SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०२४३जदि दवे पजाया वि विजमाणो तिरोहिदा संति। ता उप्पत्ती विहला पडिपिहिदे देवदत्ते ॥ २४३॥ [छाश-यदि दन्ये पर्यायाः अपि विद्यमानाः तिरोहिताः सन्ति । तत् उत्पत्तिः विफला प्रतिपिहिने देवदत इव ॥ अथ सांख्यादयः एवं वदन्ति । द्रव्ये जीवादिपदार्थे सर्वे पर्यायाः तिरोहिताः बादिताः विद्यमानाः सन्ति, त एव जायन्ते उत्पश्चन्ते, सर्व सर्वत्र विद्यते, इति सन्मतं समुत्पाद्य दूषयति । अन्ये जीवपद्लादिवस्तुनि पर्याया नरनारकादिमुद्यादयः स्कन्धादयः परिणामाः विद्यमानाः सदूपाः अस्तिरूपाः तिरोहिताः अन्तलीनाः अप्राहुमताः सन्ति विद्यन्ते यदि घेत तर्हि पर्यायाणामुत्पत्ति उत्पादः निष्पत्तिः विफला निष्फला निरर्थका भवति । पटपिहिते देवदते इव, यथा वनाच्छादिते देवदते तस्य देवदत्तस्य वन उत्पत्तिन घटते प्रथा तथा सर्वे नरनारायुयादयः पदार्थाः प्रकृती लीना: तर्हि अवस्य हस्तिशतयूयं कर्थ न जामवे इति दूषणसद्धावान् अविद्यमानाः पर्यायाः जायन्ते ॥ २४३॥ सैघाण पाया अस्मिानाजायण हीदि उपत्ती। कालाई-लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दधम्मि ॥ २४४ ॥ [छाया-सर्वेषां पर्यायाणाम् अविद्यमानार्ना भवति उत्पत्तिः । कालादिलबभ्या अनादिनिधने म्ये ॥] सर्वेषा पर्यायाणां नरनारकादिपुद्गलादीना द्रव्ये जीवादिवस्तुनि। किंभूते। अनादिनिधने अनिनश्वरे पदार्थ कालादिलन्ध्या इध्यक्षेत्रकालभषभावलाभेन उत्पत्तिर्भवति उत्पादः स्यात् । किंभूतानाम्। 'भविद्यमानानाम् असतो द्रव्ये पर्यायाणासत्पतिः स्यात् । गथा विद्यमाने मृडप्ये घटोत्पत्स्यश्चितकाले कुम्भकारादौ सत्येष घटावयः पर्याया जायन्ते तथा ॥१४॥ भाष द्रव्यपर्यायाणां कथंचिनेद कचिदमेदं दर्शयति वर्ण, एक गन्ध, एक रस, और दो स्पर्श गुण रहते हैं पुद्गलकी स्वभावगुणव्यंजनपर्याय है। इस तरह जैसे जलमें लहरे उठा करती हैं वैसे ही अनादि और अनन्त द्रव्यमें प्रति समय पर्याय उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं ॥ २४२ ॥ यहाँ यह शङ्का होती है कि द्रव्यमें विद्यमान पर्याय उत्पन्न होती है अथवा अविद्यमान पर्याय उत्पन्न होती है ! इसका निराकरण दो गाथाओंके द्वारा करते हैं । अर्थ-यदि द्रव्यमें पर्याय विद्यमान होते हुएभी ढकी हुई हैं तो बससे ढके हुए देवदत्तकी तरह उसकी उत्पत्ति निष्फल है ।। भावार्थ-सांख्यमतावलम्बीका कहना है कि जीवादि पदार्थों में सब पर्यायें विद्यमान रहती हैं । किन्तु वे छिपी हुई हैं, इस लिये दिखाई नहीं देतीं । सांख्यके इस मतमें दूषण देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे देवदत्त पर्देके पीछे बैठा हुआ है । पर्देके हटाते ही देवदत्त प्रकट होगया । उसको यदि कोई यह कहे कि देवदत्त उत्पन्न होगया तो ऐसा कहना व्यर्थ है, क्योंकि देवदत्त तो वहाँ पहलेसे ही विद्यमान था । इसी तरह यदि द्रव्यमें पर्याय पहलेसे ही विद्यमान हैं और पीछे प्रकट हो जाती है तो उसकी उत्पत्ति कहना गलत है। उत्पत्ति तो अविधमानकी ही होती है ॥ २४३ ॥ अर्थ-अतः अनादि निधन द्रव्यमें काललब्धि आदिके मिलनेपर अविद्यमान पर्यायोंकी ही उत्पत्ति होती है ॥ भावार्थ-द्रव्य तो अविनश्वर होनेके कारण अनादि निघन है। उस अनादि निधन द्रव्यमें अपने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके मिलनेपर जो पर्याय विधमान नहीं होती उसीकी उत्पत्ति होजाती है । जैसे विद्यमान मिट्टीमें घटके उत्पन्न होनेका उचितकाल आनेपर तया कुम्हार आदिके सद्भावमें घट आदि पर्याय उत्पन्न होती है ॥ २४४ ।। १लग विक्जमाणा। २म स ग देवदसिब्ब। ३स सब्याग दवाणं पजावाणं भविजमाणाणं उपची। काला दयन्दि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy