________________
१२. धर्मानुप्रेक्षा
निष्पादकम् । यः पुमान् अविद्यमानं च बुभुक्षति खादति प्रतगति च तस्य खापसिमिकर व्रत स्यात् । किम् । ममोमोदकवत्, यथा मनोमोदकः मुमुक्षाक्षुधादिवारणं न करोति तथा अविद्यमानवस्तुनि त्यागे श्रेयो न भवति । अथवा मनोमोदकभक्षणप्रायम् अविद्यमानं वस्तु प्रतयति । तथा भोगोपभोगातिचारान् त्यजति । तान् कान । 'सचित १ संबन्ध २ सम्मिश्रा३ भिषन । दुःपकाहाराः ५। जलकगादिसचितवस्वाहारः १, सचित्तसंबहमारेण दूषित आहारः संबन्धाहारः २, सचित्तेन संमिलितः सचित्तद्रव्यसूक्ष्मप्राण्यतिमित्रोऽशक्यमेदकरणः आहारः सम्मिश्राहारः ३, अभिषषस्य रात्रिचतुःप्रहरैः किन ओदनो द्रवः इन्द्रियालवधनो माषादिविकारादिः वृष्यः द्राध्यस्याहारः अभिषनाहारः ४, अर्धपकः चीक्षणतया दुष्टः पक्कः दग्धपक्कः दुःपकः तस्य आहारः दुःपकाहार: ५। वृष्यदुःपक्कयोः सेवने सति इन्द्रियमदद्धिः। सचिसोपयोगः शतादिप्रपोदरपीडादिप्रतीकारे अभ्यादिप्रज्वालने महान् असंयमः स्यादिति तत्परिहार एव श्रेयान् ॥ ३१ ॥ इति स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाव्याख्याने गुणवतत्रयव्याख्यान समातम् ।। अथ शिक्षात्रतानि व्याचक्षाण: सामायिकसामनों प्रतिपादयति
जो मनुष्य अपने पासमै आवेद्यमान वस्तुका व्रत लेता है, उसका व्रत मनके लाओंकी तरह है । अर्थात् जैसे मनमें लड्डुओंकी कल्पना करलेनेसे भूख नहीं बुझती, वैसेही अनहोती वस्तु के त्यागसे कल्याण नहीं होता । परन्तु अनहोती वस्तुका नियम मी प्रत तो है ही, इसलिये उसका थोडासा फल तो होता ही है। जैसे एक भीलने मुनिराजके कहनेसे कौएका मांस छोड़ दिया था। उसने तो यह जानकर छोड़ा था कि कौएके मांसको खानेका कोई प्रसंग ही नहीं आता। किन्तु एक बार वह बीमार हुआ और वैधने उसे कौएका मांस ही खानेको बतलाया । परन्तु व्रतका ध्यान करके उसने नहीं खाया और मर गया । इस दृढ़ताके कारण उसका जीवन सुधर गया । अतः अनहोती वस्तुका त्याग मी समय थानेपर अपना काम करता ही है, किन्तु विश्वमान वस्तुका माग ही प्रशंसनीय है । अस्तु, भोगोपभोग परिमाण व्रतकेभी पांच अतिचार छोड़ने योग्य हैं-सचित्त आहार, सचित्त सम्बन्धाहार, सचिस सम्मिन्नाझार, अभिषषाहार और दुष्पकाहार । अर्थात् सचित्त (सजीव ) वस्तुको खाना, सचित्तसे सम्बन्धित वस्तुको खाना, सचित्तसे मिली हुई, जिसे अलग कर सकना शक्य न हो, वस्तुको खाना, इन्द्रिय बलकारक पौष्टिक वस्तुओंको खाना, और जली हुई अथवा अधपकी वस्तुको खाना । इसप्रकारका आहार करनेसे इन्द्रियोंमें मदकी वृद्धि होती है, तथा वायुका प्रकोप, उदरमै पीडा आदि रोग हो सकते हैं। उनके होनेसे उनकी चिकित्सा करनेमें असंयम होना अनिवार्य है । अतः भोगोपमोग परिमाण प्रतीको ऐसे आहारसे बचना ही हितकर है। इस प्रकार गुणवतोंका वर्णन समाप्त हुआ । यहाँ एक बात विशेष वक्तव्य है । यहाँ भोगोपभोग परिमाण ब्रतको गुणवतोंमें और देशावकाशिक प्रतको शिक्षाव्रतोंमें गिनाया है, ऐसा ही आचार्य समन्तभद्रने रखकरंद श्रावकाचारमें कहा है । किन्तु तत्त्वार्यसूत्रमें देशात्रकाशिक व्रतको गुणवतोंमें गिनाया है और भोगोपभोग परिमाण व्रतको शिक्षातोंमें गिनाया है। यह आचार्योकी विवक्षाका वैचित्र्य है । इसीसे, गुणवत और शिक्षाबतोंके इस अन्तरको लेकर दो प्रकारकी परम्परायें प्रचलित हैं। एक परम्पराके पुरस्कर्ता तत्त्वार्थसूत्रकार हैं और दूसरीके समन्तभद्राचार्य । किन्तु दोनोंमें कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है, केवल दृष्टिभेद है । जिससे अणुव्रतोंका उपकार हो वह गुणवत है, और जिससे मुनिवतकी शिक्षा मिले वह शिक्षाप्रत है । इस प्रन्यों भोगोपभोग परिमाण ब्रतको अणुव्रतोंका उपकारी समझकर गुणवतोंमें गिनाया है । और तस्वार्मसूत्रमें उससे मुनिव्रतकी शिक्षा मिलती है, इसलिये शिक्षावतोंमें गिनाया है, क्योंकि भौगोपभोगपरिमाण ब्रतमें