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________________ ¦ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २५५ स्कन्धादिपर्यायाः । अलोकाकाशे अलोकाकाशं द्रव्यं तस्य पर्याया अगुरुलध्यादयः उत्पादव्यमनौव्यावमध्य तैः संयुक्त अश्नाति पश्यति च । 'सर्वद्रव्यपययेषु केवलस्य' इति वचनात् तथा चोकं व 'क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकल सुखधाम सततं वन्देऽई केवलज्ञानम् ॥' इति ॥ २५४ ॥ अथ ज्ञानस्य सर्वगतत्वं प्रकाशयतिसव्यं आदि जम्हा सव्व-गयं तं पि वुश्चदे' तम्हा | णय पुण विसरदि गाणं जीवं चऊण अण्णत्थ ॥ २५५ ॥ [ छाया - सर्व जानाति यस्मात् सर्वगतं तत् अपि उच्यते तस्मात् । न च पुनः विसरति ज्ञानं जीवं त्या अन्यत्र ॥ ] तस्मात्कारणात् तदपि केवलज्ञानं सर्वगतं सर्वलोकालोकव्यापकम् उच्यते । कुतः । भस्मात् सर्वद्रव्यगुणपर्याययुक्त लोकालोकं जानाति बेति । अथ च ज्ञानं संयोगसंयुक्तसमवायसंयुक्तसमवेतसमवायसमवायसमवेतसमवायसंनिकर्षैः ज्ञेयप्रदेशं गत्वा प्रत्यक्षं जानाति इवि नैयायिकाः । वेsपि न नैयायिकाः । कृतः जीवम् आत्मानं गुणिनं यत्वा अन्यत्र यप्रदेशं ज्ञानं न च पुनः विसरति प्रसरति न यातीत्यर्थः ॥ २५५ ॥ अय ज्ञानज्ञेययोः स्वप्रदेशस्थितित्वेऽपि प्रकाशकत्वमिति युक्तिं नियुंके गाणं ण जादि णेयं णेयं पि ण आदि णाण - देसम्मि' | णिय - णिय- देस-ठियाणं ववहारो णाणणेयाणं ॥ २५६ ॥ [ छाया-ज्ञानं न याति ज्ञेयं ज्ञेयम् अपि न याति ज्ञानदेशे । निजनिज देशस्थितानां व्यवहारः शानहेययोः ॥ ] ज्ञानं बोधः प्रमाणं ज्ञेयं प्रमेयं ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं वस्तु चेतनाचेतनादि प्रति न याति न गच्छति । अपि पुनः हे प्रमेवं सब द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको केवल ज्ञानका विषय बतलाया है। एक दूसरे ग्रन्थमें केवलज्ञानको नमस्कार करते हुए कहा है कि केवलज्ञान क्षायिक है; क्योंकि समस्त ज्ञानावरण कर्मका क्षय होनेपर ही केवलज्ञान प्रकट होता है । इसीसे वह अकेला ही रहता है। उसके साथ अन्य मति श्रुत आदि ज्ञान नहीं रहते, क्योंकि ये ज्ञान क्षायोपशमिक होते हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्मके रहते हुए ही होते हैं, और केवलज्ञान उसके चले जानेपर होता है। अतः केवलज्ञान सूर्यकी तरह अकेला ही त्रिकालवर्ती सब पदार्थोंको एक साथ प्रकाशित करता है। क्षायिक होनेसे ही उसका कभी अन्त नहीं होता । अर्थात् एक बार प्रकट होनेपर वह सदा बना रहता है; क्यों कि उसको ढांकनेवाला ज्ञानावरण कर्म नष्ट हो चुका है। अतः वह समस्त सुखका भण्डार है ॥ २५४ ॥ आगे ज्ञानको सर्वंगत कहते हैं। • अर्थ-यतः ज्ञान समस्त लोकालोकको जानता है अतः ज्ञानको सर्वेगत भी कहते हैं। किन्तु ज्ञान जीवको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता ॥ भावार्थ - सर्वगतका मतलब होता है सब जगह जानेवाला । अतः ज्ञानको सर्वगत कहनेसे यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि ज्ञान आत्माको छोडकर पदार्थके पास चला जाता है किन्तु आत्मामें रहते हुए ही वह समस्त लोकालोकको जानता है इसीलिये उसे सर्वगत कहते हैं । प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुन्दने इस पर अच्छा प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है कि आत्मा ज्ञानके बराबर है और ज्ञान. ज्ञेयके बराबर है। तथा ज्ञेय लोकालोक है । अतः ज्ञान सर्वगत है ॥ २५५ ॥ आगे कहते हैं कि ज्ञान अपने देशमें रहता है और ज्ञेय अपने देशमें रहता है, फिल्मी ज्ञान ज्ञेयको जानता है । अर्थ-ज्ञान ज्ञेयके पास नहीं जाता और न ज्ञेय ज्ञानके पास आता है । फिरभी अपने अपने देशमें स्थित ज्ञान और शेयमें शेयज्ञायकव्यवहार होता है || 1 १ म । २ ब जाए। ३ म स ग बेसन्हि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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