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________________ -३४२] १२. धर्मानुप्रेक्षा विष्णुपुराणलि पुराणायणयजुःसामऋग्वेदस्मृतीनां श्रवणम् आवर्णनम् । च पुनः भण्डक्रियाप्रतिपादकसा मासा कुशलपशीकरणशानं नृपसचिवकोपालप्रमुञ्चनरनारीव्याघ्रगजादिवशीकरणशास्त्र मन्त्रयकोषभिमम्पादिप्रतिपादकमात्र स्तम्भनमोहनशास्त्र कामशास्त्र कामोत्पत्तिप्रतिपादकरागशाझं फुकोकमामादिशा र तेषां भण्डनवीकरणकामशाहाबा श्रवणं व्याख्यानं कथनं च। तथा परदोषाणो परेषा दोषाणाम् अपवादाना श्रवण कयनं च, राजनीबोनम्यादिपरविंशतिविधान श्रषणं प्रतिपादन च, तथा रणप्रतिपादकम् इन्द्रजाला दिशाने रायते इति अतिनामानयंदण्डः पञ्चमः।५ ॥३४८॥ अधानर्थदण्डब्याख्यामुपसंहरणाह एवं पंच-पयार अणत्थ-दण्डं दुहावई णिवं । जो परिहरेदि' णाणी गुणवदी' सो हवे विदिओ ॥ ३४९॥ [अया-एवं पश्चप्रकारम् अनर्थदण्दै दुःसावई नित्यम् । यः परिहरति ज्ञानी गुणवती स भवेत् वितीयः ॥ पुमान् द्वितीयः अनपदण्डपरित्यागी गुणप्रती, पचानामगावतानां गुणस्य कारकत्वादनुवर्धनत्वात् पुणतानि विद्यन्ते यह सगुणवती, भवेत् स्यात् । कथंभूतः सन् । शनी आत्मशरीरमेदशानवान् । सकः । यः परिहरति स्यजति । । अनर्थदण्डम् । कियत्प्रकारम् । एवं पूर्वोकप्रकारेण अपम्पानपापोपदेशप्रमादचर्याहिंसादानअतिपयप्रकार फरमे परिहरति । कीदृक्षम् । नित्यं सदा निरन्तर दुःखावहम् अनेकसेसारःखोत्पादकम् । तमानर्थदण्डस्य पिरसेः स्वातिचारान् वशीकरण, काम भोग वगैरहका वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषोंकी चर्चावार्ता सुनना पांचवा अनर्थदण्ड है। भावार्थ-दुश्रुतिका मतलब है बुरी बातोंको सुनना। अतः जिन शाडोंमें मिण्याबातोंकी चर्चा हो, अश्लीलता हो, कामभोगका वर्णन हो, श्री-पुरुषोंके नाचित्र हों, जिनके सुनने और देखनेसे मनमें विकार पैदा हो, कुरुचि उत्पन्न हो, विषयकषायकी पुष्टि होती हो, ऐसे तशाब, मंत्रशाख, स्तम्भन शाख, मोइनशाख, कामशाल आदिको सुनना, सुनाना, वांचना वगैरह, तथा राजकषा, सीकथा, चोरकथा, भोजनकया आदि खोटी कथाओंको सुनना, सुनाना, दुश्रुति नामक पाचवा बनर्थदण्ड है। आजकल अखबारों में तरह तरहकी दवाओंके, कोकशाओंके, सी पुरुषके नम्र चित्रों विज्ञापन निकलते हैं और अनजान युक्क उन्हें पढ़कर चरित्रभ्रष्ट होते हैं। सिनेमाओंमें गन्दे गन्दे चित्र दिखलाये जाते और गन्दे गाने सुनाये जाते हैं जिनसे बालक बालिकाएँ और युवक युवतियां पथभ्रष्ट होते जाते हैं । अतः आजीविकाके लिये ऐसे साधनोंको अपनाना भी गृहस्पके योग्य नहीं है। घनसंचयके लिये भी योग्य साधन ही ठीक है। समाजको भ्रष्टकरके पैसा कमाना वाक्कका कर्तम्ब नहीं है ।।३४८॥ आगे, अनर्थदण्डके कथनका उपसंहार करते हैं। अर्थ-इसप्रकार सदा दुःखदायी पांच प्रकारके अनर्थदण्डोंको जो ज्ञानी श्रावक छोड़ देता है यह दूसरे गुणवतका धारी होता है। भावार्थ-जिनके पालनसे पांचों अणुव्रतोंमें गुणोंकी वृद्धि हो उन्हें गुणवत कहते हैं। दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति आदि गुणवतोंके पालनसे अहिंसा आदि बत पुष्ट और निर्मल होते हैं, इसीसे इन्हें गुणात कहते हैं । ऊपर जो पांच अनर्यदण्ड बतलाये है वे सभी दुःखदायी हैं, व्यर्थ पापसंचयके कारण हैं, बुरी आदतें डालनेमें सहायक हैं । अतः जो शानी पुरुष उनका खाग कर देता है वह दूसरे गुणवतका पालन करता है । इस व्रतके भी पांच अतिचार छोड़ने चाहिये जो इस प्रकार हैकन्दर्प, कौत्कुष्य, मौखर्य, अतिप्रसाधन और असमीक्षिताधिकरण । रामको उत्कटताके कारण हास्य 10मसग परिहरे। २ग गुणवई, सगुगन्वदं च गुणस्पदं दोदि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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