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________________ ३. संसारानुप्रेक्षा मात्राणि भवन्ति एवं समयाधिकक्रमेणोत्कृष्टस्थितिपर्यन्तं त्रिशस्सागरोपमकोटाकोरिप्रमितस्पितेरपि स्थितिकापायचायस्थानान्यनुभागबन्धाभ्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च ज्ञातव्यानि । एवं मूलप्रकृतीनाम् उत्तरप्रकृतीनो र परिवारलामो ज्ञातव्यः । तदेतत्सर्व समुदित भावपरिवर्तनं भवति पिरिणमति परिणामान् प्रामोतीति भारसंसारगीरक्षः सन् । देगाना सन।* : निधिवन, असंहया लोकमात्रषायाम्यवसायैः । कोरक्षः । स्थितिनिमित्ता, कर्मणां जन्यापुत्कृष्ट स्थितिबन्धकारणैः । पुनः कीरक्षः । अनुमागनिमित्तः (अनुभाग: फलदानपरिणतिः लस निमितः परः। यशब्दात् पसंख्येयभागयोगस्थानः । इति भावसंमारः ॥ १॥ एवं पश्चपरिवर्तनान्युपसहरति एवं अणाइ-काले पंच-पयारे' भमेइ संसारे । णाणा-दुक्ख-णिहाणो जीवो मिरछत्त-दोसेण ॥ ७२ ॥ [छाया-एवम् अनादिकाले पश्चप्रकारे प्रमति संसारे । नानादुःलनिधानः जीवः मिथ्यावादोरेण ॥] एवं पूषों प्रकारेण, संसारे भने, जीच. अनादिकालं प्रमति भ्रमणं करोति । केन । मिथ्यात्व दोषेण, मिथ्यात्वलक्षणदोषतः । श्ररो। पाचप्रकारे, अभ्यादिपक्ष मेदमिझे । पुनः कीरक्षे । नानादुःखनिधाने, अनेकाशोत्पत्तिनिमिते ॥ १ ॥ इय-संसार जाणिय मोहं सपायरेण चाइऊणं ।। तं झायह स-सरूंवं संसरण जेण णासेइ ॥ ७३ ॥ [छाया-इति संसार शात्या मोहं सदरेण त्यतया । तं ध्यायत व स्वरूप संसरण येन नश्यति ॥] से प्रसिद्ध खसंभावं शुदोषमयस्वरूप ध्यायत यूयै स्मरत, येन ध्यातेन नश्यति विनाशमेति । किम् । संसरणं पसंसारभ्रमणम् । किरवा । सोदरण सम्यक्त्वतध्यानादिसर्वोयमेन त्यक्त्या मुसवा । कम । मोह, ममत्वपरिणाममोहनीयम। करवा पुनः । इति पूर्वा सर्व शाश्वा अवगम्य । कम् । संसारम् ॥ ३॥ संम्ररन्त्यत्र संसारे जीवा मोहविपाकतः । स्तषीमि तापरित्यक सिद्ध शुर्वचिदात्मकम् ॥ इति श्रीखामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाक्षिनिषधिद्याधरषडाषाकदि चक्रवर्तिभधारकश्रीशुभमनदेवविधितटीकायां संसारानुप्रेक्षायां तृतीयोऽधिकारः ॥॥ और योगस्थानोंको पहलेकी ही तरह लगा लेना चाहिये । इस प्रकार सब कर्मोकी स्थितियोंको भोगनेको भाषपरिवर्तन कहते हैं । इन परिवर्तनोंको पूर्ण करनेमें जितना काल लगता है, उतना काल मी उस उस परावर्तनके नामसे कहाता है ।। ७१॥ [ श्ले० सा० में भावपरावर्तके भी दो भेद है । असेख्यातलोकप्रमाण अनुभागबन्धस्थानों में से एक एक अनुभागबन्धस्थानमें क्रमसे या अक्रमसे मरण करते करते जीव जितने समयमें समस्त अनुभागबन्धस्थानोंमें मरण कर चुकता है, उतने समपको बादर भावपरावर्त करते हैं। तथा जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अनुभाग स्थान पर्यन्त प्रत्येक स्थानमें क्रमसे मरण करनेमें जितना समय लगता है, उसे सूक्ष्मभाव परावर्त कहते हैं । थे० सा में प्रमेक परावर्तके नामके साथ पुनल शब्द मी जुड़ा रहता है । यथा-द्रव्य पुद्गल परावर्त, क्षेत्र पुद्गल परावर्तकाल पुल परावर्त आदि । अनु० ] पाँच परिवर्तनोंका उपसंहार करते हैं । अर्थ-इस प्रकार अनेक दुःखोंकी उत्परिक कारण पाँच प्रकारके संसारमें, पह जीव मिथ्यात्वरूपी दोषके कारण अनादि कालतक भ्रमण करता रहता है ||७२ ।। अर्थ-इस प्रकार संसारको जानकर और सम्यक्त्व, व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायोंसे मोहको सागफर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूपका ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकारके संसारभ्रमणका नाश होता है ॥ ७३ ।। इति संसारानुप्रेक्षा ॥ ३ ॥ चमणामकाले समसगमणकार्क। २ पयारे भमर सं०।३ळ मल ग ससहाव। ५.मसंसारातुमेक्षा । संसार।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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