टि रखना, कौवेकी तरह एक ओरको ताकना, लगामसे पीड़ित धोड़की तरह दातोंका कटकटाना, जुएसे पीड़ित बैलकी तरह गर्दनको फैलाना, कैथकी तरह मुट्ठियोंको कारके कायोत्सर्ग करना, सिर हिलाना, गंगेको तरह मुँह बनाना, अंगुलियोंपर गिनना, भृकुटी चलाना, शराबीकी तरह उंगना, पिशाचकी तरह लगना, आठों दिशाओंकी ओर ताकना, गर्दनको झुकाना, प्रणाम करना, थूकना या खकारना और अंगोंका स्पर्श करना, कायोत्सर्ग करते समय ये बत्तीस दोष नहीं लगाने चाहिये ।। ४६९॥ आगे ध्यानका वर्णन करते हैं । अर्थ-किसी वस्तुमै अन्तर्मुहूर्त के लिये मानस ज्ञानके लीन होनेको आगममें ध्यान . कहा है ! वह दो प्रकारका होता है-एक शुभ ध्यान और एक अशुभ ध्यान ॥ भावार्थ-मानसिक ज्ञानका किसी एक द्रव्यमें अथवा पर्यायमें स्थिर होजाना ही ध्यान है । सो मानका उपयोग एक वस्तुमें अन्तर्मुहूर्त तक ही एकाग्र रहता है। तत्वार्थसूत्रमें भी कहा है-'एक वस्तुमें चिन्ताके निरोधको ध्यान कहते हैं, वह अन्तर्मुहूर्त तक होता है । अतः ध्यान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । क्यों कि इससे अधिक काल तक एक ही ध्येयमें मनको एकाग्र रख सकना सम्भव १ लसण वत्थुम्दि। २ म असुई सुद्धं च । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . १ ४७२] १२. धर्मानुप्रेक्षा असु अट्ट-रवदं धम्मं सुकं व सुहयरं होदि । अहं तिब्व- कसायं तिब्व-तम- कसायदो रुई ॥ ४७१ ॥ ३५० [ छाया-अशुभम् आतैरौद्रं धर्म्य च शुभकरं भवति । आर्ट तीमकषायात् तीव्रतमकवायतः रौद्रम् ॥ ] अशुभमाÄरौद्रं भवति । दुःखम् अर्वनं कष्टम् अर्तिर्वा कृतमुध्यते कृते दुःखे भवमार्तम् । स्वः क्रुराशयः कृष्णलेश्यापरिणामः प्राणी । यदस्थ कर्म रौद्र रुद्रे वा भवं रोम् । अशुभम् अप्रशस्तम् । आयमार्तध्यानं प्रथमम् १। द्वितीय रौद्रष्यानमशुभम प्रशखपापप्रकृतिनिबन्धनं नरकगतिप्रदं कृष्णलेश्योद्धवमिति रौद्र्ध्यानमशुभं द्वितीयम् २ । धर्म्यं धर्मध्यानं शुभं प्रशस्तं पुष्यप्रकृतिमन्धनं स्वर्गादिसुखदायकं पारंपर्येण मोक्षहेतुकमिति शुभं प्रशस्तं धर्मध्यानम् । धर्मो वस्तुस्वरूपं धर्मादनपेतं धर्म्यं ध्यानं तृतीयम् ३ । च पुनः शुकं शुक्रभ्यानं मलरहितजीव परिणामोद्भवं शुचिगुणयोगाच्छुकं कुलेश्योद्भवं शुभतरम् अतिशयेन श्रेष्टम् अतिशयेन प्रशस्तं मोक्षदायकमिति चतुर्थ शुक्रभ्यानमिति शुभतरम् । अथ वर्धगाथमा ध्यानामा तीव्रतरादिकषायमेदान् निगदति । अर्द्ध आर्तम् अर्को पीडादिचिन्तने भवमार्त ध्यानम् तीव्रकषायं सीत्राः दादिविशेषाः अनन्तानुबन्ध्यादिकषायाः क्रोधमानमायालोभादयो यस्मिन् आर्तध्याने तत् तथोक्तम् आर्तध्यान चीनकषार्य चैत्यम् । कुतः । तीव्रतम कषायतः तीव्रतमा अस्थिशिलाशक्तिविशिष्टाः अनन्तानुबन्ध्यादिकोषमानमायास्त्रे भादिकषायाः तेभ्यः जातं तीव्रतमकषायोत्पचं रौद्रध्यानं स्यात् ॥ ४७१ ॥ मंद - कसायं धम्मं मंद-तम- कसायदो हवे सुकं । अकसाए वि सुयडे' केवल-णाणे वि तं होदि ॥ ४७२ ॥ [ छायामन्वकषायं धर्म्यं मन्दतमकषायतः भवेत् शुक्रम्। भकषाये अपि श्रुताये केवलज्ञाने अपि तत् भवति ॥ ] ध में खखरूपे भचये ध्यानम् । कीदृक्षम् । मन्दकषायं मन्दाः दानन्तेकभागलताशक्तिविशेषाः अप्रत्याख्यान नहीं है । भ्यान अच्छा मी होता है और बुरा मी होता है । जिस ध्यानसे पाप कर्मका आसव होता हो वह अशुभ है और जिससे कर्मों की निर्जरा हो वह शुभ है || ४७० ॥ आगे इन दोनों ध्यानोंके कहते हैं । अर्थ- आर्तध्यान और रौदध्यान ये दो तो अशुभ ध्यान हैं । और धर्म ध्यान तथा शुक्रभ्यान ये दोनों शुभ और शुभतर हैं। इनमेंसे आदिका आर्तध्यान तो तीन कषायसे होता है और रौद्रध्यान अति तीव्र कषायसे होता है ॥ भावार्थ - अर्ति कहते हैं पीड़ा या दुःखको । दुःखसे होनेवाले ध्यानको आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान तीव्र कषायसे उत्पन्न होता है । कृष्ण लेश्या वाले क्रूर प्राणीको रुद्र कहते हैं, और रुद्रके कर्नको अथवा रुद्र में होनेवाले ध्यानको रौद्र कहते है। यह रौद्रध्यान आर्तध्यानसे भी खराब है, चूंकि यह अत्यन्त तीव्र कषायसे होता है। इसीसे ये दोनों अशुभ ध्यान है । धर्मसे युक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं । यह धर्मध्यान शुभ है, क्योंकि इससे पुण्यकमका बन्ध होता है, अतः यह स्वर्ग आदिके सुखोंको देनेवाला है तथा परम्परासे मोक्षका भी कारण है। जीवके निर्मल परिणामोंसे अथवा शुक् लेश्यासे ही होनेवाले ध्यानको शुरु ध्यान कहते हैं। यह ध्यान सफेद रंग की तरह स्वच्छ होता है, इस लिये 'शुचि' गुणसे युक्त होनेके कारण इसे शुक्र ध्यान कहते हैं । यह ध्यान धर्मध्यान से मी श्रेष्ठ है क्योंकि मोक्षकी प्राप्ति इसी ध्यानसे होती है || ४७१ ॥ अर्थ - धर्मध्यान मन्द कषायसे होता है, और शुक्रध्यान अत्यन्त मन्द कषायसे होता है । तथा यह ध्यान कषाय रहित श्रुत ज्ञानीके और केवल ज्ञानीके भी होता है | भाषार्थ - धर्मध्यान अस्माख्याना १ म सुगडे । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वी Harveen ३५८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा ७२प्रत्याख्यानसंज्वलनकषायाः कोधमानभायालोभादयः तारतम्यभावेन. यस्मिन् धर्मध्याने तत् मन्दकवायम् । धर्मध्यान मन्दकरायोदयेनोत्पन्न शुभछेदमात्रयबलेन जातं स्यात् । शुक्र शुक्रध्यानं स्यात् । कुतः । मन्दतमकवायतः मन्दतमरः लतादिशक्तिमिशिष्टाः संज्यस्नादयः कषायाः क्रोधादयः तेभ्यः जातं शुभतरशुरलेट्यावसेनोत्पलम् । अपिशब्दात् म केवलं तत्र गन्दतमरूपाये अपाये ईषदास्यादिकषाये अपूर्वकरणादौ निकषाये उपशान्तकषाये क्षीणकषाये । कीडशे । श्रुताब्ये पूर्वाधारिणि पृथरिवतर्कवी चाराख्यम् एकल वितर्कावीचारास्यं च भवति । तत् शुक्र होदि भवति न केवल तत्र केवलज्ञाने प्रयोदशगुणस्थाने चतुर्दशगुणस्थाने च केलिभि सूक्ष्म कियाप्रतिपातिश्परतक्रियानिवृशिलक्षणे दे सके ध्याने भक्तः । तथाहि 'शुके नाये पूर्वविदः । आधे द्वे शुक्रव्याने पृथत बबितर्कवीचारकत्वधितर्कावीचारसंझे पूर्वविदः सकल श्रुतज्ञानिनः द्वादशाङ्गश्रुतवेदिनः नवदशचतुर्दशपूर्वधरस्म मा साधुवर्गस्य भवतः, श्रुतक्रेवलिनः संजायते इत्यर्थः । चकारादमध्यानमपि भवति 'व्याख्यानतो विशेष प्रतिपतिर्न संदेहादलक्षणम्' इति वचनात् । श्रेण्यारोहणात् पूर्व धर्मध्यान भवति । श्रेण्योपशमक्षायिकयोस्तु द्वे शुक्रध्याने भवतः । तेन सकलश्रुतधरस्यापूर्वकरणात् पूर्व धर्म्य ध्यानं योजितम् । अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे सक्षमसाम्पराये उपशान्तकषाये चेति गुणस्थानचतुष्टये पृयक्त्ववितर्कवीचार नाम प्रथमं शुमच्यानं भवति । क्षीणकषायगुणस्थाने तु एकस्ववितर्कावीबारे भवति । 'परे केवलिनः' परे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवर्तिनानी द्वे शुक्रध्याने केवलिनः प्रक्षीणरामस्तज्ञानावृतेः सयोगकेवलिनोऽयोगकेवलिनश्चानुक्रमेण ज्ञातव्यम् । कोऽसौ अनुक्रमः । सुक्ष्मक्रियाप्रतिपातितृतीयशुमध्यानं सयोगस्य केवलिनो भवति । व्युपरतक्रिमानिर्ति चतुर्थ शुक्रध्यानम् भयोगस्य घरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायके उदयमें होता है । इसलिये अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है । क्यों कि इन गुणस्थानों में कषायकी मन्दता रहती है। किन्तु मुख्यरूपसे धर्मध्यान सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थानमें ही होता है; क्यों कि सातवें गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपाय का तो उदय ही नहीं होता और संचलन कषायका भी मन्द उदय होता है । तथा शुरुभ्यान उससे मी मन्द कषायका उदय होते हुए होता है । अर्थात् जब कि धर्मध्यान तीन शुभ लेश्याओंमें से किसी एक शुभ लेश्याके सद्भावमें होता है तब शुक्लध्यान केवल एक शुक्ल लेश्यावालेके ही होता है । अतः सध्यान आठवें अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें होता है, क्यों कि आठवें नौवें और दसवें गुणस्थानमें संचलन कषायका उत्तरोत्तर मन्द उदय रहता है, तथा सातवें गुणस्थानकी अपेक्षा मन्दतम उदय रहता है। किन्तु शुक्ल यान कषायके केवल भन्दतम उदयमें ही नहीं होता, बल्कि कषायके उदयसे रहित उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें और क्षरण कषाय नामक बारहवें गुणस्थानमें भी होता है । तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवानके भी होता है । आशय यह है कि शुक्लध्यानके चार भेद हैं-पृथक्तरवितर्कवीचार, एकत्वनितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ध्युपरतक्रियानिवृत्ति । इनमेंसे आदिके दो शुक्ल ध्यान बारह अंग और चौदह पूर्वरूप सकल श्रुतके ज्ञाता श्रुतकेवली मुनिके होते हैं। इन मुनिके धर्मध्यान भी होता है । किन्तु एक साथ एक व्यक्तिके दो ध्यान नहीं हो सकते, अतः श्रेणि चढ़नेसे पहले धर्म ध्यान होता है, और उपशम अथवा क्षपक श्रेणिमें दो शुक्ल भ्यान होते हैं । अतः सकल श्रुत धारीके अपूर्वकरण नामक आठवें गुण स्थानसे पहले धर्मध्यान होता है, और आठवे अपूर्वकरण गुणस्थानमें, नौवें अनिवृतिकरण गुणस्थानमें, दसर्ने सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें, ग्यारहवें उपशान्त कषाय गुणस्थानमें पृथक्त्व वितर्कवीचार नामक पहला शुक्लध्यान होता है । क्षीण कषाय नामक बारहवें गुणस्थानमें एकत्व वितर्क अवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान होता है। सयोग Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -908] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३५९ केवलिनः स्यात् । धर्मध्यानं अप्रमत्तसंयतस्य साक्षाद्भवति । अमिरतसम्यग्दृष्टिदेशविरसप्रमत्तसंयतानः तु गोणत्या धर्म ध्यान वेदितव्यमिति । 'परे मोक्षहेतू' परे धर्मशुक्रे द्वे ध्याने मोक्षहेतू मोक्षस्य परमनिर्वाणस्य हेतू कारणे भवतः । तत्र धर्म्यं ध्यानं पारंपर्येग मोक्षस्य कारणम्, शुक्रभ्याने तु साक्षात मोक्षकारणमुपशमश्रेण्यपेक्षया तु तृतीये भवे मोक्षदायकम् । भार्तरी द्वे ध्याने संसारहेतुकारणे भवतः इति ॥ ४७२ ॥ अथ गाथाद्वयेन चतुर्विधमार्तध्यानं चित्रणोति निक ही वर्णन है। किया है चौधर चकार संग्रहण दुक्खयर - विसय जोए केम इमं चयदि' इदि विचिंततो । चेदि' जो विक्खितो अट्ट झाणं' हवे तस्स ॥ ४७३ ॥ महर - विसय-विओगे" कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो सो विय अहं वे शाणं ॥ ४७४ ॥ [ छाया - दुःखकरविषययोगे कथम् इमे व्यजति इति विचिन्तयन् । चेष्टते यः विक्षिप्तः भर्तध्यान भक्त तस्य ॥ मनोहर विषय वियोगे कथं तत् प्राप्नोमि इति विकल्पः यः । संतापेन प्रवृत्तः तत् एष आर्त भवेत ध्यानम् ॥ ] तस्य जीवस्य आर्तध्यानं भवेत् । तस्म कस्य । यो जीवः इति चिन्तयेत् ध्यायेत् तिष्ठति आखे । इति किम् । दुःखकर विषय योगे दुःखकराः आत्मनः प्रदेशेषु दुःखोत्पादका विषयाः चेतनाचेतनाः । चेतनविषयाः कुत्सितरूपदुर्गन्धशरीरदौर्भाग्य दुष्टकलत्रदुष्टपुत्रमित्रभृत्यशञ्जुसर्पादिकाः । अचेतनविषयाः परप्रयुक्तशस्त्रविषकष्टकादयः । तेषाम् अनिष्टानां संयोगे मेलापके सति इममनिष्ठपदार्थ के [ केम ] कथं केन प्रकारेण त्यजामि मुचामि इत्यपर ध्यान रहितत्वेन पुनःपुन चिन्तनं प्रवर्तनम् । केवल सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है और अयोग केवली के व्युपरतक्रिया निवृत्ति नामक चौथा शुक्रभ्यान होता है | शुरुध्यान मोक्षका साक्षात् कारण है। किन्तु उपशम श्रेणि अपेक्षा में तीसरे भवमें मोक्ष होता है; क्योंकि उपशम श्रेणिमें जिस जीवका मरण हो जाता है। वह देवगति प्राप्त करके और पुनः मनुष्य होकर शुरू ध्यानके बलसे मोक्ष प्राप्त करता है || ४७२ ॥ आगे आर्त ध्यानका वर्णन करते हैं । अर्थ- दुःखकारी विषयका संयोग होनेपर 'यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है, उसके आर्तध्यान होता है। तथा मनोहर विषयका वियोग होनेपर 'कैसे इसे प्राप्त करूँ' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःखसे प्रवृद्धि करता है यह भी आर्तध्यान है । भावार्थ- पहले कहा है कि किसी प्रकारकी पीड़ा से दुःखी होकर जो संकेश परिणामोंसे चिन्तन किया जाता है वह आर्तध्यान है । यहाँ उसके दो प्रकार बतलाये हैं । दुःख देनेवाले की, पुत्र, मित्र, नौकर, शत्रु, दुर्भाग्य आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग मिल जानेपर 'प्राप्त अनिष्ट पदार्थसे किस प्रकार मेरा पीछा छूटे' इस प्रकार अन्य सब बातों का ध्यान छोड़कर बारंबार उसी की चिन्तामै मन रहना अनिष्ट संयोग नामका आर्तध्यान है । तथा अपनेको प्रिय लगनेवाले पुत्र, मित्र, स्त्री, भाई, धन, धान्य, सोना, रत्न, हाथी, घोड़ा, वस्त्र आदि इष्ट वस्तुओंका वियोग हो जानेपर 'इस वियुक्त हुए पदार्थको कैसे प्राप्त करूँ' इस प्रकार उसके संयोगके लिये वारंवार स्मरण करना इष्ट वियोग नामका दूसरा आर्तध्यान हैं । अन्य ग्रन्थों में आर्तध्यानके चार प्रकार बतलाये हैं। इस लिये संस्कृत टीकाकारने अपनी टीकामें भी चारों आर्तध्यानों का वर्णन किया है। उन्होंने उक्त गाथा नं. ४७४ के उत्तरार्ध 'संतावेण पयत्ते' को अलग करके तीसरे आर्तव्यानका वर्णन किया है, और उसमें १ [ चयमि]। २ व चिदि । ‍म अ नं ४ कसग बियोगे । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सन् विक्षि [ गा० ४७३कथम् एतस्य मत्सकाशात् विनाशो भविष्यति यास्यतीति चिन्द्रात्रयः अनियोग वि व्याकुलता प्राप्तः आकुल व्याकुलमना इति श्रनिष्टसंयोगाभिधानम् आर्तध्यानम् १ । सो चिय तदेवार्तध्यानं भवेत् । तत् किम् । यः इत्यमुना प्रकारेण विकरूपः मनतो वस्तुविषये परिचिन्तनं विकरूपः मेदो वा । इति किम् । मनोहरविषयवियोगे सति, मनोहराः विषयाः इष्टपुत्रमित्रकलत्रासूधनधान्यसुवर्ण रजगजतु र जनस्त्रादयः तेषां वियोगे विप्रयोगे तं वियुक्त पदार्थ कथं प्रापयामि लभे तत्संयोगाय वारंवारं स्मरणं विकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध वियोगाख्यं द्वितीयमार्तध्यानम् २ | संतापेन पीडाश्चिन्तनेन वातपित्त चष्म व कुठंदर भगंदर शिरोर्तिजठर पीडाबेदनानां संसापेन पीडितेन प्रवृतः विकल्पः चिन्ता प्रबन्धः कथं वेदनाया विनाशो भविष्यतीति पुनः पुनचिन्तनम् अङ्गविक्षेपाक्रन्दकरणादिपीड । चिन्तनं तृतीयमार्तध्यानम् ३ । चकारात् निदानं दृष्टश्रुतानुभवेइपरलोकभोगाकांक्षाभिलाषः निदानं चतुर्थमार्तध्यानं स्यात् ४ । तथा हि ज्ञानार्णवे तवार्थादौ च " अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम् । रुकप्रकोपात्तृतीयं स्यानिदानात्तुर्यमजिनाम् ॥” अनिष्टयोगम्, तद्यथा । "ज्वलनवनविषास्त्रध्याशार्दूलदैलैः स्थलजलबिलसवैदुर्जनारातिभूपैः । स्वजनधन शरीरध्वंसिमिस्तैरनिष्ठेर्भवति यदिह योगादाद्यमार्तं तदेतत् ॥” "राजैश्वर्य कलत्रबान्धवसुहत्सौभाग्यभोगात्यये चित्तप्रीतिकर प्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा । संत्रास भ्रम शोकमोहविवशैर्यविद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिवियोग तनुमतां ध्यानं कलङ्कास्पदम् ॥” “कासश्वासभगन्दरोदरजराकुष्ठातिसार ज्वरैः, पित्तश्लेष्ममप्रकोपजनित रोगैः शरीरान्तर्कः । स्याच्छश्वत्प्रबलैः प्रतिक्षणभhool, द्रोगार्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वारमुः खाकरम् ॥" "भोगा भोगीन्द्रसेव्या स्त्रिभुवनजयिनी रूपसाम्राज्यलक्ष्मी, राज्यं श्रीगारिचकं विजितमुरवधूलास्यलीला युवत्यः । अन्यचेदं विभूनं कथमिह भवतीत्यादिचिन्तासुभाजी, योगार्तमुक्तं परमगणधरैर्जन्मसंतान सूत्रम् ॥” “पुण्यानुष्ठान जातैरमिलषति पदं यज्जिनेन्द्रामराणां यज्ञा तैरेव वाञ्छत्य• हित कुल कुच्छेदमन्तकोपात् । पूजा सत्कारलाभप्रभृतिकमथवा जायते यद्विकल्पैः स्यादार्त तष्ठिदानप्रभवमिद नृणां दुःख | आये 'च' शब्दसे चौथे आर्तध्यानको ले लिया है। ज्ञानार्णव आदिमें इन चारों आर्तध्यानौका विस्तारसे वर्णन किया है जो इस प्रकार है-अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, रोगका प्रकोप और निदानके निमित्तसे आर्तध्यान चार प्रकारका होता है। अपने धन आप्त और शरीरको हानि पहुँचनेवाले अग्नि, विष, अख्ख, सर्प, सिंह, दैव्य, दुर्जन, शत्रु, राजा आदि अनिष्ट वस्तुओंके संयोगसे जो आर्तव्यान होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हैं । चित्तको प्यारे लगनेवाले राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, बन्धु, मित्र, सौभाग्य और भोगोंका वियोग हो जानेपर शोक और मोहके वशीभूत होकर जो रात दिन खेद किया जाता है वह इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। शरीरके लिये यमराजके समान और पित्त, कफ़ और वायुके प्रकोप से उत्पन्न हुए खांसी, श्वास, भगंदर, जलोदर, कुष्ठ, अतीसार, ज्वर, आदि मयानक रोगसे मनुष्यों का प्रतिक्षण व्याकुल रहना रोगज आर्तिध्यान है । यह दुर्बार दुःखकी खान है । भोगी जनके द्वारा सेवनेयोग्य भोग, तीनों लोकोंको जीतनेवाली रूपसम्पदा, शत्रुओंसे रहित निष्कंटक राज्य, देवांगनाओंके विलासको जीतनेवाली युवतियाँ, अन्य भी जो संसारकी विभूति है वह मुझे कैसे मिले, इस प्रकारकी चिन्दा करनेवालोंके भोगज आर्तध्यान होता है । गणधर देवने इस आभ्यानको जन्म परम्पराका कारण कहा है। पुण्यकर्मको करके उससे देव देवेन्द्र आदि पदकी इच्छा करना, अथवा पूजा, सत्कार, धनलाभ आदिकी कामना करना अथवा अत्यन्त क्रोधित होकर अपना अहित करनेवालोंके कुलके विनाशकी इच्छा करना निदान नामका आर्तध्यान है। वह आर्तध्यान मनुष्योंके लिये दुःखोंका घर है । इस आर्तध्यानका फल अनन्त दुःखोंसे भरी हुई तिर्यश्चगतिकी प्राप्ति ही है। यह आर्त ध्यान कृष्णनील आदि अशुभ लेश्या के प्रतापसे होता है। और पापरूपी दावानलके लिये ईंधनके समान है । मिध्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि इन चार I i + Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४७५] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३६१ दावोप्रधाम ॥” “अनन्तदुःखसंकीर्णमस्य तिर्यगातिः फलम् । क्षायोपशमिको भावः कालान्तर्मुहूर्तकः ॥" " शङ्काशोकभयप्रमानकलहचिन्ताश्रमान्तयः उन्मादो विषयोत्सुकत्वमराकृनिद्राजान्यमाः । मूर्च्छादीनि शरीरिणामनिरतं विज्ञानि बाथान्यलमाधिष्ठितचेतसा श्रुनधरेयवर्णितानि स्फुटम् ॥ "कृष्णनीलाल दयाबलेन विजृम्भते । इदं दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥" "अवश्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यभिभक्षणे विश्वसानमेतद्धि यथान भूमिकम् ॥” “संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते । प्रमत्तसंयताना तु निदानरहितं त्रिधा ।" तदविरतदेशविस्तप्रमसंगतानां तु मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रा संयत सम्यग्गुणस्थान चटुण्यवर्तिनाम विरताना तच्चतुर्विधमार्तध्यानं स्यात् । देशभिरताना भावकाणां पञ्चमस्थानवर्तिनां निदानं न स्यात, सशल्यानां तिलाघटनात् । अथवा स्वल्यनिदानशयेनः णुवतित्वाविरोधात् । देताना चतुर्विधमप्यार्तध्यानं संगच्छते एवं संताना मुनीनां पष्टगुस्थानवर्तिनां निदानं चिना त्रिविधमार्तध्यानं स्यात् । तचातंत्रयं प्रमादस्पोदयाधिक्यात कदाचित्संभवति । द्रव्यसंपहीकायाम् "अनिष्टवियोगेष्टसंयोगव्याधिप्रतीकारभोगनिदानेषु वाच्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम् मिश्रयायादितारतम्यभावेन पनुणस्थानवर्तिजीव संभवम् । यद्यपि पिष्टन निर्यावरण के निद्राय सम्यग्दृष्टीना न भवति । कस्मादिति चेत्, स्त्रशुद्धात्मेवोपावेय इति विशिष्प्रभावनालेन तत्कारणभूत संक्लेशाभावादिति ।" नारित्रसारे 'चतुर्विधमार्तध्यानं प्रमादाधिष्ठान प्रागप्रमात् षड्गुणस्थान भूमिकम्' इति । तथायें । 'प्रायमायोमैनोतरार्थयोः स्मृतियोजनं । निवेदनापायविषये वानुचिन्तने ॥ ' इत्युक्तमार्तमात्मचिन्त्यं ध्यानं चतुर्विधम् । प्रमादाधिष्ठितं ततु गुणस्थानसंश्रितम् ॥' इति ॥ ४७३ -४ ॥ अष चतुर्विधध्याने गावाद्वयेन निगदति I हिंसाणंदेण जुदो असच वयणेण परिणदो जो हु' । तत्व अरि-ति रुह झाणं हवे तस्स ॥ ४७५ ॥ [ छाया - हिंसानन्देन युतः असत्यवचनेन परिणतः यः खलु । तत्र एव स्थरचित्तः रौद्रं ध्यानं भवेत् तस्य ॥ ] तस्य रौद्रप्राणिनः रौद्रं ध्यानं भवेत् । तस्य कस्य । यस्तु हिंसानन्देन युक्तः, हिंसायां जीवववादी जीवानां बन्धनतर्जनता वनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणायां परपीडायां संरम्भसमारम्भारम्भलक्षणायाम् आनन्दः हर्षः तेन युक्तः सहितः । परपीडायाम् अत्यर्थसंकल्पाध्यवसानं ती कषायानुरजनम् इदं हिंसानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । तथथा । "हते निःपीडिते गुणस्थानवर्ती असंयती जीवोंके चारों प्रकारका आर्तध्यान होता है। तथा पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत श्रावकों के भी चारों प्रकारका आर्तव्यान होता है । किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती प्रसयत मुनियों के निदानके सिवाय शेष तीनों आर्तध्यान प्रमादका उदय होनेसे कदाचित् हो सकते हैं। परन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यादृष्टियोंका आर्तध्यान तिर्यश्वगतिका कारण होता है, फिर मी जिसने आगामी भक्की आयु पहले बांधली है ऐसे सम्यग्दृष्टी जीवोंको छोड़कर शेष सम्यग्दृष्टियों के होनेवाला आर्तध्यान तिर्यचगतिका कारण नहीं होता; क्यों कि 'अपनी शुद्ध आत्माही उपाय है' इस विशिष्ट भावना बलसे सम्पादृष्टि जीवके ऐसे संष्टि मात्र नहीं होते जो तिर्यगतिके कारण होते हैं ||४७३- ४७४ ॥ आगे दो गाथाओं द्वारा चार प्रकारके रौद्रध्यानको कहते हैं । अर्थ- जो मनुष्य हिंसा में आनन्द मानता है और असत्य बोलने आनन्द मानता है तथा उसीमें जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसके रौद्र ध्यान होता है । भावार्थ- जीवों को बांधने, मारने पीटने और पीड़ा देनेमें ही जिसे आनन्द आता है। अर्थात् जो तीव्र कषायसे आविष्ट होकर दूसरोंको पीड़ा देनेका ही सदा विचार करता रहता है उसके हिंसानन्द नामक रौद्रध्यान होता है। कहा भी है- 'स्वयं अथवा दूसरेके द्वारा जन्तुओंको पीड़ा पहुँचनेपर या उनका विनाश होनेपर जो हर्ष होता है उसे हिंसा रौद्रध्यान कहते हैं । हिंसाके काम में १ क मसग दु ( १ ) 1 कार्त्तिके० ४६ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४७६ ध्वस्ते जन्तुजाते दर्थिते । स्वेन चान्येन यो हस्तद्विसारौद्रमुच्यते ॥" "हिंसा कर्मणि कौशलं निपुणता पायोपदेशे मृर्श, शक्ष्यं नास्तिकशाराने प्रतिदिनं प्राणातिपाते रतिः । संत्रासः सह निर्देयेर बिरतं नैसर्गिकी क्रूरता, यरस्याद्देहभृता तदन गदितं रौद्रं प्रशान्ताशयैः ॥" "केनोपायेन घातो भवति ततुमतो का प्रवीणोऽत्र हन्ता, हन्तुं कस्यानुरागः कतिभिरिह दिनैईन्यते जन्तुजातम् । हत्वा पूज करिष्ये द्विजगुरुमस्तां पुष्टिशान्यर्थमित्थं यत्स्यादिसामिनन्दो अगति तनुभृतां वृद्धि प्रणीतम् ॥" "गगनजलधरित्रीचारिणां देहभाजा, दलनदहनबन्धच्छेदषा तेषु यदनम् । दृतिन खकरनेत्रो पाटने कौतुकं यत्, तहि गदिता रौद्रमेवम् ॥” जन्तुपीडने दृष्टे श्रुते स्मृने यो हर्षः हिंसानन्दः परेषां वघादिचिन्तने हिंसानन्दः, इति हिंसानन्दः प्रथमः १ अत्यवचने परियतः मृषावादकघने परिणतः अमृतानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । तथाहि । "विधाय वञ्चकं शास्त्रं मार्गमुद्दिश्य निर्दयम् । प्रयास व्यसने लोकं भोक्यऽहं वाञ्छितं सुखम् ॥" "असल चातुर्यबलेन लोकाग्रहीष्य एकारम्यादिजानन्धुरणि ।" "असत्यसामयवशादराती नृपेण वान्येन च घातयामि । अदोषियां दोषचयं विधाय चिन्तेति रौद्राय मता मुनीन्द्रः ॥" " अनेकासत्यसंकल्यः प्रमोदः प्रजायते । मृषानन्दात्मकं रौद्रं तत्प्रणीनं पुरातनैः ॥" कीदृक्षः सन् । तत्रैव स्थिरचितः अनुतानन्दे विचितः । इति मृषानन्दं द्वितीयं विध्यानम् २ ॥ ४७५ ॥ पर - विलय हरण-सीलो सगीय-विसए सुरक्खणे दक्खो । लय-चिंताविडो निरंतरं तं पि रुद्द पि ॥ ४७६ ॥ [ छाया - परविषयहरणशीलः स्वकीयविषये सुरक्षये दक्षः । तद्रतम्बिताविष्टः निरन्तर तदपि सदम् अपि ॥ ] अपि पुनः तदपि निरन्तरं रौद्रव्यानं भवेत् । तत् किम् परविषयहरणशीलः परेषां विषयाः रत्नभूवणैरुत्यादिधनधान्य . कुशल होना, पापका उपदेश देनेमें चतुर होना, नास्तिक धर्ममें पण्डित होना, हिंसासे प्रेम होना, निर्दय पुरुषोंके साथ रहना और स्वभावसे ही क्रूर होना, इन सबको वीतरागी महापुरुषोंने रौद्र कहा है । 'प्राणियोंका घात किस उपाय से होता है ? मारनेमें कौन चतुर है ? किसे जीवघातसे प्रेम है ! कितने दिनों में सब प्राणियों को मारा जा सकता है : मैं प्राणियों को मारकर पुष्टि और शान्तिके लिये 'ब्राह्मण, गुरु और देवताओंकी पूजा करूँगा । इस प्रकार प्राणियोंकी हिंसा में जो आनन्द मनाया जाता है उसे रौद्रध्यान कहा है।' आकाश, जल और थलमें विचरण करनेवाले प्राणियों के मारने जलाने बांधने, काटने वगैरह का प्रयत्न करना, तथा दांत, नख वगैरह के उखाड़ने में कौतुक होना यह भी रौद्र ध्यान ही है |' सारांश यह है कि जन्तुको पीड़ित किया जाता हुआ देखकर, सुनकर या स्मरण करके जो आनन्द मानता है वह हिंसानन्दि रौद्रध्यानी है तथा - 'ठगविद्या शास्त्रोंको रचकर और दयाशून्य मार्गको चलाकर तथा लोगोंको व्यसनी बनाकर मैं इच्छित सुख भोगूँगा, असत्य बोलने में चतुरता बलसे में लोगों से बहुतसा धन, मनोहारिणी कन्याएँ वगैरह ठगूँगा, मैं असत्यके बलसे राजा अनवा दूसरे पुरुषोंके द्वारा अपने शत्रुओंका घात कराऊँगा, और निर्दोष व्यक्तियों को दोषी साबित करूंगा, इस प्रकारकी चिन्ताको मुनीन्द्रोंने रौद्रध्यान कहा है ।।' इस प्रकार अनेक असत्य संकल्पों के करनेसे ओ आनन्द होता है उसे पूर्व पुरुषोंने मृषानन्दि रौद्र ध्यान कहा है ।। ४७५ ।। अर्थ- जो पुरुष दूसरोंकी विषयसामग्रीको हरनेका स्वभाववाला है, और अपनी विषयसामग्री की रक्षा करनेमें चतुर है, तथा निरन्तर ही जिसका चित्त इन दोनों कामों में लगा रहता है वह भी रौद्र ध्यानी है ॥ भावार्थ- दूसरोंके रत्न, सोना, चांदी, धन, धान्य, स्त्री, वस्त्राभरण वगैरहको चुराने में ही १ लमसग चित्ता । सतं विरुदं । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुमेक्षा कलनवस्त्राभरणादयः तेषां हरणे चौर्यकर्मणि ग्रहणे अदत्तादाने शील म्खभात्रो यस्य स तथोकः । इति खेयानन्दः । तथा "यचौर्याय शरीरिणामहरहश्चिन्ता समुत्पद्यते, कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वन्ति यसततम् । चौर्येणापड़ते परैः परधने यजायते संभ्रमस्तचौर्यप्रभव बदन्ति निपुणा रौद मुनिन्दास्पदम् ।।" "द्विपदचतुष्पदसारे धनधान्यवराङ्गनासमाकीर्गम् । वस्तु परकीयमपि मे खाधीन चौर्यसामर्थ्यात् ।।" "इत्थं चुराया विविध प्रकारः शरीरिभिर्यः फियतेऽमिलापः । अपारदुःखार्णवाहेतुभूत रौद्र तृतीयं तदिह प्रणीतम् ।।" इति तृतीय चौर्यानन्दच्यानम् ३ । खकीयविषयसुरक्षणे दक्षा स्वकीययुवतीद्विपदचतुष्पदस्वाधखाद्याशनपानमुम्वरश्रवणसुगन्धगन्धमहणधनधान्यगृहवस्त्राभग्णादीनां रक्ष रक्षार्या यनकरणे दक्षः चतुरः निपुणः । इदं विषयानन्दाख्यं रौद्रन्यानम् । तद्यया। "बहारम्भपरिप्रहेषु नियत रक्षार्थमभ्युद्यते, यसंकल्पपरम्परा वितनुते प्राणीह रौद्राशयः । यथालम्ब्य महस्वमुनतमना राजेत्यहं मन्यते, तत्तुर्य प्रवदन्ति निर्मलधियो रोद भरार्शसिनाम् ॥" इति विषयाभिलाषे आनन्द दर्षः विषयानन्दचतुर्य ध्यानम् ४ । कीहक्षः । तद्तचित्ताविष्टः तेषु हिंसामृतस्तेमविषयेषु गत वितं मनः । पिानश्यर मेयो कोद्रमविरतदेशविरतयोर्मवति। पशगुणस्थानस्वामिकामेत्यर्थः । रिध्यावाविपश्चममुणस्थानपर्यन्ताना जीवाना रौद्रध्यानं स्यात् । ननु अविरतस्य रीट्रध्यानं जाण्टीत्येव देशविरतस्य च संगच्छते। साधकं भवता यद, एकदेशेन विरतस्य कदाचित्प्राणातिपातायभिप्रायात् । धनादिसंरक्षणवाद कर्य न घटते, परमयं तु विशेषो देशसंयतस्य रौद्रमुत्पद्यते एव पर नरकादिगति. कारण सम भवति, सम्यत्वरसमण्डितत्वात् । तथा ज्ञानार्णवे । “कृष्णलेश्यावलोपेतं वभ्रपातफलाद्वितम् । रौद्रमेतसि जीवानी स्मात् पञ्चगुणभूमिकम् ॥" "करतादण्डपारुष्य धमकावं कठोरता । निर्दयस्व र लिङ्गानि रौदस्योकानि सूरिभिः॥" जिसे आनन्द आता है वह चौर्यानन्दि रौद्रध्यानी है । कहा भी है-प्राणियोंको जो रातदिन दूसरोंका धन चुरामेकी चिन्ता सताती रहती है, तथा चोरी करके जो अत्यन्त हर्ष मनाया जाता है, तथा चोरीके द्वारा पराया धन चुराये जानेपर आनन्द होता है, इन्हें चतुर पुरुष चोरीसे होनेवाला रौद्रध्यान कहते है, यह रौद्रयान अत्यन्त निन्दनीय है ।। दास, दासी, चौपाये, धन, धान्य, सुन्दर स्त्री वगैरह जितनी मी पराई श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं, चोरीके बलसे वे सब मेरी हैं। इस प्रकार मनुष्य अनेक प्रकारकी चोरियोंकी जो चाह करते हैं वह तीसरा रौद ध्यान है, जो अपार दुःखोंके समुद्र डुबानेवाला है ।। अपने सी, दास, दासी, चौपाये, धन, धान्य, मकान, पक्ष, आभरण वगैरह विषय सामग्रीकी रक्षामें ही रात दिन लगे रहना विषयानन्दि रौद्रध्यान है। कहा मी है-इस लोकमें रौद्र आशयबाला प्राणी बहुत प्रारम्भ और बहुत परिग्राइकी रक्षाके लिये तत्पर होता हुआ जो संकल्प विकल्प करता है तया जिसका आलम्बन पाकर मनखी अपनेको राजा मानते हैं। निर्मलज्ञानके धारी गणधर देव उसे चौथा रौद्रप्पान कहते हैं ।। तखार्यसूत्रमें भी कहा है कि हिंसा, झूठ, चोरी और विषयसामग्रीकी रक्षामें आनन्द माननेसे रौद्रध्यान होता है। वह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर, देशविरत नामक पञ्चमगुणस्थान पर्यन्त जीवोंके होता है । वहाँ यह शंका हो सकती है कि जो व्रती नहीं हैं, अविरत है उनके भले ही रौद्रध्यान हो, किन्तु देशपिरतोंके रौदध्यान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि हिंसा आदि पापोंका एक देशसे त्याग करनेवाले देशविरत श्रावकके भी कभी कभी अपने धन वगैरह की रक्षा करनेके निमित्तसे हिंसा वगैरहके भाव हो सकते हैं। अतः रौदध्यान हो सकता है, किन्तु वह सम्यग्दर्शन रूपी रकसे शोभित है इस लिये उसका रौद्रध्यान नरक गतिका कारण नहीं होता है । चारित्रसारमें भी कहा है-यह चार प्रकारका रौद्ध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालेके होता है, और निम्यादृष्टिसे लेकर पंचमगुणस्थानवी जीवोंके होता है । किन्तु मिथ्याष्टियोंका Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४७७ "विस्फुलिङ्गनि नेत्रे का भीषणाकृतिः । कम्पः स्वेदादिलिङ्गानि रौदे बाधानि केहिनाम् ॥” “क्षायोपशमिको भावः कालान्तर्मुहूर्तकम् । तुष्टाशयवश | देत द प्रशस्तावलम्बनम् ॥” तथा चारित्रसारे । 'इदं रौद्रध्यानचतुष्टयम् कृष्णनीलझागेतलेश्यावलाधानं प्रमादाधिष्ठानम् प्राक् प्रमत्तात् गुणानभूमिकमन्तर्मुहूर्त कालम् अतः परं दुर्धरत्वात् क्षायोपशमिकभाव परोक्षज्ञानत्वात औदयेिकभावं घा भावलेश्या कपाय प्रधानत्वात् नरकगतिफलम् इति । तथा च तच्चतुर्विधं रौद्रध्यानं तारतम्येन मिथ्यादृष्ट्यादिपञ्चगुणस्थानवर्तिजीवसंभवम् । तच मिध्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्क विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति । कुतः । सदृष्टीनां विशिष्टभेदज्ञानबलेन तत्कारणभूततीत्र संकेशाभावादिति ॥ ४७६ ॥ अधार्तरौद्रध्यान परिहारेण धर्मंध्याने प्रवृत्तिं दर्शयति विणि वि असु झाणे पाव- णिहाणे य दुक्ख-संताणे । तम्ही दूरे वजह धम्मे पुणे आयरं कुणह || ४७७ || [ छाया- द्वे अपि अशुमे ध्याने पापनिधाने च दुःखसंताने । तस्मात् दूरे वर्जन धर्मे पुनः आदरं कुरुत ॥ ] वर्जस्व भो भन्या, यूयं त्यजत दूरे अत्यर्थ दरं शं परिहरत के द्वे अपि अशुने ध्याने, आर्तदाख्येयाने ड्रिंके त्यजत । किं कृत्वा । ज्ञात्वा विदित्वा । कथंभूते द्वे । पापनिधाने दुरितस्य स्थाने च पुनः दुःखसंताने नरकतिर्यग्गतिदुःखोत्पादके पुनः आदर सत्कार कुरव भो भव्य, विधेहि । क । धर्मे धर्मस्थाने आदरं खं कुरान ॥ ४७७ ॥ को धर्मः इत्युक्ते, धर्मशब्दमभिधत्ते धम्मो वत्-सहावो खमादि भावो यँ दस-विहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८ ॥ [ छाया धर्मः वस्तुस्वभावः क्षमादिभावः च दशविधः धर्मः । रात्रयं च धर्मः जीवानां रक्षणं धर्मः ॥ ] वस्तूनां खभावः जीवावीनां पदार्थानां स्वरूपो धर्मः कथ्यते । विजशुद्धबुद्धैकस्वभावात्मभावनालक्षणो वा धर्मः । च पुनः रौद्रध्यान नरकगतिका कारण है, किन्तु बद्धायुष्कोको छोड़कर शेष सम्यग्दृष्टियों के होनेवाला रौद्रध्यान नरक गतिका कारण नहीं है, क्योंकि भेदज्ञानके बलसे सम्यग्दृष्टियोंके नरकगतिका कारण तीव्र संक्केदा नहीं होता । ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थमें कहा है- 'क्रूरता, मन वचन कायकी निष्ठुरता, ठगपना, निर्दयता ये सब रौद्रके चिह्न हैं | नेत्रोंका अंगारके तुल्य होना, भ्रुकुटिका टेढ़ा रहना, भीषण आकृति होना, क्रोधसे शरीरका काँपना और पसेत्र निकल आना, ये सब रौद्रके बाह्य चिह्न होते हैं । ४७६ ॥ आगे आर्त और रौदध्यानको छोड़कर धर्मध्यान करनेकी प्रेरणा करते हैं। अर्थहै भव्य जीवों, पापके निधान और दुःखकी सन्तान इन दोनों अशुभ ध्यानोंको दूरसे ही छोड़ो और धर्मध्यानका आदर करो || भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि आर्त और रौद्र ये दोनों अशुभ ध्यान पापके भण्डार हैं और नरकगति व तिर्यच गतिमें ले जानेवाले होनेसे दुःखोंके कारण हैं । अतः इन्हें छोड़कर धर्मध्यानका आचरण करो || ४७७ ॥ आगे धर्मका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- वस्तु भावको धर्म कहते हैं। दस प्रकारके क्षमा आदि भावोंको धर्म कहते हैं । रत्नत्रयको धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा करनेको धर्म कहते हैं । भावार्थ - यहाँ आचार्यने धर्म के विविध स्वरूपोंको बतलाया है । जीव आदि पदार्थोंके खरूपका नाम धर्म है। जैसे जीव शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप है । यही चैतन्य उसका धर्म है। अभिका स्वरूप उष्णता है। यही उसका धर्म है । तथा उत्तम १ क भ स ग णचा २ पुणु । 4 छ म अ । ४ म रक्स . · . Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८०] १२. धर्मानुप्रेक्षा क्षमादिभायः दशविधो धर्मः । उत्तमक्षमामादत्रार्जवसत्यशौचसंयमतपस्यागाकिंचयनह्मचर्यपरिगामः परिणतिः दशप्रकारो धर्मः कथ्यते । च पुनः, रात्रय भेदसम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकं रमानां त्रितयं धर्मो भव्यते। च पुनः, जीवानां रक्षणो धर्मः, पमस्थावराणां सूक्ष्मवादराणां प्रसानांद्वीन्द्रियादीनां प्राणिना रक्षर्ण कृपाकरणं धो भण्यते। 'अहिंगा. लक्षणो धर्मः' इति वचनात् ॥४७८ ॥ अथ कस्य धर्मध्यानं इत्युक्ते प्ररूपयति धम्मे एयग्ग-मणो जो णवि वेदेदि पंचहा-विसयं । बेरग्ग-मओ णाणी धम्मज्झाण हवे तस्स ॥ ४७५.॥ छाया- धर्मे एकाग्रमनाः यः नव वेदयति पश्चधाविषयम् । वैराग्यमयः ज्ञानी धर्म यानं भवेत् तस्य ॥] तस्य योगिनः ध्यातुर्मव्यस्य धर्माख्यं ध्यानं भवेत् । तस्य करस्य । यो मध्यः धर्मे एकाप्रमनाः धर्म निजद्धबुद्धकस्वभावात्मभावनालक्षणे पूर्वोक्तोत्तमक्षमादिवझविधे निश्चयव्यवद्धाररत्नत्रयरूपे था । एकाग्रमना एकाप्रचितः आर्तरौद्रध्यानं परित्यज्य तदमध्यानगतचित्तः। निक्षलव धर्मे इत्यर्थः । कथंभृतः । स ध्याता इन्द्रियविषयं न वेदयति, पञ्चन्द्रियाणां समुद्भवविषयम् अर्थ नानुभवति स्पर्शनादिपञ्चन्द्रियाणा स्पर्शादिसप्तविंशतिविषयान नानुभवति न सेवते न भजते इत्यर्थः । पुनः कीदृक्षः, वैराग्यमयः संसारशरीरभोगेषु विरक्तिविरमणं देराम्य तत्पचुरे यस्य स वैराग्यमयः । प्राचुर्ये मयदप्रत्ययः । पुनः कीदृक्षः । ज्ञानी मेदज्ञानवान् ॥ ४७९ ॥ अथ धर्म यानस्योक्तमत्वं गाथात्रयेणाह सुविसुद्ध-राय-दोसो बाहिर-संकप-बमिमी धीरो। एयग्ग-मणो संतो जं चिंतइ तं पि सुह-झाणं ॥ ४८०॥ [छाया-सुषिशुद्धरागद्वेषः बाह्यसंकरपवर्जितः धीरः। एकाग्रमनाः सन् यत् चिन्तयति तदपि शुभध्यानम् ॥] तदपि शुभध्यामं धर्मध्यानं भवेत् । तत् किम् । यत् चिन्तयति । कः । सन् सत्पुरुषः भन्यवरपुण्डरीकः । कीटक सन् 1 सुविशुद्धरागद्वेषः, सुप अतिशयेन विशुद्धी शोधन प्राप्ता नाशितौ रागद्वेषौ येन स तथोकः । कोधमानमायालोभरागद्वेषादि क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य रूप आत्मपरिणामको मी धर्म कहते हैं । इसीको शास्त्रों में धर्मके दस मेद कहा है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप तीन रनोंको भी धर्म कहते हैं। तथा सब प्रकारके प्राणियोंकी रक्षा करनेको भी धर्म कहते हैं। क्यों कि ऐसा कहा है कि धर्मका लक्षण अहिंसा है ।। ४७८ ॥ आगे धर्मभ्यान किसके होता है यह बतलाते हैं ! अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष धर्ममें एकाग्र मन रहता है, और इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभत्र नहीं करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसीके धर्मध्यान होता है ॥ भावार्थ- उपर धर्मके जो जो खरूप बतलाये हैं, जो उन्होंमें एकाग्र चित्त रहता है, अर्थात् अपने शुद्ध बुद्ध चैतन्य खरूपमें ही सदा लीन रहता है अथवा उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों और रसत्रय रूप धर्मका सदा मन वचन कायसे आचरण करता है, मन बचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे किसी मी जीव को कष्ट न पहुंचे इसका ध्यान रखता है, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके विषयोंका कभी सेवन नहीं करता, संसार, शरीर और भोगोंसे उदासीन रहता है, उसी ज्ञानीके धर्मध्यान होता है ।। १७९ ।। आगे तीन गायाओंसे धर्मध्यानकी उत्तमता बतलाते हैं । अर्थ-राग द्वेषसे रहित जो धीर पुरुष वाश संकल्पविकल्पोंको छोड़कर एकानमन होता हुआ जो विचार करता है वह भी शुभ ध्यान है ॥ भावार्थशुभ ध्यानके लिये कुछ बातोंका होना आवश्यक है । प्रथम तो राग और द्वेषको दूर करना चाहिये । {मसगजोण वेदेदिरंदिवं विसयं। २ म स ग धम्म झा (ज्झा) णं । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८१ रहित इत्यर्थः । पुनः कीटक् । बाह्य संकल्पवर्जितः, बाह्यानां शरीरादीनां संकल्पः मनसा चिन्ततं तेन वर्जितः रहितः | क्षेत्रवास्तु धनधान्यद्विषदचतुष्पदादिषु पुत्रकलत्रादिषु ममेदं चिन्तनम् अहं सुखी इत्यादिचिन्तनारहितो वा । पुनः कीदृक् । धीरः धियम् आत्मधारणां बुद्धि राति गृह्णातीति धीरः, उपसर्गपरीषहृसहनसमय दा । पुनः कथंभूतः । एकामनाः एकra: धर्मेध्याने चित्तः निवलः । एवंविधो भ्याता योगी शुभध्यानम् आशापायविपाक संस्थानविचयं धर्मध्वानं चिन्तयतीत्यर्थः ॥ ४८० ॥ स-सव-समुभासो हु-ममतो जिर्दिदिओ संतो अप्पा तिसारोह माह ॥ ४८१ ॥ [ छाया - स्वस्वरूपसमुद्वासः नष्टममत्वः जितेन्द्रियः सन् आत्मानं चिन्तयन् शुभध्यानरतः भवेत् साधुः ॥ ] साधुः सावयति स्वीकरोति स्वात्मानं स्वात्मोपलब्धिलक्षणं मोक्षमिति साधुः योगीश्वरः । कर्मभूतः । शुभध्यानरतः धर्मध्यानतत्परो भवेत् । कीदृक्षुः पुनः । स्वस्वरूपसमुद्भासः स्वस्यात्मनः स्वरूपं केवलज्ञानदर्शनानन्तसुखादिस्वभावः तस्य समुद्भासः प्राकथं प्रकटीकरणं यस्य स तथोक्तः । आत्मनः ज्ञानादिप्रकटकरणोश्चम इत्यर्थः । साधुः पुनरपि कीदृक्षः । नष्टममत्वः नष्टं गतं विनष्टं ममलं ममेदमिति ममता यस्य स तथोक्तः निरीहः निःस्पृह इत्यर्थः । पुनः कीदृक् । जितेन्द्रियः जितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि येन स जितेन्द्रियः इन्द्रियवशीकर्ता । वशी पुनः कीदृक्षः । आत्मानं चिन्तयन् शुद्धचिदानन्दं ध्यायन् सन् एवंभूतः साधुः स्वात्मानं ध्यायतीत्यर्थः ॥ ४८१ ॥ वज्जिय-सयल - वियप्पो अप्प-सरुवे मणं णिरुंधतो' । जं चिंतदि साणंद तं धम्मं उत्तमं शाणं ॥ ४८२ ॥ [ यया - वर्जित सकल बिकल्पः आत्मस्वरूपे मनः निरुन्धत् । यत् चिन्तयति सानन्दं तत् धर्म्यम् उत्तमं ध्यानम् ॥ ] तत् उत्तमम् उत्कृष्टं श्रेष्ठं नरं धर्म्यं ध्यानं भवति । तत् किम् । यत् सानन्दम् आनन्वनिर्भरम् अनन्तसुखस्वरूप परमात्मानं चिन्तयति ध्यायति । किं कृत्वा । आत्मारूपे खशुद्धबुद्धेकचिदानन्दे मनः चितं संकल्पविकल्परूप मानसं निरुभ्मारोपयित्वा इत्यर्थः । कीदृक्षः सन् । वर्जितसकलविकल्पः, वर्जिताः दूरीकृताः सकलाः समस्ताः विकल्पाः अन्तयाममत्वपरिणामाः दूसरे, स्त्री पुत्र धनधान्य सम्पदा मेरी है । मैं इन्हें पाकर बहुत सुखी हूँ इस प्रकार बाह्य वस्तुओंमें मनको नहीं जाना चाहिये और तीसरे उपसर्ग परीषह वगैरहको सहनेमें समर्थ होना चाहिये । उक्त बातों से सहित मनुष्य जो भी एकाग्र मनसे विचार करता है वहीं धर्मध्यान है ॥ ४८० ॥ अर्थ - जिसको अपने स्वरूपका भान हो गया है, जिसका ममत्र नष्ट हो गया है और जिसने अपनी इन्द्रियोंको जीत लिया है, ऐसा जो साधु आत्माका चिन्तन करता है वह साधु शुभ ध्यानमें लीन होता है ॥ ४८१ ॥ अर्थ - सकल विकल्पों को छोड़कर और आत्मस्वरूपमें मनको रोककर आनन्दसहित जो चिन्तन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है | भावार्थ संकल्प विकल्पोंको छोड़कर अनन्त सुखस्वरूप आत्माका आनन्दपूर्वक ध्यान करना ही श्रेष्ठ धर्मध्यान है । इस धर्मध्यानके चार मेद कहे हैंआज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । ये चारों प्रकारका धर्मध्यान असंयत सम्यग्दा, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती जीवोंके होता है । यद्यपि मुख्यरूपसे यह पुण्यबन्धका कारण है, फिर भी परम्परासे मुक्तिका कारण है। इन चारों धर्मध्यानोंका स्वरूप इस प्रकार है- अपनी बुद्धि मन्द होने और किसी विशिष्ट गुरुका अभाव होनेपर जिन भगवान के द्वारा कहे गये नौ पदार्थ और उत्पाद व्यय धौव्य तथा गुण पर्यायसे युक्त छ द्रव्योंकी सूक्ष्म चर्चाका १ व सज्झाणरज । २ कम सग पिरुभिशा । ३ व धम्मज्ञाणं । जत्य इत्यादि । * Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थानाये अनुप्रेताओं पृष्ठ . -४८२] १२. धर्मानुप्रेक्षा येन स तयोकः । तथा हि आर्तरौद्रपरिया गलक्षणमाज्ञापायविपाकसंस्था नविचया संज्ञा चतुर्भेदभिन्नं तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यादृष्टिदेशविश्लप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयताभिधान चतुर्गुणस्थानवर्ति जीवसंभवं मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परंपरा मुक्तिकारणं चेति । तयथा । स्त्रयं मन्दबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावेऽपि शुद्धजीवाजीवास्वतबन्धसंबरनिर्जरामोक्षपुण्यपापद्वय सहितनवपदार्थाना सप्ततत्त्वानां जीवादिदव्याणां षण्णां द्रव्यपर्याय मुगयुक्तानाम् उत्पादन्ययधन्यसहिताना सूक्ष्मत्वे सति सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिनंद हन्यते | आज्ञासिद्धं तु तद्राद्यं नान्यथा वादिनां जिनाः ॥' इति श्लोक कथितक्रमेण पदार्थानां निश्चयकरणमाज्ञाविचयवर्मध्यानं भभ्यते १ तथैव भेदाभेदरमत्रयभावनानास्माकं परेषां वा कर्मणामपायो विनाशो भविष्यतीति चिन्तनमपायविचयध्यानं ज्ञातव्यम् २ शुद्धनिश्वयेन शुभाशुभकर्मविपाक्ररहितोऽव्ययं जीवः पश्वादनादिकर्मबन्धवशेन पापस्योदयेन नारकादिदुः खविपाकफलमनुभवति । पुण्योदयेन देवादिसुखविधा कफलमनुभवति । इति विचारणं विपाकविचयं विशेयम् ३। पूर्वको कान प्रेक्षा चिन्तनं संस्थानविचयमिति ४ । चतुर्विधधर्मध्यानं भवति । तथा दशविधं धर्मध्यानं भवति । "अपायोपायजीवाज्ञाविपाका जीव हेतवः । विरागमसंधानान्येतेभ्यो विचयं भयेन ॥ सदृयामत्तान्ता ध्यायन्ति शुभदषया । धर्मं विशुद्धिरूपं यद्वागद्वेषादिशान्तये ॥।” स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं धर्मध्यानं दशप्रकारम् । एतद्दशविधमपि दृष्टश्रुतानुभूतेहपरलोकभोगाकाक्षादोपवर्जनपरस्परस्य मन्दतरकषायानुरञ्जितस्य भच्यवर पुण्डरीकस्य भवति । एकान्तनिरञ्जनस्थाने पल्यङ्कासनस्य वा वामहस्ततलस्योपाने दक्षिणहस्ततलस्थापितस्य नासिकाप्रस्थापितलोचनस्य प्रेमः शुभध्यानं स्यात् । अपायचिचयं नाम अनादिसंसारे यथेष्टचारिणो जीवस्य मनोवाक्कायप्रवृत्तिविशेषोपार्जितपापानां परिवर्जनं तत्कथं नाम मे स्यादिति । अथवा मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः स्वजीवस्य अन्येषां व। कथम् अपायः विनाशः स्यादिति संकल्पः चिन्ता प्रबन्धः प्रथमं धर्म्यम् | १ | उपायविचर्य प्रशस्तमनोवाक्काय प्रवृति विशेषोऽवश्यः कथं मे स्यादिति संहोऽध्यवसानं वा, दर्शन मोहोदया भिन्तादिकरणत्रशाजीवाः सम्यग्दर्शनादिभ्यः परासुखा इति चिन्तनम् उपायविघयं द्वितीयं धर्म्यम् २ | जीवविचयं जीव उपयोगलक्षणो द्रव्यार्थादनाद्यनन्तो असंख्येय प्रदेशः स्वकृतशुभाशुभकर्मफलोपभोगी गुणवान, आत्मोपालदेहमात्रः प्रदेशसंहरणविसर्पणधर्मा सूक्ष्मः अव्याघातः ऊर्ध्वगतिस्वभाव 1 ३६७ 4 'जिन भगवानके द्वारा कहा हुआ तस्य बहुत सूक्ष्म है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता । उसे जिन भगवान की आज्ञा समझकर ग्रहण करना चाहिये, क्यों कि जिन भगवान मिथ्यावादी नहीं होते।' इस उक्ति के अनुसार श्रद्धान करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । रत्नत्रयकी भावना के बलसे हमारे तथा दूसरोंके कर्मों का विनाश होता है ऐसा विचारना अपायविचय धर्मध्यान हैं । अनादिकाल से यह जीव शुभाशुभ कर्मबन्धमेंसे पापकर्मका उदय होनेपर नरकादि गतिके दुःखोंको भोगता है और पुण्यकर्मका उदय होनेपर देवादि गतिके सुखोंको भोगता है, ऐसा विचार करना विपाक विचय धर्मध्यान है । पहले लोकानुप्रेक्षा में कहे गये लोकके स्वरूपका विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है । इस प्रकार धर्मध्यानके चार भेद हैं। सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव राग द्वेषकी शान्तिके लिये शुभ भावोंसे इन धर्मध्यानोंको ध्याते हैं । इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगोंकी चाह को सदोष जानकर भन्दकषायी भव्य जीव निर्जन एकान्त स्थान में पत्येकासन लगाये और अपनी गोद में बाईं हथेली के ऊपर दाहिनी हथेलीको रखकर तथा दोनों नेत्रोंको नासिकाके अग्रभागमें स्थापित करके शुभध्यान करे | धर्मध्यानके दस भेद भी कहे हैं जो इस प्रकार हैं। इस अनादि संसार में स्वच्छन्द विचरण करनेवाले जीवके मन वचन और कायकी प्रवृत्तिविशेषसे संचित पापोंकी शुद्धि कैसे हो ऐसा विचारना अपायविचय धर्मध्यान है । अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र में फँसे हुए जीवोंका कैसे उद्धार हो ऐसा विचार करते रहना अपायविचय धर्मध्यान है । मेरे मन वचन और कायकी शुभ प्रवृत्ति कैसे हो ऐसा विचार करना अथवा दर्शनमोहनीयके उदयके कारण Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा ३६८ [गा० ४८२मादिकर्मबन्धनबद्धस्तत, क्षयान्मोक्षभागी इत्यादिनामस्थापनाद्रव्यमावनिर्देशादिसदादिप्रमाणनवनिक्षेपविषय इत्यादि जीवस्वभावानुचिन्तनं वा जीवा उपयोगमया अनायनिधना मुहतररूपा जीवस्वरूपचिन्तनं जीवयिंचयः तृतीय धर्म्यम् । ३ । अजीवविये जीवभावविलक्षणानाम् अचेतनानां पुलधर्माधर्माकाशनुष्याणाम् अनन्तविकल्पपर्याय स्वभावानुचिन्तनं चतुर्थ धर्म्यम् ।। बिपाकविषयम् अपविधकर्माणि नामस्थापनाद्रध्यभावलक्षणानि मुलखेतरोलरप्रकृतिविकल्पविस्तृतानि गुडखण्डसिताभृतमधुरविपाकानि निम्बकाजीरविपद्दालाहलकदकविपाकानि चतुर्विधबन्धानि लतादासअस्थिशैलस्वभावानि कासु कामु गतिमोनिषु अवस्थासु च जीवानां विषया भवन्ति उदय गान्ति विपाऋविशेषानुचिन्तनं पञ्चमं धर्म्यम् । ५। विरामविचयं शरीरमिदमनित्यमपरित्राण विनश्वरम्लभायमाचे विदाषाधिष्ठितं सप्तधातुमय बहुमलमूत्रादिपरिपूर्णम् अनवरतनिष्यन्दितलोतोबिलम् अतिबीभत्सम् आधेयम् शौचमपि पूतिगन्धि सम्यग्ज्ञानिजनवैराग्यहेतुभूतं नास्त्यत्र किचित्कमनीयम् इन्द्रियमुख्यानि प्रमुखरसिकानि किग्रावसाननिरमानि किपाकपाकविपाकानि पराधीनानि अनरस्थानप्रचुरभवराणि यावत् यावदेषां रामणीयकं तात्रत्तावदोगिना तृष्णाप्रसंगोऽनवस्थः । ग्रथामेरिन्धनै जलनिधेर्नदीसहस्रेण न तृप्तिः तथा कस्याप्यतः न तृप्तिरूपशान्तिश्च । ऐहिकामुत्रिकविनिपातहेतवः तानि देहिनः सुखानीति मन्यन्ते महादुःखकारणान्यनात्मनीनत्वादिष्टाग्यप्यनिष्टानीति वैराग्यकारणविशेषानुचिन्तनम् । अथवा संसारदेविषयेषु दुःखहेतुत्वानित्मचिन्तन विरागचिन्तनं षष्ठं धर्म्यम् । ६ । भवविचर्थ सचित्ताचित्तमिश्रशीतोष्ण मिश्रसंवृतविवृत मिनभेदासु योनिषु जरायुजाण्डजपो. जीव सम्यग्दर्शन वगैरहसे विमुख हो रहे हैं इनका उद्धार कैसे हो इसका विचार करना उपाय विचय धर्मध्यान है | जीवका लक्षण उपयोग है, द्रव्यदृष्टिसे जीव अनादि और अनन्त है, असंख्यात प्रदेशवाला है, अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंके फलको भोगता है, अपने शरीरके बराबर है, आत्मप्रदेशोंके संकोच और विस्तार धर्मवाला है, सूक्ष्म है, व्याघात रहित है, ऊपरको गमन करनेका खभाववाला है, अनादि कालसे कर्मबन्धनसे बँधा हुआ है, उसके क्षय होनेपर मुक्त हो जाता है, इस प्रकार जीवके मुक्त और संसारी स्वरूपका विचार करना जीवविचय नामक तीसरा धर्मध्यान है । जीवसे विलक्षण पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन अचेतन द्रव्योंकी अनन्त पर्यायोंके खरूपका चिन्तन करना अजीवविचय नामक चौथा धर्मध्यान है । आठों कोंकी बहुतसी उत्तर प्रकृतियाँ हैं, उनमेंसे शुभ प्रकृतियोंका विपाक गुड़ खांड शक्कर और अमृतकी तरह मधुर होता है तथा अशुभ प्रकृतियोंका विपाक लता, दारु, अस्थि और शैलकी तरह कठोर होता है, कर्मबन्धके चार प्रकार हैं, किस किस गति और किस किस योनिमें जीवोंके किन २ प्रकृतियों का बन्ध, उदय वगैरह होता है, इस प्रकार कोंके विपाकका विचार करना विधाकाविचय नामक पौंचया धर्म ध्यान है। यह शरीर अनित्य है, अरक्षित है, नष्ट होनेवाला है, अशुचि है, वात पित्त और कफका आधार है सात धातुओंसे बना है, मलमूत्र वगैरहसे भरा हुआ है, इसके छिद्रोंसे सदा मल बहा करता है, अत्यन्त बीभत्स है, पवित्र वस्तुएँ भी इसके संसर्गसे दूपित होजाती हैं, सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंके बैराग्यका कारण है, इसमें कुछ भी सुन्दर नहीं है, इसमें जो इन्द्रियों है वे भी किंपाक फलके समान उत्तरकालमें दुःखदायी हैं, पराधीन हैं, ज्यों ज्यों भोगी पुरुष इनसे भोग भोगता है त्सों त्यों इसकी भोगतृष्णा बढ़ती जाती है। जैसे ईन्धनसे अग्निकी और नदियोंसे समुद्रकी तृप्ति नहीं होती है वैसे ही इन इन्द्रियोंसे भी किसीकी तृप्ति नहीं होती । ये इन्द्रियाँ इसलोक और परलोकमें पतन की कारण हैं, प्राणी इन्हें सुखका कारण मानता है, किन्तु वास्तवमें ये महादुःखकी कारण हैं, क्योंकि ये आत्माकी हितकारक नहीं है, इसप्रकार वैराग्यके कारणोंका चिन्तन करना विरागचिन्तन नामका छठा धर्मध्यान हैं। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८२ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३६९ तोपमादभूच्छेमजन्मनो जीवस्य भवाद्भवान्तरसंक्रमणे इषुग तिपाणिमुकाला टिकागो मूत्रिकाः चेति । तत्र इघुगतिर विश्रद्धा एकसामयिकी ऋवी संसारिणां सिद्धानां च जीवानां भवति । पाणिमुका एक विग्रहा द्विसामयिकी संसारिर्णा भवति । लाङ्गलिका द्विविग्रहा वैमामयिकी भवति । गोमूत्रिका त्रिविग्रहा चनुःसामयिकी भरति । एवमनादिसंसारे भ्रमतो जीवस्य गुणविशेषानुपलब्धिस्तस्य भवसंक्रमणं निरर्थकमित्येवमादिभवन्तंक्रमणदोषानुचिन्तनं वा चतुर्गतिमभ्रमणयोनिचिन्तनं भवविचयं सप्तमं धर्म्यन् । । यथावस्थितमीमांसा संस्थानविचर्य तत् द्वादशविधम् | अनिलम १ अशरणम् २ संसारः ३ एकत्वम् ४ अन्यलम् ५ अचित्वम् ६ आवः ७ संतः ८ निर्जरा ९ लोक १० बोधिदुर्लभः ११ धर्मखाड्यातः १२ इत्यनुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयम् अष्टमं धर्म्यप्यानम् | ८ | आज्ञावित्रयम् अतीन्द्रियज्ञानविषयं ज्ञातु चतुर्यु ज्ञानेशभावात परलोकचन्धमोक्ष लोकालो कस दत्त द्विवेदनीय धर्माधर्मकालव्यादिपदार्थेषु सर्वज्ञप्रामाण्यात् त्यागमकमिति न सम्यदर्शनस्वभावात् निश्चयचिन्तनं सर्वज्ञागमं प्रमाणीकृत्य अत्यन्तपरीक्षार्थावधारणं वा आशा विचर्य नवमे ध्यानम् ९ हेतुविषयम् आगमविप्रतिपत्तौ नैगमादिनयविशेषगुणप्रधानभावोपनयदुर्धर्षस्याद्वादशक्तिप्रतिक्रियाक्लाम्विगः तर्कानुसारिरुचेः पुरुषस्य स्वसमयगुणपर समय दोष विशेष परिच्छेदेन यत्र गुगप्रकारः तत्राभिनिवेशः पूर्वापार समवस्थानगुणानुचिन्तनं हेतुचिचयं दशमं धर्म्य ध्यानम् १० । सर्वमेतत धर्मध्यानं पीतपद्मशुकुलेश्या वयाधानम् अविरता दिसरागगुणस्थानभूमिकं द्रव्यभावात्मक प्रकृतेिक्षयकारणम् । आ अप्रमत्तान अन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावं स्वर्गापवर्गगतिफलसंवर्तनीयं शेष कविंशतिभावलक्षणमोहनीयोपशमयनिमित्तम् । तत्पुनः धर्मध्यानमाभ्यन्तरं बाह्यं च सहजशुद्ध परम चैतन्यशालिने निरानन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेवबुद्धिं कृला पश्वादनन्तज्ञानोऽहमनन्तसुखोऽहमित्यादिभाषनारूपमाभ्यन्तर सुचित्त, अचित्त, सचिनाचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत, संवृतविवृत ये नौ योनियाँ हैं । इन योनियों में गर्म, उपपाद और सम्मूर्छन जन्मके द्वारा जीव जन्म लेता है। जब यह जीव एक भवसे दूसरे भवमें जाता है तो इसकी गति चार प्रकारकी होती है- इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिका गति । इषुगति बाणकी तरह सीवी होती है, इसमें एक समय लगता है । यह संसारी जीवोंके भी होती है और सिद्ध जीवों भी होती है। शेष तीनों गतियाँ संसारी जीवों ही होती हैं । पाणिमुक्ता गति एक मोडेवाली होती है, इसमें दो समय लगते हैं । अंगलिका गति दो मोडेवाली होती है, इसमें तीन समय लगते हैं । गोमूत्रिका गति तीन मोडेवाली होती है, इसमें चार समय लगते हैं । इस प्रकार अनादिकालसे संसार में भटकते हुए जीवके गुणोंमें कुछभी विशेषता नहीं आती, इसलिये उसका यह भटकना निरर्थक ही है, इत्यादि रूपसे भवभ्रमणके दोषोंका विचार करना भवविचय नामका सातवाँ धर्मध्यान है । अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंका विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है । सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट आगमको प्रमाण मानकर अत्यन्त परोक्ष पदार्थोंमें आस्था रखना आज्ञाविचय धर्मध्यान है | आगमके विषयमें विवाद होनेपर नैगम आदि नयोंकी गौणता और प्रधानता के प्रयोग में कुशल तथा स्याद्वादकी शक्ति से युक्त तर्कशील मनुष्य अपने आगमके गुणोंको और अन्य आगमोंके दोषोंको जानकर 'जहाँ गुणोंका आधिक्य हो उसीमें मनको लगाना श्रेष्ठ है इस अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर जो तीर्थकरके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में युक्तियों के द्वारा पूर्वापर अविरोध देखकर उसकी पुष्टिके लिये युक्तियों का चिन्तन करता है, वह हेतुविचय धर्मध्यान है । इस प्रकार धर्मध्यानके दस भेद हैं । धर्मध्यानके दो भेद भी हैं - एक आन्यन्तर और एक बाह्य । सहज शुद्ध चैतन्यसे सुशोभित और कार्त्तिके० ४७ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८२भर्मध्यानमुच्यते १ । पश्चपरमेष्ठिभक्त्यादि तदनुकूलश्रुतानुष्ठानं बहिरजधर्मध्यानं भवति । तथा पदस्थ पिण्डस्थरूपस्थरूपातीतं चतुर्विधं ध्यानमाभ्यन्तरं धर्म्यं कथ्यते । “पदस्थ मन्त्रवाक्यस्थ पिण्ड खात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वविद्रूपं रुपातीत निरजनम् ॥” इति धर्मध्यानं विचित्रं शातव्यम् ॥ " पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्थं मर्त ध्यानं विचित्रनयपारगः ॥" तद्यथा । " पणतीससोलछप्पण चदुदुरामेगं च जवह झाएह परमेद्विवाचयाणं अष्णं च गुरुवएसेण ॥" "गमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सबसाहूणं ।' एसानि पक्षशिदक्षराणि सर्वपदानि भण्यन्ते ३५ । 'अरहंत सिद्धभायरियवज्यायसाहू ।' वा 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो तानि । 'सिद्ध' एतानि षडक्षराणि अर्द्धसिद्धयोर्नामपदे द्वे भण्ये ६ । पण, 'अभिसा' एतानि पञ्चाक्षराण्यादिपदानि भण्यन्ते ५ । चदु, 'अरहंत' इदमक्षर चतुष्टयमर्हतो नामपदम् । युग, 'सिद्ध' 'गर्द' वा इत्यचरद्वयस्य सिद्धस्य अर्द्धतो वा नामादिपदम् २ | 'अ' इत्येकाक्षरमईत आदिपदम् अथवा 'ओ' इत्येकाक्षरं पचपरमेष्ठिनामादिपदम् । तत्कथमिति चेत् । " अरहंता असरीरा आयरिया तह उवमया मुणियो । पढमक्खर णिप्पण्णी ओंकारों पंचपरमेट्ठी ॥" "सवर्णे सह वर्षः, उ ओ, मोनुखारः' इत्यादिना निष्पद्यते । एतेषां पानां सर्वमवादपदेषु मध्ये सारभूतानामिह लोकपर लोकेष्ट फल प्रदानाम् अर्थ ज्ञात्वा पश्वादनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण वचनोधारणेन च जपं कुरुत । तथैव शुभोपयोगरूपत्रिगुप्तावस्थायां मोनेन ध्यायत | पुनरपि कथंभूतानां पचपरमेष्ठिवाचकानाम् । अनन्तज्ञानादिगुणयुकोऽर्हद्वाच्योऽभिधेयः इत्यादिरूपेणार्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय साधुवाचकानाम् । अन्यदपि द्वादशसहस्रमितपञ्चनमस्कारग्रन्थ कथितक्रमेण लघुसिद्धच बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानम् । तथाहि । यो आनन्दसे भरपूर अपनी आत्मामें उपादेयबुद्धि करके पुनः 'मैं अनन्त ज्ञानवाला हूँ 'मैं अनन्त सुखखरूप हूँ इत्यादि भावना करना आभ्यन्तर धर्मध्यान है । और पंच परमेष्ठी में भक्ति रखना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना बहिरंग धर्मध्यान है । धर्मध्यानके चार भेद और भी हैं। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । ये चारों धर्मध्यान आभ्यन्तर हैं । पवित्र पर्दोका आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थध्यान कहते हैं । द्रव्यसंग्रह में कहा है-"परमेष्ठी के राचक पैंतीस, सोलह, छ, पाँच, चार, दो और एक अक्षर के मंत्रोंको जपो और ध्याओ । तथा गुरुके उपदेशसे अन्य मंत्रोंको मी जपो और याओ" । 'णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्बसाहूणं ।' यह पैंतीस अक्षरोंका मंत्र है । 'अरहंतसिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' अथवा 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः' यह मंत्र सोलह अक्षरोंका है । 'अरहंत सिद्ध' यह छः अक्षरोंका मंत्र है। 'अ सि आ उ सा' यह पाँच अक्षरका मंत्र है। 'अरहंत' यह चार अक्षरोंका मंत्र है। 'सिद्ध' अथवा 'अहं' ये दो अक्षरोंके मंत्र हैं। 'अ' यह एक अक्षरका मंत्र भईन्तका वाचक है । अथवा 'ओ' यह एक अक्षरका मंत्र पंचपरमेष्ठीका वाचक है। कहामी है- 'अरहंत, असरीर (सिद्ध) आचार्य, उपाध्याय और मुनि ( साधु ) इन पाँचों परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षरों को लेकर मिलानेसे ( अ + अ + आ + उ +मू) पंचपरमेष्टीका याचक 'ओ' पद' बनता है।' ये मंत्र सब मंत्रों में सारभूत हैं तथा इस लोक और परलोकमें इष्ट फलको देनेवाले हैं । इनका अर्थ जानकर अनन्स ज्ञान आदि गुणोंका स्मरण करते हुए और मंत्रका उच्चारण करते हुए जप करना चाहिये । तथा शुभोपयोग पूर्वक मन, वचन और कायको स्थिर करके मौनपूर्वक इनका इन मंत्रोंके सिवाय बारह हजार प्रमाण पंचनमस्कार ग्रन्थमें कही हुई विधिसे ध्यान करना चाहिये । लघुसिद्धचक्र बृहत्सद्ध आदि विधाममी करना चाहिये। इस सिद्धचक्र ध्यानकी विधि इस प्रकार है-नाभिमण्डलमें 1 | Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मानुमेक्षा भव्याः नाभिमण्डले घोडशदलयुक्तकमले दल दल प्रति षोडशखरश्रेणि भ्रमन्ती चिन्तयेत् 1 अ आ इ ल लए ऐ ओ औ अं तथा हृदये चतुर्विशतिपत्रसंयुक्तकमले पञ्चविंशतिककारादिमकारान्तान् व्यजनान् स्मरेत् । कस गाजम जाट ठ ड ढ ण । त थ द ध न । प फ ब भ म । ततः वदनकमलेऽष्टदलसहिते शेषयकाराविहकारान्तान् वर्णान् प्रदक्षिण चिन्तयेत् । "इमो प्रसिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धो वर्गमातृकाम् । ध्यायेद्यः स बुताम्भोधेः पारं गच्येच तत्फलात ॥" "अथ मनपदाधीश सर्वतस्वैकनायकम् । आदिमध्यान्तभेदेन खरव्यजनसंभवम् ॥ अर्धाधो रेफसरुव सफल बिन्दुलाञ्छितम् । अनाइसयुत तस्वं मत्रराज प्रचक्षते ॥" है । “देवासुरनतं मिथ्यादुधवान्तभास्करम् । शुभमूर्धस्थचन्द्राभुकलापण्याप्तदिग्मुखम् ॥" "हेमाजकर्णिकासीनं निर्मलं दिक्षु खाणे । संचरन्त च चन्दाभ जिनेन्द्रतुल्यमूर्जितम् ॥" "ब्रह्मा कैश्चिरिः कैश्चिबुद्धः कश्चिन्महेश्वरः । शिवः सार्वस्तथैशानो वर्गोऽय कीर्तितो महान् ॥" "माश्रमूर्ति किलादाय देवदेवो जिनः स्वयम् । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः साक्षादेष व्यवस्थितः ॥" "ज्ञानपी जगद्वन्ध जन्ममृत्युजरापहम् । अकारादिहकारान्त रेफविन्दुकलाङ्कितम् ॥" "भुक्तिमुत्यादिदातार सवन्तममृताम्बुभिः । मकराजमिद ध्यायेत् धीमान विश्वसुखावहम् ॥"नासाग्रे निश्चल बापि धूलतान्ते महोज्वलम् । तालुरन्ध्रेण वा यातं विग्रन्तं वा मुखाम्बुजे ॥" "सकृदुच्चारितो येन मन्त्रोऽय वा स्थिरीकृतः । हदि तेनापवर्गाय पाथेयं स्वीकृत परम् ॥” इमं महामन. राज यो ध्यायति स फर्मक्षयं फूला मोक्षसुखं प्राप्नोति । अई। तथा इकारमानं सृश्मवन्द्ररेखासरशं शान्तिकारण यो भव्यः चिन्तयति स स्वर्गेषु क्षेत्रो महर्द्विको भवेत् । यो भव्य भोंकार पचपरमेष्टिप्रथमाक्षरोत्पर्य देदीप्यमानं चन्द्रकलाविन्दुना सितवर्ण धर्मार्थकाममोक्ष हृदयकमलकर्णिकामध्यस्थ चिन्तामणिसमान चिन्तयति स भव्यः सर्वसौख्य लभते । मों, इम मन्द्रराज शत्रुस्तम्भने सुवर्णाभ, विद्वेषे कृष्णाभ, वशीकरणे रक्तवर्ण, पापनाशने शुभ्रं, सर्वकार्यसिद्धिकरं चिन्तयेत् ॥ तथा, सोलह पत्रवाले कमलके प्रत्येक दलपर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ मं अः इन सोलह खरोंका कमसे चिन्तन करो। फिर हृदयमें चौबीस पत्तोंसे युक्त कमलके ऊपर क ख ग घ ङ, च छ जस स, ट ठ ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ ग, इन ककारसे लेकर मकार तक पच्चीस व्यंजनोंका चिन्तन करो। फिर आठ दल सहित मुखकमलपर बाकीके यकार से लेकर हकार पर्यन्त वर्गोंको दाहिनी ओर से चिन्तन करो। सिद्धान्तमें प्रसिद्ध इस वर्ण मातृकाका जो ध्यान करता है वह संसारसमुद्रसे पार हो जाता है । समस्त मंत्रपदोंका खामी सब तत्त्वोंका नायक, आदि मध्य और अन्तके भेदसे खर तथा व्यंजनोंसे उत्पन्न, ऊपर और नीचे रेफसे युक्त, बिन्दुसे विहित हकार (है) बीजाक्षर है। अनाहत सहित इस बीजाक्षरको मंत्रराज कहते हैं । देव और असुर इसे नमस्कार करते हैं, भयंकर अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये वह सूर्य के समान है । अपने मस्तकपर स्थित चन्द्रमा (-) की किरणों से यह दिशाओं को व्याप्त करता है। सुवर्णकमलके मध्यमें कर्णिकापर विराजमान, निर्मल चन्द्रमाकी तरह प्रकाशमान, और आकाशमें गमन करते हुए तथा दिशाओंमें व्याप्त होते हुए जिनेन्द्र देवके तुल्य यह मंत्रराज है। कोई इसे ब्रह्मा कहता है, कोई इसे हरि कहता है, कोई इसे बुद्ध कहता है, कोई महेश्वर कहता है, कोई शिव, कोई सार्व और कोई ईशान कहता है । यह मंत्रराज ऐसा है मानो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्तमूर्ति देवाधिदेव जिनेन्द्र स्वयं ही इस मंत्ररूपसे विराजमान हैं ॥ यह ज्ञानका बीज है, जगतसे वन्दनीय है, जन्म मृत्यु' और जराको हरनेवाला है, मुक्तिका दाता है, संसारके सुखोंको लाता है, रेफ और बिन्दुसे युक्त अहं इस मंत्रका ध्यान करो । नासिकाके अग्र भाग में स्थिर, भौहोंके मध्यमें स्फुरायमाण, तालुके छिद्रसे जाते हुए और मुखरूपी कमलमें प्रवेश करते हुए इस मंत्रराजका ध्यान करना चाहिये । जिसने एक बार मी इस मंत्रराजको उच्चारण करके अपने हृदयमें स्पिर करलिया, उसने मोक्षके लिये उत्तम कलेवा ग्रहण कर लिया । आशय यह है कि जो इस महा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४८२"पसगुरुनमलारलक्षण मन्त्रमूचितम् । चिन्तयेच जगजन्तुपवित्रीकरणक्षमम् ॥" “स्फुरद्विमलचन्द्रामे दलाष्टकविभूषिते। कर तत्कर्णिकासीनं मन सप्ताक्षरं स्मरेत् ॥" "दिग्दरेषु ततोऽन्येषु विदिक्पत्रेष्वनुक्रमात् । सिद्धादिक चतुष्क च दृष्टियोचादिक सधा ।। ओं णमो अरहताण, णमो सिद्धाणं, पमो आइरियाण, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सम्बसाहूर्ण । अपराजितमन्नोऽयं दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि । “त्रियमायन्तिकी प्राप्ता योगिनो ये च केचन । अमुमेव महामन्त्र समाराध्य केवलम् ॥" "अनेनैव विशुद्ध्यन्ति जन्तवः पापपङ्किताः । अनेनैव विमुच्यन्ते भवलेशान्मनीषिणः ॥" "एत. व्यसनपाताले भ्रमत्संस्करसागरे । अनेनैव जगत्सर्वमुत्य विधृतं शिवे ॥" "कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च। अमं मन्नं समाराध्य तिर्ययोऽपि दिवं गताः ॥" तथा यो भव्यः मस्तके भालस्थले मुखे काठे हृदये नाभौ च प्रत्येकमष्टदलकमल तन्मध्ये कर्णिका विधाय प्रत्येक पचनमस्कारान् पञ्चत्रिंशद्वर्णोपेतान् कमल प्रति नवसंख्योपेतान् जपेत् चिन्तयति। अवरोहणारोहणेन द्वादशकमलेषु एकीकृताः नमस्काराः अष्टोत्तरशतप्रमा भवन्ति । तत्फलमाह । “शतमष्टोनर चास्य त्रिशच्या चिन्तयन्मुनिः । मुसानोऽपि चतुर्थस्य प्रामोत्यविकलं फलम् ॥" "मस्तके वदने कण्ठे हृदये नाभिमण्टले। ध्यायेमन्द्रकलाकारे योगी प्रत्येकमम्बुजम् ।।" "स्मर मत्रपदोद्भूतौ महाविद्या जगवताम् । गुरूपकनामोत्थषोडशाक्षरराजिताम् ॥ "अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः।" षोडशाक्षरविद्या ! "अस्याः शतद्वयं ध्यानी जपन्नेकाममानसः 1 अनिच्छाप्यवाप्नोति चतुर्थतपसः पालम् ॥” “विद्यां षड्वर्णसंभूनामजयो पुण्यशालिनीम् । जपन चतुर्थमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ॥" 'अरहंतसिद्ध' अथवा 'अरहंत साहु ॥ " चतुर्वर्णमयं मत्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतुःशतीं जापन योगी चतुर्थस्य फलं लभेत् ॥" मंत्रका ध्यान करता है वह कर्माका क्षय करके मोक्षसुखको पाता है । जो भव्य 'अहं' इस मंत्रको अथवा सूक्ष्म चन्द्ररेखाके समान हकार मात्रका चिन्तन करता है वह खगों में महर्दिक देव होता है। जो भव्य पंचपरमेष्ठीके प्रथम अक्षरोंसे उत्पन्न ॐ का चिन्तन अपने हृदयकमलमें करता है वह सब सुखों को पाता है । इस मंत्रराज ॐ को शत्रुका स्तम्भन करनेके लिये सुवर्णके समान पीला चिन्तन करे । द्वेधके प्रयोगमें कजलकी तरह काला चिन्तन करे, वशीकरण के प्रयोगमें लालवर्णका चिन्तन करे, और पापकर्मका नाश करनेके लिये चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका चिन्तन करे ॥ तथा पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करने रूप महामंत्रका चिन्तन करे। यह नमस्कार मंत्र जगतके जीवोंको पवित्र करने में समर्थ है ।। स्फुरायमान निर्मल चन्द्रमाके समान और आठ पत्रोंसे भूषित कमलकी कर्णिका पर सात अक्षरके मंत्र णमो अरिहंताण'का चिन्तन करे । और उस कर्णिकाके आठ पत्रोंमेंसे ४ दिशाओंके ४ पत्रोंपर क्रमसे 'णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण' णमो उवमायाणं' 'णमो लोए सबसाहूण' इन चार मंत्रपदोंका स्मरण करे । और विदिशाओंके ४ पत्रोंपर क्रमसे 'सम्यग्दर्शनाय नमः 'सम्यग्ज्ञानाय नमः' 'सम्यक् चारित्राय नमः' 'सम्यक् तपसे नमः', इन चार पदोंका चिन्तन करें || इस लोकमें जितने मी योगियोंने मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त किया उन सबने एकमात्र इस नमस्कार महामंत्रकी आराधना करके ही प्राप्त किया । पापी जीव इसी महामंत्रसे विशुद्ध होते हैं । और इसी महामंत्रके प्रभावसे बुद्धिमान् लोग संसारके केशोंसे छूटते हैं । दुःखरूप पातालोंसे भरे हुए संसाररूपी समुद्र में भटकते हुए इस जगतका उद्धार करके इसी मंत्रने मोक्षमें रखा है ॥ हजारों पापोंको करके और सैकड़ों जीवोंको मारकर तिर्यश्वभी इस महामंत्रकी आराधना करके खर्गको प्राप्त हुए ।। मस्तक, भालस्थान, मुख, कण्ठ, हृदय और नाभिमसे प्रत्येकमें आठ पत्तोंका कमल और उसके बीचमें कर्णिकाकी रचना करके प्रत्येक कमलपर पैतीस अक्षरके पंच नमस्कार मंत्रको नौ बार जपना चाहिये। इस प्रकार ऊपरसे नीचे और नीचेसे ऊपर बारह कमलोंपर जपनेसे १०८ बार जाप हो जाती है । जो मुनि मन वचन और कायको शुद्ध करके इस मंत्रको १०८ पार ध्याता है वह मुनि आहार करता बुआमी एक उपवासके पूर्ण फलको प्राप्त होता है ॥ पंच नमस्कार मंत्रके पाँच पदोंसे Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८२] ११. धर्मानुप्रेक्षा अरईत ॥ "वर्णद्वय श्रुतस्कन्धे सारभूत शिवप्रदम् । ध्यायेजन्मोवाशेषलेशनिर्मूलनक्षमम् ॥ "सिद्ध 'अईवा ।। "अवर्णस्य सहसा जपमानन्दसमृतः । प्राप्नोत्लेकोपवासस्य निर्जरा निर्जिताशयः॥ ' तथा "आदिम चाईतो नाम्रोऽकार पवशतप्रमान् । वारान् जपेत् त्रिशुज्या यः स चतुर्थफलं श्रयेत् ।। ॥ “पश्चवर्णमयी विद्यो पञ्चतत्वोपलक्षिताम् । मुनिवीरेः श्रुतस्कन्धाद्वीजबुग्या समुद्धताम् ॥ 'ओं हो ही हूँ ह्रौं है: असि आउ साय नमः । “अस्थां निरन्तराभ्यासासीकृतनिजाशयः । प्रोच्छिनत्याशु निःशको निर्गु जन्मबन्धनम् ।।" "मालशरणोत्तमपदनिकुरम्यं यस्तु संयमी स्मरति । अकि कलमेकाप्रधिया स चापवर्गनिय श्रयति ॥ चनारि मंगलं, अरहत मंगल, सिद्ध मंगल, साहु मंगल, केवलिपष्णतो धम्मो मंगलं। चनारि लोगोत्तमा, अरहंत लोगोसमा, सिद्ध लोगोतमा, साहु लोगोशमा, फेवलिपण्णत्तो धम्मो लोगोनमो। चत्तारि सरण पवजामि, अरईत सरण पत्रवामि, सिद्ध सरणं पब्बजामि, साहु सरणे एवजामि, केवलिपण्णतो धम्मो सरणं पव्वजामि । "सिद्धः सौध समारोमिय सोपानमालिका । त्रयोदशाक्षरोपमा विद्या विश्वातिशायिनी ॥" 'ओं, अरहत सिद्ध योगि केदली स्वाहा'। यो भन्यः इमम् ऋषिमण्डलमत्रराज सप्तविंशतिवर्णोपेतम् 'ओं मंही है है हैं ह्रौं : असिआउसासम्यग्दर्शनशानचारित्रेभ्यो नमः।" इति ध्यायति जपति सहस्राष्टकम् | ८००० । स वाल्छितार्थम् इहपरलोकसुखसोभीष्ट प्राप्नोति । तथा ओं ही श्री अहे नमः । नमः सिद्धाणं । ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्तविशुद्धपरिणामविस्फुरदुरुशुकभ्यानामिनिर्दधर्मयीन उत्पन्न सोलह अक्षरोंके मंत्रका भी जप करना चाहिये। वह मंत्र है-'अर्हत् सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुम्यो नमः' । जो ध्यानी मनको एकाग्र करके दो सौ बार इस मंत्रका जप करता है वह नहीं चाहते हुएमी एक उपवासके फलको प्राप्त करता है || 'अरहंत सिद्ध' अथवा 'अरईत साक्षु' इन छ अक्षरोंके मंत्रको तीन सौ बार जप करनेवाला मनुष्य रक उपवासके फलको प्राप्त होता है । 'अरहत' इन चार अक्षरोंके मंत्रको चार सौ बार जप करनेवाला मनुष्य एक उपवासके फलको प्राप्त होता है ॥ 'सिद्ध' अथवा 'आई' यह दो अक्षरोंका मंत्र द्वादशांगका सारभूत है, मोक्षको देनेवाला है और संसारसे उत्पन्न हुए समस्त क्लेशोंको नष्ट करनेमें समर्थ है । इसका ध्यान करना चाहिये ॥ जो मुनि 'अ' इस वर्णका पाँच सौ बार जप करता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त करता है ॥ जो मन वचन कायको शुद्ध करके पांच सौ बार 'अर्हत्' के आदिअक्षर 'अ' मंत्र का जाप करता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त करता है। पाँच तत्वोंसे युक्त तथा पांच अक्षरमय 'ओं हां ही हूं ह्रौं हः अ सि आ उ साय नमः' इस मंत्रको मुनीश्वरोंने द्वादशांग वाणी से सारभूत समझकर निकाला है । इसके निरन्तर अभ्याससे पति कठिन संसाररूपी बन्धन शीघ्र कट जाता है | जो मुनि 'चत्तारि मंगलं, अरहता भंगलं, सिद्धा मंगलं, साडू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरहता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुतमा, साहू लोगुसमा, केवलिपपणत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरहतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरणं पव्वजामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धर्म सरण पन्चजामि ।' एकाग्र मनसे इन पदोंका स्मरण करता है वह महालक्ष्मीको प्राप्त करता है || ॐ अईत् सिद्ध सयोग केवली वाहा' यह तेरह अक्षरोंका मंत्र मोक्ष महलपर चढ़नेके लिये सीढ़ियोंकी पंक्ति है || 'ओ हो ही हूं हें है ही हः असि आ उ साप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः' इस सत्ताईस अक्षरोंके ऋषिमण्डल मंत्रको जो मन्य पाठ हजार बार जपता है वह इस लोक और परलोकमें समस्त वाञ्छित मुखको पाता है। तथा Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० ४८२प्रामानन्तचतुयाय सौम्याय शान्ताय मालबरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा । तथा । "सरेन्तुमण्डलाकार पुण्डरी मुखोदरे । दलाष्टकसमासीनं वर्णाष्टकविराजितम् ॥ ओं णमो अरहताणमिति वानपि कमात् । एकशः प्रतिचं तु तमिमेव निवेशयेत् ।। स्वर्णगौरी खरोद्भूतां केसराली ततः स्मरेत् । कर्णिकां च सुधास्यन्दबिन्दुवजविभूषिताम् ॥ (अकारादि) प्रोद्यत्संपूर्णचन्दाभ चन्द्रबिम्बाच्छनैः शनैः। समागच्छत्सुधाबीज मायावणं तु चिन्तयेत् ॥ विस्फुरन्तमतिस्फीत प्रभामण्डलमध्यगम् । संचरन्तं मुखाम्भोजे तिष्ठन्तं कर्णिकोपरि ॥ ह्रीं ॥ भ्रमन्तं प्रतिपत्रेषु चरन्तं वियति क्षणे । छेदयन्तं मनोवान्तं सवन्तममृताम्युभिः ॥ वजन्तं ताठुरन्त्रेण स्फुरन्तं भूलतान्तरे । ज्योतिर्भयमिवाचिन्त्य प्रभाव चिन्तयन्मुनिः ।।" 'थों गमो धरहताण इमे अष्टौ वर्णाः । ह्रीं । इमं महामन्त्रं स्मरन् योगी विषनाशसर्वशास्त्रपारगो भवति । निरन्तराभ्यासात् षद्भिर्मासर्मुखमध्यात धूमवति पश्यति । ततः संवत्सरेण मुखान्मझज्यालो निःसरन्ती पश्यति । तत: सर्वशमुखम् । ततः सर्वशं प्रत्यक्ष पश्यति । य: 'वी' इति ध्यायति ललाटे स सकलकल्याणं प्राप्नोति । तथा। ओं ह्रीं । ह्रीं ओं ओं ही हैसः॥ अई॥श्रीझी ओं सः। श्री है ओं ह्रीं ॥ ही ओं ओं ह्रीं ॥ छ। श्री। विद्या च। ओं जोमे मग्गे तो भए भब्वे भविस्से अक्थे पक्खे -जिणपारिस्से वाहा। ओं ह्रौं अहं णमो अरहताणं ह्रीं नमः ॥ छ । श्रीमदू 'ओं ह्रीं श्रीं भई नमः; णमो सिद्धाणं, और 'ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्तविशुद्धपरिणामिपुरदुलारा गानामिनी जमीशाय प्रालयलचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मंगलवरदाय अष्टादशदोषरहिताय खाहा' इन मंत्रोंका ध्यान करना चाहिये । मुखमें चन्द्रमण्डलके आकारका आठ अक्षरोंसे शोभायमान, आठ पत्रोंका एक कमल चिन्तन करना चाहिये । 'ओं णमो अरहताणं' इन आठ अक्षरोंको क्रमसे इस कमलके आठ पत्रोंपर स्थापन करना चाहिये । इसके पश्चात् अमृतके मरनोंके बिन्दुओंसे शोभित कर्णिकाका चिन्तन करे और इसमें स्वरोंसे उत्पन्न हुई तथा सुवर्णके समान पीतवर्ण वाली केशरकी पंक्तिका ध्यान करना चाहिये ।। फिर उदयको प्राप्त हुए पूर्ण चन्द्रमाकी कान्तिके समान और चन्द्रबिम्बसे धीरे धीरे आनेवाले अमृतके बीज रूप मायावर्ण 'ही' का चिन्तन करना चाहिये ॥ स्फुरायमान होते हुए, अत्यन्त उज्वल प्रभामण्डलके मध्यमें स्थित, कभी पूर्वोक्त मुखक्रमलमें संचरण करते हुए, कभी उसकी कर्णिकाके ऊपर स्थित, कभी उस कमलके आठों — पत्रोंपर घूमते हुए, क्षणभरमें आकाशमें विचरते हुए, मनके अज्ञानान्धकारको दूर करते हुए, अमृतमयी जलसे टपकते हुए, तालुके छिद्रसे गमन करते हुए तथा भौंकी लगाओंमें स्कुरायमान होते हुए और ज्योतिर्मयके समान अचिंत्य प्रभाववाले मायावर्ण 'ही' का चिन्तन करना चाहिये । इस महामंत्रका ध्यान करनेसे योगी समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो जाता है । छमासतक निरन्तर अभ्यास करनेसे मुखके अन्दरसे धूम निकलते हुए देखता है । फिर एक वर्ष तक अभ्यास करनेसे मुखसे निकलती हुई महाज्वाला देखता है। फिर सर्वज्ञका मुख देखता है । उसके बाद सर्वज्ञको प्रत्यक्ष देखता है। इस प्रकार, मुखकमलमें आठ दलके कमलके ऊपर 'ओं णमो अरिहंताणं' इन आठ अक्षरोंको स्थापन करके ध्यान करनेके फलका वर्णन किया । अब अन्य विद्याओंका वर्णन करते हैं। जो ललाट देशमें 'वी' इस विद्याका ध्यान करता है वह सब कल्याणोंको प्राप्त करता है । ही ओं ओं ही है सः ओं जोगे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भनिस्से अक्खे एक्खे जिणपारिस्से स्वाहा' 'ओ हो गई नमो णमो अरहताण ही नम , 'श्रीमद् वृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नमः,' इस मंत्रोंका भी ध्यान करना Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८२] १२. धर्मानुभेक्षा ३४५ वृषभाविवर्धमानान्तेभ्यो नमः ॥ ओं भहन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकर श्रुतज्ञानज्वालासहन प्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन दह दह क्षा क्षीक्षक्षी क्षः क्षीरधवले अमृतसंभवे कई स्वाहा । इयं पापभक्षिणी विद्या । सिद्धचक्रम् । असिआउसा। अवर्ण नाभिकमले, सिमस्तककमले, सा मुखकमले, आ कण्ठकमले, उ हृदये । नमः सर्वसिद्धेभ्यः। ओंकार-हौंकार-अकार-अहम् इत्यादिक स्मरणीयम् । “नेत्रद्वन्द्वे प्रवणयुमले नासिकाग्रे ललाटें, के नाभी शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यत्र वेहे, तेष्वेकस्मिन् विगतविषये चिसमालम्बनीयम् ॥” इति । इति पदस्थध्यानं समाप्तम् ।। अथ पिण्डस्थध्यानमुच्यते । पिण्डस्थभ्याने पक्ष धारणा भवन्ति । ता: काः। पार्थिवी , आग्नेयी २, मारुती ३, बारुणी ४, तात्त्विकी ५ चेति । निरजनस्थाने योगी चिन्तयति । किम् । क्षीरसमुद रजप्रमाणमध्यलोकसमानं शब्दरहितमुपशमितकल्लोलं कर्पूरहारतुषारदुधव दुसनलं स्मरति । तस्य मध्ये जम्बूद्वीपप्रमाणं महसदलकमल सुवर्ण देदीप्यमानं तदुत्पन्नपद्मरागमणिसदशकेसरालीविराजित मनोभ्रमररक्षकं स्मरति । तत्र जम्बूद्वीपप्रमाणसहस्रदलकमले हेमनिमे कनकाचलमयी दिव्यकर्णिका चिन्तयेत् । ततः तत्कर्णिकाया मध्ये शरकालचन्द्रसदृशमुमतं सिंहासनं चिन्तयति । ततः तस्य सिंहासनोपारे आत्मानं सुखासीनं शान्तदान्तरागद्वेषादिरहितं ध्यायेत् पार्षिकी । तप्तोऽसी ध्यानी निजनाभिमण्डले मनोज्ञकमनीयषोडशोन्नतपत्रक कमल, तस्य कमलस्य पन पत्र प्रति वरम्, एवं षोडशखरान् स्मरेत् । सत्कर्णिकाया मध्ये महामन्त्रं विस्फुरन्तम् ऊर्चरेफ कलाबिन्दुसहितं चन्द्रकोटिकानन्या व्याप्तदिग्मुर्ख 'अ' इति चिन्तयेत् । ततस्तस्याहमित्यक्षरस्य रेफात् निर्गन्छन्ती धमशिखा स्मरेत् । ततस्तत्पश्चात स्फलिजयक्तीः चिन्तयेत् । ततः ज्वालावलीम् अग्निज्वालाश्रेणी चिन्तयेत् । ततः तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन हृदयस्थितं कमलं दहति। तत्कमलमष्टकर्मनिर्माणमाष्टपत्राअम् अधोमुख महामन्त्रोत्पन्नवैश्वानरो दहति । ततः शरीरस्य बहिः त्रिकोणम् अमिमण्डलम् । "वहिनीजसमाकान्त पर्यन्ते स्वस्तिकावितम् । जर्ष वायुपुरोद्भूतं निधूमं कनकप्रभम् ॥" "अन्तर्दहति मनाचिहिहिपुर पुरम् । धगद्धगिति विस्फूर्जज्वालापचयभासुरम् ॥ भस्मभावमसौ नीला शरीरं तच्च पहजम् । दायामानात् स्वयं शान्ति चाहिये। 'ओं अईन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकार श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पार्प छन हन दह दह क्षा क्षी क्षौ क्षः क्षौरवरधवले अमृतसंभवे बे व हूं हूँ स्वाहा ।' ये पापभक्षिणी विद्याके अक्षर हैं । सिद्धचक्रमंत्रका भी ध्यान करना चाहिये । असि आ उ सा इन पाँच अक्षरोंमें से 'अकार को नाभिकमलमें, 'सि' अक्षरको मस्तक कमलपर, 'आ' अक्षरको कंठस्थ कमलमें, 'उ' अक्षरको हृदय कमलपर और 'सा' अक्षरको मुखस्य कमलपर चिन्तवन करना चाहिये । 'नमः सर्वसिद्धेभ्यः' यह भी एक मंत्रपद है । इस शरीरमें निर्मल ज्ञानियोंने मुख, नाभि, शिर, हृदय, ताल भूरियोंका मध्य इनको ध्यान करनेके स्थान कहा है । उनमेंसे किसी एकमें चित्तको स्थिर करना चाहिये । इस प्रकार पदस्य ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ । अब पिण्डस्थ ध्यानको कहते हैं । पिण्डस्थ ध्यानमें पाँच धारणाएँ होती हैं। पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तात्त्विकी । इनमेंसे पहले पार्थिवी धारणाको कहते हैं । प्रपम ही योगी किसी निर्जन स्थानमै एकराजु प्रमाण मध्य लोकके समान निःशाद निसरंग और कपूर अथवा बरफ या दूधके समान सफ़ेद क्षीरसमुद्रका ध्यान करे । उसमें जम्बूद्वीपके बराबर सुवर्णमय हजार पत्तों वाले कमलका चिन्तन करे । वह कमल पमराममणिके सदृश केसरोंकी पंक्तिसे शोभित हो और मनरूपी भौरेको अनुरक्त करने वाला हो । फिर उस जम्बूद्वीप जितने विस्तार वाले सहस्र दल कमलमें सुमेरुमय. दिव्य कर्णिकाका चिन्तन करे । फिर उस कर्णिकामें शरद् कालके चन्द्रमाके समान वेतवर्णका एक ऊँचा सिंहासन चिन्तन करें । उस सिंहासनपर अपनेको सुखसे बैठा हुआ शान्त, जिसेन्द्रिय और रागद्वेषसे रहित चिन्तवन करे। यह पार्थिवी धारणाका लरूप है। इसके पश्चात् यह ध्यानी पुरुष अपने नाभिमण्डलमें सोलह ऊँचे पोवाले एक मनोहर कमलका Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८२ याति वद्धिः शनैः शनैः ॥” इति आमेयी धारणा । २ । “अथापूर्व दिशाकाशं संचरन्तं महाबलम् । महावेगं स्मरेत् ध्यानी समीरणं निरन्तरम् ॥ तव्रजः शीघ्रमुय तेन प्रबलवायुना । ततः स्थिरीकृताभ्यासः पवनं शान्तिमानयेत् ॥” इति मारती । ३ । “दारुण्यां जलदनातं संवर्धन्तं नभस्तलात् । स्थूलधारा यजैर्वियुर्जनैः सह चिन्तयेत् ॥ ततोऽर्धेन्दुसमं कान्तं पुरं वरुणलाचितम् । स्मरेत्सुधापयः पूरैः प्रत्रयन्तं नभोगणम् ॥ तेन ध्यानोत्थनीरेण दिव्येन प्रबलेन सः । प्रक्षाल्येच निःशेषं तद्भस्म कायसंभवम् ॥ इति वारुणी । ४ । ततः योगी स्वात्मानं सर्वज्ञसदृशं सप्तधातुविनिर्मुक चन्द्रकोटिकान्तिसमं सिंहासनारूढं दिव्यातिशयसंयुतं कल्याणमहिमोपेतं देववृन्देरचितं कर्ममलकलङ्करहितं स्वस्वरूपं चिन्तयेत् । "तेश्रो पुरुसायारो सायब्बों जियसरगमत्यो । सियकिरणविप्फुरतो अप्पा परमप्पयसरूव ॥ पियण हिलमज्झे परिदियं विप्रताविते । अरुहरू साणं तं सुग्रह पिंडत्यं ॥ शायद लि करमशे भालयले हिययकटदेसम्हि । जिपख्वं रवितेयं पिंडत्थं सुमह आणहि ॥" "मस्तके बदने कण्ठे हृदये नाभिमण्डले । ध्यायेश्चन्द्रकलाकारे योगी प्रत्येकमम्बुजम् ॥” सिद्धसादृश्यं गतसिक्यमूषिकागर्भसमानं स्वात्मानं ध्यानी ध्यायेत् सिद्धसुखादिकं लभते । इति पिण्डस्यानं समाप्तम् ॥ अथ रूपस्थभ्यानमुच्यते । ध्यानीं समवसरणस्थं जिनेन्द्र चन्द्र चिन्तयेत् । "मानस्तम्भाः सरांसि प्रबिमलजलखत्वातिका पुष्पवाटी, प्राकारो नाव्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्ध्वजाद्याः । T ध्यान करे । फिर उस कमलके सोलह पत्रोंपर 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ऌ, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः ' इन सोलह अक्षरोंका ध्यान करे । और उस कमलकी कर्णिकापर 'अ' (ई ) इस महामंत्रका चिन्तन करे । इसके पश्चात् उस महामंत्र के रेफसे निकलती हुई धूमकी शिखाका चिन्तन करे । उसके पश्चात् उसमेंसे निकलते हुए स्फुलिंगोंकी पंक्तिका चितवन करे । फिर उसमेंसे निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंका चिन्तन करे । फिर क्रमसे बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदय में स्थित कमलको जलता हुआ चिन्तन करे । वह हृदयमें स्थित कमल आठ पत्रोंका हो, उसका मुख नीचे की ओर हो और उन आठ पत्रपर आठ कर्म स्थित हों । उस कमलको नाभिमें स्थित कमलकी कर्णिकापर विराजमान 'हूँ' से उठती हुई प्रबल अग्नि निरन्तर जला रही है ऐसा चिन्तन करे | उस कमलके दग्ध होनेके पश्चात् शरीरके बाहर त्रिकोण अमिका चिन्तन करे । वह अग्नि बीजाक्षर 'ए' से व्याप्त हो और अन्तमें स्वस्तिक से चिह्नित हो । इस प्रकार वह धगधग करती हुई लपटों के समूह से देदीप्यमान अभिमंडल नाभिमें स्थित कमल और शरीरको जलाकर राख कर देता है । फिर कुछ जलानेको न होनेसे वह अभिमण्डल चीरे धीरे स्वयं शान्त होजाता है । यह दूसरी आग्नेय धारणाका स्वरूप कहते हैं। आगे मारुती धारणाका खरूप कहते हैं । ध्यानी पुरुष आकाशमें विचरण करते हुए महावेगवाले बलवान वायुमण्डलका चिन्तन करे । फिर यह चिन्तन करे कि उस शरीर वगैरह की भस्मको उस वायुमण्डलने उड़ा दिया फिर उस वायुको स्थिर रूप चिन्तवन करके शान्त कर दे । यह मारुती धारणा का स्वरूप हैं। आगे वारुणी धारणाका वर्णन करते हैं । फिर वह ध्यानी पुरुष आकाशसे गर्जन तर्जन के साथ बरसते हुए मेघों का चिन्तन करे । फिर अर्ध चन्द्रमा आकार मनोहर और जलके प्रवाह से आकाश रूपी आगनको बहाते हुए वरुण मण्डलका चिन्तन करे । उस दिव्य ध्यानसे उत्पन्न हुए जलसे शरीर के जलनेसे उत्पन्न हुई राखको धोता है ऐसा चिन्तन करे । यह वारुणी धारणा है । अव तत्त्ववती धारणाको कहते हैं । उसके बाद ध्यानी पुरुष अपनेको सर्वज्ञके समान, सप्तधातुरहित, पूर्णचन्द्रमाके समान प्रभावाला, सिंहासनपर विराजमान, दिव्य अतिशयोंसे युक्त, कल्याणकों की महिमा सहित देवोंसे पूजित, और कर्मरूपी I । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८२] १२. धर्मानुप्रेक्षा शालः कल्पमाणां सुपरिवृत्तिवनं स्तूपहावलीच, प्राकारः स्फाटिकोऽन्तमुरमुभिग़भाषीठिकाग्रे स्वयंभूः ॥' आदिदेवस्य द्वादशयोजनप्रमाणम् , अजितस्य साधैकादशयोजनप्रमाणम्, शम्भवस्यैकादशयोजनमानमित्यादिक्रमेण हीयमान महावीरस्य योजनप्रमाणं रामवसरणम्। तथा विवक्षेत्रास्त्रतश्रीसीमधग्युमंधरादीनां समवसरण द्वादशयोजनप्रमाणम् । तत्र समवमरणम्य मध्ये तृतीयसिंहासनोपरि चतुरहटान्तरितं खयंभुवमईन्न चिन्तयेत् । तद्यथा : "आर्हन्त्यमहिमोपेत सर्व परमेश्वरम् । ध्याये देवेन्द्रचन्द्रार्कराभान्नम्धं स्वर्गभुवम् ॥ सर्वातिशयसंपूर्ण दिव्यलक्षणलक्षितम् । अनन्तमहिमाधार सोभिपरमेश्वरम् ।। सप्तधातुविनिर्मुक्कं मोक्षलागीकटाक्षितम् । सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेन्द्रशेखरम् ॥" तथा । 'भामण्डलादियुक्तस्य शुद्धसाटिकमासिनः । चिन्तनं जिनरूपस्य रूपस्थं ध्येयमुच्यते । चतुर्विशदतिशयोपेतमएमहापातिहार्यविराजितमनन्दज्ञानाधनन्नवतुष्टयमण्डितं द्वादशमणोपेतं जिनरूपं चिन्तयेद्यानी। तथा च । 'घणघाइकम्ममहणो अइसगनरपाडिहरसंजुत्तो। शारह- धवलवणो अरइंतो समवसरणत्थो ॥ रुवं झाग दुविह समयं तह परमार्य च जं भणियं । सगयं कलंकसे रहित चिन्तन करे । फिर अपने शरीरमें स्थित आत्माको आठ काँसे रहित, अत्यन्त निर्मल पुरुषाकार चिन्तवन करे । इस प्रकार यह पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन हुआ । अब रूपस्थ ध्यानको कहते हैं | ध्यानी पुरुषको समवसरणमें स्थित जिनेन्द्र भगवानका चिन्तन करना चाहिये । समवसरणकी रचना इस प्रकार होती है-सबसे प्रथम चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ होते हैं, मानस्तम्भोंके चारों ओर सरोबर होते हैं, फिर निर्मल जलसे भरी हुई खाई होती है, फिर पुष्पवादिका होती है, उसके आगे पहला कोट होता है, उसके आगे दोनों ओर दो दो नाट्यशालाएँ होती है, उसके आगे दूसरा उपवन होता है, उसके आगे देका होता है, और जाऑको पंक्तिया होती हैं, फिर दूसरा कोट होता है, उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षोंका उपवन होता है, उसके बाद स्तूप और मकानोंकी पंक्ति होती है, फिर स्फटिकमणिका तीसरा कोट होता है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियोंकी बारह सभाएँ हैं । फिर पीठिका है, और पीठिकाके अप्रभागपर स्वयंभू भगवान विराजमान होते हैं । ऋषभ देवके समवसरणका प्रमाण बारह योजन था । अजितनाथके रणका प्रमाण साढ़े ग्यारह योजन था। संभवनाथके समवसरणका प्रमाण ग्यारह योजन था। इस प्रकार क्रमसे घटते घटते महावीर भगवानके समवसरणका प्रमाण एक योजन था । तथा विदेह क्षेत्रमें स्थित श्री सीमंधर जुगमैधर आदि तीर्थक्करोंके समवसरणका प्रमाण बारह योजन है । ऐसे समवसरणके मध्यमें तीसरे सिंहासनके ऊपर चार अंगुलके अन्तरालसे विराजमान अर्हन्तका चिन्तन करे । लिखा भी है-'अर्हन्तपदकी महिमासे युक्त, समस्त अतिशयोंसे सम्पूर्ण, दिव्य लक्षणों से शोभित, अनन्त महिमाके आधार, सयोगकेवली, परमेश्वर, सप्तधातुओंसे रहित, मोक्षरूपी लक्ष्मीक कटाक्षके लक्ष्य, सब प्राणियोंके हित, शीलरूपी पर्वतके शिखर, और देव, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य वगैरह की सभाके मध्यमें स्थित स्वयंभू अर्हन्त भगवानका चिन्तन करना चाहिये । इस तरह चौंतीस अतिशयोंसे युक्त, आठ महाप्रतिहायोंसे शोभित और अनन्त ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टयसे मण्डित तथा बारह सभाओंके वीचमें स्थित जिनरूपका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है ।' और भी कहा है-'घातियाकर्मोसे रहित, अतिशय और प्रातिहायोसे युक्त, समवसरणमें स्थित धबलवर्ण अरहंतका ध्यान करना चाहिये । रूपस्थ ध्यान दो प्रकारका होता है-एक खगत और एक परगत । आत्माका ध्यान करना स्वगत है और अर्हन्तका ध्यान करना परगत है । इस प्रकार कार्शिके० ४८ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकाफिक्रेयानुप्रेक्षा [गा० ५८२णियअप्याणं परगयं च जाण परमेट्ठी ॥ इति रूपस्थं तृतीयं ध्यान समाप्तम् । अथ रूपातीत ध्यानं कथ्यते। 'अब हमे स्थिरीभूतचितः प्रशीणविभ्रमः। अमूर्तमजमव्यक्त ध्यानु प्रकमते ततः ॥ चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त परमाक्षरम् । स्मरेथवात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ॥ विचार्थेति गुणान स्वस्थ सिद्धानामपि व्यक्तिः। निराकृत्य गुण दै खपरात्मशिवात्मनाम्॥ तदुणग्रामसंपूर्ण तत्वभावकभाषितम्। कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ॥ यः प्रमाणनयन खतस्वमवबुध्यते। बुध्यते परमात्मानं स योगी बीतविभ्रमः ।। व्योमाकारमनाकारे निष्पन्नं शान्तमच्युतम् । चरमाजाकियन्त्यूनं स्वप्रदेशधनः स्थितम् ॥ लोकाप्रशिखरासीनं शिवीभूतमनामयम् । पुख्याकारमापनमप्यमूर्त व चिन्तयेत् ॥ विनिर्गतमधूच्छिमप्रतिमे मूपिकोदरे । यादृग्गगनसंस्थान सदाकारं स्मरेडिभुम् ।। सर्वावयवसंपूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् । विशुद्धादर्शसंक्रान्तप्रतिविम्बसमप्रभम् ॥ इत्यसो सतताभ्यासबशारसंजातनिवयः। अपि खनाद्यवस्थासु तमेवाध्यक्षमीक्षते । सोऽहं सकलवित्सार्वः सिद्धः साध्यो भवच्युतः । [परमात्मा परंज्योतिर्विश्वदशी निरजनः ॥ तदासौ निश्चलोऽमूर्तो निष्कलको जगद्गुरुः । ] चिन्मात्रः प्रस्फुरत्युच्चातृध्यानविवर्जितः ॥ पृथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स मुनिः साक्षायथान्यत्वं न विद्यते।' उक्तं च । 'निःकल: परामामाह लोकालोकावभासकः। विश्वव्यापी स्वभावस्थो विकारपरिदर्जितः । तथा चोक्तं । 'णय तीसरा रूपस्थ ध्यान समाप्त हुआ । आगे रूपातीत ध्यानको कहते हैं-रूपस्थ ध्यानमें जिसका चित्त स्थिर होगया है और जिसका विभ्रम नष्ट होगया है ऐसा ध्यानी अमूर्त, अजन्मा और इन्द्रियोंके अगोचर परमात्माके ध्यानका आरम्भ करता है | जिस ध्यानमें भ्यानी पुरुष चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप आत्माका आत्माके द्वारा ध्यान करता है उसे रूपातीत ध्यान कहते है ।। इस ध्यानमें पहले अपने गुणोंका विचार करें। फिर सिद्धोंके भी गुणोंका विचार करे । फिर अपनी आत्मा, दूसरी आत्माएँ तथा मुक्तात्माओंके बीचमें गुणकृत भेदको दूर करे। इसके पश्चात् परमात्माके खभावके साथ एकरूपसे भाबित अपनी आत्माको परमात्माके गुणोंसे पूर्ण करके परमात्मामें मिलादे । जो ध्यानी प्रमाण और नयोके द्वारा अपने आत्मतत्त्वको जानता है वह योगी बिना किसी सन्देहके परमात्माको जानता है । आकाशके आकार किन्तु पौद्गलिक आहारसे रहित, पूर्ण, शान्त, अपने खरूपसे कमी म्युत न होनेवाले, अन्तके शरीरसे कुछ कम, अपने घनीभूत प्रदेशोंसे स्थिर, लोकके अप्रभागमें विराजमान, कल्याणरूप, रोगरहित, और पुरुषाकार होकर भी अमूर्त सिद्ध परमेष्ठीका चिन्तन करे ॥ जिसमेंसे मोम निकल गया है ऐसी मूषिकाके उदरमें जैसा आकाशका आकार रहता है तदाकार सिद्ध परमात्माका ध्यान करे ।। समस्त अवयवोंसे पूर्ण और समस्त लक्षणोंसे लक्षित, तथा निर्मल दर्पणमें पड़ते हुए प्रतिबिम्बके समान प्रभावाले परमात्माका चिन्तन करे । इस प्रकार निरन्तर अभ्यासके वंशसे जिसे निश्चय होगया है ऐसा ध्यानी पुरुष स्खमादि अवस्थामें भी उसी परमात्माको प्रत्यक्ष देखता है ।। इस प्रकार जब अभ्याससे परमात्माका प्रत्यक्ष होने लगे तो इस प्रकार चिन्तन करे-वह परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सर्वव्यापक हूँ, सिद्ध है, मैं साध्य हूँ, और संसारसे रहित हूँ। ऐसा चिन्तन करनेसे ध्याता और ध्यानके भेदसे रहित चिन्मात्र स्फुरायमान होता है । उस समय ध्यानी मुनि पृथक्पनेको दूर करके परमात्मासे ऐसे ऐक्यको प्राप्त होता है कि जिससे उसे भेदका मान नहीं होता ॥ कहाभी है-'मैं लोक और अलोकको जानने देखनेवाला, विश्वव्यापी, स्वभावमें स्थिर और विकारोंसे रहित विकल परमात्मा हूँ। और भी कहा है जिसमें न तो शरीरमें स्थित आत्माका विचार करे, न शरीरका विचार करे और न खगत या परगत Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३] १२. धर्मानुप्रेक्षा चिंत देहत्यं देहं च ण चितए कि पिण सगयपरगयस्वं तं गयख्वं निरालंब || जत्थ ण झाणं ज्ञेयं शायारो य चितणं किंपि ण य धारणावियप्पो तं साणं सुदु भाणिज ॥' 'धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहूर्तिका । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्रेष शाश्वती ॥' इति रूपातीतं चतुर्थ ध्यानम् धर्मध्यानवर्णनं समाप्तम् ॥ ४८२ ॥ अथ शुरुध्वानं गाथापचकेन विशदयति । जत्थ गुणा सुविसुद्धा उयसम-खमणं' व जत्थ कम्माणं । समा ॥ ४८३ ॥ सा वि जत्था तं [ छाया-यत्र गुणाः सुविशुद्धाः उपशमपर्ण च यत्र कर्मणाम् । खेया अपि यत्र शुक्ला तत् शुक्रं भण्यते ध्यानम् ॥ ] सत् प्रसिद्ध शुक्रं शुक्राख्यं ध्यानं भव्यते कथ्यते जिनेरिति शेषः । तत् किम् । यत्र गुणाः सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रादयो गुणाः सकलमूलोत्तरगुण्डा वा । कथंभूतास्ते गुणाः । सुविशुद्धाः शङ्कादिमलरहिताः । च पुनः यत्र ध्याने कर्मणां मिध्यात्वादि प्रकृतीनाम् उपशमः करणत्रयविधानेन उपशमनम्। वज्रषभनाराचवज्रनाराचनाराचसंहननाविष्टो मुनिः अपूर्वोपशमकानिशृत्युपशमकसूक्ष्मम परायोपासकोपशान्तकषाय पर्यन्नगुणस्थानचतुष्टये उपशमश्रेणिचरितः उपशमसम्यम्टष्टिरष्टाविंशति मोहनीय कर्मप्रकृतीनाम् उपशमं विदधाति पृथतयवितर्कवी चार ध्यानबलेन उपशमं करोति । क्षायिकसम्यग्दृष्टिस्तु एकविंशतिप्रकृतीनामुपशमं विदधाति । तत्र्यानबलेनेत्यर्थः । अथवा अपर्ण कर्मणां निःशेषनाशनं च । वृषभनाराच संहननस्थः क्षपकः अपूर्व करण्णक्षण कानिक शिकरण क्षपकसूक्ष्मसावरायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये क्षपकश्रेण्यारूढः प्रथमशुलध्यानचखेन ज्ञानावरणादीनां प्रकृतीनां क्षयं विदधाति इत्यर्थः । अपि पुनः यत्र शुक्रभ्याने लेश्यापि शुका, अपिशब्दात् न केवलं ध्यानं शुक्रं शुक्रा शुक्रवैश्या, शुक्रलेश्मासहितं शुभं ध्यानं चतुर्ष स्यावित्यर्थः । तथा चोक ज्ञानार्णवे । 'आदिसंज्ञननोपेतः सर्वशः पुण्यचेष्टितः । चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्रं ध्यातुमर्हति ॥' 'शुचिगुणयोगाच्छु कषायरजसः फिरो 3 केटल रूपका विचार करे, उसे रूपातीत ध्यान कहते हैं | जिसमें ध्यान धारणा ध्याता ध्येय, और का कुछ भी विकल्प नहीं है वही ध्यान श्रेष्ठ ध्यान है | इस प्रकार चौथे रूपातीत ध्यानका वर्णन जानना चाहिये । धर्मध्यानका काल अन्तर्मुहूर्त है, उसमें क्षायोपशमिक भात्र और शुक्ल लेश्या ही होती है ॥ इस तरह धर्म ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ || ४८२ ॥ आगे पाँच गाथाओंसे शुक्र ध्यानको कहते हैं । अर्थ- जहाँ गुण अतिविशुद्ध होते हैं, जहाँ कमका उपशम और क्षय होता है, तथा जहाँ लेपा भी शुक्ल होती है, उस ध्यानको शुद्ध ध्यान कहते हैं | भावार्थ - जिस ध्यान से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र आदि गुण निर्मल हो जाते हैं, जिसमें वज्रवृषभ नाराच संहनन, वननाराच संहनन और नाराच संहननका धारी उपशमसम्यन्दृष्टी मुनि उपशम श्रोणिपर चढकर पुष्मत्व वितर्क वीचार नामक शुक्लध्यानके बलसे मोहनीयकर्मकी अठाईस प्रकृतियों का उपशम करता है और क्षायिक सम्यग्दृष्टी मोहनीयकी शेष बचीं इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता है, तथा जिसमें वक्रवृषभनाराच संहननका धारी मुनि क्षपक श्रेणिपर चढकर ज्ञानावरण आदि कमका क्षय करता है, और जिसमें लेश्या मी शुद्ध ही होती है वह ध्यान शुक्रध्यान है । ज्ञानार्णवमें मी कहा है- 'जिसके पहला वज्रवृषभ नाराच संहनन है, जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका जाननेवाला है, और जिसका चारित्र भी शुद्ध है वही मुनि चारों प्रकारके शुक ध्यानोंको धारण करनेके योग्य है ॥ कषायरूपी रजके क्षय अथवा उपशमसे जो आत्मामें शुचिपना आता है उस शुचिगुणके सम्बन्धसे १ मंग खत्रणं । vanja Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४८५क्षयादुपशमाद्वा । वैडूर्यमणिनिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकम्मं च ॥ कषायमलविश्लेषात्प्रशमादा प्रसूयते । यतः पुंसामतस्तज्जैः शुममुक्तं निरुक्तिकम् ।। इति ॥४८३॥ पडिसमयं सुझंतो अर्णत-गुणिदाएं उभय सुद्धीए । पढमं सुकं झायदि आरुढो उहय-सेहीसु ॥४८४ ॥ [छाया-प्रतिसमय शुध्यन् अनन्तगुणितया उभयशुधा । प्रथम शुर ध्यायति आरूतः उभयश्रेणीषु ।। ] ध्यायति स्मरति चिन्तयति । किं तत् । प्रथमं शुक्र पृथक्त्ववितकेवीवाराख्यं शुकध्यान ध्यायति । कः। आरूढः मुनिः आरोदणं प्राप्तः चटितः । क) उभय श्रेणिषु अपूर्वकरणगुणस्थानादिषु उपशामधेग्यों व । कर्मभूतः । उपशमको वा क्षपको वा मुनिः प्रतिसमयं शुध्यन् समय समय प्रति शुद्धि निर्मलता गच्छन् प्रतिसमयम् अनन्तगुणविशुद्ध्या वर्तमान इत्यर्थः । कया उभयच्या अन्तर्बहिनिमलतया । अथवा उपशमक्षपश्रेण्योः अपूर्वकरणपरिणामानां शुद्ध्या अनन्तगुणविशुख्या। कीहक्षया तया । अनन्तगुणितया पूर्वपरिणामात् उत्तरपरिणामः अनन्तगुणविशुख्या निर्मलतया वर्धमानः पूर्वपरिणामान उत्तरपरिणामा कागुणवर्धमानाः अत एव अनन्तगुणिता तया वर्धमानः। तथा हि उपशमविधानं सावल्कथ्यते । वृषभनाराचयनाराचनाराबसंहननेषु मध्ये अन्यतमसंहननस्थो भब्यवरपुण्डरीकः चतुर्थपञ्चमषष्ठमसप्तमेषु गुणस्थानेषु AnamouT4ALLही इसका नाम शुक्ल पड़ा है ॥ ४८३ ॥ अर्थ-उपशम और क्षपक, इन दोनों श्रीयोंपर आरूढ़ हुआ और प्रतिसमय दोनों प्रकारकी अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ मुनि पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्लभ्यानको ध्याता है ।। भावार्थ-सातवें गुणस्थान तक तो धर्मध्यान होता है । उसके पश्चात् दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं, एक उपशम श्रेणि और एक क्षपकश्रेणि । उपशम श्रेणिमें मोहनीयकर्मका उपशम किया जाता है, उपशमका विधान इस प्रकार कहा है-वनवृषभ भाराच, वनाराच और नाराच संहननभेसे किसी एक संहननका धारी भव्य जीव चौथे, पांचवे, छठे और सातवे गुणस्थान मेंसे किसी एक गुणस्थानमें धर्मध्यानके बलसे अन्तरकरणके द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्वं, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय इन सात प्रकृतियोंका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि होता है, अथवा इन्हीं सात प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। उसके पश्चात् सातवें गुणस्थानसे उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होनेके अभिमुख होता है। तब अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमेसे अधःप्रवृत्त करणको करता है । उसको सातिशय अप्रमत्त कहते हैं । वह अप्रमत्त मुनि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें उपशमश्रेणि पर चढकर पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्क ध्यानके बलसे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको करता हुआ प्रतिसमय कमौकी गुणश्रेणि निर्जरा करता है । वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर उसके बाद अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थानमें आता है। और पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यानके बलसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ और हास्य आदि नोकषायों, चारित्रमोहनीयकर्मकी इन इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता हुआ सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थानमें आता है। वहाँ सूक्ष्मकृष्टिरूप हुए लोभ कषायका वेदन करता हुआ अन्तिम समयमें संज्वलन लोभका उपशम करता है। उसके पश्चात् उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लभ्यानके बलसे समस्त मोहनीयकर्मका १वगुणिदाम, स ग गुणदाए । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यमानामा ३८१ १२. धर्मानुप्रेक्षा मध्ये अन्यतमगुणस्थाने अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य मिथ्यात्वप्रकृतित्रयस्य च करणविधानेन धर्मध्यानबलेन च उपशमं कृत्वा उपशमसम्याष्टिर्भवति, सप्तानामेतासां प्रकृतीनां क्षयं कृत्वा क्षायिकसभ्यर्भिवति वा । ततः अप्रमानगुणस्थानवी उपशमण्यारोहणं प्रत्यभिमुखो भवति तदा करणप्रयमध्येऽधःप्रवृत्तकरणं करोति । म एव सातिशयः अप्रमत्त उच्यते । स अप्रमत्तमुनिः अपूर्वकरणगुणस्थाने उपशमणिमारूतः पृथक्तवदितर्कवीचारशुमध्यानवलेन प्रतिसमयानन्तगुणविशुध्या वर्तमानः प्रसिसमयसंख्यातगणश्रेण्या प्रदेशनिर्जरा करोति । तत्र अन्तर्मुहूर्तकाल स्थित्वा लतः अनितगुणण्यानोपशमश्रेण्यारून उपशमको मुनिः पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्रध्यामचलेन, अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनमोघमानमायालोभदास्यादिभवनोकवायाः इत्येकविंशतिनारित्रमोहनीयप्रकृती: उपशमयन अन्तर्मुहूर्तकालस्थितिं कुर्वन , ततः सूक्ष्मसापरायगुणस्थानोपशमण्यारुतः सूक्ष्मकृष्टिगतप्रेभानुरागोदयमनुभवम् सूक्ष्माकिटिकाम्वरूप लोभ देदयन् प्रथमशुत यानबलेन समसापरायोपशमका खचरमसमये लोभसंज्वलन सूक्ष्मकिटिकावल्पं निःशेषमुपशमयति । ततः उपशान्तकषायगुणस्थानोपशमश्रेण्यातुः पृथसपवितवीचारशुकध्यानपरिणतः सन् एकविंशतिचारित्रमोहनीयप्रकृती निरवशेष उपशमथ्य यथाख्यातचारित्रधारी स्थान। शेषकर्मणामुपशमाभावात मोइनीयस्योपशमः कथितः। अथ पणविधि वक्ष्ये । अनन्तानुबन्धिकोधमानमाथालोभमिथ्यात्वसम्पम्मिध्यावसम्यक्त्वाख्याः सप्त प्रकृतीः एताः । असंयतसम्यग्दृष्टिः संयतासंयतः प्रमत्तसंयतः अप्रमत्तसंयतो वाचन मध्ये एक एव वर्षभनाराचसहमनयुक्तः त्रीन् करणान् कृत्या अनिषतिकरणचरमसमये अनुक्रमेण बत) क्यामरणां क्षपयति । कुतः। धर्मध्यामबलात् । पश्चारपुनराप श्रीन करणान फूत्वाधःप्रवृतिकरणापूर्वकरणी तो अतिक्रम्यानितिकरावालसंध्येयभागान् गत्वा मिथ्यात्वं धर्मध्यानबलेन क्षपयति । ततो अन्तर्मुहर्त गत्वा सम्बम्मिथ्यात्य क्षपयति । तदलेन ततो अन्त. मुंडूत गत्वा सम्यक्त्वं क्षपयति । क्षायिकसम्यग्दृष्टिः साधुः सातिशयाप्रमत्तसंवतो भूत्वा उत्कृष्धर्म यानवरेन परिणतः सन् अपूर्वकरणगुणस्थानक्षपकवेश्यामत: स्यात् । स अपूर्वकरणक्षपकः पृथक्त्ववितर्कवीचारशक्ध्यानबलेन समय समय प्रति भनन्तयुगनिशुम्या वर्धमानः सन् प्रतिसमय असंख्येयगुणस्वरूपेण प्रदेशनिरां करोति । ततः अनिवृतिकरणगुणस्थानक्षपकमायः अपकः अनिवृणिकरणस्य अन्तर्मुहूर्तस्य नव भागाः क्रियन्ते । तत्र अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमभागे निदान्द्रिा १ प्रचलनचला १ स्यानही १ नरकगति १ चिर्यम्गात १ एकेन्द्रियजाति द्वीन्द्रियजाति १ त्रीन्द्रियजाति १ चतुरिन्द्रियजाति उपशम करके यथाल्यात चारित्रका धारी होता है । शेष कौंका उपशम नहीं होता इस लिये केवल मोहनीय कर्मक ही उपशमका कथन किया है । आगे कौक क्षपणकी विधिको कहते हैं-असंयत सम्यम्दृष्टि अथवा संयतासंयत अपना प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभका क्षपण करके पुनः तीन करण करता है । उन तीन करणोंमेंसे अधःकरण और अपूर्वकरणको बिताकर अनिवृत्तिकरणके कालका संख्यात भाग बीतने पर धर्मध्यानके बलसे मिथ्यास्वका क्षय करता है । फिर अन्तर्मुहूर्तके बाद सम्यक् मिथ्यात्वका क्षय करता है फिर अन्तर्मुहूर्तके बाद सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करता है । इस तरह वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर सातिशय अप्रमत्त संयत होता था क्षपक श्रेणिपर चढ़ता है । और अपूर्वकरण गुणस्थानमें पहुँचकर पृथकाव वितर्क वीचार नामक शुभयानके बलसे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको करता हुआ प्रतिसमय गुणश्रेणि निर्जराको करता है । उसके बाद अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें जाता है । अनिवृत्तिकरणका काल अन्तर्मुहूर्त है उसके नौ भाग किये जाते हैं। प्रथम भागमें शुक्लथ्यानके बलसे निद्रानिद्रा, पश्चलाप्रञ्चला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, दोइन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगल्यानुपूर्वी, तिर्यग्गल्यानुपूर्वी, आतप, उदयोत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, इन सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है । दूसरे भागमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोम और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, इन आठ प्रकृतियोंका क्षय करता है। तीसरे भागमें नपुंसक Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोन not ranANA स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा नरकगतिप्रायोम्यानुपूर्वी १ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी 1 आतपोद्योतस्थावर सूक्ष्म १ साधारण १ नामिकाना षोडशाना कर्मप्रकृतीनां पृथक्त्ववितर्कचीचारशुक्रध्यानबलेन प्रक्षय नयति । द्वितीयभागे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानन्यायाष्टक ८ प्रथमशुक्रध्यानपरिणतः क्षय नयति । तृतीयभागे तद्गुलेन नपुंसकवेदं क्षपयति । चतुर्थ भागे तसेन स्त्रीवेदै क्षफ्यति । पचमे भागे तबलेन मोकषायपक्षपयति ६ । षष्ट भागे तरलेन पुवेदं क्षफ्यति ५ । सप्तमे भागे तद्वलन संज्वलगको क्षपयति ११ अष्टमे भागे तबलेन संज्वलनमायां क्षपयति । एवं पत्रिंशत्प्रकृतीः ३६ अनिवृत्तिकरणक्षपकोण्यारूढः क्षपकः पृथक्त्ववितर्कवीचारशुकभ्यानबलेन क्षपयतीत्यर्थः । ततः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानक्षपकोण्यारवः क्षपको भूत्वा सोऽपि सूक्ष्मसापरायात्मनः चरमसमये किट्टिकागतं सर्वलोभसंज्वलन प्रथमं शुक्रध्यानयलेन क्षपयति । ततो अनन्तर क्षीणकषायः क्षपको भवति । सोऽपि क्षीणकषायक्षपकनेण्यारूढः अन्तर्मुहूर्त गमयिला आत्मनो विचरमसमये एकत्ववितर्कावीचारद्वितीय शक्कभ्यानबलेन निद्राप्रबलासंझके द्वे प्रकृती क्षपयति । ततो अनन्तरं चरमसमये एकत्वषितर्कवीचारध्यानपरिणतः क्षपकः पञ्चज्ञानावरणचतुर्दर्शनावरणपश्चान्तरायाख्याश्चतुर्दशप्रकृतीः १४ क्षपयति । क्षीणकषायक्षपकः द्वितीयाक ध्यानपरिणतः सन् षोडशप्रकवीः क्षपयतीत्यर्थः । षष्टिकर्मप्रकृतिषु क्षीणेषु सयोगिजिनो भवति ॥ ४८४ ॥ णीसेस-मोह-विलाहीय-कार, य मंशिक मारे । स-सस्वम्मि' णिलीणो सुकं झापदि एयत्तं ॥ ४८५॥ [छाया-निःशेषमोइषिलये क्षीणकषाये च अन्तिमे काले । स्वस्वरूपे निलीनः राई ध्यायति एकत्वम् ।।] निःशेषमोहविलये सति निःशेषस्य समग्रस्य मिथ्यात्वत्रयानन्तानुबन्ध्यादिषोडशकषायहास्यादिनवनोकवायस्य अष्टाविंशतिभेदमिनस्य मोहनीयकर्मणः विलये नष्ट क्षीणे सति, क्षीणकषायः क्षीणा: क्षयं नीताः कषायाः सर्वे यस्य येन धा सुक्षीगणवायः क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती संयतः परमार्थतो निप्रेन्यः स्फटिकभाजनगतप्रसन्नतोयसमविशुद्धान्तरजः अन्तिमकाले खकीयान्त वेदका क्षय करता है । चौथे भागमें स्त्रीवेदका क्षय करता है । पाँचवे भागमें छः नोकषायोंका क्षय करता है । छठे भागमें पुरुषवेदका क्षय करता है । सातवें भागमें संज्वलन क्रोधका क्षय करता है । आठवें भागमें संज्वलन मानका क्षय करता है । नौवें मागमें संज्वलन मायाका क्षपण करता है । इस तरह क्षपक अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें पृथक्व वितर्क 'वीचार शुक्लध्यानके बलसे छत्तीस कर्म प्रकृतियोंका क्षय करता है । उसके बाद क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें जाकर प्रथम शुक्लथ्यानके बलसे उसके अन्तिम समयमें समत लोभ संज्वलनका क्षय कर देता है। उसके बाद क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थानवी होता है। वहाँ अन्तर्मुहुर्त काल बिताकर क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समयमें एकत्ववितर्क नामक दूसरे शुक्लथ्यानके बलसे निद्रा और प्रचलाका क्षय करता है । और अन्तिम समयमें पाँच बानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय इस प्रकार चौदह प्रकृतियोंका क्षय करता है । इस तरह दूसरे शुकच्यानसे सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है। ७+३६+१+१६-६० प्रकृतियोंका क्षय होने पर बह सयोग केवली जिन हो जाता है ॥ १८४ ॥ अर्थ-समस्त मोहनीय कर्मका नाश होनेपर क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिमकालमें अपने स्वरूपमें लीन हुआ आत्मा एकत्व वितर्क नामक दूसरे शुक्ल यानको ध्याता है ॥ भावार्थ-मोहनीय कर्मकी मिथ्याव आदि तीन, अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय और हास्य आदि नौ नोकषाय, इन अठाईस प्रकृतियोंका नाश हो जाने पर १कमसमणिरसेस बिलये। २ छग म कसाओ (उ), कसाई। स सरूवादि। ४ कगायेति । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८६] १२. धर्मानुप्रेक्षा मुहूर्तकालस्य अन्तिम विचरमसमये एकत्वं ध्यायति, एकत्वं वितर्कवीचाराख्यं वित्तीयं शुक्र ध्यायति चिन्तयति स्मरति तच्चानबलेन असंख्यातगुणश्रेणिक्रमनिर्जरां करोति । द्वितीय शुरुभ्यानबलेन उपान्तसमये निद्राप्रचलाद्वयं क्षपयति चरमसमये झानावरणीयपन ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणं चतुष्कं ४ दानलाभभोगोपभोगत्रीर्यान्तरायपश्चक ५ एवं चतुर्दशप्रकृतीः झपयति । शानदर्शनावरणीयान्तरायरूपघातित्रय द्वितीयाध्यानेन क्षपयतीत्यर्थः । कर्यभूतः क्षीणकषायः । निर्मन्थराद खवरूपे विलीनः खस्य आत्मन: सरूपे सुन्दबुद्धचिदानन्दशुद्धचिपे क्लिीनः लयं गतः, एकत्वं प्राप्त इत्यर्थः । तथा हि द्रव्यसंग्रहट्टीकायाम् , निजशुद्धात्मव्ये या निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपराधिस्वसंवेदनगुणे का यत्रकस्मिन् प्रकृतं तत्रैव वितर्कसंखेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूय वीचार द्रव्यगुणपर्यायपरावर्तनं करोति यत् तदेकत्ववितको वीचारसंझं क्षीणकपायगुणस्थानसंभव द्वितीयशुक्रभ्यानै भयंते । तेनैव केवलज्ञानोत्पतिरिति । तथा च ज्ञानार्गदे। 'अमृथक्त्वमवीचार सवितर्क च योगिनः । एकत्वमेक्योगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ॥ दुष्यं चैक गुणं चैकं पर्याय चैकमश्रमः । चिन्तयत्येकयोगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते॥' तथा । 'एकं तव्यमथाणु वा पोर्य चिन्तयेयतिः। योगैकेन यदक्षीण तदेकत्वमुपीरितम् ॥ अस्मिंस्तु निश्चल यानहताशे प्रविजम्भिते। बिलीयन्ते क्षणादेव पतिकर्माणि योगिनः ।।' इति । इति द्वितीयशुक्रध्यानम् ॥ ४८५॥ केवल-णाण-सहावो सुहमे जोगम्हि संठिओ काए। जं झायदि सजोगि-जिणो तं तिदियं सुहुम-किरियं च ॥ ४८६ ॥ [छाया-केवलज्ञानस्वभावः सूक्ष्मे योगे संस्थितः काये । यत् ध्यायति सयोगिजिनः तत् तृतीयं सूक्ष्मक्रिय ।] सयोगिजिनः रायोगिकेवसिभट्टारकः अष्टमहाप्रातिहार्य ग तिशयसरवर दिनिमूनिमाविष्टः पालौगीकोइवीकरदेवः, स्खयोग्यगन्धकुव्यादिविभूतिविराजमान इतरकेवली वा उत्कृष्टेन वेशोनपूर्वकोटिकाले विहरति सयोगिमट्टारकः। स यदा मुनि क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होता है । कषायोंके क्षीण होजानेसे वही सच्चा निर्धन्य होता है । उसका अन्तरंग स्फटिकमणिके पात्रमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान विशुद्ध होता है । क्षीणकषाय गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है । उसके उपान्त्य समयमें मुनि एकत्व विर्क नामक दूसरे शुक्ल ध्यानको ध्याता है । उस ध्यानके बलसे उसके प्रतिसमय असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी कनिर्जरा होती है । उसीके बलसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीन घातिकमोका विनाश होता है । द्रव्यसंग्रहकी टीका में एकत्व वितर्क शुक्लथ्यानका वर्णन करते हुए लिखा है'अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमें अथवा निर्विकार आत्मसुखानुभूतिरूप पर्यायमें अथवा उपाधिरहित खसंवेदन गुणमें प्रवृत्त हुआ और खसंवेदनलक्षणरूप भावश्रुतके बलसे, जिसका नाम वितर्क है, स्थिर हुआ जो ध्यान वीचारसे रहित होता है उसे एकत्र वितर्क अवीचार कहते हैं। इसी ध्यानसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है। ज्ञानार्णव में भी कहा है-'किसी एक योगवाले मुनिके पृथक्व रहित, वीचार रहित किन्तु वितर्क सहित अत्यन्त निर्मल एकत्व वितर्क नामक शुक्लध्यान होता है | जिस ध्यानमें योगी बिना किसी खेदके एक योगसे एक द्रव्यका अथवा एक अणुका अथवा एक पर्यायका चिन्तन करता है उसको एकत्व वितर्क शुक्लध्यान कहते हैं । इस अत्यन्त निर्मल एकत्व वितर्क शुक्कभ्यान रूपी अग्निके प्रकट होने पर ध्यानीके घातियाकर्म क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं ॥' इस प्रकार दूसरे शुकध्यानका वर्णन समाप्त हुआ ।। ४८५।। अर्थ-केवलझानी सयोगिजिन सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर जो ध्यान करते हैं वह सूक्ष्मक्रिय नामक सीसरा शुक्ल ध्यान है ।। भावार्थ-आठ महाप्रातिहार्य १वसुइमे योगम्मि । २ म स सदिय (१)। . Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८६ अन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः तदा तत् प्रसिद्धं तृतीयं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात्यभिधानं ध्यानं ध्यायति स्मरति । तत् किम् । यत् केवलज्ञानस्वभावः केवलज्ञानं केवलबोधः तदेव स्वभावः स्वरूपं यस्य स तयोः । केवलज्ञानम्वर्ण वा प्राकृते विनमेदो नास्तीति । च पुनः । कथंभूतः सूक्ष्मे योगे काये संस्थितः कामयोगे सम्यक्प्रकारेण स्थिति प्राप्तः । औदारिकशरीरयोगे की सूक्ष्मे । पूर्वस्पर्धका पूर्व स्प का दरकृष्टि करणानन्तरं सूक्ष्मकृष्टिकर्तव्यतां प्रसे बादरकाययोगे स्थित्वा कमेण बादर मनोवचनच्छ्रा निःश्वासं बारकाययोगे च निरुध्यतमः सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा क्रमेण सूक्ष्ममनोवचनोवासनिःश्वासं निरुध्य सूक्ष्मकागयोगः स्यात् । स एन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिश्यानं भवतीत्यर्थः । तथा ज्ञानार्णवे चोकम् | 'मोहेन सह दुर्ध हृते पातिचतुग्र्ये । देवस्य व्यक्तिरूपेण शेषमास्ते चतुष्टयम् ॥ राज्ञः क्षीणकर्मासौ केवलज्ञानभास्करः । अन्तर्मुहूर्तशेषायुस्तृतीयं ध्यानमर्हति ॥' 'शेषे षण्मासाषि संवृत्ता ये जिन प्रान्ति समुद्धार्त शेषा भाज्याः समुद्धा ते ' 'यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः । समुद्धतिविधि साक्षात प्रात्रारभते तदा ॥' 'अनन्तवीर्यः प्रथितप्रभावो दण्डं कपाटं प्रतरं विधाय । म लोकमेनं समचतुर्भिः निःशेषमापूरयति क्रमेण ॥ तदा सर्वगः सार्वः सर्वज्ञः ૩૪ चौतीस अतिशय और समवसरण आदि विभूतिले शोभित तथा परमऔदारिक शरीरमें स्थित तीर्थकर देव अथवा अपने योग्य गन्धकुटी आदि विभूतिसे शोभित सामान्य केवली अधिक से अधिक कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक विहार करते हैं। जब उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तब वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरे शुरू ध्यानको ध्यते है । इसके लिये पहले वह बादर काययोग में स्थित होकर बादर बचन योग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं । फिर वचनयोग और मनोयोग में स्थित होकर बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं । उसके पश्चात् सूक्ष्मकाय योग में स्थित होकर वचन योग और मनोयोगका निरोध कर देते हैं। तब यह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को ध्याते हैं || ज्ञानार्णवमें लिखा है- मोहनीयकर्मके साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार दुर्धर्ष घातिया कर्मोंका नाश होजाने पर केवली भगवानके चार अघातिकर्म शेष रहते हैं || कर्मरहित और केवलज्ञान रूपी सूर्यसे पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले उस सर्वज्ञकी आयु जन अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तब वह तीसरे शुध्यानके योग्य होते हैं | जो अधिक से अधिक छः महीने की आयु शेष रहने पर केवली होते हैं वे अवश्य ही समुद्रात करते हैं । और जो छः महीने से अधिक आयु रहते हुए केवली होते हैं उनका कोई नियम नहीं हैं वे समुद्धात करें और न भी करें। अतः जब अरहंत परमेष्टीके आयुकर्म की स्थितिसे शेष कर्मों की स्थिति अधिक होती है तब वे प्रथम समुद्रातकी विधि आरम्भ करते हैं । अनन्तवीर्यके धारी वे केवली भगवान् क्रमसे तीन समयोंमें दण्ड, कपाट और प्रतरको करके चौथे समय में लोकपूरण करते हैं । अर्थात् मूल शरीरको न छोड़कर आत्मा के प्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं । सो केवली समुद्रातमें आत्मा के प्रदेश प्रथम समयमें दण्डाकार लम्बे, दूसरे समय में कपाटाकार चौड़े और तीसरे समय में प्रतररूप तिकोने होते हैं और चौथे समय में समस्त लोकमें मर जाते हैं । सब सर्वगत, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वतोमुख, विश्वव्यापी, विभु, भर्ता, विश्वमूर्ति और महेश्वर इन सार्थक नामोंका धारी केवली लोकपूरण करके ध्यानके बलसे तत्क्षण ही कर्मोंको भोग में लाकर वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयुकर्मके समान कर लेता है । इसके बाद वह उसी क्रमसे चार समयोंमें लोकपूरण से पूरणसे प्रतर कपाट और दण्डरूप होकर चौथे समय आत्मप्रदेश शरीरके लौटता है। अर्थात् लोक प्रमाण हो जाते हैं ॥ . " Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा सर्वतोमुखः । विश्वव्यापी विभुर्भर्ता विश्वमतिमहेश्वरः ॥ लोकपूरणमाखाद्य करोति भ्यानवीर्यतः । आयुःनमानि कर्माणि भक्तिमानीय तत्क्षणे। ततः क्रमेण तेनैव स पश्चाद्विनिवर्तते । लोकपरणतः श्रीमाश्वतीि समयः पनः । काययोगे स्थितिं कृत्वा बादरेऽचिन्त्यष्टितः । सूभीकरोति वाक्वित्तयोमबुम्म स वादरम् ॥ काययोग ततस्त्यक्तवा स्थितिमासाथ तहये । स लक्ष्मीकुरते पश्चात्याययोग व वादरम् ॥ काययोगे ततः सूक्ष्मे पुनः कृत्वा स्थिति क्षणात् । योगदयं निकाति सद्यो वाक्चित्तसंज्ञकम् ।। सुक्ष्मनियं ततो ध्यान स साक्षाशातुर्महति । सूक्ष्मैककाययोगस्थस्तृतीयं यदि पठ्यते ॥' इति ॥ ४८६ ॥ अथ चतुर्थशुक्ल यानं निरूपयति जोग-विणासं किच्चा कम्म-चउकस्स खवण-करणटुं । जं झायदि 'अजोगि-जिणो जिकिरियं तं चउत्थं च ॥४८७॥' [छाया-योगविनाशं कृत्वा कर्मचतुष्कस्य क्षपणकरणार्थम् । यह ध्यायति अयोगिजिनः निष्क्रिर्य व तत ऋतुर्थ च ॥] सत् चतुर्य निष्कियं ज्युपरतकियानिवृत्त्याख्यं शुकध्यान समुच्छिन्ननियाभ्यानमपराभिधानं भवेत् । तत् किम् । यत् ध्यायति स्मरति । कः । अयोगिजिनः योगातिकान्तः चतुर्दशगुणस्थानधर्ती अयोगिकेवलिमटारकः पचलप्वक्षरस्थितिकः । कि कृत्वा ध्यायति । योगविनाशं कृत्वा योगानाम् औदारिककाम्बयोगादिसमस्तयोगानां विनातः स्वराः तं विधान विनष्टकर्मानव इत्यर्थः । किमर्थम् । जयस्य कोण वेद अनाया गया चतरयमा भाणकरणार्थ क्षयकरणनिमित्तम् । चतुर्थशुक्लध्यानस्थायोगी स्वामी । यद्यन्त्र मानसो व्यापारो नास्ति तथाप्नुपचारक्रियया ध्यानमित्युपर्यते । पूर्वनिमपेक्ष्य घृतघटवत्, यथा घटः पूर्द घृतेन भृतः पश्चात् रिक्तः कृतः वृतघट आनीयतामित्युच्यते तथा पूर्न मानसव्यापारयात पंवेदयति । तथा शामागंथे। अबोगी व्यक्तयोगत्यात् केवलोऽत्यन्तनिर्धतः । साधितात्मस्वभावश्च परमेष्टी परं प्रभुः द्वासमसिपिलीयन्ते कर्मप्रकृतयो दुतम्। उपान्से देवदेवस्य मुक्तिीप्रतिबन्धाः तस्मिभेव क्षणे सक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रिय ध्यानमयोगिपरमे मनः धिल्यं वीतरागस्य पुनन्ति अयोदश । चरगे रामये सद्यः पर्यन्ते जिनकी चेष्टा अचिन्त्य है ऐसे वे केवली भगवान् तव बादर काययोगमें स्थित होकर वादर वचनयोग और बादर मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं । पुनः काययोग को छोड़कर यधनयोग और मनोयोगमें स्थित होकर बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं |! उसके बाद सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर तरक्षण ही वचनयोग और मनोयोगका निग्रह करते हैं। उसके बाद सूक्ष्म काययोगमें स्थित हुए केवली भगवान् सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यानको ध्यानेके योग्य होते हैं । इस प्रकार तीसरे शुक्ल ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ (! ४८६ ।। आगे चौथे शुक्लथ्यानका निरूपण करते हैं । अर्थ-योगका अभाव करके अयोगकेवली भगवान' चार अधातिकौंको नष्ट करनेके लिये जो ध्यान करते हैं वह चौथा म्युपरतक्रियानिवृत्ति नामका शुक्ल ध्यान है | भावार्थ-चौदहवें गुणस्थानमें समस्त योगोंका अभाव हो जाता है । इसीसे उसे अयोगकेवली कहते हैं । अयोगकेवली गुणस्थानमें चौथा शुक्ल ध्यान होता है । यद्यपि ध्यानका लक्षण मानसिक व्यापारकी चंचलताको रोकना है और केवलीके मानसिक व्यापार नहीं होता, तथापि ध्यानका कार्य 'कर्मो की निर्जरा' के होनेसे उपचारसे ध्यान माना जाता है। चौथे शुक्लध्यानका वर्णन करते हुए ज्ञानार्णवमें भी कहा है. 