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३. संसारानुप्रेक्षा
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[ छाया - इष्ट वियोगदुःखं भवति महद्धानां विषयतृष्णातः । विषयवशात् सुखं येषां तेषां कुतः तृतिः ॥] दोदि भवति । किं तत् । दुःखम् । कीदृक्षम् । इष्टबियोगम् इष्टानां देवाप्सरोविषयादीनां वियो गजं विप्रयोगस्तत्संभवम् । केषाम् । महान महर्द्धिकानाम् इन्द्र सामानिक श्रायात्रिंशादिदेवानाम् । कृतः । विषयतृष्णातः पञ्चेन्द्रियविषयसुखवाञ्छातः । ये जीवानां विषयवशात् स्पर्शनादिविषयसुत्रवशतः सुखं शर्म तेषां जीवानां कुतः तृप्तिः संतोषः । न कुतोऽपि ॥ ५९ ॥ सारी रिय- दुक्खादो माणस दुक्खं हवेइ अइ-परं ।
माणस - दुक्ख जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ॥ ६० ॥
[छाया - शारीरिकदुःखत्तः मानखदुःखं भवति मतिप्रचुरम् । मानसः स्वयुतस्य हि विषयाः अपि दुःखावहाः भवन्ति ॥ ] ननु देवानां शारीरिकं दुःखं प्रायेण न संभवति मानसदुःखं कियन्मात्रम् इत्युके बाववीति । मानसदुःखम् अतिप्रचुरम् अतिषनं भवेत् । कुतः । शारीरिकदुःखात् शरीरसंभवाशर्मतः । हि यस्मात् मानतदुः खयुतस्य पुंसः विषया अपि इन्द्रियगोचरा अपि दुःखावद्दाः दुःखकारिणो भवन्ति ॥ ६० ॥
देवार्ण पि य सुक्खं मणहर - विसएहिं कीरदे' जदि हि । विस वर्स' जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥ ६१ ॥
[ छाया देवानामपि च सुखं मनोहर विषयैः क्रियते यदि हि । विषयवशं यत्सुखं दुःखस्यापि कारणं तदपि ॥ ] हि स्फुटम् यदि चेत् क्रियते निष्पाद्यते । किं तत् । सुखं शर्मे । केषाम् । देवानाम् अपिशब्दात् न केवलमन्येषाम् । कैः । मनोहर विषयैः देवी नवशरीर विक्रिया प्रमुखैः । यद् विषयवशं विषयाधीनं सुखं तदपि विषयवशं सुखम् । कालान्तरे द्रव्यान्तरसंबन्धे च तदपि सुखं दुःखस्य कारणं हेतुर्जायते ॥ ६१ ॥
कैसे हो सकती है ? धनार्थ-समें यही दुःखी नहीं हैं, किन्तु महर्द्धिक देव भी दुःखी हैं। उन्हें भी विषयोंकी तृष्णा सतत सताती रहती है। अतः जब कोई उनका प्रियजन स्वर्गसे च्युत होता है, तो उन्हें उसका बड़ा दुःख होता है । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह ठीक ही है, क्योंकि जिनका सुख स्वाधीन नहीं है, पराधीन है, तथा जो विषयोंके दास है, उनको सन्तोष कैसे हो सकता है ? ॥ ५९ ॥ अर्थ - शारीरिक दुःखसे मानसिक दुःख बड़ा होता है । क्योंकि जिसका मन दुःखी होता है, उसे विषय भी दुःखदायक लगते हैं । भावार्थ - शायद कोई यह कहे कि देवोंको शारीरिक दुःख तो प्रायः होता ही नहीं है, केवल मानसिक दुःख होता है, और वह दुःख साधारण है। तो आचार्य कहते हैं, कि मानसिक दुःखको साधारण नहीं समझना चाहिये, वह शारीरिक दुःखसे भी बड़ा है; क्योंकि शारीरिक सुखके सब साधन होते हुए भी यदि मन दुःखी होता है तो सब साधन नीरस और दुःखदायी लगते हैं । अतः देव भी कम दुःखी नहीं हैं ॥ ६० ॥ अर्थयदि देवोंका भी सुख मनको हरनेवाले विषयोंसे उत्पन्न होता है, तो जो सुख विषयोंके आधीन है, वह दुःखका भी कारण है । भाषार्थ सब समझते हैं कि देवलोकमें बड़ा सुख है और किसी दृष्टिसे ऐसा समझना ठीक भी है, क्योंकि वैषयिक सुखकी दृष्टिसे सत्र गतियोंमें देवगति ही उत्तम है । किन्तु वैषयिक सुख विषयोंके अधीन है और जो विषयोंके अधीन है वह दुःखका भी कारण है । क्योंकि जो विषय आज हमें सुखदायक प्रतीत होते हैं, कल ने ही दुःखदायक लगने लगते हैं । जब तक हमारा मन उनमें लगता है, या जब तक वे हमारे मनके अनुकूल रहते हैं, तब तक वे
१ वि । २ ग अतिन्द्रय । लमसग कीरण । ४ न विसर ५ ग विसं