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________________ XII गृहस्थाश्रम वि० सं० १९४४ माघ सुदी १२ को २० वर्षकी आयुमें श्रीमद्जीका शुभ विवाह जौहरी रेवाशंकर जगजीवनदास मेहताके बड़े भाई पोपटलालको महाभाग्यशाली पुत्री अबकलाईके साथ हुआ था। इसमें दूसरोंको 'इच्छा' और 'अत्यन्त आग्रह' ही कारणरूप प्रतीत होते हैं । विवाहके एकाध वर्ष बाद लिखे हुए एक लेखमें श्रीमद्जी लिखते हैं-"स्त्रीके संबंध में किसी भी प्रकार द्वेष नहीं हैं । परन्तु पूर्वोपार्जन से इच्छाके प्रवर्तनमें अटका हूँ ।" (पत्रांक ७८ ) की मेरी नावा सं० १९४६ के पत्र लिखते हैं- "तस्वशानकी गुप्त गुफाका दर्शन करनेपर गृहाश्रमसे विरक्त होना अधिकतर सूझता है ।" ( पत्रांक ११३) श्रीमद् गृहवासमें रहते हुए भी अत्यन्त उदासीन थे। उनकी मान्यता थी— "कुटुंबरूपी काजलकी कोटड़ी में निवास करनेसे संसार बढ़ता है। उसका कितना भी सुधार करो, तो भी एकान्तवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका शतांश भी उस काजलकी कोठड़ीमें रहनेसे नहीं हो सकता, क्योंकि वह कायका निमित्त है और अनादिकाल से मोहके रहनेका पर्वत है ।" (पत्रांक १०३) फिर भी इस प्रतिकूलतायें वे अपने परिणामोंकी पूरी सम्भाल रखकर चले । सफल एवं प्रामाणिक व्यापारी श्रीमद्जी २१ वर्षकी उम्र में व्यापारार्थ वाणियासे बंबई खाये और सेठ रेवाशंकर जगजीवनवासकी दुकानमें भागीदार रहकर जवाहिरातका व्यापार करने लगे । व्यापार करते हुए भी उनका लक्ष्य आत्माकी और अधिक था । व्यापारसे अवकाश मिलते ही श्रीमद्जी कोई अपूर्व आत्मविचारणायें लीन हो जाते थे । ज्ञानयोग और कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था। श्रीमद्जीके भागीदार श्री माणेकलाल लाभाईने अपने एक वक्तव्यमें कहा था- " व्यापारमें अनेक प्रकारकी कठिनाइयां आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अटोल पर्वतके समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुयोंको पितासे बितातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे।" जवाहरात के साथ मोतीका व्यापार भी श्रीमदजीने शुरू किया था और उसमें वे सभी व्यापारियों में अधिक विश्वासपात्र माने जाते थे। उस समय एक अरब अपने भाईके साथ मोतीकी आदतका धन्धा करता था। छोटे भाईके मनमें आया कि आज में भी बड़े भाईकी तरह बड़ा व्यापार करूँ । दलालने उसकी श्रीमद्जोसे भेंट करा दी। उन्होंने कस कर माल खरीदा। पैसे लेकर अश्व पर पहुँचा तो उसके बड़े भाईने पत्र दिखाकर कहा कि वह माल अमुक किंमत के बिना नहीं बेचने की शर्त की है और तूने यह क्या किया ? यह सुनकर वह घबराया और श्रीमद्जीके पास जाकर गिड़गिड़ाने लगा कि में ऐसी माफ़त में आ पड़ा हूँ । श्रीमद्जीने तुरन्त माल वापस कर दिया और पैसे गिन लिये। मानो कोई सौदा किया हो न या ऐसा समझकर होनेवाले बहुत नको जाने दिया । वह अरब श्रीमद्जीको खुदाके समान मानने लगा । इसी प्रकारका एक दूसरा प्रसंग उनके करुणामय और निस्पृही जीवनका अमलंत उदाहरण है। एक बार एक व्यापारीके साथ श्रीमद्जीने हीरोंका सौदा किया कि अमुक समयमे निश्चित किये हुए भावसे वह व्यापारी श्रीमद्जीको अमुक हीरे दे उस विषयका दस्तावेज भी हो गया। परन्तु हुआ ऐसा कि मुद्दतके समय भाव बहुत बढ़ गये । श्रीमद्जी खुद उस व्यापारीके यहां जा पहुंचे और उसे चिन्तामन देखकर वह दस्तावेज फाड़ डाला और बोले - "भाई, इस चिट्टी ( दस्तावेज) के कारण तुम्हारे हाथ-पांव बंधे हुए थे । बाजार भाव बढ़ जानेसे तुमसे मेरे साठ-सत्तर हजार रुपये लेने निकलते हैं, परन्तु मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता है। इतने अधिक रुपये में तुमसे ले लूँ तो तुम्हारी क्या दशा हो ? परन्तु राजचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं ।" वह व्यापारी कृतज्ञभावसे श्रीमद्जीकी ओर स्तब्ध होकर देखता ही रह गया।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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