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________________ १७८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गाय २५१*जैदि' सम्बं पि असतं वा सो वि य संतओ' कहं भणदि । णत्थि ति किं पि' तथं आहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ २५१* ॥ [छाया-यदि सर्वम् अपि मसत् तत् सः अपि च सरकः कथं मणति । नास्ति इति किम् अपि सत्वम् अथवा शून्यं कथं जानाति ] अपि पुनः, यदि चेत् सर्व चेतनादिलक्षणं तस्यम् असत् नास्विरूपं, तो ताई सोऽपि नास्तिकवादी विद्यमान तत्व भणति । यदि पूर्व घटपसादिक जगति मोपलब्धं ताई नास्ति इति तेन कथं भव्यते। प्रतिषेधस्य विधिपूर्वकस्वाद अथवा प्रकारान्तरेण दूषयति किचितवं नास्तीति चेत् तर्हि सर्वशून्यं कथं जानाति ॥२५॥ किं बहुणा उत्तेण य जेत्तिये मेत्ताणि' संति णामाणि । तेत्तिय-मेसा अत्था संति य णियमेण परमत्था ॥ २५२ ॥ [छाया-कि पहना उन न यायमात्राणि सन्ति नामानि । तावमात्र अर्थाः सन्ति च नियमेन परमार्थाः॥] मो नास्तिकवादिन, बहुना उक्तन कि बहुप्रलापेन किं भवति । पूर्यतां पूर्यता बहालपेन । यावन्मात्राणि नामानि यावरप्रमाणानि अभिषानानि वखवस्त्रप्रस्लरमहीदवशीफलजलकालघटपटलकटशकटमुरासरनर नारीतिर्थद्वारकपशुगोऽअगजमहिषमृगपक्षिमत्स्यचेतनाचेतनवस्तूनि सन्ति विद्यन्ते तावन्मात्राः अर्थोः पदार्याः नियमतः परमार्थभूताः सन्ति च । ननु च यावन्ति नामानि तावन्तः पदार्थाः चेत्तहि खरविषाणवत शशागगनकुसुमवन्ध्यासुतादयः पदार्थाः कथं न भवेयुः । भवताम् इति चेन खरादीनां च शुकादीनां बहुलमुपलम्भात् । एमेव तवं सम्मत्त । एवं तवं समाप्तम् एवं पूर्वोकप्रकारेण तत्वव्याख्यानं समाप्तम् ॥ २५२ ॥ अथ ज्ञानास्तित्व प्रतिजानीते णाणा-धम्मेहि जुदं अप्पाणं तह परं पि णिच्छयदो। जं जाणेदि सजोग' तं गाणं भण्णदे" समएँ ॥ २५३ ॥ कुछ जाना जा सकता है और न कुछ कहा जा सकता है । इसके सिवाय जब सब जगत् शून्यरूप है तो शून्यवादी मी शून्यरूप हुआ । और जब वह खयं शून्य है तो वह शून्यको कैसे जानता है और कैसे शून्यवादका कथन करता है ॥ २५०-२५१* ॥ अर्थ-अधिक कहनेसे क्या ! जितने नाम हैं उतनेही नियमसे परमार्थ रूप पदार्थ हैं ।। भावार्थ-शब्द और अर्थका खाभाविक सम्बन्ध है | क्यों कि अर्थको देखते ही उसके वाचक शब्दका स्मरण हो आता है और शब्दके सुनते ही उसके वाच्य अर्थका स्मरण होता है । अतः संसारमें जितने शब्द हैं उतने ही वास्तविक पदार्थ हैं। शायद कहा जाये कि गधेके सींग, वन्ध्यापुत्र, आकाशफल आदि शब्दोंके होते हुए भी न गधेके सींग होते है, न बांसको लड़का होता है और न आकाशका फूल होता है । अतः यह कहना कि जितनेही शब्द हैं उतनेही वास्तविक पदार्थ हैं, ठीक नहीं हैं । किन्तु यह आपत्ति उचित नहीं है, क्यों कि 'गधेके सींग' आदि शब्द एक शब्द नहीं हैं किन्तु दो शब्दोंके जोड़रूप हैं । दो शब्दोंको मिलानेसे तो बहुतसे ऐसे शब्द तैयार किये जा सकते हैं जिनका वाच्य अर्थ बस्तुभूत नहीं है। उक्त कथन समासरहित शब्दके विषयमें है। वैसे संसारमें गधा, सींग, बांझ, पुत्र, आकाश, फूल इत्यादि सभी शब्दोंके वाच्य अर्थ वास्तविक रूपमें पाये जाते हैं। अतः शून्यवाद ठीक नहीं हैं ॥ २५२ ॥ पदार्थों का अस्तिस्व १-पुस्तके गाथांशः पत्रान्ते लिखितः । २२ग यदि । बस संत (5), मग संतज । ४ ल किंचि, ग कंपि । ५.गम बित्तिय,सोसीय । ६ ममित्ताणि ७ मित्ता। ८ एमेव तचं समत्वं ।। पाणा इलादि। स्योग । १०मसग भण्णए । ९ल समयास समये।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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