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________________ २०. लोकानुप्रेक्षा हादिवानार्थः पदार्थः द्रव्यं वस्तु विद्यते । तदपि देहगेहादि बाब यस्तु ज्ञानं बोधः मन्यते सर्व सानमेवेत्यीकऐति सज्ञानातवाची ज्ञाननामापि ज्ञानस्याभिधानमपि न जानाति न देतीत्यर्थः ॥ २४९ ॥ अन्यच । अथ-नास्तिकवादिनं दूषणान्तरेण गाथात्रयेग दूषयति अच्छीहि पिच्छमाणो जीवाजीवादि बहु-विहं अत्थं । जो भणदि' णत्थि किंचि वि सो झुट्ठार्य महाझुट्ठों ॥ २५० ॥ [छाया-अक्षिभ्यां प्रेक्षमाणः जीवाजीवादि बहुविधम् अर्थम् । यः भणति नास्ति किंचित् अपि स धूर्ताना महाधूर्तः ॥] यः कश्चिन्नास्तिको यादी किंचिदपि वस्तु मातऋतुर गोमहिषमनुष्यगृहट्टचेतमवस्तु नास्तीति भणति । किं कुर्वन् सन् । अच्छीहिं अक्षिभ्यां चक्षुयों बहुविधम् अनेकप्रकार जीवामीवादिकम् अर्थ चेतनाचेतनमियादिकं वस्तु पदार्थ प्रेक्षमाणः पश्यन् सन् स नास्तिकवादी जुष्टानां मध्ये महाजष्टः । असत्यवादिना मध्ये महासत्यवादी अध महाष्टः महानिर्लजः ॥ २५ ॥ जं सर्व पि य संत' ता सो वि असंतओ' कहं होदि । त्थि सि किंचि तत्तो अहवा सुपणं कहं मुणदि ॥ २५१ ॥ [छाया-या सर्वम् अपि च सत् तत् सः अपि असत्कः कथं भवति । नास्ति इति किंचित् ततः अथवा शून्यं कथं जानाति ।। अधिक क्षणान्तरे, सात सद, दिनान गामिविधा जलानि, निद्यमानमस्ति । *तासो वितस्यापि असत्वम् अविद्यमानत्वं कथं भवति । अथवा तन्नो ततः तस्मात् किंचिन्नास्तीति । इति शून्यं कथं मनुते आनाति स्वयं विद्यमानः सर्व नास्तीति कर देनीति खयं विद्यमानस्यात् सर्वशून्यभावः ।। ३५१॥ पाठान्तरेणेये गाथा। तस्य व्याख्यानमाह । ज्ञानरूप नहीं है । जो उनको ज्ञानरूप कहता है वह ज्ञानके स्वरूपको नहीं जानता, इतना ही नहीं, बल्कि उसने ज्ञानका नाम भी नहीं सुना, ऐसा लगता है, क्यों कि यदि वह ज्ञानसे परिचित होता तो बाह्य पदायोंका लोप म करता ॥ २४९ ॥ अब तीन गाथाओंसे शून्यबादमें दूषण देते हैं । अर्थ-जो शून्यवादी जीव अजीव आदि अनेक प्रकारके पदार्योको आंखोंसे देखते हुए मी यह कहता है कि कुछमी नहीं है, वह झूठोंका सिरताज है ॥ अर्थ-तथा जब सब वस्तु साखरूप हैं अर्थात् विद्यमान है तब यह असत् रूप यानी अविद्यमान कैसे हो सकती हैं ? अथवा जब कुछ है ही नहीं और सब शून्य है तो इस शून्य तत्वको कैसे जानता है ? || इस गाथाका पाठान्तर मी है उसका अर्थ इसप्रकार हैयदि सब वस्तु असत् रूप हैं तो वह शून्यत्रादी मी असत् रूप हुआ तब वह 'कुछ भी नहीं है' ऐसा कैसे कहता है अथवा वह शून्यको जानता कैसे है। भावार्थ-शून्यवादी बौद्धका मत है कि जिस एक या अनेकरूपसे पदाथोंका कथन किया जाता है वास्तवमें वह रूप है ही नहीं, इस लिये वस्तुमात्र असत् है और जगत् शून्यके सिवा और कुछ मी नहीं है । शून्यवादीके इस मतका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि भाई, संसारमें तरह तरकी वस्तुएँ आंखोंसे साफ दिखाई देती हैं । जो उनको देखते हुए मी कहता है कि जगत् शून्य रूप है वह महाझूठा है। तथा जब जगत् शून्यरूप है और उसमें कुछ मी सत् नहीं है तो ज्ञान और शब्द मी असत् हुए । और जब बान और शब्द मी असत् हुए तो वह शून्यवादी कैसे तो स्वयं यह जानता है कि सब कुछ शून्य है और कैसे दूसरोंको यह कहता है कि सब शून्य है क्योंकि ज्ञान और शब्दके अभावमें न बअण्वाहि ग अच्छादि । २'जीवाद भणद, ग भागवि (१): ४ ग शुठाणं माठो, समूहाण महीमहो [अवार्ण महाबो]। ५५-पुस्तके गायांशः पत्रान्त लिखितः। ६ म.स असतवं (-3), म असंतक ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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