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________________ -२३८] १०. लोकानुभेक्षा पशुकादिस्कन्धः पर्यायः । यस्परमाणूनामेकत्र मिलनं स उत्पादः, यत्परमाणूनां पृथग्भवनं स व्ययः । स्कन्धोत्पत्तिविनाशा उत्पादव्ययों इत्यर्थः । पृथक्परमाणुस्वरूपेण ध्रौव्यम् । धर्मः द्रव्य, खयमेव गतिलहायलक्षणो गुणः, लोकप्रमाणपर्यायः, पुदलजीवयोः गत्या उत्पादः, तयोः स्थित्या व्ययः, दव्यत्वेन धोव्यम् , अथवा अगुरुलघुमुगस्य पक्षणहान्या पक्षा च उत्पादव्ययाविति । अधर्मः द्रव्यम् , स्थितिराहायलक्षण गुणः, लोकप्रमाणपर्यायः, पुद्गलजीवयोः स्थित्या उत्पादः, तयोजीवपुद्गलयोः गत्या व्ययः, व्यत्वेन ध्रुवत्वम् , अथवा अगुरुल घुगुणस्य षद्गुणहान्या या च उत्पादब्ययो । आकास द्रव्यम्, खयम् अवकाशदानलक्षणो गुणः लोकेऽलोकच व्याप्तित्वपयायः, घटायाकाशम्य उत्पादः, तदा पटायाकाशस्य ध्ययः, दव्यत्वेन ध्रौव्यम् अथवा अगुरुलघुगुणस्य पदणहानिया उत्पादव्ययौ । कालान्य कालाणुरूपः, नवजीर्णताकरणलक्षणो गुणः, समयमुहर्तदिनपक्षमासवर्षादिरूपः पर्यायः, एकसमयोत्पत्ती उत्पादः, उत्पादपूर्वसमये गवे व्ययः, इब्यावेन श्रीव्यम्, अथवा अगुरुलघुगुणस्य पडणहान्या वृल्या उत्पादव्यन्या इति ।। २३७॥ अथ जीवादिद्रव्यस्य रूपयोत्पादों को इत्युक्ते प्राह पडिसमयं परिणामो पुनो णस्सेदि जायदे अण्णो । वत्थु-विणासो पढमो उववादो भण्णदे बिदिओ' ॥ २३८ ॥ [प्रया-प्रविसमयं परिणामः पूर्वः नश्यति जागते अन्यः । वस्तुविनाशः प्रथमः उपपादः भण्यते द्वितीयः ॥] प्रतिसमय समय समय प्रति, परिणामः पूर्वः पूर्वपरिणामः प्रथमपर्यायः, यथा मृरभ्यस्य घटलक्षणः नश्यति विनश्यति अन्यः द्वितीयः परिणामः पर्यायः कपालमालादिलक्षणः जायते उत्पद्यते, तत्र तयोर्मध्ये प्रथमः पाद्यो वस्तुविनाशः ध्वय इत्यर्थः । ननु वस्तुनो विनाशः तर्हि सौगतमतप्रसंग: स्यात् इति चेल । बसशब्देन वसुपर्याय स्यैव प्रहणात्, पर्यायपोषिणोरभेदोपचारात् सत्पत्तिलक्षणः द्वितीयः उत्पादो भण्यते। पूर्वभावस्य व्ययनं विगमन विनशन व्ययः, द्रव्यस्य निजी जातिमजहतः निमित्तवशात् भावान्तरप्राप्तिः उत्पादनम् उत्पादः इति द्वयोनिरुक्तिः ॥२३८॥ अथ द्रव्यस्य भुवत्वं निश्चिनोति दोनों लक्षण वास्तवमें दो नहीं हैं किन्तु दो तरहले एकही बातको कहते हैं । गुण और पर्यायोंके समुदायका नाम द्रव्य है । यदि प्रत्येक न्यसे उसके गुण और पर्यायोंको किसी रीतिसे अलग किया जा सके तो कुछ भी शेष न रहेगा । अतः गुण और पर्यायोंके अखण्ड पिण्डका नाम ही द्रव्य है । उसमें गुण व होते हैं और पर्याय एक जाती और एक आती है । जैसे सोनेके कड़े मंगूठी और हार बगैरह जेवर बनानेपर भी उसका पीतता गुण कायम रहता है और कड़ा पर्याय नष्ट होकर अंगूठी पर्याय उत्पन्न होती है तथा अंगूठी पर्यायको नष्ट करके हार आदि पर्याय उत्पन्न होती है । अतः द्रव्य गुणवाला होता है या द्रव्य नुव होता है ऐसा कहने में कोई अन्तर नहीं है | इसी तरह द्रव्य पर्यायवाला होता है अथवा उत्पादळ्यययुक्त द्रव्य होता है इस कयनोंमें भी कोई अन्तर नहीं है। इसीसे ग्रन्थकारने यह कहा है कि जो द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव है वही गुणपर्याय खभाव है ।। २३७ ।। आगे द्रव्योंमें उत्पाद व्ययको बतलाते हैं । अर्थ-प्रति समय वस्तुमें पूर्व पर्यायका नाश होता है और अन्य पर्यायकी उत्पत्ति होती है। इनमेंसे पूर्व परिणामरूप वस्तुका नाश तो व्यय है और अन्य परिणामरूप वस्तुका उत्पन्न होना उत्पाद है । भावार्थ-वस्तु तो न उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। किन्तु वस्तुकी पर्याय नष्ट होती और उत्पन्न होती है। तथा पर्याय वस्तुसे अभिन्न है इसलिये पर्यायके नाश और उत्पादको वस्तुका नाश और उत्पाद कहा १ ब-पुस्तके णउ उप्पजदि इत्यादि गाभा प्रथमं तदनन्तरं पनिसमयं इत्यादि। ६. व भण्णर विदिउ । कार्तिक २१
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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