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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १५० [छाया-बादरलमध्यपूर्णाः असंख्य लोकाः भवन्ति प्रत्येकाः । तथा च अपूर्णाः सूश्माः पूर्णाः अपि च संख्या गुणगपिताः॥ पत्तेया प्रत्येकवनस्सतिकायिकाः बादरलज्यपोशकाः भसंख्यातलोकमात्रा भरन्ति । तहय तपा सुहुमा सूक्ष्माः अपुष्पा लब्ध्यपातका: संख्यातगुणितक्रमाः स्युः। अपि पुनः, सूक्ष्माः पर्याप्ताः संख्यातगुणाकार. गुणितकमा भवन्ति ॥ १४॥ सिद्धा संति अणंता सिद्धाहतो' अर्णत-गुण-गुणिया । होति णिगोदा जीवा भागमणतं अभव्या य ॥ १५०॥ [अया-सिताः सन्ति अनन्ता: सिदेभ्यः अनन्तगुणगुणिताः । भवन्ति निगोदाः जीवा: भागमनन्त अभव्याः सिद्धाः सिद्धपरमेछिनः कर्मकलङ्कविमुक्तजीवाः अनन्ता द्विस्वारानन्तसंख्योपेताः सन्ति भवन्ति । सिद्धाहितो यः सिदराशेः निगोदा जीवनि नियतां गां भूमि क्षेत्र ददातीति अनन्तानन्तजीवानाम् इति निगोदाःसाधा, रणजन्तवोऽनन्तगुणकारगुणिताः १३ = भवन्ति । च पुनः, अभव्या जीवाः सिद्धानन्तकभागमात्रा जपन्ययुक्कानन्तमाश भवन्ति ॥ १५॥ सम्मुच्छिमा' हु मणुया सेडियसंखिज्ज-भाग-मित्ता हु। गम्भज-मणुया सब्वे संखिजा होति णियमेण ॥ १५१॥" है उसमें और गोम्मटसारमें बतलाई हुई संख्या में अन्तर हैं। तथा इस गाया जो 'पत्तेया' शब्द है उसका अर्थ टीकाकारने प्रत्येक वनस्पतिकायिक किया है। किन्तु मुझे यह अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता । क्यों कि यदि ऐसा अर्थ किया जाये तो प्रथम तो चूंकि प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीव सब बादर ही होते हैं । अतः प्रत्येक वनस्पति बादर लब्ध्यपर्याप्तक कहना उचित नहीं जंचता । दूसरे, शेष पृथिवीकायिक आदि बादर लब्ध्य पर्याप्तकोंकी संख्या बतलानेसे रह जाती है। अतः "पत्तेया'का अर्थ यदि प्रत्येक मात्र किया जाये तो अर्थकी संगति ठीक बैठती है । अर्थात् प्रत्येक पृथिवीकायिक आदि बादर लब्ध्यपर्याप्तकोंका प्रमाण असंख्यात लोक है । ऐसा अर्थ करनेसे बादर लब्ध्यपर्याप्तकोंका प्रमाण बतलाकर फिर सूक्ष्मलब्भ्यपर्याप्तकोंका प्रमाण बतलाना और फिर सूक्ष्म पर्याप्तकोंका प्रमाण बतलाना ठीक और संगत प्रतीत होता है । अनु०] ॥ ११९॥ अर्थ-सिद्ध जीव अनन्त हैं । सिबोंसे अनन्तगुने निगोदिया जीव है । और सिद्धोंके अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं || भावार्थ-कर्मकलकसे रहित सिद्धपरमेष्ठी जीव अनन्तानन्त हैं । जो एक सीमित स्थानमें अनन्तानन्त जीवोंको स्थान देते हैं उन्हें निगोदिया अथवा साधारणवनस्पतिकायिक जीव कहते हैं। सिद्ध जीवोंकी राशिसे अनन्तगुने निगोदिया जीव हैं। तथा सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं, जो जघन्य युक्तानन्त प्रमाण होते हैं । सारांश यह है कि अनन्तके तीन मेद हैं परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । इनमेंसे भी प्रत्येकके जघन्य मध्यम और उत्कृष्टकी अपेक्षासे तीन तीन भेद हैं । सो सिद्ध जीव तो अनन्तानन्त हैं, क्योंकि अनादिकालसे जीव मोक्ष जारहे हैं। निगो. दिया जीव सिद्धोंसे भी अनन्तगुने हैं, क्योंकि एक एक निगोदिया शरीरमें अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं | तथा अभव्य जीव, जो कभी मोक्ष नहीं जा सकेंगे, जघन्य युक्तानन्त प्रमाण हैं । यह राशि सिद्ध राशिको देखते हुए उसके अनन्तवें भाग मात्र है ॥ १५० ॥ अर्थ-सम्मूर्छन मनुष्य जगत्श्रेणिके मसिदेहितो। २व समुच्छिमा, कम स सम्मुच्छिया, ग सम्मुच्छिया। ३ व सेडिमस०। ४व संशा छ । देवा वि इत्यादि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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