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________________ ३. संसारानुप्रेक्षा ३३ सो को वि णस्थि देसो लोयायासस्स गिरवसेसरस । जत्थ ण सबो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ॥६८॥ [छाया-स कोऽपि नास्ति देशः लोकाकाशस्य निरवशेषस्य। पत्र न सर्वः जीवः जातः मृतश्च बहुवारम् ॥] लोकाशाशस्य श्रेणि छ धनमात्रस्य (= ३४३) निरबशेषस्य समप्रस्मसकोऽपि देशः प्रदेशो नास्ति न विद्यते । स का यत्र सर्यो जीवः समस्त संसारी जीवः, बहुबारम अनेकवारे यथा भवति तथा, न जातः न उत्पन्नः, न मृतब न मरण प्राप्तः । क्षेत्रपरिवर्तन देधा खपरमेदात् । तत्र म्वक्षेत्रपरिवर्तनं कश्चित्सूक्ष्मनिगोदजीवः सूक्ष्मजघन्यनिगोदावगाहेन उत्पमः स्खस्थितिं मीविश्वा मृतः पश्चाशोकादशाहोर महतारमैन मायामासान्तं अवगाहनानि करोति । परक्षेत्रपरिवर्तनं तु सूक्ष्मनिगोदोऽपर्याप्तकः सर्वं जयन्यावगाहनशरीरो लोकमध्या प्रदेशान् खशरीरमध्याष्टप्रवेशान् कृस्योत्पन्नः क्षुदभवकालं जीविस्वा मृतः । स एव पुनतेनैवावगाइनेन द्विवार त्रिवारम् एवं यावत् घनालासंख्येयभागवारं तत्रवोत्पनः पुनः एकप्रदेशाधिकभावेन सर्ष लोकं त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशत ३३ रजप्रमाणे खजन्मक्षेत्रभाव मयति इति परक्षेत्रपरिवर्तनम् । उक्तं च । 'सव्वाद लोयखेते कमसो त गस्थि जंग उच्छिण्णो । उग्गाहणार बहुसो हितो खेत्तसंसारे ॥१८॥ अथ कालपरिवर्तनं प्रतनोति जो पहले ग्रहण न किये हों, उन्हें अगृहीत कहते हैं । दोनोंके मिलावको मिश्र कहते हैं । इनके ग्रहणका क्रम पूर्वोक्त प्रकार है। [इस क्रमको विस्तारसे जाननेके लिये इसी शाखमालासे प्रकाशित गो० जीवकाण्ड (पृ० २०४) देखना चाहिये । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद किये गपे हैं-बादर द्रव्यपरिवर्तन और सूक्ष्म द्रव्यपरिवर्तन । दोनोंके खरूपमें भी अन्तर है, जो इस प्रकार है-'जितने समयमें एक जीव समस्त परमाणुओंको औदारिक, वैक्रिय, तेजस, भाषा, आनप्राण, मन और कार्माणशरीर रूप परिणमाकर, उन्हें भोगकर छोड़ देता है, उसे बादर द्रव्यपरावर्त कहते हैं । और जितने समयमें समस्त परमाणुओंको औदारिक आदि सात वर्गणाओंमेंसे किसी एक वर्गणारूप परिणमाकर उन्हें भोगकर छोड़ देता है, उसे सूक्ष्म द्रव्यपरावर्त कहते हैं ।' देखो हिन्दी पंचमकर्मग्रन्ध गाथा ८७ का, अनु० ॥ ६७ ॥ अब क्षेत्रपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-समस्तलोकाकाशका ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है, जहाँ सभी जीव अनेक बार जिये और मरे न हों । भावार्थ-यह लोक जगतश्रेणीका घनरूप है । सात राजूकी जगतश्रेणी होती है। उसका धन ३४३ राजू होता है। इन तीनसौ तेतालीस राजुओंमें सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके हैं । यही क्षेत्रपरिवर्तन है । वह दो प्रकारका होता है. स्वक्षेत्रपरिवर्तन और परक्षेत्रपरिवर्तन | कोई सूक्ष्मनिगोदियाजीव सूक्ष्मनिगोदियाजीवकी जघन्य अवगाहनाको लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। पश्चात् अपने शरीरकी अवगाहनामें एक एक प्रदेश बढ़ाते बढ़ाते महामत्स्यकी अवगाहनापर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है । इसे खक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । अर्थात् छोटी अवगाहनासे लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सत्र अवगाहनाओंको धारण करनेमें जितना काल लगता है उसको खक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। कोई जघन्य अवगाहनाका धारक सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकर्जीव लोकके आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ । पीछे वही जीव उस ही रूपसे उस ही स्थानमें दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ ।। १वसम्बे। ३१ जादो य मदो व पति पाठः परिवर्तितः। ३ गाथान्ते खेत, मखेते। ४ सर्वर'महामत्या १८ मगाई इति पाठ। कार्तिके.५
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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