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________________ -३१५] १२. धर्मानुप्रेक्षा २२१ [छाया-गृकाति मुमति जीवः द्वे सम्यक्त्वे असंख्यवारान् । प्रथमकषायविनाश देशवतं करोति उत्कृष्टम् ।। जीवः भव्यारमा उत्कृष्टम् उत्कृष्टेन असंख्यातबारान् पल्यासंख्यातेकभागवारमात्रान् सम्यक्त्वे प्रथमोपशमसम्यक्त्वं बेदकसम्यत व ते दे. गृह्णाति अङ्गीकरोति मुञ्चति च मिथ्यात्वाघुदयात् विनाशयति । च पुनः, प्रथमकषायविनाशम् भगन्तानुबग्धिकोषमानमायालोभकषायविनाशनं विसंयोजन परप्रकृयोपादान प्रत्याख्यानादिकषायसदृशविधानम् उत्कृष्टेन असंपवारान् पल्यासंख्यातेकभागमात्रधारान् करोति विदधाति । देशव्रतं संयमासंयमम् असंग्ल्यातधारान् पल्यासरख्यातेकभागमात्रबारान् ५ उत्कृष्टेन गृहाति मुभति । पश्चापरि नियमेन सिध्यत्येवेति तात्पर्यार्थः । तदुकं च । “सम्मत्तं देसजम अणसंजोजणविहिं च उकस्स । पालासंखेजदिम वारं पविजदे जीवो।" प्रथमोपशमसम्यक्त्व वेदकसम्यसव देशसयममनन्तानुबन्धिविसयोजनविधि च उरकृटेन पल्यासंख्यातकमागवारान् ५ प्रतिपद्यते जीवः उपरि नियमेन सिध्यत्येव ।। ३१० ॥ अथ सम्यम्दष्टेः तत्त्वश्रद्धानं गाधानयकेन ब्याचष्टे जो तश्चमणेयंत णियमा सहदि सत्तभंगेहिं । लोयाण पह-वसदो ववहार-पवत्तणटुं च ।। ३११॥ [छाया-यः तस्वमनेकान्तं नियमात् श्रद्दधाति सप्तमः । लोकानां प्रश्नवशात, व्यवहारप्रवर्तनाथ च॥ यः भध्यवरपुण्डरीकः सहदि श्रद्धाति निश्चयीकरोति रुचि विश्वास धत्ते। कि तत। तत्त्वानि जीवाजीवास्रवचन्धसंबरनिर्जरामोक्षा इति सप्ततस्व वस्तुपदार्थम् , नियमात निश्चयतः । कीरक्षं तत् तत्त्वम् । अनेकान्तम् अस्तिनास्तिनित्यानित्यमेदामेदा. बनेकधर्मविशिष्टम् । कैरनेकान्तं तत्त्वं श्रदधाति । सप्तमः कृत्वा । स्यादस्ति, स्यात् कथंचित विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादि करने और छोडनेकी संख्या बतलाते हैं । अर्थ-उत्कृष्टसे यह जीव औपशमिक सम्यक्त्र, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशवत, इनको असंख्यात बार ग्रहण करता और छोड़ता है।। भावार्थ-मव्यजीव उक्त चारोंको अधिक से अधिक पत्यके असंख्यात भाग वार ग्रहण करता और छोड़ता है। अर्थात् पत्यके असंख्यातवें भाग धार उपशम सम्यक्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । पल्यके असंख्यातवें भाग वार अनन्तानुबन्धी कषायको अग्रत्याख्यानावरण आदि रूप करता है और अधिकसे अधिक पस्यके असंख्यातवें भाग वार देशव्रत धारण करता है । इसके बाद मुक्त हो जाता है ॥३१०॥ आगे सम्यग्दृष्टिके तत्त्व श्रद्धानका निरूपण नौ गाथाओंसे करते हैं। अर्थ-जो लोगोंके प्रश्नोंके वशसे तथा व्यवहारको चलानेके लिये सप्तभंगीके द्वारा नियमसे अनेकान्त तत्त्वका श्रद्धान करता है तथा जीव अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोंको श्रुतज्ञान और श्रुतज्ञानके भेद नयों के द्वारा आदर पूर्वक मानता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ।। भावार्थ--जो भव्य श्रेष्ठ, कयंचित् अस्ति, कथंचित् नास्ति, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित मेदरूप, कथंचित् अमेदरूप इत्यादि अनेक घोसे विशिष्ट जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका सात भंगोके द्वारा निश्चयपूर्वक श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है। अर्थात् स्यात् अस्ति-खद्रव्य, खक्षेत्र, खकाल और स्वभावकी अपेक्षा तल सरस्वरूप है १ । स्यात् नास्ति-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा तत्त्व असत् खरूप है २ । स्यात् अस्ति नास्ति-खद्रव्य आदि चतुष्टयको अपेक्षा तत्त्व सत् है और परद्रव्य आदि चतुष्टय की अपेक्षा असत् है, इस प्रकार क्रमसे दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेपर तीसरा भङ्ग होता है ३ । स्यात् अवक्तव्य--एक साथ दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेपर तत्व कथंचित् अवक्तव्य है; क्योंकि वचन व्यवहार क्रमसे ही होता है अतः दोनों धर्मोको एक साथ कहना अशक्य है ४ । स्यात् अस्ति १सग वसादो।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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