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________________ १८४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा पंचिदिये - णाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुतं । माणे उवजुतो इंदिय गाणं जाणेदि ॥ २५९ ॥ [ गा० २५९ [ छाया-प्रवेन्द्रियज्ञानानां मध्ये एक च भवति उपयुक्तम् । मनोशाने उपयुक्तः इन्द्रियज्ञानं न जानाति ॥ ] पखेन्द्रियज्ञानानां स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्रज्ञानानां मध्ये एकस्मिन् काले एकं ज्ञानम् उपयुक्तम् उपयोगयुक्तं विषयप्रणव्यापारयुक्तं भवति । मनोज्ञाने उपयुक्त नोइन्द्रियज्ञाने उपयुक्त विषयग्रहण व्यापारोपयुक्ते सति इन्द्रियज्ञानं पचेन्द्रियाणां ज्ञानं न जायते न उत्पद्यते । अथवा मनसो ज्ञानेन उपयुक्तः मनोज्ञानव्यापारसहितो जीवः इन्द्रियज्ञानं न जानाति । यदा जीवः मनसा एकाप्रचेतसा आर्तरौद्रधर्मादिष्यानं धरति तदा इन्द्रियाणां ज्ञानं न स्फुरतीत्यर्थः वा इन्द्रियज्ञानं एकैकं जानाति । चक्षुर्ज्ञान प्राणे न जानाति इत्यादि ॥ २५९ ॥ ननु यद्भवद्भिरुक्तम् एकस्मिन् काले एकस्यैवेन्द्रिय ज्ञान स्योपयोगस्तदप्ययुक्तम् । केनचित्सा करगृहीत शष्कुल्यां भक्ष्यमाणायां सत्य सगन्धग्रहणं प्राणस्य तचर्वणशब्दग्रहणं श्रोत्रस्य तद्वर्णमहणं चक्षुषोः तत्स्पर्शग्रहणं करस्य तसग्रहणं जिह्वामाथ जायते । इति पञ्चेन्द्रियाणां ज्ञानस्य [ उपयोगः ] युगपदुत्पद्यते इति वावदूकं वादिनं प्रतिवदति एक्के' काले एक गाणं जीवस्स होदि उवजुतं । गाणा - णाणाणि पुणो लद्धि-सहावेण तुच्छंति ॥ २६० ॥ I 1 प्रकारका अवाय और बारह प्रकारका धारणा ज्ञान होता है। ये सब मिलकर ४८ भेद होते हैं। तथा इनसे प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रियों और मनसे होता है अतः ४८४६ = २८८ भेद मतिज्ञानके होते हैं | तथा अस्पष्ट शब्द वगैरहका केवल अवग्रह ही होता है, ईहा आदि नहीं होते । उसे व्यञ्जनावग्रह कहते हैं । और व्यंजनावमह चक्षु और मनको छोडकर शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है। अतः बहु आदि विषयोंकी अपेक्षा व्यंजनावग्रह ४८ भेद होते हैं । २८८ भेदोंमें इन ४८ भेदोंको मिलानेले मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं ॥ २५८ ॥ आगे कहते हैं कि पांचों इन्द्रियज्ञानोंका उपयोग क्रमसे होता है, एक साथ नहीं होता । अर्थ- पांचों इन्द्रियज्ञानोंमेंसे एक समय में एक ही ज्ञानका उपयोग होता है । तथा मनोज्ञानका उपयोग होने पर इन्द्रियज्ञान नहीं होता ॥ भावार्थ- स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानोमेंसे एक समय में एक ज्ञान ही अपने विषयको ग्रहण करता है। इसी तरह जिस समय मनसे उत्पन्न हुआा ज्ञान अपने विषयको जानता है उस समय इन्द्रिय ज्ञान नहीं होता । सारांश यह है कि इन्द्रिय ज्ञानका उपयोग क्रमसे ही होता है । एक समयमें एक्से अधिक ज्ञान अपने २ विषयको ग्रहण नहीं कर सकते, अर्थात्, उपयोग रूप ज्ञान एक समयमें एक ही होता है ॥ २५९ ॥ शङ्का - आपने जो यह कहा है कि एक समयमें एक ही इन्द्रिय ज्ञानका उपयोग होता है यह ठीक नहीं है, क्योंकि हाथकी कचौरी खानेपर घ्राण इन्द्रिय उसकी गन्धको सूंघती है, श्रोत्रेन्द्रिय कचौरीके चबानेके शब्दको ग्रहण करती है, चक्षु कचौरीको देखती है, हायको उसका स्पर्श ज्ञान होता है और जिल्हा उसका स्वाद लेती है, इस तरह पांचों इन्द्रिय ज्ञान एक साथ होते हैं । इस शङ्काका समाधान करते हैं । अर्थ- जीवके एक समयमें एक ही ज्ञानका उपयोग होता. हैं । किन्तु लब्धि रूपसे एक समयमें अनेक ज्ञान कहे हैं । भावार्थ- प्रत्येक क्षायोपशमिक ज्ञानकी दो अवस्थाएँ होती हैं--एक लब्धिरूप और एक उपयोगरूप । अर्थको ग्रहण करनेकी शक्तिका नाम लब्धि १ ब पंचिदिय, ल म स में पंचेंद्रिय र ब जाणार ? मिस जाएदि, ग जाएहि । ३ मग एके । ४ म सग एगं ,
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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