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________________ -३४०]. १२. धर्मानुप्रेक्षा अपवरकादिवास्नुद्विपदचतुष्पदशयनासनवनभाण्डादीनां बादशगान परिमाणं भयादा संख्यां करोति विदधाति ।* कृत्वा । पूर्व तेषां संगानाम् उपयोम ज्ञात्वा कार्यकारित्व परिज्ञाय परिप्रहाणां संख्या करोति यः स पचमाणुव्रतधारी स्यात् ।' तथा चोकं च धनधान्याविप्रन्य दिनाम ततोऽस्मिता पनि स्थानमाणनामापित इति। तथा पञ्चातिचारान् वर्जयति पञ्चमाणुवतधारी । क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुम्यप्रमाणातिकमाः । क्षेत्र धान्योत्पतिस्थानम्, वास्तु गृहहट्टापवरादिकम् । 91 हिरण्यं रुप्यताम्रादिघटितद्रम्मव्यवहारप्रवर्तनम् , सुवर्ण कनकम् ।। धन मोमहिषीगजाजिवडवोष्ट्राजादिकम् , धान्य बोधादि अष्टादशभेदमुसम्यम् । उक्त च । “गोधूम , शालि १ यव ३ सय * माष ५ मुद्राः, श्यामाक ७ का ८ तिल ९ कोद्रय १० राजमाषाः ११। कीनाश १२ नाल १३ मथ वैणन १४ मारकी च १५, सिंबा १६ कुलत्थ १७ चणकादिसुत्रीजधान्यम् १८ ॥"३ । दासी चेटी दासः चेटः। ४ । फुप्य झोपकोशेयककासबन्दनादिकम् । ५. चत्वारि दे दे, मिलित्वा पञ्चमं केवल ज्ञातव्यम् । तेषां क्षेत्रादीनां पश्चाना प्रमाणानि, तेषा प्रमाणानाम् अतिक्रमाः अतिरेकाः अतीवलोभवशात् प्रमाणातेलचनानि । एते पनातिबाराः परिग्रहपरिमाणवतस्य वेदितव्याः । अन्यश्च तदुक्तं च । "अतिघाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिप्रहस्य च विक्षेपाः पर लक्ष्यन्ते ।।" इति। अत्र दृष्टान्तकथाः जयकुमारदमचनवनीतपिलाकश्रेष्ठ्यादीनां शातव्याः । तथा जोक्तं च "मातो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । नीली जयश्व संप्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ॥ धनश्रीसत्यघोषौ च तापसारक्षकावपि । उपाख्ये वगैरहको कुप्य कहते हैं । इनमेंसे शुरुके दो दो को लेकर चार तथा शेष एक लेनेसे पांच होते हैं । अत्यन्त लोभके आवेशमें आकर इनके प्रमाणको बढ़ा लेनेसे परिग्रह परिमाण वतके पाँच अतिचार होते हैं । आचार्य समन्तभद्ने रझकरंड श्रावकाचारमें परिग्रह परिमाण व्रतके पांच अतिचार दूसरे बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं-अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोभ और अतिभारवाहन | जितनी दूरतक बैल वगैरह सुखपूर्वक जा सकते हैं, लोभमें आकर उससे भी अधिक दूर तक उन्हें जोतना अतिवाहन है । यह अनाज बगैरह आगे जाकर बहुत लाभ देगा इस लोभमें आकर बहुत अधिक संग्रह करना अतिसंग्रह नामका अतिचार है । प्रभूतलाभके साथ माल्ट वेच देने पर भी यदि उसके खरीदारको और भी अधिक लाभ हो जाये तो खूब खेद करना अतिलोभ नामका अतिचार है। दूसरों की सम्पत्तिको देखकर आश्चर्य करना-आंखें फाड़ देना, विस्मय नामका अतिचार है । लोभमें आकर अधिक भार लाद देना अतिभार वाहन नामका अतिचार है । इस व्रतमें जयकुमार बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। उनकी कथा इस प्रकार है-हस्तिनागपुरमें राजा सोमप्रभ राज्य करता था। उसके पुत्रका नाम जयकुमार या। जयकुमार परिग्रह परिमाण व्रतका धारी था, और अपनी पत्नी सुलोचनामें ही अनुरक्त रहता था । एक बार जयकुमार और सुलोचना कैलास पर्वतपर भरतचक्रवर्तीक द्वारा स्थापित चौवीस जिनालयोंकी बन्दना करनेके लिये गये । उधर एक दिन खर्गमें सौधर्म इन्द्रने जयकुमारके परिग्रह परिमाण अतकी प्रशंसा की । उसे सुनकर रतिप्रभ नामका देव जयकुमारकी परीक्षा लेने आया । उसने स्त्रीका रूप बनाया और अन्य चार स्त्रियों के साथ जयकुमारके समीप जाकर कहा-सुलोचनाके स्वयम्वरके समय जिसने तुम्हारे साथ संग्राम किया था उस विद्याधरोंके स्वामी नमिकी रानी बहुत सुन्दर और नवयुवती है । वह तुम्हें चाहती है । यदि उसका राज्य और जीवन चाहते हो तो उसे स्वीकार करो । यह सुनकर जयकुमार बोला-'सुन्दरि, मैं परिग्रहपरिमाणका प्रती हूँ। परवस्तु मेरे लिये तुच्छ है । अतः मैं राज्य और स्त्री स्वीकार नहीं कर सकता' । इसके पश्चात् उस देवने अपनी वात स्वीकार करानेके लिये जयकुमार पर बहुत उपनर्ग किया। किन्तु यह अपने तसे विचलित
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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