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१०. लोकानुभेक्षा दवाण पजयाणं धम्म-विवक्खाएँ कीरएं भेओ'।
वत्थु-सरूवेण पुणो ण हि भेदो सकदे काउं ॥ २४५ ॥ [छाया-द्रव्याणां पर्ययाणां धर्मयिवक्षया क्रियते भेदः । वस्तुखरूपेण पुनः न हि भेदः शक्यते कर्तुम् ॥] कारणकार्ययोः सर्वथा भेदः इति नैयायिकानां मतम्, तमिरासार्थमाह । व्याणां मृदुल्यादीनां कारणभूतना पर्यायाणी घटादिपरिणताना कार्यभूताना भेदः क्रियते ।कया। धर्मविषक्षया एव खभावं बतुमिच्छया एव 1 इदं ग्राम्यादि कारणम् , इवं पठादिपर्यायः कार्यमिति धर्मधर्मिणो देन भेदः । न तु सर्वघा भेदः । होति स्फुटम् । पुनः धर्मधर्मिणोर्मेंदः कत न शक्यते । वस्तस्वरूपेण इण्यार्थिकनयप्राधान्येन कार्यकारणयोरेक्य, तथा च गुणगुणिनोः पर्यायपर्याविणोः स्वभावस्वभाविनोः कारणकारणिनोः भेदः । इम्ये द्रव्योपचारः गुणे गुणोपचारः पर्याय पर्यायोपचारः इव्ये गुणोपचारः व्ये पर्यायोपचारः गुणे द्रव्योपचारः गुणे पर्यायोपचारः पर्याये न्योपचारः पर्याये गुणोपचारः इति मभेदः ॥ २४५ ॥ भय वस्तुतः मोरपि व्याययोः सया भवपारिन पूया
जदि वत्थुदो विभेदों पजय-दवाण माणसे' मूह ।।
तो जिरवेक्खा सिद्धी दोण्ह पि य पावदे णियमा ॥ २४६ ॥ [यदि वस्तुतः विभेदः पर्ययद्रव्याणां मन्यसे मूह । ततः निरपेक्षा सिदिः द्वयोः अपि च प्रानति नियमात ॥] रे मूह हे अशानिन हे नैयायिकपतो, यदि चेत्पर्यायवध्ययोर्षस्तुतः परमार्थतः वस्तुसामान्येन पा मेदः भिवं मन्यसे त्वम् अत्रीक्रियसे तो तईि दोहं पियोरपि कार्यकारणयोरपि गुणगुणिनोः पर्यायपर्यापिनोथ मेदः निवमात् निरपेक्षा परस्परापेक्षारहिता सिद्धिः निष्पतिः प्राप्नोति । यथा हि पर्यायिणोद्रव्यादेः घटादिपर्यायाः सर्वषा भिवास्तईि मृहव्याविना विमा घटादिपर्यायाः क न लभेरन् ॥ २४६ ॥ अथ शानाद्वैतवादिर्न गापात्रयेण दूषयतिआगे द्रव्य और पर्यायमें कपंचित् भेद और कथंचित् अभेद बतलाते हैं । अर्थ-धर्म और धर्मीकी विवक्षासे द्रव्य और पर्याय में भेद किया जाता है । किन्तु वस्तु खरूपसे उनमें भेद नहीं है || भावार्थ-नैयायिक मतावलम्बी कारण और कार्यमें सर्वथा मेद मानता है । उसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि कारणरूप मिट्टी आदि द्रव्यमें और कार्यरूप घटादि पर्यायमें धर्म और धर्मी भेदकी विवक्षा होनेसे ही भेद है, अर्थात् जब यह कहना होता है कि यह मिट्टी धर्मी है और यह घटादि पर्याय धर्म है, तभी मेदकी प्रतीति होती है, किन्तु वस्तु खरूपसे धर्म
और धर्मीमें भेद नहीं किया जा सकता । अर्थात् द्रव्याधिक नयसे कार्य और कारणमें अमेद है। इसी तरह गुण गुणी, पर्याय पर्यायी, खभाव स्वभाववान् आदिमें भी कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद समझना चाहिये ॥ २४५ ॥ आगे द्रव्य और पर्यायमें सर्वया मेद माननेवाले वादीको दूषण देते हैं । अर्थ-हे मूढ़, यदि र द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मी भेद मानता है तो द्रव्य और पर्याय दोनोंकी नियमसे निरपेक्ष सिद्धि प्राप्त होती है । भावार्थ-यदि द्रव्य और पर्यायमें वस्तुरूपसे मी मेद माना जायेगा तो द्रव्य पर्यायसे सर्वथा भिन एक जुदी वस्तु ठहरेगा और पर्याय द्रव्यसे सर्वथा भिन्न एक जुदी वस्तु ठहरेगी । ऐसी स्थितिमें बिना पर्यायके भी द्रव्य और निना व्यके पर्याय दुआ करेगी। जैसे यदि मिष्टीरूप द्रव्यसे घटादि पर्याय सर्वथा भिन्न हैं तो मिडीके मिना मी घट पाया जायगा ।
सम विवाक्खाय, स ववक्खाए। २कीरइ। ३९भेउ, म स भेओ (१) ४ व विमेओ। ५ म मणस मूढो, स मणवे, ग माणसे। ६ब दुण्इं ।