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________________ O 213 -३३८] १२. धर्मानुप्रेक्षा २४५ वणिमा शरीरस्य सौभाग्यं प्रियवचनं प्रियगमनं कटाक्षस्तनादिदर्शनं च मनोमोहनकारणं मनसः घेतसः मोहस्य म्यामोहस्थानानस्यास्य कारणं हेतुः कुपद करोति । मुणइ वा पाठे मनुते जानाति । स्त्रीणां रूपं लागं न्य पुरुषस्य मनोमोहनकारणं युरोति विदधातीर्थः । तथा चतुर्थव्रतधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च स्वस्नियः कामक्रीडा सदा सर्वकालं न त्यजति । तदुकं च । पदेसु इत्थिसेवा अनंगीडा सया विवतो धूलयउबम्हचारी जिणेहिं भणिदो पवयणहि ॥17 इति । तथा च । २ च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः खदार संतोषनामापि । इति । तथा च चतुर्थव्रतधारी पश्चाति चारान्द्र वर्जयति । "अन्यविवाहाकरणानङ्गक्रीडा विटत्वविपुलतृषाः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पथ “युतीचाराः ॥” स्वपुत्रपुत्र्यादीन् वर्जयित्वा अन्येषां गोत्रिणां मित्रस्वजनपरिजनानां विवाहकरणाविचारः । १ । अजं योनिलिङ्गं च ताभ्यां योनिलिङ्गाभ्यां विना करकुक्षकुचादिप्रदेशेषु क्रीडन अनत्रकीडातिचारः । २ । बिटत्वं भण्डवचनादिकम् अयोग्यवचनम् । ३ विषयां रक्षा | यस्मिन् काले लिया प्रवृत्तिरुका तस्मिन् का कामतीमा भिनिवेशः । चतयुक्तावालातिरश्रीप्रभृतीनां गमनं रागपरिणार्म विपुलतृषाः । ४ । इत्थरिकागमर्न पुवठीवेश्यादासीनां गमनं जघनस्तनवदनादिनिरीक्षण संभाषणहस्तभ्रू कटाक्षादिसंज्ञा विधानम् इत्येवमादिकं निखिल रामित्वेन दुबेष्टित गमनमित्युच्यते । ५ । एते पचातिचाराः चतुर्थत्रतधारिणा वर्जनीयाः । अत्र दृष्टान्ताः सुदर्शन श्रेष्ठिनीलीचन्दनादयः कोट्टपालक डार पिंगामृतमत्यादयश्च ॥ ३३७-३८ ॥ अथ परिप्रहविरविपवमाशुवतं गाथाद्वयेनाह एकबार वसन्त ऋतु में महापूजाके अवसर पर समस्त अलंकारसे भूषित नीलीको कायोत्सर्गसे स्थित देखकर सागरदत बोला- क्या यह कोई देवी है ! यह सुनकर उसके मित्र प्रियदवने कहा- यह जिनदत्त सेठकी पुत्री नीली है। सागरदत्त उसे देखते ही उसपर आसक्त होगया और उसकी प्राप्तिकी चिंतासे दिन दिन दुर्बल हो चला । जब यह बात समुद्रदत्तने सुनी तो वह मोला - 'पुत्र, जैनीके सिवाय दूसरेको जिनदत्त अपनी कन्या नहीं देगा । अतः बाप बेटे कपटी श्रावक बन गये और नीलीको विवाह लाये । उसके बाद पुनः बौद्ध होगये । बेचारी नीलीको अपने पिताके घर जानेकी मी मनाई होगई। नीली श्वसुर गृहमें रहकर जैनधर्मका पालन करती रही। यह देखकर उसके धरने सोचा कि संसर्गसे और उपदेशसे समय बीतनेपर यह बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेगी। अतः उसने एक दिन नीलीसे कहा - 'पुत्रि, हमारे कहनेसे एक दिन बौद्ध साधुओंको आहार दान दो ।" उसने उन्हें आमंत्रित किया और उनकी एक एक पादुकाका चूर्ण कराकर भोजनके साथ उन्हें खिला दिया । जब वे साधु भोजन करके जाने लगे तो उन्होंने पूछा- हमारी एक एक पादुका कहाँ गई ! नीली बोली- 'आप ज्ञानी हैं, क्या इतना भी नहीं जान सकते ? यदि नहीं जानते तो वमन करके देखें, आपके उदरसे ही आपकी पादुका निकलेगी।' घमन करते ही पादुकाके टुकने निकले, यह देख पक्ष बहुत रुष्ट हुआ । तब सागरदत्तकी बहनने गुस्सेमें आकर नीलीको पर पुरुषसे रमण करनेका झूठा दोष लगाया । इस झूठे अपवादके फैलनेपर नीलीने खानपान छोड़ दिया और प्रतिज्ञा ले ली कि यह अपवाद दूर होनेपर ही भोजन ग्रहण करूँगी । दूसरे दिन नगरके रक्षक देवताने नगरके द्वार कीलित कर दिये और राजाको खम दिया कि सतीके पैरके छूनेसे ही द्वार खुलेगा । प्रातः होने पर राजाने सुना कि नगरका द्वार नहीं खुलता। तब उसे रात्रिके खप्तका स्मरण हुआ । तुरन्त ही नगरकी स्त्रियोंको आज्ञा दी गई कि वे अपने चरणसे द्वारका स्पर्श करें । किन्तु अनेक स्त्रियोंके वैसा करनेपर भी द्वार नहीं खुला | तब अन्तमें नीलीको ले जाया गया। उसके चरणके स्पर्शसे ही नगरके सब द्वार खुल गये । सबने नीलीको निर्दोष समझकर उसकी पूजा की ।। ३३७-३३८ ॥
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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