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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा. ३५२सामाइयस्स करणे खेतं कालं च आसणं विलओ'।
मण-ययण-काय-सुद्धी णायबा इंति सत्तेव ॥ ३५२॥ [छाया-सामायिकस्य करणे क्षेनं कालं च आरान दिलयः । मनवननकायशुद्धिः सातव्या भवन्ति सप्तव ॥] समये आत्मनि भर्व सामायिकम् । अथवा सम्यक् एकरकेन अयन गमनं समयः, स्त्रविषयेभ्यो विनित्य कायवाचनःकर्मगामात्मना सह वर्तनान । इय्यार्थेन आत्मन एकत्वममनमित्यर्थः । रागये एवं सामायिक समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । अथवा संशब्दः एकत्वे एकीभावे वसते, अन्यनम् अयः सम् एकवेन एकीभावेन गमनं परिणमनं समयः । समय एवं सामायिक वा, समयः प्रयोजनमस्येति सामायिकम् । देववन्दनाया निःसंक्लेशं सर्वामिमनामिन्तन मामायिकमित्यर्थः । सामायिकस्य करणे कर्तव्ये सति सप्लेव रामप्यो ज्ञातव्या ज्ञेया भवन्ति । ताः काः । क्षेत्र प्रदेशलक्षणा १, काल पूर्वाहमध्याहापराहकाललक्षणा २, आसनं पद्मासनादिलक्षणा ३, बिलयः ध्यान तन्मयतालक्षणा ४, मनोवचनकाय शुञ्जया आर्तरौद्रध्यान रहिसा धर्मध्यानसहिता मनसः शुद्धिः निर्मलतालक्षणा ५, अन्तर्बाह्यजस्पनरहिता वचनस्य शुद्धिः निर्मलता ६, कायस्य शरीरस्य शुद्धिः निर्मलता ७ ॥ ३५२ ॥ अथ ता गाथापचकेन प्रतिपादयति
जत्थ ण कलयल-सदो बहु-जण-संघट्टणं ण जत्थथि ।
जस्थ ण दंसादीया एस पसस्थो हवे देसो ॥ ३५३ ॥ [छाया-यन्न म कलकलशब्दः बहुजनसंघटन न यत्रास्ति । यत्र न देशादिकाः एष प्रशस्तः भवेत् देशः ॥] सामायिकस्य करणे सति एष प्रत्यक्षीभूतः देशः प्रदेशः स्थानकं क्षेत्रम् । एष कः । यत्र प्रदेशे कलकलशब्दः नास्ति, जनानां वाद्यामा पश्वाधीनां च कोलाहलादो न विद्यते। च पुनः, यत्र प्रदेशे थाहुजनसंघटन बहुजनानां संघटन संघातः परस्पर मिलने वा नास्ति, यत्र स्थाने दंशादिकाः देशमशकवृश्चिककीटकमत्कुणचञ्चपुटसर्पव्याघ्रविटपुरुषस्त्रीनपुंसकपशुमसिरक्तपूयचर्मास्थिमलमूत्रमृतककलेवरादयो न विद्यन्ते स एवं प्रदेशः सामायिककरणस्थान प्रशस्पम् ॥ ३५३ ।। अतिचार रूपसे सचित्त आदि भक्षणका त्याग करना होता है ॥ ३५१ ॥ आगे शिक्षातका व्याख्यान करते हुए सामायिक व्रतकी सामग्री बतलाते हैं । अर्थ-सामायिक करनेके लिये क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, ये सात बातें जानने योग्य हैं । भावार्थ-समय नाम आत्माका है । आत्मामें जो होती है उसे सामायिक कहते हैं । अथवा भलेप्रकार एक रूपसे गमन करनेको समय कहते हैं । अर्थात् काय वचन और भनके व्यापारसे निवृत्त होकर आत्माका एक रूपसे गमन करना समय है, और समयको ही यानी आत्माकी एक रूपताको सामायिक कहते है, अथवा आत्माको एक रूप करना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । अथवा देववन्दना करते समय संक्लेश रहित चिससे सब प्राणियोंमें समताभाव रखना सामायिक है । सामायिक करनेके लिये सात बातें जान लेना जरूरी हैं । एक तो जहाँ सामायिक की जाये वह स्थान कैसा होना चाहिये । दूसरे सामायिक किस किस समय करनी चाहिये । तीसरे कैसे बैठना चाहिये । चौथे सामायिकमें तन्मय कैसे हुआ जाता है, पाँचवे मनकी निर्मलता, वचनकी निर्मलता और शरीरकी निर्मलता को भी समान लेना जरूरी है ॥ ३५२ ।। आगे पाँच गाथाओंसे उक्त सामग्रीको बताते हुए प्रथम ही क्षेत्रको कहते है । अर्थ-जहां कलकल शन्द न हो, बहुत लोगोंकी भीड़भाड़ न हो और डांस मच्छर वगैरह न हों यह क्षेत्र सामायिक करनेके योग्य है ।। भावार्थ-जहाँ मनुष्योंका, बाजोंका और पशुओंका कोलाहल न हो, तथा शरीरको कष्ट देनेवाले डांस, मच्छर, बिच्छू, सांप, खटमल, शेर, आदि जन्तु न हो, सारांश यह कि चित्तको क्षोभ पैदा करनेके कारण जहाँ न हो वहाँ सामायिक करनी चाहिये ॥३५३||
१.विन। २म विनत। हमसग सई।