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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ७१ [ छाया-परिणमते संशिजीवः विविधकषायैः स्थितिनिमितैः । अनुभागनिमितै वर्तमानः भावसारे ॥ ] भावसंसारः भावपरिवर्तनम् संज्ञिजीवः मिध्यादृष्टिः बेन्द्रियपर्याप्तकः प्राणी स्वयोग्य सर्व जघन्यां ज्ञानावरणप्रकृतिमन्तःकोटाकोटि प्रमितां बभ्राति । तस्य जीवस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकमा श्राणि जघन्य स्थितियोग्यानि । राज सर्वैजघन्यकषायाध्यवसाय स्थानं सर्वजघन्यानुभागबन्धाभ्यवसायस्थानं च प्राप्तस्य तथोग्य सर्वेअघन्यं योगस्थानं भवति । तेषामेव स्थिति कषायाध्यवसायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येय भागयुकं योगस्थानम् । एवमसंख्यात भागद्विख्यात भागवृद्धि संख्यात गुणवृद्धि - असंख्यात गुणाख्यचसुः स्थान वृद्धिपतितानि श्रेष्यसंख्येयभागश्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तदेव कषायाध्यवसायस्थानमा स्कन्दतो द्वितीयमनुभागवन्धाध्यवसायस्थान भवति । तस्यापि योगस्थानानि पूर्वोक्तान्येव ज्ञातव्यानि । एवं तृतीयादिष्वप्यनुभागाध्यवसायस्थाने संख्यात लोकपरिसमाहिपर्यन्तेषु प्रत्येक योगस्थानानि नेतव्यानि । एवं तामेव स्थिति बनतो द्वितीयं कथायाध्यवसानस्थानं मदति । तस्याभ्यनु भागवन्धाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च प्राग्वत् ज्ञातव्यानि । एवं तृतीय। दिकषायाध्यवसायस्थानेष्व संख्यात लोकमात्रपरिसमासिपर्यन्तेष्ववृत्तिक्रमो शातव्यः । ततः समयाधिक स्थितेरपि स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानानि प्राग्वदसंख्येग लोक ३६ भागबन्धके कारण अनेक प्रकारकी कषायोंसे, तथा 'च' शब्द से श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थानोंसे वर्धमान भावसंसार में परिणमन करता है || भावार्थ - योगस्थान, अनुभागवन्धाध्यवसायस्थान कषायाध्यवसायस्थान और स्थितिस्थान, इन चारके निमित्तसे भावपरिवर्तन होता है। प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके कारण आत्मा प्रदेशपरिस्पन्दरूप योग के तरतमरूप स्थानोंको योगस्थान कहते है । अनुकारण कषायके तरतमस्थानोंको अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। स्थितिबन्धके कारण कषायके तरतमस्थानोंको कषायस्थान या स्थितिबन्धाव्यवसायस्थान कहते हैं । बँधनेवाले कर्मकी स्थिति भेदोंको स्थितिस्थान कहते हैं। योगस्थान श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । तथा कषायाध्यवसायस्थान भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं । मिथ्यादृष्टी पश्चेन्द्रिय, सैनी, पर्याप्त कोई जीव ज्ञानावरणकर्मकी अन्तः कोड़ाकोडी सागरप्रमाण जघन्यस्थितिको बाँधता है। उस जीवके उस स्थितिके योग्य जघन्य कषायस्थान, जघन्य अनुभाग ०स्थान और जघन्य ही योगस्थान होता है । फिर उसी स्थिति, उसी कवाय० स्थान और उसी अनुभाग० स्थानको प्राप्तजीवके दूसरा योगस्थान होता है । जब सब योगस्थानोंको समाप्त कर लेता है तब उसी स्थिति और उसी कषाय ० स्थानको प्राप्तजी के दूसरा अनुभाग० स्थान होता है। उसके योगस्थान मी पूर्वोक्त प्रकार ही जानने चाहिये । इस प्रकार प्रत्येक अनुभाग० स्थानके साथ सब योगस्थानों को समाप्त करता है। अनुभाग० स्थानोंके समाप्त होनेपर, उसी स्थितिको प्राप्त जीवके दूसरा कषाय० स्थान होता है । इस कषाय० स्थानके अनुभाग० स्थान तथा योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिये । इस प्रकार सब कषाय० स्थानोंकी समाप्तितक अनुभाग० स्थान और योगस्थानोंकी समाप्तिका क्रम जानना चाहिये । कषाय ० स्थानोंके मी समाप्त होनेपर वही जीव उसी कर्मकी एक समय अधिक अन्तःकोड़ा को डीसागरप्रमाण स्थिति बाँधता है । उसके भी कषाय० स्थान, अनुभागस्थान तथा योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिये । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागर पर्यन्त प्रत्येक स्थिति के कषाय० स्थान, अनुभाग ०स्थान और योगस्थानोंका क्रम जानना चाहिये। इसी प्रकार समस्त मूल और उत्तर प्रकृतियों में समझना चाहिये । अर्थात् प्रत्येक मूलप्रकृति और प्रत्येक उत्तरप्रकृतिकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त प्रत्येक स्थितिके साथ पूर्वोक्त सब कषाय० स्थानों, अनुभाग स्थानों
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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