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________________ ૧૮ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा जिण वययग्ग-मणो संबुडे-काओ य अंजलि किवा | स-सरूवे संलीणो वंदण-अत्थं विश्विर्ततो ॥ ३५६ ॥ किवा देस - पमाणं सघं सावज - वज्जिदो हो । जो कुदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव ॥ ३५७ ॥ [ ० ३५६ वन्दना पाठके अर्थका चिन्तन करता हुआ, क्षेत्रका प्रमाण करके और समस्त सावध योगको छोडकर जो श्रावक सामायिक करता है वह भुनिके समान है | भावार्थ - सामायिक करनेसे पहले प्रथम तो समस्त सावयका यानी पापपूर्ण व्यापारका त्याग करना चाहिये । फिर किसी एकान्त चैत्यालय में, बनमें पर्वतकी गुफामें, खाली मकान में अथवा स्मशान में जहाँ मनमें क्षोभ उत्पन्न करनेके कारण न हों, जाकर क्षेत्रकी मर्यादा करे कि मैं इतने क्षेत्रमें ठहरूंगा । इसके बाद या तो पर्यासन लगाये अर्थात् बाँए पैर पर दाहिना पैर रखकर बैठे या कायोत्सर्गसे खड़ा हो जाये, और कालकी मर्यादा करले कि मैं एक घड़ी, या एक मुहूर्त, या एक प्रहर अथवा एक दिन रात तक पर्यङ्कासन से बैठकर अथवा कायोत्सर्गसे खड़ा होकर सर्व साय योगका त्याग करता हूं । इसके बाद इन्द्रियव्यापारको रोक दे अर्थात् स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियाँ अपने अपने विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द में प्रवृत्ति न करें। और जिनदेवके द्वारा कहे हुए जीवादितत्वोंमेंसे किसी एक तत्व के खरूपका चिन्तन करते हुए मनको एकाग्र करे । अपने अनोपाङ्गको निश्चल रखे । फिर दोनों हाथोंको मिला मोती भरी सीपके आकारको तरह अंजुलि बनाकर अपने शुद्ध बुद्ध चिदानन्द स्वरूपमें लीन होकर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनप्रतिमा और जिनालयकी वन्दना करनेके लिये दो शिरोनति, बारह आवर्त, चार प्रणाम और त्रिशुद्धिको करे | अर्थात् सामायिक करनेसे पूर्व देववन्दना करते हुए चारों दिशाओंमें एक एक कायोरसर्ग करते समय तीन तीन आवर्त और एक एक बार प्रणाम किया जाता है, अतः चार प्रणाम और बारह आवर्त होते हैं । देववन्दना करते हुए प्रारम्भ और समाप्तिमें जमीनमें मस्तक टेककर प्रणाम किया जाता है अतः दो शिरोनति होती हैं। और मन वचन और काय समस्त सावध व्यापार से रहित शुद्ध होते हैं। इस प्रकार जो श्रावक शीत उष्ण आदिकी परीषदको सहता हुआ, विषय कषायसे मनको हटाकर मौनपूर्वक सामायिक करता है वह महाव्रतीके तुल्य होता है; क्यों कि उस समय उसका चित्त हिंसा आदि सब पापोंमें अनासक्त रहता है । यद्यपि उसके अन्तरंगमें संयमको घातनेवाले प्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयसे मन्द अविरति परिणाम रहते हैं फिरभी वह उपचारसे महाव्रती कहा जाता है । ऐसा होनेसे ही निर्मन्थलिंगका धारी और ग्यारह अंगका पाठी अभव्य भी महावतका पालन करनेसे अन्तरंग असंयम भावके होते हुए भी उपरिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है। इस "तरह जब निर्मन्थरूपका धारी अभव्य भी सामायिकके कारण अहमिन्द्र हो सकता है तब सम्यग्दृष्टि यदि सामायिक करे तो कहना ही क्या है। सामायिक व्रतके भी पाँच अतिचार हैं-योग दुआणिधान, १ व व्यणे मया । २ ब ग संपूड, [ संयुस १] जिओ शेक, ग यजिदो हो । इने साम ५ सिसा प्राण त्यादि । इसे साफ ४ इमे सामल, मल
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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