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अवधान-प्रयोग, स्पर्शमशक्ति
वि० सं० १९४० से श्रीमदजी अवधान-प्रयोग करने लगे थे। धीरे-धीरे वे "शतावधान तक पहुंच गये थे। जामनगरमें बारह और सोलह कवधान करने पर उन्हें 'हिन्दका हीरा' ऐसा उपनाम मिला था। वि० सं० १९४३ में १९ वर्षकी उम्रमे उन्होंने बम्बईकी एक सार्वजनिक सभामें 10 पिटर्सनकी अध्यक्षतामे शतावधानका प्रयोग विखाकर बडे-बड़े लोगों को आश्चर्य में डाल दिया था। उस समय उपस्थित जनताने उन्हें 'सुवर्णचन्द्रक' प्रदान किया था और 'साक्षात् सरस्वती' की उपाधिसे सम्मानित किया था।
श्रीमदजीको स्पर्शनशक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी। उपरोक्त सभामें उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकारके बारह अभ्य दिये गये और उनके नाम भी उन्हें पढ़ कर मुना दिये गये। बाबमें उनकी आंखोंपर पट्टी बांध कर जो-जो प्रन्थ उनके हाथ पर रखे गये उन सब ग्रन्थों के नाम हाथोंसे टटोलकर उन्होंने बता दिये।
श्रीमद्जीकी इस अद्भुत पक्तिसे प्रभावित होकर तत्कालीन बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स सारजन्टने उन्हें परोपमें जाकर वहाँ अपनी शक्तियां प्रदर्शित करनेका अनुरोध किया, परन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्हें कीतिको इच्छा न थी, बल्कि ऐसी प्रवृत्ति आत्मोन्नति में बाधक और सन्मार्गरोधक प्रतीत होनेसे प्रायः बीस वर्षको उम्रके बाद उन्होंने अवधान-प्रयोग नहीं किये । महात्मा गांधोने कहा था
महात्मा गांधीजी श्रीमदजीको धर्मके सम्बन्ध में अपना मार्गदर्शक मानते थे। वैलिग्दते हैं
"मुझ पर तीन पुरुषोंने गहरा प्रभाव राला है-टाल्सटॉय, रस्किन और रायचन्दभाई। टाल्सटायने अपनी पस्तकों द्वारा और उनके साथ थोडे पत्रव्यवहारसे, रस्किनने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दि लास्ट' से-विसका गुजराती नाम मैमे 'सर्वोदय' रहा है, और रायचन्दमाईने अपने गाद परिचयसे । जब मुग्ने हिन्धुधर्ममें वांका पैदा हुई उस समय इसके निवारण करने में मदद करनेवाले रायचन्दभाई थे."
जो वैराग्य (अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?) इस काव्यको कड़ियोंमें झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्षके गाढ़ परिचयमें प्रतिकप उनमें देखा है। उनके लेखोंमें एक असाधारणता यह है कि उन्होंने जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है। दूसरे पर प्रभाव डालने के लिए एक पंकि भी लिखी हो ऐसा मने नहीं देखा ।..
साते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगतके किसो भी वैभव में उन्हें मोह हा हो ऐसा मैने नहीं देखा 1..."
व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जितना तत्तम मेल मैंने कक्मेिं देखा उतना किसी अन्यम नहीं देखा ।"
'धीमद् राजचन्द्र जयन्ती' के प्रसंग पर ईस्वी सन् १९२१ में गांधीजी कहते है--"बहुत बार कह और लिख गया है कि मैंने बहुतोंके जीवन से बहुत कुछ लिया है। परन्तु सबसे अधिक किसीके जीवन से मैंने ग्रहण किया हो तो वह कवि (थोमदजी) के जीबनमेंसे है। दयाधर्म भी मैंने उनके जीवन से सीख है।" सून करनेवालेसे भी प्रेम करना यह दयाधर्म मुझे कविने सिखाया है।"
* शतावधान अर्थात् सौ कामोंको एक साथ करना । जैसे शतरंज खेलते जाना, मालाके मनके गिनते जाना, जोड़ बाकी गुणाकार एवं भागाकार मन में गिमते जाना, माठ नई समस्याओंकी पूर्ति करना, सोलह निर्दिष्ट नये विषयोंपर निर्दिष्ट दमें कविता करते जाना, सोसह भाषाओंके अनुक्रमविहीन चार सौ शाम्ब कर्वाकर्मसहित पुनः अनुकमबम कह सुनाना, कतिपय अलंकारोंका विचार, दो कोठोंमें लिखे हुए उल्टेसीधे अक्षरोसे कविता करते आना इत्यादि। एक जगह ऊँचे आसनपर बैठकर इन सब कामोंमें मन और दृष्टिको प्रेरित करना, लिखना नहीं या दुबारा पूछना नहीं और सभी स्मरणामें रख कर इन सो कामोंको पूर्ण करना । श्रीमद्जी लिखते हैं-"अवधान आत्मशक्तिका कार्य है यह मुझे स्वानुभवसे प्रतीत हुला।।" (पीक १८)