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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
जो लोहं णिणित्ता संतोस - रसायणेण संतुट्ठो । हिदि तिण्हा दुड्डा मण्णतो' विणस्सरं सर्व्वं ॥ ३३९ ॥ जो परिमाणं कुर्बादि धण-घण्ण-सुवण्ण- खित्तमाईणं । उवओगं जाणित्ता अनुपदं पंचमं तस्स || ३४० ॥
[ गा० ३३९
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[छाया-य: लोभ निहत्य संतोषरसायनेन संतुष्टः । निहन्ति तृष्णा दुष्टा मन्यमानः विनश्वरं सर्वम् ॥ यः परिमाणं कुर्वते धनधान्यसुवर्णक्षेत्रादीनाम् उपयोगं ज्ञात्वा अणुव्रतं पञ्चर्म तस्य ॥ ] यः परिग्रह निवृत्त्यत्रतधारी संतोषरसायनेन संतोषामृतरसेन संतुष्टिलोभनिवृत्तिः स चामृतरसेन संतुष्टः सन् संतोषवान् । किं कृत्वा । लोभ तृष्णा निहत्य मुल्वा इत्यर्थः । पुनः किं करोति । दुष्टाः तृष्णाः निहन्ति अनिष्टाः पापरूपाः दुष्टाः तृष्णाः परस्त्रीपर बना दिवालादिरूपाः हिनस्ति स्फेटयति । किं कुर्वन् सन् । मन्यमानः जानन, विचारयन् । किं तत् । सर्व देहगेहादिसमस्ते विनश्वरं भरं विनाशशीलम् ॥ तस्य पुंसः अणुवत पश्चमं परिग्रहपरिमाणलक्षणे भवति यः पथमाणुत्रतधारी धनधान्यसुवर्णक्षेत्रादीनां परिमाणम् आदिशब्दात् गृहहहाआगे दो गाथाओंसे पाँचवे परिग्रहविरति अणुव्रतका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो लोभ कषायको कम करके, सन्तोषरूप रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णाका घात करता है और अपनी आवश्यकताको जानकर धन धान्य सुवर्ण और क्षेत्र वगैरहका परिमाण करता है उसके चित्र अणुव्रत होता है || भावार्थ- परिग्रहत्याग अणुव्रतका धारी सबसे प्रथम तो लोभ कषायको घटाता है, लोभकषायको घटाये बिना परिग्रहको त्यागना केवल ढोंग है, क्यों कि परिग्रहका मूल लोभ है। लोभसे असन्तोष बढ़ता है, और असन्तोष बढ़कर तृष्णाका रूप ले लेता है। अतः पहले वह लोभको मारता है । छोभके कम होजानेसे सन्तोष पैदा होता है। बस, सन्तोष रूपी अमृतको पीकर वह यह समझने लगता है कि जितना भी परिग्रह है सब विनश्वर है, यह सदा ठहरने वाला नहीं है, और इस ज्ञानके होते ही परस्त्री तथा परधनकी वांछारूपी तृष्णा शान्त हो जाती है। तृष्णा शान्त होजानेपर वह यह विचार करता है कि उसे अपने और अपने कुटुम्बके लिये किस किस परिग्रहकी कितनी कितनी आवश्यकता है। यह विचारकर वह आवश्यक मकान, दुकान, जमीन, जायदाद, गाय, बैल, नोकर चाकर, सोना चांदी आदि परिग्रहकी एक मर्यादा बाँध लेता है । कहा भी है- 'धन धान्य आदि परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करना परिग्रह परिमाण व्रत है। इसका दूसरा नाम इच्छा परिमाण भी हैं। इस व्रतके भी पाँच अतिचार छोड़ देने चाहिये - क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम, हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम, धनधान्यप्रमाणातिक्रम, दासीदास - प्रमाणातिक्रम और कुप्यप्रमाणातिक्रम । जिसमें अनाज पैदा होता है उसे क्षेत्र (खेत ) कहते हैं । घर, हवेली वगैरहको वास्तु कहते हैं। चांदी ताम्बे वगैरह के बनाये हुए सिक्कोंको, जिनसे देवलेन होता है, हिरण्य कहते हैं । सुवर्ण (सोना) तो प्रसिद्ध ही है। गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, ऊँट वगैरहको धन कहते है । धान्य अनाजको कहते हैं । धान्य अट्ठारह प्रकारका होता है-गेहूं, धान, जौं, सरसों, उड़द, मूंग, श्यामाक, चावल, कंगनी, तिल, कोदो, मसूर, चना, कुल्या, अतसी, अरहर, समाई, राजमाष और नाल। दासी दाससे मतलव नौकर नौकरानीसे है। सूती तथा सिल्कके वस्त्र
गिरिता मुगति विवरसुरं (१) । २ परमाणं । ४ म धारण ५ म सग अणुब्वयें । ६ ब रवि णुम्वाणि पंचादि ॥ जह इत्यादि
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