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________________ - ७१] ३. संसारानुप्रेक्षा श्यादि -गदी अवर-द्विदिदो वर-द्विदी जाव' । सव्व-द्विदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज्ज -पजंतं ॥ ७० ॥ ३५ [ छाया-नैरयिकादिगतीनाम् अपरस्थितितः वरस्थिति यावत् । सर्वस्थितिष्यपि जायते जीव: मैत्रेयकपर्यन्तम् ॥ ] जीवः संसार्यात्मा नरकादिगतीनां चतसृणाम् अवरस्थितितः जघन्य स्थितिमारभ्य उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्तम् । तथा हि नरकगतो जघन्या सुर्दशसहस्रवर्षाणि तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः संसारे भ्रान्त्वा तेनैवायुषा तत्रोत्पन्नः । एवं दशवर्षसहस्रसमयवारे तत्र यत्पच मृतश्च । पुनः एकैकसमयाधिक्येन त्रय शिसागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । पश्चातिर्यगतौ अन्तर्मुहूर्तायुधोत्पन्नः प्राग्वत् तत्समयवारम् उत्पन्नः समयाधिक्येन त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवेन परिसमाप्यन्ते । एवं मनुष्यगतावपि । नरकगतिवत् देवगतावपि । तत्रायं विशेष: । उत्कर्षतः एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । एवं आन्त्यागत्य पूर्वोकजघन्यस्थितिको नारको जायते । तदेतत्सर्वं समुदितं भवपरिवर्तनम् | उकं च । 'णिरयाउना जद्दण्णा जी उवरिक्रमाडु गेरजो जीवो मिच्छत्तवसा भवद्विषे हिंडिदो बहुसो ॥ ७० ॥ अष भावपरिवर्तन निरूपयति I परिणमदि सण्ण-जीवो विविह कसा एहिं ठिदि-निमित्ते हि । अणुभाग - णिमितेहि य वर्द्धतो भाव-संसारे ॥ ७१ ॥ अब परिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-संसारी जीव नरकादिक चार गतियोंकी जघन्य स्थिति से लेकर कृष्ट स्थितिपर्यन्त सत्र स्थितियों में ग्रैवेयक तक जन्म लेता है ॥ भावार्थ- नरकगतिमें जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। उस आयुको लेकर कोई जीव प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके भर गया । पुनः उसी आयुको लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय हैं, उतनी बार दस हजार वर्षकी आयु लेकर प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ। पीछे एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर दो समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते नरकगतिकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण करता है । फिर तिर्यश्च गति में अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहले की ही तरह अन्तर्मुहूर्तके जितने समय होते हैं, उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ । फिर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते तिर्यञ्चगतिक उत्कृष्ट आयु तीन पक्ष्य समाप्त करता है । फिर तिर्यञ्चगति ही की तरह मनुष्यगतिमें भी अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयुसे लेकर तीन पल्यकी उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है । पीछे नरकगतिकी तरह देवगतिकी आयुको भी समाप्त करता है । किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि वहाँ इक्तीस सागरकी ही उत्कृष्ट आयुको पूर्ण करता है, क्योंकि ग्रैवेयकमें उत्कृष्ट आयु इकतीस सागरकी होती है, और मिध्यादृष्टियों की उत्पत्ति प्रैवेयक तक ही होती है। इस प्रकार चारों गतियोंकी आयु पूर्ण करनेको भवपरिवर्तन कहते हैं। कहा भी है- 'नरककी जघन्य आयुसे लेकर ऊपरके मैवेयक पर्यन्तके सब भवोंमें यह जीव मिध्यात्वके आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है ।' ॥ ७० ॥ अभावपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-सैनीजीव जघन्य आदि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण तथा अनु १] अमरद्विदिदो वरिट्ठिदी । २ व जाम । ३ म भावे [भ] । थ प्रतिमें इस गाथा के बीच और बाद नाके कुछ शब्द लिखे गये हैं, इसलिए किसी दूसरेने हासिये में यह गाथा लिखी है। गाथाके अन्तमे भवो' शब्द है । ४ [ जादु ] ५ क स ग संसारी ६ व भावसंसारो, म भाव ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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