'योगका अभाव हो जानेसे चौदहवे गुणस्थानवर्ती अयोगी कहलाते हैं, वे परमेष्ठी और उत्कृष्ट प्रभु होते हैं। उन देवाधिदेवके चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्तिमें रुकावट डालनेवाली बहन्तर कर्म प्रकृतियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाती हैं। १ ग अयोगि, म अजोश । २ तं निकिरियां च उरथ: ३ व शुमाझागं । एमो श्त्यादि । कार्तिके- ४९ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकाचिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४८७या व्यवस्थिताः लघुपन्धाक्षरोबारकालं स्थित्या ततः परन् । स्वखभावाद्वाजत्यूचं शुद्धात्मा बीतबन्धनः ।। इति । तथा कर्मप्रकृतिप्रन्थे । स एव सोगिकेवली यधन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्यस्थितिः ततोऽधिकशेषाघातिकर्मत्रयस्थितिस्तदाष्टमिसमौदण्डकपाटप्रतरलोकपूरणप्रसरणसंहारस्य समुद्धातं कृत्वान्तमुहूर्तावशेषितायुष्यस्थितिसमानशेषावाहिकर्मस्थितिः सन् सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिनामतृतीयशुमध्यानयलेन कायवामनोयोगनिरोधं कृत्वा अयोगिकेवली भवति । यदि पूर्वमेव ससस्थिति कृत्वाऽघातिचतुष्टयस्तदा समुद्रातक्रियया विना तृतीय शुक्रध्यानेन योगनिरोधं कृत्वा अयोगिकेवाली चतुर्दशगुणस्थानवर्ती भवति । पुनः स एवायोगिकेवली न्युपरतक्रियानिवृत्तिनामचतुर्थशुक्रव्यानेन पञ्चलप्यारोच्चारणमात्रखगुणस्थानकालविचरमसमये देहादिद्वासप्ततिप्रकृती: क्षापयति । पुनः चरमसमये एकतर वेदनीयादित्रयोदशकर्मप्रकृन्तीः क्षपयति । तद्विशेषमाह । अयोगिकेवली आत्मकालदिचरमे अन्यतरवेदनीयं ५ देवगतिः २ औदारिकर्वक्रियिकाहारकलैजसकार्मणशरीरपञ्चक ५ तत् बन्धनपञ्चकं १२ तत्संघातपञ्चक १७ संस्थानषई २३ औदारिकवैकियिकाहारकशरीरातोपाङ्गत्रयं २६ संहननबई ३२ प्रशस्ताप्रशस्तवर्णपदकं ३७ सुरभिदुरभिगन्धर्य ३१ प्रशस्ताप्रशस्तरसपञ्चक ४४ स्पर्शाष्टकं ५२ देवगत्यानुपूर्व्यम् ५३ अगुरूलघुत्वम् ५४ उपघातः ५५ परघातः ५६ उरट्रासः ५७ प्रशस्ताप्रशस्तनिहायोगतिद्वर्य ५९ पोतिः ६. प्रत्येकशरीरे ६१ स्थिरस्वमस्थिरत्वं ६३ शुभत्वमशुभत्वं ६५ दुर्भगय ६६ सुखरत्व ६७ दुःस्थरत्वम् ६८ अनादेयत्वम् ६९ अयशःकीर्तिः ७० निर्माण ७१ नीचगोवामिति ७२ द्वासप्ततिप्रकृतीः ज्युपरतकियानिवृत्तिनामचतुर्थशलध्यानेन क्षपयति ॥ अयोगिकेवलि चरमसमये अन्यतरवेदनीयं १ मनुष्यायुः २ मनुष्यगतिः ३ पश्चेन्द्रियजातिः ४ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य ५ त्रसत्वं ६ बादरत्वं ७ पर्याप्तकत्वं ८ सुभगत्वम् ९ आदेयत्वं १० यश-कीर्तिः ११ तीर्थकरत्वम् १२ उचैर्गोत्रं चेति १३ प्रयोदश प्रकृतीः चतुर्थशुक्लध्यानेन क्षपयति । पुनरपि तद्ध्यानशुक्ल चतुष्टयं स्पष्टीकरोति । श्येकयोगकाययोगायोगानां पृथक्ववितर्क त्रियोगस भवति। मनोवचनकायानामवष्टम्मेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दम् आत्मप्रदेशचलनमीदम्बिध पृथक्त्ववितर्कमाये शुक्रध्यान भवतीत्यर्थः । । एकत्ववितक शुक्रव्यानं त्रिषु योगेषु मध्ये मनोत्रचनकायानां मध्ये अन्यतमैकावलम्भेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दनम् आत्मप्रदेशचलनं द्वितीयमेकत्ववितर्क शुक्रव्यानं भवति २ । सूक्ष्मक्रिया प्रतिपातिकाययोगावलम्बनेनात्मप्रदेशचलन - उसी समय उनके समुच्छिन्नक्रिया नामक निर्मल ध्यान प्रकट होता है । अन्तिम समयमें शेषबची तेरह कर्मप्रकृतियों भी नष्ट हो जाती हैं ।। इस तरह पाँच हख अक्षरोंके उच्चारण करनेमें जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें गुणस्थानमें रहकर वह शुद्धात्मा मुक्त हो जाता है । कर्मप्रकृति नामक ग्रन्थमें भी लिखा है-'यदि सयोगकेवलीके आयु कर्मकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त और शेष तीन अघातिकर्मोकी स्थिति उससे अधिक रहती है तो वे आठ समयमें केवली समुद्धातके द्वारा दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूरण रूपसे आत्मप्रदेशोंका फैलाव तया प्रतर, कपाट, दण्ड और शरीरप्रवेश रूपसे आत्मप्रदेशोंका संकोच करके शेषकर्मोकी स्थिति आयुकर्मके बराबर करते हैं । उसके पश्चात् तीसरे शुक्ल ध्यानके बलसे काययोग, वचनयोग और मनोयोगका निरोध करके अयोगकेवली हो जाते हैं। और यदि सयोगकेवलीके चारों अघातियाकर्मोंकी स्थिति पहलेसे ही समान होती है तो समुद्घातके बिना ही तीसरे शुक्लथ्यानके द्वारा योगका निरोध करके चौदहवे गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली हो जाते हैं। उसके बाद वह अयोगकेवली व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यानके बलसे अयोगकेवली गुणस्थानके द्विचरम समयमें बहा. सर कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है । फिर अन्तिम समयमै वेदनीय आदि तेरह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है | इसका खुलासा इस प्रकार है-'अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मण शरीर, पाँच बंधन, पाँच संघात, छ. संस्थान, तीन अंगोशंग, छ: संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्व्य, Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८७] १२. धर्मानुभेक्षा भवति ३ । व्युपरतक्रियानिवृषिशुक्लध्यानमेकमपि योगमवस्मयात्मप्रदेशचलन भवति ४ । वितर्कः श्रुतं विशेषणं विशिष्ट वा तर्कण सम्यगूहन वितर्फः श्रुतं श्रुतज्ञानम् । वितर्क इति कोऽर्थः । श्रुतशानमित्यर्थः । प्रथम छमध्यानं द्वितीय च शुक्रध्यान श्रुतज्ञानबलेन ध्यायते इत्यर्थः। वीचारोऽर्थव्यानयोगसंक्रान्तिः। अर्थश्व व्यञ्जनं च योगसंक्रान्तिः अर्थक्ष व्यजनं च योगब अर्थव्यञ्जनयोगास्तेषां संक्रान्तिः परिवर्तनं वीचारो भवतीति । अथों ध्येयो ध्यानीयो ध्यातव्यः पदार्थः द्रव्य पर्यायो वा । म्याने वचनं शब्द इति २ । योगः कायवाम्मनःकर्म ३ । संक्रान्तिः परिवर्तनम् । तेनायमर्थः, द्रध्यं ध्यायति द्रव्य त्यक्त्वा पर्यायं ध्यायति, पर्याय च परिहत्य पुनः द्रव्यं धायति इत्येवं पुनः पुनः संक्रमणमर्थसंक्रान्तिरुच्यते । तथा श्रुतज्ञानशब्दमबलम्ब्य अन्यं श्रुतज्ञानशब्दमवलम्बते, तमपि परित्यापरं श्रुतज्ञानवचनमाश्रयति । एवं पुनः पुनः श्रुतज्ञानाश्रयमाणश्च व्य लभतेसा योग गुमायो । भलोग वा आश्रयति तमपि विमुच्य काययोगमागच्छति। एवं पुनः पुनः कुर्वन् योगसंक्रान्ति प्राप्नोति ३१ अर्थव्यञ्जनयोगानां संकान्तिः परिवर्तनं वीचारः कथ्यते। तपाहि भव्यचरपुण्डरीकः उत्तमसंहननाविष्टः मुमुक्षुः द्रव्यपरमाणु इव्यस्य सूक्षमत्वं भावपरमाणु पर्यायस्य सूक्ष्मत्वं दा ध्यायन् समारोपितश्रुतज्ञानसामर्थ्यः सन् अर्थव्याने कायवचसी द्वे च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसा असमर्थवालकोधमवत् अतीक्ष्णेनापि कुठारादिना चिराष्ट्रः छिन्दन, इद मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयन् वा मुनिः पृथक्वत्रितर्फवीचारध्यान भजते । स एवं पृयस्यवितर्कवीचारध्यानभाग मुनिः समूलतूलं मोहनीयं कर्म निर्दिधक्षन मोहकारणभूतसूक्ष्मलोमेन सह निर्दधुमिच्छन् भस्मसात् कर्तुकामः अनन्तगुणविशुद्धिक योगविशेष समाश्रित्य प्रचुरतराणां ज्ञानावरणसहकामीभूताना प्रकृतीनां बन्धनिरोधस्थितिहासौ च कुर्वन् सन् श्रुतज्ञानोपयोगः सन् परिहतार्थव्यचनसंक्रान्तिः सन् अप्रचलिलम्वेताः क्षीणकषायगुणस्थाने स्थितः सन् चैयमणिरित्र निकलकः निरुपलेपः सन् पुनरवस्तादनिवर्तमानः एकत्लवितर्कावीचार ध्यान ध्यात्वा निर्दग्धघातिकर्मेन्धनो भगवांस्तीर्थकरदेवः सामान्यानगारफेवली वा गणधरकेवली वा प्रकर्षेण देशोना पूर्वकोये भूमण्डले विहरति स भगवान् यदा अन्तर्मुहूर्तशेषायुर्भवति अन्तर्मुहूर्तस्थितिवेद्यनामगोत्रश्च भवति तदा सर्व वाम्योग अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्रास, प्रशस्त और अप्रशस्त बिहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःखर, सुखर, अनादेय, अयशाकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, ये बहात्तर प्रकृतियाँ व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानके वलसे क्षय होती हैं । और अन्तिम समयमें कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपुर्व्य, स, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थक्कर, उच्चगोत्र ये तेरह प्रकृतियाँ क्षय होती हैं ।' रविचन्द्रकृत आराधनासारमें कहा है'कर्मरूपी अटवीको जलानेवाला शुक्लध्यान कषायोंके उपशम अथवा क्षयसे उत्पन्न होता है और प्रकाशकी तरह स्वच्छ स्फटिक मणिकी ज्योतिकी तरह निश्चल होता है। उसके पृथक्ववितर्कवीचार आदि चार भेद हैं ॥ चौदह पूर्वरूपी श्रुतज्ञानसम्पत्तिका आश्रय लेकर प्रथम शुकध्यान अर्थ, व्यंजन और योगके परिवर्तनके द्वारा होता है । तथा चौदह पूर्वरूपी श्रुत ज्ञानका वेत्ता जिसके द्वारा एक वस्तुका आश्रय लेकर परिवर्तन-रहित ध्यान करता है वह दूसरा शुक्ल ध्यान है || समस्त पदार्थों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाले केवली भगवान काययोगको सूक्ष्म करके तीसरे शुक्ल ध्यानको करते है । और शीलके खामी अयोगकेवली भगवान् चौथे शुक्ल ध्यानको करते हैं | आर्तध्यान आदिके छ: गुणस्थानों में होता है । रौद्रध्यान आदिके पाँच गुणस्थानोंमें होता है और धर्मध्यान असंयत सम्यादृष्टिको आदि लेकर चार गुणस्थानोंमें होता है । तया अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में पुण्यपापका अभाव होनेसे विशुद्ध शुक्लध्यान होता है | उपशान्त कषायमें पहला शुक्लध्यान होता है, क्षीण कषायमें दूसरा शुक्लध्यान होता है, सयोग केवलीके तीसरा शुक्लध्यान होता है, और अयोग केवलीके चौथा शुक्लध्यान होता है । इस प्रकार चारों शुक्लध्यानोंका वर्णन समाप्त हुआ । शंका-कुछ लोग Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८७ मनोयोग बादरकाययोगं च परिहत्य सूक्ष्मकायोगे स्थित्वा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान समाश्रयति । यदा त्वन्तर्मुइर्तशेषायु:स्थितिः ततोऽधिकस्थितिवेद्यनामगोत्रकर्मत्रयो भगवान् भवति तदात्मोपयोगातिशयव्यापारविशेषः यथाख्यातचारित्रसहायो महासंवरसहितः शीघ्रतरकर्मपरिपाचनपरः सर्वकर्मरजःसमुडायनसमर्थस्वभावः दण्डकपाटपतरलोकपूरणानि निजात्मप्रदेशप्रसरणलक्षणानि चतुर्भिः समयः समुपहरति, ततः समान विहितस्थित्यायुर्वेद्यनामगोत्रकर्मचतुष्कः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगावलम्बनेन सश्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । कर्थ दण्डकादिसमुद्धात इति चेदुग्यते। काउस्सम्गेण ठिओ वारस अंगुलपमाणसमवई। वादूर्ण लोगुदयं दंडसमुम्घादमेगसमयम्हि ॥ मह उपद्रो संतो मूलसरीरप्पमाणदो तिगुण। दाहालं कुगइ जिणो दण्डसमुम्वादमेगसमयम्हि ईण्डपमाण बहल उइयं च कवाडणाम बिदियम्हि । समये दक्षिणवामे आदपदेससप्पणं कुणइ यमुहो होदि जिणों दक्खिणउत्तरगदो कवाडो हु । उत्तरमुहो दु जादो पुव्यावरगदो कवाडो दुवादतय बज्जिता लॉग आदम्पसप्पा कुणइ । तदिये समयम्हि जिणो पदरसमुग्धादणामो सो तो चउत्थसमये बादलयसहिदलोगसंपुष्णो । होति हु आदपदेसो सो चेव लोगपूरणो रस ण दु आउसरिसाणि णामगोदाणि वेयणीयं वा । सो कुणदि समुग्धार्थ णियमेण जिणो ण संदेहोसम्मासागसेसे उप्पण्ण जस्स केवलं जाण । ते णियमा समुग्धार्य सेसेसु हुवति भयाणजा की पढमे दंई कुणइ विदिये 2 कवाडयं तहा समये । तिदिये पयरं चैव य चलत्थए लोयपूरगये ।। विवरं पंचमसमये जोईमत्थाणयं तदी छठे। सत्तमए य कवार्ड संवरइ तदो मढमे दंड दिडजुगे ओरालं कवाडंजुगले य तस्स मिस्सं तु । पदरे य लोअपूरे कम्मेव य होदि गायथ्यो । दण्डकद्वयकाले औदारिकशरीरपर्याप्तिः । कपाटयुगले औदारिकमिश्रः । प्रतरयोलोकपूरणे च कार्मणः । तत्र अनाहार इति । तदनन्तरं व्युपरतक्रियानिवर्तिनामधेर्य समुच्छिनक्रियानित्यपरनामकं ध्यान प्रारभ्यते । समुच्छिन्नः प्राणापामप्रचारः सर्वकायबाग्मनोयोगसर्वप्रदेशपरिस्पन्दक्रियाव्यापारथ यस्मिन् तत्समुच्छिम क्रियानिवतिध्यानमुच्यते । तस्मिन् समुच्छिानक्रियानिवर्तिनि च्याने सर्वास्त्रवबन्धनिरोधं करोति सर्वशेषकर्मचतुष्टयविध्यसनं विदधाति । स भगवान् अयोगिबली सॉस काल ध्यानाभिनिदग्धकर्मभलकालाधनः यह आपत्ति करते हैं कि आजकल शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता; क्यों कि एक तो उत्तम संहननका अभाव है, दूसरे दस या चौदह पूर्वोका ज्ञान नहीं है। इसका समाधान यह है कि इस कालमें शुक्ल ध्यान तो नहीं होता किन्तु धर्मध्यान होता है। आचार्य कुन्दकुन्दने मोक्षप्राभृतमें कहा भी है-'भरतक्षेत्रमें पंचमकालमें ज्ञानी पुरुषके धर्मध्यान होता है वह धर्मध्यान आत्मभावनामें तन्मय साधुके होता है । जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है | आज भी आत्मा मन बचन कायको शुद्ध करके ध्यानकरनेसे इन्द्रपद और लौकान्तिक देवत्वको प्राप्त करता है तथा यहाँसे च्युत होकर मोक्ष जाता है । तस्वानुशासनमें मी कहा है--जिन भगवानने आज कल यहाँपर शुक्लध्यानका निषेध किया है | तथा श्रेणीसे पूर्ववर्ती जीवोंके धर्मध्यान कहा है ॥ तत्वार्थसूत्रमें सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चारोंको धमध्यानका स्वामी कहा है || धर्मध्यानके दो भेद हैं-मुख्य और औपचारिक । अप्रमत्त गुणस्थानमें मुख्य धर्मध्यान होता है और शेष तीन गुणस्थानोंमें औपचारिक धर्मध्यान होता है । और जो कहा जाता है कि अपूर्वकरण गुणस्थानसे नीचेके गुणस्थानोंमें उत्तम संहनन होने पर ही धर्मध्यान होता है सो आदिके तीन उत्तम संहननोंके अभावमें भी अन्तके तीन संहननोंके होते हुए धर्मध्यान होता है। जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है-आगममें जो यह कहा है कि क्न शरीरवालेके ध्यान होता है सो यह कथन उपशम और क्षपकश्रेणिकी अपेक्षासे है । अतः नीचेके गुणस्थानोंमें ध्यानका निषेध नहीं मानना चाहिये | और यह जो कहा है कि दश या चौदह पूर्वाका ज्ञान होनेसे ध्यान होता है यह मी उत्सर्ग कथन है । अपवाद कथनकी अपेक्षा पाँच समिति और तीन गुप्ति इन आठ प्रवचन माताओंका ज्ञान होनेसे मी ध्यान होता है, और केवल Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E -४८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा सभ् दूरीकृतविधातुपाषाणसं जातसार्धषोडशदणि कासुवर्णरूपसदृशः परिप्राप्तात्मस्वरूपः एकसमयेन परमनिर्वाणं गच्छति । मान्यध्यानद्वये यद्यपि चिन्ता निरोधो नास्ति तथापि ध्यानं करोतीत्युपचर्यते । कस्मात् 1 ध्यानकृत्यस्य योगापहारस्याचा तिघातस्योपचारनिमित्तस्य सद्भावात्। यस्मात् साक्षात्कृत समस्त वस्तुस्वरूपेऽर्हति भगवति न किंचिपेयं स्मृतिविषयं वर्तते । तत्र यद्ध्यानं तत् असम कर्मणा समकरणनिमित्तम् । तदेवं निर्वाणमुखं तत्सुखं मोक्षयात् १, दर्शन दर्शनावरणक्षयात् २ ज्ञानं ज्ञानावरणक्षयात् ३, अनन्तवीर्यम् अन्तरायक्षयात् ४, जन्ममरणक्ष्यः आयुःक्षयात् ५, अमूर्तत्वं नामक्षयात् ६, नीचोद कुलक्षयः गोत्रक्षयात्, इन्द्रियजनितसुखक्षयः वेद्यक्षयात् ८ । इति तत्वार्थसुत्रोक्तं निरूपितम् । तथा चारित्रसारे ध्यानविचारः । शुक्लध्यानं द्विविधं पृथक्त्ववितर्कवी चार मेकत्व वितर्काची चारमिति शुक्रं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिनमुचिछन्नक्रियानिवृतीन परमशुक्रमिति । तद्विविधं बाह्यमाध्यात्मिकमिति । गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहितं जम्भजृम्भोद्वारादिवर्जितम् उच्छिन्नप्राणापानचारस्यम् अपराजितस्त्वं बाधं तदनुमेयं परेषाम् आत्मानं स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं तदुच्यते। पृथक्तवं नानात्वं, बितर्कों द्वादशाशश्रुतज्ञानं, वीचारो अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः व्यञ्जनमभिधानं तद्विषयोऽर्थः मनोवाक्कायलक्षणा योगाः, अन्योन्यतः परिवर्तन संक्रान्तिः । पृथक्त्वेन वितर्कस्य अयंव्यजनयोगेषु संकान्तिः वीचारों यस्मिन्नस्तीति तत्पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथमं शुक्रम् | अनादिसंभूतदीर्घसंसार स्थिति सागरपार जिगमिषुर्मुमुक्षुः स्वभावविजृम्मितपुरुषाकारसामर्थ्यात् द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु वा एकमवलम्ब्य संहृताशेषचित्तविक्षेपः महासवरसंवृतः कर्मप्रकृतीनां स्थित्यनुभाग हास्यन् उपशमयन् क्षपयेव परमबहुकर्मनिर्जरष्टिषु योगेषु अन्यतमस्मिन्वर्तमानः एकस्य द्रव्यस्य गुणं वा पर्यायं वा कर्म बहुमयगहन निलीनं पृथग्बलेनान्तर्मुहूर्तकालं ध्यायति, ततः परमार्थान्तरं संक्रामति । अथवा अस्यैवार्थस्य गुणे का पर्याय वा संक्रामति पूर्वयोगात् योगान्तरं व्यञ्जनात् व्यञ्जनान्तरं संक्रामतीति अर्थादर्थान्तरं गुणागुणान्तरं पर्याययान्तरेषु योगत्रयसंक्रमणेन तस्यैव ध्यानस्य द्वाचत्वारिंशद्धा भवन्ति । तद्यथा 1 षण्णां जीवादिपदार्थाना क्रमेण ज्ञानावरणगतिस्थितिवर्तनावगाहनादयो गुणास्तेषां विकल्पाः पर्यायाः । अर्थादन्योऽर्थः अर्थान्तरं गुणादन्यो हुए दो तीन पदों को घोघते ज्ञानगी होता है। ऐसा जान नहीं हैं तो 'अपने रचे हुए शिवभूति केवली होगया' भगवती आराधनाका यह कथन कैसे घटित हो सकता है ? शायद कोई कहें कि पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप तो द्रव्य श्रुतका ज्ञान होता है किन्तु भावश्रुतका सम्पूर्ण छान होता है। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्यों कि यदि पाँच समिति और तीन गुप्तिके प्रतिपादक द्रव्यश्रुतको जानता है तो 'मा रूसह मा दूसह' इस एक पदको क्या नहीं जानता ! अतः आठ प्रवचनमाताप्रमाणही भावश्रुत है द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं है । यह व्याख्यान हमारा कल्पित नहीं है किन्तु चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमें मी ऐसाही कथन है । यथा - 'अन्तर्मुके पश्चातही जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न होजाता है ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानयर्तियोंको निर्मन्थ कहते हैं । उनको उत्कृष्टसे चौदह पूर्वरूपी श्रुतका ज्ञान होता है और जघन्य से पाँच समिति और तीन गुप्तिमात्रका ज्ञान होता है। कुछ लोग यह शंका करते हैं कि मोक्षके लिये ध्यान किया जाता है किन्तु आजकल मोक्ष नहीं होता, अतः ध्यान करना निष्फल है। किन्तु ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्यों कि आजकल भी परम्परासे मोक्ष हो सकता है। जिसका खुलासा यह है - शुद्धात्माकी भावना के बलसे संसारकी स्थितिको कम करके जीव खर्गमें जाते हैं। और वहाँसे आकर रत्नत्रयकी भावनाको प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं । भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, रामचन्द्र, पाण्डव वगैरह जो भी मुक्त हुए वे भी पूर्वभवमें मेद और अमेदरूप रमत्रयकी भावनासे संसारकी स्थिति को कम करके ही पीछेसे मुक्त हुए । अतः सबको उसी भवसे मोक्ष होता है ऐसा नियम नहीं है । इस तरह उक्त प्रकारसे घोडेसे श्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है || ध्यानके दो भेद भी हैं- सविकल्पक और निर्विकल्पक । धर्मध्यान सविकल्पक होता है Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८७ गुणः गुणान्तरं पर्यायादन्यः पर्यायः पर्यायान्तरम् एवमर्थादर्थान्तरगुणगुणान्तरपर्यायपर्यायान्तरेषु षट्सु योगत्रयसंक्रमणाद् अष्टादश भक्ता भवन्ति १८ । अर्थागुणगुणान्तरपर्याय पर्यायान्तरेषु चतुर्षु योगत्रयसंक्रमणेन द्वादश भा भवन्ति १२ । एवमर्थान्तरस्यापि द्वादश भन्ना भवन्ति १२ । सर्वे पिण्डिता द्वाचत्वारिंशङ्गा भवन्ति ४२ । एवंविधप्रथमशुक्लध्यानमुपशान्तकषायेऽस्ति क्षीणकषायस्यादौ अस्ति । तत् शुक्लतरलेश्याचलाधानम् अन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् उपात्तार्थं व्यञ्जनयोगसंक्रमणं चतुर्दशदशनवपूर्वधारयतिनृषभनिषेध्यमुपशान्तक्षीणकषायविषयभेदात् स्वर्गापवर्गगतिफलदायकमिति । उत्कृष्टेन कियद्वारम् उपशमश्रेणीभारोतीति प्रश्ने प्राह । चित्तारि बारसमुवसमासेति समारुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय पिन्वादि ॥ उपशमश्रेणिमुत्कृष्टेन चतुर्वीरानेदारोहति क्षपितकर्मा शो जीवः । उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवा रोहति । संयममुत्कृष्टेन द्वात्रिंशद्वारान् प्राप्य ततो नियमेन निर्वात्येव निर्वाण प्राप्नोत्येव ॥ द्वितीयशुक्रभ्यानमुच्यते । एकस्य भावः एकत्वं वित्तकों द्वादशाङ्गः, [ अवीचारोऽसंक्रान्तिः । एकत्वेन वितर्कस्य श्रुतस्यार्थव्यञ्जन - योगानामवीचारोऽकान्तिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्काचीचारं ध्यानम् ] एकयोगेन अर्थगुणपर्यायेष्वन्यतममन्यस्मिशवस्थानं पूर्ववित्पूर्वधारयतिवृषभनिषेध्यं द्रव्यभावात्मकज्ञानदर्शनावरणान्तरायघातिकर्मत्रयवेदनीयप्रमृत्यषातिकर्मसु केषांचिद्भावकर्मविनाशनसमर्थमुत्तमतपोऽतिशयरूपं पूर्वोक्तक्षीणकषायाविशिष्टकालभूमिकम् असंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरं भवति । एवंविधद्वितीयशुक्रभ्यानेन घातित्रय विनाशानन्तरं केवलज्ञानदर्शनादिसंयुक्तो भगवान् तीर्थकर इतरो वा उत्कृष्टेन देशोन पूर्वं - कोटिकालं बिहरति सयोगिभट्टारकः । स यदा अन्तर्मुहूर्तशेषा युष्कः समस्थितिबेधनामगोत्रच भवति, तदा बादरकाययोगे स्थित्वा क्रमेण मादरमनोवचनोच्छ्वासनिःश्वास बादरकार्य च निरुध्य ततः सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा क्रमेण सूक्ष्ममनोवचनोच्छ्वासनिःश्वासं निरुध्य सूक्ष्मकाययोगः स्यात् । स एवं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं तृतीयमिति । यदा पुनरन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः तदधिकस्थिविक्रमशः सयोगिजिनः समयैकखण्डके चतुः समये दण्डकपाठप्रतर लोकपूर्णाभिस्वात्मप्रदेशविसर्पणे जाते तावद्भिरेव समयैरुपसंहृतप्रदेशविसर्पणः आयुष्यसमीकृताघातित्रयस्थितिः निर्वर्तितसमुद्धातक्रियः पूर्वशरीरपरिमाणो भूत्वा 2 और शुक्लध्यान निर्विकल्पक होता है। आर्त और रौद्रध्यानको छोड़कर अपनी आत्मामें मनको लय करके आरमसुख स्वरूप परमध्यानका चिन्तन करना चाहिये । परमध्यान ही वीतराग परमानन्द सुखखरूप है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप है । परमध्यानही शुद्धात्मखरूप है, परम ध्यानही परमात्म स्वरूप है, एक देश शुद्ध निश्चय नयसे अपनी शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृतके सरोवर में राग आदि मलसे रहित होनेके कारण परमध्यान ही परमहंसस्वरूप है, परमध्यानही परमविष्णु स्वरूप है, परमध्यानही परम शिवखरूप है, परम ध्यानही परम बुद्ध स्वरूप है, परमध्यान ही परम जिनखरूप है, परम ध्यानही खात्मोपलमिललक्षण रूप सिद्धखरूप है, परम ध्यान ही निरंजन खरूप है, परम ध्यानही निर्मल स्वरूप है, परम ध्यानही खसंवेदन ज्ञान है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मदर्शन है, परम ध्यान ही परमात्मदर्शनरूप है, परम ध्यानही ध्येयभूत शुद्ध पारिणामिक भाव खरूप है, परम ध्यान ही शुद्ध चारित्र है, परम ध्यान ही अत्यन्त पवित्र है, परम ध्यान ही परमतत्त्व है, परम ध्यान ही शुद्ध आत्मद्रव्य है, क्यों कि वह शुद्ध आत्मद्रव्यकी उपलब्धिका कारण है, परमध्यान ही उत्कृष्ट ज्योति है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मानुभूति है, परमध्यान ही आत्मप्रतीति है, परमध्यान ही आत्मसंवित्ति है, परमध्यान ही स्वरूपकी उपलब्धिमें कारण होनेसे खरूपोपलब्धि है, परम ध्यान ही नित्योपलब्धि है, परमध्यान ही उत्कृष्ट समाधि है, परमध्यान ही परमानन्द है, परमध्यान ही नित्य आनन्दस्वरूप है, परमध्यान ही सहजानन्द है, परमध्यान ही सदा आनन्दखरूप हैं, परमध्यान ही शुद्ध आत्मपदार्थके अध्ययनरूप है, परमध्यान ही परम स्वाध्याय है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षका उपाय है, परमध्यान ही एकाग्रचिन्ता-निरोध ( एक विषय में मनको लगाना) है, | E Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा अन्तर्महुर्तेन पूर्ववत् क्रमेण योगनिरोधं कृत्वा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं निष्ठापयन्न तत्समये समुच्छिमकियानिवृत्तिध्यान प्रारब्धुमहति । तत्पुनः अत्यन्तपरमशुक्न समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाचनोयोगप्रदेशपरिस्पन्दनक्रियाच्यापारतमा समुछिनक्रियानिवृत्तीत्युच्यते । तटुलेन ब्यग्रीतिप्रकृतीः क्षपयित्वा मोक्षं गच्छन्तीत्यर्थः । तथा द्रश्यसंग्रहोक्तं च । तद्यया । पृथक्त्ववितर्कवीचार तावत्कथ्यते द्रव्यगुणपर्यायाणां मिनत्वं पृयत्वं भण्यते खशुद्धास्मानुभूतिलक्षणं भावभुतं तद्वाचकम् अन्तर्जल्पनं वा वितर्को भष्यते । अनीहितपस्यान्तरपरिणमन वचनाद्वचनान्तरपरिणमनं मनोवचनकाययोगेषु योगाद्योगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अत्रायमर्थः । यद्यपि भ्याता पुरुषः खशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिचिन्तां न करोति, तथापि यावतांशेन वरूपे स्थिरत्वं नास्ति लावताशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भण्यते । तचोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमिकानिवृत्युपसमिकसूक्ष्मसापरायोपसमिकोपशान्सकवायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । आपकोण्या पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसापरायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुकध्यान व्याख्यातम् ॥ द्वितीयशुरुध्यान पूर्व कथितमस्ति ॥ सूक्ष्यकायकियाच्यापाररूपं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिसंज्ञ तृतीयशभ्यान, तमोपचारेण सयोगिकेवलिजिने भवतीति । विशेषेणोपरप्ता निहता क्रिया यत्र तथ्यपरतक्रिय ब्युपरतक्रिय च तदनिवृत्ति च अनिवर्तच तापरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञ चतुर्थ शुक्लध्यानम्। तच्चोपचारेण अयोगिफेवालिजिने स्यात् ॥ तथा रविचन्द्रकृताराधनासारे। आकाशस्फटिकमाणिज्योतिर्वा निश्चलं कषायाणाम्। प्रशमक्षयजं शुकध्यानं कर्माटवीदहनम् । सपृथक्तचवितर्कान्विसधीचारप्रभृतिभेदभिनं सत् । ध्यानं चातुर्विध्वं प्राप्नोतीत्साहुराचार्याः ॥ अर्थेष्वेक पूर्वक्षुतजनितज्ञानसंपदाधिला। त्रिविधात्मकबानाध्यापक टोन लेनम गईश्रुतवी प्रव्यसमाश्रितो येनाध्यायति संक्रमरहित शुक्रध्यानं द्वितीय तत् !! कैवल्यवोधनोऽर्यान् सर्वांश्च सपर्यायोस्तृतीयेन । शुकन ध्यायति वै सूक्ष्मीकृतकाययोगः सन् ॥ शैलेषितामुपेतो युगपद्विश्वार्थसंकुल सद्यः । ध्यायत्यपेतयोगो येन तु श चतुर्थ तत् ।। आयेष्वातंत्र्यानं पदस्खपि रौद्रं च पशमु गुणेषु धर्ममसंयतसम्यग्दृयादिषु भवति हिचसूर्षु ।। तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभमलाभावाविरा शझमभ्यधुः ॥ उपशमितकषाये प्रथम क्षीणकषाये द्वितीयक छ । भवति तृतीय योगिनि केलिनि चतुर्थमुपयोगे। इति चतुर्विधशुकथ्यानव्याख्यानं समाप्तम् । किमप्याक्षेपं तन्निरकरणं चात्र शिष्यगुरुभ्यां क्रियते । अद्य काले ध्यानं नास्ति, कुतश्चेत्, उनमसंहननाभावात् दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानाभावाच। अत्र परिहारः शुक्रध्यानं नाति, धर्म यानमस्तीति । तथा चोकं मोक्षप्रामृते श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः । ।भरहे दुस्समकाले धम्ममाण इवेइ गाणिस्स । तं अप्पसहावठिए ग हु मण्णइ सो दु अण्णाणी अन्ज वि तियरणसुद्धा अप्पा माऊण लहहि इंदत्त । लोयंतिमदेव तत्य चुया गिलुम् िजति ॥ परमध्यान ही परमबोधरूप है, परमध्यान ही शुद्धोपयोग है, परमध्यान ही परमयोग है, परमध्यान ही परम अर्थ है, परमध्यान ही निश्चय पंचाचार ( दर्शन, शान, चारित्र, तप और वीर्याचार ) है, निश्श्यध्यान ही समयसार है, परमध्यानही अध्यात्मका सार है, परमध्यान ही निश्चल षडावश्यकखरूप है, परमध्यान ही अभेद रखत्रयखरूप है, परमध्यान ही वीतराग सामायिक है, परमध्यान ही उत्तम शरण और उत्तम मंगल है, परमध्यान ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण है, परमध्यान ही समस्तकमौके क्षयमें कारण है, परमध्यान ही निश्चय चार आराधनाखरूप है, परमध्यान ही परमभावना है, परमध्यान ही शुद्धात्मभावनासे उत्पन्न सुखानुभूति रूप उत्कृष्ट कला है, परमध्यान ही दिव्यकला है, परमध्यान ही परम अद्वैतरूप है, परमध्यान ही परमामृत है, परमध्यान ही धर्मध्यान है, परमध्यान ही शुक्ल ध्यान है, परमभ्यान ही रागादि विकल्पोंसे शून्य ध्यान है, परमध्यान ही परम खास्थ्य है, परमध्यान ही उत्कृष्ट वीतरागता है, परमध्यान ही उत्कृष्ट साम्यभाव है, परमध्यान ही उत्कृष्ट मेद विज्ञान है, परमध्यान ही शुद्ध चिद्रूप है, परमध्यान ही उत्कृष्ट समाव रस रूप है । राग द्वेष आदि विकल्पोंसे रहित उत्तम माहाद स्वरूप परमात्मस्वरूपका ध्यान करना चाहिये । कहा मी है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र और सम्प तप ये चारों आत्मामें ही स्थित है अतः आत्मा ही मेरा शरण है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C: mpeneur १२२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८७तथैव तत्त्वानुशासने 'अदानी निषेधन्ति शुक्लथ्यानं जिनोतमाः 1 धर्मभ्यानं पुनः प्रा. श्रेणीभ्यो प्राविवर्तिनाम् ॥ (अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिदेशसंबतः। धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिनः स्मृताः मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमित द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेश्वौपचारिकम् । यथोक्ताशुभमसंहननाभावात सर्गवचनम् अपवादव्याख्याने पुनरुपशमक्षपकौम्योः शुमध्यानं भवति । यथोत्तमसंहननेनैव अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्मधाने तथा दिमत्रिकोत्त मसहननाभावेऽप्यन्तिमत्रिकसंहननेनापि भवति । तदप्युक्तं तत्त्वानुशासने यत्पुनर्वञकायस्य ध्यानमित्यागमे चचः । श्रेण्योनि प्रतीत्योर्स तत्वाधस्तानिषेधकम् ।। यच्चोक्त दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन न्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादच्याख्यानेन पुनः पसमितिनिपिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि वानं भवति केवलज्ञानं च । यद्येवमपवादव्याख्यानं नास्ति तर्हि 'तुसमासं घोसतो सिवभूषी केली जादो इत्यादिगन्धाराधनाभाणतं व्याख्यान कभं घटते । अथ मत पसमितित्रिगुतिप्रतिपादक द्रव्यश्रुत्तमिति जानातीद भावश्रुतं पुनः सबैमस्ति नैवं वक्तव्यम् । यदि पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपावकं द्रव्यश्रुतं जानाति तई 'मारूसह मा तूसह इत्यकपर्द किं न जानाति । तत एवं ज्ञायते अप्रवचनमातृकाप्रमाणमेव भावश्रुतं द्रव्यश्रुतं पुनः किमपि नास्ति । इदं तु पाख्यानमस्माभिर्न कल्पितमेव तच्चारित्रसारादिग्रन्थेष्वपि भणितमासे। तथाहि । 'अन्तर्मुहूर्तादय केवलज्ञानमुत्पादयन्ति ते क्षीणकषायगुणस्थानवर्तिन) निनन्यसंज्ञा ऋषयो भण्यन्ते । तेषां चोत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वादिश्रुतं भवति जघन्येन पुनः पञ्चसमिति त्रिमुप्तिमाबवति । पथ मत मोक्षार्थ ध्वानं क्रियते, न चाय काले मोक्षोऽस्ति, ध्यानेन किं प्रयोजनम् । नैवम् , अद्य कालेऽपि परंपरया मोक्षोऽस्ति । कथामति चेत् । खशुद्धामभावनाबलेन संसारस्थिति स्तोको कृत्वा देवलोकं गच्छन्ति । तस्मादागल मनुष्यभवे रत्नत्रयभावना लकवा शीघ्रं गच्छन्तीति पि भरतसगररामपाण्ड्याइयो मोक्षं गतास्तेऽपि पूर्व भवे भेदाभेदरनत्रयभावनया संसारस्थिति स्तोकां कृत्वा पश्चान्मोक्ष गताः । ततस्तद्रवे सर्वेषां मोक्षो भावीति नियमो नास्ति । एवमुकप्रकारेणाल्पश्रुतेनापि ध्यान भवतीति शाखा किंकर्तव्यमिति । अथ तदेव ध्यानं विकस्थितमधिकर्काल्पतं च । विकल्पित शक्ल यानमिति । विकल्पितं धर्मध्यानम् । तत्कथम् , भातरौद्रयं त्यक्त्वा निजात्मनि रतः परिणतः तदीयमानस्तचित्तस्तन्मयो भूत्वा आत्मसुखम्वरूप तन्मयत्वं परमध्यानं चिन्तनीयम् । तद्वीतरागापरमानन्दसुखं, तदेव निश्वयमोक्षमार्गस्वरूप, तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मखरूपं, तदेकदेशव्यक्तिरूपविवक्षितकदेशशुद्धनिश्चयेन खशुद्धात्मसंवितिसमुत्पन्नमुखामृतजलसरोवरे रागादिमलरहितत्वेन परमहंसरूपं, तदेव परमस्वरूप, तदेव परमविष्णुखरूप, तदेव परमशिवस्वरूप, तदेव परमयुद्धस्वरूप, तदेव परमजिनस्वरूपं, तदेव खात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धस्वरूप, तदेव निरंजनस्वरूपं, तदेव निर्मलत्वरूप, तदेव स्वसंवेदनज्ञानं, तदेव परमतत्वज्ञान, सदेच शुद्धात्मदर्शनं, तदेव परमावस्थारूपपरमात्मदर्शने, तदेव ध्येयभूतशुद्धधारिणामिकभावखरूपं, तदेव ध्यानभावनाखरूपं, तदेव शुद्धचारित्रं, तदेव परमपवित्र, तदेव फरमधर्मध्यानं, तदेव परमतत्त्वं, तदेव शुसारमद्रव्य, तदेव परमज्योतिः, सेव शुद्धात्मानुभूतिः, सेवामप्रतीतिः, सैवात्मसंवित्तिः, सैव स्वरूपो. पलब्धिः, मैत्र नित्योपलब्धिः, स एव परमसमाधिः, स एव परमानन्दः, स एव निझामन्दः, स एव सहजानन्दः, स एव सदानन्दः, स एव शुखात्मपदार्थाध्वयनरूपः, स एव परमस्वाध्यायः, स एच निश्वयमोक्षोपायः, स एवैकामचिन्तानिरोधः, स एव परमबोधः, स एवं शुद्धोपयोगः, स एव परमयोगः, सएन परमार्थः, स एव निश्चयाचाचारः, स एवं अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी भी आत्मामें ही स्थित है अतः आत्मा ही मेरा शरण है। निर्ममत्वका आश्रय लेकर मैं ममत्वको छोड़ता हूँ। आत्मा ही मेरा सहारा है शेष रागादि भावोंका मैं त्याग करता हूँ॥ आत्मा ही मेरे ज्ञानमें निमित्त है, आत्मा ही मेरे सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रमें निमित्त है, आत्मा ही मेरे प्रत्याख्यानमें निमित्त है, और आत्मा ही मेरे संवर और ध्यान में निमित्त है ।। ज्ञान और दर्शन लक्षणवाला एक मेरा आत्मा ही नित्य है, बाक्रीके समी बाह्य पदार्थ कर्मके उदयसे आकर मिले हैं इसलिये अनित्य हैं । ज्ञानीको विचारना चाहिये कि केवल झान मेरा खभाव है, केवलदर्शन मेरा स्वभाव है, अनन्त सुख मेरा स्वभाव है और अनन्त वीर्य मेरा खभाव है | ज्ञानीको विचारना चाहिये कि मैं अपने स्वभावको नहीं छोड़ता Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८८] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३९३ समयसारः, स एवाध्यात्मसारः, तदेव समतादिनिश्चलषडावश्यकखरूपं, तदेवाभेदरमत्रयस्वरूप, तदेव वीतरागसामाविक, तव परमशरणोनममजलं, तदेव केवलझानोत्पत्तिकारणं, तदेव सकलकर्मक्षयकारणं, सैव निश्चयचतुर्विचाराधना, सेव परमभावना, सव शुद्धात्मभावनोत्पन्नसुखानुभूतिपरमकला, सैन दिव्यकला, तदेव परमाद्वैतं, तवेव परमामृत, तदेव परमधर्मध्याने, तदेव शक्लध्यान, तदेव रागादिविकल्पशून्यध्यान, तदेव निष्कलथ्यानं, तदेव परमस्वास्थ्य, तदेव परमवीतराग, तदेव परमसाम्य, तदेव परममेदज्ञान, तदेव शुद्धचिद्रूप, स एव परमसमरखीभाव इत्यादिसमस्तरागद्वेषादिविकल्परहित परमाकादनकसुरवलक्षणध्यानरूपपरमात्मस्वरूप चिन्तनीय स्मरणीयम् । तथा चोक । 'सम्मत सणाणं सचारिज हि ससवो घेव । चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरण अरुवा सिद्धाइरिया उबझाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते विहुचिट्ठहि आदे सम्हा आदा हु मे सरणाममति परिवजामि जिम्ममतिमुत्रद्विदो । आवर्ण च मे आदा अवसेसाई वोसरेका आदाबु मज्झ णाणे आबा मे दसणे चरिते य । आदा पच्चस्खाणे आदा मे संबरे जोगेएगो मे सस्सदो अप्पा माणदसणलक्षणो 1 सेसा मे बाहिरा भावा सन्चे संजोगलक्खणा केवलणाणसहावो केवलदसणसहावमुहमइओ। केवलसतिसहावो सोहं दि चिंतये पाणी । म वि मुगद गामार व ई जगह की सर्व सोई इदि चिंतए पाणी ॥ इत्यादिसारपदानि गृहीत्वा ध्यान खात्मभावनं कर्तव्यमिति । अयादिचतुर्विधयानफलमाह । "आर्तभ्यामविकल्पा नयन्ति तिर्यम्मति तु देहभृतः । रौद्रभ्यानविमेदा नरकगति तीवपापरतान् धर्मभ्यानविशेषा देवगति प्रापयन्त्यनेकविधाम् । शुक्लथ्यानोत्कर्षाः सिद्धपतिं शाश्वतात्मसुखाम् इति ।। इत्यनुप्रेक्षाटीकायो ध्यानव्याख्यान समाप्तम् ॥ ४८७॥ अथ तपास्युपसंहरति एसो बारस-मेओ उग्ग-तषो जो चरेदि उवजुत्तो। सो खवदि' कम्म-पुंजं मुत्ति-सुहं अक्खयं लहदि ॥४८८ ॥ [छाया-एतत् द्वादशमेदम् जनतपः यः चरति उपयुक्तः । स क्षपति कर्मपुर्ज मुक्तिसुखम् अक्षयं लभते ॥] यो मुमुक्षुः मध्यवरघुण्डरीकः उपतपः उग्रोग्रतपोविधानं चतुर्थषष्टमअएमदशमद्वादशपक्षमासोपवासादिवर्षपर्यन्तं चरति आचरति विदधाति । कथंभूतम् । एतत्पूर्वोक्तऋथित द्वादशमेदम् । 'अनशनावमोदर्य कृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागनिधिकशय्यासनकायक्लेशा बाय तपः'। प्रायश्चित्तविनयवैयावृस्यखाध्यायव्युत्सर्गशुक्लध्यानमिति अभ्यन्तरं तपः । इति द्वादशप्रकारम् आचरति । योऽसी कथंभूतः । उपयुक्तः सन् उपयोगवान् सन् उद्यमपरो वा स साधुः मुमुक्षु: मुक्तिसुखं लभते खात्मोपलब्धिसुख निर्माणसुखं प्राप्नोति। कीहक्षम् । अक्षयम् अविनश्वर शाश्वतम्। किं कृत्वा । कर्मपुजं शिश्वा शानावरणादिमूलोत्तरोत्तरप्रकृतिसमूहं क्षय नीत्वा मोक्षमुरलं प्राप्नोति ।। ४८८ ॥ अथ कर्ता खकृत्यं व्यनक्ति और किसी भी परभावको ग्रहण नहीं करता। मैं सबको केवल जानता और देखता है। इस प्रकारके सारभूत वचनोंको ग्रहण करके अपनी आत्माका ध्यान करना चाहिये । शासकारोंने चारों ध्यानोंका फल इस प्रकार बतलाया है। आर्तध्यानके विकल्पसे प्राणी तिर्यञ्चगतिमें जन्म लेते हैं। रौद्रध्यानके तीव्र पापसे नरकगनिमें जाते हैं ! धर्मध्यानके करनेसे अनेक प्रकारकी देवगनिको प्राप्त करते हैं, और उत्कृष्ट शुक्क ध्यानसे सिद्धगतिको प्राप्त करते हैं जहाँ शावत आत्म सुख है । इस प्रकार ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ ॥ १८७ ॥ अब तपके कथन का उपसंहार करते हैं । अर्थ-जो मन लगाकर इस बारह प्रकारके उग्र तपको करता है वह समस्त कोको नष्ट करके उत्तम मुक्तिसुख को पाता है ॥ भावार्थ-तपसे नवीन कर्मोंका आना भी रुकता है और पूर्वसंचित काँका नाश भी होता है । और ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं । अतः जो मुमुक्षु मुनिमत धारण करके अनशन, अव. मौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायकेश इन छ: बाह्यतपोंको तया प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इन छ.अभ्यन्तर तपोंको मन लगाकर करता है वह कमोंको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त करता है । मुक्ति में ही बाधारहित अविनाशी आत्मसुख मिलता है ।।४८८।। १७मस खविय, ग खविद । २लम सग लहर। कातिके० ५० Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८९जिण-वयण-भायणटुं' सामि-कुमारेण परम-सद्धाए । रइया अणुवेहाओ' चंचल-मण-भणटुंध ॥४८९॥ [खाया-जिनवचनभावनार्थ स्वामिकुमारेण परमश्रद्धया। रचिताः अनुप्रेक्षाः चञ्चलमनोरोधनार्थं च ॥ रचिता निष्पादिता गायारूपेण रचिताः । काः । अनुप्रेक्षाः अनुप्रेक्ष्यते अवलोक्यते पुनः पुनः बिचार्यते वस्तुस्वरूपं याभिस्ताः अनुप्रेक्षाः द्वादशमावना: 1 केन रचिताः । खामिकमारेण भव्यवरपुण्डरीकधीस्वामिकार्तिकेयमुनीश्वरेण आमम्मशीलधारिणा अनुप्रेक्षा रचिताः । कया। श्रद्धया रुच्या उत्कृष्टभावनया। किमर्थ रचिताः । जिनवचमभावनाथ जिनानां वचनानि द्वादशाङ्गरूपाणि तेषां भावनाथ श्रद्धार्थ षड्नध्यसातत्वमवपदार्थचिन्तनरर्थ परद्रध्यं परसत्त्वं परित्यज्य स्वस्वरूपवद्रव्यस्वतस्वचिन्तननिमित्त वा । ब पुनः । किमर्थम् । चपलमनोहम्धनार्थ चपलचित्तवशीकरणार्थ चपलचितं विषयेषु परिभ्रमत् स्वस्वरूपे स्थिरीकरणाथमित्यर्थः ॥ ४८९ ॥ अथानुप्रेक्षाया माहात्म्यमभिधो बारस अणुवेक्खाओ' भणिया हु जिणागमाणुसारेण । जो पढाइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्र्ख ॥ ४९०॥ [छाया-द्वादश अनुप्रेक्षाः भणिताः खल्लु जिनागमानुसारेण । यः पठति शृणोति भावप्रति स प्रामोति उत्तम सौख्यम् । सभव्यः प्राप्नोति लभते । किं तत् । उत्तम सुख लोकातिकान्त मुक्तिसुखं सिद्धसुखम् अनन्तसौख्यमित्यर्थः । स कः । यो भव्योत्तमः । हु इति स्फुटम् । द्वादशानुप्रेक्षा अनित्याशरणसंसारादिद्वादशभावनाः पठति अध्ययनं करोति शृणोति एकाप्रतयाकर्णयति भाषयति रुचि करोति । कथंभूताः। मया श्रीखामिकार्तिकेयसाधना भणिताः प्रतिपादिताः । केन । जिनागमानुसारेण जिनप्रणीतसिद्धान्तानुमार्गेण । इति वकृत्यौद्धल परिहतम् ॥ ४९. ॥ अथान्त्यमालमाचष्टे तिहुवर्ण-पहाण-सामि कुमार-काले वि तविय-तव-वरण । वसुपुज्ज-सुयं मल्लिं चरम-तिय संथुवे णिच ॥ ४९१॥" [छाया-त्रिभुवनप्रधानस्वामिनं कुमारकाले अपि तप्ततपश्चरणम् । वसुपूज्यसुत मल्लिं चरमत्रिक संस्तुवे नित्यम् ॥] अहं श्रीखामिकार्तिकेयसाधुः संस्तुवे सम्यक्प्रकारेण मनोवाकायैः स्तौमि नौमि । कदा । नित्यं सदा अनवरतम् । कम् । आगे ग्रन्थकार अपना कर्तव्य प्रकट करते हैं । अर्थ-जिनागमकी भावनाके लिये और अपने चंचलमनको रोकनेके लिये स्वामी कुमारने अत्यन्त श्रद्धासे अनुप्रेक्षाओंकी रचना की है || भावार्थ-जिनके द्वारा वस्तुस्वरूपका वारंवार विचार किया जाता है उन्हें अनुप्रेक्षा कहते हैं । अनुप्रेक्षा नामक इस ग्रन्थकी रचना स्वामी कार्तिकेय नामक मुनिने की है । वे आजन्म ब्रह्मचारी थे यह बात 'कुमार शब्दसे सूचित होती है । इन्होंने इस मन्धरचनाके दो उद्देश्य बतलाये हैं। एक तो जिन भगवानके द्वारा प्रतिपादित बस्तुस्वरूपकी भावना और दूसरा अपने चंचल चित्तको रोकना । इससे भी ज्ञात होता है उनकी यह रचना ऐसे समयमें हुई है जब उन्हें अपने चंचल चित्तको रोकनेके लिये एक ऐसे आलम्बनकी आवश्यकता थी, जिससे उनका चित्त एकाम हो सके । अत: जिनका मन चंचल है, एकान नहीं रहता उन्हें इस शास्त्रका खाध्याय करना चाहिये, इसके करनेसे जिनागमकी श्रद्धाके साथही साय सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि होगी और मन इधर उधर नहीं भटकेगा ॥ ४८९ ॥ आगे अनुप्रेक्षा का माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ-इन बारह अनुप्रेक्षाओंको जिनागमके अनुसार कहा है । जो इन्हें पदता है, सुनता है और वारंवार भाता है वह उत्तम सुख प्राप्त करता है ।। ४९० ॥ आगे ग्रन्थकार अंतिम मंगलाचरण करते हैं । अर्थ-तीनों लोकोंके प्रधान इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवती वगैरहके खामी जिन १ म मायणथं । २ लमग म अणुपेहाउ (ओ?)। ३लग अणुवेखाइ। छ म सग उतभं । बम सुक्छ । ६.मग तिहुयण। ७ सामी। ८कम स ग तवयरण। ९वसंधुए। १० सामिकुमारानुप्रेक्षा समाप्तः। . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४९१] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९५ बसुपूज्यसुतं वसुपूज्यस्य राज्ञः सुतं पुत्रस्त श्रीवासुपूज्यवामितीर्थकरदेवं द्वादशम् । पुनः के स्तौमि। मछि धीमहिनाथजिनेश्वरं एकोनमिंशतितमम् । पुनरपि के संस्तुचे । चरमनिकमा अन्तिमतीर्थकरत्रम नेमि पार्थ वर्धमानं च. श्रीनेमिमाथ तीर्थकर देवं द्वाविंशतितम, श्रीपार्श्वनाथं जिनक्षेत्र त्रयोविंशतितमं, पीवीरे महावीरमहतिमहावीरसन्मतिवर्धमानखामिन्द्र नामपञ्चकोपेतं चतुर्विंशतितम तीर्थकरदेवं इति पञ्च कुमारतीर्थकरान संस्तुरे । कीदृशं तीर्थकरपञ्चकम् । कुमारकाले तप्ततपश्चरण गृहीतदीक्षांदितपोभारम। उक्तं च । 'वासुपूज्यस्तथा मलिनेमिः पार्थोऽथ सन्मतिः । कुमाराः पच निष्कान्ताः पृथिवीपतयः परे ॥ इति । पुनः तीर्थकरपन्नई कीहक्षम् । त्रिभुवनप्रधानखामिनं त्रिभुबने प्रधानाः इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवादयः तेषां स्वामी प्रभुः तं त्रिभुवनप्रधानस्वामिनम् इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवादिभिः सेवितमित्यर्थः ॥११॥ अनुप्रेक्षा इति प्रोक्ता भाषना द्वादश स्फुटम् । यश्चिन्तयति सच्चि स भवेन्मुशिजवल्लभः ॥१॥ श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसैबो वरो बलात्कारगणः प्रसिद्धः । श्रीकुन्दकुन्दो वरसूरिवर्यों विभाति भाभूषणभूषिताः॥२॥ तदन्वये श्रीमुनिपद्मनन्दी ततोऽभवच्छ्रीसकलादिकीर्तिः । तत्पधारी भुवनादिकीर्तिः श्रीशानभूषो वरपृत्तभूषः ॥३॥ तदन्क्ये श्रीविजयादिकीर्तिस्तत्पदृवारी शुभचन्द्रदेवः। वेनेयमाकारि विशुद्धटीका श्रीमत्सुमत्यादिसुकीर्तिकीर्तिः॥४॥ सूरिश्रीशुभचन्द्रेण वाविपर्वतवनिणा । त्रिविद्येनानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा ॥५॥ श्रीमद्विक्रमभूपतेः परिमिते वर्षे शते षोडशे माघे मासि दशामपतिसहिते स्याते दशम्या तिपी। श्रीमच्छीमहिसारसारमगरे चैत्यालये श्रीपुरोः ध्रीमष्ट्रीशुभचन्द्रदेवविहिता टीका सदा नन्दतु ॥ ६ ॥ वर्णिनीझमचन्द्रेण विनयेनाकृतप्रार्थना। शुभचन्द्रगुरो स्वामिन् कुरु टीका मनोहराम् ॥७॥ तेन श्रीशुभचन्द्रेण विधेन गणेभिन । कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता घरा ॥८॥ तीर्थङ्करोंने कुमार अवस्थामें ही तपश्चरण धारण किया उन वसुपूज्य राजाके पुत्र वासुपूज्य, मल्लिनाथ और नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर इन तीन तीर्थतरोंका सदा स्तवन करता हूँ | भावार्थ-चौबीस तीर्थङ्करोंमेंसे वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पांच तीर्थकर कुमार अवस्थामें ही प्रवजित हो गये थे अतः ये पांचों बालब्रह्मचारी थे ! ग्रन्थकार स्वामी कार्तिकेय भी बालब्रह्मचारी थे इसीसे बालब्रह्मचारी पाँचों तीर्थक्करोंपर आपकी विशेष भक्ति थी। ऐसा प्रतीत होता है ।। ४९१ ॥ संस्कृत टीकाकारकी प्रशस्ति मूलसंघमें नन्दिसंघ उत्पन्न हुआ । उस नन्दिसंघमें प्रसिद्ध बलात्कार गण हुआ । उसमें आचार्य श्रेष्ठ कुन्दकुन्द हुए । उनके वंशमें मुनि पचनन्दि हुए । उसके पश्चात् सकलकीर्तिभट्टारक हुए । उनके पट्टपर भुवनकीर्ति हुए । फिर ज्ञानभूषण हुए ॥ उनके वंशमें विजयकीर्ति हुए । उनके पट्टएर शुभचन्द्रदेव हुए। उन्होंने इस टीकाको रचा । वादीरूपी पर्वतोंके लिये उनके समान त्रैविध आचार्य शुभचन्द्रने अनुप्रेक्षाकी श्रेष्ठ टीका बनाई ॥ ५॥ विक्रम सम्बत् १६१३ में माघ मासकी दसमी तिथिको महिसार या महीसार नगरमें श्रीपुरुदेव या वृषभदेवके चैत्यालयमें श्रीमान् शुभचन्द्रदेवके द्वारा रची गई टीका सदा आनन्द प्रदान करे ।। ६ ॥ श्री क्षेमचन्द्रवर्णीने विनयपूर्वक प्रार्थना की कि हे गुरुवर्य स्वामी शुभचन्द्र, आप मनोहर टीका करें ।। ७॥ इस प्रार्धनापर भट्टारक त्रैविद्य शुभचन्द्रने कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी उत्तम टीका रची ॥ ८ ॥ तथा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा तथा साधुसुमत्यादिकीर्तिना कृतप्रार्थना सार्थीकृता समर्थेन शुभचन्द्रेण सूरिणा ॥ ९ ॥ भट्टारकपदाधीशा भूलर्सचे विवराः । रमावीरेन्दु चिद्रूपगुरवो हि गणेशिनः ॥ १० ॥ लक्ष्मीचन्द्रगुरुः स्वामी शिष्यस्तस्य सुधीयशाः । वृतिविस्तारिता तेन श्रीशुभेन्दुप्रसादतः ॥ ११ ॥ [ गा० ४९१ इति श्री स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीकायां त्रिविद्यविद्याधर षाषाकविचक्रवर्तिभट्टारकश्रीशुभचन्द्रविरचितायां धर्मानुप्रेक्षाया द्वादशोऽधिकारः ॥ १२ ॥ साधु सुमतिकीर्तिने भी प्रार्थना की और समर्थ आचार्य शुभचन्द्रने उस प्रार्थनाको सार्थक किया || ९ || मूलसंघमें भट्टारकपद के स्वामी, विद्वानोंमें श्रेष्ठ शुभचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्रके गुरु हैं ॥ १० ॥ आचार्य शुभचन्द्र प्रसादसे उनके शिष्य लक्ष्मीचन्द्रने इस टीकाको विस्तृत किया ॥ ११ ॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥ १२ ॥ इति श्री कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीका समाप्ता ॥ 1 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । कत्तिगेयाणुप्पेक्खा॥ तिषण-तिलयं देवं वंदित्ता तिहुवर्णिद-परिपुज्ज । वोच्छं अणुपेहाओ भविय-जणाणंद-जणणीओ ॥ १॥ अबुर्के असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइतं । आसव-संघर-णामा णिज्जर-लोयाणुपेहॉओ ॥ २ ॥ श्य जाणिऊण भावह दुल्लह-धम्माणुभावणा णिचं । मज-षयण-काय-सुद्धी पदा दस दो य भणिया ॥३॥ १. अदुवाणुवेक्खा जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण । परिणाम-सस्वेण वि" ण य किंचि वि सासयं अस्थि ॥ ४ ॥ अम्मं मरणेण सम संपज्जइ जोवर्ण" जरा-सहियं । लच्छी पिणास-सहिया इय सई भंगुरं मुणह ॥ ५॥ अथिरं परियण-सयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्त लावणं । गिह-गोहणाइ सर्व णव-पण-विदेण सारिन्छ ॥६॥ बमस सिहुणिद। २ बम दु। ३ व भणुवेखाओ। म मदुई। ५. 'बेहालो । भार। लमसग एका ठरेसदो भणिया (मस भणिय)। ८ गोमाके जारंभ बमबाण अन्ना। ५बमसग फिपि। १.गवा। "बप। १३लमसग किंपि। कमसग दणं। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ - कत्ति गेया गुप्पेक्खा - सुरधणु-तडि ष चवला इंदिय - विसया सुभिश्च वग्गा य । दिट्ठ- पणडा सबै तुरय-गया रहवरादी य ॥ ७ ॥ पंधे पहिय-जणाणं जह संजोओ हवे खण-मित्तं । बंधु-जणाणं च तहा संजोओ अओ होई ॥ ८ ॥ अइलालिओ विदेहो पहाण - सुर्यधेहिं विविध-भक्खेहिं । खण- मित्तेण वि विहडद्द जल-मरिओ आम-घडओ व ।। ९ ।। जा सासया ण लच्छी चकहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधे रें इयर - जणाणं अण्णाणं ॥ १० ॥ ↓ १२ ॥ । कथं विण रमइ लच्छी कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे । पुजे धम्मट्ठे विय सुवत सुयणे महासत्ते ॥ ११ ॥ ता भुंजिज्जउ लच्छी दिज्जउ दागे दया पहाणेण । जा जल-तरंग चवला दो-तिष्णि दिणाह चिट्ठे ॥ जो पुणे लच्छे संचदि ण य भुंजदि यँ देदि पत्ते सो अप्पाणं चदि मणुर्यतं निष्फलं तस्स || १३ ॥ जो संचिऊण लच्छिं धरणियले संवेदि अइदूरे | सो पुरिसो तं हि पाहाण-समाणियं कुणदि ॥ १४ ॥ अणवर जो संचदि लच्छि ण य देदि पेर्ये भुंजेदि । अप्पणिया aिय लच्छी पर लच्छि समाणिया तस्स ॥ १५ ॥ लच्छी-संसत्त-मणो जो अप्पाणं धरेदि कट्टेण । सो राह- दाइयाणं कर्ज साहेदि मूढप्पा ॥ १६ ॥ जो हारदि लच्छि बहु-विह- बुद्धीहिं णेय तिप्पेदि । समारंभ कुषदि रति-दिणं तं पि चिंते ॥ १७ ॥ ४ लमसग रई । ५] विपुण्णा । ९ लमसग दाणे । १० च दिशाण विद्वे | १ व हवइ । २ व हवे | ३ वय । ७ लमसम सुरुसु । ८ य महामुने । १२ व लग्छ, लग छछि मस लच्छी । मिश्रित है। १६ व जेव । १७ ल साहेहि । सेपेदि । २० लगम दिदि, स चतवदि । [ गा० ७ ६ व कया वि । ११ बल पुणु । १३ ब शेव । १४ च मणुयणं । १५ कि यह पाठ प्रतियोि १८ लग वद्धारय, मस बार । १९ तपेवि, म ܢ ܡܒܫܝ. 8 ###Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ गा०२८] -- १. अद्भुवाणुधेक्खा - ण य भुंजदि वेलाएं चिंतावत्थो ण सुर्वदि रयणीए । सो दासत्तं कुधदि विमोहिंदो उचिट-तरुणी ॥१५॥ जो वडमाण-लच्छि अणवरयं देदि धम्म-कज्जेसु । सो पंडिएंहिँ थुवदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥ १९ ॥ एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्म-जुत्ताणं । हिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥ २० ॥ जल-बुब्बुर्य-सारिच्छं धण-जोवण-जीवियं पि पेच्छंती । मण्णंति तो वि णिचं अइ-वलिओ मोह-माहप्पो ॥ २१ ॥ चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सके। णिधिसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहह ॥ २२ ॥" २. असरणाणुवेक्खा तत्थ भवे किं सरणं जत्थ सुरिंदाण दीसंदे विलओ। हरि-हर-बंभादीया कालेण य कवलिया जत्थ ॥ २३ ॥ सीहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि। तह मिचुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि ॥ २४ ॥ जा देवो वि य रक्खेंदि मंतो तंतो य खेत्तपालो य । मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होति ॥ २५ ॥ अइ-बलिओ चि रउहो मरण-विहीणो ण दीसैदे को वि। रक्खितो वि सया रक्ख-पयारेहिँ विविहेहि ॥ २६ ॥ एवं पेच्छतो वि हु गह-भूय-पिसाय-जोइणी-जक्खं । सरणं मण्णई मूढो सुगाढ-मिच्छत्त-भावादो ॥ २७ ॥ आउ-क्खएण मरणं आउं दाउंण सफदे को वि । तम्हा देविदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को कि ॥ २८ ॥ --- - - बबेलाइ चिंता गमछे ण। २ब सुयदि, लमग सुअदि। ३ घ तहह । ४ कुछ प्रतियों में यहाँ युग्मम् या युगलम् पारद मिलता है। ५ लमस देहि । ६ लग पंडियेहि। ७ च हवह । ८ लमसग देहि। ९ बलस बुन्वय, म बुखुध, गन्चु य । १० लमसग जुध्यण । ११ व विच्छंता। रेलमसग सुणिजण। १३म मनित्यानुप्रेक्षा ॥1॥ १५ व गाथाके आरंभमें 'भसरणाणुवेषग्या'। १५ लमसग दीसये । १६ लमग गहिर्म । १ लमसग रक्खह । १८च खिन । १९ लमसग दीसए । २.घ पिच्छतो। २. स भूइपिसाह। २२ ग मसह । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० - कत्तिगेयागुप्पेफ्ला [गा०२९ अप्पाणं पि चैवतं जइ सक्कदि रखिंदु सुरिंदो वि । तो किं छंडदि सग्गं सवुत्तम-भोय-संजुतं ॥ २९ ॥ दंसण-गाण-चरितं सरणं सेयेह परम-सद्धाए । अण्णं कि पिण सरण संसारे संसरंताणं ॥ २० ॥ अप्पा णं पि य सरणं खमादि-भावेहिँ परिणदो होदि । तिब्ब-फसायाविहो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥ ३१ ॥ ३. संसाराणुवेक्खा एकं चयदि सरीरं अपणं गिण्हेदि णय-णवं जीवो। पुणु पुर्ण अण्णं अण्णं पिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ॥ ३२ ॥ एवं जं संसरणं णाणा-देहेसु होदिजीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छ-कसाएहिँ जुत्तस्स ॥ ३३ ॥ पाव-उँदयेण गरए जायदि जीवो सहेदि बहु-दुक्खं । पंच-पयारं विविहं अणोवमें अण्ण-दुक्खोहि ॥ ३४ ॥ असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुभयं च तिघं अण्णोपण-कयं च पंचविहं ॥ ३५ ॥ छिजा तिल-तिल-मित्तं भिदिज्जद तिल-तिलंतरं सयलं । वैजग्गीऍ कढिज्जइ णिहप्पए पूय-कुंडम्हि ॥ ३६॥ इवेवमाइ-दुक्खं जं गरएँ सहदि एय-समयम्हि । तं सयलं यण्णेढुं ण सक्कदे सहस-जीहो वि ॥ ३७॥ सधं पि होदि णरए खेन-सहावेण दुक्खदं असुहं । कुविदा यि सब-कालं अण्णोणं होति रहयौ ॥ ३८ ॥ अण्ण-भवे जो सुयणो सो वि य णरएँ हणेइ अइ-कुविदो। एवं तिव-विवागं बहु-कालं विसहदे दुक्खं ॥ ३९ ॥ लग च। २ब चवंतो। ३ ब रक्खियं, ग रक्खिदो। “ग छरिदि। ५लमसग सेबेहि। हलसग परिणदं । म गाथाके अन्त्यमें 'असरणानुप्रेक्षा ॥ ३॥ ८ स पुण पुण। ९ब मुदि । १० लमग हवदि। लमग पाउदयेण, स पामोदएण। १२ चमनोवमं मम । लमसग मणुषण । १७ जग्गिद। ५ ब कुंदमि, स कुंशम्मि १६ बनिरह। ५७५ समिमि, म समयमि(1)। 1८लमग खिन्न । १९ लमसग भण्णुपणं । २०[इति]। २ब नेरड्या। २२मरा। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ५१] - ३. संसाराणुक्खा - ततो जायति तिरिए बहु-बियप्पे | तत्थ विपादि दुक्खं गम्भे वि य छेयणादीयं ॥ ४० ॥ तिरिएहिं खज्ज माणो दुट्ट- मणुस्सेहिँ हम्ममाणो वि । सत्य व संतो भयै- दुक्खं विसहदे भीमं ॥ ४१ ॥ अणोणं खजंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं । माया वि जत्थ भैक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥ ४२ ॥ तिच तिसाई तिसिदो तिव-विभुक्वा भुक्खिदो संतो । तिचं पावदि दुक्खं यर-हुयासेण उज्झतो ॥ ४३ ॥ एवं बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय - जोणीसु । तत्तो णीसरिणं लद्धि-पुण्णो णरो होदि ॥ ४४ ॥ अह गन्भेवि य जायदि तत्थ वि विडीयंग-पंचिंगो । विसहृदि तिचं दुक्खं णिग्गममाणो वि जोणीदो ॥ ४५ ॥ arot after ear पर उच्छिदे दुहिदो । एवं जायण - सीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥ ४६ ॥ पावेण जणो एसो दुकम्म-वसेण जायदे सजो । पुणरवि करेदि पावं ण य पुष्णं को वि अज्जेदि ॥ ४७ ॥ विलो अजैदि पुण्णं सम्मोंदिट्ठी बएहिँ संजुत्तो । म-भावे सहिदो जिंदण- गरहाहिँ संजुत्तो ॥ ४८ ॥ पुण्ण-जुदस्स वि दीसंदि इ-विओयं अणिट्ट-संजोयं । भरो वि साहिमाणो परिजिओ लहुय भाषण ॥ ४९ ॥ सयल - विसय- जोओ बहु- पुण्णस्स वि ण सबहीं होदि । तं पुण्णं पिण कस्स वि सवं जेणिच्छिंदं लहदि ॥ ५० ॥ कस्स वि णत्थि कलत्तं अह कलतं ण पुत्त-संपत्ती । अह ते संपत्ती तहवि सरोओ इवे देहो ॥ ५१ ॥ उवसम - १ लमसग णीसरिजणं । २ घ तिरिहसु । ३ म भयचकं । थष्णो । ६ ब तिसाइ । ७ उबर । ८ लमसग हुयासेहिं । कवियपुण्णो । ११ व सगो । १२ व णिग्गयमाणो । अनहि । १६ ब सम्माइली । १७ व संयुक्ता । २० लसग सन्वदो, म सव्वदा । २१ व जो णिच्छिदं । कार्तिके० ५१ ४ लमसग अणुष्णं । ५ भिक्ख ९ लमसग सिरीजणं । १३ व उच्चण । १४ वम विरला । १८ लमसग दीमइ । २२ बस सरोवो | १० म १५ य सयलिविजोड । १९ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ -कसिगेयाणुप्पेफ्खा - [गा०५२अहणीरोओ देहो तो धण-धण्णाण णेय संपत्ती। अह धण-धण्णं होदि हु तो मरणं शत्ति दुबेदि ॥ ५२॥ कस्स वि दुट्ठ-कलतं कस्स वि दुबसण-बसणिओ पुत्तो। कस्स वि अरि-सम-बंधू कस्स वि दुहिदा वि दुधरियाँ ।। ५३ ॥ मरदि सुपुत्तो कस्स वि कस्स वि महिला विणस्संदे इट्ठा । कस्स वि अग्गि-पलित्तं गिहं कुडंबं च डझेद ॥ ५४ ॥ एवं मणुय-गदीए जाणा-दुक्खाइँ विसहमाणो वि। पनि भन्न जादि मंहं आरंभ णेय परिचयइ ॥ ५५ ॥ संधणो वि होदि णिधणो धण-हीणो तह य ईसरो होदि। राया वि होदि मिचो मिचो वि य होदि णरणाहो ॥ ५६ ॥ सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू। कम्म-विवाग-वसादो एसो संसार-सम्भायो ॥ ५७ ॥ अह कह वि हवदि देवो तस्स वि जाएदि माणसं दुक्खं । दह्नण महड्डीणं देवाणं रिद्धि-संपत्ती ॥ ५८ ॥ इथिओगं"-दुक्खं होदि महड्डीण चिसय-तण्हादो। विसय-वसादो सुक्खं जेसि तेर्सि कुदो तिती ॥ ५९॥ सारीरिय-दुक्खादो माणस-दुक्खं हवेइ अइ-पउरं ।। माणस-दुक्ख-जुदस्स हिं विसया वि दुहावहा हुति ॥ ६ ॥ देवाणं पि य सुक्खं मणहर-विसएहि कीरदे जदि हि।। विसंय-वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥ ६१ ॥ एवं सुट्ट-असारे संसारे दुक्ख-सायरे पोरे। किं कत्थ वि अस्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो ॥१२॥ दुकिय-कम्म-घसादो राया वि य असुइ-कीडओ होदि । तत्थेव य कुणइ रई पेक्खंह मोहस्स माइप्पं ॥ ६३ ॥ म मद्दव णी । २ब निरोभो। ३ब गोव ल मसग दुफेद । ५म समन्ता। ग दुश्चरिआ। लमसग कस्स वि मरादि सुपुत्तो। ८ ब विणिस्सदे। ९ब कुणइ रमा। १. गाभाके भारंभमें, बकिंघहस्थ संसारे स्वरूप। ११ बमस विवाय। १२लमसग य। ५ लमसग महनीनं। १४ व बिये, म विभोगे। १५ ब मट्ठीण, लमसग महबीण। १६ वि। मंगस कारण। १८व बिसाहा १९म विसं। २० पेक्खहु, लमग पिक्सह । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७२ ] - ३. संसाराणुवैक्खा - तो वि भाउ जाओ सो चियं भाओ वि देवरो होदि । माया होदि सवती जणणो वि य होदि भत्तारो ॥ ६४ ॥ मि भवे एदे संबंधा होति एय-जीवस्स | tor भवे किं भण्णइ जीवाणं धम्म-रहिंदाणं ॥ ६५ ॥ संसारो पंच - विहो दधे खेत्ते तहेव काले य । भव-भ्रमण य चउत्यो पंचमओ भाव-संसारो ॥ ६६ ॥ बंदि सुचदि जीवो डिसमयं कम्म पुग्गला विविहा । णोकम्म पुग्गला वियमिच्छत्त कसाय - संजुती ॥ ६७ ॥ सो को वित्थ देसो लोयायासस्स णिरवसे सस्स । जत्य ण स जीवो जांदो मरिदो य बहुवीरं ॥ ६८ ॥ उवसप्पणि-अवसप्पिणि-पढम-समयादि- चरम-समर्थतं । जी जम्मद मरदि य सेवेस काले ॥ ६९ ॥ रइयादि - गदीर्ण अवर-द्विदिदो" वर - द्विदी जावें । - द्विदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज पंज्जतं ॥ ७० ॥ परिणमदि सण्णि-जीवो विविह-कसाएहिं ठिदि - णिमित्चेहिं । अणुभाग- णिमित्रोहिय वर्द्धतो भाव संसारे ॥ ७१ ॥ एवं अणा-काले पंच- पयारे भमेह संसारे । नामा- दुक्ख - णिहाणे जीवो मिच्छत्त- दोसेण ॥ ७२ ॥ ४०३ ६६ ॥ तुन पिया मम भाया ॥ १ लमसग विय । २ लमगस हो । ३ यह गाथा ल प्रतिमें नहीं है । ४ इस गाथा के भनंतर नीचे लिखा हुआ अधिक पाठ मिला जैसा लिखा है । य "वसंततिलमा धणदेवपडमाइणि इत्थि दिहंता । भाया भतिजय देवो सि पुन्तोसि पुसपुसो से । पितम्बड सि वालय होसि तुमं णत छकेणं ॥ सुसुरो पुतो पड् य जगो म त य पिगामहू होह वालयत्तणरथ देणं ॥ ६७ माया य तुझ बालब सम अनी सासुय सवकीय बहु भाउजया न पियामही य इत्थेष जाया या ॥ ६८ ॥ म वसंततिलयाघणदेवगडमणि विद्वेता बालाय णिसुणहि वयणं तुहु सरिस हुति दत्ता ॥ ६६ ॥ पुतु भत्तीकउ भायत देवरु पिसिपड पुतो जो ॥ ६५ ॥ तुहु पियरो मुदु पियरो पियामहो तहह [य] हवइ भतारो। भागड तहा वि पुसो सुसुरु हवय [इ] वाल्या मज्जा ॥ ६७ ॥ तुहु जणणी हुइ भज्जा पियामहि तह य मायरी। सवई ह वह बहु तह सा सुत्र कहिया अट्टहासा ॥ ६८ ॥ ५ ब म भवणो । ६ व मुच्चदि । अन्त्य, बम दबे ॥ ८थ सच्चे । ९ व जादो य मदोय (परिवर्तनके पूर्वका पाठ ) । में व खेतं, म खेते ॥ ११ समसु सर्व्वसु । १२ श्रम काले । १३ ग अवरिद्विविदो वरिडिडी । १४ व जाम । १५ स भावे [भ] ११ व प्रतिमें इस गाथाएं बीच और बाद नाते के कुछ शब्द लिखे गए हैं। इस वास्ते किसी दुसरेने ॐ इस गाथा १० इस गाथा । हासीये में मह गाथा लिखी है। गाधाके अंत्यमें 'भवो' शब्द है । १७ लसग संसारो । व भाव संसारो, में भाष ।। १८ व मणायकाले, लमसंग भाइकालं । १२ व पयारेहि भ्रमण सं । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ - कलिगेयाणुप्पेक्खा यो सवारेण चइऊणं । तं झायह स-सरुवं संसरणं जेण णासेइ ॥ ७३ ॥' ४. एगताणुवेक्खा इको जीवो जायदि एको गन्भहिं गिण्हदे देहं । इको बाल- जुवाणो इको बुड्डो जरा गहिओ ॥ ७४ ॥ इको रोई सोई इको तप्पेड़ माणसे दुक्खे | sit मरदि वराओ रिय- दुहं सहदि इको वि ॥ ७५ ॥ इको संचदि पुण्णं एको भुंजेदि विविध- सुर- सोक्खं । hi खवेदि कम्मं को वि य पावएं मोक्खं ॥ ७६ ॥ सुयणो पिच्छंतो वि हुण दुक्ख-लेसं पि सक्कदे गहितुं । एवं जातो व तो वि ममत्तं ण छंडे ॥ ७७ ॥ जीवra freछयादो धम्मो दह-लक्खणो हवे सुंथणो । सो पोइ देव- लोए सो चिये दुक्ख क्खयं कुणइ ॥ ७८ ॥ सवायरेण जाणहै एक जीवं सरीरदो भिण्णं । जहि दु मुणिदे 'जीने 'होदि असेसं खणे हेयं ॥ ७९ ॥ ५. अण्णत्ताणुवेक्खा हु अणं देहं गिहृदि जगणी अण्णा य होदि कम्मादो । अण्णं होदि कलत्तं अण्णो वि य जायदे पुत्तो ॥ ८० ॥ एवं बाहिर दवं जीणदि रूवादु अप्पणो भिष्णं । जाणतो वि हु जीचो तत्थेव हि रचदे मूढो ॥ ८१ ॥ जो जाणिऊण देहं जीव- सरूवा तथदो भिण्णं । अप्पाणं पिय सेषदि कञ्च-करं तस्स अण्णत्तं ॥ ८२ ॥ ६. असुरत्ताणुवेक्खा सयल - कुहियाण पिंड किमि - कुल-कलियं अउच्च- दुग्गंधं । मल-मुत्ताण य गेहं देहं जीणेहि असुइमयं ॥ ८३ ॥ एको । लमसँग ससहावं । २ षम संसारानुप्रेक्षा । १३. लमसग इको । ६ ब निरय । ७ ब एको । ८ लमसग इको । १२ स बि । १३ य आणइ । १४ लमसग इकं । एकताणुवेक्खा, म एकस्यानुप्रेक्षा । १८ २१ ब मनुताया, म अभ्यस्वानुप्रेक्षा । [ गा० ७३ ४] गम्भम्मि... देहो । ५ ब १० स कँडेइ । ११ म सुवणो । १६ लमसग होड़ | १७ व । २० व जीवस्स रूवादि । ९ बम पाव । १५ चम जीवो । गिहिदि । १९ व जाण सरूवादि अ २२ लमस जाणेह ग जाणेश् । २३ म असुइ । ★ • · Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ -गा० ९४] - ६. असुइसाणुवेक्खासुव पवित्तं दई सरस-सुगंधं मणोहरं जं पि। देह-णिहितं जायदि घिणावणं सुटु दुग्गंधं ॥ ८४ ॥ मणुयाणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेर्सि विरमण-कजे ते पुण तत्थे अणुरत्ता ॥ ८५ ।। एवंविहं पि देहं पिच्छंता वि य कर्णति अणरायं । सेवंति आयरेण य अलद्ध-पुत्रं ति मण्णंता ॥ ८६ ॥ जो पर-देह-विरत्तो णिय-देहे ण य करेदि अणुरायं । अप्प-संरूप-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स ।। ८७ ॥ ७. आसवाणुयेक्सा मण-वयण-काय-जोया जीवे-पएसाण फंदण-विसेसा । मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होति ।। ८८ ॥ मोह-विवाग-वसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स । ते आसवा मुणिजसु मिच्छत्तीई अणेय-विहा ॥ ८९ ॥ कम्मं पुण्णं पावं हे तेर्सि च होंति सच्छिदरा। मंद-कसाया सच्छा तिच-कसाया असच्छा हु ॥ ९ ॥ सवत्थ वि पिय-अयणं दुच्चयणे दुजणे वि खम-करणं । सन्वेसिं गुण-गहणं मंद-कसायाण दिटुंता ॥ ९१ ॥ अप्प-पंससण-करणं पुज्बेसु वि दोस-गहण-सीलतं । वेरै-धरणं च सुइरं तिव-कसायाण लिंगाणि ॥ ९२ ॥ एवं जाणंतो पि हु परिचयणीएँ वि जो ण परिहरह। तस्सासवाणुवेक्खा सत्रा वि णिरत्थया होदि ॥ ९३ ॥ पदे मोहय-भावों जो परिवजेह उवसमे लीणो। हेयं ति" मण्णमाणो आसय-अणुवेहणं तस्स ॥ ९४ ॥" (4)। २ लमसग मणुभाणं। ३ ब विणिम्मिवं [१]। पुणु तिरथेष । ५ लग पुण्य ति, मसेव ति। लिगस अपर सबि । बमसुश्तो। ८व असुहत्तामुक्क्षा, ममम्वित्वामुग्रहा। ९यजीवापइसाण। १. मोहोपण। १५स मुनिबाहु। २ बम मिलाइ। ३ग हेड, [ख] १५ ल खेरिधरण, म बेरिध। १५ व परच', ल परिषरणीचे, सग भीये । लमसग शुपिक्खा। १७ लमसग मोहजभावा। १८ लमसग हेयमिति में'। सलमसग अणुपेहण। २.दाखवाणुवेक्खा, म भावानुप्रेक्षा। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ - कतिगेयाणुपपेक्ला. [गा० ९५८. संघराणुवेक्खा सम्मत्तं देस-वयं महत्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवर-णामा जोगाभावो तहा चेव ॥ १५ ॥ गुत्ती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह य परिसह-जओ वि। उकिर्ट चारित्तं संवर-हेर्दू विसेसेण ॥ ९६ ॥ गुची जोग-णिरोहो समिदी य पमाद-वजणं चेव । धम्मो दया-पहाणो सुतत-चिंता अणुप्पहा ॥ ९७ ॥ सो वि परीसह-विजओ मुहादि-पीडाण अइ-रउद्दाणं । सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं ॥ ९८ ॥ अप्प-सरूवं वत्थु चत्तं रायादिएहि दोसेहिं । सज्माणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तम चरणं ॥ ९९ ॥ एदे संघरहे, जियाराणोनि जोम आयरइ । सो भैमह चिरं कालं संसारे दुक्ख-संतत्तो ॥ १०॥ जो पुणे विसर्य-विरत्तो अप्पाणं सर्वदो वि संवरह। मणहर-विसहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ॥ १.१ ॥ ९. णिज्जराणुयेक्खा । पारस-विहेण तपसा णियाण-रहियस्स णिज्जरा होदि । वेरग्ग-भावणादो गिरहंकारस्सै णाणिस्स ॥ १०२ ॥ सधेसि कम्माणं सत्ति-विवाओ हवे अणुभाओ। तदणंतरं तु सडणं कम्माण णिज्जरा जाण ॥ १०३ ।। सा ऍण दुविहा गेया सकाल-पत्ता तयेण कयमाणा । चादुगदी]" पढमा वय-जुत्ताणं हवे विदिया ॥ १०४ ॥ उक्सम-भाव-तवाणं जह जह चड्डी हई साहूणं । तह तह णिजर-बड्डी विसेसदो धम्म-सुक्कादो ॥ १०५ ॥ लमग तह ख्य, स तह श्वेव। २ व अणुवेहा, सग विक्खा। ३ लमग तह परीसद, स त य परीसह । ब इङ। ५मस पमाय - ६ व सुतस्थ-, लसग सुताच- 1 ब भागुबेहा। लमग हाइ-1 ९ष बिलीणं [१]। १० च हेदूं, लसग हेई, म हेदु । १३ ब भमेइ [भमइ य चिरकालं]। १२ व पुणु। १३ग विसइ । १४ लमसग सम्पदा । १५ब चिसयेहितो। १६ व संवराणुवेक्खा। "लस कारिस्स। १८ख सत्त। १९ ल विवागो। २० ब पुणु। २१ व चाऊगदी, स चा। २२म दुड्डी। २३थ हबह। २५ द वुड्डी। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ गा० ११६] -- १. णिजराणुवेक्खामिच्छादो सहिट्ठी असंख-गुण-कम्म-णिजरा होदि । ततो अणुक्य-धारी तत्तो य महबई णाणी ॥ १०६ ॥ पढम-कसाय-चउण्डं विजोजओ तह य खेवय-सीलो य । दसण-मोह-तियस्स य तत्तो उपसमर्ग-चत्तारि ॥ १०७ ।। खवगो य खीण-मोहो सजोइ-णाही तहाँ अजोईया। ऐदे उपार उचार असंख-गुण-कम्म-णिज्जरया ॥ १०८ ॥ जो विसहदि दुश्चयणं साहम्मिय-हीलणं च उवसग्गं । जिणिऊण कसाय-रि तस्स हवे णिजरा विउलाँ॥ १०९ ॥ रिण-मोयणं , मण्णइ जो उवसग्गं परीसह तिघं । पाव-फलं में एदं मया वि जं संचिदं पुष्वं ॥ ११०॥ जो चिंतेइ सरीरं ममत्त-जणयं विणस्सरं असुई। दसण-णाण-चरितं सुह-जणयं णिम्मलं णिचं ॥ १११ ॥ अप्पाणं जो जिंदा गुणवंताणं करेइ बहु-माणं । मण-इंदियाण विजई स सरूव-परायणो होउ" ॥ ११२ ॥ तस्स य सहली जम्मो तस्स य" पावस णिज्जरा होदि। तस्स ये पुण्णं बड्डदि तस्स यि सोक्खं परं" होदि ॥ ११३ ॥ जो सम-सोक्खें-णिलीणो वारंवारं सरेइ अप्पाणं । इंदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥ ११४ ॥ १०. लोगाणुवेक्ता सखायासमैणतं तस्स य बहु-मज्झ-संठिओ" लोओ। सो केण वि णे- कओ ण य धरिओ हरि-हरादीहि ॥ ११५ ॥ अण्णोण्ण-पवेसेण य दवाणं अच्छणं हवे" लोओ। दवाणं णिचत्तो लोयस्स वि मुणहूँ णिवत्तं ॥ ११६ ॥ स खब। २व उपसमग्ग। ३ ब सयोगिणाहो, ब समोयणाणो। ४ब सहयोगीय। ५६ एदो। साहम्मिहीं। सब गिजर विउलं। लमसग मोयणुम्व । ९य संचय।.. भसुई। लमसग करेदि । १२ ग होऊ होइ] । १३ लमलग वि । ग पाकस्स । ५लमसग बिप। १६ लमसग य । ७व परो। १८ लमसग सुक्ल । १९ व निजराणुपेला। २. ग सम्हागासंम। २१ बम सेठिट, लग संठियो, स संदिगो। २२म पणेय, सगणेय । २३ लसग भो। २७ य मुणहि । २५ ग णिधिन । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ve - कति गेयाशुपेक्खा - परिणाम सहायादो पडिसमयं परिणमंति दवणि । तेर्सि परिणामादो लोयस्स वि सुणह' परिणामं ॥ ११७ ॥ सत्तेक पंच का मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयंते रज्जूओ वावरदो य वित्थारो ॥ ११८ ॥ दक्खिण- उत्तर पुणे सत्त वि रज्जू हवंति' सवत्थ । चंद रज्जू सत्तवि रज्जू घणो लोओ ॥ ११९ ॥ मेरुसहि भए त वि रज्जू हवेह अह - लोओ " । उड्डम्म उड्ड-लोओ मेरु-समो मज्झिमो लोओ ॥ १२० ॥ दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णंदे लोओ । तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंत - विहीणा विरोयते ॥ १२१ ॥ पदिपैहिँ भरिदो पंच- पयारेहिं सचदो लोओ । तल-गाडी वि तसा ण बाहिरा होंति सवत्थ ॥ १२२ ॥ पुण्णा चि पुण्णा वि य थूला जीवा हवंति साहारा । बिह-सुडुमा जीवा लोयायासे वि सवत्थ ॥ १२३ ॥ पुढेवी-जलग्गियाऊ चत्तारि वि होंति" वायरा सुहुमा । साहारण पत्तेया वणफेदी पंचमा दुविधा ॥ १२४ ॥ साहारा वि दुविधा येणार - कीला य साइ - काला य । "य बादर-सुहमा सेसा गुण बायरा सबे ॥ १२५ ॥ साधारणाणि जेसेिं आहारुहसास - काय - आऊणि । ते साधारण - जीवा ताणंत-प्यमाणाणं ॥ १२६ ॥ पाय जेसिं पडिलणं पुंढवी-तोएहिँ अग्नि-वाएहिं । जाणें हम काया इयरा पुणे थूल-काया य ॥ १२७ ॥ २५ [ गा० ११७ १ल तचाणि । २य मुहि । ३ लग ससेक, म सत्तिक, ससनेक । ४ ग पुब्वापरो । ५ प पुणु । ६ लसग इवेति । ७ य उ [ ? ], लमग अड्डो, स उहो । ८ लसग चउदस, म चउदस । ९ लग भागे । १० य दबे अहो लोड [?], लसग हवे अ लोभो, म हवे मह लोट । ११ व भण्णइ | १२ लमसंग विरार्धति । १३ बस दिएहि । १४ व नाडिए । १५ बलमसग यपुष्णा । छवि । १७ य सुक्ष्मा । १८ लग पुढषि । ३९ व हुंति । २० व वणफदि । २१ ११ लमस कालाह साइकालाई । २३ य ते घार, ल ने थिय । २४ व पुणु । २६ मई, लग पुवी । २७ व जाणि । २८ ब गुणु । पुणु १६ बलसग भणाय । २५ व युगलं । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० १३९ ] - १०. लोगाणुवेफ्लापत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिंदा तहेव रहिया य । दुरिहा होति' तसा यि य वि-ति-चउरक्खा तहेव पंचक्खा ॥ १२८ ।' पंचक्खा विय तिथिहा जल-थल-आयास-गामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ॥ १२९ ॥ ते वि पुणो वि य दुविहा गन्भज-जम्मा तहेव संमुच्छा। भोग-भुवा गम्भ-भुवा थलयर-गहुँ-गामिणो सण्णी ॥ १३० ॥ अट्ट वि गन्मज दुविहा तिविहा संमुच्छिणो वि तेवीसा । इदि पणसीदी भेया सवेसि होति तिरियाणं ॥ १३१ ॥ अज्जव-मिलेच्छे-खंड भोग-महासु वि कुभोग-भूमीसु । मणुया हवंति दुविहा णिधित्ति-अपुण्णगा पुण्णा ॥ १३२ ॥ संमुच्छिया मणुस्सा अजव-खंडेसु होति णियमेण । ते पुण लैद्धि-अपुण्णा णारय-देवा वि ते दुविहा ॥ १३३ ॥" आहार-सरीरिदिय-णिस्सासुस्सास-मास-मणसाँणं । परिणइ-वावारेसु य जाओ छ ये सत्तीओ ॥ १३४॥ तस्सेय कारणाणं पुग्गल-खंधाण जा हु णिप्पत्ती। सा पज्जत्ती भैण्णदि छन्भेया जिणवरिंदेहि ॥ १३५ ।। पजत्तिं गिण्हंतो मणु-पजत्तिं ण जाव समणोदि। ता णिवत्ति-अपुण्णो मण-पुण्णो भण्णदे पुण्णो ॥ १३६ ।। उस्सासद्वारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि । एंको वि य पजत्ती लेद्धि-अपुण्णो हवे सो दु॥१३७ ।। लद्धियपुण्णे पुण्णं पज्जत्ती एयक्ष-वियल-सण्णीणं । चदु पण छकं कमसो पजत्तीएँ वियाणेह ॥ १३८ ॥ मण-वयण-काय-इंदिय-णिस्सासुस्सास-आउ-उदयाणं । जेसि जोए जम्मदि मरँदि विओगम्मि ते वि दह पाणा ॥ १३९ ॥ बसहिया । २ व हुंति । सादारणाणि इत्यादि गाथा ( १२६) ब-पुस्तकेऽत्र 'भाहारूटसास्मश्राउकाऊणि' इति पाठान्तरेण पुनरुक्ता इंश्यते। म हुत्ता भहुत्ता य । ५ व भुया। इस नभ। बग समु। ८स भेदा । ९स मिलछे, ग मलेछ। १०ग मोगभूमीमु। मसग मणुमा। १२ब हति। १३ब लडू। 1ब एव अट्टागडदी मेया। १५ मग सरीरैदिय । १६ स हास। १० मणुसाणं। १८ व परिणबद। १९ व कन्वेच। २०ग भणिवि छमेया । २१ में समादि । २२ बमस मणु-। २३ लग भपणते। २४ बमका (?), समसग पुका। २५ मग लदियपुणो। २६ब पजसीम()। २७ लमग आउल्याणं, स आउसहियाणं। २८ बग मतिदि। कार्तिके० ५२ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ♦ [ गा० १४० - - कत्तिगेया पेक्खा - एक्खे चदु पाणा वि-ति- चउरिंदिय असविण सण्णीणं । छह सत्त अड्डे वयं दह पुण्णाणं कमे पाणा ॥ १४० ॥ दुविहाणमपुण्णाणं गि- वि-ति- चउरक्ख- अंतिम दुगाणं । तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयचा ॥ १४१ ॥ वि-ति चउरक्खा जीवा हवंति नियमेण कम्म-भूमीसु । चरिमे दीवे अद्धे चरम - समुद्दे व सबे ॥ १४२ ॥ माणुस - खित्तस्स वहिं चरिमे दीवस्स अद्धयं जॉब | 5५ कितिरिच्या हिमनद विरिहिं हरिच्छा ॥ १४३ ॥ लवणो कालोए अंतिम - जलहिम्मि जलयरां संति । सेस-समुद्देसु पुणो ण जलयरा संति नियमेण ॥ १४४ ॥ खरभाव-पंकमाए भावण देवाण होंति भवणाणि । वितर- देवाण तहा दुहं पि य तिरिय लोयमिमं ॥ १४५ ॥ जोsसियाण विमाणा रज्ज-मित्ते वि तिरिय लोए वि" । कप्प-सुरा उम्मिं य अह-लोए होंति" णेरइया ॥ १४६ ॥ बादरें - पजत्ति जुदा घण आवलिया असंख-भागा दु । किंचूर्ण-लोय-मित्ता तेऊ बाऊ जहा कमसो ॥ १४७ ॥ पुढेवी-तोय-सरीरा पत्या वि य पट्टिया इयरा । होत असंखा सेढी पुण्णापुण्णा य तह य तसा ॥ १४८ ॥ बादर-द्धि - अण्णा असंख - लोया हवंति पत्तेया । तह य अण्णा सुदुमा पुष्णा वि य संख-गुण-गणिया ॥ १४९ ॥ सिद्धा संति अणंता सिद्धाहिंतो" अनंत-गुण-गुणिया । होंति णिगोदा जीवा भागमगतं अभवा य ॥ १५० ॥ सम्मुच्छिम हुमणुया सेढियसंखिज-भाग- मित्ता हु । भज मणुया सवे संखिजा होंति नियमेण ॥ १५१ ॥ ५ २ ग इग ६ लसग सन्वथि षि । 1 । १ य सतह | ३ ल चरिम । ४ ग चरमे । ५ ब जाम । ७ व हिमवदितिरियेहि । ८ च अंतम । ९ लग जलचरा । १० ग चिंतर । ११ लमसग तिरियलोए वि । ३२ च - लए मि १३लग उहि स उददि । १४ घ हुंति । १५ व स्थितिव्वं ॥ बादर इत्यादि । १६ बग बादर | ३७ सग किंचूणा । १८ग पुत्रीय तोय | १९ ब हुनि २० वायर । २१ मसग द्विपुष्णा । २२ म सिहिंतो । २३ व समुच्छिमा लमस सम्सुच्छिया, ग समुच्छिया, २४ व सेडिम | २५ व संखा ॥ देवा वि इत्यादि । । ! 1 ! Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -गा० १६३] - १०. लोगाणुवेक्खा ४११ देवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु संतरां होति । सम्मुच्छियां वि मणुया सेसा सवे णिरंतरया ॥ १५२ ॥ मणुयादो गेरइया णेरड्यादो असंख-गुण-गुणियाँ । सधे हवंति देवा पत्तेय-वणफंदी तत्तो ।। १५३ ॥ पंचक्खा चउरक्खा लद्धियपुर्णा तहेब तेयक्खा । वेयक्खा वि य कमसो विसेस-सहिदाँ हु सव-संखाएँ ॥ १५४ ॥ चउरक्खा पंचक्खा येयक्खा तह य जाणे तेयक्खा । एदे पज्जयि युवा अहिया सहिया कोषोय ।। १ ।। परिवजिय सुहुमाणं सेस-तिरक्खाणे पुषण-देहाणं। इको भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ॥ १५६ ॥ सुहुमापज्जत्ताणं इको भागो हवेदि णियमेण । संखिज्जों खलु भागा तेसि पजत्ति-देहाणं ॥ १५७ ॥ संखिज-गुणा देया अंतिम-पडला, आणेदं जावे। ततो असंख-गुणिदा सोहम्म जाष पडिपडलं ॥ १५८॥ सत्तम-णारयहितो असंख-गुणिर्दा हवंति णेरइया । जाव य पढम णरयं बहु-दुक्खा होति हेहिट्ठीं ॥ १५९ ॥ कप्प-सुरा भाषणया वितर-देवा तहेव जोइसिया । बे" हुति असंख-गुणा संख-गुणा होंति जोइसिया ॥ १६ ॥" पसेयाणं आऊ वास-सहस्साणि दह हवे परमं । अंतो-मुत्तमाऊ साहारण-सब-सुहमाणं ॥ १६१ ॥ बावीस-सत्त-सहसा पुढवी-तोयाण आउस होदि। अग्गीणं तिषिण दिणा तिणि सहस्साणि वाऊणं ॥ १६२ ॥ बारस-वास विर्यक्खे एगुणवण्णा दिणाणि तेयाक्खे । चउरक्खे छम्मासा पंचक्खे तिण्णि पलाणि ॥ १६३ ॥" लमसग सांतरा। २ दग समुच्छिया । ३ अंतरं ॥ मणुयादो इत्यादि । ५ स गुणिदा । ५ गवणप्पदी। ६ब लन्दिपुण्णा तहेय। ब बिसेसिसहदा, ग विसेसहिदा । ८स संक्खाय, म सम्बजए। ९में जाणि। १. लमस तिरिक्खाण। १५ लभसग एगो भागो हवेछ । १२ब संखया। १३ ल पटलावु, स पढलादो, ग पटसादो। १ लग आरण, स आणदे। १५ जाम । १ब गुणिया। १. सग हर्वति । १८ बम हिटिट्ठा। १९ बम ते । २० व अल्पबहुवं । पत्तेयाण इत्यादि। लग परमा । २२ व महुसमाऊ । २३ ब अगिणं, म भगीणं । २४ व बिअक्खे । २५ व तेमक्खे । २६ व उस्कार सव्व इत्यादि। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कत्सिगेयाणुप्पेक्खा - [ गा० १६४० सब-जहण्णं आऊ लद्धि-अपुण्णाणे सष्ट-जीवाणं । मज्झिम-हीण-महुत्तं पजत्ति-जुदाण णिकिटु ॥ १६४ ॥ देवाणे णारयाणं सायर-संखा हवंति तेतीसा। उक्टुिं च जहणं वासाणं दस सहस्साणि ॥ १६५ ॥ अंगुल-असंख-भागो एयक्वं-चउक्ख-देह-परिमाणं । जोयणे-सहस्स-महियं परमं उकस्सयं जाण ॥ १६६ ॥ पारस-जोयण संखो कोस-तियं गोभियों समुहिट्ठा । भमरो जोयणमेगं सहस्से संमुच्छिमी मच्छो ॥ १६७ ॥ पंच-सया धणु-छेही सत्तम-णरए हवंति णारइयाँ। तत्वो उस्सेहेण य अद्धद्धा होति उवरुवार ॥ १६८ ॥ असुराणं पणवीस सेसं णव-भावणा य दह-दंडं । वितर-देवाण तहा जोइसिया सत्त-धणु-देहा ॥ १६९ ॥ सुग-युग पदु गुम तुम कप्प-सुराणं सरीर-परिमाणं । सत्तच्छे-पंच-हत्था चउरो अद्धद्ध-हीणा य ॥ १७ ॥ हिद्विम-मझिम-उपरिम-गेवंजे तह विमाण-चउदसए । अद्ध-जुदा ये" हत्था हीणं अद्धद्धयं उवरि ॥ १७१॥ अवसप्पिणीए पढमे काले मणुया ति-कोस-उच्छेहा । छहस्स वि अवसाणे हत्य-पमाणा वियत्था य ॥ १७२ ॥ सब-जहण्णो देहो लैंद्धि-अपुण्णाण सच्च-जीवाणं । अंगुल-असंख-भागो अणेय-भेओ हो सो वि ।। १७३ ॥ वि-ति-चउ-पंचक्खाणं जहण्ण-देहो होइ पुग्णाणं। अंगुल-असंख-भागो संख-गुणो सो वि उवरुवार" ॥ १७४ ॥ अणुबैरीयं "कुंथो मच्छी काणा य सालिसित्थो य । पजत्ताण तसाणं जहण्ण-देहो विणिहिहो ॥ १७५ ॥ बभाउ, म माउं, ग भायु। २लमसग -यपुण्णाण । ३लमग मुहसं। १५ निकिटुं । ५ ग देवाण। ६ गतेसीसा। बाउस । अंगुल इत्यादि। ८ ल एगक्ख -। ९य जोहण । १० जोहण । १७ कोस । १२ लमसग गुम्भिया। १३ ब जोशणमेकं । १५ लग सहस्स, म सहस्सा। १५लमसग समुच्छिदो। १६ ब पंचसधणुच्छेहा (!)। १७ लमग गेरड्या । १८ व हुंति। १९॥ जोयसिया। २. सत्तचपंच, सत्तछहपंच] १ बजे, मगेविजे। २२ [?]. २०म उधस। २५ म लखियपुषणाण (?)। २५ ग उवरूवरि । २६ष भण्णुधरीयं, लम प्राणुष,' स बाणुद्ध, ग अणु। २७ लग कुंधुमच्छा, मस कुंयं (?)। २०य देहप्रमाणं । लोय इत्यादि । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०. लोगाणुवेक्खा - लोय - पमाणो जीव देह - पमाणो यि अच्छदे खेचे । उम्गाईण- सत्ती दो संहरण- विसप्प- धम्मादो ॥ १७६ ॥ सब- गओ जदि जीयो सवत्थ वि दुक्ख सुक्ख-संपत्ती । जाईजण सा दिट्ठी णिय-तणु-माणो तदो जीवो ॥ १७७ ॥ जीवो णाण-सहावो जह अग्गी उपहवो सहावेण । अत्यंतर भूद्रेण हि णाणेण ण सो हवे णाणी ।। १७८ ॥ जदि जीवादी भिण्णं सब-पयारेण हयदि तं गाणं । गुण-गुणि-भावो य तहा दूरेण पणस्संदे दुहं ॥ १७९ ॥ जीवस्स व णाणस्स वि गुणि-गुण-भावेण कीरए भेओ । जं जाणदि तं गाणं एवं भेओ कई होदि ॥ १८० ॥ णाणं भूय-वियारं जो मण्णदि सो वि भूद-गहिदवो । जीवेण विणा णाणं किं केण यि दोसदे कत्थ ॥ १८१ ॥ सच्चेपण - पथक्खं जो जीवं र्णेय मण्णंदे मूढो । सो जीवं ण मुणंतो जीवाभावं कहं कुणदि ॥ १८२ ॥ जदि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख-दुक्खाणि । इंदिय-विसया सधे को या जाणदि विसेसेण ॥ १८३ ॥ संकप-मओ जीवो सुह- दुक्खमयं हवेह संकप्पो । तं चिय वेददि" जीवो देहे मिलिदो वि सवत्थ ॥ १८४ ॥ देह - मिलिदो " वि जीवो सघ - कैम्माणि कुत्रदे जम्हा | तम्हा पट्टमाणो एयन्तं बुज्दे 'दोहं ॥ १८५ ॥ देह-मिलिदो वि पिच्छदि देह-मिलिदो वि र्णिसुंण्णदे सई । देह-मिलिदो विभुंजदि देह-मिलिदो वि गच्छेदि ॥ १८६ ॥ राज हं भो हं सिट्टी हं चैव दुम्बलो बलिओ । हदि यत्ताषिो दोहे भेयं ण बुज्झेदि ॥ १८७ ॥ - गा० १८७ ] [ जोगाहण]. + २ म जोइज ( ? ) । ३ लमस उण्हो । ४ व गुणिगुणि ६ व गुणिगुणि, लमसग गुणगुणि । ७ लमसग दीसए । ८ लसग पोय, म णय । १३ बलमसग वुझदे । १० ग वेददे । ११ देहि । १२ [ सम्बंम्माणि ] । १५ लमसग शिसुणदे, [देहे मिलिरो वि णिसुणदे ] । १६ [ देहे ] १८ वा दुई | ४१३ ५ म विणरदे। ९ग मजदि । १४ व पुन्हं । १७ लमलग गच्छेद, व गमछेदि (१) । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ - कत्तिगेयाणुप्पेफ्सा [गा० १८८जीवो हवेई कचा सर्वकम्माणि कुबदे जम्हा। कालाइ-लद्धि-जुत्तो संसारं कुणइ मोक्खं च ॥ १८८ ॥ जीवो वि हवइ भुत्ता कम्म-फलं सो वि मुंजदे जम्हा। कम्म-विवायं विविहं सो वि य भुंजेदि संसारे ॥ १८९॥ जीवो दि ईवे पान अह-तिष्व-कमाय-परिणदो णिषं ।। जीवो वि हवा पुण्णं उबसम-भावेण संजुत्तो ॥ १९ ॥ रयणत्तय-संजुत्तो जीचो वि हवेइ उत्तमं तित्थे। संसारं तरह जदो रयणत्तय-दिध-णावाएं ॥ १९१ ॥ जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥ १९२॥ मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव-कसाएण मुटु आविट्ठो। जीवं देहं एकं मपणंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३ ॥ जे जिण-बयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं । णिजिय-दुट्ट-मया अंतरप्पा य ते तिविहा ॥ १९४ ॥ पंच-महन्धय-जुत्ता धम्मे सुके वि संटिदा णिचं । णिजिय-सयल-पमाया उक्झि अंतरा हॉति ॥ १९५ ॥ सावय-गुणेहिं जुत्ता पमत्त-विरदा य मन्झिमा होति । जिण-वयणे अणुरता उक्सम-सीला महासत्ता ॥ १९६ ॥ अविरैय-सम्मादिट्ठी होति जहण्णा जिणिर्द-पय-भत्ता । अप्पाणं णिदंता गुण-गहणे सु९ अणुरत्ता ॥ १९७ ॥ ससरीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय-सयलत्था। णाण-सरीरा सिद्धा सङ्घत्तम-सुक्ख-संपत्ता ॥ १९८ ॥ णीसेस-कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मज-भाव-खए वि य सा वि य पत्ती परा होदि ॥ १९९ ॥ म हवेदि। ३लमस कुणदि, ग कुणद। ३ब सो चिय। ४ लमसग वह । ५लमसग जीधो हह । ६ नाधाए । ७ ग जीयो। ८ व तिवहा । ९ बम सुद्ध, ल कसामछु, स कसाएसु सुद्ध, म कसापसुट्रियाविट्ठो। १.स भेदं (!)। [अतरसप्पा]। १२ लसग संठिया। १३ समणिरद। १४ सम्माइट्ठी। १५ जिपिणद, ग जिणेद । १६ म सुद्ध। १० लग सौक्स। १८लमसग मिस्सेस। १९म मुसी। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०. लोगाणुवैक्खा - इ-काले वि । जर पुणे सुद्ध-सहावा सबै जीवा अणाइसो तव चरण- विहाणं सबेसिं गिष्फलं होदि ॥ २०० ॥ तह गिण्हदि देहं णाणा- कस्माणि ता कहं कुणदि । हिदा यि दुहिदा व य णाणा-रूवा कहं होंति ॥ २०१ ॥ थे कम्म बिद्धा संसरमाणा अणाइ-कालम्हि । पच्छा तोडिय बंधं सिद्धा सुंद्धा धुवं होंति ॥ २०२ ॥ जो अण्णोष्ण-पवेसो जीव- परसाण कम्म- खंधाणं । सब-बंधाणवि ओ सो बंधो होदि जीवस्स ॥ २०३ ॥ उत्तम - गुणाण धामं सव - दवार्णे उत्तमं दवं । ताण परम-तचं जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥ २०४ ॥ अंतर-तथं जीवो बाहिर - तचं हवंति सेसाणि । १८ - विहीणं द हिहियं णेय जाणेदि ॥ २०५ ॥ सबो लोयायासो पुग्गल दवेहिँ सङ्घदो भैरिदो । सुमेहिँ वायरेहि य णाणा - विह- सत्ति - जुत्तेहिं ॥ २०६ ॥ जं इंदिएहिं गिज्झं रुवं रस-गंध-फास - परिणामं । तं चियै पुग्गल - दवं अनंत-गुणं जीव-रासीदो ॥ २०७ ॥ जीवस्स बहु पयोरं उपयारं कुणदि पुग्गलं दवं । देहं च इंदियाणि य वाणी उस्सास - णिस्साँस ॥ २०८ ॥ अण्णं पि एवमाई उपयारं कुणदि जब संसारं । मोह - अणाण- मैं पिय परिणामं कुणदि जीवस्स ॥ २०९ ॥ जीवा विदु जीवाणं उवयारं कुणदि सब पञ्चखं । तत्थ वि पहाण हेॐ पुण्णं पात्रं च नियमेणं ॥ २१० ॥ - गा० २१० ] ४१५ १ ब पुणु । २ ब ते । ३ ब किंन्द । ता कह इत्यादि । ४ लमसग किए । ५ ब सुहिदा वि ८ थ तदो एवं भवतिः । सब्बे इत्यादि । ९ लग बुहृदा । ६ व ख्वं (?) । ७ व हुंति, मग होति । पुस्तकयोरेषा गाथा भास्ति संस्कृतव्याख्या तु वर्तते । १० म सुद्धा सिद्धा । ११ व धुत्रं ( ? ), म चुभा, स १३ म चन्दिउ । धुवा। १२ व को बंध जो अण्णोष्ण इत्यादि । १५ व १४ [ सम्बम्बाण ] | जाणेहि (?) । १६ लसग हेयाहेयं । ५७ व गिव । १८ व जीवणिरूपणं । सयौ इत्यादि । १९ व भरियो । २० लस स्वरस | २१ य तें विय, मस तं विश्र । २४ व जाम । २५ सग संसारे । २६ व मोहं नाण ( ? ), म पिब, [ मोण्णाण-मयं ] । २७ बलग हेड, महे, स देऊं । २२ मग बहुप्पयारं । २३ मणीसासं । अण्णाण, स मोहं ग मोहं भण्णाप्यमि २८ ग नियमेण । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ - कत्तिगेयाणुप्पेरखा [गा० २११का वि अउवा दीसदि पुग्गल-वस्स एरिसी सत्ती। केवल-णाण-संहायो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥ २११ ॥ धम्ममधम्म दगमण-ट्ठाणाण कारणं कमसो । जीवाण पुग्गलाणं विपिण वि लोग-प्पमाणाणि ॥ २१२ ॥ सयलाणं दवाणं जं दाईं सकदे हि अवगासं। तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भेएण ॥ २१३ ॥ सवाणं दवाणं अवगाहण-सर्ति अस्थि परमत्थं । जह भसम-पाणियाणं जीव-पएसोण बहुयाणं ॥ २१४ ।। जदि ण हृवदि सा सत्ती सहाव-भूदा हि सव-दबाण । एकेकास-पएसे कह ता सवाणि वति ॥ २१५॥ सबाण दवाणं परिणाम जो करदि सो कालो। एकेकास-पएसे सो बद्ददि एकको चेव ॥ २१६ ॥ पिग-पग-परिणामाणं णिय-णिय-दछ पि कारणं होदि । अण्णं बाहिर-दछ णिमित्त-मित्तं" बियाणेह ॥ २१७ ॥ सधाणं दवाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोणं । सो चिय कारण-भावो हयदि हु सहयारि-भावण ॥ २१८ ॥ कालाइ-लद्धि-जुत्ता पाणा-संतीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि संयं ण सक्कदे को वि चारदुं ॥ २१९ ॥ जीवाण पुग्गलाणं जे सुहुमा बादरा य पवाया। तीदाणागद-भूदा सो बबहारो हवे कालो ॥ २२० ॥ तेसु अतीदा गंती अणंत-गुणिदा य भावि-पज्जाया । ऐको वि यमाणो एत्तिय-मेत्तो वि सो कालो ॥ २२१ ॥" पुछ-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वदे दई ।। उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कर्ज हवे णियमा ॥ २२२ ॥ १ यस पुरसी। २मस महाओ, ग सहाउ । ३ग विणासदो। व पुनलनिरूपणं धम्म इत्यादि। ५बलोय-। ६ सग दुषिहा। म भएहिं, ग भेदेण। ८य ससी, स अषगाहणदाणसत्ति परमार्थ,ग सति परमत्थं । मस पएसाण जाण बहुमणं, ग पयेसाण जाण बहुआणं। १. म एककास, ग एकेकास । "म किह । १२ मसग एकिको। १३ मणिमित्त-मत्तं (1)। १४ ब वियाणेहि (१)। १५ग सतीहिं संयुदा। १६ म सया। १७ ब वायरा। १८ग अत्तीदाऽयंता। १९ मग एको। २० बग मित्तो। २१ब अध्यचतुष्कतिरूपणं । पुरुष इत्यादि । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. २३४] - १०. लोगाणुवेक्खा ४१७ कारण-कज-विसेसा तीसु वि कालेसु डुति' वत्थूणं । एकेकम्मि य समए पुषुत्तर-भावमासिज्जे ॥ २२३ ॥ संति अणंताणंता तीसु वि कालेसु सच-दवाणि । सर्व पि अणेयंतं तत्तो भणिदं जिणेदेहि ॥ २२४ ॥ जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कजं कैरेदि णियमेण । वहु-धम्म-जुदं अत्थं कज-करं दीर्सदे लोए ॥ २२५ ॥ एयंतं पुणु दवं कजं ण करेदि लेस-मेत्तं पि । जं पुणु ण करदि कजं तं बुधदि केरिसं दधं ॥ २२६ ॥ परिणामेण विहीणं णिचं दवं विणस्सदे णेवें । णो उप्पजेदि सेया एवं कजं कहं कुणदि ॥ २२७ ॥ पज्जय-मित्तं तचं विणस्सरं खणे खणे वि अण्णणं । अण्णई-दध-विहीणं ण य कज्जं कि पि साहदि ॥ २२८ ॥ ण-णव-कज-बिसेसा तीखें वि कालेसु हाँति वत्थूणं । एकेकस्मि य समये पुछुप्तर-भावमासिजे ॥ २२९ ॥ पुष-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वट्टदे दछ । उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कर्ज हवे णियमा ॥ २३० ॥ जीवो अंजाइ-णिहणो परिणममाणो हुँ णय-णवं भावं । सामग्गीसु यवट्टदि कजाणि समासदे पच्छा ॥ २३१ ॥ स-सरूवत्यो जीवो कर्ज साहेदि वट्टमाणं पि। खेते एकम्मैि ठिदो णिय-दधे संठिदो चेव ॥ २३२. ॥ स-सरूयत्यो जीवो अण्ण-सरूवम्मैि गच्छदे जदि हि। अण्णोण्ण-मेलणादो ऐक्क-सरूयं हवे सर्व ॥ २३३ ॥ अहवा बंभ-सरूवं एक सवं पि मैण्णदे जदि हि। चंडाल-बंभणाणं तो ण विसेसो हवे को वि ॥ २३४ ॥ लमस सिस्सु, ग तस्सु । २ लस हॉसि (१)। ३ म 'मासेजा। ५ लसग जिणंदेहि । ५म करो(!)। लमसग दीसए । ७ मल पुण। म मित्तं (१)। ९ म पुण। "लमसग य। एवण उ उपदिसया, लसग यो उप्पज्जदि सया, म णो उप्पजेदि सथा। गण१३-पुस्तके गाथेयं नास्ति । १४ ग सीस्सु । १५ म भावमासज । १६ व अणाय-। वि। १८लमसग खिसे। १९ बलसग एकम्भि। २० ल सस्वम्हि। २५ बस एक, म (1)। २२ बमरिषदे, समष्णए। २३ लग कोह। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कत्तिगेयाणुप्पेकखा [०१५ अणु-परिमाणं तचं अंस-विहीणं च मण्णदे जदि हि । तो संबंध-अभावो तत्तो वि ण कज्ज-संसिद्धी ॥ २३५ ॥ सवाणं दवाणं दर-सरूवेण होदि एयत्तं ।। णिय-णिय-गुण-भेएण हि सघाणि वि होति भिण्णाणि ।। २३६ ॥ जो अत्यो पडिसमयं उप्पाद-वय-धुवत्त-सम्भावो । गुण-पज्जय-परिणामो सो संतो' भण्णदे समए ॥ २३७ ॥ पडिसमयं' परिणामो पुबो णस्सेदि जायदे अपणो । वत्थु-विणासो पढमो उववादो भगंणदे विदिओ ॥ २३८ ॥ णी उप्पज्जदि जीवो दव-सरूवेण व गरसेदि । तं चेव दव-मित्तं णिचत्तं जाण जीवस्स ॥ २३९ ॥ अण्णइ-रूवं दवं विसेस-रूमो हवेइ पजायो । दवं पि विसेसेण हि उप्पजदि णस्सदे सददं ॥ २४ ॥ सरिसो जो परिणामो अणाइ-णिहणो हवे गुणो सो हि"। सो सामण्ण-सरूबो उप्पज्जदि णस्सदे णेय ॥ २४१॥ सो कि विणादि जायदि बिसेस-रूवेश सबन्दवेसु । दच-गुण-पज्जयाणं एयत्तं वत्थु परमत्थं ।। २४२ ॥ जदि दधे पजाया वि विजमाणी तिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती बिहला पडिपिहिंदे देवदत्ते च ॥ २४३ ॥ सर्वाण पजयाणं अविजमाणाण होदि उप्पत्ती। कालाई-लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दवम्मि ॥ २४४॥ दवाण पंचयाणं धम्म-विवक्खाएँ कीरए भेओ"। वत्थु-सरूवेण पुणो ण हि भेदो सक्कदे काउं ॥ २४५ ।। जदि वत्थुदो विभेदो" पजय-दवाण मण्णसे मूढ । तो हिरवेक्खा सिद्धी दोण्हं पि व पावदे णियमा ॥ २४६ ॥ लमसग संबंधाभायो। २ लसग संसिद्धि । ३लग परिणामो संतो भग्यते। मसतो। ५ ब-पुस्तके पड उप्पनदि इत्यादि प्रथमं तदनन्तरं पडिसममें इत्यादि। ६व भण्णा चिदिड। -बण उ । लमसमय। ५ च जाणि। १० लममग पनाभी (3)। यसरिसरऽजो प,ससो परिणामो जो। १२ च वि। १३ वरघु। १४ लग निवजमाणा । १५ य देषदते म, लमसग देवत्ति व्व। १६ स सवाणं बवाणं पजायाण अधिजमाणाणं उपती। कालाइ...... दुम्बम्हि "बम विवाक्याय, स वक्खाए। १८ व कीरह। ५५व मेउ, मस मेमो (?)। २.मिमेको। म मणस मूढो, स मणये, म माणसे। २२ब दुपहं। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -गा० २५६ ] -- १०. लोगाणुक्लाजदि सवमेव णाणं णाणा-रूवेहि संठिदं एकं । तो ण वि किं पि विणेय णेयेण विणा कहं गाणं ॥ २४७ ॥ घड-पड-जड-दवाणि हि णेय-सरूवाणि सुप्पसिद्धाणि । णाणं जाणेदि जदो अप्पादो भिण्ण-रूवाणि ॥ २४८ ॥ जं सब-लोय-सिद्धं देहं गेहादि-बाहिरं अत्थं । जो तं पि णार्ण मण्णदि ण मुणदि सो णाण-पाम पि ॥ २४९ ॥" अच्छीहिँ पिच्छमाणो जीवाजीवादि-बहु-विहं अत्थं । जो भणदि पत्थि किंचि वि सो झुट्टाणं महा-झुट्टो ॥ २५० ॥ जंस गि य मंत" ना सगे वि असंतओ कह होदि । णत्थि त्ति किंचि तत्तो अहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ २५१ ।। जदि सर्व पि असंतं ता सो विय संतओ कहं भणदि । णत्थि त्ति कि पि" तचं अहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ २५१२१ ॥ किं बहुणा उत्तेण य जेत्तिय-मेत्ताणि संति णामाणि । तेत्तिय-मेत्ता अत्था संति य णियमेण परमत्था ॥ २५२ ॥ णाणा-धम्मेहि जुदं अप्पाणं तह परं पि णिच्छयदो। जं जाणेदि सजोगं तं गाणं अण्णदे" समएँ ॥ २५३ ॥ जं सर्व पि पयासदि दचं-पजाय-संजुदं लोयं । तह य अलोयं सवं तं णाणं सच-पश्चक्खं ॥ २५४ ॥ सचं जाणदि जम्हा सच्च-गयं तं पि बुंचदे तम्हा । ण य पुण विसरदि णाणं जीवं चइऊण अण्णत्य ॥ २५५ ।। णाणं ण जादि णेयं णेयं पि ण जादि गाण-देसम्मि । णिय-णिय-देस-ठियाणं ववहारो गाण-णेयाणं ॥ २५६ ।। स किमि व यं, [किंधि विणे ]: २ लसग यदो, म जदा। इस देहे, म देहगेहावि । छस गाण, ग पिग्णाण। ५ष भणच । ६ ब भच्छाहि, ग अच्छाहिं। ब 'जीवाइ । भणइ, ग भणवि (१)। ९ मा माटो, स रहाण महीडो, [धुद्वाणे महापुट्ठो]। १० व पुस्तके गाथांशः पत्रान्ते लिखितः। एथलमस भसंत (= उ), ग असंतउ। १२ म-पुस्तके गाांशः पत्रान्ते लिखितः । १३वग धादि। १५ पलस संवर्ड (उ)म (१), ग संतउ। १५ल किंचि, ग केपि। 1बलगम जिसिय, सजेसीबम मित्ताणि । १८व मित्ता। १९ एमेव तचं समरथं व मामा इत्यादि। २. बसबोग। २५ लमसग भण्णए। २२ ल समय, स समये। २३ लमसग दय, वदम्ब (1) फ्लाप। २५ म अन्नदे। २५ घाइ। २२ मसग देसम्हि । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० - कत्तियाणुःपेक्षा [गा० २५ मण-पजय-विण्णाणं ओही-णाणं च देस-पञ्चक्खं । मदि-सुदि-णाणं कमसो विस-परोक्खं परोक्खं च ॥ २५७ ॥ इंदियज मदि-णाणं जोगं जाणेदि पुग्गलं दर्छ । माणस-णाणं च पुणो सुय-विसयं अक्ख-विसयं च ॥ २५८ ॥ पंचिंदिय-णाणाणं मझे एगं च होदि उयजुत्तं । मण-णाणे उवजुत्तो इंदिय-णाणं ण जाणेदि ॥ २५९ ॥ एके काले एक गाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं । णाणा-णाणाणि पुणो लद्धि-सहावेण वुचंति ।। २६० ॥ जं वत्थु अणेयंत एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं । सुय-णाणेण णएहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥ २६१ ॥ सधं पि अणेयंतं परोक्ख-रूपेण जं पयासेदि । तं सुय-णिं भषणदि संसय-पहुदीहि परिचत्तं ॥ २६२ ॥ लोयाशं सवारं पास-विरक्या जो पसाहेदि । सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-संभूदो ॥ २६३॥ णाणा-धम्म-जुदं पि" य एवं धम्म पि वुधदे अत्थं । तस्सेय-विवक्खादो पत्ति विवक्ताँ हुँ' सेसाणं ॥ २६४ ॥ सो चिये एको धम्मो वाचय-सहो वि तस्स धम्मस्स । जे जाणदि तं गाणं ते तिण्णि वि णय-विसेसा य ॥ २६५ ॥ ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्वा ते वि दुण्णया होति। सयल-बवहार-सिद्धी सु-णयादो होदि णियमेणें ॥ २६६ ॥ जंजाणिजइ जीवो इंदिय-वावार-काय-चिट्टाहि। तं अणुमाणं भषणदि तं पि णयं बहु-विहं जाण ॥ २६७ ॥ सो संगहेण ऐको दु-विहो वि य दव-पजाएहितो। तेसिं चे विसेसादो गइगर्म-पहुदी हवे गाणं ॥ २६८ ॥ बम महसुह। २ बक्सिय (!)। ३ लमसग पुगं । ष पंखिदिय, लमसग पंचदिध । ५ जाणा(ण)दि, लमस जापति, ग जाएहि । मग एके। लमसग एगे। लमसग णयेहि य मिरविक्वं दीसए। ९मत्त ब-पुस्तके 'जो साइदि विसेस' इत्यादि गाया। .म सुमणा,ग सुचनाणं भन्नदि। लसग परिचितं । १२ ब विबघाह। ५ ब पयासेहि। ५मग ज्यामिल्स। १५ लग भम्म पि, स धम्म पि। १६ लग तस्सेव, म तस्सेर्य। १.लग विवक्खो। 14सहै। १९ म वि य । २० लमसग तं । २, लमसग साविक्खा...गिरविक्सा । २१ ग बिल्हार । २.ववमेण । २४ स इको (१)। २५स वि। १५स णयगम । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ग्रा० २८० ] - १०. लोगाणुवेक्खा - जो साइदि सामण्णं अविणा-भूदं विसेस-रूवेहिं । णाणा - जुति-बलादो दघत्यो सो णओ होदि ॥ २६९ ॥ जो सादि विसेसे बहु-विह- सामण्ण-संजुदे सवे । साइण- लिंग - वसादो पज्जय-विसओ ओ होदि ॥ २७० ॥ जो सादि अदीदं वियप्प - रूवं भविस्समटुं च । संप कालावसो हु पओ गमो ओ ॥ २७१ ॥ जो संगदि सघं दे वा विविह दव-पज्जायं । अगुगम-लिंग-विसिद्धं सो वि णओ संगहो होदि ॥ २७२ ॥ जं संग गर्दि विसेस - रहिदं पि भेददे सददं । परमाणू-पजंतं वबहार-णओ वे सो हु ॥ २७३ ॥ जो यट्टमाण-काले अत्थ-पज्जाय परिणदं अत्थं । संतं साइदि सवं तं" पि गयं उज्जुयं जाण ॥ २७४ ॥ सधेसिं वत्थूणं संखा - लिंगादि - बहु- पयारेहिं । जो साहदि गाणतं सह-यं तं वियाणे ॥ २७५ ॥ जो एगेगं अत्थं पॅरिणदि-भेदेण सोहदे णाणं । मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं यं जाण ॥ २७६ ॥ जेण सहावेण जदा परिनँद रूवस्मि तम्मयत्तादो । I तं परिणाम साहदि जो षि णओ सो हु परमत्थो ॥ २७७ ॥ एवं विवि-एहिं जो वत्युं बहरेदि लोयंम्मि दंसण - णाण चरितं सो साहदि सग्ग- मोक्खं च ॥ २७८ ॥ विरला पिसुणहि तवं विरला जाणंति तचदो तथं । विरला भावहि त विरलाणं धारणी होदि ॥ २७९ ॥ तवं कहियमाणं णिचल-भावेण गिण्डदे जो हि । संचिय भवेदि सया सो वि य तवं वियाणे ॥ २८० ॥ ४२१ १ - पुस्तके गाथेयं द्विवारमअन्यत्र च लिखिता पशठमेदैः । पाठान्तराणि च एवंविधानि विसेस, संदे समयो होदि । २ ग बिसेसो । ६ ग विसयो गयो । ४ लमसग पोमो षो । गम ( 1 ) । ६ ग गयो । ७ ख जो ( ? ) । ८ व गहिदो (१) । ९ लमसग 10 [पजाय ] | ११ लग से वि गये रुवमयं । १२ म राजुप् स रिजुन (१) । केहि (१) । १४ ग परिण । १५ लमग भैरण ( स मेयेण ) साहए। १६ व १७ लग परिणदि । १८ लसग उप्परिणाम, म तं प्यरिणामं । १९ लग कोहि । २० २१ सभारणं । २२ गतं भावे । २३ व विभाणेह ( १ दि ) ५ भवे सो वि । १३ व बियानये विद । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ -कत्तिगेयाणुप्पैक्खा - [गा० २८१को ण वसो इत्थि-जणे फैस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहिँ ण जिओ को ण फसाएहि संतत्तो ॥ २८१ ॥ सो णे यसो इत्थि-जणे सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण । जो ण य गिम्हदि गंथं अम्भंतर-वाहिरं सर्च ।। २८२ ॥ एवं लोय-सहावं जो झायदि उनसमेक-सब्भावो। सो खविय कम्म-पुंजं तिल्लो-सिहामणी होदि ॥ २८३ ॥' ११. बोहिदुलहाणुवेक्खा जीवो अणत-कालं यसइ णिगोएसु आइ-परिहाणी। तत्तो णिस्सरिदूणं पुढवी-कार्यादिओ होदि ॥ २८४ ॥ तस्थ वि असंख-काले बायर-सुहमेसु कुणइ परियत्तं । चिंतामणि च दुलहं तसत्तणं लहंदि कडेण ॥ २८५ ।। वियलिदिएसु जायदि तत्थ वि अच्छेदि पुत्र-कोडीओ। तत्तो णिस्सरिद्वणं कहमवि पंचिंदिओ" होदि ॥ २८६ ॥ सो वि मणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि । अह मण-सहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो हये रुद्दो ॥ २८७ ॥ सो तिघ-असुह-लेसो गैरये णिवेडेइ दुक्खदे भीमे । तत्थ वि दुक्खं भुजदि सारीरं माणसं परं ॥ २८८॥ तत्तो णिस्सरिदूणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पावो । तत्थ वि दुक्खमणंतं विसहदि जीवो अणेयविहं ॥ २८९ ॥ रयणं चउप्पहे पिय मणुयत्तं सुट्ट दुलहं लहिये । मिच्छो हबेइ जीयो तत्थ वि पावं समजेदि ॥ २९० ॥ १ । २ ग कस्से । ३ न। म एरथ-जपणे, स पछि जणे, म पुत्व जए। ५व मोहेहि । ६ग शिषपविगंधं पाभितर। ७५ उपसमेक, मउवसमिका ८ लमसग तस्सेव। ५ब इति लोकानुप्रेक्षा समासः ॥ जीयो इत्यादि। १०लसमग णीसरिऊणं......कायादियो। १५ल कुणय (कुणिय')। १२ ब लाह। १३ बणिसरि , लमसम णीसरिउण। १४ ब कहमिवि। १५ ब पंघिवियो, लम पंचेंदिओ, ब पंचंदियो। १६ स वि।२७ ब सहिदो (१), लमग सहिओ। १८ लमग तिरपलो। १९ बलमग णत्यं, स मरये (2) णरपम्मि पढेइ]। २० म णिवडेदि । २१ लमसग णीसरितणं । २२ पाचो(१),लसग पावं, म पाउं। २३ ब चउम्पद्देवा। २४ ब लाहवि । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गा० ३०१ ] - १९. बोलिहावेकखा तह ण वि पायेह उत्तमं गीतं । अद्द लइदि अजब उत्तम कुले व पत्ते घण-हीणो जायदे जीवो ॥ २९१ ॥ अह धण - सहिदो होदि हु इंदिय-परिपुष्णदा तदो दुलहा । अह इंद्रिय संपुष्णो तह वि सरोओ हवे देहो ॥ २९२ ॥ अह गीरोओ होदि हु तह वि ण पावेदि जीवियं सुदरं । अह चिरकालं जीवदि तो सीलं व पावेदि ॥ २९३ ॥ अह होदि सील- जुत्तो तो वि ण पावेद साहु-संसभ्गं । अह तंपि कह वि पावदि सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ॥ २९४ ॥ सम्म यि लदे चारितं णेव गिण्हदे "जीवो । अह कह वितं पि हिदि तो पालेढुं ण सक्केदि ॥ २९५ ॥ यत्तये विद्धे तव कसायं करेदि जड़ जीवो । तो दुग्गसु गच्छदि पणट्ट-रयणत्तओ होउं ॥ २९६ ॥ रेणु व जलहि-पडियं मणुर्यत्तं तं पि "होदि अइदुलहं । एवं सुणिच्छता मिच्छ कसाए य वैज्जेह ॥ २९७ ॥ अश्वा देवो होदि हु तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं । तो तव चरणं ण लहदि देस- जैमं सील-लेस पि ॥ २९८ ॥ - गई वितओ मणुव - गईए महवेदं सयलं । मृणुष-गदी झाणं मणुत्र गदीए वि विषाणं ॥ २९९ ॥ इस लहं मणुयत्तं लहिऊणं जे रति बिसएसु । ते हि दिव- रयणं हणिमित्तं पंजालंति ॥ ३०० ॥ इय सध- दुलह- दुलहं दंसण-गाणं तहा चरितं च । मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह "तिरहं पि ॥ ३०१ ॥" ४२३ । १२ ब ३ लमग लद्दड् स लहई । २ सहियो ग सहि । ४ लसग पाये । ८ग शीकयुक्तो । ९ लमसग वह वि होउ (१) । १३ [ रयणं ष ] । १७ व वाय ( ? ), सम वजह | १२ व गढ़ीये । २३ गाणं । २८ बग तिन्दं । अवंचं, लमग अजत्रेते, स भवंत, [ अवत्तं ] । ५ बस सुयरं । ६ यम शीलं । ७ लसग १० व गिन्ददे, गिम्हदि । ११ ग जीमो । १४ व तो मनुयतं । १५ व होड़ १३ व सुच्छितो ( १ ) 1 १८ म सवयं । १९ ब गयए । २० मा गर्दीए । २४ ग ल । २५ स लहड़ । २६ लग भूष- । २९ व दुल्लद्दानुवोह अनुप्रेक्षा ॥ ११ ॥ २१ व भवयं । २७ स पालेदि । ५ लम पावेह | Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ - कलिगेयाणुष्पेक्खा १२. धम्माणुवेक्खा जो जादि पश्चक्खं तियाल-गुण- पज्जएहिँ संजुत्तं । लोयालयं सयल सोसण्ड हवे देवो ॥ ३०२ ॥ जदि ण हवदि सचण्ड ता को जादि अटिंटिगं अर्थ | इंदिय-पाणं ण णदि धूलं पि' असेस-पज्जायं ॥ ३०३ ॥ yarsो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पदम बारह - भेज द भेओ भासिओ बिदिओ ॥ ३०४ ॥ सम्म सण-सुद्धो रहिओ मलाइ धूल- दोसेहिं । वय - धारी सामाइ पव-वई पासुयौहारी ॥ ३०५ ॥ राई - भोयण- विरओ मेहुण- सारंभ - संग चत्तो य । जाणुमोय - विरओ उद्दिद्वाहार - विरदो य ॥ ३०६ ॥ चदु-मंदि-भव सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाण- पर्ज्जत्तो । संसार तडे नियंड पाणी पावेइ सम्मत्तं ॥ ३०७ ॥ सहं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं । खयदो ये होदि खइयं केवलि - मूले मणूस ॥ ३०८ ॥ उदयादी हूं सजाइ रूयेण उदयमाणाणं । सम्मत्त-कम्म-उदये खयंउवसमियं हवे सम्मं ॥ ३०९ ॥ गिusदि मुंचदि जीवो वे सम्मते असंख-वाराओ । पढम- कसाय-विणासं देस वयं कुणदि उकस्सं ॥ ३१० ॥ जो तचमणेयंत णियमा सहदि सत्त-भंगेहिं । लोयाण पor - सदो यवहार-पवन्तङ्कं च ॥ ३११ ॥ जो आयरेण मण्णेदि जीवाजीवदि गव-विहं अत्थं । सुंद-गाणेण णएहि व सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥ ३१२ ॥ [ गा० २०२ ११ व ससणं । १२ १ म सम्वण्डु गे सब्वह । २ म अदियं । ३ सवि । ४ ग णबट्टो | ६ मस वयधारी सामइमो, ग घयधरी सामाओ ( ल सामाईड ) । ७ लसग आदारी | ८ व उगई, मग चदि । गतो। १० वग नियो । इ होह स्वयं (व क्वइयं ) । १३लग पशुलस्य, लस मणुसरस । १४ उदये । १६ चग क्वय १७ व मुश्च । १८ सय बसाये । "जीवाइ । २१ यम सुभ । म । १९ म सुदि, ५ लमसग समेो । पासुमहारी, म फासु १५ व सम्मत्तपयहि ग मन्त्रदि । २० Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ -०३२४] - १२. धम्माणुवेक्खाजो ण य कुवदि गचं पुत्त-कलत्ताइ-सव-अत्थेसु । उयसम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमित्तं ॥ ३१३ ॥ विसयासत्तो वि सया सवारंभेसु यट्टमाणो वि । मोह-विलासो एसो इदि सधं मण्णदे हेयं ॥ ३१४ ॥ उत्तम-गुण-गहण-रओ उत्तम-साह्मण विणय-संजुत्तो। साहम्मिय-अणुराई सो सद्दिट्टी हवे परमो ॥ ३१५ ।। देह-मिलियं पि जीवं णिय-पाण-गुगेण मुणदि जो भिण्णं । जीव-मिलियं पि देह कंचुर-सरिसं वियाणेइ ॥ ३१६ ॥ णिजिय-दोसं देवं संव-जिवाणं दयावर धम्म । वज्जिय-गंथं च गुरुं जो मग्णादि सो हु सहिट्ठी ॥ ३१७ ॥ दोस-सहियं पि देवं जीव-हिंसाइ-संजुदं धम्म । गंथासतं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुट्ठिी ॥ ३१८ ॥ ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयार। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१९ ॥ भत्तीऍ पुज्जमाणो पितर-देयो नि देदि दि लच्छी। तो किं धम्म "कीरदि एवं चिंतेह सट्ठिी ॥ ३२०॥ जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं जम्मं या अहव मरणं वा ॥ ३२१ ॥ तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को संकदि वारे, इंदो या तह जिणिदो वा ॥ ३२२ ॥ एवं जो णिच्छयदो जाणादि दवाणि सम्ब-पज्जाए। सो सहिही सुद्धो जो संकदि सो हु कुट्ठिी ॥ ३२३ ॥ जो ण विजाणदि तचं सो जिण-बयणे करेदि सहहणं । जं जिणैवरेहि भणियं तं सचमहं समिच्छामि ॥ ३२४ ॥ म मणमित्तं । २ व मुंजुत्तो। ३ व साहिम्मिय। ४ लमसग कंचुड। ५ म सम्वे। बलम (1) सग जीवाण, [जिवाणं]। म दयावह। ८ लग हिंसादि, [जीवं-हिंसा], ९ व मण्ण। १. देह। ११ सग कोइ, व णय कोधि1 १२ ये देह जइ । १३ लमसग धम्मं । १४ वकीर। १५ स जम्हि। १६लग तम्हि १७ स कालम्हि। सलग सकह चालटुं। १९लग बह बिजयो। २.लमसगजाण। २१ म जीवाइनयपयष्थे जो ण बियाणे करवि सडहण। २२व जिणवरेण । कार्तिके. ५४ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कश्चिगेयाणुप्पेक्खा [गा. रयणाण महा-रयणं सधं-जोयाण उत्समं जोयं । रिद्धीर्ण महा-रिद्धी सम्मत्तं सब-सिद्धियरं ॥ ३२५ ॥ सम्मत्त-गुण-पहाणो देविंद-रिंद-वंदिओ होदि । चत्त-वओ वि य पावदि सग्ग-सुहं उत्तमं विविहं ॥ ३२६ ॥ सम्माइट्ठी जीवो दुग्गदि-हेर्नु ण बंधदे कम्मं । जं बहु-भवेसु बद्धं दुकम्मं तं पिलांसेदि ॥ ३२५५ ॥ बहु-तस-समषिणदं जं मजं मंसादि णिदिदं दई । जो ण य सेवदि णियदं सो दसण-सावओ होदि ॥ ३२८॥ जो दिढ-चित्तो कीरदि एवं पि वयं णियाण-परिहीणो।। बेरग्ग-भाविय-मणो सो वि य ईसण-गुणो होदि ॥ ३२९ ॥ पंचाणुष्वय-धारी गुण-वय-सिक्खा-यऐहिँ संजुत्तो। दिढ-चित्तो सम-जुत्तो णाणी वय-सावओ होदि ॥ ३३ ॥ जो वावरेई सदओ अप्पाण-समं परं पि मण्णंतो। जिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे" ॥ ३३१ ॥ तस-घादं जो ण करदि मण-यय-काएहि णेव कारयदि । कुवंतं पि ण इच्छदि पढम-वयं जायदे तस्स ॥ ३३२ ॥ हिंसा-चयणं ण वयदि ककस-ययणं पि जो ण भासेदि । गिट्टर-वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि ॥ ३३३ ॥ हिद-मिद-वयणं भासदि संतोस-करं तु सध-जीवाणं । धम्म-पयासण-वयणं अणुधदी होदि सो बिदिओ ।। ३३४ ॥ जो बहु-Kलं वत्थु अप्पय-मुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे "थोवे वि तूसेदि ॥ ३३५ ।। जो पर-दई ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण । दिढ-चित्तो सुद्ध-मई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ व सम्व (१), लसा सम्ब, म सम्बे। २ ब रिद्विण । ३ लमसग क्यो। पदुमाह। मपणासेति। . भविरइसम्माइट्टी। बहुतस इत्यादि । लमसग दिवधिसो जो कुवादि। बसणपतिमा ॥ पंचा इत्यादि । ५स येहि। .गवावरइ (पावारह!)। ५ग महारभो। " गकावेहिं व करयदि । १३ म यदि, ग इविदि, ल हदि । १४ बमोल्लं। १५ सयय इति पासवान्तरे , बलमसग अप्पमुलेश। १६ सग थूबे । स अणुम्बदी। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] - १२. धम्माणुवेक्खाअसुइ-मयं दुग्गंधं महिला-देहं विरचमाणो जो। रूवं लावणं पि य मण-मोहण-कारणं मुणइ ॥ ३३७ ॥ जो मण्णदि पर-मैहिलं जणणी-बहिणी-सुआइ-सारिच्छं । मण-वयणे कारण वि बंभ-वई सो हवे थूलो ॥ ३३८ ॥ जो लोहं णिहणित्ता संतोस-रसायणेण संतुट्ठो। णिहदि तिण्हा दुवा मण्णंतो विणस्सरं सधं ॥ ३३९ ॥ जो परिमाणं कुषदि धण-धर्ण-सुयण्ण-खित्तमाईणं । उयओर्ग जाणित्ता अणुबदं पंचमं तस्स ॥ ३४० ।।" जह लोह-णासणटुं संग-पमाणं हवेइ जीवस्स। सब-दिसाणे पमाणं तह लोहं णासए णियमा ॥ ३४१ ॥ जं परिमाणं कीरदि दिसाण सघाण सुप्पसिद्धाणं । उपओगं जाणित्ता गुणवदं जाण तं पढमं ॥ ३४२ ।। कजं कि पि ण साहदि णिचं पावं करेदि जो अत्यो । सो सलु हादिया को चपला नि तो विविहो ॥ ३३॥ पर-दोसाण वि गहणं पर-लच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थी-अवलोओ पर-फलहालोयणं पढ़मं ॥ ३४४ ॥ जो उवएसो दिजदि किसि-पसु-पालण-वणिज-पमुहेसु । पुरिसिथी-संजोए अणत्थ-दंडो हये विदिओ ॥ ३४५ ॥ विहलो जो वावारो पुढवी-तोयाण अग्गि-पाऊणं । तह वि वणप्फदि-छेदो" अणत्थ-दंडो हवे तिदिओ ॥ ३४६ ॥ मज्जार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-चिक्कणं जं च । लैक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दंडो हवे तुरिओ ॥ ३४७ ॥ जं सवणं सत्थाणं भंडण-यसियरण-काम-सस्थाणं । पर-दोसाणं च तहा अणत्थ-दंडो हवे चैरिमो ॥ ३४८॥ गमुम्। २ व परिमहिला......सारिछा । ३ लमसग कायेण | सग धूमो। ५ मिला। ब मुखर्जति विणस्सुरं(?)। ७ब परमाणं । ८ मधाण। ९लमसग मणुम्वर्य। ... इवि अणुम्बदाणि पंचादि । जाह इत्यादि । १५ लमसग दिसिसु। १२ ब णासये। लसग । रूम पसाण गर्ण (स गइण, ग म्गणं)। १५ लमसग भालोमो। इस पुरसथी। मसग मग्गिपवणाणं। लमसगड (भो)। १९ लसग माउध-। २० मो। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ -कत्तिगेयाणुष्पेक्खा [गा. ३४९एवं पंच-पयारं अणत्थ-दंडं दुहावहं णिचं । जो परिहरेदि गाणी गुणवदी सो हवे विदिओ ॥ ३४९ ॥ जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंयोल-वस्थमादीणं' । जं परिमाणं कीरदि भोउर्वभोयं वयं तस्स ॥ ३५० ॥ जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुखदे सुरिंदो वि'। जो मण-लई व भक्खदि तस्स वयं अप्प-सिद्धियरं ॥ ३५१ ॥ सामाइयस्स करणे घेतं कालं च आसणं विलेओ। मण-वयण-काय-सुद्धी णायवा हुंति सत्तेव ॥ ३५२ ।। जत्थ ण कलयल-संदो बहु-जण-संघट्टणं ण जत्थस्थि । जत्थ ण दंसादीया एस पसत्थो हवे देसो ॥ ३५३॥ पुषण्हे मज्झण्हे अवरण्हे तिहि" वि णालिया-छको । सामाइयस्स कालो सविणय-णिस्सेस-णिहिट्ठो ॥ ३५४ ॥ बंधित्ता पजंकं अहया उड्डण उम्भओ ठिका। काल-पमाणं किया इंदिय-वावार-वजिदो "होउं ॥ ३५५ ॥ जिण-वैयणेयग्ग-मणो संबुर्ड-काओ य अंजलि किया। स-सरूवे संलीणो वंदण-अत्थं विचिंतंतो ॥ ३५६ ॥ किच्चा देस-पमाणं सर्व-सावज-ज्जिदो होउं । जो कुचदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताय ॥ ३५७ ॥" ण्हाण-विलेवण-भूसण-इत्थी-संसग्ग-गंध-धुंवादी ।। जो परिहरेदि" णाणी वेरग्गा सणं किश्चा ॥ ३५८ ॥ दोस वि पधेसु सया उववासं एय-भत्त-णिधियडी। जो कुणदि एवमाई तस्स वयं पोसह विदियं ॥ ३५९ ॥ लमसग परिहरेह । २ ग गुणवई, स गुणवत्र, व गुणम्वद होदि त विवियं । । लसग वय. माईय भोउपभोर्ड (य)तं तिदिभो (म तदियं)। ५लमसग सुरिंदेहिं।। मणुम, मस मणलदुष, म मणल। स सिद्धिकरं। ८य गुणवतनिरूपणं । सामायस्स इत्यादि। ९वलिस। 1.मविनउ । ११ लमसग सई। १२ ब तिहि......छक्के ()। १३ लग उभड लिया, मउमड द्विवास उढेण जभवो। १४ल होउ। १५ बयणे एयग्ग। १६बग संपुक, [संवुड .ब बलियो होक, ग वजिदो होउ । १८ल हवे सावट, मस हवे साउ, गहबे सावळ। ११. सिक्कावर्ष परमे। ण्हाण इत्यादि । २० लसग गंधधूपदीबादि, मधूवादि। २१ परिहरेह। २२ लमरण (गमा , स येणा) भरणभूसणं किया । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६९ -गा० ३७०] - १२. धम्माणुवेक्खातिविहे पत्तम्हि सया सैद्धाइ-गुणेहि संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहीहि संजुत्तो ॥ ३६० ॥ सिक्खा-वयं च तिदियं तरस हवे सर्व-सिद्धि-सोक्खयरं । दाणं चउबिह पि य संवे दाणाण साम्य ॥ ३६१ ।। भोयण-णिं सोक्खं ओसह-दाणेर्ण सत्थ-दाणेणं । जीकाण अभय-दाणं सुदुल्लहं सव-दाणेसु ॥ ३६२ ॥ भोयण-दाणे दिपणे तिणि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । मुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ॥ ३६३ ॥ भोयण-बलेषा साह सत्थं सेवेदि रत्ति-दिवसं पि। भोयण-दाणे दिगणे पाणा वि य रक्खिया 'हाँति ॥ ३६४ ॥ इह-पर-लोय-णिरीहो दाणं जो देदि" परम-भत्तीए । रमणलग मुंदविदो संघो सयलो हये तेण ॥ ३६५ ।। उत्तम-पत्त-विसेसे उत्तम-भत्तीऍ उत्तम दाणं । एय-दिणे वि य दिण्णं" इंद-सुहं उत्तमं देदि ॥ ३६६ ॥" पुच-पमाण-कैंदाणं सच-दिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदिय-विसयाण तेहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ।। ३६७ ॥ वासादि-कय-पमाणं "दिणे दिणे लोह-काम-समणटुं । सावज-वजणटुं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ ३६८ ॥ पारस-1एहिँ जुत्तो सल्लिहणं जो कुणेदि उपसंतो। सो सुर-सोख पाविय कमेण सोखं परं लहदि ॥ ३६९ ॥ एक पि वयं विमलं सदिट्टी जैइ. कुणेदि दिढ-चित्तो। तो विविह-रिद्धि-जुत्तं इंदत्तं पीवए णियमा ॥ ३७० ॥ लपतनिह, बम पत्तम्मि।२व मढ़ाई। ३ लमस तयं, ग सईयं। व सम्बसोख = क्स] सिद्रियरं । ५ ब सम्वे दाणाणि [सवं-दाणाण] | ६ व दाण [दाणे ], लमसग दाणेण। यदाणेण सस्थवाणाण, दाणेण ससत्यदाय च। लमसग दाणाण। ९चदाणा (?) हुँति दिग्णाइ। १०ब विणि विणि हुंति जीवाणं । १५ लमसग सेषदि रशिदियहं (स सेवदि)। १२ ब हुंति । १३ देह । 1"लसग स्पणत्तये । १५थ सुदृविदो (१)। ५६म विसेसो । ग दिणे । १८ व होदि । १९ वाण । पुष्व इत्यादि। २० ब कमाणं । २. ध तह (?)। २२ व दिणि दिणि (!)। २३ लमसग समणत्वं । २४ लमग वयेहि। २५ लमग जो मल्लेह (स सोहण)करेदि, वसलेहर्ण (१)। २५. सुखं । २७ ब मोक्वं (!)। २८ ब जो करदि, लय जह कुणदि, म कुणेदि, स विजई ऋणदि । १५लग पाया। ३. य वयट्टाणं ।। जो इत्यादि । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० - कत्तिगेग्ररणुःपेक्खा [गा० ३७१जो कुणदि काउसग्गं बारस-आवत्त-संजदो धीरो। णमण-दुर्ग पि कुणतो चदु-प्पणामो पसण्णप्पा ॥ ३७१ ॥ चिंतंतो ससरूवं जिण-विवं अहब अक्खरं परमं । झायदि कम्म-बिवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥ ३७२ ॥ समि-तेरसि-दिवसे अबरण्हे जाइऊण जिण-भयण । किया किरिया-कम्म उववासं चउ-विहं गहिय ॥ ३७३ ॥ मियाफार चशा रहिं गसिजन सम्पमिताए। पघुसे उद्वित्ता किरिया-कम्मं च कादूण ॥ ३७४ ॥ सत्थब्भासेण पुणो दिवसं गमिऊण बंदणं किया। रत्तिं णेदूण तहा पचूसे बंदणं किया ॥ ३७५ ॥ पुजण-विहि च किच्चा पत्तं गहिऊण वरि" ति-विहं पि । भुंजाविऊणे पत्तं मुंजतो पोसहो होदि ॥ ३७६ ॥ एक पि णिरारंभ उववासं जो करेदि उपसंतो। बहु-भव-संचिय-कम्म सो णाणी खंबदि लीलाए ॥ ३७७ ॥ उपवास कुवंतो आरंभ" जो करेदि मोहादो। सो णिय-देहं सोसदि ण झाडए कम्म-लेसं पि ॥ ३७८ ॥" सवित्तं पैंत्त-फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीयं"। जो ण ये भक्खदि णाणी सचित्त-विरदो हवे सो दु॥ ३७९ ॥ जो ण य भक्खेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं।। भुत्तस्स मोजिदस्स हि णस्थि विसेसो जदो को वि ॥ ३८ ॥ जो वजेदि सचित्तं दुज्जय-जीहा विणिजियो तेण । दय-भावो होदि किओ जिण-वयणं पालियं तेण ॥ ३८१ ॥" लमसग कुगइ। २मस पाउत्त। ३ लमसग करतो। ४थ सामार (?) । सत्तम इत्यादि। ५ब सत्तम । ६ सयऊण । लमसग किरिया कम्मं काऊ (उ!), व किया किरिया-। 4[चविह], सर्वत्र तु चडब्धिहं। ९ वग गहियं । १० व बिताइ । ११ का १२वणेऊन । १५ व पूजण। १४ म तहय । १५ ग भुजाविण । १६ ब खदि, ग खविद । १७ में आरंभो। १८बझाडह। १९ ब पोसह । सञ्चितं इत्यादि । २० ग सचिस पत्ति-। २१ लसग बी, मबी। २२ व जो य णय । २३ लमसग सचित्तविरसो (31)हये सो वि। २४ लमसम तदो। २५ स .विणिजिन्दा। २६ ब दयभायो विय अजिउ (?)। २७ व सचित्तविरदी । जो चउबिह इत्यादि । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ATOR?] - १०. धम्माणुवेक्खा - जो चउ-विहं पि भोजं रयणीए व भुंजदे णाणी | णय भुंजावदि अण्णं णिसि-विरओ सो हवे 'मोजो ॥ ३८२ ॥ जो गिसि भुत्तिं वज्जदि सो उववास करेदि छम्मासं । संच्छरस्समझे आरंभं चयदि रवणीए || ३८३ ॥ afi इत्थीणं जो अहिलासं पण कुदे णाणी | मै-वाया-कायेण य बंभ-वई सो हवे सदओ ॥ ३८४ ॥ 'जो कय- कारिय- मोयण-मण-वय-कारण मेहुणं चयदि । गंभ-पवज्जारूढो बंभ-वई 'सो हवे सदओ ॥ ३८४* १॥" जो आरंभ ण कुणदि अपणं कारयदेि णेव अणुमणे । हिंसा - संत- मणो चत्तारंभी हवे सो हुँ ।। ३८५ ॥१५ जो परिवजह गंथं अध्मंतर वाहिरं च साणंदो | पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे पाणी ॥ ३८६ ॥ बाहिर-गंध-विहीणा दरिद्द - मणुर्वी सहावदो होंति" । अभंतर - गंधं पुण ण सकदे को वि छंडेदुं ॥ ३८७ ॥ जो अणुमणणं ण कुणदि गिहत्थ कज्जेसु पाव- मूलेसुं । afari भावतो अणुमण-विरओ हवे सो दु ॥ ३८८ ॥ जो पुणे चिंतदि कजं सुहासुहं राय- दोस-संजुत्तो । उओगे विहीणं स कुणदि पायें विणा कज्जं ॥ ३८९ ॥ जो कोडि विद्धं भिक्खायरणेण गुंजदे भोजं । जायण- रहियं जोगं उद्दिद्वाहार - विरेंदो सो ॥ ३९० ॥ जो सावय-वय-सुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि । सो अदम्ह सम्गे दो सुर-सेविदो" होदि ॥ ३९१ ॥ (?) ) ' लमसग रमणीये । २ ब भुंजदि । ३ लमसग मुंजाब ( स ? ) । सुपदि । ६ व रायभत्तीए ॥ ससिं इत्यादि । ७ मण वयणका म-पुस्तके मोयण' इति पदं नाति । १० व सो हक़ इति मूलपाठः १२ व अनुमण्णे (१), म अनुमपणे, लस अणुमण्णो ( ग 'मणो रंभा ॥ जो परिवइत्यादि । १५ स परिषद, स परिवज्जादि । १६ ५७ व हुंति १८ अ को बि । ३९ च निर्बंधः । जो अणु इत्यादि । २२ मग उदडरगेण । २३ व अणुमयविरभो । जोन इत्यादि । २६ म मोमां । २७ लमसग विरओ (१) । २८ व अमि ३० व द्विविदो एवं सावयधम्मो समायत्तोः ॥ जो रयणत्तय इत्यादि । । ४ य भुज। ५ लमसम ८ एषा गाथा यम- पुस्तकथोरेव । . ११ व बंभवई ॥ जो इत्यादि । १३ लमसम हि । ४३१ १४ व मेणा मणुवा ) । २१ व पुणु । सग विशुद्धं । २९ लमसग सेविको ( उ ? ) । लमग दलिङ्मणुआ ( स २० म पावलेले 1 २४ य नव । २५ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कन्तिोयाशुष्पेक्खा - [गा० ३९९जो रयणत्तय-जुदो खशादि-भावहिं परिणदो णिचं ।। सत्य वि मज्झत्यो सो साह मानदे चम्मी ।। ३९५ । सो चेव दह-पवारो वादि-भावेहि सप्पसिद्धेहिं । ते पुणु भणिजमाणा मुणियथा परम-भत्तीए ॥ ३९३ ॥ कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिणहिँ कीरमाणे वि । उक्सग्गे वि रउद्दे सम्म समा णिम्मला होदि ॥ ३९४ ॥ उत्तम-गाण-पहाणो उत्तम-तवयरण-करण-सीलो वि । अप्पाणं जो हीलदि मदव-रयणं भवे तस्स ॥ ३९५ ।। जो चिंतेइ ण वफ या कुणादि बंर जंपदे वकं । ण य ग्रोवदि णिप-दोसं अजब-धम्मो हवे तस्रा ॥ ३९६ ॥ सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव-लोह-मल-पुंजं । भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउर्च हवे विमलं ॥ ३९७ ।। जिण-वयणमेव मासदि तं पालेदु असकमाणो वि । ववहारेण चि अलियं ण वेददि जो सच-बाई सो ॥ ३९८ ।। जो जीव-रक्षण-परो गमणागमणादि-सब-कजेमुं। तण-छेद पि ण इच्छदि संजम-धम्मो हवे तस्स ॥ ३९९ ॥ इह-पर-लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेवि सम-भायो । विविहं काय-किलेस तव-धम्मो णिम्भलो तस्स ॥ ४० ॥ जो चयदि मिट्ठ-भोज उवयरणं राय-दोस-संजणयं । वैसर्दि ममत्त-हेदुं चाय-गुणो सो हवे तस्स ॥ ४०१॥ ति-विहेण जो विवज्जदि चेयणमियरं च सचहा संगं । लोय-ववहार-विरदो णिगंथत्तं हवे तस्म ॥ ४०२॥ जो परिहरेदि संग महिलाणं वे पस्सदे रूवं । काम-कहादि-णिरीहो" णव-विह-वभ" हवे तस्स ।। ४०३ ॥ यभावेण। २लमसग सुश्ख मारहि। ३ स होहि (ही!)। वह ५लसग कुणदिण। ६ लमसग जंपए। गतिठ (:! )[ = तृा]। लमसग तस्स सुचित्तं हथे। ९ व जो ण यदादि। १० घ "गमणाइ। ११ लारा कम्मे । १२ व निणयं । १३ ल (मस!) म संयमभाउ (को), ब मंजम्म। १४लग कास। १५ ससाके. पा गाथा नास्ति । १६म विसयविसमत्त । 10 मसुयो (?)। १८ मस बिहार, ग चे (?) बहार।.गण । २० ल (स)ग जिवची, मणिभत्तो। २, लमसग याहा बभं । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ -गा०४१५] - १२. धम्माणुवेक्खाजो ण वि जादि वियारं तरुणियण-कंडक्व-याण-विद्धो वि । सो चेव सूर-सुरो रण-सूरो णो हवे सूरो ॥ ४०४ ॥ एक सह-मगारो कालो रह लक्षणो हवे णियमा। अण्णो ण हयदि धम्मो हिंसा सुहमा वि जत्थथि ॥ ४०५ ॥ हिंसारंभो ण सुहो देव-णिमित्तं गुरूण कजेसु । हिंसा पावं ति मदो दया-पहाणो जदो धम्मो ॥ ४०६ ॥ देव-गुरूण णिमित्तं हिंसा-सहिदो वि 'होदि जदि धम्मो। हिंसा-रहिदो धम्मो इदि जिण-वयणं हवे अलियं ॥ ४०७ ॥ इदि एसो जिण-धम्मो अलद्ध-पुचो अणाइ-काले चि । मिच्छत्त-संजुदाणं जीवाणं लद्धि-हीणाणं ।। ४०८॥ एदे दह-प्पयारा पावं-कम्मस्स णासया भणिया । पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्वं ण कायदा ॥ ४०९ ॥ पुपणं पि जो समिच्छदि संसारो तण इहिदो होदि । पुण्णं सुँगई-हेहूँ" पुषण-खएणव णिवाणं ॥ ४१० ॥ जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसय-सोक्स-तण्हाए । दूरे तस्स विसोही विसोहि-मूलाणि पुषणाणि ।। ४११ ॥ पुण्णासाएँ" ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्ण-संपत्ती । इय जाणिऊण जैइणो पुण्णे वि में आयरं कुणह ॥ ४१२ ॥ पुण्णं बंधदि जीवो मंद-कसाएहि परिणदो संतो। तम्हा मंद-कसाया हेॐ पुण्णस्स ण हि बंछा ।। ४१३॥ किं जीव-दया धम्मो जैण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो। इथेवमादि-संका तदकरणं जाण णिस्संका ॥ ४१४ ॥ दय-मावो वि य धम्मो हिंसा-भावो"पा भण्णदे धम्मो। इदि संदेहाँभावो णिस्संका णिम्मला होदि ॥ ४१५ ॥ बवि आह । ग बि जाति। २ घ तरुणिकड़क्खेण बाण। ३ हृयह । बसुहमा । ५लग हिसारंभो विजो हवे धम्मो। ६ मस(?) होनि जाद, ब होइ जह। ७लमसग हिंसाररहियो (?)। ८य अणाय, म अपीड़। ५मर्षव पाव-कम्मरस, [पावं कम्मस्स]। १७म सुग्गह, गगइहे। अलमसग हेउ (3)। १२ लमसग खयेण। १३ ब सुक्ख । १५ व पुण्णासए (?)। १५म होदिय मुणिणो। १७ मण। १८ व कुणइ । १५ग जीउं (ओ?)। २.महेवं । ११बग बने। २२ लम(स)म भावे। २३ ग संदहोऽभावो। कार्तिके. ५५ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ - करितगेयाणुष्पेक्खाजो सग्ग-सुह-णिमित्तं धम्म णायरदि दूसह-तवेहि । मोक्खं समीहमाणो णिक्खंखा जायदे तस्स ॥ ४१६ ।। दह-बिह-धम्म-जुदाणं सहाव-दुग्गंध-अमुइ-देहेसु । जंर्णिदणं ण कीरदि' णिचिदिगिंछा गुणो सो हु॥४१७ ॥ भय-लज्जा-लाहादो हिसारंभो ॥ मण्णदे धम्मो। जो जिण-घयणे लीणो अमूढ-दिट्ठी हवे सो हुँ ॥ ४१८ ॥ जो पर-दोसं गोवदि णिय-सुकर्य जो ण पयडदे लोए । भविय-मावण-रओ उवगृहण-कारओ सो हु ॥ ४१९ ॥ धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठयेदि धम्मम्मि । अण्णाणं पि सदिद्वयदि ठिदि-करणं होटि तस्सेय ॥ ४२० ॥ जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परम-सद्धाए । पिय-वयणं जंपतो यच्छलं तस्स भवस्स ॥ ४२१ ॥ जो दस-भेयं धम्मं भव-जणाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि णाणेण पहावणा तस्स ॥ ४२२ ॥ जिण-सासण-माहप्पं बहु-विह-जुत्तीहि जो पयासेदि । तह तिघेण तवेण य पहावणा णिम्मला तस्स ॥ ४२३ ॥ जो ण कुणदि पर-ततिं पुणु पुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं । इंदिय-सुह-णिरवेक्खो णिसंकाई गुणा तस्स ।। ४२४ ।। णिस्संका-पहुडि-गुणा जह धम्मे तंह य देव-गुरु-तचे। जाणेहि जिण-मयादो सम्मत्त-विसोया एदे ॥ ४२५ ॥ धम्म ण मुणदि जीवो अहत्रा जाणेइ कहब कद्वेण । काउं तो वि ण सक्कदि मोह-पिमाएण भोलविदो ॥ ४२६ ।। जह जीवो कुणइ रई" पुत्त-कलत्तेसु काम-भोगेखें। तह जइ जिर्णिद-धम्मे तो लीलाए सुहं लहदि ॥ ४२७ ॥ लमसग मुकावं । २ लासग कारद । ३ घ गणतन्य ()। ४घ भयलगारहिय(१)। ५ मसग(ल)हु। ६ लमसग सुक्यं णो पयासद। म भविभब्य । ८ब ट्रिदिपरणं। १ दस-हि धम्म । १० व तत्सी। १५मस पुण पुण (?)। १२ भाइ १३म विविक्तो। गतहदेव । १५ व विसोहिया। १६म जीभो। १७(१)मस है। बभोरए। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -T० ४३९] __-१२. धम्माणुवेषखालछि बछेइ णरो णेष सुधम्मेसु आयरं कुणइ । बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि' सस्स-णिप्पत्ती ॥ ४२८ ॥ जो धम्मत्थो जीवो सो रिउ-बग्गे वि कुणइ खम-भावं । ता पर-दछ वजह जणणि-सम गणइ परदारं ॥ ४२९ ॥ ता सहा यि कित्ती ता सपथचि हवेई वीसासो। ता सर्व पिय भासइ ता सुद्धं माणसं कुणई ॥ ४३०॥ उत्तम-धम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देयो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तम-धम्मेण संभवदि ॥ ४३१ ॥ अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुयंगो वि उत्तम रयणं । जीवस्स सुधम्मादो देवा वि य किंकरा होति ॥ ४३२ ॥ तिक्खं खग्गं माला दुजय-रिउणो सुहंकरा सुयी। हालाहलं पि अमियं महावया संपया होदि ॥ ४३३ ॥ अलिय-वयणं पि सचं उज्जम-रहिए यि लच्छि-संपत्ती। धम्म-पहावेण परो अणओ यि सुहकरो होदि ॥ ४३४ ॥ देवो वि धम्म-चत्तो मिच्छत्त-वसेण तरु-यरो होदि। चक्की वि धम्म-रहिओ णिवेडइ णरए ण संदेहो" ॥ ४३५ ।। धम्म-विहूणो" जीवो कुणइ असकं पि साहसं जंह वि। "तो ण वि पाँचदि इ8 सुट्ठ अणिटुं परं लहदि ॥ ४३६ ॥ इय पक्वं पेच्छेह धम्माहम्माणे पिपिह-माहप्पं । धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरह ॥ ४३७ ॥" पारस-भेओ भणिओ णिजर-हेॐ तयो समासेण । तस्स पयारा एदे भणिजमाणा मुणेयव्वा ॥ ४३८ ॥ उषसमणो अक्खाणं उववासो वर्णिदो समासेण । तमहा भुंजंता वि य जिर्दिदिया होति उववासा ॥ ४३९ ॥ व कली। २ग भाइर। ३ ब दीसह । “य (?) म परयारं । ५ लमग सम्बस्स । लगवाह । लमसग कुणई। ८२ संभवद । ९महादि । १० ब (?)लग सुइंको सुयो। सरहिये। १२वणिवड्य। १३ लस (?)गण संपदे हादि। १४ घ विहीणो। १५व जय । १६ तो बिणु पाषइ इट। १७ स पावइ । १८ लमसग लहइ (ई)। १९ लगस पिच्छिय, (1)। २.स धमाधम्माण। २१ धम्माणुषेक्वा॥ चारसभेभो इस्यादि। २२ बम हे (!), १५ समो। सिक्षो। २५ लमसग माणदेहि । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ - कत्तिगेयाणुपेक्खा जो मण - इंदिय-विजई इहभव - परलोय - सोक्ख - णिवेक्खो । अप्पा चिय विसह सज्झाय-परायणो होदि ॥ ४४० ॥ कम्माण णिज्जर आहारं परिहरेइ लीलाए । एग - दिणांदि - पमाणं तस्म तचं अणसगं होदि ॥ ४४१ ॥ * उवासं कुत्राणो आरंभ जो करेदि मोहादो । ara haar अपर कम्माणं णेत्र णिज्जरणं ॥ ४४२ ॥ आहार-गिद्धि-रहिओ चरिया - मग्गेण पायुगं जोगं । अप्पयरं जो भुंजइ अयमांदारयं तवं तस्स ॥ ४४३ ॥ जो पुणु कित्तिनिमित्तं मायाए मिटु भिक्ख-लाहहुं । अप्पं मुंजदि भोजं तस्स तवं णिष्फलं विदियं ॥ ४४४ ॥ ऐगादि-गह पमाणं किची संकल्प- कप्पियं विरसं । भोज पसु व मुंजदि वित्ति प्रमाणं तवो तस्स ॥ ४४५ ॥ संसार- दुक्ख तो विस- सम-विसंयं विचितमाणो " जो । नीरस - भोजं भुंजइ रस- चाओ तस्स सुविसुद्धो ॥ ४४६ ॥ जो राय - दोस- हे आसण - सिज्जादियं परिचय | अप्पा णितिय सया तस्स तो पंचमो परमो ॥ ४४७ ॥ पूर्वोदि रिबेक्यो संसार- सरीर भोग- णिचिण्णो । अन्यंतर-तव-कुसलो" उवसम - सीलो महा संतो ॥ ४४८ ॥ जो पिवसेदि मसाणे वण-गहणे भिजणे महाभीमे । अण्णत्थ वि ऐयंते तस्स वि एदं तवं होदि ॥ ४४९ ॥ दुस्सह-उवसग्ग-जई आतारण- सीय-वाय खिष्णो वि । जो वि खेदं गच्छदि काय- किलेसो वो तस्स ॥ ४५० ॥ २२ [ गा० ४४० १ व सुक्ख । २ व विणिवेसह । ३ व एकदिणाइ । ४ व असर्ण ॥ उदवासं इत्यादि । ५ ग चरिणा । ६ व पाशुकं योग । लग जोगं । अवमोदरियं तवं होदि तस्स भिक्खु ॥ ८ व मायाये nिg भक्षा लग मिक्सिलाहि मलाहि स मिट्टिभक्ल ७ म नमोबरियं । । मादि ॥ १० लग किंवा । ११ ब तम्रो । १२ स विसए । १३ व विसर्य पिचितमाणो 1५ लसग पूजादिसु म पुजा । १६ च भोय । ३९ व पिक्सेइ । २० लमग गहिणे | २३ लग त ( भो ? ) 1 १७ यसग कुशलो । लमस ( ? ) ग एते २१ न एतं । ९ख एयादि स । १४ महेक । १८ स महासचो । २२ व युगलं । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गा० ४६१ ] - १२. धम्माणुवेक्खा - दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुषाणं पिण इच्छदि' तस्स विसोही परा होदि ॥ ४५१ ॥ अह कह' वि पमादेण य दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि । गिद्दोस - साहु-मूले दस- दोस-विवज्जिदो होढुं ॥। ४५२ ॥ जं किं पितेण दिण्णं तं सवं सो करेदि सद्धाए । यो पुणु हियए संकदि किं 'थोवं किं पि बहुयं वा ॥ ४५३ ॥ पुचि काउं च्छदि तं दोसं जइ वि जाह 'सय-खंड । एवं णिच्छ-सहिदो पायच्छित्तं तयो होदि ॥ ४५४ ॥ जो चिंतइ अप्पाणं णाण-सरूवं पुणो पुणो णाणी । विकहा- विरत - चिंत्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ॥ ४५५ ॥ विओ पंच- पयारो दंसण णाणे तहा चरिते य । बारस-मेयमि तवे उयारो बहु-विहो ओ ॥ ४५६ ॥ दंसण-गाण-चरिते सुविसुद्धो जो हवेह परिणामो । १५ वारस - भेदे कि वे सो चि विणओ हवे तेसिं ॥ ४५७ ॥ रयणत्तय - जुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि" भत्ती । भो जैह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ ॥ ४५८ ॥ जो उययरदि जदीणं उवसग्ग- जराइ खीण कायाणं । पूयादिसुं णिरवेक्खं वेजावचं तवो तस्स ॥ ४५९ ॥ जो बावes सरूवे सम-दम-भावम्मि सुद्ध उवजुतो । लोय-ववहौर - विरदो वेयांचं परं तस्स ॥ ४६० ॥ परं तची- णिरवेक्खो दुट्ठ-वियप्पाण णासण - समत्थो । तश्च - विणिच्छय- हेदू सज्झाओ झाण-सिद्धियरो || ४६१ ॥ इच्छा 1 २ लमग परो । वा ( स बहुवंय), ग १ ३ लम किमु बहु ग ધરત ८ सह ९ व होंति १२ लमसग बिजयो । १३ म उचारो। १७ व परेश। १८ ग सिंह । १९ लमसंग शुद्धि । २२ में विवहार । २३ व रिमो । ११ मतको ३ य कहब ४ व दहदोसविवजिउ । ५ व होदि (१) । थोर्वि किमु बहुष वा । ७ ब च्छदि (१) लमस पिच्छवि, १० लसग विकहादिविरसमप्यो, ( म माणो ? ) । १४ ब मेड, म भेए । १५ तवो ( ? ) । पूजादिसु । २० ब (१) लमग विज्ञान | २४ म विमा ( १ ) स केावचं । २५ ग परतिथी । १६ व विष २१ लमसँग Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - फत्तिगेयाणुप्पेक्खा - पूयादिसुं रियेक्खो जिण- सत्यं जो पढेइ भन्तीए । कम्म-मल-सोहण सुय-लाहो सुहयरो तस्स ॥ ४६२ ॥ जो जिण सत्थं सेवदि पंडिय-माणी फलं समीहंतो । साहम्मिय-पडिकूलो सत्थं पि पिसं हवे तस्स ॥ ४६३ ॥ जो जुद्ध-काम-सत्थं 'रायादोसेहिं परिणदो पढइ | लोयाण हेतुं सज्झाओ णिफलो तस्स ।। ४६४ ॥ जो अप्पाणं जाणदि असुइ- सरीरादु तवदो भिष्णं । जाम सोय जाणदे सवं ॥ ४६५ ॥ [ गा० ४६२ जो वि जाणदि अप्पं णाण-सरूवं सरीरदो भिण्णं । सो वि जादि सत्यं आगम-पाढं कुर्णतो वि ॥ ४६६ ॥ जल्ल-मल-लिस- गत्तो दुस्सह-वाहीसु णिप्पडीयारो । मुह-धोयणादि- विरओ भोगण सेज्जादि - णिरवेक्खो ॥ ४६७ ॥ सरुव-चिंतण-रओ दुखण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे विणिम्ममत्तो काओसग्गो तवो तस्स || ४६८ ।। जो देह धारण- परो उवयरणादी - विसेस - संसतो । बाहिर-बहार- रओ काओसग्गो कुदो तस्स || ४६९ ॥ अंतो- मुहुत्तमेतं लीणं वत्थुम्मि माणसं गाणं । झाणं भण्णदि समए असुहं च सुहं चं तं दुविहं ॥ ४७० ॥ असुहं अट्ट-रउद्दं धम्मं सुकं च सुहयरं होदि । अहं तिच कसायं तित्र-तम- कसायदो रुई || ४७१ ॥ मंद - कसायं धम्मं मंद-तम- कसायदो हवे सुकं 1 असा वि सुंय केवल-णाणे वि तं होदि ॥ ४७२ ।। दुक्खयर - विसय जोए केम इमं चयदि इदि विचिंतंतो । अट्ट-झाणं" हवे तस्स ॥ ४७३ ॥ जो , १ पूजादिसु ( ग ) । २ व सराओ (१), म सुनलाहो । ३ लमसग रावा व राय (१), [रायोहिं] 1 ४ पार्ट (१) । राग जलम | ६ म सवंविण । * लमसग पाक्षण । ८ । ९ म असुई झु १३ म नई शा १० म सुट्टे । ११ [ चयमि ] | १२ व चिद्वदि । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. ८५] - १२. धम्माणुओक्सामणहर-विसम-पिओगे कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो सो चिय अर्ट हवे झाणं ॥ ४७४ ॥ हिंसाणंदेण जुदो असच-बयणेण परिणदो जो हु। सत्येष अथिर-चित्तो रुहं झाणं हये तस्स ॥ ४७५ ॥ पर-विसय-हरण-सीलो सगीय-विसए सुरक्खणे दक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो गिरंतरं तं पि रुई पि ॥ ४७६ ॥ बिण्णि वि असुहे झाणे पाव-णिहाणे य दुक्ख-संताणे । तम्हा' दूरे वजह धम्मे पुण आयरं कुणह ॥ ४७७॥ धम्मो वत्थु-सहायो खमादि-भावो ये दस-विहो धम्मो । रयणतयं च धम्मो जीयाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८ ॥ धम्मे एयग्ग-मणो जो ण वि वेदेदि पंचहा-बिसयं । येरग्ग-मओ गाणी धम्मझाणं हये तस्स ॥ ४७९ ॥ सुविसुद्ध-राय-दोसो घाहिर-संकप्प-बजिओ घीरो । एयग्ग-मणो संतो जं चिंतइ तं पि सुह-शाणं ॥ ४८० ॥ स-सरूब-समुम्भासो गढ-ममत्तो जिदिदिओ संतो। अप्पाणं चिंतंतो सुह-शाण-रओ हो साहू ॥१८१ ॥ बज्जिय-सयल-त्रियप्पो अप्प-सरूवे मणं णिरुंधतो"। जं चिंतदि साणंदं तं धर्म उत्समं झाणं ॥ १८२ ॥" जत्थ गुणा सुविसुद्धा उपसम-खमणं" च जत्थ कम्माण । लेसा पि जत्थ सुक्का तं सुकं भण्णदे झाणं ॥ ४८३ ॥ पडिसमयं सुझंतो अणंत-गुणिदाएं उभय-सुद्धीए । पढमं सुकं शायदि आरूढो उहय-सेढीसु ॥ ४८४ ॥ णीसेस-मोह-विलऐं खीण-कसाए य अंतिमे काले। स-सरूपम्मि णिलीणो सुकं आएदि एयत् ॥ ४८५ ॥ लसग वियोगे। २ लमसग दु(१)। ३ लमसग पिता . स तं विरु। ५ लमतग गया। ६य पुणु। मभ। मरवस्खणे। ९लमसग जो पदेवि इंदियं बिसय । १.मसग धम्म शा (मा)। 110 सज्माणाभो। १२ लमसग णिभिसा। १३ व भम्मझा अव्य इत्यादि। "मग सवर्ण। १५ब गुणिदाम, सम गुणदाए। १६ लमसग जिस्सेस" विक्षये। "लगम मसानो (उ),समसाई। १८स सरूवामिछ। १९लगायेहि। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कतिगेवाणुष्पेक्खा [गा० ४८६केपल-णाण-सहायो सुहुमे जोगम्हि संठिमओ काए । जं झायदि स-जोगि-जिणो तं तिदियं सुहुम-किरियं च ॥ ४८६ ॥ जोग-विणासं किया कम्म-चउक्कस्स खवण-करणहूँ। जं झायदि 'अजोगि-जिणो "णिकिरियं तं चउत्थं च ॥ ४८७ ॥ एसो पारस-भेओ उग्ग-तयो जो चरेदि उवजुत्तो। सो खवदि कम्म-गुंजं मुत्ति-सुहं अक्खयं लहदि ॥ ४८८ ।। जिण-पत्रण-भावर्ण8 सामि-कुमारेण परम-सद्धाए । रहया अणुवेहाओ चंचल-मण-रंभणटुं च ॥ ४८९ ॥ वारस-अणुवेक्खाओ" भणिया हु जिणागमाणुसारेण । जो पढइ सुणइ भावह सो पावइ सासयं" सोक्खं ॥ ४९० ॥ "तिडवण-पहाण-सामि कुमार-कालेण तविय-व-चरणं । वसुगुज-सुयं मलिं चरम-तियं संथुवे णिचं ॥ ४९१ ॥" महमे योगम्मि । मस तदियं (?)। ३ग अयोगि, म भजोह । षनं निकिरिय पाउत्थं । ५. मुखमा । एसो इत्यादि। लमस खषिय, ग स्वविह। लमसग हहह । ८य भावणत्यं । रसगम अणुपहाड (ओ!)। १.लग अणुवेखाउ । " लमसग उसमं । १२ बम सुक्लं । एलमग तिहुपम। 14 सामी। १५लमसग तबयरणं । १६ व संथुए। १७ ब स्वामिकुमारा. प्रेक्षा समासः। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा लिभो विरो अलिओ विदेहो अग्गी वि य होदि हिमं अच्छी हि पिच्छमाणो अज्जनमिकेच्छखंडे ra fare विहा अणउदयादो छहं गवरयं जो संचदि लच्छि अणुदरी कुंपो अणुपरिमाणं तच toursरूवं दवं अण्णभवे जो सुमो अण्णं देहं गिदवि जपणी अपि एवमाई अणोरणपवेसेण य अण्णोष्णं खनंता अथिर परियणसयणं अदुव असरण भणिया संसकरणं अप्पसरूवं वत्युं च अप्पा जो जिंद अप्पा णं पि वर्ततं अप्पा पि य सरणं अ अलिवणं पिस अवसप्पणीए पढने अविरयसम्मादिवी अदमयं दुग्गंध असुराणं पणवीसं असुरोदीरि यदुक असुई अर अह कह वि पमादेण य अह का विवदि देवो अह गच्मे वि य जायदि कार्तिके० ५६ गाहाणुकमणिया गाथाः २६ १ ४३२ २५० १३२ १३१ ३०९ १५ १७५ २३५ २४० ३९ ८० २०९ ११६ ४२ ६ २ ९२ ९९ ११२ २९ ३१ ४३४ १७२ १९७ ३३७ १६९ ३५ ४७१ ४५२ ५८ ४५ गाया अह जीरोओ देहो अह जीरोओ होदि हु अह धणसहिदो होदि मह लहूदि अज्जव अहषा देवो होदि हु अहवा बंभसरूवं अइ होदि सीलजुत्तों अंगुल असंभागो अंतरतथं जीवो अंतोमुडुतमेतं लीं आपण मरण आहारगिद्धिरहिओ आहारसरीरिदिय इको जीवो जायदि रक्षो रोई सोई इको संयदि पुण्णं माइक् इद्वविओगं दुक्ख दि एसो जिम्मो इय जानिकण भावह इदुल म इस पचक्यांपे इस सम्बदुलदुलई इय संसारे जाणिय इहपरलोमणिरीक्षे हपरलोय हाणं ईदियर्ज मदिणाणं उत्तमगुणगणरओ उत्तमगुणा धार्म आ उ गामाङः ५२ २९३ २९२ २११ २९८ २३४ २९४ १६६ २०५ ४०० २८ ४४३ १३४ ૪ ७५ ७६ ३७ ५९ ४०८ ३ ३०० સર ३.१ ७३ २६५ ४०० २५८ ३१५ १०४ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा - कत्तिोयागुप्पेश्यागाथा गाथा एसो दहप्पयारो धम्मो ४३१ एमो बारसमेओ ३६६ Y८८ उसममाणपहानो उसमधम्मेण जुदो होदि उत्तमपत्तपिसेसे उपवास कुम्वतो भारंभ उपवासं कुख्याको आरम उपसपिणिअवम्पिणि उपसमणो अवाज उबसममावतवा उस्सासद्वारसमे भागे ११ 0 ४३९ ! - 4 '५३ २२३ कर्म कि पिम साहदि ४४२ कस्य बिण रमहलकली का पमुरा भावणया १०५ [ कर्म पुर्ण पावं हे कम्माण णिमारलु आहार कस्स वि अस्थि कला फस्स नि तुकलन कारणका बिसेसा कालाइसद्धिजुना का विड़वा दीसदि किश्चा देसपमाणं कि जीवदया धम्मो कि बहुणा उमेण य केवलणाणसहायो कोण वसो इथिजणे कोहेण जो तप्पदि NA ४१ २५२ १४० ३९४ २२६ एईदिएभाषदो एक चयदि सरीरे एक पि बिरारंभ उदबास एक विवयं विमल एके काले एक गाणं एगादिगिहपमाणं एदे दहप्पयारा पार्च एदे मोडयभावा जो एदे संबाहेदू विधारमाणो एयवखे यदु पाणा एपम्मि भने एके एवं पुशु दवं एवं भजाइकाले एवं संसरणं एवं जागतो बिहु एवं जो आनिता एवं ओ जिरछयदो एवं पंचपयार अणत्थ एवं पेच्छतो चि हु एवं बहुप्पयार दुक्खं एवं वाहिरवलं जाणदि एवं मायगदीए एवं लोबसहाय एवं बिबिगाएहिं एवंविहं वि देह एवंम असारे संसारे खरभायपंकभाए खरगो व खीणमोहो ३१० ३७४ गिहदि मुंचदि जीवो गिहयावार चत्ता रति गुत्ती जोगणिरोहो मुसी समिस धम्मो घडपडजलदव्याणि चइकण महामोह ६२ । चउरक्खा पंचक्खा Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -गाहाशुभमणिया गावर बदुगदिमम्बो सपणी चितंतो ससरुवं जिणविध ४८९ छिन तिलतिलमित्त १८. २१० १९२ २८४ २४३ गाथा गापा जं संगहेण गहिद बाजिता संपत्ती भोषण जा सासया लच्छी जिणवयणभाषण जिणवत्यणमेव भासदि जिणवणेयम्गमणो जिनसासणमादप जीवस्स पिच्छयादो धम्मो जीवस्स बहुपयार जीवस्स वि णाणस वि १७९ जीवाण पुगालाणे जे जीवा विदु जीवाणं जीवा हवंति तिबिहा २१५ जीवो अपंतकाल बस जीवो अणाइणिहणो जीवो णाणसहाको जीवो ये हवइ मुगा २५११ जीवो वि हवे पाच जौवो हवेइ कना जे जिणक्यणे कुसला जेण सहावेण जदा जो अणुमणणं म कुणदि जो अण्णोषण एवेसो जो अत्यो पडिसमयं जो अप्पाणं जाणवि जो अहिलसेदि पुग्ण जो आयरेण मण्णदि जो आरंभ ण कुणदि २२५ जोइसियाण विमाणा २६१ जो उपएसो दिजादि जो उवयरदि जीणं जो एगेग अत्यं २५४ जो जयकारियमोयण २५१ | जो कुपदि कासगं अइदेको विच रक्खादे बह पुन सुयसहाया जत्य गुणा सुविसुद्धा जत्य ण कलयलसहो अदि जीपादो भिण अदि ग य हवेदि जीवो अदब इवदि सम्बटू जाद महादि सा सत्ती यदि दग्ने पजाया अदि बत्युदो विमेदो बादि सध्यमेव माण जदि सम्बं पि असतं अम्म मरण सम जलयुम्युयसारिच्छ बामलितगतो जह जीयो ऋणइ रई जह लोणासणई इदिएहिं गिन किषि वि उप्पण जंकि पिण दिम जं अस्स अम्मि देसे जंजाणिजइ जीवो परिमाणं कीरदि जबत्यु अणेयंत तं जंवत्थु भयंते एयंत जसवर्ष सत्पा असम्बलोमसिहं जं सम्वं पिपयासदि जे सम्बंपिय संत १५८ १८५ ४५७ २७ २१७ २६७ २८५ १६ २४० २८४१ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ गाया जोगविणासं किचा जो चउवि पि भोज जो चयदि मिट्टभोज जो अपा जो चिंतेड़ गण जो विवेइ सरीरं जो जाणदि पञ्चक् जो जाणिऊण देई जो जिणसत्यं सेवदि जो जीवरक्खणपरो जो जुद्वकामसत्यं जोन कुमार जोय कुदिगवं जो ण य भक्खेदि सर्व जो नवकोडिद्धिं जो गवि जाणदि अपं जो पवित्राणदि त जो ण वि जादि वियार जो विसेदि मसाणे जो निसिभुर्ति वजदि जो तचमणेयंत जो दस मेयं धम्मं जो दिउचितो कीर दि जो देहधारणपरो जो धम्मत्थो जीवो सो जो कम्मिए भक्तो जो परदव्ण हरदि जो परदेवितो निमदेहे जो परदो गोदि जो परिमाणं कुब्बदि जो परिवबर गंभ जो परिहरे संत जो परिहरेदि संग जो पुण चितदि कर्ज - कविगेयाणुप्पेक्खा - गाथाड ४८७ ફર્ ४०१ ४५५ ३९६ १११ ३०२ ८२ ૪૬૨ ३९९ ४६.४ ४२४ ३१३ ३९० ४६६ ३२४ ४०४ ** ૨૩ ३११ ૪૨૩ ३२९ ४६९ ४२९ ४२१ ३३६ ८७ ४१९ ૨૦ ३५१ ४०३ ३८५ गाथा जो पुण लच्छि संचदि जो जो पुण विसरतो पुणु कित्तिणिमित्तं जो बहुमु जो माईदियविज जो मण्णदि परमहिल जो रणत्तो जो रायदो सद् जो लोहं हिमित्ता जो वज्जेदि सचि जो वट्टमाणका ले जो कुमाणलखि जो वादिलच्छ जो वावर सवे जो बावरे सदओ जो विसहृदि दुव्य जो सम्म णिमितं जो समसोक्खणिलीणो जो संगदिस देख जो संचिऊण ि जो सावयवयमुद्धो ओ साइदि सामणे जो सादि अद जो सादि विसेसे यको विदेदिली णय जेर्सि पडिखलणं य भुजदि वेलाए are कज्जविसेसा गाणं जादि यं पाणं भूय दियार धम्मजुदं पि पाणाम्मे हि जुद ण गायाः १३ १०१ ४४४ ३३५ ४४० ३९२ ४४७ ३३९ ૨૧ २७४ १९ १७ ४६० २३१ १०९ ४१६ ११४ २७२ १४ ३९१ २६९ २७१ २७० ३१९ ૧૨ १८ २२९ २५६ १८१ ૨૬૪ २५३ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधा गिजियोस देवं यिणियपरिणामाणं जिस्कापहुण्डिगुणा णीलेस कम्मणासे णीसेसमोहविलए रमा दिदीणं पो उप्पज्यदि जीवो हाणविलेषणभूसण तवं कहियमाणं ततो जिस्स विदूर्ण तत्तो णीसरिपूर्ण आयदि तस्य भवे किं सरणं तत्य वि असंस्का तघार्द जो ण कर दि तस्य सहको जम्मो तस्सेव कारणा ते तरस तम्मि ऐसे ता कह हिदि दे ता भुंजिज लच्छी ता सम्वत्थवि किती तिक वर्मा माला विएहि बजमाणो तिविण जो विवादि तिबिहे पछि सया विम्बविसाए तिसिदो तिहुवणतिल्यं देवं तिरुपपासामि तेवद्वो धम्मो वि पुणो वियदुविहा ते साक्खा सुणया वे अतीदा ता शरदो पुर्ण भावी वियधम्मौ 3 - गाहाणुकमणिया गाधाङ्गः ३१७ २१७ ८२५. १९९ ४८५ ७० २३९ ३५८ २८० २८९ ४० મે २८५ ३३२ ११३ १३५ ३२२ २०१ १२ *ર્॰ ૪૩૨ ४९ ४०२ ३६० ४३ 1 ४९१ ३०४ १३० २६६ २२१ ११९ ४१५ गाथा दब्याण पंजवाण दहविहधम्मजुदार्ण दसणाच दंसणणाणचरि दीति जर त्या दुधियकम्मरसादो दुक्खयर विसयो दुगदुगचदुचदु युवाणमपुष्णार्ण दुस्सहउवसग्गजई देवगुरुण णिमित्तं हिंसा देवाण ाराणं देवाणं पिय सुक्ख देवा विणारया वि देवो विधम्मच वेद्दामलिदो वि जीवो देहमिलिदो विपद देहमिलिये पि जीव दोससहियं पिदेव दोण करेदि सर्य दोषि पव्येस सया धम्ममध द धम्मविण जीवो धम्मंण मुगदि जीवो धम्मादो चलमा जो धम्मे एगमो ओ धम्मो बसाव जगतो जयमितं त परिसमयं परिणामो एडिसमयं सृज्यंतो घ ३४५ गाबाह २४५ Yไบ १० ४५७ १२१ ६३ ** १७० १४१ ४५० ४०७ १६५ ६१ १५२ ४१५ १८५ 1 ३१६ ३१८ ४५१ ३५९ २१२ ४३६ ૪૨૬ ** 445 YU6 १३६ २२८ ૧ ४८४ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कत्तिगेयाशुष्पेक्खा गाथाङ्क गाथा गाथा १६१ १२८ ४६१ ३२८ ३४ १४७ १४९ ११४ १५७ बहुतससममिदं धदि मुंचदि जीवो संचिता पञ्चक बादरपशिजुदा बादरलशिअण्णा पार देण्याचे बारसजोयणसंखो मारसमेओ भणियो पारसबएहि जुत्तो बारसवास दियो बारसविदेण तवसा पारने विपियरचतो बावीसससहसा बाहिरगंयाविहीणा विणि वि अनहेमाणे १५४ १६३ १०२ १९५ १६२ गाथा पढमकसायचलई परोयाणं बाल पतेया विय दुविहा परतत्तीगिरवेक्सी परदोसाण वि गहणं परक्सियहरणशील्ये परिणमदि सणिजीवो परिणामसहावादी पांडसमय परिणामेण विहीणं परिवशिय सुइमाणे पंचक्खा चउरक्सा पंचक्खा वि य विविहा पंचमहब्वयजुत्ता पंचसया धणुछेहा पंचाणुव्वरधारी पैचिदियणाणाणं पंचे पहियजणार्ग पावस्येण परए पाचेन अणो एसो पुषणविहिं च किश्चा पुत्वीजलग्गिवास पुतवीतोयसरीरा पुणरवि कार्य गच्छवि पुण्मनुदस्स वि दीसदि पुष्प बंधादि जीवो पुण्ण पि जो समिच्छदि पुग्णा वि अपुष्णा विय पुण्णासाए पण पुर्ण पुत्तो वि माउ जामो पुष्यन्हे मळण्हे अबरण्दे पुष्वपमाणकदार्ण पुष्पपरिणामजुतं पुषपरिणाम पूवादिस मिरवक्सो संसारपूवाविस गिरवक्खो जिण १२० ४१८ १२४ मत्तीए पुज्जमाणो वितर भयलमालाहादो मोयणदाण सोक्ख भोयणदाणे दिपणे भोयणवलेण साहू १४८ ४१० ३७ २५७ ८८ मज्जारपहुदिधरणं मणपज्जयविण्णाण ११३ ४१२ मणवयणकायइंदिय मणवयणकायजोया मणहरविसयविओगे मणुयाणे अमुइमर्य २३० मणुयादो मेरझ्या २२२ मणुवईए वि तओ ४४० मरदि सुपुत्तो कस्स वि ४६२ | मंदकसायं धम्म ३५४ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया माणुस खितस्स बि मिच्छतपरिणदप्पा सिच्छादो सहिठ्ठी मेहस्स हिदुभाए मोह विवागादो रणतयजुसा रयणत्तय संजुत्तो रयणत्तये बिल रयणं चप्प रयणाण महारथ रयणु जलपिडिय राईभोगविर राओ ई भिश्रो हं रिमोयणं व मण्ण लच्छि छेद परो जेव ब्रामणो जो लद्धयपुणे पुण्णं art कालोए लोयरमाणो जीवो लोयाणं ववहार बज्जियस यलक्यिप्पो वासादिकमपमाणं विणओ पंचपयारो वित्तिय उपंचक्खाणं वितिचउरक्सा जीवा वियलिदिए जायदि विरला जिसुणहि तचं बिरलो अदि पुणं बिसयासतो व सया विहलो जो बाजारो ल - गाहाणुकमणिया गाथाङ्कः १४३ १९३ १०६ २२० ४५८ १९१ २९६ २९० ३२५ २९७ ३०६ १८७ ११० ४२८ १६ १३८ १४४ १७६ २६३ * ३६८ ४५६ १७४ १४२ Ra २७९ ४८ ३१४ ३४६ गाया सपिफलं की सयपश्चवखं सहं पढीर्ण उवसमदो सत्तमणारयहिंतो सममितेर सिदिवसे वि होदिति सोकपंचइका मूले सत्यभासेन पुगो सघणो वि होदि णिघणो सम संतोसजणं जो सम्मत्तगुणपाणो सम्मतं ऐसवयं मद्दष्वयं सम्म वियल सम्म नसुद्धो सम्माट्ठी जीवो सम्मुच्छिमा हुमणुया सम्मुच्छिया मगुस्सा सबलकुहियाण पिं सविस जोओ सवाणं दवा सरिसो जो परिणामो सम्बगओ जदि जीवो सव्वजण आऊ सजणो देहो सत्य विचियवयर्ण स जाणवि जम्हा सभ्यं पि अपेयेतं स प होदि गरए स सव्वाण पजायाणं सम्मार्ण दष्वाणं जो सवाणं दय्वाणं अवगाहण सव्वाणं दव्वाणं दव्व ४४० मायादः ३७९ १८२ ३०८ १५९ ३७३ ༢༠ ११८ २०५ ५६ ३५० RE ९५ २९५ ३०५ ३२७ १५ १३३ ५० २१३ २४१ १७७ १६४ १७३ ९१ २५५ २६२ ३८ २४४ ૨૧ २१४ २३६ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર गाया सव्दार्ण दग्वार्ण परिणाम सव्वायरेण जाणह एक सव्वायासमणतं तरस य सन्चै कम्मणिभद्धा सम्बेर्स इत्यीणं जो सव्वेति कम्मरर्ण सम्बेसि चूर्ण सब्बो लोयामासो ससरीश मरहंता ससस्यचितणरओ ससरुवत्थो जीवो अष्ण सलवत्थो जीवो फर्ज सरस्वसमुन्भासो संकष्पमयो जीवो त्रिगुणा देवा संति अताता संसारदुखतो संसारो पंचनो सा पुण दुविधा या सामाइक्स करणे सारीरियदुक्खादो साक्षगुणेहिं जुत्ता साधारणाणि जेर्सि साधारण दुविधा - कन्तिगेयाणुपेकर गावाह २१६ ७९ ११५ २०२ ३८४ १०३ गाधा सिखायं च तिदियं सिद्धा संति अनंता सीहस्स कमे परिदं पवितं द मुडु सुयणो पिच्छंतो बिहु सुरधणुत िचत्रला सुबिसुद्ध राय दोसो २७५ २०६ १९८ * २३३ २३२ ४८१ १८४ १५८ २२४ ४४६ ६६ १०४ ३५२ 1 हिद्विममज्झिम उचरिगेचजे ६० । हिदमिदवयणं भासदि १९६ हिंसाणंदेश जुदो १२६ हिंसारंभो ण सुद्दो १२५ हिंसावरणं ण वयदि सुमापत्ता को सो को विधि देसो सो थिय एको धम्मो सोचे दपयारो सो ण वसो इत्थवणे सो तिब्बअहलेसो सो वि परीसह विजओ सो वि मणेण विहीणो सो वि विणस्सदि जायदि सो संगद्देण एको गाथांङ्कः ३६१ १५० २४ 4'6 60 ७ *. १५७ २६५ 33 ૨૦૨ દ ९८ २८७ २४२ २६८ १७१ २३४ *४७५ ४०६ ३३३ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीकान्तर्गतपद्यादीनां वर्णानुक्रमसूची यथासंभवं मूलनिर्देशश्च । २४७ ३१० अई कुम्पउ तवं पाले अगहिदमिस्सयगहिद अज्ज चि तियरण अत्तीसद्धलषा अबिहुकम्ममुके अबस्स अणलसस्स व अतिवाहनातिसंग्रह अतोऽन्यत्पापम् अदानी निषेयन्ति अस्थि अणंता जीवा जेहि अथ मन्त्रपदाधीशं अथ रूपे स्थिरीभूत अमापूर्व दिशाकाशं अनन्तदुःखसंभीर्णभस्य अनन्तवीर्यः प्रथितप्रभावो अनशनावमौदर्य समायनिधने द्रव्ये अनिष्ठयोगजन्माद्य अनिष्टवियोगे संयोग अनुमतिरारम्भे दा अनुग्रहार्थ म्यस्यातिसर्गो अनुप्रेक्षा इति प्रोक्ता अनेकासत्यसंकल्पैर्यः अनेनन विशुद्यान्न अन्तर्दहति मन्त्रार्चिः अन्तर्मुहर्ता अम पाने कार्य अन्यविवाहाफरणान अपथ्यमपि पर्यन्ते अपदिद्विदपत्तेया अपरा फ्ल्योपममविक्रम् अपायोपायजीवाज्ञा अपृथक्त्वमवीचारं अप्रमत्तः प्रमत्तश्च अमुष्पावस्ति मे कार्य अयोगी वक्तयोगत्वात् [ देवसेन, आराधनासार १११] ३११ [ नेमिचन्द्र, गोम्मदसार जी० ५५९* २] [कुन्दकुन्द, मोक्खपाहुड ७७] ३९१ [नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी. १५४ ] कुन्दकुम्द, सिद्धमक्ति १ (१)] [नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी० ५७३*१] १५३ [समन्तभद्र, रत्नकरण्डक. ३-१६] [उमास्वाति, त० स० ८-१६] [ रामसेन] तत्वानुशासन [८३] नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी. १९६] २०५ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-७] ३७१ [शुभचन्द, ज्ञानार्णव ४०-१५] [१ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३६-२०] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णय २५-४२] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-४४] [ उमाखाति, त. सू. ५-१९] २११, ३०३, ३९३ [ देवसेन, आलापपद्धति पृ. १५६] १७३ [शुभचन्द्र ] ज्ञानार्णव [२५-२४ ] तत्वार्थ [अनदेव] ? व्यसंग्रहटीका [गा० ४८,पृ. १८२] ३६१ [समन्तभद्र, रनकरण्डक. ५-२५] २८५ [उमान्याति, त० स० ७-३८] २६३ शुभचन्द्र, का. प्रेटीका, प्रशस्ति । [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-२३] ३६२ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४३] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३६-१८] ३७५ चारित्रसार [पृ. ४५] ३९२ [समन्तभद, रलकरण्डक. ५-२१] [समन्तभद्र, रमकाण्डक०३-१४ ] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्गव २५-३८] २६१ [ नेमिचन्द्र ] गोम्मटसार [जी• का० २०४] [उमास्वाति, त. सू. ४-३६] १०४ २८० २६७ ३८३ [शुभचन्द्र ] ज्ञानार्णव [ ४२-२६] [ नागसेन, तत्त्वानुशासन ४६] [शुभचन्द्र ] ज्ञानार्णव [ ४२-५८] ३८५ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० भरसं च अण्णमेला कदं अरहंत अरहंतसिद्ध अरहंता असरीरा हा सिद्धाइरिया अर्थेष्वेकं पूर्वश्रुत अर्हरण पर्या अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय अवरा परजाय हिंदी अवर्णस्य सहस्त्रार्थ सत्य चातुर्यबलेन असत्यसामर्थ्यनशादराती असि भाउसा असहादो विणिवित्ती अस्मिंस्तु निश्वलध्यान अस्य निरन्तराभ्यासातू अस्याः शतद्वयं ध्यानी अह उवइट्ठो संतो अह ण लहर तो भिक्सं महिंसालक्षणो धर्मः अंगुल संभागं आकुरा सिवार आकंपिय अणुमणिय आकाशस्फटिकमणि आष्टोऽहं तो नैव आशा पायविपाक आदा मञ्झणाने आदिमं चाहती नाम्नो आविसंहननोपेतः आयन्तरहितं द्रव्यं आधरित षड्जघन्याः आद्येष्वार्तध्यान आधारे धूलाओ आनयनप्रेष्यप्रयोगः आपणासागरखानमुचयः आमुक्ते वैरपात्रस्य मणिविडी आरामं तस्य पश्यति - कन्तिमेयाणुप्पेक्खा [ शिवार्य, भगवती आ० २१६] [ बृहद्रव्यसंग्रहट्टीका ४९ ] बृहद्रव्यसंग्रहटीका ४९] [ वृहद्दव्यसंग्रहट्टीकायामुतेयं गाथा ४९ ] [ कुन्दकुन्द, मोक्षप्रा० १०४, द्वादश म० १२] रविचन्द्र, आराधनासार [ समन्तभद्र, रत्नकरण्डक० ४-३० ] [यहीका ४९ ] [ नेमिचन्द्र, गोम्मटसार' जी० ५७२ ] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-५३ ] [ शुभचन्द्र, शानार्णव २६-१८] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-२० ] [ बृहद्रव्यहीका ४९ ] [ नेमिचन्द्र, द्रव्यसंग्रह ४५] [ शुभचन्द्र, शानार्णव ४२-२८ ] [ शुभचन्द्र, शानार्णव ३८-५६ ] [ शुभचन्द्र, शानार्णव ३८-४९ ] [1 बलनन्दि, श्रावकाचार ३०७] वसुनन्दि, गत्याचार [मूलाचार, १०४६] [ नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी० कां० २०३] [ शिवार्य ] भगवत्याराधना [ ५६२] रविचन्द्र, आराधनासार [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव १९-१६] [ उमाखाति, त० सू० ९-३६ ] [ कुन्दकुन्द, नियमसार १०० ] [ शुभचन्द्र ] ज्ञानार्णैव [ ४२-५ ] [ समन्तभद्र, रत्नकरण्डक १४७२४, ५-२६१] [ चारित्रसार पू. २०] रविचन्द्र, आराधनासार [ नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जीव० १८३ ] [ उमाखादि, तत्त्वार्थसू० ७-३१] [ समन्तभन्द्र, राकरण्डक० १-२२] [ वसुनन्दि, श्रावकाचार २९२] श्रुति [?] बृहदारण्यक ४-३-१४ ] ३७० 2n ૨૦૦ ३९३ ३९१ ૩૨૪ ३७० ३७२ १५३ ३७३ ३६२ ३६२ ३७० ३०३ 33 ३७३ ३७२ ३८८ २८७ ३६५ १०६ ९१ ३४२ ३९१ २९३ २७५ ३५३ ?? ३७९ १४० * ३९१ ६१-२ २७० २३. २६३ २७७ १६६ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -टीकोत्तपादिसूची ४५१ ३३९ [शुभचन्द, ज्ञानार्णव ३९-१] आर्तध्यानविकल्पा आर्हन्त्यमहिमोपेतं आलप्पालपसंगी आलोयण पडिकमणं श्रावलिअसंखसमया १५३ [बट्टकेर ] यत्याचार [ भूलाचार ५-१६५] [नेमिचन्द्र ] गोम्मटसार [जी० ५५३] [जंबूदीवपण्णती १३-५] [देवसेन, भावसंग्रह ५१५] [नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी०६.६] [! देवसेन, भावसंग्रह ५२१] १४३ २६६ वसुनन्दि [-बष्टकेर ] पत्याचार[ मूलाचार ५-१५०] ३३० [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-२८] ३६१ शुभचन्द्र , शौनाव ४०-२४ [जिनसेन, महापुराण २१-२५] [चामुण्डराय] चारित्रसार [पृ० ७५-६] ३६१ आहारमओ देहो आहारवग्गणादो आहारसणे देहो आहारो भुज्यते दुग्धादिक इत्तिरियं जावज्जीवं इत्थं चुराया विविधप्रकारः इत्यसौ सतताभ्यास इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी इत्युक्तमातमार्तास्म इदं रौद्रध्यानचतुष्टयम् इमा प्रसिद्धसिद्धान्त इह परलोयत्ताणं उम्गमलप्पादणएसणा उच्छिष्ट नीचलोका उत्तमखेत मीयं उत्पादन्ययध्रौव्ययुक्तं उत्तमममममहर्ण उदये दु अपुष्पस्स य उहिद्धपिरविरदो उपचित्यामः पुरुषहितो उपशमितकमाये उपसर्गे दुर्भिक्षे उवगृहादिक्ष पुष्युत्ता उपसप्पिणि भवसप्पिणि उक्समसहुमाहारे बरवडपिपलपिंपरीय सम्वधिस्तात् तिर्यम् अधिस्तिर्यग्व्यतिक्रम जांघो रेफर्सरुद्ध एक एव हि भूतारमा एकमेवाद्वितीय ब्रह्म एकस्मिनाविरोधेन एक द्रव्यमवावा [वटकर, मूलाचार २-५३] २३२ [शिवार्य, भगवती आ. २३०, मूलाचार ४२] ነን። [यशस्तिलक,पृ. ४.४] २६४ [भाषसंग्रह ५०१] उमाखाति [तस्वार्थसूत्र ५-३.] १५६, १६८ बसुनन्दि[श्रावकाचार २८.] २७७ गोम्मटसार जी. का० १२१] [वसनन्दि, श्रावकाचार ३१३] २८९ चारिश्रसार ८८ [समन्तभा, रत्नकरण्डक. १२२] २८७ [मगवती आराधना ११४, मूलाचार ३६५] १४५ [भगवती आराधना १७७८; उड़तेयं सर्वार्थसिद्धौ २-१.] ३४ गोम्मटसार [ जी का• १४२] [वसुनन्दि, प्राक्काथार ५८] २३६ समन्तभद्र, [र. श्रा० ] [तस्वार्थसूत्र-३०] २४५ [शानार्णव ३८-८] [ ! प्रविन्दु १२] श्रुति [ ! छान्दोग्य ६-३-१] १५६, १२२ [शुभचन्द, मानार्णव ४२-२७१४ ] - १६६ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कतिगेयाणुप्पैक्या ३९ २८९ २३१ ३४२ ૨૮૮ [उमास्यामि त० सू० १-२५] [षट्रप्राभृतटीकायामुघृतोऽयं लोकः ३-३१] [ भगवती आराधना २५२] [कुन्दकुन्द, नियमसार १.२] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४५] [वमुनन्दि, श्रावकाचार ३११] [गोम्मटसार जी० का ५८१] [गोम्मटसार जी. कां. १६] विसुनन्दि, श्रावकाचार ३.१] [ यशस्तिलक पृ. ३५८, मनुस्मृति ५-४०] [शानार्णव ३८-६५] [षखण्डागम पु. १, पृ.८] २१० २८५ ३१३ ३७४ ३७२ २५४ ३४९ रुशुभव मिश्रमिकर एकाप्रचिन्तानिरोधो एकादशके स्याने एकुतरसेठीए जाय य एगो मे सस्सदो अप्पा एतद्व्यसनपाताले एमेव होदि विदिओ एयद वियम्मि जे एयंतबुद्धदारसी एयारसम्मि ठाणे ओषध्यः पशवो ओं णमो अरइंताणमिति ओं णमो अरहताणं ओं हो ही है कण्ठदेशे स्थितः बड्जः कन्दर्प कौस्फुय्यं मौखर्य कम्मई दिवघणविकणई करचरणपुद्विसिरसाण कहो बोलो झंझा कलिलकलुषस्थिरत्वं करायमलविश्लेषात् क्यायविषयाहारत्यागो कंदस्स व मूलस्स व के मूछे [ मूले कंदै छालीपवाल कायस्सरगम्मि छिदो काउस्सग्गेण ठिओ शान्ताकमकरण काययोग तवस्त्यक्त्वा काययोगे ततः सूक्ष्म काययोगे स्थितिं कृत्वा कार्तिकेयमुखाज्जाता कार्य प्रति प्रयावीति कार्योत्पादः क्षयो हेतोः कासवासभगन्दरोदर कित्ती मेती माणस्स किदिकम्म पि करता क्रिमिकीटमिगोदादिभिः कुदेवखस्य भक्तश्च कुरजमातापतात [रनकरण्डकाषकाचार ८१७ [योगीन्दु, परमात्मप्रकाश १-७८ ] [वमुनन्दि, श्रावकाचार ३३८] [भगवतीभाराधना २३२] [शिवाय] भगवती आराधना [शुभयन्द्र, शानार्णव ४३-६] ४१ २६१, २७६, ३३१ [गोम्मटसार जी० को० १८८] [गोम्मटसार जी.क. १८७] [ सुनन्दि, श्रावकाचार २७६ 1 २४ ३८५ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-४९] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४९-५०] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-४८] र २०४ १५५ ३६. अष्टसहस्त्री [भाप्तमीमांसा ५८] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २५-३२] [भगवती आराधना १३९; मूलाचार ५-१९१] [मूलाचार ५-१९१] २७४ २३१ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केनोपायेन घातो भवति केवलणाणसहाको कौपीनोऽसौ शनिप्रतिमा कैवल्यबोधनोन् कृत्या पापसहस्राणि कृष्णमीलाद्यस श्या कृष्णलेश्याश्लोपेतं क्रमप्रवर्तिनी भारती करतादण्डपारुष्य क्षासिकमेकमनन्त क्षायोपशमिको भावः क्षुधा तृषा भयं देषो १८० -टीकोक्तपद्यादिसूची ४५३ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-७] [कुन्दकुन्द, नियमसार ९६] [षट्मामृतटीकायामुद्धृतोऽयं श्लोकः ३-२१] २८९ रविचन्द्र, आराधनासार ३९१ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४६] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २५-४० ] ३६१ [शुभचन्द्र] ज्ञानार्णव [२६-३६] २६३ २२२ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-३७] [ श्रुतभक्ति २९ [ शुभचन्द, ज्ञानार्णव २६-३९ ] ३६४ [एतत्सशःश्लोको यशस्तिलकचम्बामुपलभ्यते , पृ. २७४] २२५ [तत्त्वार्थसूत्र -२९] [ रखकरण्ठश्रावकाचारटीकायामपि ५-२४]२०३,२२५,२८३ लिब्धिसार ३] २११ [तिसोयपण्मनी १-९५, मूलाचार ५-३४. गोम्मटसार जी. का. ६.३] १४., १९५ [गोम्मटसार जी० को० ६४५] २१८ [ मूलाचार ५-१५५; भगवती माराधना २१५] २.४ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-८] [वसुनन्दि, श्रावकाचार ३१.] २८७ [ वसुनन्दि, श्रावकाचार २८९] [उद्धृतेयं गाथा सर्वार्थसिद्धौ ५-३०] १७३ [अमिताति, द्वात्रिंशतिका १] [घसुनन्दि, श्रावकाचार २८३] [मूलाचार २१६ ट. १८५, गोम्मटसार-जी-कां० क्षेत्रमास्तुहिरण्यस्वर्ण क्षेत्रं वास्तु धन धान्य खोचसमविसोहीदेसण संघ सयलसमस्य खीणे देसणमोहे जे खीरदधिसप्पितेलं ख्यातः श्रीसकल्पविकीर्ति गगनजलधरित्रीचारिणां गंपूण गुरुसमी गंतूण णियबगेह गुण इदि दवविहाणं गुणिषु प्रमोदम् गुरुपुरदो किरियम गूडसिरसंधिपच्वं [समन्तभद्र, र० श्री. १४७] २३. गृहतो मुनिवनमित्वा गोधूमसालिपववर्षय गोपृष्टान्तनमस्कारः गोयरपमाण वायग गोसवे सुरभि हन्यात गोहेमं गजवाजिभूमिमहिला प्रहणधिसतरण प्रामान्तरात्समानीत घणवाइकम्ममहणो धनं तु कांस्पतालादि [यशस्तिलक ६, पृ. २०२] यत्याचार [ मुलाचार ५-१५८] [१ यशसिलक ७, पृ. ३५८] २६३ २६२ [रमकरण्डश्रावकाचार १२.] [यक्षस्तिलक आ, ८,पृ. ४.४] [शानसार २८] २६४ १२१ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कतिपयाधुक्ता २८१ २६ ३५२ घाए धाइ असंखेजा चतुराहारविवर्जनमुपवासः बतुर्वर्णमय मचं चतुर्विधमार्तध्यान चत्तारि बारसमुक्सम चत्तारि मंगलं ३६१ [ रनकरण्डश्रावकाचार १०९] [शुभचन, ज्ञानार्णव २८-५१] चारित्रसारे [.. [गोम्मटसार क०६ ६१९] [दशभक्ति, ईयोपथ पृ. १६७ दशभक्त्यादिसंग्रह, वा. सं. २४६२] [त्रिलोकसार ५४७] ३९. ३२४ २६३ ३५८ [ शुभमन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-१६] [सनन्दिश्रावकाचार २३१] [वकर, मूलाचार ५-१५१] [गोम्मटसार जी का० ५८.] [वसुनन्दि, श्रावकाचार ५३.] [पश्वर्सग्रह १-१९३] rm F m4m २३४ १३३ १२४ वरया य परिव्वाजा चर्मनसरोमसिद्धः चंडो माणी थलो वित्तरागो भवेद्यस्य चिदानन्दमय शुद्ध पोरसमलपरिसुद्धं छहमदसमबुबालसेहि उहवाषट्ठाणं सरिस सम्मासाउगसेसे छन हेडिमासु पुडवी जघन्या अन्तरात्मानो जणणी अगणु वि कंतु जत्थ ग झापं मेयं जत्येक मरदिनीवो अदं चरे जद चिड़े अदि अपहे कोर जदि एवं ण चएको बस्स पदु आजसरसाणि जह उबई तह जाम्गेण वोतिणि अहिं [जत्य] न विसोशिय अं उप्पज्जइ दर्य कि पि परिदमिक्ख जेणियदव्यहं मिष्णु जह जा दबे होइ मई जिगवयपषम्म जीवएसेकेके कम्मपदसा जीवितमरणाशंसा जीविदरे कम्मचये पुण्णं सूर्य मजं मसं बेसा जे णिवईसण महिमहा जेती विखेतमा योगीन्द्रदेव [परमात्मप्रकाश १-८४] [आराधनासार ७८] [गोम्मटसार जी का. १९२] [मूलाचार १०-१२२; दशकालिक ४-८] [ वसुनन्दि, श्रावकाचार ३०६] [वमुलन्दि, श्रावकाचार ३०१] [पसुनन्दि, श्रावकाचार ५२९] [बसुनन्दि, श्रावकाचार २९.] . 4 MCGMRA. [भगवत्याराधना २१८] [मावसंग्रह ५७८] [यमुनन्दि, श्रावकाचार ३०४] परमात्मप्रकाश [१-११३] १३८ ३२१ [वसुनन्दि, श्रावकाचार २७५] २७४ [भावसंग्रह ३२५] [तत्वार्थसूत्र -३७] २७१ [गोम्मरसार जी को ६४२] १२८ [बसुनन्दि, श्रावकाचार ५९] [परमात्मप्रकाश १८६] [नेमिचन्द्र] मागमे गोम्मरसार जी-५५२२२] १४९,१५३ १३७ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ -टीकोक्तपद्यादिसूची [ मूलाचार ११-२] २७४ ६ बसुनन्दि, थावकाचार २७७ ] [मावसंग्रह ५१६] [समयसार १०] [समयसार ९] [ ज्ञानार्णव ३८-१३] [ रखकरण्डश्रावकाचार २५] ३५२ १३७, २३१ जोए करणे सष्णा जो धायइ सत्ताई जो पस्सइ समभावं जो पुण हुंतइ कण जो सुदणाणं सवं जो हि सुदेण भिगच्छति ज्ञानथीजं जगद्वन्ध ज्ञानं पूजा कुलं ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति ज्वलनवनविषात्र शाग्रह णियकरमजझे भएयपएसत्थो णमो अरहताणं जय चित५ देहत्थ ण य परिणमदि सायं पारतिरिय देसअयदा पानदुतर सत्तसया दससीदी पहरोमजनुअट्ठी णिकसक्यणार णि ययाममगसंसा णियमाहिकमलमझे जियमानं णव मुखर गिरयाउवा जहण्णा [शुभनन्द्र, ज्ञानार्णव २५-२५] ३६. [ज्ञानसार २० [नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी- का- ५७२ 1] १५३ [ षट्खण्डागम पु. १ पृ., बद्दद्व्य संग्रहटीका ४९ ] ३५० [ भावसंग्रह ६२८] [गोम्मटमार जी कां० ५६५ ] ११० त्रैलोक्यसार [५४५] ३२२ [ उत्तयं गाथा सर्वार्थसिद्धौ-१२:त्रिलोकसार ३३२] १२ {मूलाचार ६-६५] [वसुनन्दि, श्रावकाचार २३०] ३१३ [ज्ञानसार 19] [ कुन्दपन्द, नियमसर ९७] [उत्तेयं गाथा साडी २-17; धवलायां च प. खं. प्र. ४ पृ. ३३३] [ ? वमन्दि, श्रावकाचार २८६] [ वानन्दि, श्रावकाचारं २२७ ] [मूलाचार ९-३५] ३०९ १४० [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णय ४२-४७] [ज्ञानार्गव ३५-२६] [ रविचन्द्र, आराधनासार] णेदण किंनि रसि दुर्ण णियगेह तणस्क्व हरिदछेदण ततं वीणादिकं ज्ञेय ततः कमेण तेनंच ततोऽधन्दुसम कान्त नरपज्ज्ञानमुदामीन तय गर्छ ततो चउत्थसमये नथा माधुमुमत्यादिकीर्तिना नदन्वय श्रीमुखिपद्मनन्दी नदन्वय श्रीविजयादिकीर्तिः सद्गुणग्रामसंपूर्ण लद्रजः शीश्चमुख्य दास गवंगः सावः ३५१ ૨૭૮ ३८८ ३९६ ३९५ ३१५ शुभचन्द्र, का.. टीका, प्रशस्ति ५ शुभचन्द, का.