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________________ जैन होगोंके प्रति मुझे बहुत घुगुप्सा पाती थी तथा उस समय प्रतिमाके अश्रवाल लोगोंकी क्रियाएँ मेरे देखने में आई थीं, जिससे वे क्रियाएं' मलिन लगनेसे में उनसे डरता पामर्थात् वे मुझे प्रिय न पी । लोग मुझे पहलेसे ही समर्थ शक्तिशाली और गाँवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इसलिए मैं अपनी प्रशंसाके कारण जानयूझकर वैसे मंडल में बैठकर अपनी चपल शक्ति दर्शानका प्रयत्न करता। कंठीके लिए बार-बार वे मेरी हास्यपूर्वक टीका करते; फिर भी मैं उनसे वाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता । परन्तु धीरे-धीरे मुझे उनके ( जैनके ) प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढ़नेके लिए मिली; उनमें बहुत विनयपूर्वक जगतके सब जीवोंसे मित्रता चाही है। अतः मेरी प्रीति इसमें भी हुई और उसमें भी रही। धीरे-धीरे यह प्रसंग बढ़ा। फिर भी स्वच्छ रहनेके तथा दूसरे आचार-विचार मुझे वैष्णवोंके प्रिय थे और जगतकाकी श्रवा घी । उस बरसेमें कंठी टूट गई; इसलिए उसे फिरसे मैने नहीं बांधा। उस समय बाधने, न बांधनेका कोई कारण ममेहा नहीं था। यह मेरी तेरह वर्षकी अयचर्या है। फिर मैं अपने पिताकी दूकान पर बैठता ओर अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कम-दरबारके उतारे पर मुझे लिखने के लिए बुलाते तब मैं वहाँ आप्ता । दुकान पर मैने अनेक प्रकारकी लीला-लहर की है; अनेक पुस्तकें पढ़ी है, राम हत्यादिके चरित्रों पर कविताएं रची है। सांसारिक सृष्णाएं की है, फिर भी किसीको ममें न्यून-अधिक भाव नहीं कहा या किसीफो न्यून-अधिक तोल कर महीं दिया, यह मुझे निश्चित याद है ।" ( पत्रांक ८९) जातिस्मरणशान और तत्वज्ञानकी प्राप्ति श्रीमदृषी जिस समय सास वर्षके थे उस समय एक महत्वपूर्ण प्रसंग उनके जीवनमें बना। उन दिनों बवाणियामे अमीचन्द नामक एक गृहस्य रहते थे जिनका श्रीमद्जीके प्रति बहुत प्रेम था । एक दिन साँपके काटालो हपकी त य होना मात सुनमा मीनद्जी पितामहके पास आये और पूछा-'अमीचन्द गुजर गये क्या ? पितामहने सोचा कि मरणकी बात सुनमेसे बालक पर आयेगा, बतः उन्होंने, भ्यालू कर के, ऐसा कहकर यह बात टालमेका प्रयत्न किया। मगर श्रीमदखी बार-बार यही सवाल करते रहे । आखिर पितामहने कहा-'हाँ, यह बात सच्ची है।' श्रीमदजीने पूछा-'गुजर जानेका अर्थ क्या? पितामहने कहा-'उसमेंसे जीव निकल गया, और अब वह पल-फिर या बोल नहीं सकेगा; इसलिए उसे तालाबके पासके स्मशानमें जला देंगे। श्रीमद्जी पोशी देर घरमें इधर-उधर घूमकर छिप-छिपे तालाब पर गये और तटवर्ती दो शाखावाले बबूल पर चढ़ कर देखा तो सचमुच चिता जल रही थी। कितने ही मनुष्य वासपास बैठे हुए थे। यह देखकर उन्हें विचार आया कि ऐसे मनुष्यको जला देना यह कितनी क्रूरता ! ऐसा क्यों हुआ? इत्यादि विचार करते हुए परवा हट गया; और उन्हें पूर्वभवोंकी स्मृति हो आई। फिर जब उन्होंने जूनागढ़का गढ़ देखा तब उस ( जातिस्मरणशान ) में वृद्धि हुई। इस पूर्वस्मृतिरूप शानने उनके जीवन में प्रेरणाका अपूर्व नवीन अध्याय जोड़ा। इसीके प्रतापसे उन्हें छोटी उम्रसे वैराग्य और विवेककी प्राप्ति द्वारा तस्वबोध हुआ। पूर्वभवके शामसे आस्माकी श्रद्धा निश्चल हो गई । संवत् १९४९, कार्तिक वद १२ के एक पत्र लिखते है--"पुनर्जन्म है-अरूर है। इसके लिए 'मैं' अनुभवसे हो कहने में बचा है। यह वाक्य पूर्वभवके किसी योगका स्मरण होते समय सिद्ध हुआ लिखा है। जिसने पुनर्जन्मादि भाव किये है, उस पदार्थको किसी प्रकारसे जानकर यह वाक्य लिखा गया है।" (पत्रांक ४२४) एक अन्य पत्र लिखते है-"कितने ही निर्णयोंसे मैं यह मानता हूँ कि इस कालमें भी कोई-कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणानसे जान सकते है। यह जानना कल्पित नहीं किंतु सभ्य (यथार्थ) होता है ! उत्कृष्ट संवेग, शानयोग और सत्संगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभव में आ बाता है। जब तक पूर्वभव बनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालके लिए सशंकित धर्मप्रयत्न किया करता है और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता।" (पत्रांक ६४)
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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