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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा चटपटादिचेतनाचेतनादिवस्तु पदार्थः ज्ञानप्रवेशेन याति न गच्छति । तर्हि किम् । अस्ति निजानिजप्रदेशस्थिताना शानझेयाना प्रमाणप्रमेयानो शानदेयव्यवहारः । यथा दर्पणः स्वप्रदेशस्थित एव खप्रदेशस्थ वस्तु प्रामपति तथा शानं झेयं च । 'सालोकानां त्रिलोकाना बदिया दर्पणायवे। इति वचनात् ॥ २५६ ॥ भष मनःपर्ययज्ञानादीनो देशप्रत्यक्षं परोक्षं च विशदवति मण-पज्जय-विष्णाणं ओही-णाणं च देस-पाचक्खं । मदि-सुदिणाणं कमसो विसद-परोक्खं परोक्खं च ॥ २५७ ॥ [छाया-मनापर्ययविशागम् भवधिज्ञान व देशप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतिक्षाने कमशः विशवपरोक्षं परोक्षं च ॥ ? मनःपर्ययज्ञानं मनसा परमनसि स्थित पदार्थ पर्येति जानाति इति मनःपर्वयं तब तज्ज्ञान व मनःपर्ययज्ञानं का परकीयमनसि स्वितोऽर्थः साहवर्यान्मनः इत्युच्यते तस्य मनमः पर्ययण परिंगमनं परिज्ञान मनःपर्यवज्ञान सामोपशमिकम् ऋजुमतिविपुलमातिभेदमिन च । पुनः भवधिज्ञानम् अपधीयते भ्यक्षेत्रकालभावेन मोरीकियते, बागवान भवधिः अपवादहुतरविषयप्रहणात् अवधिः देशावधिपरमावधिसविधिज्ञानं च । देशप्रत्यक्षम् एकदेशविशदम् । मनःभावार्थ-आचार्य समन्तभद्रने रत्नकरंड श्रावकाचारके भारम्भमें भगवान महावीरको नमस्कार करते दुए उनके ज्ञानको अलोक सहित तीनों लोकोंके लिये दर्पणकी तरह बतलाया है । अर्थात् जैसे दर्पण अपने स्थानपर रहते हुए ही अपने स्थानपर रखे हुए पदायाको प्रकाशित करता है, वैसे ही शान भी अपने स्थानपर रहते बुए ही अपने अपने स्थानपर स्थित पदार्थोंको जान लेता है। प्रवचनसारमें भी कहा है कि आला ज्ञानखभाव है और पदार्थ शेयखरूप हैं । अर्थात् जानना आत्माका समाव है और ज्ञानके द्वारा विषय किया जाना पदाथोका खभाव है । अतः जैसे चक्षु रूपी पदार्थोके पास न जाकर ही उनके स्वरूपको ग्रहण करनेमें समर्थ है, और रूपी पदार्थ भी नेत्रोंके पास न जाकर ही अपना खरूप नेत्रोंको जनानेमें समर्थ है, वैसे ही आत्मा भी न तो उन पदार्थोके पास जाता है और न वे पदार्थ आत्माके पास आते हैं । फिरभी दोनोंमें डेयज्ञायक सम्बन्ध होनेसे आत्मा सबको जानता है और पदार्थ अपने खरूपको जनाते हैं। जैसे दूधके बीचमें रखा हुआ नीलम अपनी प्रमासे उस दूधको अपनासा नीला कर लेता है । उसी प्रकार ज्ञान पदार्थोंमें रहता है। अर्थात् दूधमें रहते हुए भी नीलम अपनेमें ही है और दूध अपने रूप है तभी तो नीलमके निकालते ही दूध खाभाविक खन्छ रूपमें हो जाता है । ठीक यही दशा ज्ञान और ज्ञेयकी है ॥२५६ ॥ आगे शेष झानोंको देश अध्यक्ष और परोक्ष बतलाते हैं । अर्थ मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं । मतिज्ञान प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी है । और श्रुतज्ञान परोक्ष ही है || भावार्थ-जो आत्माके द्वारा दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्यको प्रत्यक्ष जानता है, उसे मनः पर्यय बान कहते हैं । अथवा दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको मनमें रहनेके कारण मन कहते हैं । अर्थात् 'मनःपर्यय' में 'मन' शब्दसे मनमें स्थित रूपी पदार्थ लेना चाहिये । उस मनको जो जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है । यह मनःपर्ययान मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होता है, अतः क्षायोपशमिक है। उसके दो भेद हैअजुमति और विपुलमति । तया द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लिये हुए रूपी पदापोंको प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं। अवधिका अर्थ मर्यादा है। अथवा अवाय यानी १५म मात्र । विसय ()।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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