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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा०६७[छाया-बध्नाति मुन्नति च जीवः प्रतिसमय फमैपुद्गलान् विविधान् । नोकर्मपुद्गलानपि च मिथ्यात्वकषायसंयुक्तः॥] जीयः संसारी प्राणी पश्चमिध्यास्वपश्चविंशतिकषायवशात् प्रतिसमय, समय समय प्रति, कर्मपुतलान् शामावरणादिसप्तकर्मयोग्यान् कर्मवर्गणायातपुतलस्कन्धान, सिम्धरूक्षवर्णगन्धादिभिः तीनमन्दमध्यमभावेन यथावस्थितान् योग्यान्न भनेकप्रकारान्, अपि च, नोकर्मपुरलान्, शरीरत्रयस्य पदपर्याप्तियोग्यपुदलान, मधाति योगवशात् बन्ध नयति, मुश्चति स्वस्थितिकाल स्थित्वा जीर्णयति । उत्तं च सर्वेऽपि पुद्रलाः खल्वेकेनात्तोनिताच मीथेन । बसकहानन्तमूस्वः पुदलपरिवर्तसंसारै ॥ इति भगहिदमिस्सयगहिद मिस्सममहिद तहेव गहिद च । मिस्स गहिदाग हिदं गहिद मिस्सं अगहिद च ।।'..x, x,..१,.x,..x,..१xx.,xx.,xx,xx., xx ..xxxx1,xx,xx.,xx,xx१,xx.। ११४, १४, ११., ११x,११४, ११.॥६॥अथ क्षेत्र परिवर्तनमाइ
स्वरूप कहते हैं । अर्थ-मिथ्या और कषायसे युक्त संसारी जीव प्रतिसमय अनेक प्रकारके कर्मपुनलों और नोकर्मपुगलोंको भी ग्रहण करता और छोड़ता है | भावार्थ-कर्मबन्धके पाँच कारण है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान है, क्योंकि ये मोइनीयकर्मके भेद हैं और सब कमि मोहनीयकर्म ही प्रधान और बलवान है । उसके अभावमें शेष सभी कर्म केवल निस्तज ही नहीं होजाते, किन्तु संसार परिभ्रमणका चक्र ही रुक जाता है। इसी लिये आचार्यने मिथ्यात्व और कषायका ही ग्रहण किया है । मिथ्यात्वके पाँच भेद हैं और कषायके पश्चीस भेद हैं । इन मिथ्यात्व और कषायके आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कमोके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको प्रतिसमय ग्रहण करता है । लोकमें सर्वत्र कार्माणवर्गणाएँ भरी हुई हैं, उनमेंसे अपने योग्यको ही ग्रहण करता है । तथा आयुकर्म सर्वदा नहीं बँधता, अतः सात ही कमोंके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको प्रतिसमय ग्रहण करता है । और आबाधाकाल पूरा होजानेपर उन्हें भोगकर छोड़ देता है । जैसे प्रतिसमय कर्मरूप होनेके योग्य पुगलस्कन्धोंको प्रहण करता है, वैसे ही औदारिक, वैक्रियिक और आहारक, इन तीन शरीरोंकी छह पर्याप्तियोंके योग्य नोकर्मपुद्गलोंको भी प्रतिसमय ग्रहण करता है और छोड़ता है । इस प्रकार जीव प्रतिसमय कर्मपुद्गलों और नोकर्मपुद्गलोंको ग्रहण करता और छोड़ता है । किसी विवक्षित समयमें एक जीवने ज्ञानावरण आदि सात कोंके योग्य पुगलस्कन्ध ग्रहण किये और आबाधाकाल बीतजानेपर उन्हें भोगकर छोड़ दिया । उसके बाद अनन्त बार अगृहीतका प्रहण करके, अनन्त बार मिश्रका ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीतका ग्रहण करके छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुल वैसे ही रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि भावोंको लेकर, उसी जीवके वैसे ही परिणामोंसे पुनः कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं । इसी तरह किसी विवक्षित समयमें एक जीवने तीन शरीरोंकी छह पर्याप्तियोंके योग्य नोकर्मपुद्गल प्रहण किये और भोगकर छोड़ दिये, पूर्वोक्त क्रमके अनुसार जब वे ही नोकर्मपुद्गल' उसी रूप-रस आदिको लेकर उसी जीवके द्वारा पुनः नोकर्मरूपसे ग्रहण किये जाते हैं, उसे नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन कहते हैं । कर्मव्य परिवर्तन और नोकर्मदव्यपरिवर्तनको द्रव्यपरिवर्तन या द्रव्यसंसार कहते हैं। कहा भी है-'पुद्गलपरिवर्तनरूप संसारमें इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमशः अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ा ।' जो पुद्गल पहले ग्रहण किये हों उन्हें गृहीत कहते हैं ।