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________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा०६२एवं सुट्ट असारे संसारे दुक्ख-सायरे घोरे । किं कत्थ वि अस्थि सुहं वियारमाणं सुणिग्छयदो ॥६॥ [छाया-एवं सुष्टु असारे संसारे दुःखसागरे घोरे । कि कुत्रापि अस्ति सुखं विधार्यमाणं सुनिश्चयतः ॥ ] एवं चतुर्गतिष दुःखसुखभावस्योपसंहार दर्शयति। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण मुनिश्चयतः परमार्थतः विचार्यमाणेच बुधाक चतुर्गतिसार सुखं रुमीत । कमी हसि भूते संखारे। मुटु असारे अतिशयेन सारव जिते। पुनः कीदृझे । दुःखसागरे अमुलसमुद्रे, घोरे रौदे ॥ ६२ ॥ अथ जीवानाम् एकत्र स्थिती नियतत्वं नास्तीत्वाचेदयति दुकिय-कम्म-वसादो राया वि य असुह-कीडओ होदि । तत्येव य कुणइ ई पेक्वंह मोहस्स माहप्पं ॥ ६३ ॥ [छाया-दुष्कृतकर्मवशात् राजापि च अशुचिकीटकः भवति । तत्रैव च करोति रति प्रेक्षचं मोहस्य माहात्म्यम् । च पुनः, राजापि भूपतिरपि न केवलमन्यः भवति जायते । कः । अशुचिकीटकः विष्ठाकोठकः । कृतः । दुःकर्मवशात् पापकर्मोदयवशतः, च पुनः, तत्र विष्टामध्ये रति राग कुरुते सुखं कृत्वा मन्यते: पश्यत यूयं प्रेक्षच मोहस्य मोहनीयकर्मणः माहात्म्यं प्रावस्यं यथा ॥६॥ येन अधैकलिन् मवे अनेके संभया जायन्ते इति प्ररूपयति हमें सुखदायक मालूम होते हैं, किन्तु मनके उधरसे उचटते ही वे दुःखदायक लगने लगते हैं । या आज हमें जो वस्तु प्रिय है, उसका वियोग हो जानेपर वही दुःखका कारण बन जाती है । अतः विषयमुख दुःखका भी कारण है ॥ ६१॥ अर्थ-इस प्रकार परमार्थसे विचार करनेपर, सर्वथा असार, दुःखोंके सागर इस भयानक संसारमें क्या किसीको भी सुख है ? || भावार्थ-चारगतिरूप संसारमें सख-दःखका विचार करके आचार्य पलते हैं. कि निक्षयनयसे विचार कर देखो कि इस संसारमें क्या किसीको भी सच्चा सुख प्राप्त है ! जिन्हें हम सुखी समझते हैं, वस्तुतः वे भी दुःखी ही है। दुःखोंके समुद्रमें सुख कहाँ! ।। ६२ ।। अब यह बतलाते हैं कि जीवोंका एक पर्यायमें रहना भी नियत नहीं है । अर्थ-पापकर्मके उदयसे राजा भी मरकर विष्ठाका कीड़ा होता है, और उसी विष्ठामें रति करने लगता है। मोहका माहात्म्य तो देखो ॥ भावार्थ-विदेह देशमें मिथिला नामकी नगरी है । उसमें सुभोग नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम मनोरमा था । उन दोनोंके देवरति नामका युवा पुत्र था। एक बार देवकुरु नामके तपखी आचार्य संघके साथ मिथिला नगरीके उधानमें आकर ठहरे। उनका आगमन सुनकर राजा सुभोग मुगियोंकी बन्दना करनेके लिये गया। और आचार्यको नमस्कार करके उनसे पूछने लगा--मुनिराज ! मैं यहाँसे मरकर कहाँ जन्म बँगा! राजाका प्रश्न सुनकर मुनिराज बोले-'हे राजेन्द्र | आजसे सातवें दिन बिजलीके गिरनेसे तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी और तुम मरकर अपने अशौचालयमें टट्टीके कीड़े होओगे । हमारे इस कंपनकी सध्यताका प्रमाण यह है, कि आज जब तुम यहाँसे जाते हुए नगरमें प्रवेश करोगे तो तुम मार्गमें एक भौरेकी तरह काले कुत्तेको देखोगे ।' मुनिके वचन सुनकर राजाने अपने पुत्रको बुलाकर उससे कहा, 'पुत्र ! आजसे सातवें दिन मरकर मैं अपने अशौचालयमें टट्टीका कीड़ा हूँगा। तुम मुझे मार देना।' पुत्रसे ऐसा कहकर राजाने अपना राजपाट छोड़ दिया और बिजली गिरनेके भयसे जलके अन्दर बने हुए महलमें छिपकर बैठ गया। सातवें दिन बिजलीके गिरनेसे राजाकी मृत्यु हो गई १व पेराहु, क म ग पिक्सह ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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