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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३५०वर्जयति । तानाहाकन्दप १ कौस्कुच्य २ मौखर्य ३ मतिप्रसाधनं ४ पञ्च । असमीक्षिताधिकरण ५ व्यतीतयोऽनर्थदण्डकटियरतेः ॥ ३४९ ।। अथ भोगोपभोगपरिमाणाख्यं तृतीय गुणमत विवृणोति जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंबोल-बत्थमादीर्ण । जं परिमाणं कीरदि भोजेवभोयं वयं तस्स ॥ ३५० ॥ [छाया-ज्ञात्वा संपतीः भोजनताम्बूलपलादीनाम् । यत् परिमाणे क्रियते भोमोपमोग व्रतं तस्य ॥ तस्य पंसः भोगोपभोगपरिमाणाख्यं तृतीयं प्रतं भवेत, यः संपत्तीः गोगजतुरंगमहिषीधनधान्यसुवर्णरूप्यादिसंपदाः लक्ष्मीः ज्ञात्वा परिशाय सवित्तानुसारेण स्वशक्त्यनुसारेण च यत् भोजनताम्बूलवत्रादीनां परिमाणं मर्यादा संख्या करोति विदधाति । भोजनम् अशनं खाद्य खाद्य लेहो पानम्, ताम्बूलं नागवाटीदलपूगलवाकपूरैलादिकम् , वसं पट्टकुलादिवत्रम् , आदिशब्दात् शयनभाजनवाहनगृहयुवतिधनधाभ्यगोमहिषीदासदासीप्रमुखानां परिमाणं मर्यादा संख्यां करोति विदधाति । तस्य भोगोपभोगपतं भवेत् 1 अशनपानचन्दनलेपपुष्पताम्बूलादिकं वस्तु सकृत् एकवारं भुज्यते इति भोगः परिगोगो वा, शत्र्यासनवम्हाभरणभाजनभायोदिक वस्तु उपभुज्यते पुनः पुनः वारंवार भुज्यते उपभोगः, तयोभौगोपभोगयोवस्तनोः अतं नियमः भोगोपभोगवत स्यात् ॥ ३५० ॥ अथ विद्यमान वस्तु त्वजम् स्तबनाई इति स्तीति जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुबदे सुरिंदो' वि। जो मण-लड्डु व भक्खदि तस्स वयं अप्प-सिद्धियरं' ॥ ३५१ ॥ [अया-यः परिहरति सन्तं तस्य व्रतं स्तौति सुरेन्द्रः अपि । यः मनोलछुकम् इव भक्षयति तस्य व्रतम् अल्पसिद्धिकरम् ॥ यः पुमान् परिहरति त्यजति । कम् । सन्तं विद्यमानम् अर्थ बस्तु धनधान्ययुवतीपुत्रादिकं तस्य पुंसः वर्त संयमः नियमः स्तूयते प्रशस्यते । कैः । सुरेन्द्र देवस्वामिभिः इन्द्रादिकः । तस्य पुंसः व्रतम् अल्पसिद्धिकर खल्पसंपदा. 4014112... सहित भण्डवचन बोलना कन्दर्प है । हास्य और भण्डवचनके साथ शरीरसे कुचेष्टा भी करना कौत्कुष्य है। धृष्टताको लिये हुए बहुत बकवाद करना मौखर्य है । आवश्यक उपभोग परिभोगसे अधिक इकट्ठा करलेना अति प्रसाधन है । बिना बिचारे काम करना असमीक्ष्याधिकरण नामका अतिचार है । इस प्रकार ये पांच अतिचार अनर्थदण्डमतीको छोड़ने चाहिये ॥३४९| आगे भोगोपभोगपरिमाण नामक तीसरे गुणव्रतका वर्णन करते हैं । अर्थ-जो अपनी सामर्थ्य जानकर भोजन, ताम्बूल, वस्त्र आदिका परिमाण करता है उसके भोगोपभोगपरिमाण नामका गुणवत होता है | भावार्थ जो वस्तु एक बार भोगनेमें पाती है उसे भोग कहते हैं। जैसे भोजन पेय, चन्दनका लेप, छल, पान वगैरह । और जो वस्तु बार बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं। जैसे शय्या, बैठनेका आसन, वस्त्र, आभरण, बरतन,स्त्री वगैरह । अपनी शारीरिक और आर्थिक शक्तिको देखकर भोग और उपभोगका जन्म पर्यन्त के लिये अथवा कुछ समयके लिये नियम कर लेना कि मैं अमुक अमुक वस्तु इतने परिमाणमें इतने समय तक भोगूंगा, यह भोगोपभोगपरिमाण नामका तीसरा गुणव्रत है ।। ३५०॥ आगे, भोगोपभोगपरिमाण वतीकी प्रशंसा करते है । अर्थ-जो पुरुष विद्यमान वस्तुओंको भी छोड़ देता है उसके व्रतकी सुरेन्द्र भी प्रशंसा करते हैं । और जो मनके लघु खाता है उसका व्रत अल्प सिद्धिकारक होता है ।। भावार्थ-जो घरमै भोगोपभोगकी विपुल सामग्री होते हुए भी उसका व्रत लेता है, उसका व्रत अत्यन्त प्रशंसनीय है । किन्तु कसम पत्थमाईणं। २मोउवभोई (1) तं तिदिओ (मतदिय): १ म स ग सुरिदेहि । ४० मणुल्नु,मस मणलडुव, ग मणल?। ५स सिद्धिकरं। ६ गुणदतनिरूपणं सामारयस्त इत्यादि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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