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१७६ खामिकाकियानुप्रेक्षा
[पा.२०' जदि सषमेव णाणं जाणा-रूपेहि संठिदं एक ।
तो ण वि किं पि विणेयं णेयेण विणा कह णाणं ॥ २४७ ॥ [छाया-यदि सर्वमेव ज्ञानं नानारूपैः संस्थितम् एकम् । तत् न अपि किम् अपि विझयं झेयेन विना कयं ज्ञानम् ॥] अथ सर्वमेव ज्ञानमेकं ज्ञानाईत ज्ञेयमन्तरेण नानारूपेण घटपटादिपदार्थमन्तरेण घटपटाविज्ञानरूपेण संस्थितं यदि क्षेत् तो तहि किमपि झेयं ज्ञेयपदार्थचन्द घटपटादिलक्षणं नैव नारत्येव । भवतु नाम लेयेन पदार्थेन किं भवेदिति चेत् सेयेन विना ज्ञातुं योग्येन गृहगिरिभूमिजलाग्निवाप्तादिना बिना तेषां गृहाचटावीना ज्ञानं कर्थ सिद्धयति । तदो पेयं परमस्य । ततःझेयमन्तरेण ज्ञानानुत्पत्तेः परमार्थभूतं ज्ञेयं अजीकर्तव्यम् ।। २४७ ॥ अथ तदेव क्षेयं समर्थयति
घड-पड-जड-दवाणि हि णेय-सरूवाणि सुप्पसिद्धाणि ।
माणं जाणेदि जदो अप्पादो भिष्णरुवाणि ॥ २४८॥
या-घटपटमरदव्याणि विशेषखस्माणि सुप्रसिद्धानि । हान जानाति यतः आत्मनः भिमरूपाणि ।] हि यस्मात् कारणात्, बेयस्वरूपाणि ज्ञातुं योग्यं यं तदेव स्वरूप खभावं येषां तानि यसरूपाणि हात योग्यखभावानि । कानि । घटपटजलद्रम्माणि गृहातडागवापीयनत्रिभुवमगतवस्तूनि । विभूतानि । सुप्रसिद्धानि लोके प्रतिद्धानि लोके प्रविधि गतानि । शानं जानाति यतः यस्मात् मात्मनः सकाशात् शानखरूपावा भिवरूपाणि पृथम्भूतानि नियन्ते । अत एव क्षेयं परमार्थतः सिद्धम् ॥ २४८ ॥ अथ पुनः ज्ञानावैसवादिनं दूषयति
जं सब-लोयसि देह-महादि-बहिरे अस्थ ।
जो तं पिणार्ण मण्यादि ण मुणदि सो णाण-णामं पि ॥ २४९ ॥' [छाया-यः सर्वलोकसिद्धः देहगेहादिवास्यः अर्थः । यः तम् अपि ज्ञानं मन्यते न आनाति स मानवामा अपि ॥] यः सानाद्वैतषाची यत् सर्वलोके प्रसिद्ध भावालगोपालजनप्रसिद्ध वैह शरीरं गेहादिवास्य गृहखटपटलकुटमकटक्षकनअतः द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मेद नहीं मानना चाहिये ।। २४६ ॥ आगे तीन गायावोंके द्वारा झानाद्वैतवादीके मतमें दूषण देते हैं। अर्थ-यदि सब वस्तु ज्ञानरूप ही हैं और एक ज्ञान ही नाना पदार्थोंके रूपमें स्थित है तो ज्ञेय कुछ मी नहीं रहा । ऐसी स्थितिमें बिना ज्ञेयके छान कैसे रह सकता है। भावार्थ-ज्ञानाद्वैतवादी बाह्य घट पट आदि पदार्थोंको असत् मानता है और एक ज्ञानको ही सत् मानता है । उसका कहना है कि अनादिवासनाके कारण हमें बाहरमें ये पदार्थ दिखाई देते हैं । किन्तु वे वैसे ही असल्स हैं जैसे खप्नमें दिखाई देनेवाली बातें असल होती हैं । इसपर बाचार्यका कहना है कि यदि सब ज्ञानरूप ही है तो ज्ञेय तो कुछ भी नहीं रहा । और जब ज्ञेय ही नहीं है तो बिना झेयके ज्ञान कैसे रह सकता है, क्यों कि जो जानता है उसे ज्ञान कहते हैं और जो जाना जाता है उसे क्षेय कहते हैं । जब जाननेके लिये कोई है ही नहीं, तो शान कैसे हो सकता है।॥ २४७ ।। आगे शेयका समर्थन करते हैं । अर्थ-घट पट आदि जड द्रव्य यरूपसे सुप्रसिद्ध हैं । उनको ज्ञान जानता है । अतः ज्ञानसे वे भिन्नरूप हैं ॥ २४८॥ आगे पुनः बानाद्वैतवादीको दूषण देते हैं । अर्थ-जो शरीर मकान वगैरह बाह्य पदार्थ समस्त लोकमें प्रसिद्ध हैं उनको भी जो ज्ञानरूप मानता है वह ज्ञानका नाम भी नहीं जानता ।। भावार्थ आचार्यका कहना है कि जिनका स्वरूप जानने योग्य होता है उन्हें हेयखरूप कहते हैं । अतः ज्ञानसे बाहर जितनेभी पदार्थ हैं वे सब शेयरूप हैं __ १ स किंपिवणेयं, [ किंनि विषय । न स स ग बदो, म अदा । ३ स दहे, म देशगेहादि । ४४ स गाणं, ग पिपणाण। ५ अणच ।