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१२. धर्मानुमेक्षा
२५७ पुषण्हे मझण्हे अबरण्हे तिहि वि. णालिया-छको ।
सामाहिरा कालो रानिया-णिस्सेस-णिहिट्टो ॥ ३५४ ।। छाया-पूर्वा मध्याहे अपराहे त्रिषु अपि नालिकापट्नम् । सामायिकस्य कालः सविनयनिःखेशनिर्दिष्टः ॥] सामायिकस्य से सम्मा आत्मनि अयति एकत्वम् एकीभावं गच्छति समय एवं सामायिकः तस्य सामायिकस्य कालः । कयंभूतः कालः । खेभ्यः धनेभ्यः निष्क्रान्ताः निःस्वाः निम्रन्थास्तेषामीशाः खामिन: गणधरदेवाइयः सविनयेन दर्शनभानचारित्रोपचारलक्षणेन सहिताः सविनयाः तेच ते निःस्खेशाच निर्दिष्टः कथितः विनयसंयक्तगणधरदेवादिभिः कथितः कालः 4 सकियन्मात्रः कालः पूर्वाशे पूर्वाहकाले सूर्योदयात् प्राक् रानः घटिकात्रयम् एवं रात्रिपाश्चात्यभटकात्रयं सुर्योदयादारभ्य च षटिकात्रय पूर्वाहिकस्य सामायिकस्य योग्यकालः षट्पटिकाप्रमाणम् इत्यर्थः । मध्याझे मध्यदिवसे दिवसस्य मध्ये द्वितीय प्रहरस्य पाश्चात्यनाहीत्रयं तृतीय प्रहरस्य चायनासीत्रयं मध्याहसमयस्य योग्यकालः षड्पटिकावधिः । अपरा संभ्यायो चतुर्थप्रहरस्य पाश्चात्यघटीत्रय रात्रिप्रथमप्रहरस्य घटीत्रयं चेति अपराक्षसामायिकस्य योग्यकामः टिकाषट्कम् । तिहि वि विविध प्रत्येकं षट् षट् घटिकाकाल:, अथवा त्रिच्चपि पूर्वाकमध्याहापराहकालेव्यपि नादिकापटे प्रत्येक घटिकाद्वयं स्यात् । कषित घटी चतुष्टयमित्याहुः । एवं प्रतिकमणादी कालः ज्ञातव्यः । तथा चोतं च । "योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तपिरोनतिः । विनयेन यथाजातः कृतिकर्मामलं भजेत् ॥ इति योग्यकाल: कथितः । तथा योध्यमासनम् उदासनं पर्यशासन चेति । अथवा दण्डकस्यादी अन्ले चोपवेशन योम्यासनम् । योम्यं स्थानं प्रदेशः औपशुनपुंसकरहितमेकान्तस्थानम् । चित्तस्याक्षेपस्यानुत्पादक बने वेश्म वा स्थान देवालयादिर्क वा योग्यस्थानम् । योम्या मना नमस्कारमुद्रा । योग्यावर्ता भर्ति भकि प्रति द्वादशावर्ता भवन्ति । योम्याः शिरोनतयश्चत्वारः भवन्तीति ॥ ३५४॥
चंधित्ता पजक अहवा उल्लेण उन्भओ ठिच्चा ।
काल-पमाण किया इंदिय-वाचार-चजिदो हो ॥ ३५५ ।। आगे सामायिकका काल बतलाते है। अर्थ-विनय संयुक्त गणधर देव आदिने पूर्वाड, मध्याह और अपराध इन तीन कालोंमें छछ: घड़ी सामायिकका काल कहा है ।। भावार्थ-सूर्योदय होनेसे पहले तीन घड़ी और सूर्योदयसे लेकर तीन बड़ी इसतरह छ घड़ी तक तो प्रभात समयमें सामायिक करनी चाहिये । मध्या अर्थात् दिनके मध्यमें दूसरे प्रहरकी अन्तिम तीन घड़ी और तीसरे प्रहरकी शुरूकी तीन की इस तरह छःधड़ी सामायिकका काल है । अपराह अर्थात् सन्ध्याके समय दिनके चतुर्थ प्रहरकी अन्तिम तीन घड़ी और रातके पहले प्रहरकी शुलकी तीन घड़ी इस तरह छ: घड़ी सामायिकका काल है । अर्थात् सामायिक प्रतिदिन तीनवार करनी चाहिये और प्रत्येक भार छछधड़ी करनी चाहिये। किन्तु यह उत्कृष्ट काल है इसलिये ऐसामी अर्थ किया जा सकता है कि तीनों कालोंमें छ: पहीतक सामायिकका काल है । अर्थात् प्रत्येक समय दो दो घड़ीतक सामायिक करनी चाहिये। किन्हीके मतसे चार पड़ी है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण वगैरहके लियेभी कालका जानना जरूरी है। कहा मी है- योग्य काल, योग्य आसन, योग्य स्थान, योग्य मुद्रा, योग्य आवर्त, योग्य नमस्कार आदिको जानकर विनयपूर्वक निर्दोष कृतिकर्म करना चाहिये । इसमेंसे योग्य स्थान और योग्य काल बतला दिया ॥ ३५४ ॥ आगे सामायिककी शेष सामग्रीको बतलाते हैं। अर्थ-पक आसनको बांधकर अथवा सीधा खड़ा होकर, कालका प्रमाण करके, इन्द्रियोंके व्यापारको छोड़नेके लिये जिनवचन में मनको एकाग्र करके, कायको संकोचकर, हाथकी अंजलि करके, अपने खरूपमें लीन दुमा 'अपवा
पतिहि सम (१)। २ग उमर विचा, म उभा दिखा.स उदेण समयो। कहोउ ।