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________________ १७२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | गा० २४२ स्पर्शरसगन्धवर्णाः ४ अचेतनत्वं ५ मूर्तत्वं ६ पुद्रलसर विशेषगुणाः । गतिहेतुत्वम् १ व्यचेतन २ अमूर्तत्वं धर्मस्व विशेषगुणाः । स्थितिहेतुत्वम् १ अचेतनत्वम् २ अमूर्तत्वम् ३ एते अधर्मस्य विशेषगुणाः । अवगाहनत्वम् १ अचेतनत्वम् २ अमूर्तत्वम् ३ इत्याकाशस्य विशेषगुणाः । वर्तनाहेतुत्वम् १ अचेतनत्वम् २ अमूर्तत्वम् ३ इति कालस्य विशेषगुणतः ॥ २४१ ॥ अच पर्यायखरूपं द्रव्यगुणयमाणामेकत्वमेव द्रव्यं व्याचष्टे सो वि विणस्सदि जायदि विसेस-रूवेण सब-दबेसु । देव-गुण-पज्जयाणं एयत्तं वत्युं परमत्थं ॥ २४२ ॥ [ छाया - सः अपि विनश्यति जायतं विशेषरूपेण सर्वद्रव्येषु । पर्येयाणाम् एकत्वं वस्तु परमार्थम् ॥ ] सर्वद्रव्येषु वेतनाचेतन वस्तुषु सोऽपि सामान्यस्वरूपः द्रव्यत्वसामान्यादिः विशेषरूपेण पर्यायस्वभावेन विनश्यति और मूर्तत्व गुण नहीं होते। इस तरह दस सामान्य गुणोंमेंसे दो दो गुण न होनेसे प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ गुण होते हैं । तथा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस गन्ध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तस्व, अमूर्तत्व ये द्रव्योंके सोलह विशेष गुण हैं । इनमेंसे अन्तके चार गुणोंकी गणना सामान्य गुणोंमें भी की जाती है और विशेष गुणोंमें भी की जाती है। उसका कारण यह है कि ये चारों गुण स्वजातिकी अपेक्षासे सामान्य गुण हैं और विजातिकी अपेक्षासे विशेष गुण हैं । इन सोलह विशेष गुणों से जीव द्रव्यमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनाव और अमूर्तत्व ये छः गुण होते हैं । पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ष, सूर्तत्व, अचेतनत्व ये छः गुण होते हैं। धर्म द्रव्यमें गतिहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये तीन विशेष गुण होते हैं । अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुस्त्र, अमूर्तत्व, अचेतनस्य ये तीन विशेष गुण होते हैं। आकाश द्रव्यमें अवगाहनहेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व ये तीन विशेष गुण होते हैं । और काल द्रव्यमें वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तस्व अचेतनत्व ये तीन विशेष गुण होते हैं। जो गुण सन द्रव्यों में पाया जाता है उसे सामान्य गुण कहते हैं और जो गुण सब द्रव्योंमें न पाया जाये उसे विशेष गुण कहते हैं। सामान्यगुणोंमें ६ गुणका स्वरूप इस प्रकार है-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका कमी नाश नहीं होता उसे अस्तित्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमित्तले द्रव्यमें अर्थक्रिया हो उसे वस्तुस्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य सर्वदा एकसा न रहे और उसकी पर्यायें बदलती रहें उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। जिस शक्ति के निमित्तसे द्रव्य किसी न किसीके ज्ञानका विषय हो उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमिरासे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमन न करे और एक गुण दूसरे गुणरूप परिणमन न करे तथा एक द्रव्यके अनेक गुण बिखरकर जुदे जुदे न हो जायें उसे अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका कुछ न कुछ आकार अवश्य हो उसे प्रदेशवस्त्र गुण कहते हैं। ये गुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं ॥ २४१ ॥ आगे कहते हैं कि गुण पर्यायोंका एकपनाही द्रव्य | अर्थ समस्त द्रव्योंके गुण मी विशेष रूपसे उत्पन्न तथा विनष्ट होते हैं। इस प्रकार द्रव्य गुण और पर्यायोंका एकत्वही परमार्थसे वस्तु है | भावार्थ - उ - ऊपर बतलाया था कि सामान्य रूपसे गुण न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं । यहाँ कहते हैं कि विशेष रूपसे गुणभी उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं । अर्थात् गुणोंमें भी १ मवस्युं ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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