________________
·
२४८
स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ३४१
यास्तथा श्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ॥" ३३९-४० ॥ इति स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षाय पञ्चाणुत्रताधिकारः समाप्तः ॥ अथ पचाणुत्रतानि व्याख्याय गुगवतानि व्याचक्षासुः प्रथमगुणवतं गाथाद्वयेन प्रथयते
जह सेह-पास संगमाणं हवेइ जीवस्त ।
सव्य-दिसाणे पमाणं तह लोहं णासए' णियमा ॥ ३४१ || जं परिमाणं कीरदि दिसाण सम्राण सुप्पसिद्धाणं । उवओगं जाणित्ता गुणधदं जाण तं पढमं ॥ ३४२ ॥
[ छाया-यथा लोभनाशनार्थ संगप्रमार्ग भवति जीवसर । सर्वदिशानां प्रमार्ग तथा लोभं नाशयति नियमात् ॥ यत् परिमाणं क्रियते दिशानां सर्वासां सुप्रसिद्धानाम् उपयोगं ज्ञात्वा गुणवतं जानीहि तत् प्रथमम् ॥ ] तत् प्रथमम् आद्यं दिग्वताख्यं गुणवतं व्रतानां गुणकारकं जानीहि त्वं विद्धि भो भव्य । तत् किम् । यत्क्रियते विधीयते । किं तत् । सुप्रसिद्धानां जगद्विख्या तानो दशदिशानाम् आशानां पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर दिशानां चतमृणाम् अभिनेऋत्यषायत्री शान विदिशानां चतसृणाम् ऊर्ध्वदिशः धोदिशति दशदिशां परिमाणं मर्यादा योजनाद्यैः संख्या, अतः परम् अहं न गच्छामि इति नियमेन मर्यादा क्रियते । अथवा दशसु दिक्षु हिमाचल विन्ध्यपर्वतादिकम् अभिज्ञानपूर्वक मर्यादां कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतित्रतमुच्यते । किं कृत्वा । उपयोग कार्यकारित्वं ज्ञात्वा परिज्ञाय । जह यथा येनैव प्रकारे जीवस्यात्मनः लोभनाशनार्थं तृष्णा विनाशाय
नहीं हुआ । तब देवने अपनी मायाको समेटकर जयकुमारकी प्रशंसा की और आदर करके स्वर्गको वला गया । इन पांच अणुव्रतोंसे उल्टे पांच पापोंमें अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहमें क्रमसे धनश्री, सस्यघोष, तापस, कोतवाल और श्मश्रुनवनीत प्रसिद्ध हुए हैं । इस प्रकार पांच अणुव्रतों का व्याख्यान समाप्त हुआ ।। ३३९-३४० || पांच अणुव्रतोंका व्याख्यान करके आगे गुणव्रतों का व्याख्यान करते हैं । प्रथमही दो गाथाओंसे प्रथम गुणवतको कहते हैं । अर्थ-जैसे लोभका नाश करनेके लिये जीव परिग्रहका परिमाण करता है वैसे ही समस्त दिशाओं का परिमाण भी नियमसे लोभका नाश करता है | अतः अपनी आवश्यकताको समझकर सुप्रसिद्ध सब दिशाओंका जो परिमाण किया जाता है वह पहला गुणवत है ॥ भावार्थ- पूरब पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में तथा आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान नामक विदिशाओंमें और नीचे व ऊपर इन दस दिशाओं में हिमाचल, विन्ध्य आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानोंकी अथवा योजनोंकी मर्यादा बांधकर 'इनसे बाहर में नहीं जाऊंगा' ऐसा नियस लेने का नाम दिग्बिरति वत है । किन्तु दिशाओंकी मर्यादा करते समय यह देख लेना चाहिये
कि मुझे कहाँ तक जाना बहुत आवश्यक है, तथा इतनेमें मेरा काम चल जावेगा । विना आवश्यकता
इतनी लम्बी मर्यादा बांध लेना जो कभी उपयोग में न आये, अनुचित है। अतः उपयोगको जानकर ही मर्यादा करनी चाहिये । जैसे परिग्रहका परिमाण करनेसे लोभ घटता है वैसे ही दिशाओंकी मर्यादा करलेनेसे भी लोभ घटता है, क्योंकि मर्यादासे बाहर के क्षेत्रमें प्रभूत लाभ होनेपर भी मन उधर नहीं जाता। इसके सिवाय दिग्रितिवत लेनेसे, मर्यादासे बाहर रहनेवाले स्थावर और जंगम प्राणियों की सर्वथा हिंसा न करनेके कारण गृहस्थ महात्रतीके तुल्य होजाता है | आचार्य वसुनन्दिने भी कहा है- 'पूरव, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशामें योजना प्रमाण करके उससे बाहर जानेका स्याग करना प्रथम गुणत्रत है।' आचार्य समन्तभद्रने कहा है- “मृत्युपर्यन्त सूक्ष्मपापकी निवृत्तिके लिये दिशाओंकी मर्यादा करके 'इसके बाहिर मैं नहीं जाऊंगा' इस प्रकारका संकल्प करना दिग्नत है ।”
१ म सग दिसि । २ वासये ।