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१०. लोकानुप्रेक्षा समये उत्पाद विनाश च गच्छतीति पर्यायः वा क्रमवी पर्यायः पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । पर्यायः विशेषरूपो भवेत् । विशेष्य द्रव्य विशेषः पर्यायः । हीति यस्मात् , सततं निरन्तरं द्रव्यमपि विशेषेण पर्यायरूपेण उत्पद्यते विनश्यति च ॥ २४ ॥ अ५ गुणखरूम निरूपयति
सरिसो जो परिणामो' अणाइ-णिहणो हवे गुणो सो हि।
सो सामण्ण-सरूवो उप्पजदि णरसदे णेय ॥ २४१॥ [छाया-सदृशः यः परिणामः अनादिनिधनः भवेत् गुणः स हि । स सामान्यखरूपः उत्पद्यते नश्यति नैव ॥] दीति निश्चितम् । स गुणो भवेत यः पदिशासः परिगलनस्वरूपमिति यावत : सदृशः सर्वत्र पायेषु सादृश्यं गतः । कीरक्षो गुणः अनादिनिधनः आद्यन्तरहितः, सोऽपि च मुशः सामान्यस्वरूपः परापरविर्तव्यापी सपः इष्यत्वरूपः जीवस्वादिरूपश्च स गुणः न उत्पद्यते नेव विनश्यति । यथा जीवे ज्ञानादयः गुणाः 'सहभाविनो गुणाः' इति वचनात, तथा च जीवादिद्रव्याणां सामान्यविशेषगुणाः कथ्यन्ते ॥ अस्तित्व १ वस्तुत्वं २ व्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुकलपुत्वं ५चेतनवं ६ प्रवेशत्वम् ७ अमूर्तस्वमू 4 एते अष्टो जीवस्य सामान्यगुणाः । अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि ४ अमूर्सत्वं ५ चेतनत्यम् ६ एतेषद जीवस्य विशेषभुणाः । धर्माधर्माकाशकास्यानां प्रत्येकम् अस्तित्व १ वस्तुस्वं २ द्रव्यरवं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलघुत्वं ५ प्रदेशस्वम् ६ अचेतनत्वम् ७ अमूवम् ८ एते अष्टी सामान्यगुणाः। अदलानाम् मस्तित्व १ वस्तुत्वं २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलावुत्व ५ प्रदेशत्वम् ६ अचेतनत्वं ७ मूतत्यम् ८ एते अष्टौ सामान्यगुणाः । अपेक्षा नहीं । [ यहाँ इतना विशेष वक्तव्य है कि टीकाकारने जो अन्वयका अर्थ नरनारकादि पर्याय किया है वह ठीक नहीं है। अनु-अयः अन्वय का अर्थ होता है वस्तुके पीछे पीछे उसकी हर हालतमें साथ रहना | यह बात नारकादि पर्यायमें नहीं है किन्तु गुणोंमें पाई जाती है । इसीसे सिद्धान्तमें गुणोंको अन्वयी और पर्यावोंको व्यतिरेकी कहा है ] ॥ २४० ॥ आगे गुणका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-द्रव्यका जो अनादि निधन सदृश परिणाम होता है वही गुण है। यह सामान्यरूप न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । भावार्थ-द्रव्य परिणमनशील है, परिणमन करना उसका खभाव है। किन्तु द्रव्यमें होनेवाला परिणाम दो प्रकारका है-एक सदृश परिणाम, दूसरा विसदृश परिणाम । सदृश परिणामका नाम गुण है और विसदृश परिणामका नाम पर्याय है । जैसे जीव द्रव्यका चैतम्यगुण सब पर्यायोंमें पाया जाता है। मनुष्य मरकर देव हो अथवा तिर्यच हो, चैतन्य परिणाम उसमें अवश्य रहता है। चैतन्य परिणामकी अपेक्षा मनुष्य, पशु वगैरह समान हैं क्योंकि
चैतन्य गुण सबमें है । यह चैतन्य परिणाम अनादि निधन है, न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । अर्थात् किसी जीवका चैतन्य परिणाम नष्ट होकर वह अजीव नहीं हो जाता और न किसी पुद्गलमें चैतन्य परिणाम उत्पन्न होनेसे वह चेतन होजाता है | इस तरह सामान्य रूपसे वह अनादि निधन है । किन्तु विशेषरूपसे चैतन्यक भी नाश और उत्पाद होता है; क्योंकि गुणोंमें मी परिणमन होता है । यहाँ प्रकरणवश जीवादि द्रव्योंके सामान्य और विशेष गुण कहते हैं-अस्तित्व, वस्तुस्व, द्रव्यत्व, प्रमेयन, अगुरुलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, प्रदेशत्व, मूर्तत्व और अमर्तत्व, ये द्रव्योंके दस सामान्य गुण हैं । इनमेंसे प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ सामान्य गुण होते हैं। क्योंकि जीव द्रव्यमें अचेतनत्य और भूतत्व ये दो गुण नहीं होते, और पुद्गल द्रव्यमें चेतनत्व और अमूर्तत्व ये दो गुण नहीं होते । तथा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रच्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें चेतनव
१ व सरिसडऽजोप'. स सो परिणामों जो । २७ वि ।