मे. टीका, प्रशस्ति ३ शुभचन्द्र, का. प्रे. टीका, प्रशस्ति ४ [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-१२] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णय ३४-२३] [प्रभचन्द्र, मानार्णव ४२-४५] ३७८ ३७६ ३८॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कसिगेयाणुप्पेक्खा ३७८ [शुभचन्द्र, शानार्णव ४०-२९] [ तत्वार्थसूत्र ९-३] योगीन्द्रदेव [परमात्मप्रकाश १-८३1 [ोम्मटसार जी० कां० १५७] [गोम्मटसार जी. कां. २०५] [गोम्मटसार जी० का १७५] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-५३] GK AAAAAM [देवसेन, भावसंग्रह ५२०] २२० ३०७ [गोम्मटसार जी का० १६१] [गोम्मटसार १२२] [ मूलाचार -१०५] [ज्ञानसूर्योदयनाटकेऽपि उदधृतोऽये श्लोकः, पत्र २७] ३०८ [भावपाहुट ५३ ] गन्धराधना तबासौ निश्चलोऽभूतों तपसा निजेरा छ तरुणन बूढङ स्यहाउ दललीधुनि- ससरा सिपुत दिमादी तसहीणो संसारी तस्सिव क्षणे साक्षात् ते पुष्प अहिणाशु तंदूमगंभपुष्कर सा देहो ता पाया ताबन्द्रबलं सती ग्रहचलं सावन्महत्वं पाण्डिसं तिगुमा सत्तगुणाका तिणि समा छलीसा तिविहं तियरणसद्ध तुरगणधरलं गर्भ तुसमासं पोसतो तद पियरो मह पियरों सेभो पुरुसामारों तेन भ्यानोत्पनीरेण सेन श्रीशुभचन्द्रण तोवत्यनिरपि जत्यहिरपि विसमाइतिर्षनः कास्य द्रव्यपदक थावर संसपिपीलिम पोस्सामि है जिणवरे दण्डपमाण बहलं देखजुगे ओरल देसममोहक्शवणापछयगो दसणमोहुषसमदो देसपमोहदयादो दसणमोहे सविहे दिग्पलेषु ततोऽन्येषु दिवलय परिगणितं दिपपरियधीरचारया दिनकर किरणनिकर दिवसो धक्सोमासो विवा पश्यति नो घूकः सुक्खाइ कारणि जे विसम दुचरियं बोस्सरामि शुभयन्त्र, का. . टीका, प्रशविर ३९५ [सूक्तिमुक्तावलि ४.] ३२६ [लीलावती!] शक [षदखण्डागम पु. १. पृ. १२९] २२९ [गोम्मरसार जी. का. १७४] [ तीर्थंकरस्तुति १ (प्रा. बोस्सामि. थुदि)] २७३ ३८८ [ पञ्चसंग्रह १-१९९] ३८८ [ मोम्मटसार ६४८] [गोम्मटसार जी को ६४९1 [गोम्मटसार जी० कां० ६४८] [गोम्मटसार जी का ६४५-१; लब्धिसार १६४] ११९ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४०] ३७२ [समन्तभद्र, र.धा. ६८] [यमुनन्दि, श्रावकाचार ३१२] २८९ [ दशभक्ति, योगिभक्ति३] [नेमिचन्द्र, गोम्मटसार जी० ५७५] २१% २२० योगददेव [ परमात्मप्रकाश १-८५] १२४ [शभक्ति, कृतिकर्म, पृ. १५1( मराठी शभकि) २७३ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --टीकोक्तपधादिमी कल्पे [कल्पसूत्र, सामाचारी सूत्र, १५,२५] दुद्धं पहियं णवणीय दुर्गतापायुषो बन्धे दुर्गन्धे चमंगते गणमुसशिखरे दुर्णयकान्तमारुता १६०,१९० [आलापपद्धति ८] [त्रिलोकसार ५४३ j ។។។ [कानसूर्योदयनाटकेऽप्युदतेय गाथा, पत्र २६] [परमात्मप्रकाश १८८] [ज्ञानार्णव ३८-९] ३२६ [सागारधर्मामृतदीकायाम् ७-२०, चारित्रसार पृ. २२] २९. वसनन्दि, श्रावकाचार ३२] [परमात्मप्रकाश १४] १३. [ देवसेन, भावसंग्रह '५१५] २६५ २१५, २३३ ३८३ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-२५] अष्टसहस्री [आप्तमीमांसा ७१] ११९ १८७ देवगुरुधम्मकले देवहूँ सत्य देवासुरमतं मिथ्या देवीणं देवाण देशप्रत्यक्षविकेवल बेहतवणियमसंजम देहविभिषणउ पाणमउ घेहाशुचिं खेतसि भावयन्वं देहो पाणा रूर्व घृतं मासे सुरा वेश्या व्य चेक गुणं चैक द्रवपर्याययोरैक्यं इन्माणां तु यथारूपं द्वारसतिपिलीयन्ते द्विपश्यतुष्पदसारं धनधान्यादिअन्य परिमाय धनश्रीसत्वघोषौ च धम्माधम्माजीणं अम्मिलाणवणयणं धम्मे वासयजोगे धम्मो मंगलमुकिलु धम्मो पत्थुसहाचो धर्मध्यानविशेषा धर्मध्यानस्य विझेया धर्मस्य मूल दया धर्म सधर्मदातार धर्मः सर्वसुखाकरो धर्माधर्मनभःकाला धर्मामृतं सतृष्णः धर्मेषु स्वामिसेवायां घात्री बाला सती नाथ न च परदारान् गच्छति न सभ्यक्त्वसमै किचित् मानाखभावसंयुके भासाकण्ठमुरतालु खा.का.स. २ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-५२] [शुभचन्द, ज्ञानाव २६-२७] [रमकरण्डश्रावकाचार ६१] [ रनकरण्डश्रावकाचार ६५] [गोम्मदसार जी0 का० ५६८] [ वसनन्दि, श्रावकाचार ३०२] १५. दशसक्ति, (प्राकृत) चारित्रभक्ति, क्षे.५] ३.९, ३२५ [खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ४५८] ३९३ २२५ [चारिप्रसार पृ.१] २१२ २२५,३२४ १५४ [चारित्रसार पृ. 1, दशभक्ति, चारित्रभक्ति, क्षे. [आलापपद्धति २] [ रत्नकरण्डश्रावकाचार १.८] [यशसिलक ८, पृ. ४०५] २६२ २६६ [ रखकरण्डश्रावकाचार ५९] [रनकरण्डथावकाचार ३४] [ आलाएपद्धति १.] १८५ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ -करियाणुप्पेरला ३५१ तस्वार्थस्त्र [वृत्ति ५-६] [बाप्तमीमांसा १०८] [भालापपति] १६., १९१ १२३ नासाग्रे निश्चल बापि मास्ति अस्य किचन निरपेक्षा नया मिथ्या निर्षिशेष हि सामान्य निवादं कुलरों वापि निषादर्षमगान्धार निकलः परमात्माई निमल्यो ब्रजी नृणामुरसि मन्द्रस्तु नेत्रदन्दे श्रवणयुगळे -नेह मानास्ति १२३ [अमरकोश ६-१] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-३०१] [ तत्वार्थसूत्र ७-१८] ३०३ १२३ २७७ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३०-१३] [गृहदारण्यक ४-४-१९, सर्व चै सल्विदं ब्रा नेह नानास्ति किंचन प्र. भा. २-१२] [वसुनन्दि, श्रावकाचार ३०४ ] [वसुनन्दि, श्रावकाचार २८२] [वनुनन्दि, श्रावकाचार २८७] गोम्मटसार [जी. का. १५८] नैमिनम, [गोमाता जी...१०] गोम्मटसार [बी कां० १९९] [शुमचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-३०] -७४ ३७२ १२३ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३५-५५] [करण्डश्रावकाचार १०७] [वसनन्दि, श्रापकाचार २२५] [वसनन्दि, श्रावकाचार ३३९] गोम्मटसार मी.कां. १४४] [ संग्रह १-१९७] ३४९ पक्खालिदूण पत्तं पक्वालिदूण क्यम् पसे अद्विता पजतमणुस्साण तिचउत्थो पजाम य उदये पजत्ती पहरणं जुगर्व पागुरुनमस्कारलक्षणं पानामश्च मुखे यस्ताछ पापर्णमयी विद्या पद्यानो पापानामल किया पहिमहमुचट्टाणं परिजगणेहिं तणुजोय पढमुषसमसहिदाए पढमे दंचं कुपद पहमे पठन णियमा पदमे सत्त सि छवं पथक्षीस सोल छप्पण पत्तस्स दायगस्स पत्त बियपरदारे पदस्थं मनवाक्य पदान्यालम्ब्य पुण्यानि पखव्येषु सर्वेषु परस्परोपग्रहो बीवानाम् परे केवलिनः परे मोक्षहेतू पर्वम्याटम्यां च ज्ञातव्यः पव्वेन इरिथमेवा पंचवर्ण कोडीण त्रैलोक्यसार [ २०१] [व्यसंग्रह ४५] [भगवती आराधना २२१] [सुनन्दि, श्रावकाचार २२६] રૂ૮૮ २१८ १०९ २७३, ३७० ፡ २६३ शानार्णव ३०-13 ३७० ३२८ [तस्वार्थ ] सूत्रे[५-२11 [तस्वार्थस्त्र ९-३८ [तरवार्थसूत्र ९-२९] समन्तमद्रस्वामि, [रस्नकरणश्रावकाचार १०६] [वमुनन्दि, श्रावकाचार २१३] ३५८ ३५० २६२ २४५ ३०४ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ ຊ ານ ३११ -टीकोक्तपादिसूची[गोम्मटसार मी. का. १३८] २३४ यसनन्दि [ श्रावकाचार २०५] २३६ २६३ [वसनन्दि, धावकाचार २२०] योगेन्द्रदेव [ परमात्मप्रकाश १९.] [बसुनन्दि, श्रावकाचार ३०० २८५ गोम्मटसार [१२४] [गोम्मटसार जी. का. ६.१,बसनन्दिवावकाचार १८] १३९ [मूलाकार ९-३६] ३०१ [परमात्मप्रकाश १८७] [शुभचन्द, ज्ञानार्णव २५-३५] २६३ २२० [घसुनन्दि, श्रावकाचार २२९] २८८ वसनन्दि [श्रावकाचार २१४] १४१ [? वसुनन्दि, श्रावकाचार २८८] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-३०] [अष्टाध्यायी १, ४, १.६] [एकीभावस्तोत्र १२] आर्षे [जिनसेन, महापुराण २१-३६] ३६१ [तस्वार्थसूत्र ९-२०] [शानार्णव ३८-६५] २७४ भगवती साराधना [२११] [तत्वार्यस्त्र ७-२५] २२९ [तरवार्थसूत्र १-१६ त्रैलोक्यसार [३] [शुभमन्द्र, ज्ञानार्णव २६-२९] [गोम्मटसार जी. का. ६.२] [गोम्मटसार जी. का. १७६] २६३ २७४ पच वि इंदियपाणा पंयतु थारवियले पंचेबरसहिदाई पानापाने समायाते पादोदयं पवितं पाचे णारव तिरिट पुढो बापुडो वा पुढविदगागणिमारुद पुत्वीजलं च छाया पुलवीय समारंभ पुण्णेण होइ बिहवो पुण्यानुष्ठानजातैरमिलपति पुत्रदारादिभिर्दोषे पुदलपरिवार्य परतो पुप्फंजलिं खिवित्ता पुग्धमुहो होदि जिणो पुस्तकासापामा पुष्युत्तविहाणेणं पृथग्भावमतिक्रम्य प्रहासे भन्योपपदे प्रापई तब जुतिपदैः प्राध्यप्रायोमैनोश प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्य प्रोथस्सपूर्णचन्द्राभ बत्तीस किर कवला बन्यवधछेदाति बहुबहुविधक्षिप्रानिःसत बहुमजादेसभागम्हि रहारम्भपरिग्रहेषु बावरवादरचादर जायरसहुमा सेसि बालय णिसुण वर्ण बामपन्थविहीना मायेचु शम वस्तु बीमो भागो गेहे बेसत क्सय चोइस गेधेन दुर्लभत्त्वं प्रवीति मध्यमं कीमो ब्रह्मचारी गृहस्थश्व ३७८ ३२४ ३६३ २८३ [रत्नकरण्डश्रावकाचार १४५] [ भावसंग्रह ५७९] [मूलाचार १२-७८, जंबूरीवपण्णत्ती ११-३५३] २८३ २०. १.४ २०४ १२३ उपासकाध्ययने [ आदिपुराण ३५-१५२, सागरपमभूितटीकायामुतोऽयं लोकः -२०] Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० -कसिगेयाणुप्पेत्ता [एतत्समशः श्लोकः ज्ञानार्णवे (१८-११)] ३७१ ३९६ १२ २९१ कुन्दकुन्द, मोक्षप्रामृत [७६] [शानार्णव ३५-१९] ७५ ३७७ [गोम्मटसार जी. का. ६०७] ४० [ देवसेन, भावसंग्रह ५१८] ३७१ २८७ [वसनन्दि, श्रापकाचार ३०३ 1 [तस्वार्थसार पीठिका ४५] [शुभचन्द्र, शामाणष २५-३४] ३६. ३७४ [ज्ञानार्णव ३८-६९] [अमचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-५५] [भाषसंग्रह ५..] [वसुनन्दि, धावकाचार २९१] ब्रह्मा कैविसरिः कश्चिद भधरकपदाधीचा भडारक श्रीशुभचन्द्रदेव भरहे. दुस्समकाले भस्मभावमसौ नीत्वा माउन्जा मि सुमं वा भामण्डलादियुक्तस्य भासमणवागणारे नि जिनं जगति कर्म भुक्खसमा ण हु पाही भुक्तिमुस्यादिदातार भुजेदि पाणिपत्तम्मि भेदेनैवमुपानीय मोगा भोगीन्द्रसेव्याः भोजने षड्से पाने प्रमन्त प्रतिपत्रेषु मङ्गलशरणोत्तमपद मज्यिमपते मजिसम मणषयणकायकद मत्तेमकुम्भवलने भुवि मधमासमधुरत्यागः मनोवचनकायकमैगाम् मनभूता किलादाय भमति यनिवजामि मरणसम त्यि भयं मरतु व जीवहु मलगी मलयोनि मलिनं मलसगेन मस्तके बदने कण्ठे मातशोधमदेवध मानखंभाः सर्रालि माया तिर्यम्पोनिषेति मा सहमा तुसह मिच्छत वेदरागा तहेर मिच्छादिट्टी पुरिसो मिथ्यात्ववेदहास्यादि निध्योपदेशरहोभ्याख्यान मुख्योपचारमेवेम मुणिमण गुरुवकर्ज मुहभूमीजोगद २१३ ३७१ [एतस्सदशः श्लोकः शानार्णवे (३८-१२)] कुन्दकुन्द, नियमसार ९९] २६५ [श्ववमसार ३-१४ [रमकरणश्रावकाचार १४३] २८२ [अनगारधर्मामृत २-५९] २१६ ३७२, २७६ [रजकरसश्रावकाचार १४] [महापुराण २३-१९२] ३७६ [तस्वार्थस्त्र -१६] ३९२ [मूलाचार ५-२१% भगवती आराधना १११८] ३५४ [भाषसंग्रह ४९९] २०३, २०३ [तस्वार्थसूत्र -२६] २४१ [तत्वानुशासन ४७] [वसुनन्दि, श्रावकाचार २९१] ५८ AP Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 मूढत्रयं मदश्वाष्टी मूर्ती व्यक्शनपर्यायो मूलफलशाकशाखा मूलमापोरवीजा मूलसरीर मछंडिय मूले कंदेलवाल मैथुनाचरणे मूढाः मोण वत्थमेतं मोहात् रचिणं भवनं मोहेन सह दुर्धर्षे लक्षणियां नया यचौर्याय शरीरिणामद्दरदः यज्ञार्थं पशयः सृष्ठाः यत्पुनर्वज्रकायस्थ यदायुरधिकानि यः प्रमाणनयैननं यः सर्वाणि चराचराणि ये बध्यन्ते प्रकृतिनिचया योगदुःप्रणिधाना योग्यकालासनस्थान यो न च याति विकार यो निधि भुक्तिं योऽनुप्रेक्षां क्षितौ ख्याती मणिमयहि ठिका राजेश्वर्य कलत्रबान्धव रात्रिम कमतः रू झाणं दुविहं लघुपञ्चाक्षरोचारकाल लवणं वारुणतियमिदि लक्ष्मीचन्द्रगुरुः स्वामी लाभ लोभ भयद्वेषैर्व्यलीकं लतिकप्पे तेरस किंगम्मिय इत्मी लोकपूरणमासाद्य लोकाप्रति रासीनं लोगागासपदेये लोयबहुम - टीकोक्त पद्यादिसूची [ ज्ञानार्णवे ( इ. ९३) आत्मानुशासन टीकार्या (१०) तोऽयं श्लोकः ] [ रनकरण्ड श्रावकाचार १४१ ] [मूलाचार २१३ ], गोम्मटसार [जी. कां. १८५] [ गोम्मटसार जी. कां. ६६७] [ गोम्मटसार जी, को. १८७ ] [ ज्ञानार्णव १३-२१] [ वसुनन्दि, श्रावकाचार २९९ ] [ शुभचन्द्र ], ज्ञानार्णव [ ४२-४० [[बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र ६१] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-२५] [ यशस्तिलक ७, पृ. ३५७: मनुस्मृति ५-३९] तत्वानुशासन [४] [ शुभचन्त्र, ज्ञानार्थैव ४२-४३] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३०-२१] [ तवार्थसूत्र ७-३३ [ अनगारधर्मामृत ८-७८ ] [ समन्तभद्र, रत्नकरण्ड०५-२११] [ सुनन्दि, श्रावकाचार २८५ ] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २५२९] चारित्रसार पृ. [१९] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-५९ ] त्रैलोक्यसार [३१९] शुभचन्द्र का० प्रे० टीका, प्रशस्ति ११ [ सूत्रप्रामृत २४ ] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-४६३ २१५, २३० १५४ २७८ 拿我 [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-२३] [ सर्वार्थसिद्धावुते गाथा ५-३९; गोम्मटसार जी.कां. ५८८ ] त्रिलोकप्रज्ञप्ति [ २-६] ११५ ६६ २८० २८३ ३३१ ૨૪ १८७ ३६३ ३१३ ३९२ ३८४ ३७९ २१३ ५४ २५९ २५७ ૨૦૨ ૨૮૦ २१२ ૨૦૦ ३६० २८० ३७७ ३८६ ८१ २४० २२० ૩૮૦ ३८५ ३७८ १५० ६१ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર वदसमिदिकसायाणं वरं नरकवासोऽपि वर्णद्वयं श्रुतस्क श्रीक्षेमचन्द्रेण ववारी पुणकालो बहारो पुण तिविहो परत्वेकं पूर्वंश्रुतवेदी वहिनीजसभाका वाचायमानसानां वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षा बादत वा . कायणगुण वाण्या जलदवातं वासुपूज्यसभा विकलयति कलाकुशलं विकड़ा तह य कसाया विचार्येति गुणान्स्वस्य विणओ मोक्खद्दारं वितस्त्यन्तरपादाभ्रं विविश्वपपुण्णजणं वितिचपमाण विद्यन्ते कति नात्मवोध विद्या षड्वर्णसंभूतामजन्य विधाय वञ्चकं शास्त्रं विधिद्रव्यदातृ विनिर्गतमधूच्छिष्ट मिडाए अवियडाए विलय वीतरागस्य विधरं पंचमसमये विव विरसे विद्धं विस्फुरन्तमतिस्फीत विस्फुलिनिभे नेत्रे विदावलिलोगाणं वीवारोऽभ्यञ्जन वीरचर्या च सूर्य • वृक्षमूलाश्रावकाश व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः व्याघव्याल जलानलादि व्योमा कारमनाकार व्रजन्तै तालुरन्ध्रेण -करिगेयाणुप्येक्ला - [ गोम्मटसार जी. कां. ४६४ ] 'परमात्मप्रकाशटीकायामयुतोऽयं श्लोकः १८५ ] [? शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-५२] शुभचन्द्र, का० प्रे० टीका, प्रशस्ति ७ गोम्मटसार [जी. की. ५७६] [गोम्मटसार जी. को. ५७७] रविचन्द्र आराधनासार [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३७-१७] [ रनकरण्ड श्रावकाचार १०५] [ तत्वार्थसूत्र ९-२५] [ वसुनन्दि, श्रावकाचार २८४ ] [ दशभक्ति, निर्वाणभक्ति, पृ. २४७, [ गोम्मटसार जी. को. ३४] [? शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-१८] [ भगवती आराधना १२९, मूलाचार ५~१८९] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-५० ] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६- १७] [ तत्वार्थसूत्र ७-३९] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-२५] [ भगवती आराधना २२९ ] सोलापुर ] મૈં ૮ २४६ [ आदिपुराण १८-३] ३५६ [ तियोयण ५-३१८] गोम्मटसार [जी. कॉ. ९६] ११४ [गोम्मटसार १७७ ९४ [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-५४ ] [ पंचसंग्रह १-१९८ ] [ यशस्तिलक ८, पृ. ४०४ ] [ ज्ञानार्णन ३०-६० ] { शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-३८] गोम्मटसार [जी. को. २०९] [ तत्वार्थसूत्र ९-४४] २०३ ३११ ३७३ ३९५ १५४ १५५ ३९९ ३७५ २६० [टीकायामुद्धृतोऽयं श्लोकः २१] चारित्रसार [१०] [ सर्वार्थसिद्धौ (५-३७) उद्भुतमिदम् ] [ सूक्तिमुक्तावलि ३८] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-२२] [शानाच ३८-७० ] ३५३ ३८८ २७७ ३७६ ३९५ ३०७ ૨ २०१ ३७२ ३६२ २६७ ३७८ ३३६ ३८५ ૧૮૯ २६४ ૫૪ ३६४ ८५ ૮૭ २८९ ३४० ३५८ ३२६ ३७८ * Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -रीकोक्तपद्यादिसूची [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २५-४३] [शुभबन्द्र, शानार्णव ३८-४७] गोम्मटसार [जी. कां. १६१] भगवत्याराधनाटीका [तत्त्वार्थसूत्र-३७] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-५*१] शुभचन्द्र, का. अ.टी. [१ शुभचन्द्र, ज्ञानाव, ४२-४२] हरविचन्द्र, आराधनासार [यशस्तिलक ८, पृ. ४०४] ३८४ ३२१ २६३ ३७२ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४१] शुभचन्द्र, का. प्रेटीका, प्रशस्ति ६ शुमचन्द्र, काप्रे० टीका, प्रशस्ति २ [तस्वार्थसूत्र २-२१] रविचन्द्र [तत्त्वार्थसूत्र १०-२] ३९५ १८३ २३४ २११ १९. १५१ शहाशोकमयप्रमाद शतमष्टोत्तरे चास्य शतारसाहासार धाम्मुखर्यमुहरयो हरिणेक्षणाना हुकसिंहाणकरलेम गुरु चाद्ये पूर्वविदः शुश्विगुणयोगछुक शुभचन्द्र जिनं नवा शेषे षण्मासायुपि शैलिक्षितामुपेतो अदाइष्टिभक्ति श्रद्धाभक्तिरलोलवं नियमात्यन्तिकी प्राप्ता श्रीमविक्रमभूपतेः श्रीमूलसंघऽजनि श्रुतमनिन्द्रियस्य षटुखधःपृथ्वीषु सकलकर्मविप्रमोक्षो सकलवस्तुप्राहक सकदुचारितोयन सगसगअसंखभागो स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा सचित्तनिक्षेपापिधान सवितसंबंध स जयतु शुभचन्द्रश्चन्द्रवत् सत्त दिणा छम्मासा सत्तमितेरसिदिवसम्मि सदुष्णे काजिके शुद्ध सध्याचप्रमत्तान्ता सदो बंघो सुहुमो सपृथक्त्ववितकान्वित सप्तधातुविनिर्मुक्त समता सर्वभूतेषु समयो हु वक्ष्माणो सम्मत्त देसजर्म सम्मत्तं सण्याण सम्माविट्ठी पुरिसो सम्यक्त्वं च सम्यग्दशेनशुद्धा सरागसेयमासंयम ९२ [एतत्सरशः लाकः शानार्णवे ३८-१४ उपलभ्यते] [गोम्मटसार, जी. का. २०६] उमाखामिदेव [त. सू. ९-२] [ तत्त्वार्थ सूत्र -२६] [ तत्त्वार्थसूत्र -३५] गोम्मटसार [ जी. का. १४३] [वसनन्दि, श्रावकाचार २८१] २७ २६१ नेमियन्त्र, [द्रव्यसंग्रह १६] रविचन्द्र, आराधनासार... [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३९-३] २५८ १५५ २२१ [गोम्मदसार, जी. को. ५७८] [गोम्मटसार, क. का. ६१८] [कुन्दकुन्द, मो. प्रा. १०४, द्वा० अ० १३ ] [भावसंमह ५०३] [तत्त्वार्थसूत्र ६-११] समन्तभद्र रि. श्रा. ३५] [रमार्थसूत्र ६-२०] २६७ २१. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कतिगेयाणुष्पेक्खा [ तत्वार्थसूत्र १-२९] १८० १६६ सर्वद्रव्यपर्याय सर्वमाहारमश्नाति सर्वस्योभयरूपत्वे सर्वशः 'प्रोणकर्मामी सर्वाषयवसपूर्ण सर्वानवपरित्यक्तं सर्वातिशयसंपूर्ण सर्वेऽपि पुद्गलाः खल्वेकेन [अष्टसहन्यामुढतोऽयं श्लोकः पृ. ९२] [शुभचन्द्र, शानार्णच ४२-४१] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४०-२६] [शुभचन्द्र, शानार्णव ३५-२] [सर्वार्थसिद्धौ (२-१.) उतैका गाथा तत्सदृशी] [अष्टाध्यायी ६,१, १.१] ३७० सर्वेण सह वीर्घः स बरे संवरं सारं सम्बट्टो ति सुदिट्ठी सध्वम्हि लोयखेत्ते ससमयमावलिअवर सहभाविनो गुणाः संघस्स कारणेणं संजमविरईणं को मेदो १५३ १७१ [ त्रिलोकसार ५४६ ] [कुन्दकुन्द, द्वादशानुप्रेक्षा २६] [नेमिचन्द, गोम्मटसार जी० ५७४*1] [आलापपद्धति, प्रथम गुच्छक पृ. १६.] [शानसूर्योदयनाटकेऽप्युद्धतेयं गाथा पत्र २६] [षट्रखण्डागम ] वर्गणानण्ड [पृ. १४; चारित्रसार पृ. २.] अष्टसहस्री [भाशमीमांसा ७२] अष्टसइसी [आप्तमीमांसा २९] [वसनन्दिश्रावकाचार ३४.] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २५-३९] तरक्षार्थसूत्र [वृत्ति ९-६] [चारित्रसार पृ.३] ११९ २४९ २३१ संज्ञासंख्याविशेषाच संतानः समुदायश्च संथारसोहणेहि य संयतासंयतेष्वेतत् संयमिनी योग्य संवेगो निर्वेदो निन्दा संसरत्यन्त्र संसारे संसारम्मि वि विहिणा सालोकानां त्रिलोकाना सावजकरणजोग साहारणमाहारो साहियसहस्समेकं वारं सिग्छ लाहालाहो सिम्हाणुवणगैध सिद्धसरूर्व सायदि सिद्ध शुद्ध जिनं नत्वा सिना सिविं मम सिद्धिरनेकान्तात सिद्धेः सौर्य समारोद्यमियं सिद्धो हं सुदो ई सीदी सही चालं सूकुलजन्म विभूतिरनेकधा [रनकरण्डश्रावकाचार १] वसुनन्दि, अत्याचार [ मूलाचार ९-३४] [गोम्मटसार जी, कां १९२] गोम्मटसार [जी. का. ९५] [वक्षनन्दि, श्रावकाचार ३.५] [सुनन्दि, श्रावकाचार २९३ ] [ वसुनन्दि, श्रावकाचार २७८ ] २५४ [चतुर्विंशतिस्तव ८] पूज्यपाद, जैनेन्द [व्याकरण १, १, १] [शुभचन्द्र, ज्ञानाणेव ३८-५८]. [तत्त्वसार १- ] गोम्मटसार [ जी. को. १२३] २७३ १५९ ३७३ १४७ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -टीकोक्तपधादिसूची [भगवती आराधना २३१] २०४ १२ सुण्णघरगिरिगुहा सुशुभचन्द्रकृता सुहमणिगोदअपनत्तयस्य सुहुमेसु संखभागं सूक्ष्मक्रिय ततो सूक्ष्मप्रतिक्षणध्वंसी सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्रं सूक्ष्म जिनोदितं वाक्यं सूरिश्रीशुभचन्द्रेण सूर्योध्यों ग्रहणस्नानं सेढी सई अंगुल आदिम सेयंबरो वा दियंवरो सेनाकषिवाणिज्य सेसा जे बे भाषा सोद्दिष्टपिण्डोपधिशयन सोमाय इंसानालमेत २३० गोन्मटसार [ जी. को, ३७७ ] [गोम्मटसार जी. कॉ. २०७] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-५१] १९५ [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३३-७१, आलापपदति ५] २२९ [आलापपद्धति ५] शुभचन्द्र, का.प्रे. टीका, प्रशस्ति ५ ३९५ [प्रशस्तिलक , पृ. २८३] गोम्मटसार [जी. का. १५६] ३०८ [रनकरण्डश्रावकाचार १४४ ] २८२ [भावसंग्रह ५८०) चारित्रसार [पृ. १९] २८९ [शुक्र-] यजुर्वेद [पृ. ४५१-२, ५२०-२३, ज्ञान सूर्योदयनाटकेऽयुद्धतोऽयं संदर्भः पत्र २२] ३१३ [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णच ४०-२८] [तत्वार्थसूत्र ७-२७] २४२ [अनगारधर्मामृत २-५७] २१६ [तत्वार्थसून ४-२८] १०५ [रत्नकरण्डश्रावकाचार ५५] . २४० सोऽहं सकलवित् स्तनप्रयोगतदाहृतादान स्थान एव स्थित स्थितिरसरनाग स्थूलमलीकं न वदति सानभूषणवत्रादौ स्फुरद्विमलचन्द्रामे स्मर मत्रपदोता सरेन्दुमण्डलाकारं स्थाहादकेवलज्ञाने खकारितेऽहं त्यादी खर्णगौरी स्वरोद्भुतां खार्थव्यवसायात्मकं खोरिष्टपिण्डोपधि इवं गोरज इ हउं वरु बमणु हते निःपीडिते हारस्य हारो हिंसाकर्मणि कौशल हेतौ सर्वाः प्रायः हेमाजकीर्णकासीनं होऊण सई चेय [शुभचन्द्र, झानाभव ३८-३९] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४०] [ज्ञानार्णव ३८-६४] समन्तभद्र, [ आप्तमीमांसा १०५] [अनगारधर्मामृत २-५८] [शानार्णव ३८-६६] मार्तण्डे [ परीक्षामुख १] चारित्रसारे [पृ. १९] योगीन्द्रदेव, [ परमात्मप्रकाश १-८१] योगीन्द्रदेव, [ परमात्मप्रकाश १-८२] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-४] [लीलावती?] [ शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २६-६] जैनेन्द्रव्याकरण [१,४,४.] ३ १८८ २१६ ३७४ १७९ २८९ १२४ १२४ ३६१ ३६२ १४१ ३७१ वसुनन्दि [ श्रावकाचार २५४] २७४ खा. का. स. ३ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दसूची २८७ २९४ ३५७, ३६९ इ. २८९ २३६ २६२, २६७ १४६-४७ २७३ २८९ २१७ २९. २५०-५४ ३५५ ३२८ १६८ २१७, २८१ २९९, ३३० ३०२ २९९, ३३५ १९१ २८४ ३१५ १५९ সদস্বর্গ अचौर्य, अस्तेय अजीवविचय अणुमत अतिथिसंविभाग अधर्म अघःकरण भनगार अनर्थदण्ड अमर्थविरति अनशन अनित्यानुप्रेक्षा अनिवृत्तिकरण अनुप्रेक्षा अनुमान अनुमोदनविरति अनेकान्त अन्यत्वामुप्रेक्षा अपण्यान अपायविचय अपूर्वकरण अमूढदृष्टि अर्थ अर्वनय अवधि भवमोदर्य अशरणानुप्रेक्षा अशुबित्यानुप्रेक्षा असंझिन् अस्तेय अहिंसा आकाश आकिंचन्य आप्रेमी आशाविषय भारम्भ भारम्भपिरति आराधना आर्जन आर्तध्यान आर्यकर्मन् भालोचना आवर्त आश्रम आखदानुप्रेक्षा इक्षिणी इन्द्रिय उत्पाद उत्पादन उदरानिशमन उद्गमदोष उदिष्टविरति उपगृहन उपसर्ग उपाधि उपायविचय ऋजुसूत्र ऋद्धि ऋषि एकत्वानुप्रेक्षा एकान्त एवंभूत एषणा एषणादोष मों कषाय कामचेष्टा कायक्लेश कायोत्सर्म २५० २६७ २१७ ३१६ २३०, २७१ इ. ३८ इ. १८१ ३३१ ६८ २८१ २३७ इ. १४७ इ. ३०४-५ काल २५३, ३४१ १४९३., १५३ १७४, २१७ २६७, ३६९ २३१ २८२ काललब्धि क्रियाकरण क्षमा गन्ध २९१ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पारिभाषिक शब्दसूची ४६७ १३१, ३५५, ३६४-५६, ३१७ इ. गुण गुणवत गुणस्थान २४७ धर्मष्यान घान्य ध्यान १६९, १७१ २३६, २४८ इ. ३६१ गुप्ति YV १८५, १८७-८ इ., १९२ ८२३. १४-८ २०४ ३.७ गोचर प्रह चारित्र चार्वाक छेद जीव जीवविचय नय नारक नास्तिक निगोद निदान निर्जरा निर्जरानुप्रेक्षा निर्विचिकित्सा निःकोक्षित निःशहित ११९-२१, २१३, २९६ ३१६ ६२ इ., ६५ इ., १२९ इ., २०४ ३१३-१४ १८१ नैगम १९४ ११४-14, १७५, १८० ३७.इ. वियक २०३, २२४, २८३, ३५४ २४६-४७,२८२ त्याग शानादेतवादिन् नैयायिक ज्योतिष्क १११ पदस्थ तफ्स् ४९ इ., २११. ३०३, ३१५ इ., ३९३ परमाणु परिग्रह परिप्राह विरति प्रस परिवर्तन असनाटी परिहार दण्डक परीषह दति २९. पर्याप्ति दांत पयोय दान पर्यायार्थिकनय दिगम्बर ३१४ पात्र दिग्विरति २४८ पापोपदेश दिग्नत २४९ पार्थिवी पिण्डस्थ दुःश्रुति २५२ पिशाच पुण्य वेशवत पुदल देशावकाशिक २६८. पूजा दोष २२४ प्रतिक्रमण द्रव्य १६९ प्रतिमा द्रष्याम्किनय १९२-३ प्रत्येक धर्म ३९, ४५, १४६-४, २१४, २२४, ३.४, प्रभावना ३२३, ३६५ । प्रमाण ६४,७२-३ इ. १७३ १९३-४. २६३ २५१ ३.. . ३१० १३९, १४१ २८९ ३४१, ३४ ३१० Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ऋत्तिगेयाणुप्रोक्खा पृ. योगिनी ३४२ २५१ रस ३३४ २७९ ३४०, ३४५ प्रमाद प्रमादचर्या प्राण प्रायचित्त प्रायोपगमन प्रासुक प्रोषधप्रतिमा प्रोषधोपवास बादर रसपरित्याग रात्रिभोजनविरति रूपस्थ रौद्र ३५५, ३६२ लब्धि २७४ २६१-२ ६२, १३९ ३०८ २४३, २४५, २८०, ३०५ लेश्या २०७ लोक लोकानुप्रेक्षा १४१ ३१८ ब्रह्मचर्य ब्रह्मचारिन् ब्रह्माद्वैत ब्रह्मन् भकप्रत्याख्यान भय भवविषय भवनवासिन् २३, २१३, २२५ ३५५ ३६७-८ २९० ३३४ भूत भोगोपभोगपरिमाण भ्रमराहार १९१ वात्सल्य पारुणी विनय विषाकविचय विरागविषय विविवाशय्यासन क्वेिक विशेष वीचार वृत्तिपरिसंख्यान वेयापत्य व्यञ्जन व्यन्तर व्यय व्यवहार व्युत्सर्ग मति मद मनापर्यय १८५ १३१ १८१ १८७ ३३२ ३४८ ३८७ ८२, २२५ १६८ १९६ ३४१, ३४४ मनुज ४७, १३१ ३७६ मल महर्दिक महानत मारुती मादेव मिथ्यात्व मीमांसक मुनि शब्दनय १९७-८ २३२ २३६, २५५३. २१३ २९. ३४१ शिक्षामत शीलगुण शुकल्यान १३१, ३५५, ३७९ इ., ३८१ यक्ष यति २०० ३१२ योग योगस्थान २९०, ३४८ शैव ४३ इ., ३८७ शौच २६ । श्रावक Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -नाम-सूची ४६९ २९७ इ., ३०० १८१ ३५२ १८७ भूत श्रुतकेचलिन् श्रुतज्ञान श्वभ्रपूरण श्वेताशुक सचिराविरति संयम । संवर संवरानुप्रेक्षा संसार संसारानुप्रेक्षा सेस्कार १६ इ., ३१ स ३१४ २७८ १६८ २४१, २९७ २२४ २२२ १५७ १९९ १५३ ४७, २९८ इ. ११५ इ., ३८८ २१६ इ., २३० ई., ३१३, ३२० साधारण सामान्य सामायिक सांख्य सत्य सदृष्टि सम्ममा समभझी सममिद समय समिति समुद्धात सम्यक्त्व सर्वज्ञ सदेखना संग्रह संघ संस्थानविचय समूर्छन १९१ २५६ ३., २५९, २७२ ११७३., १७४ २९६, ३१३ ६२, १३९ १६९, २२५, २९६, ३१३ २८५ ३१७ सौगत स्वी २१३ २७०६. स्थितिकरण स्पर्श स्याद्वाद खाध्याय हिंसा हिंसादान हेतुविचय १५५ ३२९, ३५३ २१७ २५२ ३६७, ३६९ ६८ ३६९ नाम -सूची ३९१,३९५ २०३ ३९५ अमिभूति कुन्दकुन्द a. अमृतमती कौरव उज्जयिनी २९,२४९ कोश्वराज उमास्वाति ( मिन् ) a (uthor) ४७, १५६, ३५६ । क्षेत्रपाल कहारपिक क्षेमचन्द्र कपिल २२५,२९२ गजकुमार कमला गणपति कार्तिकेय (-स्वामिन् ) .. १९४, २०३, ३२७ गणेश काश्यपी गुरुदत्त कानाहार २६ । गौतमस्वामिन .. २२ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० चण्डिका चाणक्य चितीपुत्र अयकुमार जिनदत जिनदेव जिनमद चिनमती शानभूष (ण) देवसेन 4. दीपायन धनदेव नन्दिय नीली नेमि नेमिचन्द्र 8. पद्यनन्दिन् 8. पाण्डय पार्श्व पशुचिन् विज्ञाकपेष्ठिन् पूज्यपाद 8. प्रयाग ਨ बलात्कारगण बाहुबलि भष्टप्रभाकर भरत भुवन कीर्ति मनि मस्करीपूर्ण महिसार महेश मान्दार मालव मुनिदत्त मूलर्सच यमपाल - कलिगेयाणुप्पेक्क्षा पू. २२५ २९२ २९२ २४७ }= ૨૪૧ ३० ३० २०४, ३९५ ३११ ११६, २०३ २९, १४१ ३९५ २४५ ३९५ ૧૭૪, ૧૪ ३९५ १९२ ३९५ २९२ २४७ १५९ २९ २३९ ३९५ २३ २९६ २१३ २२, २१२, २९२ २०४, ३९५ ३९५ २०३ १९५ २१३ २४९ २९ २९ २०४, ३९५-९६ २३९ योगीन्द्र श्र रविचन्द्र 8. राम (चन्द) रामण 联 लक्ष्मीचन्द्र लोभदत्त वरुण वर्धमान सविनका मन्दि वसुभूप बारिषेण वायुज्य विजयकीर्ति विशुचर विभीषण विश्वसेन विष्णु विष्णुकुमार वीरचन्द्र शक 4. शिवभूति शुभचन्द्रदेव श्रमेन्दु (देव) दमथुनवनीत श्रीदत्त श्रीणिकमुनि श्रेणिक सफीर्त सगर सोष समन्तभद्र a सीता सुकुमान Z. २३४, ३९१ २३४, ३९१ २६, ११७३९२ २६ २६१ ३९६ २०३ २९ ३९५ २९ १०२, १०५, २३६, २४९ २७४, १७७, २८०, २८५, २८७, २०९, ३३० ૨૪૧ ૨૪૨ ३९५ २०४, ३९५ १९१ २६ २९ २१३ ११६ ३९६ २२९ २४३, १९२ १, १२, १५, ४६, ४९, ७१, २०४, २१२, २७२, २९०, १२५, ३९५-६ ४२, २०४ २४७ २९१ २९२. २९२ २०४, ३९५ ३९२ २४१ १०८, १४९, २८९ ११५ २९२ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ग्रन्थ-सूची मुफेतु सुकोशल सोमभूति सोमशर्मन् खामिकार्तिकेय . १,५५, ०१, २०३-४ २१२, २४८, २५५, २६०, २७२, २९. सुदर्शन सुप्रभा सुभदा सुमतिकीर्ति खामिकुमार a. १२, ५५, २२५ १२,५५, २१४ १५, ४३, ४६, ४९, २०४, हरि २१२,३९५-६ | हिरण्यगर्भ ग्रन्थ-सूची ३८३ आर्ष २५२ अथर्वण त्रिलोकप्रज्ञप्ति अष्टसहनी ११५, १५१, १६२ पैलोक्यसार ५५, ८१, १०९, १११, ३२२ आगम १४९ द्रव्यसंग्रह ३९१ आचारसार व्यसंग्रहटीका भारापनासार ३९१ नयचक २०० ३६१ परमात्मप्रकाश १३८ उपासमध्ययन २८९ भगवत्याराधना ४१, (-टीका) ७१, ३०३, ऋग्वेद २५३ ३३१, २३६, ३४२ कर्मप्रकृति प्रन्थ ३८६ भागवत २५२ भारत कार्तिकेयानुप्रेक्षा माकेण्डपुराण २५२ मार्तण्ड कुकोक मुलाचार गोम्मदसार मोक्षप्राभूत ८७-८,९९-२९९, १०६-७, यजुर्वेद २५३, ३१३ ११३-१४, १२८, १५३-४, ३०३ यत्याचार ३.९, ३३०, ३३३, ३४१ चरित्रसार २८०, २८९, ३०३-४, ३३०, ३५६ यत्याचार (बसनन्दि) १०३, १०६ लिङ्गापुराण जैनेन्द्रा-व्याकरण) १४१, १५९ वर्गणाखण्ड २८२ शानाध विष्णुपुराण तत्त्वानुशासन साम सत्वार्थ(-सूत्र) ३०४-५, ३४२, ३६०, ३८९ ] २६४ २५३ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास द्वारा संचालित श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल ( श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला ) के प्रकाशित ग्रन्थोंकी सूची ता. १९ ४ ८७ से लागू (१) गोम्मटसार जीवकाण्ड श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकृत मूल गाथाएँ, श्री ब्रह्मचारी पं. खूबचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत संस्कृत छाया तथा नयी हिन्दी टीका युक्त। अबकी बार पंडितजीने धवल, जयधवल, महाधवन और बडी संस्कृतटीकाके आधारसे विस्तृत टीका लिखी हैं। षष्ठावान । मूल्य - बीस रुपये | (२) गोम्मटसार कर्मकाण्ड श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकृत मूल गाथाएँ. पं. मनोहरलालजी शास्त्रीकृत संस्कृत छात्रा और हिन्दी टीका। पं. बचन्दजी द्वारा संशोधित जैन सिद्धान्तग्रन्थ है। पचमावृत्ति मूल्य - बीस रुपये । (३) स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा स्वामिकार्तिकेयकृत मूल गाथाएँ, श्री शुभचन्द्रकृत बडी संस्कृत टीका तथा स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके प्रधानाध्यापक पं. कैलासचन्द्रजी शास्त्रीकृत हिन्दी टीका। डॉ. आ. ने. उपाध्येकृत अध्ययनपुर्ण अंग्रेजी प्रस्तावना आदि सहित आकर्षक संपादन। द्वितीयावृत्ति मूल्य - चौबीस रुपये। ( ४ ) परमात्मप्रकाश और योगसार श्री योगीन्दुदेवकृत मूल अपभ्रंश दोहे, श्री ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीका व पं. दौलतरामजीकृत हिन्दी टीका । विस्तृत अंग्रेजी प्रस्तावना और उसके हिन्दीसार सहित । महान् अध्यात्मग्रंथ डॉ. आ.ने. उपाध्येका अमूल्य सम्पादन । नवीन पंचम संस्करण | मूल्य - चौबीस रुपये । (५) ज्ञानार्णव श्री शुभचन्द्राचार्यकृत महान् योगशास्त्र । सुजानगढ़ निवासी पं. पन्नालालजी बाकलीवालकृत हिन्दी अनुवाद सहित पंचमावृत्ति । मूल्य - बीस रुपये। (६) प्रवचनसार श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित ग्रन्थरत्नपर श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत तत्त्वप्रदीपिका एवं श्री जयसेनाचार्यकृतं तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीकाएँ तथा पांडे हेमराजजी रचित बालावबोधिनी भाषाटीका। डॉ. आ. ने उपाध्येकृत अध्ययनपूर्ण अंग्रेजी अनुवाद तथा विशद प्रस्तावना आदि सहित आकर्षक सम्पादन । चतुर्थावृत्ति । मूल्य - चौबीस रुपये। (७) बहद्रव्यसंग्रह आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित मूल गाथाएं, संस्कृत छाया, श्री ब्रह्मदेवविनिर्मित संस्कृतवृत्ति और पं. जवाहरलाल शास्त्रीप्रणीत हिन्दी भाषानुवाद। प्रद्रव्यसप्ततत्त्वस्वरूपवर्णनात्मक उत्तम ग्रन्थ चतुथावृत्ति । मूल्य- बारह रुपये। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ▾ (८) पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्री अमृतचन्द्रसूरिकृत मूल श्लोक। पं. टोडरमल्लजी तथा पं. दौलतरामजीकी टीकाके आधार पर पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित नवीन हिन्दी टीका सहित । श्रावकमुनिधर्मका चित्तस्पर्शी अद्भुत वर्णन । षष्ठयवृत्ति। मूल्य - बारह रुपये। (९) पञ्चास्तिकाय श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचित अनुपम ग्रन्थराज | श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत 'समयव्याख्या' ( तस्चप्रदीपिका वृत्ति) एवं श्री जयसेनाचार्यकृत 'तात्पर्यवृत्ति' नामक संस्कृत टीकाओंसे अलंकृत और पांडे हेमराजजी रचित बालावबोधिनी भाषाटीकाके आधारपर पं. पत्रालालजी बाकलीवालकृत प्रचलित हिन्दी अनुवाद सहित । चतुर्थावृत्ति । मूल्य - बीस रुपये | (१०) स्याद्वादमञ्जरी कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यकृत अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा श्री मल्लिषेणसूरिकृत संस्कृत टीका । श्री जगदीशचन्द्र शास्त्री एम. ए. पी. एच. डी. कृत हिन्दी अनुवाद सहित । न्यायका अपूर्व ग्रन्थ है। बड़ी खोजसे लिखे गये ८ परिशिष्ट हैं। चतुर्यावृत्ति । मूल्य - प - बीस रुपये। (११) इष्टोपदेश श्री पूज्यपाद - देवनन्दि आचार्यकृत मूल श्लोक, पंडितप्रवर श्री आशाधस्कृत संस्कृतटीका, पं. धन्यकुमारजी जैनदर्शनाचार्य एम. ए. कृत हिन्दीटीका, बैरिस्टर चम्पतरायजीकृत अंग्रेजी टीका तथा विभिन्न विद्वानों द्वारा रचित हिन्दी, मराठी, गुजराती एवं अंग्रेजी पद्यानुवादों सहित भारवाही आध्यात्मिक रचना । तृतीय आवृत्ति । मूल्य -- आठ रुपये। (१२) लब्धिसार ( क्षपणासार गर्भित ) श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीरचित करणानुयोग ग्रन्थ पंडितप्रवर टोडरमल्लजीकृत बडी टीका सहित। श्री फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीका अमूल्य सम्पादन । द्वितीयावृत्ति | मूल्य - चौबीस रुपये । (१३) द्रव्यानुयोगतर्कना श्री भोजकविकृत मूल श्लोक तथा व्याकरणाचार्य ठाकुरप्रसादजी शर्माकृत हिन्दी अनुवाद | द्वितीयावृत्ति | मूल्य- बारह रुपये । (१४) न्यायावतार महान् तार्किक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरकृत मूल श्लोक व जैनदर्शनाचार्य पं. विजयमूर्ति एम. ए. कृत श्री सिद्धर्षिगणिकी संस्कृतटीकाका हिन्दी भाषानुवाद | न्यायका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। द्वितीयावृत्ति । मूल्य - बारह रुपये। (१५) प्रशमरतिप्रकरण आचार्य श्री उमास्वातिविरचित मूल श्लोक, श्री हरिभद्रसूरिकृत संस्कृतटीका और पं. राजकुमारजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित सरल अर्थ सहित वैराग्यका बहुत सुन्दर ग्रन्थ है। प्रथमावृत्ति । मुल्य - बारह रुपये। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयावृत्ति। . (१६) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र (मोक्षशास्त्र) श्री उमास्वातिकृत मूल सूत्र और स्वोपज्ञ भाष्य तथा पं. खूबचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत विस्तृत भाषाटीका। तत्त्वोंका हृदयग्राह्य गम्भीर विश्लेषण। द्वितीयावृत्ति। मूल्य-बीस रुपये। (१७) सप्तभंगीतरंगिणी श्री विमलदासकृत मूल और पंडित ठाकुरप्रसादजी शर्मा कृत भाषाटीका। न्यायका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ। तृतीयावृत्ति। मूल्य--आठ रुपये। (१८) समयसार आचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित महान् अध्यात्म ग्रन्थ। आत्मख्याति, तात्पर्यवृत्ति, आत्मख्यालिभाषावचनिका-इन तीन टीकाओं सहित तथा पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित। मूल्य-चौबीस रुपये। (१९) इष्टोपदेश मात्र अंग्रेजी टीका व पद्यानुवाद। मूल्य-तीन रुपये। (२०) परमात्मप्रकाश ___ मात्र अंग्रेजी प्रस्तावना व मूल गाथाएँ। मूल्य-पाँच रुपये। (२१) योगसार मूल गाथाएँ व हिन्दी सार। मूल्य-पचहत्तर पैसे। (२२) कार्तिकेयानुप्रेक्षा __ मूल गाथाएँ और अंग्रेजी प्रस्तावना। मूल्य-दो रुपये पचास पैसे। (२३) प्रवचनसार अंग्रेजी प्रस्तावना और उसका हिन्दी सार, प्राकृत मूल, अंग्रेजी अनुवाद तथा पाठांतर सहित। मूल्य-पांच रुपये। (२४) अष्टप्राभृत ___ श्री कुन्दकन्दाचार्य विचित मूल गाथाओंपर श्री रावजीभाई देसाई द्वारा गुजराती गद्य पद्यात्मक भाषान्तर। मूल्य-बारह रुपये। (२५) क्रियाकोष कवि किशनसिंहकृत हिन्दी काव्यमय रचना। श्रावककी त्रेपन क्रियाओंका सुंदर वर्णन श्रावकाचारका उत्तम ग्रंथ। पं. पन्नालालजी साहित्याचार्यकृत हिन्दी भावार्थ सहित। प्रथमावृत्ति मूल्य-बीस रुपये। अधिक मूल्यके ग्रन्ध मंगानेवालोंको कमिशन दिया जायेगा। इसके लिये वे हमसे पत्रव्यवहार करे। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगासकी ओरसे प्रकाशित ग्रन्थ गुजराती ग्रन्थ 1 श्रीधचन्द्र र मोक्षमतामा दोध सहित लत्वज्ञान 4 पत्रशतक 5 आत्मसिद्धिशास्त्र 6 सुबोधसंग्रह 7 श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला 8 श्रीमद् राजचन्द्र आत्मकथा 9 श्रीमद् लघुराजस्वामी (प्रभुश्री) उपदेशामृत 10 नित्यक्रम ११नित्यनियमादि पाठ (भावार्थ सहित) 12 आत्मसिद्धिविवेचन 13 समाधि-सोपान (रत्नकरण्ड श्रावकाचारके विशिष्ट स्थलोंका अनदाद) 14 आठ दृष्टिनी सज्झाय (भावार्थ सहित) 15 आलोचनादि पद संग्रह 16 आलोचनादि पद संग्रह (संक्षिप्त) 17 सहजसुखसाधन 18 ज्ञानमंजरी 19 धर्मामृत (अप्राप्य) 20 समयसार (अप्राप्य) 21 पूजासंचय 22 तत्त्वज्ञान तरंगिणी 23 परमात्म-प्रकाश 24 सुवर्णमहोत्सव (आश्रम परिचय) 25 पूजादि स्मरणांजलि काव्यो 26 श्रीमद् राजचन्द्र उपदेशछाया 27 चैत्यवंदन चोवीशी 25 श्रीमद् लघुराजस्वामी जीवनचरित्र 29 पंचास्तिकाय 30 स्नाइपूजा 31 छोटी छ पुस्तिकाओंका सेट 32 काव्यामृत अरणां 33 प्रातः मध्याह्न और सायंकालका नित्यक्रम (सेट) हिन्दी अनुवाद 1 श्रीमद् राजचन्द्र 2 मोक्षमाला (भावनाबोध सहित) 3 श्रीमद् राजचन्द्र उपदेशछाया 4 श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला 5 नित्यनियमादि पाठ (भावार्थयुक्त) बालबोध लिपि (देवनागरी लिपि, भाषा गुजराती) 1 नित्यक्रम 2 तत्त्वज्ञान 3 आत्मसिद्धिशास्त्र अंग्रेजी ग्रन्थ LA Great Seer 2 Moksamala (not available) आश्रम द्वारा प्रकाशित ग्रंथोंका विस्तृत सूचीपत्र मंगाइये। सभी ग्रन्थों पर डाकखर्च अलग रहेगा। : प्राप्ति स्थान : श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम स्टेशन अगास, पोस्ट बोरिया वाया आणंद (गुजरात) पिन : 388 130 श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल (श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला) चोकसी चेम्बर, खारा कवा, जौहरी बाजार बम्बई-४००००२