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१०. लोकानुप्रेक्षा
२७९ [छाया-नानाभमः युतम् आत्मा परम् गायः । सामादि बायका मण्यते समवे॥] निषयतः परमार्थतः, यत् खयोग्य संबन्ध धर्तमान अभिमुखम् आत्मानम् जीवादिदम्य स्खलाप ना तथा परमपि परबम्ब मपि शेतमाचेतमादिक बस्तु यज्जानाति देति पश्यति समये बिनसिद्धाम्से तत् ज्ञान भण्यते । जानातीति शामम्, खार्थव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणमिति मार्तण्डे प्रोक्त्वात् । कीदक्ष वस्तु । नानाधम विविधखभावः सहित कवंचित अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकवनित्यत्वानियत्वभिन्नत्वाभिन्नत्वप्रमुखराविधम् ॥ २५३॥ अथ सामान्येन शानसद्वाद विभाग्य केवल ज्ञानास्तित्व विशदयति
जं सर्व पि पयासदि दवं-पज्जाय-संजुदं लोयं ।
तह य अलोयं सव्वं तं गाणं सक्ष-पश्चक्ख ॥ २५४ ॥ [छाया यत् सर्वम् अपि प्रकाशयवि द्रव्य पर्यायसंयुतं लोकम् । तथा च अलोकं सर्व सद शानं सर्वप्रत्यक्षम् ॥] तत् ज्ञानं सर्वप्रत्यक्षं सर्च लोकालोक प्रत्यक्षेण पश्यतीत्यर्थः। तत् किम् । यत्सर्वमपि लोकं त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशतरजु प्रमाण जगत् त्रैलोक्यम् । तथा च सर्वम् अलोकम् , अनन्तानन्तप्रमितम् अलोक्राकाशं प्रकाशयति जानाति पश्यतीत्यर्थः। कथंभूतं लोकम् । द्रव्यपर्यायसंयुक्तम् । लोकाकाशे जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालव्याणि, तेर्षा मरनारकादिगणुकादिबतलाकर ग्रन्थकार ज्ञानका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो नाना धर्मोसे युक्त अपनेको तथा नाना धोंसे युक्त अपने योग्य पर पदार्थोको जानता है उसे निश्चयसे ज्ञान कहते हैं । भावार्थ-जो जानता है उसे झान कहते हैं । अब प्रश्न होता है कि वह किसे जानता है। तो जो स्वयं अपनेको और अन्य पदायाँको जानता है वह ज्ञान है । इसीसे परीक्षामुखमें कहा है कि स्वयं अपने और पर पदार्थोके निश्चय करने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । परीक्षामुख सूत्रकी विस्तृत टीका प्रमेयकमलमार्तण्डमें इसका व्याख्यान खून विस्तारसे किया है । वस्तुमें रहनेवाले धौंके ज्ञानपूर्वक ही वस्तुका ज्ञान होता है, ऐसा नहीं है कि वस्तुके किसी एक भी धर्मका ज्ञान न हो और वस्तुका ज्ञान हो जाये । इसीसे कहा है कि नाना धर्मोसे युक्त वस्तुको जो जानता है वह ज्ञान है । फिरभी संसारमें जाननेके लिये अनन्त पदार्थ हैं और हम सबको न जानकर जो पदार्थ सामने उपस्थित होता है उसोको जानते हैं। उसमें भी कोई उसे साधारण रीतिसे जान पाता है और कोई विशेष रूपसे जानता है । अर्थात् सब संसारी जीवोंका ज्ञान एकसा नहीं जानता । इसीसे कहा है कि अपने योग्य पदार्थोको जो जानता है वह ज्ञान है ॥ २५३ ॥ इस प्रकार सामान्यसे शानका सद्भाव बतलाकर अन्धकार अब केवलज्ञानका अस्तित्व बतलाते हैं । अर्थ-जो ज्ञान द्रव्यपर्यायसहित समस्त लोकको और समस्त अलोकको प्रकाशित करता है वह सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है ॥ भावार्थ-आकाशदव्य सर्वव्यापी है और सब तरफ उसका अन्त नहीं है अर्थात् वह अनन्त है। उस अनन्त आकाशके मध्यमें ३४३ राजु प्रमाण लोक है । उस लोकमें जीव, मुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छहों द्रव्य रहते हैं। तथा उन द्रव्योंकी नर, नारक वगैरह और स्यणुक स्कन्ध वगैरह अनन्त पर्यायें होती हैं । लोकके बाहर सर्वत्र जो आकाश है वह अलोक कहा जाता है । वहाँ केवल एक आकाशद्रव्य ही है । उसमें भी अगुरुलभु गुणकृत हानि वृद्धि होनेसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप पर्याय होती हैं। इन द्रव्यपर्यायसहित लोक और अलोकको जो प्रत्यक्ष जानता है वही केवलज्ञान है। तवार्यसूत्रमें भी सब द्रव्यों और
॥ वेदयति। २मस गदन्नवदनं )पजाय ।