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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २३९जो उप्पज्जदि जीवो दव-सरूवेण णेवं णस्सेदि । तं घेव दव-मित्तं णिच्चत्तं जाण जीवस्स ॥ २३९ ॥ [छाया-न उत्पद्यते जीवः सगस्वरूपेण नैव मयति । तत न दव्यमा नित्यत्वं जानीहि जीवस्य ॥] जाण जानीहि, जीवस्य आत्मनः तं च तदेव द्रव्यमानं सत्तास्वरूपं नित्यत्व ध्रुवत्वं विद्धि त्वम् । जीवः द्रव्यखरूपेण सत्ताखरूपेण भुवस्वेन जीवस्वेन पारिणामिकभावेन वा न उत्पयते न च नश्यति । उत्पादचयो जीवस्य भयेते चेत् ताई नूतनतत्त्वोत्पत्तिः स्वाहीकृततत्वविनाशच जायते इति तात्पर्यम् । अनादिपारिणामिकभावेन निश्चयनयेन वस्तु न व्येति न चोदेति किंतु धुवति स्थिरीसंपद्यते यः स धुवः तस्य भावः कर्म वा प्रीव्यम् इति ॥ २३९ ॥ अथ द्रव्यपर्याययोः खरूपं व्यनक्ति अण्णइ-रुवं दचं विसेस-रूवो हवेइ पज्जावों। दर्ष पि विसेसेण हि उप्पज्जदि णस्सदे सददं ॥ २४०॥ [छाया-अन्वयिरूपं द्रव्य विशेषरूपः भवति पर्यायः । द्रव्यम् अपि विशेषेण हि उत्पयते नश्यति सत्ततम् ॥] द्रव्य जीवादिवस्तु अन्वयिरूपम् अन्वयाः नरनारकादिपर्याया: विद्यन्ते यस्य तत् अन्वमि तदेव स्पं स्वरूप यस्य तत् । तथोक्तम् । इति द्रोष्यति भन्नुवत् स्वगुणपर्यायान इति द्रव्यम् । खभावविभावपर्यायरूपतया परि समन्तात् माति परि.. गच्छति परिप्रायोति परिणमतीति यः स पर्यायः स्वभावविभावायरुपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः । अथवा पर्येति समये जाता है ।। २३८ ॥ आगे द्रव्योंमें ध्रुवत्वको बतलाते हैं । अर्थ-द्रव्य रूपसे जीत्र न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है अत: द्रव्यरूपसे जीवको निल्य जानो ।। भावार्थ-जीव द्रव्य अथवा कोई मी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । यदि द्रव्यका नाश और द्रव्यका ही उत्पाद माना जाये तो माने गये छ: द्रव्योंका नाश हो जायेगा और अनेक नये नये द्रव्य उत्पन्न हो जायेंगे। अतः अपने अनादि पारिणामिक खभावसे न तो कोई द्रव्य नष्ट होता है और न कोई नया द्रव्य उत्पन्न होता है | किन्तु सब द्रव्य स्थिर रहते हैं । इसीका नाम प्रौव्य है ! जैसे मृत्पिण्डका नाश और घट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर भी मिट्टी ध्रुव रहती है। इसी तरह एक पर्यायका उत्पाद और पूर्व पर्यायका नाश होनेपर भी वस्तु भुव रहती है । यह उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ही द्रव्यका खरूप है ॥ २३९ ॥ आगे द्रव्य और पर्यायका खरूप बतलाते हैं । अर्थ-वस्तु के अन्वयीरूपको द्रव्य कहते हैं और विशेषरूपको पर्याय कहते हैं । विशेष रूपकी अपेक्षा द्रव्य भी निरन्तर उत्पन्न होता और विनष्ट होता है ॥ भावार्थ-यस्तुकी प्रत्येक दशामें जो रूप बराबर अनुस्यूत रहता है यही अन्वयी रूप है, और जो रूप बदलता रहता है वह विशेष रूप है । जैसे जीवकी नर नारक आदि पर्याय तो आती जाती रहती हैं और जीत्रत्व उन सबमें बराबर अनुस्यूत रहता है। अत: जीवत्व जीवका अन्वयी रूप है और नर नारक आदि विशेषरूप हैं । जब किसी बालकका जन्म हुआ कहा जाता है तो वह वास्तव में मनुष्य पर्यायका जन्म होता है, किन्तु वह जन्म जीव ही लेता है इस लिये उसे जीवका , जन्म कहा जाता है। वास्तवमें जीव तो अजन्मा है । इसी तरह जब कोई भरता है तो वास्तवमें उसकी वह पर्याय छूट जाती है । इसीका नाम मृत्यु है। किन्तु जीव तो सदा अमर है । अतः पर्यायकी अपेक्षा द्रव्य सदा उत्पन्न होता और विनष्ट होता है किन्तु द्रव्यत्वकी १ण । २७ म सगणेय । बजाणि। ४ ल म स ग पजाओ (उ)।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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