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________________ १०. लोकानुरक्षा याया-इन्द्रियज मतिज्ञाने योग्य जानाति पुद्गले वष्यम् । मानसशानं त्र पुनः श्रुतविषयम् मक्षविषय च ॥] पतु इनिगजा, इलिये यः साना साना गाडगेभ्यः मनसा च जातम् उत्पन्नम् इन्द्रियानिन्द्रियजम् अवाहेहावायधारणामेदमिन्नं पत्रिंशदधिकत्रिशतमेदं मतिज्ञानं योग्यं पुद्रलद्रव्यम्, 'बहबहुविधक्षिषानिःसतानुकधुवा सेतराणाम् । इति द्वादशमेदभिक्षं पुदलद्रव्यं स्पर्शरसवर्णसंस्थानाविक पदार्थ जानाति पश्यतीत्यर्थः । पुनः भूतं मतिज्ञानम् । माणसणाण मनसोत्पन्नं ज्ञानम् अनिन्द्रियजातज्ञानम् । च पुनः किंभूतम् । श्रुतविषयम् अस्फुटशानविषय 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' । अभिधानात् श्रुतज्ञानगृष्ठीतार्थप्राइकम् । च पुनः कीदृक्षम् । अक्षविषयम् इन्द्रियगृहीताप्राहम् ।। २५८ ॥ अथ पवेन्द्रियज्ञानानां क्रमेणोपयोगः न युगपदिति बमणीतिविषयोंको भी जानता है ॥ भावार्थ भतिज्ञान पांचों इन्द्रियोंसे तथा मनसे उत्पन्न होता है । जो मतिज्ञान पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है वह तो अपने योग्य पुद्गल व्यको ही जानता है क्योंकि पुगलमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप ये चार गुण होते हैं। और इनमेंसे स्पर्शन इन्द्रियका विषय केवल स्पर्श है, रसना इन्द्रियका विषय रस ही है, घ्राण इन्द्रियका विषय गन्ध ही है और चक्षु इन्द्रियका विषय केवल रूप है । तथा श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है, वह भी पौद्गलिक है । इस तरह इन्द्रियजन्य मतिज्ञान तो अपने अपने योग्य पुद्गल द्रव्यको ही जानता है। किन्तु मनसे मतिज्ञान भी उत्पन्न होता है, और श्रुतज्ञान भी उत्पन्न होता है। अतः मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान इन्द्रियों के विषयोंको भी जानता है और श्रुतज्ञानके विषयको भी जानता है। मतिज्ञान के कुल मेद तीनसौ तीस होते हैं जो इस प्रकार हैमतिज्ञानके मूलभेद चार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। दर्शनके अनन्तर ही जो पदार्थका ग्रहण होता है वह अपग्रह है। जैसे, चक्षुसे सफेद रूपका जानना अवग्रह ज्ञान है । अवग्रह से जाने हुए पदार्थको विशेष रूपसे जाननेकी इच्छाका होना ईहा है, जैसे यह सफेद रूपवाली वस्तु क्या है ! यह तो बगुलोंकी पंक्ति मालूम होती है, यह ईहा है। विशेष चिह्नोंके द्वारा यथार्थ वस्तुका निर्णय कर लेना अवाय है। जैसे, पंखोंके हिलनेसे तथा ऊपर नीचे होनेसे यह निर्णय करना कि यह बगुलोंकी पंक्ति ही है, यह अबाय है। अवायसे निर्णीत वस्तुको कालान्तरमें नहीं भूलना धारणा है । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्त, निःसृतः, उक्त, अभुव, इन बारह प्रकारके पदार्थोंने अनप्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं । बहुत वस्तुओंके जाननेको बहुज्ञान कहते हैं । बहुत तरहकी वस्तुओंके जाननेको बवविधज्ञान कहते हैं । जैसे, सेना या वनको एक समूह रूपमें जानना बहुज्ञान है और हाथी घोडे आदि या आम मछुआ आदि भेदोंको जानना बहुविध ज्ञान है । वस्तु के एक भागको देखकर पूरी वस्तुको जान लेना अनिःसृत ज्ञान है । जैसे जलमें डूबे हुए हाथीकी सूंडको देखकर हाथीको जान लेना। शीघ्रतासे जाती हुई वस्तुको जानना क्षिप्रज्ञान है । जैसे तेज चलती हुई रेलगाडीको या उसमें बैठकर बाहरकी वस्तुओंको जानना । बिना कहे अभिप्रायसे ही जान लेना अनुक्त ज्ञान है । बहुत काल तक जैसाका तैसा निश्चल झान होना ध्रुव ज्ञान है | अल्प अथवा एक वस्तुको जानना अल्पज्ञान है। एक प्रकारकी वस्तुओंको जानना एकविध ज्ञान है । धीरे धीरे चलती हुई वस्तुको जानना अक्षिप्रज्ञान है। सामने पूरी विद्यमान वस्तुको जानना निःसृत ज्ञान है । कहने पर जानना उक्त ज्ञान है । चंचल विजली वगैरहको जानना अचव ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकारका अवग्रह, बारह प्रकारका ईहा, बारह
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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