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________________ F स्वामिकार्त्तिकेयातुप्रेक्षा [ गा० १९८ पर्ययावधिज्ञानानाम् एकदेशविशदत्वात् देशप्रत्यक्षं च पुनः मतिश्रुतज्ञानम् इन्द्रियैर्मनसा स यथायथम् अर्थान् मन्मठे मतिः मनुतेऽनया वा मतिः मननं वा मतिः । श्रुला चिया खूब शव नृपोति ree श्रुतम्, श्रवणं वा श्रुतं तच तद् ज्ञानम् । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च श्रमशः क्रमेण विशदपरोक्षं परोक्षं च । मत् इन्द्रियानिन्द्रियजं मतिज्ञानं तत् विशदम् एकदेशतः विशदं स्पष्टम् । उकं च परीक्षामुखे । इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सोव्यवहारिकमिति सांध्यवहारिकप्रत्यक्षं मतिज्ञानं कथ्यते । यत् श्रुतज्ञानं तत्परोक्षम् अविशदम् अस्पष्टमित्यर्थः । मनः पर्यायज्ञानम् अवविज्ञानं च देशप्रत्यक्षं स्यात् । मतिज्ञानम् एकदेशपरोक्षं श्रुतज्ञानं परोक्षज्ञानं स्यात् ॥ २५७ ॥ अथेन्द्रियज्ञानस्य योग्यं विषयं विशदयति इंद्रियजं मदि गाणं जग्गं' जाणेदि पुग्गलं दव्वं । माणस - गाणं च पुणो य-विसयं अक्ल-विसयं च ॥ २५८ ॥ 1 1 पुद्गल, उनको जो जाने वह अवधि है । अथवा अपने क्षेत्रसे नीचे की ओर इस ज्ञानका विषय अधिक होता है इसलिये भी इसे अवधि ज्ञान कहते हैं । अवधि ज्ञानके तीन भेद हैं- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । मन:पर्ययज्ञान और अवधिज्ञान एक देशसे प्रत्यक्ष होनेके कारण देशप्रत्यक्ष है । जो ज्ञानपरकी सहायता के बिना स्वयं ही पदार्थोंको स्पष्ट जानता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। ये दोनोंही ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना अपने २ विषयको स्पष्ट जानते हैं इसलिये प्रत्यक्ष तो हैं, किन्तु एक तो केवल रूपी पदार्थों को ही जानते हैं दूसरे उनकी भी सब पर्यायोंको नहीं जानते, अपने २ योग्य रूपी द्रव्यकी कतिपय पर्यायों को ही स्पष्ट जानते हैं । इसलिये ये देशप्रत्यक्ष हैं । इन्द्रिय और मनकी सहायता से यथायोग्य पदार्थको जाननेवाले ज्ञानको मतिज्ञान कहते हैं। तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थको विशेष रूप से जाननेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं श्रुत शब्द यद्यपि ' ' धातुसे बना है और '' का अर्थ 'सुनना' होता है । किन्तु रूदिवश ज्ञान विशेषका नाम श्रुतज्ञान है । ये दोनों ज्ञान इन्द्रियों और मनकी यथायोग्य सहायता से होते हैं इसलिये परोक्ष हैं। क्यों कि 'पर' अर्थात् इन्द्रियाँ, मन, प्रकाश, उपदेश वगैरह बाह्य निमित्तकी अपेक्षासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहा जाता है । अतः यद्यपि ये दोनों ही ज्ञान परोक्ष हैं किन्तु इनमेंसे मतिज्ञान प्रत्यक्ष मी है और परोक्ष भी है । मतिज्ञानको प्रत्यक्ष कहनेका एक विशेष कारण है। भट्टाकलंक देवसे पहले यह ज्ञान परोक्ष ही माना जाता था । किन्तु इससे अन्य मतावलम्बियोंके साथ शालार्थ करते हुए एक कठिनाई उपस्थित होती थी। जैनोंके सिवा अन्य सब मतावलम्बी इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । एक जैन धर्म ही उसे परोक्ष मानता था, तथा लोकमें भी इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा जाता है । अतः मट्टाकलंक देवने मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया । जो यह I बतलाता है कि मतिज्ञान लोकव्यवहारकी दृष्टिसे प्रत्यक्ष है, किन्तु वास्तव में प्रत्यक्ष नहीं है । इसीसे परीक्षामुखमें प्रत्यक्षके दो मेद किये हैं- एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और एक मुख्य प्रत्यक्ष । तथा इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले एकदेश स्पष्ट ज्ञानको सव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है ॥ २५७॥ आगे इन्द्रिय ज्ञानके योग्य विषयको कहते हैं । अर्थ- इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान अपने योग्य पुद्गल को जानता है । और मानसचान श्रुतज्ञानके विषयको भी जानता है तथा इन्द्रियोंके १६ समजु ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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