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________________ २२० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३१० रुदये सति चक्रमलिन्द्रमगाढं वेदकसम्यस्त्वं भवति । उकं च तथा । "दंसणमोहृदयादो उपज में पयत्यसणं । चलमलिमगार्ड तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ||" अनन्तानुबन्धिचतुष्कमिध्यात्वसम्यभिमन्यात्वानां षण्णाम् उदयक्षयात् सद्रूपोपशमात् दर्शनमोहस्य सम्यक्वस्य देशघातिनः उदद्यात् यत् तस्वार्थश्रद्धानं च मलिनमगाढं चोत्पद्यते तद्वेदकसम्यत्वमिति आनीहि । तस्य जघन्योत्कृष्टस्थितिः कियतीति चेत्, उकं च अन्तर्मुहकाले जघन्यतस्तत्प्रायोग्यगुणयुक्तः षट्षष्टिसागरोपमकालं चोत्कर्षतो विधिना । उक्तं च । “लोकप्पे तेरस अबुदकप्पे य होंति बावीसा । उवरिम एकतीसं एवं सव्वाणि छासठ्ठी ॥" सम्यक्त्चत्रयवन्तः संसारे कियत्काल स्थित्वा मुक्ति यान्ति ते तदुच्यते । “पुलपरिवर्तार्थ परतो व्यालीढवेदको पशमी । वसतः संसाराब्धी क्षायिकदृष्टिर्भवचतुष्कः ॥” इति ॥ ३०५ ॥ अथोपशमवेदकसम्यक्चानन्तानुबन्धिविसंयोजनदेशत्रतप्राप्तिमुत्कृष्टेन निगदति गिदि मुंचदि' जीवो वे सम्म से असंख-वाराओ । पदम कसाय - विणा संदेस ययं कुणदि उकस्सं ॥ ३१० ॥ प्रकृतिके रूप से उदयमें श्राता है। सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती है अतः वह सम्यक्त्वा घात नहीं करती किन्तु उसके उदयसे सम्यक्त्वमें चल, मलिन और अगाढ दोष होते हैं । जैसे एक ही जल अनेक तरंगरूप हो जाता है वैसेही जो सम्यग्दर्शन सम्पूर्ण तीर्थङ्करोंमें समान अनन्त शक्ति होनेपर मी 'शान्तिके लिये शान्तिनाथ समर्थ हैं और विघ्न नष्ट करनेमें पार्श्वनाथ समर्थ हैं इस तरह भेद करता है उसको चल सम्यग्दर्शन कहते हैं। जैसे शुद्ध स्वर्ण मलके संसर्गसे मलिन होजाता है वैसेही सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे जिसमें पूर्ण निर्मलता नहीं होती उसे मलिन सम्यग्दर्शन कहते हैं । और जैसे वृद्ध पुरुषके हाथमें स्थित लाठी कांपती है वैसेही जिस सम्यग्दर्शन के होते हुए भी अपने बनवाये हुए मन्दिर वगैरह में 'यह मेरा मन्दिर है' और दूसरेके बनवाये हुए मन्दिर बगैरह में 'यह दूसरेका है' ऐसा भाव होता है वह अगाढ सम्यग्दर्शन है। इस तरह सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ होता है । इसीसे इसका नाम वेदक सम्यक्त्व भी है; क्योंकि उसमें सम्यक्त्व प्रकृतिका वेदन- ( अनुभवन ) होता रहता है। कहा भी है- "दर्शनमोहनीयके उदयसे अर्थात् सर्वघाति अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके आगामी निषेकका सदवस्थारूप उपशम और वर्तमान निषेकोंकी बिना फल दिये ही निर्जरा होनेपर तथा सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होनेपर वेदक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ होते हुए भी नित्य ही कर्मोकी निर्जराका कारण है ।" क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागर है । सो लान्त स्वर्ग में तेरह सागर, अच्युतकल्पमें बाईस सागर और उपरिम ग्रैवेयक में इकतीस सागरकी आयुको मिलानेसे छियासठ सागरकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । तीनों सम्यग्दृष्टि जीव संसार में कितने दिन तक रहकर मुक्त होते हैं इस प्रश्नका उत्तर पहले दिया है। अर्थात् जो जीव वेदक सम्यक्त्वी अथवा उपशम सयक्ती होकर पुनः मिथ्यादृष्टि होजाता है वह नियमसे अर्ध पुल परावर्तन कालके समाप्त होनेपर संसारमें नहीं रहता, किन्तु मुक्त हो जाता है । तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि अधिक से अधिक चार भव तक संसारमें रहता है ॥ ३०९ ॥ आगे औपशमिक सम्यक्त्र, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अमन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशव्रतको प्राप्त I १] मुबदि । ' : ,
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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